Monday, September 10

"विडम्बना "10सितम्बर2018





विडम्बना तो देखो.... कोई खग नभ के पार जाने को आतुर है
कुटुम्ब को छोड़ आसमान का छोरउसकी डगर है।। 

पंख लहराकर हवाओं में गोते लगाता जा रहा है।। 
अपनो से दूर मगर खुशियों को नजदीक पा रहा है।। 

क्या सच मे वह आनंद के सागर में जा रहा है? 
या जेठ के रेत के सागर की ओर खिंचा जा रहा है।। 

कैसी विडंबना है कि मन बहका चला जा रहा है।।
बिना मदिरा के ही आज सबपे नशा छा रहा है।। 

संबंद्ध जो कभी भाव थे,आज शब्द ही धुंधलाता जा रहा है।। 
संबंधों की एक श्रृंखला थी कभी, आज तो एक ही न बन पा रहा है।। 

रिश्ते तो आज पलों के मोहताज हो गए हैं।। 
बनते तो हैं, साथ मे बिखरने का आधार लिए हैं।। 

मनावता के संबंध हाय! स्वप्न हैं हो गए। 
रक्त संबंधों के रक्त पानी से बह गए।। 

अब तो कब रोना है और कब मुस्कुराना, 
यह सोचकर लगता है समय गंवाना।। 

शायद बदल गयी है मानवीय जैव संरचना। 
ईश्वर के गोदाम में बंद है हृदयकी रचना।

ईश्वर को चस्का लगा है नई तकनीकी का।।
शायद हृदय भी बनने लगा है पत्थर या ईंट का।।

यह जो कुछ भी है, बिल्कुल नही है अनुकूल।।
प्रतिक्षण यह संवेदनशीलता हृदय में चुभती है बनकर शूल।. 

स्वरचित....आरती ओझा



कैसी विडंबना है 
आदमी आदमी से ईष्या-द्वेष रखता है
जिन्दा रहते हुए आदमी की निन्दा 
और स्वर्गवासी आदमी की प्रशंसा करता है।

कैसी विडंबना है 
प्रेम को बाँधकर रखने की कोशिश की जाती है 
क्या मालूम नहीं कि अगर खाद को घर में रखोगे तब दुर्गंध पैदा होगी 
और अगर इसी खाद को 
खेत में पेड़-पौधों में डालो तो बहार का अंकुरण होगा
चारो ओर हरीतिमा 
और सुन्दर आनन्दित वातावरण का का सृजन होगा 
प्रेम को पतित नहीं 
प्रार्थना में मुक्त करो 
परम सुवास पैदा होगी।

कैसी विडंबना है 
आज धर्म ही धर्म को जला रहा है 
मुस्लिम हिन्दुओं को
हिन्दु मुसलमानो को जला रहे हैं 
एक धर्म मस्जिद जला रहा है 
एक धर्म मस्जिद तोड़ रहा है।

यह कैसी विडंबना है
लोग लोकतंत्र का आदर्श 
लोकतंत्र की आत्मा 
संविधान को 
जला रहे हैं।

कैसी विडंबना है 
कोई दलित को पीट रहा है
कोई ब्राह्मण को पेड़ में बाँध रहा है।

जात-पात-धर्म की यह कैसी विडंबना है
मानव मानवता भूलकर 
आडंबर अन्धविश्वासी अहंकारी छुआछूत में लिप्त हो गया है 
@शाको
स्वरचित 
पटना


निश दिन रहबें भोग में डूबे ।
निश दिन रहबें कोप में डूबे ।
और माथे पे लगायें चंदना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

भाई भाई का गला काटे ।
हकीकत में दुख न बाँटे ।
त्योहारों में अलग भाव व्यंजना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

जीते बुजुर्ग दरश को तरसे ।
मरने पर नैन जल बरसे ।
असहाय छोड़ उन्हे विलासिता में रंगना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ ।
पुत्र कामना की अकल भिड़ाओ ।
नारी का नारी के प्रति ठीक ढंग ना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

नेता जी ''शिवम" उदास थे ।
कल कई चेहरे पास थे ।
आज सीट नही तो कोई संग ना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

ज्ञान का पीलो कितना जाम ।
फिर भी बचे न आसाराम ।
विचार पुँज थैली कब किस खूँटी टंगना ।
ये कैसी विडंबना ये कैसी विडंबना ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/09/2018



आधुनिकता की भ्रमर पवन।
बिड
म्बना कहर ढाने लगी।।
अनुशासन शिष्टाचार लुप्त है।
कुछ टोकना भी अब बंद है।।
कभी कमर हिलाने पर बहन।
खुब तमाचे खाती थी ।।
आज अंग प्रत्यंग फड़काने।
खुब वाहवाही बटोरती हैं।।
इस बिडम्बना की घडी में।।
अब कुत्सित पुरबाई ने ।
लाज शर्म जो गहने थे।।
नारी के उत्तम आभूषण।।
उससे सबको दूर किया।
सहन क्षमता का हनन किया।

