Wednesday, September 18

"धुँआ " 17 सितम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-508



विषय:- धुँआ

काम क्रोध के धुँआ ले डूबा इंसान को
असमय ही मौत के घाट उतार देता है ये
कलुषित विचारों का जन्मदाता है ये विकार
पता ही नहीं चलता कब प्रवेश हो जाता है
इन विजातीय विकारों का जो विष्ठ घोलते
हंसती खेलती जिंदगी को धुँए में डुबोते
ये कालिमा जिस दिन छँट जाएगी तभी
धुंआ जिंदगी को इंद्रधनुषी बनने देगा
कवि राजेश पुरोहित
भवानीमंडी
स्वरचित, मौलिक

विषय धुंआ
विधा काव्य

17 सितम्बर,2019,मंगलवार

धुआं लिप्त पूरी दुनियां में
वायु प्रदूषण जीवन हरता।
दिनरात दौड़ते नित वाहन
जीवन भर अति ही खलता।

कल कारखाने उगले धुंआ
जनजीवन अति ही त्रस्त है
असाध्य रोगों से नर ग्रसित
धन अर्जन कर धनी मस्त है।

साफ़ नहीं दिखता है कुछ
मायावी धुंए में अति लिपटे।
सभी स्वार्थ निज पूरा करते
अपने दायरे में सब सिमटे।

आग लगे तब फैले धुंआ
इसमें होती कुछ सच्चाई।
अफवाहों का धुंआ फैलता
मिटती नहीं कभी अच्छाई।

धुंआ नयनों का गरल है
आँख ज्योति कम होती।
चूल्हे पर बनता भोजन
माँ की आँखे दोनों रोती।

स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

पुराने सब खत जला रहा हूँ।
कुछ इस तरह गम भुला रहा हूँ।

धुआँ धुआँ सब हुई मुहब्बत।
उसी का मातम मना रहा हूँ।

हजार टुकड़े किए हैं दिल के।
एक एक कतरा मिला रहा हूँ।

लगा दिया है ठिकाने जिसने।
उसी को दिल से लगा रहा हूँ।

कहा था उसने, न खैर होगी।
मैं खैर जिनकी मना रहा हूँ।

स्वरचित विपिन सोहल
विधा--ग़ज़ल
प्रथम प्रयास


धुआँ है दिल इश्क में जल कर
उठा है अब आँखें मल कर ।।

इश्क की .... राहों से बचे है
चलता अब ये सँभल सँभल कर ।।

गया था कोइ रोग लगा कर
नही आया फिर वो चल कर ।।

दिल के शोले बोल रहे हैं
दिल के जज़्बात खुल खुल कर ।।

मेरी महजबीं से कह दो
हाल-ऐ-दिल कोई जाकर ।।

दफन है इनमें अरमां कुछ
सजे थे जो तुम में रम कर ।।

मोहलत मिले कभी 'शिवम'जो
तो रो लेना गले लग कर ।।

रूह को चैन मिल जाऐगा
आना जरूर बेशक रूक कर ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 17/09/2019

दिनांक :- 17/9/19.

फिर कहीं धुआँ उठा इस शहर में।
हर गली कूचा जला इस शहर में।

हर किसी को छल गई सियासत यहां,
स्वार्थ के परचम उठा इस शहर में।

गिरगिटी अंदाज़ जबसे हो गए हैं,
अब हुक्मराँ आने लगे इस शहर में।

लो आदमीयत अब यहां बेवा हुई,
मर गया उसका सजन इस शहर में।

मात जिनसे खा गया शैतान भी,
वो ही मसीहा बन गए इस शहर में।

होने को तो हर मकाँ आबाद है,
बस आदमी ही मिट गया शहर में।

तीरगी में हर मकाँ डूबा 'तरुण',
अब उजाला मर गया इस शहर में।

दिनांक17/09/2019
विषय-धुँआ


मौन ओढ़े सभी है, हो रही है तैयारी
राख के नीचे दबी है, जरूर एक चिंगारी

हुकूमते ही नक्सल बनाती है...........
हुकुमते ही चंबल बनाती हैं............

विश्वग्राम के जन्नत
भारत के कुल ग्राम को देखो
यहीं धुआं मैं खोज रहा था
बारूदी गंधो की खुशबू
ठहरो -ठहरो भर लूं इन नथनों में
बारूदी छर्रो की खुशबू
छत्तीसगढ़ का बच्चा-बच्चा
क्यों बिछाता सुरंगों का बिछौना
नक्सलवाद के गोद में पलता
माओवाद का पकड़ लेता नचौना
गतिमान विकास की पहुंच से दूर पड़ा
कुल ग्राम का यह पालना.................

