"दीपक "
एक दीप जलाया मैंने
मेरे मन में तेरे नाम
बूझने ना दिया अबतक
निहारती रही सुबह शाम
इंतज़ार में बैठी हूँ तेरी
अपनी साँसों को थाम
चमकेगा ये दीया
तेरे आने के बाद
फिर रौशन होगी शमाॅ
हर शाम बस तेरे नाम
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
दीप देता है संदेश मनुष्य को
प्रतिपल प्रतिक्षण
देख मुझे जल मेरी तरह
मानवता का दे संदेश
पढा मनुष्यता का पाठ
कर औरों के लिए अर्पण
सच, तभी तू सच्चा मानव है
सीख दीप से लै सदैव
स्वयं जलता है, जल-जल कर राह दिखाता है
कर अपना समर्पण
एक अमिट इतिहास रचाता है
यह दीप है प्रतीक
अनंत इच्छाओं का
आस्थाओं, भावनाओं और विश्वास का
उम्मीद की किरण है
जीवन की उमंग है
झिलमिलाती हुई यह दीप की लौ
दीप जो सदा जलता है औरों के लिए
बनो दीप रहो दीप्त
फैला दो प्रकाश
मिट जाए अंधकार
छाए हर्ष चहुंओर
अभिलाषा चौहान
(स्वरचित)
वरना नजदीक से निकल जायेंगे भगवान ।।
तम ही तम है चारों ओर कैसे होगा कल्यान
जलाओ अन्तस की ज्योत यही एक निदान ।।
बेबसी छायी हर ओर बेहयायी इंसान नही इंसान
गर्दिश में बजूद है कूप ही कूप है न रहो अन्जान ।।
डूबने का डर सूखने का डर रोशनी के हो कद्रदान
परायी रोशनी से न चलेगा काम करो ये भान ।।
जलाओ जोत ''शिवम" जलते चरागों का करो मान
विनम्रता से आयी सदा रोशनाई ये हकीकत जान ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 25/09/2018
मैं दीपक हूँ वो जो आंधियों में भी।
जलती रहती हूँ, जलता रहता हूँ।
खुद जलके दूसरों को रोशनी।
देता रहता हूँ,देता रहता हूँ।
जब बुझ गयाऔर अँधेरा हुआ।
फिर जलने की कोशिश करता हूँ।
जलके जो बुझे और बुझके जले।
जीत सदा उसीकी होती है।
मैं वो...........
जो दूसरों की रोशनी से जले।
वे सदा औरों का सहारा लेते हैं।
खुद कभी ना अपनी रोशनी से जले।
वे सदा आलसी होते हैं।
मैं.............
तुम सदा खुद की रोशनी से जलो।
खुद का अँधेरा सदा दूर करो।
दूसरों का कभी सहारा ना लो।
सही मायने में वही जिंदगी होती है।
मैं............
खुद जियो और दुसरों को भी जीने दो।
जीनेबाले सदा यूँहीं जीते हैं।
वो जो सदा दूसरों के सहारे जियें।
वो इन्सान भी क्या खाक जीते हैं।
मैं.............
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
* दीपक *
दीपक है तुम्हारा समर्पण
कितना महान
खुद जलकर करते हो
औरों के जीवन को प्रकाशमान ।
देखा सबने ज्वाला तुममें
पर मैंने देखा है तुम्हें बार-बार
कोई यंत्र बना नहीं अबतक
जो एक दूसरे में बाँटें तुमसा प्यार ।
तुने ही तो दिखाया है हमें
सहयोग और साझा का सार
कैसे ज्वलित हो एक- दूसरे से
कर सकते है हम
घोर अंधेरा का संहार ।
स्वरचित:- मुन्नी कामत ।
झूठ को सीने से हम लगा बैठे है,
सच केजलते दीप हम बुझा बैठेहै।।1।।
भू पर अमीर गरीब जातियां दो ही है,
फासलें क्यों दिलों में हम बना बैठे है।।2।।
मानवता की बगिया में तुम देखों,
दानव लीला नेता चला बैठे है।।3।।
हिंसा घृणा के बीज हम ही बोते रहे है,
सत्य निष्ठा प्रेम को हम जला बैठे है।।4।।
जनसेवक कहाँ है,झूठों वादों से,
देश के नेता हमें बहला बैठे है।।5।।
स्वरचित दे्वेन्द्रनारायण दास बसना6266278791।
घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वार द्वार पर
यह दिया बुझे नहीं.....
अनगिनत बलिदानों से सजा
स्वतंत्रता का यह दिया,
लो प्रण हर पल यही
यह दिया बुझे नहीं....
आँधियाँ उठा रहीं,
हलचलें मचा रहीं,
दूर अंधकार हो,
ना कोई क्लेश हो,
क्षुद्र जीत हार पर,
यह दिया बुझे नहीं.....