स्वरचित:- 
राजेन्द्र कुमार#अमरा#




ये कैसी विडम्बना है जीवन की
सब कुछ होते हुए भी
न जाने क्यों
बेचैनी सी होती है
और भी ज्यादा
ज्यादा पाने की,
न जाने क्यों
खुशहाल जिंदगी में अक्सर
रोने का मन करता है
बनी-भूति, मेहनत-मजदूरी के दिन
सुकुन भरी जिंदगी
जिया करता था अक्सर,
दो बखत की
नून-रोटी से काफी खुश था
आज इस उंचाइयों पर
कुछ भी अच्छा नहीं लगता
आखिर किसके लिए
मेहनत करता हूं
किसके लिए कमाता हूं
जिंदगी की इस भागमभाम
रेला में
सिर्फ तनाव ही तनाव हैं
मेरे हिस्से में,
एक तरफ शारीरिक पीड़ा
तो दूसरी तरफ मानसिक बेचैनी,
रंग बदलती इस दुनिया की
आपाधापी में,
यह विडम्बना ही है
सुकुन के वो दो पल
खो दिये मैंने
जिसमें जीवन का सारा
सुख, समृद्धि था छिपा!


"विडंबना "
फैली है ये कैसी विडंबना
भारत बंद का हो रहा आगाज
विपक्ष का है पलरा भाड़ी
सर पकड़ बैठे सरकार ।
ये राजनीति की काली कोठी
कहाँ रहने देता किसी को बेदाग
छिंटे- धब्बे दिख हीं जाते
बदले चाहे कितनी सरकार ।
विडंबना देखो गरीबों की
उसकी किस्मत में है बस रोना
कभी महंगाई, कभी बेगारी
खानीं पड़ती है उन्हें ही मार
आएं चाहे कोई सरकार।

स्वरचित:- मुन्नी कामत ।

#############
कोई रोटी को तरस रहा
कोई खाना कचरे में फेक रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई महलों में जाग रहा
कोई झोपड़ी में भूखे सो रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई खैरात पा आनंद से भरा रहा 
कोई फास्ट फूड खाकर मोटा हो रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई बेईमान ऐश है कर रहा
कोई ईमान सरेआम हो रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई मासूम है चीख़ रहा
कोई लहू से हाथ धो रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई धर्म स्थानों को बदनाम कर रहा
कोई संस्कारों को जी रहा 
भाग्य की विडम्बना 

कोई तख्त पर बैठा सो रहा
कोई आबरु नीलाम हो रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई कपड़े फाड़कर फैशन कर रहा
कोई लाज से फटे कपड़े सी रहा
भाग्य की विडम्बना 

कोई वतन के लिए शहीद हो रहा
कोई वतन का सौदा कर रहा
भाग्य की विडम्बना 

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला



प्यारा सा घर अपना था
उसमे बीवी का और मेरा एक सपना था
नन्हा मुन्ना घर आएगा
नई खुशिया लाएगा
सपने सजने लगे 
मन मे खुशी के ढोल बजने लगे
धीरे धीरे समय निकल रहा था
परिवार में भी नया सदस्य पल रहा था
जब हुए दो खूबसूरत बेटे 
खुशी उतनी भी बढे जितनी समेटे
अपने शौक फालतू खर्चे बन्द कर दिए
बच्चो के लिए होशले बुलन्द कर दिए
दिल लगाकर खूबसूरत मकान बनाया
दोनों बेटों का अलग अलग हिस्सा दर्शाया
खुशिया हुई कि बस बेटे हुए है
उनके भरोसे पैर फैलाकर लेटे हुए है
बच्चे भी अब बड़े हो गए
हमारे लिए उनके तेवर कड़े हो गए
दोनों शादी करके खुशी से रहने लगे है
पोता पोती हर वक़्त दादा दादी गाते है
हमारे साथ हस्ते खाते नहाते और सो जाते है
बहु बेटा घर मे भीड़ हो गयी कहने लगे 
हम भी चुपचाप ये शब्द सहने लगे
और आंसुओ हमारे बहने लगे
अपने ही घर मे पराये से हम रहने लगे
एक दिन दोनों बच्चे हमारे लिए कपड़े मिठाई लाये
अचानक ये खुशी हम पर भी सही न जाए
बहुये भी हमको "बहुत याद आएगी आप दोनों की" कहने लगी
ये सुनकर हमारी आंखे बहने लगी
बेटे ने कहा कि जाकर आप दोनों दवाइया समय से खाना
हमने पूछा कि बेटे हमको कहा है जाना
बहु का बहुत खतरनाक जवाब आया
आप दोनों का व्रधाश्रम में रजिस्ट्रेशन है कराया
मन मे शब्द नही रहे 
आंखे बस बहे खूब बहे
तुमको पाला पोसा बड़ा किया फिर मुझसे कहा चूक रह गयी 
विडंबना की घर में अपना कुछ बनाया नही फिर हमारी जगह कहा रह गयी
कास सबसे पहले खुद का हिस्सा रख लिया होता
तुम दोनों को परख लिया होता
मेरी कद्र हो ना हो मुझको गम नही था
तेरी माँ को आज ये दिन देखना पड़ा इसमे मेरा अपराध कम ना था
अब हम दोनों के जीवित शरीर मे जान बेजान हो गयी थी
हम दोनों की कातिल हमारी सन्तान हो गयी थी।
अब भगवान से किसी बात की नही चाहना
बस भगवान अगर जन्म दे तो किसी का बेटा न बनाना
बस भगवान बेटी बना देना कोक में ही मर जाऊंगी
जन्म लिया तो माँ बाप और सास ससुर को मरते दम तक निभाऊंगी....
स्वरचित--विपिन प्रधान






