पुरबिया .
.....................
मदमस्त पवन की पुरबिया सा .
वो आया हैं मेरे जीवन मे .
खिले फूल पलाश सी .
बिखरा हैं मेरे जीवन मे .
.................
कठिन मोड़ हैं
जीवन धरा की .
अठखेलियाँ जैसे बचपन की .
नूर बरस रहा हैं जैसे .
बन कोहिनूर जीवन मे .
...................
सफर दो कदम .
भले साथ था .
बंधन हैं अब .
उम्र भर की .
गठबंधन की चाह नही .
अनमोल बंधन जीवन मे .
..................
अहसास तेरे स्पर्श की .
अब तक महक रहा .
तन मन मे .
रजनीगंधा सी बेखेरी खुशबू .
तूने आ कर जीवन मे .
.................
अनायास मुख मूस्काता हैं .
देख मचलने तेरे .
बचपन सी .
सोचती हूँ छुप जाऊं .
बन के धड़कन सीने की .
रहना हैं यु साथ .
हरपल इक दूजे के दिल मे .
शीतल हवा की पुरबिया सी .
तुम हो मेरे जीवन मे .
...............
मीरा पाण्डेय उन्मुक्त .
जागती हूँ....
आंखे मूंदे हीं आगे बढ़कर
मुँह पर अपने डालती हूँ छींटे,
कुछ शीत जल के...
देखती हूँ....
भोर का यह ऊँघता सा आसमां
और
क्षितिज से झांकते
गर्वीले से सूरज की लालिमा
धीमे कदमों से टहलती ;
कुछ क्षण रूक कर....
देखती हूँ....
बादलों के फौज की प्रभातफेरी
और उसके ठीक नीचे...
पंछियों को भी कोई धुन लगी है जैसे
अलसाये से खड़े पेड़ों के
कान में कुछ तान सा वह दे रहे हैं
देखती हूँ......
हवा भी कुछ गुदगुदी सा कर रही है
और मेहंदी झूम कर मुस्का रही है
मेहंदी की मादक महक से
प्राण अपने सींचकर हवा जब इठलाई
तब बहारों की बारी आई...
उनींदी हूँ...
मेरी आंखों में भी है सूरज की लाली..
अब सूरज ने क्षितिज का आंचल है छोड़ा
आ रहा है बादलों के बीच में वह थोड़ा-थोड़ा
देखती हूं....
घर के अंगने से लगा वो नीम
और उसकी पत्तियों से,
छ्न छ्न कर देहरी पर आती धूप
सन् सन् हवाएं
और
पत्तियों की सर सर में
मन उड़ा जाता है मेरा...
ठीक सामने यूकेलिप्टस का एक
सुन्दर चमकदार तने वाला
गर्वीला वृक्ष लम्बा सा, तना सा
अल्हड़ झूमता सा....
देखती हूँ.....
पंछियों से भर गई है उसकी हर डाली
एक पड़ाव है ये..
फिर आगे उड़ने की तैयारी....
सुनती हूँ.....
उसका चूं चूं चुनमुन कलरव
देखती हूँ..
नीचे बिछे कनेर के फूल
कुछ फूल उठा लेती हूँ
उन्हें अपनी उंगलियों में पहन लिया है
बचपन की तरह...
खुश होती हूँ...
तभी अधमूंदे से ऊड़हुल ने मुझको बुलाया
और माथे पे रोली तिलक लगा गया
छलक रहा है अब मन मेरा
धड़कने गाती है जैसे गीत कोई...
आभार है प्रकृति.....
तुम्हारे प्रेम में हूँ...