स्वरचित....
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज

*******************************
शीर्षक-धुंआ।
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
धुंआ धु
ंध की छायी बदली।
अज्ञानता चहुंओर फैली।।
वृक्ष काटता हर कोई इंसा।
नही लगाता इक क्षुप हैं। ।
आम आमला अमरूद।
हमको बहुत भाते है।
पर निकले इतने वर्ष।
कभी न एक लगाते है।
कैसी दिमाग पर धुंआ छाया।
कैसी पशुता पर हठ कर बैठे।
बढते वृक्ष को काटने कुठार हाथ।
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
स्वरचित
राजेन्द्र कुमार अमरा
१७/९/१९@०८:०४

🌻💧 गीत 💧🌻
**********************
🌺 धुआँ 🌺
🌺🌷🍋🐦🌴🌺

जिन्दगी चलती गयी और देखते हम रह गये ।
खो गये झंझावातों में , झेलते हम कह गये ।।

मीत तो मिलते गये पर विरला साथ निभा सका ।
हाथ ले कर भी न कोई साथी प्रीति बढ़ा सका ।।
क्या पता था छूट जायेंगे सहारे बीच धारे ।
भँवर में नैया फँसी है टूट बिखरे मोह सारे ।।

साथ जो कसमें थे खाते ,चाँद छू कर ढह गये ।
जिन्दगी चलती गयी और देखते हम रह गये ।।

दर्द की कश्ती बना कर चीरते गये धुंध को ।
जो मिला था राह चलते , झेलते रहे द्वंद्व को ।।
इस जमाने के धुआँ में , कौन रंगत देख जीते ।
प्यार की वीणा न गूँजी , नैन सूने भाव रीते ।।

गम थपेड़ो को सँजोये दर्द गीत में बह गये ।
जिन्दगी चलती गयी और देखते हम रह गये ।।

उड़ रही नित आयु परियाँ , चित्र धुआँ सी झुर्रियाँ ।
गल रही हैं साँस पल-पल ,पस्त हुई मन तितलियाँ ।।
मन्दिरों की घण्टियों सी गूँज आस बहला गयी ।
धड़कनों में बस गयी जो चीख हृदय दहला रही ।।

सिसकते दिल की कहानी मीत बेदम सह गये ।
जिन्दगी चलती गयी और देखते हम रह गये ।।

🌺🍀🌻🌷🌸

🍊🌹**...रवीन्द्र वर्मा आगरा

Kusum Kothari भावों के मोती
17/09/19
विषय-धुआॅऺ


कहीं उजली, कहीं स्याह अधेंरों की दुनिया ,
कहीं आंचल छोटा,कहीं मुफलिसी में दुनिया।

कहीं दामन में चांद और सितारे भरे हैं ,
कहीं ज़िन्दगी बदरंग धुँआ-धुआँ ढ़ल रही है ।

कहीं हैं लगे हर ओर रौनक़ों के रंगीन मेले
कहीं मय्यसर नही दिन को भी उजाले ।

कहीं ज़िन्दगी महकती खिलखिलाती है
कहीं टूटे ख्वाबों की चुभती किरचियां है ।

कहीं कोई चैन और सुकून से सो रहा है,
कहीं कोई नींद से बिछुड़ कर रो रहा है।

कहीं खनकते सिक्कों की खन-खन है,
कहीं कोई अपनी ही मैयत को ढो रहा है।

स्वरचित।

कुसुम कोठारी।

दिनांक १७/९/२०१९
शीर्षक_धुआँ"
क्यों धुआँ हुआ चेहरा तेरा
दुःखो की क्यों बदली छाई
आओ बैठो पास मेरे,
बताओ कुछ बात नई।

भावुक हो गया सुनकर वह
मैंने छू दी दुखती रग
बोला यह है दुर्भाग्य मेरा
गाँव छोड़ कर आया नगर।

निर्मल था मेरा मन
भर गया दुर्गुण अब
एक इच्छा पूरी हो तो
दूसरा उठाते सर तुंरत।

अधिन हुआ विलासिताओं का
शुद्ध देशी नही रहा अब
कल कारखाने धुआँ छोड़े
आँसू है या धुआँ आँखो में,

हुआ समझना मुश्किल अब,
सिगरेट,वाहन का धुआँ सदा
घुल रहा अब श्वासो में
रही सही कसर तो ईष्या के आग ने,

