आज फिर वो अपने राहो मे मिले थे।
हमारे बड़े होने से क्या बदलते है रिश्ते।
वो जो सदैव साथ हर पथ पर थे ।
मेरे स्वरों को सुनने को विचलित थे रिश्ते।
ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव के पड़ाव मे
कहीं पीछे छुट गये थे।
जाना बहुत जरुरी है वो सब ही रिश्ते।
आज फिर वो अपने राहो मे मिले थे।
फिर से रिश्तो की कड़वाहट मिटानी है।
संवारना होगा इन्हें पहले की ही तरह।
किसी भी कीमत पर खोने नहीं देना है।
साथ ले कर चलना है पहले की तरह।
यही तो हमारी एकता का प्रतीक है।
स्वाति करती है नमन सब को उसी तरह।
क्योंकि यू ही नहीं बदलते रिश्ते।
क्योंकि यू ही नहीं बदलते रिश्ते।
प्रस्तुति 01
01 जून 2018
" बदलते रिश्ते "
रिश्ते तो सदा ही वक्त के साथ बदलते रहते हैं
जो कभी दोस्त थे वो कभी दुश्मन भी बनते हैं
ये तो हालातों की मज़बूरी है या फिर किस्मत की
सारे रिश्ते ताज़िन्दगी एक से कभी नहीं रहते हैं
(स्वरचित)
डॉ स्वाति श्रीवास्तव
इस बदलती दुनियाँ में रिश्ते बदलते देखे हैं,
दिल के सारे अहसास बदलते देखे हैं,
जो बच्चें माँ का आँचल कभी ना छोड़ते थे,
आज वो उनको वृद्धाश्रम छोड़ते देखे हैं,
नये रिश्तों की खातिर पुराने रिश्ते भूले,
भूल माँ के प्यार को नये जज्बात जगाते देखे हैं,
पकड़ अँगुली पापा की जब चलना सिखा था,
आज उनको कर्तव्य से अपने मुँह मोड़ते देखा है,
हर त्योहार पर देती थी नये कपड़ों का उपहार,
आज उसी माँ को फटी साड़ी में लिपटे देखा है,
वक्त मिलना था जो माँ-बाप को,
वो वक्त मोबाइल पर गुजरते देखा है,
देख हर तरफ यही व्यवहार यही मैं कहती हूँ,
बढ़ते जिदंगी के सफर में रिश्तों को बदलते देखा है।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
1/6/18
शुक्रवार
तरक्की के दौर ने , कुछ यूँ हमें ठगा ।
चंद रिश्तों को निभाना , अब बोझ सा लगा ।।
हम बढ़ रहे किधर को , ये पता न चल सका ।
हर एक स्वर अलापा , हर एक है थका ।।
परिवार ही समाज की , शोभा सदा बढ़ाये ।
परिवार को कुचलकर , झण्डा हैं हम सजाये ।।
ये कौन सी तरक्की , ये कौन सा सिला ।
दो रिश्ते ही बचे जो , उनमें ही है गिला ।।
मानवीय मूल्यों की , अब नही कदर ।
हर रिस्तों में दिखे है , आज अब गदर ।।
सोने की चिड़िया यूँ न , कहाये ये देश ।
दुनिया को सभ्यता का , देता रहा उपदेश ।।
सोचो न होंगे रिश्ते तो क्या होगा भेष ।
जानिये ''शिवम" अब भी है , समय शेष ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
बदलते नही रिश्ते पर हे
माॅ हो भाई,पिता,पत्नि
किरदार बदलते पर हे
मजबूरियाँ हे हमारी यारो
निभाते सब रिश्ते पर हे
आंसू छिपा कर यारो
मुस्कुराते हम सब पर हे
रूपयो की धूरी पर रिश्ते हे
इलज़ाम लगाते सब पर हे
मीठे रह कर मुस्कराते 'मोहन,
बनाम रिश्तो के बदनाम करते सब पर हे
स्वरचित /मौलिक रचना
मनमोहन पालीवाल
काव्यगोष्ठी मंच
कांकरोली
01-06-2018
आज का विषय बेहद ही खूबसूरत और दिल को छूता हुआ है.....इस विषय पर मेरी ये रचना---" रिश्तो का व्याकरण"
मैं कुछ गीत लिखूं या छंद लिखूं,
व्यथित हदय में छपी वो छाप लिखूं,
रिश्तों के दरवाजों पर दस्तक देती,
समय की ताकत का हाल लिखूं!!!