हाय ये कैसी विडंबना 
छोटे से मकान मे बड़ा प्यारा घर रहा करता था, 
मकान बड़ा बनते ही घर जाने कहां खो गया। 
सन्नाटा पसर गया ठहाके भाग गए 
सुन्दर सपने फुर्र हुए, 
अपने अपने कमरे मे सिमटे सब ,
चाहे अनचाहे ही घर से दूर हुए ।
हाय रे जीवन की विडंबना ,
दाँत थे तब चने नसीब न हुए, 
चने आये तो दाँत झड़ गये ।।
(स्वरचित) सुलोचना सिंह




"विडंबना"
यह कैसी विडंबना राम जी

सीता को वनवास डे डाला
फिर धर मूर्ति सीता का यज्ञ
तुमने कर डाला

ऐसा तुमने क्यों कर डाला
क्या अपराध सीता मईया की
क्या यही की वह एक नारी थी
है नारी होना। अपराध अगर

तो नारी को क्यों भार्या बनाया
है नारी होना अपराध अगर तो
नारी को क्यों बहना पुकरा
नारी को क्यों बेटी पुकारा

नारी से ही तो सृष्टि हैं सारी
फिर ये क्यों तुमने माना
है कैसी यह विडंबना
नारी को ही क्यों दोषी ठहराया
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


एक से हम तुम दोनों
रचयिता अपना एक
तुमसे बेहतर नहीं तो
कमतर भी नहीं
फिर क्यों है सारे नियम और कायदे सिर्फ मेरे लिए
हैं सारे अधिकार तुम्हारे पास स्वत:और मुझे मागंना या लड़ना पड़े
शील,दया, क्षमा, ममता, धैर्य आदि ये है सब मेरे लिए
और इन्हें भंग करने का अधिकार, तुम्हारे लिए
और विडम्बना ये है कि...
कहने को नारी है महान और नारी महिमा गाते हो
देवी कहते हो मुझको,और खुद श्रेष्ठ बन जाते हो

विडम्बना भी कभी कभी खुलकर मुसकुराती है
जब वातानुकूलित कमरों में ग़रीबी पर किताब लिखी जाती है

श्रेष्ठ है सब जीवों में मानव कहे महान है हम
परपीणा पर हंसता है और कहें इंसान हैं हम

आज हम उसे साफ करने जाते हैं
जहां लोग पाप धोने जाते हैं

क्या कहें और क्या है कहना
इन स्हाय पन्नो को क्या रंगना
बस इतना ही मैं समझ पाया
विडम्बना में जिंदगी है या
जिन्दगी है विडम्बना

स्वरचित -अभिमन्यु कुमार




एक तारा गुन गुन गुनगुनाता 
बात पते की वो समझाता 
क्यों, हम दोहरी मानसिकता रख 
विडंबनाओं से जीवन को भरते 
राजनीति मै सत्ता प्यारी 
पर नैतिकता से प्रीती नहीं है 
रिश्ते प्यार पे आरूढ़ चाहिए 
पर अहम तोड़ता कोई नहीं है 
बेटियों से घर गूंजता सबका 
पर भ्रूण हत्या वश मै नहीं है 
कानून दहेज खिलाफ खड़ा है 
पर घर नहीं कोई अछूता बचा है 
नारी धरा आलोकित करती 
और कहीं नारी ही उस पर भारी पड़ती 
बाल विवाह कुम्हलाता बचपन 
आखा तीज मै खिलता हरदम 
मृत्यु भोज पर कर्जा लेते 
लाचारी वश सब कुछ सहते 
सेटेलाइटों का चहुँ जाल बिछा है 
घातक किरणों मै जग फँसा पड़ा है 
गुरु हमारे ज्ञान की पूँजी 
पर कुछ बिकते बाजार लगाते बोली 
विद्या ज्ञान निज भू मै पाते 
पर लाभ विदेशों मै पहुंचाते 
आधुनिकता की दौड़ मै बच्चे 
पलायन भारत से कर जाते 
प्लास्टिक पर्यावरण की दुश्मन 
पर हर कदम मै उसको लेते हम सब 
अपने पैमानों को बदलकर 
विडंबनाओं से बचना होगा 
स्वरचित सीमा गुप्ता 
अजमेर 