धुआँ भर दी मेरी रगो में,
लाख भागना चाहूँ धुआँ से
मुमकिन नही पीछा छुड़ाना
धूल धूसरित हुई मेरी भावना।

नही रहा अब ललक वह
लौट चलें हम पुराने ढर्रा पर
जहां धुआँ निकले बस कम।
जहां धुआँ निकले बस कम।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

बिषय ,धुआँ,,
जहाँ तहाँ दिखता धुआँ ही धुआँ है
इधर खाई तो उधर कुआँ है
सत्य पर असत्य का धुआँ चढ़ा है
भ्रष्टाचार तिरंगा लिए खड़ा है
चहुँ दिश पैसे का बोलवाला ईमान पर लग चुका है ताला
सच्चाई दबी हुई झूठ के बोझ तले
अनाचार ब्यभिचार का व्यापार फूले फले
शर्म हया का खत्म हो गया नामों निशान
अधोवस्त्र हाय हैलो का होता है सम्मान
इन्हें ही कहते हैं आधुनिक बिचार
यही हमारी जिंदगी के बन चुके अहम संस्कार
हम भी इन्हें धुआं सा उड़ाते जाऐंगे
जब तक जीवन है निभाते जाऐंगे
स्वरिचत,, सुषमा ब्यौहार

शीर्षकःधुआँ
*
क्या धुआँ - धुंध में भटकेगी,
चेतना - ज्वार की मदहोशी?
कब तक कटु कारा में बन्दी,
तड़पेगी पागल खामोशी?

कब तक अंधे थोथेपन का,
घूर्णित समुद्र घहरायेगा!
इस अंधाम्बुधि के पीने को,
कोई अगस्त्य कब आयेगा?
--डा.',शितिकंठ'
विषय-धुआँ

::::::::::::::::::::::::::::::::

कैसी ये जलन है कैसा ये दाह है?
हर दिल से धुआँ निकल रहा है
बुझाने से भी न बुझे
धधकती आग से ये निकल रहा है
बुझ जाने दो इसे
ठंडा हो जाने दो
अरे !संभलना ज़रा!
ये तो बस ऊपर से स्याह हुआ है
अंदर ही अंदर शोला दहक रहा है

ये धुंआ ही तो दुःखों का घर है
हर दिल मे इसका हुआ असर है
अंतहीन हैं अंधियारे गमों के ये साये
तेरा मेरा हम सबका चेहरा भी इसमें ओझल सा हो रहा है

ये नफरत का धुआँ है जनाब
आजकल ये हर दिल से में उठ रहा है ।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

नमन मंच भावों के मोती
17/09/2019
***********
उठ रहा धुआँ,
उड़ रही है राख,
ये सुंदर सा तन ,
हो रहा है खाक!
उखड़ रहे है जो ,
थे इक्के-दुक्के,
कोरी कल्पनाओं के ,
परखच्चे,
सारी की सारी ,
खबर अब फैलेगी,
अब कुछ भी नही ,
बचेगा डाक!
उठ रहा धुआं ,
उड़ रही है राख!
**********************
रचनाकार-राजेन्द्र मेश्राम "नील"

मंगलवार
विषय-धुँआ

मेरी ज़िंदगी मे हल्का सा धुँआ अब गहरा होता जा रहा है
मेरी हसी खुशी सब इस धुँआ में छिपता जा रहा है
कहाँ से आया ये धुँआ ये ना समझा जा रहा है
ये धुँआ है इन सामाजिक परम्परा का
जो नारी का जीवन मे आग लगा रहा है
आगे बढ़ने और कुछ कर गुर्राने से रोक रहा है
वक़्त बदल रहा है लोग बदल रहे है
पर अभी भी कुछ लोग है जो पुरानी परंपरा का आग सुलगाये है
इस परंपरा की धुँआ ओरतो को रोक रहा है
चाहकर भी अपना जीवन अपने हिसाब नही जीने दे रहा है
कब तक सुलगेगी ये आग पुरानी रूढ़ि वादी परंपरा का
कब तक इस धुँआ के घुटन से ओरतो का दम निकले गया
रोक दो रोक दो इस धुंए को जो
ओरतो का अस्तित्व पर आग लगा रहा है
आग शांत होगा तभी तो धुंए का नाश होगा