"पथिक रचना"
स्वरचित
पहला प्यार :
है शमा, उठ और चल पड़ पहले प्यार की ओर
बस अब टूटने दे तुम्हारा, ये बे-समझी का दौर।
वक्त बीत जाने पर कुछ हासिल न होगा तुम्हें
प्यार किसी से करते हो, ले जाएगा कोई ओर।।
आज मौका है कल शायद न हो
दुःख के समंदर में डुब जायोगे।
आज तो मन समझा लिया *किन
बाद में तुंम इसे बार बार रुलाओगे।।
हां, ना तुंम खुश रह पायोगे और न ही वो
जिसकी खुशियां बन तुंम जाने वाले हो।
दो जिंदगियां बर्बाद हो जाएंगी तेरे कारण
1 उसकी, दूजी जिसे तुम छोड़ जाने वाले।।
किसी न किसी तरह मना लो अपने मन को
कही देर ना हो जाये सोच लो एक बार ऒर।
वक्त के तकाज़े को समझो, नादानी छोड़ दो
और लौट जायो अपने पहले प्यार की ओर।।
सुखचैन मेहरा # 9460914014
*संकल्प*
ये नीला आसमा मेरा है
ये सुनहरा सवेरा मेरा है
भर दू अंधियारे में उजियारा
ये हौसला मेंरा है
बनकर ज्ञानवान
देकर सुसंस्कारों का दान
करना नव मानव निर्माण
ये विश्वास मेरा है
जाकर बाहर चार दीवारी के
सुलझाना हर उलझन को अाज
दिखाना नित नए साज
ये अंदाज मेंरा है
मेरा घर मेरा समाज मेरा देश
करना सृजन
एक नया परिवेश
ये संकल्प मेरा है । *********---******* स्वरचित प्रीति राठी
ये नीला आसमा मेरा है
ये सुनहरा सवेरा मेरा है
भर दू अंधियारे में उजियारा
ये हौसला मेंरा है
बनकर ज्ञानवान
देकर सुसंस्कारों का दान
करना नव मानव निर्माण
ये विश्वास मेरा है
जाकर बाहर चार दीवारी के
सुलझाना हर उलझन को अाज
दिखाना नित नए साज
ये अंदाज मेंरा है
मेरा घर मेरा समाज मेरा देश
करना सृजन
एक नया परिवेश
ये संकल्प मेरा है । *********---******* स्वरचित प्रीति राठी
''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
चूडियो को तोड कर, सिन्दूर माँथा पोछ कर।
वो सूर्ख मेहदी छोड कर, आया तिरंगा ओढ कर।
*
पग के महावर लाल थे, बेसुध से वो बेजान थे।
सब कस्में-वादें तोड कर, आया वो मुझको छोड कर।
*
सागर झलकता आँख मे, ज्वाला दिखे हर बात मे।
दुश्मन की गर्दन तोड कर, आया वो दुनिया छोड कर।
*
मरना कहे सब शान है, वह देश पर कुर्बान है।
रोकर कहे अब शेर ये, तू देश का सम्मान है।
*
मै भी कहूँ अब तू कह, बेवा नही तुम मान है ।
सम्पूर्ण भारत ये कहे, सिन्दूर तेरा अभिमान है।
*
स्वरचित.. Sher Singh Sarraf
चूडियो को तोड कर, सिन्दूर माँथा पोछ कर।
वो सूर्ख मेहदी छोड कर, आया तिरंगा ओढ कर।
*
पग के महावर लाल थे, बेसुध से वो बेजान थे।
सब कस्में-वादें तोड कर, आया वो मुझको छोड कर।
*
सागर झलकता आँख मे, ज्वाला दिखे हर बात मे।
दुश्मन की गर्दन तोड कर, आया वो दुनिया छोड कर।
*
मरना कहे सब शान है, वह देश पर कुर्बान है।
रोकर कहे अब शेर ये, तू देश का सम्मान है।
*
मै भी कहूँ अब तू कह, बेवा नही तुम मान है ।
सम्पूर्ण भारत ये कहे, सिन्दूर तेरा अभिमान है।
*
स्वरचित.. Sher Singh Sarraf
गुनाहों ने किसको रूलाया नही
बात ये सच्ची है करलो यकीं ।।
गुनाहों की होती गुथी हुई डोर
जागो मेरे भाई अब हो गई भोर ।।
हिम्मत करो बनो इनसे सबल
इनसे लड़ने को बनाओ मनोबल ।।
अदावत कुछ जन्म से संग है आई
यही वो मुश्किलें जो करें कठिनाई ।।
बाहर. के शत्रु न करें वो काम
अन्दर के शत्रु करें जीना हराम ।।
मुक्ति का पाठ यह यूँ न सुझाया
सार ''शिवम" इसमें बहुत है समाया ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/09/2018
बात ये सच्ची है करलो यकीं ।।
गुनाहों की होती गुथी हुई डोर
जागो मेरे भाई अब हो गई भोर ।।
हिम्मत करो बनो इनसे सबल
इनसे लड़ने को बनाओ मनोबल ।।
