Wednesday, September 5

"सुरभि"04सितम्बर2018




विधा :-दोहे

गो शालाएँ बन रही , गो है मात समान ।
सुरभि यजन हैं हो रहे , करते महिमा गान । ।१।।

श्याम सुरभि का दुग्ध हो , रहे कन्हैया याद ।
संस्कारी बच्चे बने , दुग्ध पान के बाद ।।२।।

गौ,गंगा, गीता करें , सबका ही कल्याण ।
जाति भेद को छोड़ कर, करो सुरभि यश गान ।।३।।

पथमेड़ा में है बनी , शाला सुरभि विशाल ।
पंचगव्य उपचार से , सम्पदा बेमिसाल ।।४।।

गोधन नंद बाबा का , रखा कृष्ण संभाल ।
गोचारण कारण बना , कहलाए गोपाल ।।५।।

अचल सम्पदा सुरभि है , करिए बहु संभाल ।
दूध पूत सम्पन्नता , करती मालामाल ।।६।।

गोवर्धन कान्हा किया , दूध दही भण्डार ।
सुरभि बोझ मत जानिए , देती क़र्ज़ उतार ।।७।।

गो वध कारण नाश का , होती संस्कृति ह्रास ।
सुरभि महक के सुरभि की, करती बुद्धि विकास ।।८।।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )



सुरभि कहाँ पर ढूढ़ूं कहीं मिलती नही
ैं कागजों के फूल तबियत खिलती नही ।।
कभी कपड़ा गलत कभी दर्जी गलत
मन मुताबिक कमीज कभी सिलती नही ।।

सुरभि को ढूढ़ा हमने बागों में
मँहगे मँहगे रेशम के धागों में ।।
अचानक आवाज आयी ''शिवम"
मैं तो रहती हूँ सत्य के रागों में ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 04/09/2018

शीर्षक - सुरभि 

1-
यादें सुरभि,
बेजुवां अहसास, 
एकांत साथी ।

2-
पुष्प सुरभि,
बिखरी है सर्वत्र,
जन्म कन्हैया ।

3-
कर्म सुरभि, 
सर्वत्र प्रवाहित,
मचाये शोर ।

4-
सूखा गुलाब, 
महके तन मन, 
यादें सुरभि ।

-- नीता अग्रवाल 
#स्वरचित


दिंनाक..4/9/2018
दिन.. मंगलवार
विषय.. सुरभि
🌻
....
चरण वन्दना करता हूँ ,
जग के पालनहार ।
संसित मन क्या ढूँढ रहा है,
भव से मुझे निकाला ॥
*
जरा-मरण की इन बातो मे,
उलझा है संसार ।
सिर पर रख तू हाथ मेरे तो,
वैतरणी हो पार ॥
*
सुरभित है संसार तेरा यह,
फिर क्यो छल का वास।
किसको अपना कहे तेरे बिन,
माया यह संसार ॥
*
पथरायी सी आँखे तकती,
सूना मन का द्वार ।
मन मन्दिर में तुम ही तुम हो,
फिर क्यो मुझमे प्यास॥







Vina Jha 4सितम्बर2018
देख ये तेरा अनुपम छवि।
मन में जगा उद्गार।
हृदय प्रफुल्लित हो गया।
देख ये रूप श्रृंगार।

मेरे दिल में बैठे हो कब से।
जाने कब सामने आओगे।
मेरा दिल सुरभित हो जायेगा।
जब तुम सामने आओगे।।

दर्शन की ये प्यासी अँखियाँ।
दे दो दर्शन घनश्याम
कब से मोहे लगन लगी है।
मन सुरभित कर दो श्याम।।
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी



ख़ुशबू

लाल सुर्ख़ गुलाब के गुलदस्ते सी थी उसकी ख़ुशबू ,

पूरा घर महका नई बहू के आगमन ने फैलाई ख़ुशबू ...

अलग अलग रिश्तों में बांधी गई फूलों की माला की तरह ,
हर दिल मे छा गई उसकी मासूम प्यार की ख़ुशबू ....