यह दिया स्वतंत्रता का
शहीदों के खून से जला
नेताओं ने खूब छला,
ध्यान धरो बलिदानों का
यह दिया बुझे नहीं.....
जिसने दासता की बेड़ियां काटी,
उनकी नेताओं ने जड़े काटी,
कड़ी से कड़ी सजाऐं काटी,
ध्येय था स्वतंत्र हो स्वमाटी,
ध्यान धरो उन वीरों का,
यह दिया बुझे नहीं.....
इतिहास बनाया आक्रांताओं को,
खूब छला महानताओं को,
ध्यान धरो उन महानों को,
यह दिया दिया बुझे नहीं....
यह दिया स्वतंत्रता का,
यह दिया बुझे नहीं......
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
जलता हूँ घर की दहलीज पर अँधेरा मिटाने के लिये.
मैं दीपक हूँ दुश्मनी मेरी अंधेरों से
फिर भी हवायें दुश्मनी निभाती हैं मुझसे
ना जाने क्यों .
कभी मेरी बाती जलती हैं इधर कभी उधर
कभी गुजर जाता हूँ मैं भयंकर तूफ़ान से कभी बुझ जाता हूँ एक ही झोंके में .
मैं दीपक हूँ रोशनी हूँ घर द्वार का
आफताब और पहरेदार हूँ परिवार का .
दिन भर तुम उजालों में रहते हो
रात को मैं ही तुम्हारी अँधेरे घर का उजाला हूँ .
प्रेम से फूंक मारो तो बुझ जाता हूँ
नफरत से तो और भयानक बन जाता हूँ .
दिन के उजालों में मुझे भूल ना जाना
रात की ख़ामोशी में तुम्हें मेरी ही ज़रूरत होगी .
स्वरचित :- रीता बिष्ट
न जाने कहाँ खो गया...
हर शै में ढूँढा तुझको...
कभी रईस दोस्तों में...
कभी महबूब में....
हर बाग़ की फूल-पती...
गहन कंदराओं में भी खोजा तुझको...
पर तू...
न जाने कहाँ खो गया है....
भटकता रहा मैं दरबदर...
देखा खुदा को जाती हर रहगुज़र...
किताबों में..तो कभी उपदेशों में...
कहीं तो मिलेगा...पर तू नहीं मिला...
कहीं नहीं मिला...
कहीं टिका नहीं...रुका नहीं...
मिला तो एक गरीब की झोंपड़ी में...
दीये की बुझती टिमटिमाती लौ में...
एक नन्ही सी बिटिया...
माँ की गोदी में लेटी अपलक...
माँ के मुख को देख रही थी...
लोरी सुन रही थी...
माँ की ममतामयी आवाज़ की...
स्वर लहरियां एक अजीब सी...
मिठास अंदर ही अंदर भर गयी...
गोद में लेटी नन्ही सी बेटी का…
मासूम...नूरानी चेहरा...
झोंपड़ी को रौशन कर रहा था...
दीये की लौ शरमा के बुझ गयी....
मेरी तन्द्रा भंग हो गयी...
मन मुझे मिल गया था...
लोरी की मिठास में...
नन्हें से फूल में....
जो हर दर्द से..हर चिंता से...
हर बेरहमी से अंजान...
शांत और स्थिर था...
माँ की गोद में....
जो...
माँ की आँखों का...
तारा...
उसकी ज़िदगी का...
दीपक थी....