अदावत कुछ जन्म से संग है आई
यही वो मुश्किलें जो करें कठिनाई ।।
बाहर. के शत्रु न करें वो काम
अन्दर के शत्रु करें जीना हराम ।।
मुक्ति का पाठ यह यूँ न सुझाया
सार ''शिवम" इसमें बहुत है समाया ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/09/2018
आंख से आंसू बहने दो,
पीडा दिल में उठने दो।।1।।
जुंबा पर गीत मचलने दो,
कागज पर कलम चलने दो।।2।।
सावन घटा को गरजने दो,
गगन में बिजली चमकने दो।।3।।
मधुर यादों को आने दों,
मन की वीणा को बजने दों।।4।।
अंधेरे में डूबा है घर,
एक दीप तो यंहाँ जलने दों।।5।।
बुझे बुझे चेहरे दिखते है,
जग की भीड़ में जीने दों।।6।।
स्वरचित देवेंद्र नारायण दासबसना।6266278791।।
पीडा दिल में उठने दो।।1।।
जुंबा पर गीत मचलने दो,
कागज पर कलम चलने दो।।2।।
सावन घटा को गरजने दो,
गगन में बिजली चमकने दो।।3।।
मधुर यादों को आने दों,
मन की वीणा को बजने दों।।4।।
अंधेरे में डूबा है घर,
एक दीप तो यंहाँ जलने दों।।5।।
बुझे बुझे चेहरे दिखते है,
जग की भीड़ में जीने दों।।6।।
स्वरचित देवेंद्र नारायण दासबसना।6266278791।।
"सुरक्षा"
सुरक्षित चले हम परिवार के संग
तिनका चुन चुन नीड़ बनायें
उसे हम बिखरने से बचाये
घर आँगना महकाये हरदम
पवन वेग से चले न हम
रहे सुरक्षित हमारा तन -मन
संयोग न जाने कोई आज
सुरक्षित चले वही सुखी होय
मूढ़ न समझे चतुर की भाषा
समझदारों को काफी ईशारा
बिना सुरक्षा के चले जो कोई
आज नही तो कल पछतावा होई
लेकर चले हम सुरक्षा कवच
विचलत न हो हमारा तन -मन
मिलकर ले हम एक प्रतिज्ञा
सुरक्षित रहे हम सदा
सुरक्षित हो हमारा समाज
फिर देश को हम करे सुरक्षित
इस तरह हम जागरूक तो
देश सुरक्षित तो हम सुरक्षित
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
सुरक्षित चले हम परिवार के संग
तिनका चुन चुन नीड़ बनायें
उसे हम बिखरने से बचाये
घर आँगना महकाये हरदम
पवन वेग से चले न हम
रहे सुरक्षित हमारा तन -मन
संयोग न जाने कोई आज
सुरक्षित चले वही सुखी होय
मूढ़ न समझे चतुर की भाषा
समझदारों को काफी ईशारा
बिना सुरक्षा के चले जो कोई
आज नही तो कल पछतावा होई
लेकर चले हम सुरक्षा कवच
विचलत न हो हमारा तन -मन
मिलकर ले हम एक प्रतिज्ञा
सुरक्षित रहे हम सदा
सुरक्षित हो हमारा समाज
फिर देश को हम करे सुरक्षित
इस तरह हम जागरूक तो
देश सुरक्षित तो हम सुरक्षित
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
मोहब्बत की निशानियां, कभी यूं भी दिखाई जाती है
कहीं तेजाब में डूबीं कहीं कूड़ेदान में पाई जाती है
आधुनिकता का नकाब ओढ़कर,हवस के हाथों
मोहब्बत के चेहरे पर कालिख लगाई जाती है
वो प्रतिनिधि हमारा जिसे हम नेता समझते हैं
वो दर असल खुद को देवता समझते हैं
देता है जो इन्हें राजसी सुख सभी
उन्हें ही ये लोग भूखा नंगा समझते हैं
कभी जो उठा दें तेरे बेवफाई पे सवाल
तो हक़ की लड़ाई को भी दंगा समझते हैं
भूंख, ग़रीबी बेकारी हर तरफ है देश में
ठप स्वास्थ सेवा है और ये हमें चंगा समझते हैं
उन्हें है नदियों की फ़िक्र बहुत आजकल
हमारे आंसुओं को कब ये गंगा समझते हैं
सच की राह चलकर लहूलुहान हो रहा हूं मैं
बच्चों की भूख देख बेइमान हो रहा हूं मैं
है कीमत कितनी आखिर जमाने में अपनी
यही सोच भरे बाजार नीलाम हो रहा हूं मैं
ये वादा था ना जी पायेंगे पलभर, तुझ से जुदा हो के हम
कहां तो सदियां गुज़र गयीं, तुझसे बिछड़े हुए और जिंदा है हम
एक बार आओ तो सही
--------------------
जैसे मैं सहता हूँ,
और मुस्कुराता हूँ,
वैसे तुमभी मुस्कुराओ तो सही..