स्वरचित
दीपिका मिश्रा
मिर्ज़ापुर
बिषय-धुँआ
दिल में लगी आग
दिखाई तो नहीं देती
मगर हाँ, बातों का धुँआ
यह जाहिर कर देता है।
कभी कभी अश्कों का पानी
कोशिश करता है बुझाने की
मगर कामयाब नही हो पाता।
एक दिन होता है ऐसा
भीतर की यह आग
हमारे पूरे वजूद को ही
खाक कर देती है
इसलिए दोस्तों,
चिंगारी को भड़कने से पहले ही
मिटा डालो।
वरना एक दिन तुम मिट जाओगे।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
Damyanti Damyanti 

हार्दिक अभिनंदन |
दिनांक_१७/९/ २०१९
विषय_धुँआ |
मानव जीवन कब खो जाता धुँ की गर्द मे |
कभी खोजता जिदंगी की राहे धुँये की गर्दिशौ मे |
कभी अर्थ सग्रह मे तो कभी ठहर जाती जिदंगी |
जब जब आई आपदाऐ हताश मानव डूबा धुँऐ के आगोश मे |
कहाँ जाऐ कैसे खोज राहे |
आत्मा की आवाज कहती |
इसी गर्दीश मे हे हिम्मते होसंला बुलंद |
निकल धुँये की गर्दीश से बाहर |
हर मुकाम राह तक रहा तेरे कदमो की |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा |गरोठ जिला मंदसौर मध्यप्रदेश |

शीर्षक- "धुआँ"
विधा- छंदमुक्त कविता
****************

उठी नही कोई चिंगारी
नही कहीं पर लपटें जारी
फिर भी किसी जलन ने मेरे,
कोमल अंगों को छू डाला
धुआँ- धुआँ मन को कर डाला।

एक तरफ बैचेन खडे वो
दूजी तरफ थे हम अँसुवाए
देखा सबने धुआँ निकलते
पर मन की देखी नहीं थी ज्वाला।
धुआँ - धुआँ मन को कर डाला।

आग विरह की ऐसी जली थी,
रह-रह मिलन की तड़प जगी थी,
धरती हो पूरी ज्यों प्यासी।
बादल बिन वह सदा अधूरी
कैसी किस्मत की मजबूरी |
सूखा सूखा तन-मन, कर डाला।
धुआँ-धुआँ मन को कर डाला।।

किस्मत मेरी,लिखा ही क्या था?
हमको भी तो पता कहाँ था?
हुआ कहाँ गुम प्यार हमारा, ?
कैसे डूबा भाग्य- सितारा?
किसने आ, दिल मेरा सारा?
धुआँ- धुआँ,मन को कर डाला।|

स्वरचित- *संगीता कुकरेती*

विषय -धुआँ
दिनांक 17 -9- 2019

जला सिगरेट, जिंदगी को धुआँ में उड़ा रहे हैं।
देखो ये नादान, जिंदगी तमाम कर रहे हैं।।

उड़ता धुआँ देख, मन ही मन इठला रहे हैं ।
किसका धुआँ छल्ला बना,शर्त लगा रहे हैं।।

कितनी औरतें विधवा हुई, कितने बच्चे रो रहे हैं।
हर कस के धुए में वह, जिंदगी घटा रहे हैं।।

टी वी में विज्ञापन देख, नजरें झुका रहे हैं ।
गलतफहमी में जी, जिंदगी धुएँ में उड़ा रहे हैं।।

बड़े बुजुर्गों के सामने, उन्हें शर्म नहीं आ रही है।
उनके सामने बच्चों से, सिगरेट वह मंगवा रहे हैं।।

अपना शौक पूरा कर, उन्हें भी सीखा रहे हैं ।
कर रहे खुद गलती,शिक्षा उन्हें दे रहे हैं ।।

जिंदगी अनमोल हैं, धुएं में उड़ा रहा है ।
संभल जा नादान, उड़ता धुआँ यह कह रहा है ।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
स्वरचित