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
२५.०९.२०१८
मन का दीपक जलाता चल
सब घोर अंधेरे मिटाता चल
सुख दुःख आना जाना सब
गम दिल से सब हटाता चल
जो तुझे मिला, सबको कहां
सबको तू प्यार लुटाता चल
हां जलना पडा है रोज तुझे
तू बस रोशनी बरसाता चल
मन रोशन तब जग रोशन
मन को बडा बनाता चल
कोई घबराता राह को ढूंढे
थाम हाथ राह दिखाता चल
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
तिमिरमय तूफा़नों का नित्य,
सामना करता चारु अनित्य,
तमस से शुचि ज्योति की ओर,
हमें ले जाता तनिक प्रदीप्त।
विधाता स्वयं प्रकाश का पुँज,
धरा पर दीपक वाहक मात्र,
तरंग सात्विक उत्पति कारक
दीप का बाती सज्जित का गात्र।
मुख्य पंचामृत में घृत एक,,
प्रज्वलित लौ दीपक की अनेक,
ऊर्जा सकारात्मक संवाहक,
चहुँदिशि जीवन में सुखदायक।
बसुंधरा पर उपलब्ध सुपात्र,
करे मन आशा का संचार,
शलभ के उर में प्रीति अपार,
बदलता नहीं कदापि व्यवहार।
हिन्दू धर्म सनातन मे भी,
कर्मकांड का भाग अभिन्न शुचि,
ग्रहदोष निवारक भी सशक्त सा,
दीपक अदभुत तनिक विलक्षण।
--स्वरचित--
(अरुण)
घर संसार में करता उजियारा
है नाम एक ,पर काम अनेक।
विविध रूपों में ढलता जाता ।
आराध्य देव के जब जलूँ सामने
मैं पूजा का पर्याय बन जाता ।
घर के मन मंदिर में जलकर
आस्था का सबब बन जाता ।
पुण्य आत्मा के समक्ष जब जलता
उसके क्रिया कर्म का अंश बन जाता।
किसी की शहादत पर जब मैं जलता
श्रधांजलि का पुण्य पुंज बन जाता
पीतल ,ताम्बा,चाँदी के बोझ से
हरगिज़ ना मुझे तोलो तुम।
मैं अमोल हूँ माटी का दीपक
मेरे जलने के मर्म को पहचानो तुम।
स्वरचित
संतोष कुमारी
२५-९-२०१८
अंधकार फैला है मेरे मानस मे।
समझ सका नहीं अबतक खुद को,
शायद इसीलिए मै घिरा तमस में।
दीपक जला रखा प्राणों का प्रभु ने,
मै स्वयं तिमिर में कहीं डूब रहा हूँ।
सुखद स्वच्छ राह गैरों को बताता,
फिरभी अपनी राह मै ढूंढ रहा हूँ।
स्वयं बना हूँ मै दीपक औरों को,
सब प्रकाशित पथ कर देता हूँ।
है बडी बिडंबना देखें हम सब,
मै अपने नीचे तम भर लेता हूँ।
मेरा मानस उद्देलित होता है।
ये रोम रोम विचलित होता है।
ज्योति जलाई परमेश्वर ने पर,
हृदय नहीं आलोकित होता है।
दृष्टिहीन बना शायद अंतस से।
नहीं देख सकूँ मै अवगुण अपने।
ऐसा दीप जलाऐं हे राम रघुनंदन,
दिखें मुझे कुछ सदगण सपने।
स्वरचितः ः
इंजी.शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
बस हम एक दीपक जलाये
तीमिर हट जाये तुरंत
राह हमें तुरंत सूझ जाये
हटे तम अज्ञान का
जब एक दीप हम ज्ञान का जलाये
जैसे नभ का चाँद अम्बर मे
उजाला फैलाये
भटके पथिक को अपना राह मिल जाये
ईश के सामने दीप जलाकर
गान करें हम भक्ति का
फैले उजियारा भक्ति का
वातावरण शुद्ध हो जाये
कुलदीपक जब अपने सत्कर्म से
कुल का नाम रौशन कर जाये
उन्नति पथ पर अग्रसर हो जाये
पूरा खानदान सत्कर्म मे लग जाये
कलश के ऊपर दीपक रख कर
करे जब हम मंगल कार्य
शुभ मंगल हो हमारा
जीवन सुखमय हो जाये
वाल्मीकि के अंदर जब ज्ञान का
दीपक जल जाये, डाकू से परम भक्त
बन राम के,वाल्मीकि रामायण रच जाये
आँखे है हमारे दीपक समान
जो जग का हमें दर्शन कराये
यही है एक आस अःतकरण मे
ज्ञान का ऐसा दीप जल जाये
और प्रभु का हम दर्शन कर पाये।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
बाती बनकर मै तो साजन,
तेरी ज्योत मै बन जाऊँ l
प्रेम का दीपक तू है मेरा,
करदो साजन दूर अंधेरा,
अर्धांग्नी हूँ मै तुम्हारी,
जन्मों का है संग तेरा मेरा l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
दीप अच्छाई बन चमकता रहा,
कर्म का तेल, एकता की बाती,
रोशन जहाँ को करता रहा l
स्वयं में साहस भरता रहा,
संघर्ष के रास्ते हँसता रहा,
दृढ़ इरादों की ज्वाला बनकर,
विपरीत हवाओं से लड़ता रहा l
थपेड़े वक़्त के सहता रहा,
कफ़न बाँध के चलता रहा,
फ़र्ज़ निभा अंतिम साँस तक,
जीवन को प्रेरणा देता रहाl
धैर्य की लौ बन हँसता रहा
मन की ऊर्जा बाँटता रहा
कर्तव्य से बढ़कर सुख कहाँ?
