भा.14/6/2018(गुरुवार )शीर्षक ःअर्पण ।
इस जग में सब तेरी ही माया है,
क्या मेरा जो मै जो कर दूं अर्पण।
धूप दीप नैवेद्य नहीं कुछ प्रभु मेरा,
ये तन मन सबकुछ तुम्हें समर्पण
इस जग में सब तेरी ही माया है,
क्या मेरा जो मै जो कर दूं अर्पण।
धूप दीप नैवेद्य नहीं कुछ प्रभु मेरा,
ये तन मन सबकुछ तुम्हें समर्पण
भगवन तुम केवल भावों के भूखे,
मेरी बहुत प्रदूषित भावनाऐं तक
ऐसा कुछ भी नहीं पवित्र प्रभु जी
अर्पण करने नहीं कामनाऐं तक।
पावन पवित्र तुम्हारा देवालय है ।
पर दूषित मेराअंगअंग आलय है।
नहीं समझ सोच पाता हूँ कुछ भी
हृदय मेरा बना नहीं शिवालय है।
हे मुरलीधर ऐसा कुछ कर दो।
मेरा मनमंन्दिर पवित्र ही कर दो।
तन मन अर्पण सब तुम्हें समर्पण
कुंठित हृदय प्रभुप्रेमालय कर दो।
मेरी बहुत प्रदूषित भावनाऐं तक
ऐसा कुछ भी नहीं पवित्र प्रभु जी
अर्पण करने नहीं कामनाऐं तक।
पावन पवित्र तुम्हारा देवालय है ।
पर दूषित मेराअंगअंग आलय है।
नहीं समझ सोच पाता हूँ कुछ भी
हृदय मेरा बना नहीं शिवालय है।
हे मुरलीधर ऐसा कुछ कर दो।
मेरा मनमंन्दिर पवित्र ही कर दो।
तन मन अर्पण सब तुम्हें समर्पण
कुंठित हृदय प्रभुप्रेमालय कर दो।
'अर्पण'
-------------
जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
तू मेरा देवता,
तुझे पूजती रहूंगी।
हृदय में रखकर,
तुम्हे सहेजती रहूंगी।।
अहसास में रहूंगी,
कर भाव का समर्पण...
जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
मसले हुये फूलों को,
कोई चाहता भला क्या?
अंधेरी जिंदगी में,
कोई राह है भला क्या?
विखरा हुआ है जीवन,
विखरा हुआ है यौवन...
विखरी है आकृति,
धुंधला पड़ा है दर्पण..
जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
..राकेश
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जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
तू मेरा देवता,
तुझे पूजती रहूंगी।
हृदय में रखकर,
तुम्हे सहेजती रहूंगी।।
अहसास में रहूंगी,
कर भाव का समर्पण...
जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
मसले हुये फूलों को,
कोई चाहता भला क्या?
अंधेरी जिंदगी में,
कोई राह है भला क्या?
विखरा हुआ है जीवन,
विखरा हुआ है यौवन...
विखरी है आकृति,
धुंधला पड़ा है दर्पण..
जूठी संविदा का,
कैसे करूँ मैं तर्पण?
है दागदार दामन,
कैसे करूँ मैं अर्पण?
