इन नयनों को कहनेदें।।१।।
अमावस्या जीवन की हंसेगी,
प्रेम का दीया जलनेदें।।२।
रजनी मधु कलश लिए खड़ी,
रात को हसी बनने दें।।३।
पीड़ा में प्रीत पली है,
प्राण कुमुद को खिलने दे।।४
तमाम उम्र इंतजार किते,
मेरे महबूब से मिलने दें।।५।।
पर्याय के गीत गुनगुना ने दें,
प्राण को आज करीब आने दें।।६।।
मन की नदी को बहने दें,
अपने सागर से मिलने दें।।७।
दु:ख-सुख के,
गहरे सागर में
प्रभु सहारें,
गुरु ग्यान,
है,गहरा सागर,
प्रकाश पुंज,
तम से भरा,
सागर में दर्द ,
छलके आँसू,
ये तन्हाई ,
दिल की बैचेनी में,
दर्द सागर,
जब पीड़ा से,
तड़फता है,मन,
भव सागर ,
झूठें वादें भी,
स्मृति भवर से,
मिलें सागर,
प्रेम के मोती
गहरे सागर में,
डोलता मन,
भावों के मोती
बिखरे कलम से
काव्य सागर
'सुनीता पँवार' देवभूमि उत्तराखण्ड
सागर .
..........
" शोर की इस भीड़ में .. ख़ामोश तन्हाई-सी तुम...
ज़िन्दगी है धूप तो .. मदमस्त पुरवाई-सी तुम ;
.
आज मैं बारिश में.. जब भीगी .. तो तुम ज़ाहिर हुये
जाने कब से रह रहे थे मुझमें अंगड़ाई-सी तुम ;
.
चाहे महफ़िल में.. रहूं .. चाहे अकेले में.. रहूं ....
गूंजते रहते हो मुझमें .. शोख शहनाई-सा तुम ;
.
लाओ वो तस्वीर .. जिसमें .. प्यार से बैठे हैं हम ....
मैं हूं कुछ सहमी हुई -सी . और शरमाये -से तुम
.
मैं अगर मोती नहीं बनती . तो क्या बनती "वेद"
हो मेरे चारों तरफ .. सागर की गहराई-सा तुम ....".
........
मीरा पाण्डेय उनमुक्त
(8/09/18)
सागर की लहरों में जब ,
सूरज की किरणें पड जाती,
ऐसा प्रतीत होता है जैसे,
सागर को भी हँसी आती |
लाखों प्रकार के जीवों का,
ये खुद घर बन जाता,
गहरा इतना है कि इसमें,
बहुत कुछ समां जाता |
छोटी-छोटी नदियाँ पानी लेकर,
दूर-दूर कहीं निकल जाती,
सागर की स्थिरता तो देखों,
वो उसी जगह टिक जाता,
खूब परीक्षण होते इसमें,
कभी-कभी अघात हो जाता,
क्रोधित जब ये होता है,
सुनामी भी बडी ले आता |
गुण उदारता का दिखाता,
तो पत्थर को भी तैराता,
श्री राम जी के कहने पर,
सेतु इसमें बन जाता |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
इस समन्दर में उबाल आया है।
जब से तुम्हारा ख्याल आया है।
उठ रही है लहर पे लहर खुद ही ।
मौजों मे कितना उछाल आया है।
जिन्दगी में कुछ भी नहीं बदला।
कैसे समझे नया साल आया है।
अब वो घबराने लगे हैं मुहब्बत से।
जब निभाने का सवाल आया है।
गैर होता तो गम न होता सोहल।
मुझे तेरा बड़ा मलाल आया है।
विपिन सोहल
प्रेम भावना निकली है ।
जाने कितने दिल तोडेगी,
निश्छल हो कर निकली है॥
****
सारी मर्यादा को तोड कर,
कल-कल छल-छल बहती है।
सागर से अब आन मिलेगी,
कलरव करते निकली है ॥
*****
वह विरह वेदन मे लिपटी,
सागर से मिलने निकली है।
वो श्याममयी सी श्याम सखा,
वो राधा बन कर निकली है॥
*****
मन के भावों को साथ लिए,
वो निर्मल निर्झर बहती है।
करे शेर उजागर प्रेम अधर,
वो मीरा बन कर निकली है॥
****
स्वरचित..