अपेक्षा इन्सान से हो तो शायद पूरी हो जायें कभी ,
दहेज ने तौला उसे फिर भी कम नही हुई उसकी ख़ुशबू ....

इक इक पत्ती लुटाती रही वो परिवार की ख़ुशी के लिये ,
खुद सूखती रही पर भरती रही सब में सेवा की ख़ुशबू ....

समय ने गलाया पकाया और हो गई वो परिवार की बड़ी ,
करूणा से उसने भर दी रिश्तों में गुलकंद सी मिठास की ख़ुशबू ....

माना नाम पैसे रूतबा या ओहदा कुछ नहीं है उसके पास ,
अपनो के जीवन में ले आई वो शीतल गुलाब जल की ख़ुशबू .....

वो है जानती चाँद सूरज ज़मीं सब करते निस्वार्थ भाव से कर्म ,
लाखों फ़ूल बगिया में है रोज़ बिखेरते इसी सत्य की ख़ुशबू .....॥,,

कुन्ना ...



हवा फिर आज चली है, वही बयार लिये। 
कोई खुश्बू, कोई चाहत, कोई प्यार लिये। 


हंसी खनकते हुए घुंघरूओ सी लगती है। 
दुल्हन हो जैसे कोई फूलों का हार लिये। 

मै अपनी उम्र से अब आगे निकल आया हूँ। 
कैसे लौटूं कहो टुकड़ो मे दिले बेजार लिये। 

यूं हंस के दर्द छुपाने की मैने कोशिश की। 
डबडबाई थी क्यूं नजर हसरते- यार लिये।

विपिन सोहल



एक ओर पंखुरियों का दरवाजा खुला 
एक ओर काँटो से घायल मैं 
कहाँ जाऊँ किधर जाऊँ 
जिन्दगी धुँधली हो गई है गमो के धुन्ध से।

सिसकियाँ लेती रात गुजर जाती है 
जख्मो से लिपटकर दिन ढल जाता है 
जीवन है जीवन के पथ पर मुझे क्यों 
धुँधले रास्ते हर जगह मिल जाते हैं 
मिलता नहीं कभी सुरभि सा मोड़ 
हर पल हर जगह दर्द मिल जाता है।

जिन्दगी अब ना आऊँगा पास तेरे 
अपनी बुझती निगाहों को लेकर
तेरी सुरभि से दूर चला जाता हूँ
पर कुछ पल ठहर कर वीरानों से 
तेरे पास ही क्यों वापस लौट आता हूँ।

सोचता हूँ कभी तो खुलेगा सुरभि की उम्मीदो का जहाँ
फिर सोचता हूँ कैसे मैं पहुँच पाऊँगा वहाँ 
मेरे उर के दुःख स्पंदन को ऐ जिन्दगी तू ना 
कभी समझ पाओगी 
मैं क्या हूँ मेरा अस्तित्व क्या है ऐ जिन्दगी तू ना कभी समझ पाओगी।

सोचता हूँ अपनो के पास चला जाऊँ मैं 
जहाँ ना हो कोई सौदागर वहाँ चला जाऊँ मैं 
मेरे सपने बस इतने छोटे हैं 
मेरे सच्चे सपनो के पंख को ना कुतर ऐ सुरभि मन 
अपने छोटे सच्चे सपनो छोड़कर कहाँ जाऊँ मैं।

आदमी नहीं पुतलों के शहर में रहता आया हूँ
चारो ओर सरकते साये के शहर में रहता आया हूँ 
भवर नहीं साहिल नहीं पतवार नहीं नदी नहीं 
मांझी ही कश्ती डूबाता है यहाँ 
दिल कहता है इस धोखे भरी दुनिया से दूर चला जाऊँ मैं।

मुस्कानो पे भी फरेब भर लेते हैं लोग यहाँ 
एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग यहाँ
हर आदमी बिका हुआ लगता है यहाँ 
हर कोई अपने चेहरे पे मुखौटा लगाकर घूमता है यहाँ।