..राकेश
'भावों के मोती '
बृहस्पतिवार 14/6/18
अर्पण
---------
ये तन धूलि कर डालूं
मिल जाऊं रज में उस पथ की
हाथों में ले निज शीश चले
जिधर हिंद के महारथी
या फूल बनूं उस माला का
जो वीर अमर के हो तन पर
उसको चिर स्पर्श करूं
इठलाऊं नश्वर जीवन पर
या फिर मैं मिट्टी होकर
ऐसा नन्हा दीया बनूं
साक्षी गौरव यात्रा का
शाश्वत समाधि पर जलूं
वीरों की चरण रज पर
निज का पूर्ण समर्पण
अनंत अतुलनीय भक्ति पर
स्वीकार करो ये अर्पण ।
सपना सक्सेना
स्वरचित
बृहस्पतिवार 14/6/18
अर्पण
---------
ये तन धूलि कर डालूं
मिल जाऊं रज में उस पथ की
हाथों में ले निज शीश चले
जिधर हिंद के महारथी
या फूल बनूं उस माला का
जो वीर अमर के हो तन पर
उसको चिर स्पर्श करूं
इठलाऊं नश्वर जीवन पर
या फिर मैं मिट्टी होकर
ऐसा नन्हा दीया बनूं
साक्षी गौरव यात्रा का
शाश्वत समाधि पर जलूं
वीरों की चरण रज पर
निज का पूर्ण समर्पण
अनंत अतुलनीय भक्ति पर
स्वीकार करो ये अर्पण ।
सपना सक्सेना
स्वरचित
"अर्पण'।
जो कुछ है तुम्हारा है प्रभु
करूँ मैं क्या आज अर्पण।
अर्पण करूँ फूल मैं तुम्हें
स्वास्थ्य बनाये रखना।
अर्पण करूँ पिताम्बर मैं प्रभु
सौभाग्य बनाये रखना।
अर्पण करूँ मैं दीपों की माला
भविष्य उज्जवल बनाये रखना।
अर्पण करूँ पूजा मैं अपना
उसे स्वीकार तुम करना।
अर्पण करूँ विश्वास मैं अपना।
मुझ पर विश्वास तुम अपना रखना।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
जो कुछ है तुम्हारा है प्रभु
करूँ मैं क्या आज अर्पण।
अर्पण करूँ फूल मैं तुम्हें
स्वास्थ्य बनाये रखना।
अर्पण करूँ पिताम्बर मैं प्रभु
सौभाग्य बनाये रखना।
अर्पण करूँ मैं दीपों की माला
भविष्य उज्जवल बनाये रखना।
अर्पण करूँ पूजा मैं अपना
उसे स्वीकार तुम करना।
अर्पण करूँ विश्वास मैं अपना।
मुझ पर विश्वास तुम अपना रखना।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
नमन भावों के मोती
अर्पण
############
हे माँ
गुरु तू -----आशीष तू
संयमता की तू देवी है
हे माँ
आभा तू ---प्रभा तू
तू ही मेरी ज्योती है
हे माँ
तू ही शक्ती तू ही भक्ति
तू ही मेरी अराध्य है
हे माँ
मकरंद तू---पुष्प तू
तू ही मेरी सुगन्धा है
हे माँ
ध्वनी तू----गूँज तू
तू ही मेरी झंकार है
हे माँ
गर्व तू-----------विश्वास तू
तेरी रजधूली मस्तक की गरिमा है
हे माँ
तेरे कर कमलों ने मुझे जीना सिखाया
तूझपे ही जान मेरी कुरबान है
हे माँ
करुँ मैं तेरी ही चरण वन्दना
मेरे प्राण तेरे चरणों में ही अर्पण है
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
अर्पण
############
हे माँ
गुरु तू -----आशीष तू
संयमता की तू देवी है
हे माँ
आभा तू ---प्रभा तू
तू ही मेरी ज्योती है
हे माँ
तू ही शक्ती तू ही भक्ति
तू ही मेरी अराध्य है
हे माँ
मकरंद तू---पुष्प तू
तू ही मेरी सुगन्धा है
हे माँ
ध्वनी तू----गूँज तू
तू ही मेरी झंकार है
हे माँ
गर्व तू-----------विश्वास तू
तेरी रजधूली मस्तक की गरिमा है
हे माँ
तेरे कर कमलों ने मुझे जीना सिखाया
तूझपे ही जान मेरी कुरबान है
हे माँ
करुँ मैं तेरी ही चरण वन्दना
मेरे प्राण तेरे चरणों में ही अर्पण है
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
II अर्पण II
तू मेरा मैं तेरी फिर किसे और क्या करूँ मैं अर्पण...
भाव तुम से तुम्हीं भाव हो किसका करूँ समर्पण...
निर्जीव 'मैं' में 'तुम' प्राण हो किसका करूँ मैं तर्पण....
फिर भी कहते हो तो लो किया तुम्हें तुम्हीं को अर्पण...
तेरी माया तेरी छाया तेरा रूप मुखरित ये संसार है....
छल कपट का फिर बोल यहां पे होता क्यूँ व्यापार है... जाने है तू सब कुछ लेकिन तुझ को नहीं स्वीकार है....
बिना समर्पण कैसे कहे तू मैं तेरा तू मेरा ही आकार है...