मैंने तमाम दुखों को,
गले से लगाया है,
वैसे तुम भी गले से लगाओ तो सही...
हो जाएंगे मुक्त ,
दुनिया के तमाम जिहालतों से,
तुम भी हम भी,
पर पास मेरे एकबार आओ तो सही...
कर लेंगे सौदा,
तमाम नीदों का ,
ख्वाबों का,
पर एक बार ख्वाबों में आओ तो सही..
अमर कर देंगे ,
जो भी है गीत,
मन के,
जीवन के,
पर एक बार साथ गुनगुनाओ तो सही..
कर देंगे कुर्बान,
दुनिया की तमाम,
ऐशो आराम को,
पर एक बार तुम हाथ बढ़ाओ तो सही..
जो डर जाये दुनिया से,
इतना बुजदिल नही है राकेश,
तुम एक बार हौसला बढ़ाओ तो सही...
....राकेश
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जैसे मैं सहता हूँ,
और मुस्कुराता हूँ,
वैसे तुमभी मुस्कुराओ तो सही..
मैंने तमाम दुखों को,
गले से लगाया है,
वैसे तुम भी गले से लगाओ तो सही...
हो जाएंगे मुक्त ,
दुनिया के तमाम जिहालतों से,
तुम भी हम भी,
पर पास मेरे एकबार आओ तो सही...
कर लेंगे सौदा,
तमाम नीदों का ,
ख्वाबों का,
पर एक बार ख्वाबों में आओ तो सही..
अमर कर देंगे ,
जो भी है गीत,
मन के,
जीवन के,
पर एक बार साथ गुनगुनाओ तो सही..
कर देंगे कुर्बान,
दुनिया की तमाम,
ऐशो आराम को,
पर एक बार तुम हाथ बढ़ाओ तो सही..
जो डर जाये दुनिया से,
इतना बुजदिल नही है राकेश,
तुम एक बार हौसला बढ़ाओ तो सही...
....राकेश
गजल
❤❤❤❤❤❤❤❤❤
दर्द ऐ रहमत पर वफा़ का दस्तूर,
रस्मों उलफत की अदायगी समझो।
कौन कहता है जफा़ अच्छी नहीं,
सुलगते शबनमी अश्कों से बूझो।
दर्द ऐ दिल दिलरुबा की नैमत है,
इश्क़ की आशनाई कम तो नहीं।
दर्द के गुमनाम साए पोछ डालों
जिंदगी इक घनेरी स्याह रात नही।
उनकी फितरत मेरी चाहत का सिला
इश्के़ जन्नत का सूर्ख आबताब।
हमारे भी उसुलों की रजा भी है यही,
शबाबे इश्क़ में बना ले उसी को माहताभ।
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤
🌺स्वरचित:-रागिनी शास्त्री🌺
❤❤❤❤❤❤❤❤❤
दर्द ऐ रहमत पर वफा़ का दस्तूर,
रस्मों उलफत की अदायगी समझो।
कौन कहता है जफा़ अच्छी नहीं,
सुलगते शबनमी अश्कों से बूझो।
दर्द ऐ दिल दिलरुबा की नैमत है,
इश्क़ की आशनाई कम तो नहीं।
दर्द के गुमनाम साए पोछ डालों
जिंदगी इक घनेरी स्याह रात नही।
उनकी फितरत मेरी चाहत का सिला
इश्के़ जन्नत का सूर्ख आबताब।
हमारे भी उसुलों की रजा भी है यही,
शबाबे इश्क़ में बना ले उसी को माहताभ।
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤
🌺स्वरचित:-रागिनी शास्त्री🌺
विधा:-दोहा-छंद
विषय:-मातृभाषा हिंदी एवं माँ
तेरी हल्की चोट पर, विकल हुई थी मात।
रे निष्ठुर! कैसे किया, माँ हिय पर आघात।।1।।
जिस माँ ने रक्खा तुझे, उदर मध्य नव मास।
वो तेरी दुत्कार से, बैठी आज उदास।।2।।
माँ के चरणों-सा नहीं, पावन कुछ भी यार।
करे देवता भी स्वयं, है जिसका मनुहार।।3।।
अपनी माँ से तन मिला, वाणी माँ से बोल।
हिन्दी माँ के छुअन से, हुआ चरित्र अमोल।।4।।
हिन्दी माँ जब से बसी, कलम, कंठ में तात।
यश, कृति पर होने लगी, सुधियों की बरसात।।5।।
#स्वरचित
✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार
विषय:-मातृभाषा हिंदी एवं माँ
तेरी हल्की चोट पर, विकल हुई थी मात।