साँस है घुटन है इस शहर में ज्यादा 
जिन्दा आदमी कम मुर्दा है ज्यादा 
हर सुनहरे सपनो की हत्या होती है यहाँ 
ऐ सुरभि ईष्या-द्वेष अहंकार का क्यों रोज
महल बनता है यहाँ 
दिल करता है इस बेजान शहर से अब दूर चला जाऊँ मैं।
@शाको 
स्वरचित



सुरभि महकती सुखद भावनाओं से।

खुशबू मिलती सहृदयी कामनाओं से।
हर्षाता हर्षित होता मनमंदिर अपना,
पाकर शुभाशीष प्रभु की प्रार्थनाओं से।

परमेश प्रसन्न अगर हम सब कर पाऐं।
कुसुम कली से कुसुमित हम हो जाऐं।
रखें अपने पडौसी साथियों को खुश,
निश्चित प्रफुल्लित शायद हम हो पाऐं।

क्यों ना मकरंद एकदूजे के मन में घोलें,
सुंंन्दर प्रसून हों वयार मधुरम सुरभित।
पुरूषार्थ परमार्थ करें हम मिलजुलकर,
तो परोपकार के हाथ हों पुष्प पल्लवित।

स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



उपवन उपवन खिल तो रहे, संग साथ की सुरभि चली गई है 
श्रुधा भोग हम रोज ले रहे, ताकत की सुरभि चली गई है 
गगनचुम्बी इमारते बन रही, दुःख साँझा सुरभि चली गई है 
बुजुर्ग तो हर घर मै है रहते, चौपालों की सुरभि चली गई है 
रिश्ते तो संग चलते सबके पर, प्यार की सुरभि चली गई है 
मात पिता चाहे कहि भी रहते, सम्मान की सुरभि चली गई है 
पाश्चात्यता नग्न घूम रही, संस्कारो की सुरभि चली गई है 
दुःख से ये संसार भर रहा, दया की सुरभि चली गई है 
बच्चों की शिक्षा भारी हो गई, किलकारी सुरभि चली गई है 
धन अर्जन करने विदेश जा रहे, 
देश की सुरभि चली गई है 
बदल देंगे गर दिशा सभी हम 
सुरभि से जग महक उठेगा 
स्वरचित सीमा गुप्ता 
अजमेर 
4. 9. 18


सुरभि"
सार नही उस जीवन का

जिसमें रिश्ते का सुगंध न हो
मोल नही उस रिश्ते का
जिसमें सौहार्द का सुंगध ना हो

कलश भरा हो जल में जितना
गंगाजल ही करें सुवासित 
भक्ति का मशाल जलाये जब हम
सुंगधित हो जाये अपना जीवन

आरधना करें हम जीवन भर
कैसे प्रभु अरज सुने हमारी
जब प्रार्थना मे विश्वास का 
सुन्दर सुंगध ना हो

बेटी जब घर आँगना मे खेले
सुवासित हो अपना घर बार
बहु जब बेटी बन जाये
सुवासित हो हमारा संसार

इंसान इंसान से प्यार करें तो
सुवासित हो जाये हमारा संसार
सुरभित ह़ो जाये हमारा जीवन
सुरभि बस जाये जन मन।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

आया शरद सुरभि अहसास लिये हुये
सकल फुलें काश संदेशा हैं खिले हुये 

हो शक्ति प्रवेश श्वेत आभा लिये हुये 
माता का हो आगमन महिमा लिये हुये

खिले हैं पारिजात खुशबू से भरे हुये
धरा में हैं खुशियाँ उमंगों से भरे हुये 

आसुरी शक्तियाँ है उफान लिये हुये
होगी पराजय,देवी हैं शांति लिये हुये 

शरद में बजते नगाड़े शक्ति से भरे हुये 
नवरुपों का करो वंदना भक्ति है भरे 
हुये
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला



(1)
मन सुकून
सुरभि आई द्वार 
लाईशगुन
(2)
सुरभि मैया
दूध अमृत धार
सींचे कन्हैया


(3)
सर्वस्व दान
सुरभि वरदान
माता समान

(4)
सुरभि मैया
दूध अमृत धार
सींचे कन्हैया

(5)
ना काहु बैर
पशु भी सतगुणी
सुरभि श्रेष्ठ






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