भावों का अर्पण बन दर्पण रूह का करे विस्तार है...
इश्क़ अटारी चढ़ बोला वो खुदा मिलन आधार है...
जो डूबा इसमें गहरा वो गूंगे बहरे का संसार है....
इश्क़ समर्पण खुदा को अर्पण होता बस निस्तार है....
II मौलिक - सी.एम्.शर्मा II
तू मेरा मैं तेरी फिर किसे और क्या करूँ मैं अर्पण...
भाव तुम से तुम्हीं भाव हो किसका करूँ समर्पण...
निर्जीव 'मैं' में 'तुम' प्राण हो किसका करूँ मैं तर्पण....
फिर भी कहते हो तो लो किया तुम्हें तुम्हीं को अर्पण...
तेरी माया तेरी छाया तेरा रूप मुखरित ये संसार है....
छल कपट का फिर बोल यहां पे होता क्यूँ व्यापार है... जाने है तू सब कुछ लेकिन तुझ को नहीं स्वीकार है....
बिना समर्पण कैसे कहे तू मैं तेरा तू मेरा ही आकार है...
भावों का अर्पण बन दर्पण रूह का करे विस्तार है...
इश्क़ अटारी चढ़ बोला वो खुदा मिलन आधार है...
जो डूबा इसमें गहरा वो गूंगे बहरे का संसार है....
इश्क़ समर्पण खुदा को अर्पण होता बस निस्तार है....
II मौलिक - सी.एम्.शर्मा II
आज के विषय "अर्पण" पर मेरी ये रचना " जिद्दी परिंदा" देखिये जो अपने रिश्तो के लिए सब कुछ अर्पण केर देता है ...................
जिद्दी परिंदा
मेरे दिल के किसी कोने में कहीं जो एक जिद्दी परिंदा है,
उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है
रिश्तो की जमापूंजी की मधुर मिठास को फिर सम्भालता,
अपनी वर्जनाओं में जीता, दिल की बस्ती का बाशिंदा है।
कहानियां किस्मत ने खूब रची थी कल तेरे मेरे रिश्तो की,
मै बावरी सी क्यूं सुध-बुध खोती, नाव चलाती थी रिश्तो की,
जमीं पे आके जब सच को देखा तो बारात लगी थी रिश्तो की,
बंटवारे की किष्तों से चुकता कर मैने नींव रखी थी रिश्तो की,
मेरी इस मल्कियत को सहेजे दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
सात जन्मों की गहराई थी कहीं, कांच की चूङी के गठबन्धन में
प्यार इकरार और मनुहार भी था, कहीं कच्चें सूत के बंधन में
ममत्व और विश्वास पाया, मां के शबनमी अहसास से दामन में
फिर पंखुरी पंखुरी सहेजा एक संसार अनमोल प्यार भरे रिश्ते में
आशीषो की कमाई को सहेजता दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
मेरा बंधन, मेरी मुक्ति, मेरे दिल का दपर्ण दिखता है रिश्तो में
मेरा आंलिगन, मेरा अपर्ण, और बिन शर्तो का समर्पण बंधन में
एक हुलस है, प्रेम रसनिधि है, और वाणी का तपर्ण इन नातों में
मेरी पूंजी है, मेरी धरोहर, मेरा मान-सम्मान, आकर्षण सम्बन्धों में
रिश्तो की जमापूंजी पे प्राण लुटाता दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
-------डा. निशा माथुर
जिद्दी परिंदा
मेरे दिल के किसी कोने में कहीं जो एक जिद्दी परिंदा है,
उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है
रिश्तो की जमापूंजी की मधुर मिठास को फिर सम्भालता,
अपनी वर्जनाओं में जीता, दिल की बस्ती का बाशिंदा है।
कहानियां किस्मत ने खूब रची थी कल तेरे मेरे रिश्तो की,
मै बावरी सी क्यूं सुध-बुध खोती, नाव चलाती थी रिश्तो की,
जमीं पे आके जब सच को देखा तो बारात लगी थी रिश्तो की,
बंटवारे की किष्तों से चुकता कर मैने नींव रखी थी रिश्तो की,