जलता दीपक ये कहता रहा l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
ज्योति कलश छलकाना है,
कुछ दूरी तक नाम मेरा
अब सीमा पार कराना है,
कर विशेष कुछ अंतर्मन में
वो दीपक चमकाना है।
उत्तम क्षण की राह न तकना
पल-पल अद्भुत बनाना है,
मुझे पता है कहाँ जहां में
मुझको अलख जगाना है,
कर विशेष कुछ अंतर्मन में
वो दीपक चमकाना है।
सच्चा मैं हूँ,सत्य ही मुझको
विश्व पटल पर लाना है,
है प्रयास जो किया स्वयं से
वो संकल्प निभाना है,
कर विशेष कुछ अंतर्मन में
वो दीपक चमकाना है।
दिव्य दीप यह रहे सदा ही
साथ इसे रौशन रखना,
कार्य नहीं आसान ये इसमे
साथ सभी को आना है,
कर विशेष कुछ अंतर्मन में
वो दीपक चमकाना है।
स्वरचित-राकेश ललित
दीपक सा जलता है गुरु
ज्ञान का प्रकाश फैलाने को
कहते हैं गुरु जैसे ज्ञान का दीप जलाया मैंने
ऐसे जलाए मेरा शिष्य
हर तरफ बस ज्ञान का प्रकाश जलाये
शिष्य यही कामना करते है मेरे गुरु
ना भुरव उसे धन दौलत की
ना कोई लालच की आस
उसे तो चाहिये हमारी उपलब्धियाँ
और कोई उसे आस नही
हर वक्त साथ रहता है गुरु
हममे करता गुणों की तलाश
हमे तराशता है बड़ी ही शिद्धत से
हमे बना देता है सबसे खास
उसे नही चाहिये कोई वाह वाई
वो तो बचाता है ह्रमे अन्धकार से
ले जाता है ज्ञान के प्रकाश
वो सहजता है हममे एक नेक और
सच्चे इंसान को
स्वरचित हेमा जोशी
Manoj Nandwana
सोचता हूँ दीपक बनूँ
खुद जलूँ और सबको रोशनी दूँ
क्या लेकर आया था
जो कुछ खो जाने से डरूँ
उजालों में तो
कोई भी दे देता है साथ किसी का
मैं अंधेरों में भी राह दिखाऊँ
सोचता हूँ दीपक बनूँ
खुद जलूँ और.....
कहने को तो रोशनी है बहुत
जगमगाते सितारे भी हैं
चाँद भी है सूरज भी हैं यहाँ
फिर भी अंधेरे में हैं आधा जहाँ
सोचता हूँ वहाँ जलूँ
खुद जलूँ और ...
सृष्टि की हर कृति में जीवन हैं
और हर जीवन में एक ज्योति
खुद मिट कर भी
पालन सबका करती
मैं भी तो अंश हूँ सृष्टि का
अपना कर्म करूँ
मैं भी दीपक बनूँ
खुद जलूँ और......
स्वरचित -
मनोज नन्दवाना
तो हर उस का भला हो...
दीप सा जो जला हो...
मोम सा जो ढ़ला हो...
अकेला जो चला हो...
ठोकरें लगती मगर
हंसता रहा हो...
लड़खड़ाते हों कदम
पर गा रहा हो...
गिर पड़े!गिरकर
संभलता जा रहा हो...
धैर्य रखकर उलझनें
सुलझा रहा हो...
अगर मेरे कहने से
किसी का भला हो
तो हर उसका भला हो...
स्वरचित 'पथिक रचना'
"दीपक"
मंदिर में जो ज्योत जगे,
आस्था का वो दीपक कहलाता,
मिल जाएँगी खुशियाँ सारी,
मन में आस वो जगाता,
जलकर वो दीपक देखो,
फैलाता उजियारा,
कर तमस का नाश वो,
करें उज्जवल सारा नजारा,
जिस घर में बेटी होती,
वो घर भाग्यवान कहलाता,
बन बुढ़ापे का सहारा,
बेटा कुलदीपक कहलाता।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
25/9/18
मंगलवार
मैं गुरु हूँ दीपक सा
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मैं गुरु हूँ दीपक सा
चाहे खुद मैं जलता रहूँ।
पर जिंदगी की कठिनाइयों में
तुझे आंच तक न आने दूँ।।
मैं मानुस हूँ सुलझा सा
ना तुझे उलझाना चाहूं।
सब तेरे फायदा का होगा
चाहे तुझे डपटकर पढ़ाऊँ।।
कुछ ऐसा मत करना तुंम
कि लोग मुझे भी बुरा कहे।
कुछ ऐसा मत करना बेटा
सम्मान तेरा भी ना रहे।।
गुरु-दक्षिणा यही होगी मेरी
तेरी प्रसिद्धि का समाज धरूँ।
तुंम करना कुछ ऐसा बेटा कि
तुझे शिष्य बताकर मैं नाज करूं।।
मैं गुरु हूँ दीपक सा
चाहे खुद मैं जलता रहूँ ।
पर संघर्ष भरी जिंदगी में
तुझे आंच तक न आने दूँ।।
-:-स्वरचित-:-
सुखचैन मेहरा
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