दिनांक - 17-09-2019
दिन- मंगलवार
विषय - धुआँ

धुआँ-धुआँ बस धुआँ-धुआँ,
जिधर देखो , उधर धुआँ।

वाहनों,फैक्ट्रियों व
खदानों से निकलता धुंआँ,
हवा, मिट्टी व जल को भी,
करता है दूषित।
पर, विकसित मानव,
जिसका मन है कलुषित,
वहाँ से उठता जो
अमानवीय गुणों का धुआँ
वह जलाता है ईमान को,
दम घुटता है इंसान का,
समाज के आखिरी छोर तक,
फैल जाता है धुआँ-धुआँ।
शक- संदेह, घृणा व
नफ़रत के आँच पर,
दिल-दिमाग, रिश्ते-नाते,
सब हो रहे धुआँ - धुआँ।
रिश्तों में जो लगती आग,
प्रेम और अपनत्व का भाव,
जल कर होता राख।
फिर उस राख में,
बदले की चिंगारी,
अंदर ही अंदर सुलग- सुलग,
घर - आंगन , गलियां- चौबारे,
सबको करती धुआँ-धुआँ।
अश्लीलता, व्याभिचार, हिंसा,
छल-प्रपंच और अनैतिकता
से ग्रसित युवा पीढ़ी,
चौक-चौराहे, बाजार-नुक्कड़,
सबको कर रहा धुआँ-धुआँ।
कोर्ट-कचहरी भी कहाँ बचा है,
ठगी, जालसाजी, भ्रष्टाचार व
घूसखोरी के गुबार ने,
न्याय के दरबार को भी
कर दिया धुआँ-धुआँ।
सत्ता के गलियारे में
तो धुंध बड़ी है,
चलती उसी की है जिसकी,
दबंग व आपराधिक छवि है।
चुनावी वादे और नियम-कायदे,
धूं-धूं जलते यहाँ,
आम आदमी देखता रह जाता,
निज अरमानों का होता धुआँ-धुआँ।

धुआँ-धुआँ बस धुआँ-धुआँ,
जिधर देखो उधर धुआँ।

स्वरचित
रानी कुमारी
पूर्णियां,बिहार

17/09/19
धुँआ

*

वैधानिक चेतावनी दे कर
कर्तव्य निभा लेते है,
श्वेत वस्त्रों मे लिपटी
काली मौत बेचते रहते है
अपने व्यापार का अंजाम देखो
स्कूली कपड़े पहन जब
बच्चे उडाते ये धुँआ
पान की दुकानों पर
उंगलियो की शान बढ़ाते युवा
हर उम्र के लोग कर रहे
जीवन अपना धुँआ धुँआ
देख इन्हें मन मे कसक ,
सवाल
धुएं के छल्ले मे
क्या उड़ा रहे ये
खून पसीने की कमाई
या अपनों के सपने,
काला जहर धीरे धीरे
इनकी रगों मे उतरता
फैलाता जा रहा
कालिमा इनके जीवन पर
क्षणिक आनंद के लिए
बनते जा रहे इसके
गुलाम जीवन भर के लिए
अब प्रण करो संकल्प लो
इसे कुचल मिट्टी में मिला
आशा की नई पौध लगाएंगे
विश्वास से सींच इसे
जीवन की हरियाली बढाएगें ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

बिषय -धुआँ
दिनांक -16-09-2019
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कस्तियों पर धुआँ, बस्तियों पर धुआँ|
अब धुआँ ही धुआँ, मस्तियों पर धुआँ|

कोई चिलमन में आके छुपा इस कदर,
उजाले में भी, हस्तियों पर धुआँ |

जलजले का भी एक रूप देखो सभी,
ढूढ़े साहिल को क्या, कस्तियों पर धुआँ|

आदमी भीड़ में भी है तन्हा बहुत,
सजती महफिल बहुत, मस्तियों पर धुआँ|

काट जंगल बनाये घरोंदे बड़े,
सारे साधन जुटा बस्तियों पर धुआँ |

अब धुआँ ही धुआँ, मस्तियों पर धुआँ |

स्वरचित -गीता सिंह (आगरा )

विषय:--धुँआ
विधा:--मुक्त
दिनांक:--17 / 09 /19
<<<<<<<<<>>>>>>>>>
दिलों में घुटन चेहरों पर धुँआ है
शहर को फिर भी आदर्श होने का गुमां है

हर गली सीलन भरी है
हर मौहल्ला संकीर्ण हैं
बन गये कई मंजिला ईमारतें
हरेक को महल होने का गुमां है

शोर बरपा है दिन और रात शहर में
लगता है हर किसी के कान का परदा फटा है

नजर आती नहीं हवाओं में
उड़ती तितलियां
हवाओं में भी फैला धुँआ धुँआ है।

डा.नीलम

आज का विषय, धुँआ
दिन, मंगलवार
दिनांक, 17,9,2019,

धुआँ - धुआँ है हर तरफ,
खो गया है आदमी ।
चाहतों की भीड़ में,
भटक रहा है आदमी।

न तो होश है न कोई राह है ,
धुँआ तृष्णगी का आँखों में भरा ।
कहीं मंजिल का पता नहीं है,
और कारवां भी बिछड़ गया ।
बेखबर आज कितना हो गया है आदमी ।......