रे निष्ठुर! कैसे किया, माँ हिय पर आघात।।1।।
जिस माँ ने रक्खा तुझे, उदर मध्य नव मास।
वो तेरी दुत्कार से, बैठी आज उदास।।2।।
माँ के चरणों-सा नहीं, पावन कुछ भी यार।
करे देवता भी स्वयं, है जिसका मनुहार।।3।।
अपनी माँ से तन मिला, वाणी माँ से बोल।
हिन्दी माँ के छुअन से, हुआ चरित्र अमोल।।4।।
हिन्दी माँ जब से बसी, कलम, कंठ में तात।
यश, कृति पर होने लगी, सुधियों की बरसात।।5।।
#स्वरचित
✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार
स्वतंत्र विषय पर यें काव्य ;-
सुनाई देती है हमें
एक आवाज़ जो
कभी-कभी हमारे भूख के
लिए उठती है
पर, फिर शांत हो जाता है सबकुछ
जैसे कोई आंधी
आकर जाती है........।
बस पिछे रह जाती है
हमारी वही खाली थाली
जो खनकती, चिल्लति
तरपती है ,
एक-एक निवाले को
हर पल आँखें तरसती है.........।
आप मजहब के लिए लड़ते हो
पर हमारी लड़ाई तो
पेट के लिए है साहेब !
नहीं फर्क पड़ता हमें
मंदिर या मस्जिद से
हमारी तो लड्डु और खीर
दोनों हीं भूख मिटाती है..........।
स्वरचि ;-मुन्नी कामत।
सुनाई देती है हमें
एक आवाज़ जो
कभी-कभी हमारे भूख के
लिए उठती है
पर, फिर शांत हो जाता है सबकुछ
जैसे कोई आंधी
आकर जाती है........।
बस पिछे रह जाती है
हमारी वही खाली थाली
जो खनकती, चिल्लति
तरपती है ,
एक-एक निवाले को
हर पल आँखें तरसती है.........।
आप मजहब के लिए लड़ते हो
पर हमारी लड़ाई तो
पेट के लिए है साहेब !
नहीं फर्क पड़ता हमें
मंदिर या मस्जिद से
हमारी तो लड्डु और खीर
दोनों हीं भूख मिटाती है..........।
स्वरचि ;-मुन्नी कामत।
चाय का प्याला ,
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
तुझ पर भी लिख सकती है मधुशाला ,
चाय का प्याला ,
दो प्यालो के साथ
दोस्त बनते है ,
युवक -युवतियां सपने बुनते है ,
करमचारीयो की सुस्ती को हरते है ,
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
चाय का .....
संवेदना ,वेदना
चिंतन ,मनन ,
दुख ,खुशी
सारे रसो को चाय के प्याले ने झेला है ,
चाय का ....
कौन अपना कौन पराया ,
क्या सच क्या दिखावा ,
कौन खास है ,
कौन आस्तीन का सांप हैं ,
सब जानता है ये हाला
चाय का ....
राजनीती ,कुटनीती ,
मंत्रालय ,महा विद्यालय ,
सरकारी ,गैर सरकारी ,
कोर्ट ,कचहरी ,
सब जगह घुमता ये प्याला ,
साँझ को थकान भगाय ,
भोर नीदियां से जगाय ,
दो पल बैठे जो प्यालो के साथ
तो सब भेद खुल जाय
छोटे से लेकर बडे पदाधिकारी तक
सब चाय पर ही बुलाय ,
बडे काम का है ये प्याला ,
चाय का प्याला ,
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
तुझ पर ... ....
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
तुझ पर भी लिख सकती है मधुशाला ,
चाय का प्याला ,
दो प्यालो के साथ
दोस्त बनते है ,
युवक -युवतियां सपने बुनते है ,
करमचारीयो की सुस्ती को हरते है ,
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
चाय का .....
संवेदना ,वेदना
चिंतन ,मनन ,
दुख ,खुशी
सारे रसो को चाय के प्याले ने झेला है ,
चाय का ....
कौन अपना कौन पराया ,
क्या सच क्या दिखावा ,
कौन खास है ,
कौन आस्तीन का सांप हैं ,
सब जानता है ये हाला
चाय का ....