तुम और हंसी हो जाते हो।
तुम हँसते हो तो हमनसीं,
मेरी आँखों में खो जाते हो।
मेरी कल्पना के #सागर में,
तुम लहरें बन कर आते हो,
मैं तब सीपी बन जाती हूं,
खुद से मुझको नहलाते हो।
मेरी मोती बिखरे इधर उधर,
तुम दूर बहा ले जाते हो,
तुम हँसते हो तो हमनसीं,
मेरी आँखों में खो जाते हो।।
श्वेता ठाकुर (स्वरचित)
फरीदाबाद, हरियाणा
भले है गहरा पर किसको प्यारा है ।।
जोर न उसका इस पर , पर गम नही
उसे चाहने वाले भी जग में कम नही ।।
जिन्हे पूजे दुनिया वो सागर को पूजे
बहती नदियों से पूछो क्या उन्हे सूझे ।।
उन्हे जरूरत गहरेपन की वो कहाँ समायें
हमें जरूरत मीठेपन की वो उसमें न पायें ।।
उपयोगिता ही दुनिया में चाहत को हवा दे
किसकी कौनसी अर्ज है कौन वो दवा दे ।।
हर खरीदार यहाँ''शिवम"सागर तो सागर है
गहराई में न सानी उसका जग जाहिर है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 08/09/2018
सागर को लिख पाना
या सागर को पढ़ पाना
हमारी बस की बात नहीं
सागर तो स्वयं ही इतना विशाल है कि सब को अपने में समेट लेता है।
हम दोनों हैं सागर के दो किनारे एक दूसरे से अलग फिर भी एक दूसरे के सहारे
हम दोनों के वंश कुछ भी नहीं ,
एक दूसरे के हो कर भी
कश्मकश में है यह जिंदगी
ये है सागर की परिधि मैं सागर से अभिन्न
समय के चक्र से हारते रहे
और एक दूसरे को यूं ही निहारते रहे
नहीं कर सकते उन्हें मिलाने का प्रयास
यह कल्पना ही एकमात्र एक दूसरे की आस
तुम्हारे अंह का ये खारा पानी
यह बताती है हमारे अलग होने की निशानी
सागर की ऊंची नीची लहरें
कभी एक किनारे ना ठहरे
क्या कभी दुख के यह ज्वार भाटे
क्या तुम्हारे दिल को भी छुए हैं
क्या कहीं दो किनारे भी एक हुए हैं
लहरों का यह मध्य का प्रेम
सिर्फ स्पर्श की अनुभूति तो कराता है
जिस प्रेम में अंह का वास है
प्रेम नहीं अंधविश्वास है
ये तुम क्यों नहीं समझते ऐ सागर
ये तेरा अहंकार है या बीच मे संसार है
हम दोनों हैं सागर के दो किनारे
एक दूसरे से अलग फिर भी एक दूसरे के सहारे
स्वरचित, हेमा जोशी
=====
लहर किनारे खड़ी खड़ी मै
सागर तुझको निहारु
हर कला है तेरी जीवन दर्शन
मै अपने मन मै उतारू
सबको स्व मै समाहित करना
तेरा सरल स्वभाव है
अमृत खजाने सब पर वारी
तेरी गहराई पहचान है
इठलाती बलखाती लहरें
मृदुल उमंग संचार है
चमकती रेत सी चादर
मेरे ख्वाबों का गलीचा है
तेरे शखों की करतल नाद
ये जीवनकी गरिमा है
तपस्वी सूर्य रश्मि सी
बिखेरो रंगीन आभा तुम
ये जीवन ज्वार भाटा है
संतुलन करके जीले हम
कभी ये रौद्र सा उफने
कभी ये शांत लहराय
गहराई थाम कर के हम
आलोकित जग मै हो जाए
स्वरचित सीमा गुप्ता
अजमेर
8.9.18
कितना प्रखर?
कितना उज्जवर?
तेजवान,
बेगवान,
सागर महान,
.....
अपने ही मद में-
चूर कहीं,
चूमता है नभ,
दूर कहीं,
लहराता,
बलखाता,
अपने पर,
इतराता,
उमड़-घुमड़,
लहर-लहर,
आता है,
तट तक,
टकरा कर,
पाषाणो से,
जाता है,
विखर-विखर,
......
पर इसके इतर,
एक रूप और,
है सागर का,
ऊपर से अशांत,
पर शांत है अन्तर में,
कितने ही रत्न,जीव,
पलते हैं अंदर में,
नदियों को,
नालों को,
खुद में समाया है,
तब जाकें सागर ये,
सागर कहाया है,
हां सागर कहाया है,,,
.....राकेश
हाइकु
1
जीवन नैय्या
डूबा सागर धारा
प्रभु सहारा
2
दया व प्रेम
है गहरा सागर
अमूल्य निधि
3
गहरी निशा
सागर सी तन्हाई
बेचैन मन
4
चंचल चित्त
लहराता सागर
मचाता शोर
5
प्यार के पल
है गहरा सागर
डूबता मन
6
मायावी जग
है दुःखों का सागर
जीवन ठग
7
गंगा सागर
भव बंधन मुक्ति
मन की शुद्धि
8
अश्रु की धार
नयनों के सागर
खुशियाँ छाई
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
नदिया सी मैं इठलाती रहती हूँ....
सागर से तुम खामोश रहते हो...
बेकाबू मेरे दिल की धड़कनों को...
चुप्पके से तुम आगोश लेते हो...
सिमट के मैं सिहर सी जाती हूँ...
लिपट के तुम सराबोर करते हो...
कभी तुम मजबूर हो जाते हो तो....
कभी मैं मजबूर सी रहती हूँ....
अथाह की थाह कहाँ ढूँढूँ मैं बता....
मेरी पनाह का एहतराम करते हो...
रहती हूँ उर में जागती हर पल मैं...