दिलों में ईर्ष्या ही ईष्या है ,
धुँआ नफरतों का उड़ रहा ।
घर समाज भुला दिया है,
प्यार रिश्तों से मिटा जा रहा ।
आज आत्मकेंद्रित हो कहीं खो गया है आदमी।....

धुँआ - धुँआ है हर तरफ, खो गया है आदमी......

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश 

17/09/2019
"धुँआ"

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जिंदगी हो गई है धुँआ-धुँआ
लगी हुई है आग जरुर कहीं
प्रीत का दिखा न नामोनिशां
धुँधला-धुँधला लग रहा शमां।

जिंदगी हो गई है धुँआ-धुँआ
नज़र के सामने छाया अंधेरा
दिख रहा न अब कोई इंसान
धुँधला-धुँधला सा सारा जहां

जिंदगी हो गई है धुँआ-धुँआ
उलझ गया जीवन का सफर
छुप गया जो कदमों के निशां
धुँधला-धुँधला सा है रास्ता।

जिंदगी हो गई है धुँआ-धुँआ
मन भी अब भटकने है लगा
घुट-घुट कर तड़पने भी लगा
कोई तो सुन दिल की पुकार।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

भावों के मोती
विषय=धुआँ

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मिट जाती बस्ती पल-भर में,
और सपने हो जाते धुआँ-धुआँ।
मिट जाती ख्वाहिशें गरीबों की,
खड़ा हो जाता इमारतों का जहाँ।

कुछ दिन मचाते खींचातानी,
कुछ दिन ही होती मारामारी।
देखकर रह जाते स्वाहा सपने,
मिट जाते दिल के सब अरमान।

चिंता में सुलगती जर्जर काया,
न सिर पर छत न कोई छाया।
न बनता कोई मसीहा इनका,
न कोई खेवनहार ज़िंदगी का।

करते फिर से मेहनत-मजदूरी,
मरी ख्वाहिशों को करके दफ़न।
बस यही ज़िंदगी है गरीबों की,
मरने पर नसीब न होता कफन।
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित

17/09/2019

" धुएं सी जिंदगी "

धुएं सी मेरी जिंदगी हुई है,
राख बनकर खाक हुई है ।
जख्मो को कुरेद जाते हो ,
क्यों राख मेरी उठाने आते हो ?

तिल तिल के मै जी रही हूँ ,
किस्तो में जैसे मर रही हूँ ।
रह रह के मुझे रुलाते हो ,
क्यों इतना मुझे सताते हो ।

कब तक रहूँ ऐसे तड़पती ,
पल पल रहूँ मैं बिखरती ।
अपना बना छोड़ जाते हो,
क्यों दिल मेरा दुखाते हो।

जब भी पास मैं आना चाहूँ ,
अपना तुझे बनाना चाहूँ ।
बेज्जत कर दूर भगाते हो ,
क्यों ऐसे तन्हा छोड़ जाते हो।

हर ख़ुशी छोड़ दी तेरे लिए ,
पार कर दी हर हद तेरे लिए।
मुझे ही मेरी हद समझाते हो,
क्यों अब रुसवा कर जाते हो।

खुद से ज्यादा विश्वास किया ,
अपना सब कुछ निसार दिया।
मुझको अजनबी बनाते हो ,
क्यों इतना भाव अब खाते हो ।

सारे ख्वाबो को तोड़ दिया ,
नये ख्वाबो को जोड़ लिया।
सारी उम्मीदों को छुड़वाते हो,
क्यों मेरे ही अश्क बहाते हो।

उलझन को तेरी मैने सुलझाया,
तूने मुझको मुझमे ही उलझाया।
मुझको वादों में बांध जाते हो ,
क्यों अपने सारे वादे भूल जाते हो।

शशि कुशवाहा
स्वरचित और मौलिक
दिनांक-17/09/2019
विषय-धुँआ

द्वितीय प्रस्तुति

एक धुँआ सुलग रहा मेरे मन के आकाश में....

आज बहुओं को जिंदा जलाते हो तुम

कल जली लाश बेटी की पाओगे तुम।

झूठ पर सच का पर्दा चढ़ा करके तुम

और कितने दिनों तक ठहर पाओगे तुम।।

बुलबुले थी चहकती खंडहरों में जब

कुंवारी कन्याओं को घर में कब तक दफनाआगे तुम।

गुलशनो की हालत क्यों खराब है अब

जलते मधुमास में कब तक पराग उडाओगे तुम।।

तोड़ दो तुम दहेजो घुलते जहर को

दहेज छोड़ के ,अमल का एक इतिहास है रचाओगे तुम.....