कल गुजर पङी थी कुछ गलियों से
अपने रिश्ते नातों पर यूं दंभ लिये,
दिल की उम्मीदों का व्याकरण
और सहानूभूति का अनुबंध लिये।
फिर, खाली हाथ रही मेरी मुटठी
अपने अपनों पर अचम्भ लिये........
अब़...................
मैं खुद से खुद का विश्वास लिखूं
भरमाते रिश्तों पे क्या आस लिखूं
मानवता पर ग्रहण से, पानी पानी होते
अर्थहीन सम्बन्धों पर क्यूं खास लिखूं।
कुछ साथी राह में मिल गये बोले,
क्यूं कुठंन, घुटन, निराशा, क्या है व्यथा,
संघर्ष ही जीवन का सार, बाकी मिथ्या,
सीपों के ढेर में से मोती चुन ले वही वृथा
मुफलिसी में जो वक्त पे काम आये
वही है दिल का सच्चा और सखा........
अब़...................
दिल की पैरहन पर कुछ अरदास लिखूं
रूहानी रिश्तों पर सूफियाना कलाम लिखूं
धूप की दिवारों और चांदनी की छतों पे
हौसलों के चुभते नश्तर की प्यास लिखूं
कैसे ?? रिश्तों के दरवाजे पर दस्तक देती?
समय की ताकत का हाल लिखूं!!!
-------- डा. निशा माथुर/8952874359
वक्त बदल रहा है
व्यवहार बदल रहा है
रिश्तों में कर्त्तव्य का
परिवेश बदल रहा है
विचार बदल रहे हैं
अरमान बदल रहे हैं
ख्वाहिशों की चाह में
रिश्ते बदल रहे हैं
मौसम बदल रहा है
हवा बदल रही है
इंसानी रिश्तों की
परिभाषा बदल रही है
तृष्णा के बादल
रंग बदल रहे है
प्रतिस्पर्धा की दौड़ में
जगह बदल रहें हैं
बूढ़े वृक्ष दर्द से
आश्रय बदल रहें हैं
भविष्य के उजाले
करवट बदल रहे हैं
दौलत का सूरज सर चढ़कर
आग उगल रहा है
अहंकार की तपन से
रिश्ते निगल रहा है
स्वार्थ का दानव
अपने पांव जमा रहा है
चेतना को खाकर
अपनी भूख मिटा रहा हैं
ईष्या द्वेष सब को
आखें दिखा रहा है
रिश्ता कोने में दुबका
आंसू बहा रहा है
इंसानी फितरत
गिरगिट हो गई है
उम्मीद सर झुकाए
रिश्तों की लाश ढो रही है
आचार अपना बदलो
आधार इसको समझो
रिश्तों की पूंजी को
जतन कर संभालो
आस अपनी बदलो
प्यास अपनी बदलो
बदलते रिश्तों में
सर्मपण की सांस भर दो
स्वरचित : मिलन जैन
दिनांक : ०१ जून २०१८
"बदलते रिश्ते "
नाजुक परी थी घर की
घर वही अब पराई हुई
जिन गलियों में बचपन बीता
गलियां वही पराई हुई
चाँद तारों को देखा करती
अंगना वो भी पराई हुई
सखियाँ भी पराई हुई
जिस दिन बेटी की विदाई हुई
जिस खूंटे से बान्धी गई
अटकी वहीं रह गई
रिश्ते बदलते नहीं अपनों की
बदली गुड़िया की कहानी हुई
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
कहीं गलतफहमियों की चोट से दरकते रिश्ते
कहीं अपनेपन की खूशबू से महकते रिश्ते
कहीं निजी स्वार्थ की ओट में सरकते रिश्ते
कहीं दर्द को छुपा हँसी बिखेरते रिश्ते
कहीं मुखौटे लगाकर दर्द परोसते रिश्ते
कहीं अपने खून से भी बढ़ कर निभते रिश्ते
कहीं नासूर बन जिंदगी पर रिसते रिश्ते
कहीं जन्मों के प्रेम बंधन दिखते रिश्ते
कहीं मौसम की तरह बदलते रिश्ते
ऋतुराज दवे
रह नहीं गये अब पहले जैसे रिश्ते ।
गरम नहीं हैं अब खून के भी रिश्ते।।
मतलब के लिये बनाये जाते है रिश्ते।
रह गये है अब महज मतलब रिश्ते ।।
बूढ़े माँ बाप का वृध्दाश्रम को पठाते ।
मतलब के लिये गधे के बाप बनाते ।।
बड़े आदमी को अपना रिश्तेदार बताते ।
सगे रिश्तेदार से अपने है आँखे चुराते।।
बहुत कम जो आजकल रिश्ते निभाते ।
मतलब के लिये है वह बदलते रिश्ते ।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
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