राजनीती ,कुटनीती ,
मंत्रालय ,महा विद्यालय ,
सरकारी ,गैर सरकारी ,
कोर्ट ,कचहरी ,
सब जगह घुमता ये प्याला ,
साँझ को थकान भगाय ,
भोर नीदियां से जगाय ,
दो पल बैठे जो प्यालो के साथ
तो सब भेद खुल जाय
छोटे से लेकर बडे पदाधिकारी तक
सब चाय पर ही बुलाय ,
बडे काम का है ये प्याला ,
चाय का प्याला ,
तुमसा दूजा नहीं हाला ,
तुझ पर ... ....
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
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तुमसे जुड़ी है मेरे जीवन की आशाएं
फिर कुछ कमी खलती रहती क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
रास नहीं आता है कुछ भी यहां मुझे
मेरा मन पल-पल बेचैन रहता क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
हर वक्त मन ढूंढता रहता है तुम्हें ही
दूरियाँ, मजबूरियां मेरे हिस्से क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
कब तलक यह जीवन जीना है मुझे
यह सफर हमारा धीमा-धीमा क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
जुदाई का जहर अब पीना मुश्किल
यादों में दिन-रात कटती रहती क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
देख नहीं पाती हूं तुम्हें रोज नजरों में
नजरें राहों पर भटकती रहती क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
इंतजार में सावन छलकते हैं नयनों में
हमें वक्त का गहरा जख्म लगा क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
नासूर नही बन जाए जिंदगी रहम कर
दिल मेरा अब सहमा-सहमा-सा क्यूं है।
ये जिंदगी मेरी तन्हा-तन्हा-सा क्यूं है।
---रेणु रंजन
(स्वरचित )
'माँ' पर दोहे
माँ की ममता सम नहीं, गुरु गम्भीर प्रवाह।
हिमगिरि सा ऊँचा महा, और पयोधि अथाह।।१
मात-पिता के चरण में, होते चारों धाम।
मिथ्या वक्ता मैं नहीं, कहते हैं प्रभु राम।।२
माँ के जैसी कौन है, त्याग तपस्या मूर्ति।
चरणों को स्पर्श कर लें, वो भगवति प्रतिमूर्ति।।३
पेट हमारा वह भरे, रहकर भूखे पेट।
उसको भूखा छोड़कर, खाऊँ क्यों भरपेट।।४
मेरी चिन्ता की उसे, रहे सदा ही टेक।
ऐसी मेरी मातृका, मैं करता अभिषेक।।५
सुबह शाम आराधना, हृदय से 'बृजकिशोर'।
हरिद्वार काशी बिना, पुण्य मिले घनघोर।।६
ऐसी मेरी कामना, दर्शन निशि दिन मात।
मातृ कष्ट सारे हरूँ , सुन्दर सुखद 'विभात'।।७
---बृजेश पाण्डेय बृजकिशोर ‘विभात’
रीवा मध्य प्रदेश
भाषा है अभिव्यक्ति
अतुलनीय शक्ति
है अनुराग भक्ति।
भाषा है साध्य अराध्य
है साधना साधक
अराध्य अराधक।
भाषा पूजन अर्चन
शब्दों का अर्पण
है सर्व भाव व्यंजन।
इनसान को देती श्रेष्ठता
जानवरों से अलग
भाषा करती विलग।
भाषा अविरल प्रवाह
अंतर्भावों की चाह
सम्यक उन्नति की राह।
भाषा सबको जोड़ती
अंतर्संबंधों को मोड़ती
चिर मौन तोड़ती।
भाषा होती है निर्झरणी
इनसान के वजूद को
सदा रेखांकित करती।
भाषा संवाद की नींव
मानवता की बलसींव
समेटे शक्ति अतीव।
भाषा रूप रस अलंकार है
अहमियत का हथियार है
मानवता की पुकार है।
भाषा ममता करुणा है
भाव प्रेरक उद्घोषणा है
पोषित संस्कारों की पोषणा है।
भाषा गीत ग़ज़ल राग है
साहित्य अनुपम भाग है
अंतर्भावों का अनुराग है।
अतीत भविष्य वर्तमान है
भाषा बिन सब गुमनाम है
जीवन साज ,संस्कृति का ताज है
भाषा शब्दों की संवाहक है
मौन की परिचायक है
विश्व विजेता नायक है।
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स्वरचित व मौलिक
*सुधा शर्मा*
राजिम (छत्तीसगढ़)
9-9-2018
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