मौलिक रचना

सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज

दिन :- मंगलवार
दिनांक :- 17/09/2019

शीर्षक :- धुआँ

छाई श्यामल घटा घनघोर...
धुआँ धुआँ है छाया चहुँओर...
दृश्य सब धूमिल हो रहे...
मानव दिग्भ्रमित हो रहे..
छोड़ रहे आशाओं का छोर...
निराशाओं से घिरा हर ओर...
धुआँ धुआँ है छाया चहुँओर...
अपकर्म सतत् कर रहा...
घुट घुटकर यूँ मर रहा...
घिरा है मनु अवसाद से...
हीनता के प्रमाद से...
लोभ मोह के प्रभाव से...
घिरा है मानव हर ओर...
धुआँ धुआँ है छाया चहुँओर...
लालसाएं पंख पसारे...
भूत में बैठ भविष्य निहारै...
ज्यों ज्यों बढ़ती लालसा...
त्यों त्यों पहुंचे अहं के द्वारे...
बिछाए कंटक खुद चहुँओर...
धुआँ धुआँ है छाया चहुँओर...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

07/09/2019
शीर्षक--- धुआं


1-
हाँ,
लत,
गलत,
धूम्रपान,
कर निदान,
ये दुश्मन जान,
मत बन नादान ।

2-

ये
दाग..!
क्यों चाँद ?
हाँ शायद..
माँ की तरह,
तुम भी आहत,
बेरहम धुंए से ।

-- नीता अग्रवाल
#स्वरचित

Neelam Sharma नमन"भावों के मोती"

विषय:-धुआं

विधा:-नज्म
🌹💐🌹💐🌹💐🌹

स्वाहा होती ख्वाहिशों का अंजाम देखिए।
कहीं दरबदर मोहब्बत तो कहीं आबाद देखिये ।

जिस्म में जली हैं साँस कुछ इस कदर।
आज उस साँस से उठता धुआं ना साद देखिये ।

पल पल घट रही है उम्र की घड़ी
कहीं ।
घट रही उम्र का बर्बाद न तमाशा देखिये ।

पलट कर कभी न मिली फुरसत जिसे कभी ।
हर घड़ी उसी से बफा निभाते देखिये ।

रस्म अदायगी निभाते वो कैसे
मोहब्बत में ।
जला हर को खत की निशानी
को बहाते देखिए ।।

स्वरचित

नीलम शर्मा#नीलू

सादर नमन

यादें चिंगारी
जलता तन मन
उठता धुँआ

शक का धुँआ
फैलता अंधियारा
तलाशे साथ

धुँए का छल्ला
यौवन बहकता
जीवन नष्ट

तोड़ता रिश्ते
नफरत का धुँआ
खिंचे दिवार
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
17/9/19
मंगलवार

धुआँ

दीये हैं
जलने लगे
हो रही
रोशन
ज़िन्दगियाँ
है कैसी
पहेली ये
नीचे अंधेरा
ऊपर है धुआँ

धुआँ धुआँ
हो रही
जिन्दगी
अपने थे पास
तो
चिन्गारियाँ थी
गये तो
खामोश
है जिन्दगी

लगता है डर
" संतोष "
अब तो
श्मशान
देख कर
लकड़ियों के
ढेर में
कहीं
हम भी
तो हैं
धुएं के
गुबार में

फकीर
कभी हताश
हुआ नहीं
जिन्दगी से
धुआँ धुआँ
हुई जब
जिन्दगी
मौला ने
हाथ
थाम लिया

निकले जब
आंसू
माँ के
समझ गया
सेंकी हैं रोटी
उसने धुएं में

"संतोष " और
क्या कहे
कहानी तेरी
जली जब
कोई दुल्हन
धुआँ कह गया
कहानी उसकी

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


विषय-धुआँ
विधा-मुक्तछंद

"बीड़ी का धुँआ"

बीड़ी सुलगाता हुआ आदमी
जा रहा है सुनसान रास्ते पर
जिन्दगी की उथल-पुथल में
सफेद बालों को खुजलाते हुए
फर्क नहीं पड़ता उसके जाने से
झड़ चुके दाँत उसके
झुर्रियां पड़ी है चेहरे पर
मुखमंडल वीरान-सा
सूख चुकी है जीवन हरियाली उसकी
खो जाएगा इतिहास के अंधेरे में
कल यह नहीं होगा
कुछ दिन बहाएंगे मगरमच्छी आँसू
उसके घर के अपने
लग रहा है
ज्यों शब्द भंडार से एक शब्द खो गया
ओझल हो गई जिन्दगी बीड़ी के धुँए की तरह