ख़्वाब में तेरे मगर मैं सोती रहती हूँ...
हसरतों का सागर जब तन्हा होता है...
ख़्वाबों में गहरे तुझ से आ मिलती हूँ.....
नहीं पता तकदीर ख़्वाब की है क्या...
धरा सी मैं जब संभलती हूँ कभी तो...
नभ सागर बन छलक जाते हो तुम...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०८.०९.२०१८
सागर
जिंदगी के मायने बदल जाते है ,
दोस्ती के कायदे बदल जाते है,
फिजाओं मे जाने कैसी हवा है चली ,
लोगो के आशियाने बदल जाते है ।
दायरों मे सिमटती वफाओ की बुलंदीयाॅ,
रेत पर सूखती #सागर # की सिपीयां,
मौजो के सीने पर तैरते हुए साहिल ,
जाने कैसे जमाने बदल जाते है ।
सीने मे अरमानो की दीवारें चटक गयीं,
मंजिलो के फासलो मे निगाहे भटक गयी,
हम तो मुसाफिर हैं, हमारा क्या 'मंजु '
आज इस दौर मे रास्ते बदल जाते है ।
रत्नों से भरे
सागर या जीवन
दोनों गहरे
प्रेम कीमती
हृदय के सागर
भाव हैं मोती
शर्म का बोध
पश्चाताप सागर
डूबता क्रोध
रवि को देख
सागर की बाहों से
निकले मेघ
नौकाएँ बन
आसमाँ के सागर
तैरते घन
मोती से भाव
शब्दों के सागर में
तैरें विचार
तु सागर मैं नदी हूँ तेरी
मिलन को मैं आतुर
मैं नही भुली तुम भुल गये मोहन
मेरे गोवर्धन गिरधारी
मैं त्याज्य नही ग्राह्य मुझे मोहन
मैं भोली नादान हूँ
सागर के जीवन सा मे रा
कभी शांत कभी उफान पे
ज्वार भाटा तो आये जीवन में
कभी तुम भी तो आओ मोहन
तुम गुणों का सागर मोहन
मैं अवगुण की खान हूँ
मैं डूबी हूँ भवसागर मे
पार लगाओं तारणहारे
मैं नीर हूँ नदियाँ की
सागर से तो मिलकर रहूँगी
उदार हो तुम प्रभु मेरे
करुणा सागर हैं नाम तुम्हारा
भवसागर तो पार लगायो मोहन
भवसागर पार लगायो
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
"सागर"
सागर सी गहराई लिए,
दिल में है सैलाब मेरे,
कभी हँसना है कभी रोना,
सुख-दुख तो हैं दुनियाँ के फेरे,
सागर में छिपे मोती जैसे,
आँसू छूपे हैं मेरे नैनों में,
कोई सहकर दुख जी लेता है,
कोई मिटाए दुख मयखाने में,
खामोशी जिनकी फितरत है,
तभी तो सबको भाते हैं,
सागर सा विशाल हृदय,
सबके राज छुपाते हैं।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
8/9/18
शनिवार
सोचा एक दिन
सागर किनारे
बैठ कर।
ना बुझा सके
प्यास इसकी
हजारों लाखों
दरिया भी मिलकर ।
रोक लो दरिया को
सागर से पहले,
दरिया भी
खारा हो जाएगा।
फिर एक बूंद भी,
किसी के काम
ना आएगा।
पुरुषार्थ कर,
मोड़ दे रास्ता
दरिया का।
मिल जाए सागर में
ये निर्मल जल,
उससे पहले भर ले
अपनी गागर।
फिर हाथ फैलाने से भी
नहीं देगा सागर।
स्वरचित -मनोज नन्दवाना
"सागर"
नदिया सागर से मिलने को जाती है,
इसीलिए गाती है...
पदवंदन करने को सागर तट हेर रहा,
लहरें अकुलाती है...
तारों की चादर समेट रही रजनी भी,
पलकें झपकाती है...
आसमां समाया है सागर की गोदी में,
ऊषा झिलमिलाती है...
सागर की लहरों पर मधुमय अरुणोदय भी,
प्रात गीत गाती है...
आशाएं थिरकती है सागर के ज्वारों पर
प्यास मचल जाती हैं...
जीवन की लहरों पर तैरती "पथिक "को,
विश्वास दिए जाती है...
मैं:- "पथिक रचना"
स्वरचित
जीवन एक सागर है,
सांसे आती जाती लहरे है l
ऊपर उठती नीचे आती,
संघर्ष करना हमें सिखाती है l
ज़ब तूफान आता है सागर मे,
सब कुछ खोने लगता सागर मे l
जीवन में भी तूफान आते है,
उठकर उनसे फिर मिलना सागर मे l
हम सब भव सागर मे रहते,
तभी कष्ट बहुत है सहते l
बस थोड़ा सा उपकार करो तुम,
अभी समय के रहते रहते l
ज़ब यम लेने तुमको आएंगे l
सोच में आप पड़ जायेंगे l
फिर अच्छे कामसोचोगे तुम,
पर यम तुमको ले जायेंगे
कुसुम पंत स्वरचित
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