मेरी इस मल्कियत को सहेजे दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
सात जन्मों की गहराई थी कहीं, कांच की चूङी के गठबन्धन में
प्यार इकरार और मनुहार भी था, कहीं कच्चें सूत के बंधन में
ममत्व और विश्वास पाया, मां के शबनमी अहसास से दामन में
फिर पंखुरी पंखुरी सहेजा एक संसार अनमोल प्यार भरे रिश्ते में
आशीषो की कमाई को सहेजता दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
मेरा बंधन, मेरी मुक्ति, मेरे दिल का दपर्ण दिखता है रिश्तो में
मेरा आंलिगन, मेरा अपर्ण, और बिन शर्तो का समर्पण बंधन में
एक हुलस है, प्रेम रसनिधि है, और वाणी का तपर्ण इन नातों में
मेरी पूंजी है, मेरी धरोहर, मेरा मान-सम्मान, आकर्षण सम्बन्धों में
रिश्तो की जमापूंजी पे प्राण लुटाता दिल का ये जो जिद्दी परिंदा है,
फिर उम्मीदों से है घायल, और अपनी ही उम्मीद से जिंदा है।
-------डा. निशा माथुर
अर्पण का अध्याय अब खतम हो रहा
मानवता पर ये बड़ा सितम हो रहा ।।
अर्पण न होता तो क्या हम जग में आते
माँ के अर्पन को आखिर हम क्यों भुलाते ।।
नौ महीने गर्भ में रख जोखिम वो सहती
अपनी फिकर न उसे सदा समर्पित रहती ।।
कैसे कैसे अर्पण के किस्से सुने हैं
शरीर से बड़े अर्पन के फर्ज गुने हैं ।।
महर्षि दधीच का किस्सा कौन न जाने
औरों के वास्ते निज जान न वो पहचाने ।।
कर्ण जैसे और भी कितने महान हैं
अर्पण तो ''शिवम" मानवता की शान है
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
मानवता पर ये बड़ा सितम हो रहा ।।
अर्पण न होता तो क्या हम जग में आते
माँ के अर्पन को आखिर हम क्यों भुलाते ।।
नौ महीने गर्भ में रख जोखिम वो सहती
अपनी फिकर न उसे सदा समर्पित रहती ।।
कैसे कैसे अर्पण के किस्से सुने हैं
शरीर से बड़े अर्पन के फर्ज गुने हैं ।।
महर्षि दधीच का किस्सा कौन न जाने
औरों के वास्ते निज जान न वो पहचाने ।।
कर्ण जैसे और भी कितने महान हैं
अर्पण तो ''शिवम" मानवता की शान है
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
सुर्ख लबों पर प्रीत तराने पिया तेरें संग गाऊंगी
अर्पण कर दिया जीवन सारा
प्रणय रीत निभाऊंगी
जीवन ज्योत जले पिया जी
ठण्डी पोर अगन भरे
विरह तपन नित उमंग को डसती
तुझ बिन चैन न पाऊंगी
सुमन पंखुड़ी स्निग्ध शिरा सी
अंग अंग थिरकी जाऊं
पावस मेघा बन करूं समर्पण पुलक पुलक खिलती जाऊँ
तर्पित मेनका सी कर्षण करती
ह्रदय दीप जला जाऊं
उद्धिग्न निर्झर सी झर झर करती समरूप सी हो जाऊ
जीवन आधार तुम्ही पिया जी समर्पित जीवन प्राण करूं
अर्पण करो समर्पण अपना सिन्दूरी भोर फिर ले आऊँ
स्वरचित : मिलन जैन
अर्पण कर दिया जीवन सारा
प्रणय रीत निभाऊंगी
जीवन ज्योत जले पिया जी
ठण्डी पोर अगन भरे
विरह तपन नित उमंग को डसती
तुझ बिन चैन न पाऊंगी
सुमन पंखुड़ी स्निग्ध शिरा सी
अंग अंग थिरकी जाऊं
पावस मेघा बन करूं समर्पण पुलक पुलक खिलती जाऊँ
तर्पित मेनका सी कर्षण करती
ह्रदय दीप जला जाऊं
उद्धिग्न निर्झर सी झर झर करती समरूप सी हो जाऊ
जीवन आधार तुम्ही पिया जी समर्पित जीवन प्राण करूं
अर्पण करो समर्पण अपना सिन्दूरी भोर फिर ले आऊँ
स्वरचित : मिलन जैन
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