रचनाकार:-
राकेशकुमार जैनबन्धु
रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा, 30 अगस्त 2018


17/09/2019
विधा: काव्य
विषय:धुआँ

धुआँ कभी नैनो की औषधि
और कभी अखियों की चुभन।
हवन कुंड से जब यह निकले
भक्ति मय सब प्रांगण हो जाए।
यही धुआँ जब वाहन उगले
पथिकों को रोगी कर जाए।
विकसित देश का आधार
औद्योगीकरण और तकनीकी विकास ।
पर क्या बदले में प्रदूषित प्रतिवेश
आज का यह है विचारणीय तथ्य ।

धुआँ जब हो अदृश्य रूप मे
और घातक हो जाता है।
कभी ईर्ष्या बन कर कभी झूठ बन कर
दुष्परिणाम दिखाता है।
अदृश्य धुंध से आगे जाकर
नया सवेरा लाना है...

स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव लखनऊ उत्तर प्रदेश

दिनांक 17 सितंबर 2019
विषय धुआँ

✍️सकारात्मक सोच ✍️

लकड़ियों में नमी है
या फिर...
आग में कमी है
ये तो वास्तविकता है कि...
धुआं से कभी
रोशनी नहीं होती
और न ही कभी गर्मी मिलती

इसलिए
अगर रोशनी चाहिए तो
जलाने के लिए
लकड़ियों को
सुखा कर रखना पड़ता है
यानी उत्प्रेरणा रूपी मशाल को
जोश रूपी आग से
प्रज्वलित रखने के लिए
सोच रूपी लकड़ियों को
सकारात्मक रूपी हवा एवं धूप से
सुखाकर रखना पड़ेगा
ताकि उत्प्रेरणा रूपी मसाल
जोश रूपी आग के साथ
प्रज्वलित होने में
कम से कम समय लगाए

नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
विषय धुँआ
विधा कविता
दिनांक 17.9.2019
दिन मंगलवार

धुँआ
💘💘💘

विकास की चकाचौंध में धुँआ अज़ब छा रहा
न जाने कौन सी राग में विकास गीत गा रहा
वाहनों के शोर में प्रदूषण भी बढ़ रहा
कोई भी प्रदूषण हो उसका ग्राफ हर दिन चढ़ रहा।

वन धीरे धीरे घट रहे पेड़ हर दिन कट रहे
संतुलन बनाये रखने के स्त्रोत सारे छँट रहे
पर्वत टीले ढह रहे मौन होकर कह रहे
नदिया ताल सूख रहे बजरी का दोहन सह रहे।

सरसराहट में हवा की हर पत्ती जैसे पँखा झलती
जून की भीषण तपन में धूप सरलता से ढलती
पर प्रकृति से कर दिया खिलवाड़ हमने इस तरह
धुँए भरे माहौल में आज तबीयत हर दम मचलती।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त


दिनांक -17/9/2019
विषय - धुआँ

ज़िंदगी में धुआँ
या धुएँ में ज़िंदगी
सवाल बड़ा अजीब
जवाब भी बेतरतीब
कहीं सुलगती आग
धुएँ के बादल बनाती
चूल्हे में जलकर
पेट की आग बुझाती
कैसे भुला दूँ इसे
आज भी मेरा देश
गाँव की पहचान है
उज्ज्वला की पहुँच
दूर अति दूर है
शहर में मेला देखिए
आबादी का रेला देखिए
भागते दौड़ते फुदकते वाहन
प्रदूषण का ज़हर
घुआँ बनकर
नथुनों में घुसकर
हर उम्र वर्ग को
रोगी बनाता
हर शख़्स यहाँ
ख़ुद को ठगा पाता
इतने पर भी चैन कहाँ
धूम्रपान का नशीला धुआँ
गली, नुक्कड़ ,सड़क
कोई स्थल अछूता नही
कारोबार जहाँ पर
इसका चलता नही
शौक़ अजीब फ़रमाते लोग
जान दाँव पर लगाते लोग
इस धुएँ पर सब मौन हैं
किसका यहाँ कौन है
नित प्रतिदिन हुई
धुआँ धुआँ ज़िंदगी
ओझल होती जा रही
शून्य ठौर तलाशती
विवेक सुप्तावस्था में
जगाएगा कौन
मसला हल का नही
मसला पहल का है

✍🏻 संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित एवं मौलिक




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