कहलाता स्वतंत्र है भारत !
बिडम्बना एक नहीं अनेक हैं
किस-किस को गिनाया जाए...
जलती ज्वालामुखी के मुख
पर खड़ा हुआ है भारत
कैसे अब बचाया जाए...!
देश के तथाकथित नेताओं,
ठेकेदारों,भूपतियों, पूंजीपतियों, 
अवसरवादी, अफसरशाहों 
के लिए आई है आज़ादी...
भोली-भाली जनता पर तो 
अब भी छाई है बर्बादी...
पराधीनता, भूख, गरीबी,
शोषण का है वही अलाप...
जिससे व्यथित हुई है जनता
हरदम करती है प्रलाप...
उनको रहनुमा समझ लेती
जब जनता नेता चुनती है...
जनता की आहें कितनी है 
यह सत्ता कितना सुनती है...
देश की जनता को उकसाना
नेताओं का धर्म नहीं...
भ्रष्टाचार बढ़ाना 
नेताओं का कर्म नहीं...
धरती पर फैला है विषाद
जातिवाद, धार्मिक-फसाद
प्रकृति-हनन और बृद्ध-लाचार
आतंकवाद, पशु-अत्याचार
हिंसा-प्रतिहिंसा ,बलात्कार...
घोर बिडम्बना की है मारी
यह सारी धरती बेचारी...
चेतो मानव! विश्व प्रलय की
आती है कलयुग की बारी....

"पथिक रचना"
स्वरचित


कैसी विडम्बना देश की .
मर्यादित राजा राम की .
होती हर रोज सीता हरण .
बीच बजार होता चीरहरण .
कोई अबला सिसक रही .
फटी वस्त्र से तन ढक रही .
कैसी विडम्बना देश की .
करनी मानव करतूत की .
बात करते उसूल की .
अपनी छोड़ बाकी सब .
पर नारी हैं .
अपनी इज्जत सबको 
प्यारी हैं .
खोखले आदर्श की देते दुहाई .
बीच बजार जिन्होने अपनी 
नाक कटाई .
अजीब विडम्बना भारत देते देश की .
ना राम रहे ना रावण .
मर्यादित का परदा ओढ़ कर 
आज जी रहे दुर्योधन और दुशासन .
..........
मीरा पाण्डेय उनमुक्त



"विड़ंबना"
लहू जिगर का पिलाकर,
तुझे मैं जग में लाई,
दिया बेटी को जब जन्म,
घर में मिली रूसवाई,
बेटी मेरी सहेली बनी,
छोटी छोटी हर बात बताई,
तू मुझको जान से प्यारी,
. जीवन भर की तू है कमाई,
ये विड़ंबना भारी,
ईश्वर तूने बनाई,
बेटी होती जिगर का टुकड़ा,
फिर ये क्यों कहलाए पराई,
होती बेटी पराया धन,
और बेटे छोड़ घर को जाए,
बेटों से बढ़कर,
बेटी ही साथ निभाए।
स्वरचित-रेखा 

आह री विडंबना,
घोर ये बिडम्बना,
नर के दुखों का कारण,

आज नर स्वं बना...

जब अन्न है भरे पड़े,
फिर भूख क्यों,
अड़ी-खड़ी...
जब बस्त्र है भरे पड़े,
फिर नग्न तन,
क्योंकर पड़ी....
जब प्रेम है,
थाती तेरी,
फिर बैर में,
काहे पड़ी,

..फिर जाग रे मनुष्य,
कर जरा तू कल्पना,
स्वं का रिपु,स्वं,
आज तू है क्यो बना,,,

आह री विडंबना,
घोर ये बिडम्बना,
नर के दुखों का कारण,
आज नर स्वं बना...

जब शक्ति,
नारी को बनाया,
भक्ति भाव से बिठाया,
फिर भोग्य मन में,
क्यों है आया,

मेरी बेटी,उसकी बेटी,
इसमे इतना भेद क्यों है,
नरपशु, नरअसुरों तेरा,
मानसिक विभेद क्यों है,

भूलता क्यो है तुझे भी,
एक स्त्री ने जना....

आह री विडंबना,
घोर ये बिडम्बना,
नर के दुखों का कारण,
आज नर स्वं बना...

.....राकेश






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