कवि ख़ामोश हो जाता है...
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गोविन्द सिंह चौहान,,, भागावड़
(74)
असुरक्षा के इस दौर में
इंसान को क्या चाहिये
गेट पर घण्टी,दरबान
और कुत्ता बैठा दिया जाता है।
दुनिया में कहीं नहीं देखी
इतनी सुन्दर बात
एक सांस चुपके से रुकी
और इंसान लुढ़क जाता है।
सबसे अच्छी कविता अब तक
कभी लिखी ही नहीं गई
वह उठती है अन्तरतम से
और कवि ख़ामोश हो जाता है।
दूर क्षितिज पर उड़ता रहा
एक निरीह परिन्दा
इंतजार करता रहा घोंसला
और बच्चों का दम हार जाता हैं।
किसी आदमी की जरूरत
होती है एक अदद घर की
और वह पूरा का पूरा
गाँव ही निगल जाता है।
मन के एक तार में कोलाहल
दूसरे में दर्द कराहता रहा
जब मिन्नतें करनी ही पड़े
सिर खुद ब खुद झुक जाता है।
हर ख़ुशी के बाद अक्सर
सांस लेती है उदासी
कल के हसीन ख़्वाब में
इंसां आज को जी जाता है।
समय के पंखों पर सवार
सरसराते हैं प्रेम के शब्द
उदित-अस्त होते रहे दिन
और जीवन विदा हो जाता है।।
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गोविन्द सिंह चौहान,,, भागावड़
(74)
असुरक्षा के इस दौर में
इंसान को क्या चाहिये
गेट पर घण्टी,दरबान
और कुत्ता बैठा दिया जाता है।
दुनिया में कहीं नहीं देखी
इतनी सुन्दर बात
एक सांस चुपके से रुकी
और इंसान लुढ़क जाता है।
सबसे अच्छी कविता अब तक
कभी लिखी ही नहीं गई
वह उठती है अन्तरतम से
और कवि ख़ामोश हो जाता है।
दूर क्षितिज पर उड़ता रहा
एक निरीह परिन्दा
इंतजार करता रहा घोंसला
और बच्चों का दम हार जाता हैं।
किसी आदमी की जरूरत
होती है एक अदद घर की
और वह पूरा का पूरा
गाँव ही निगल जाता है।
मन के एक तार में कोलाहल
दूसरे में दर्द कराहता रहा
जब मिन्नतें करनी ही पड़े
सिर खुद ब खुद झुक जाता है।
हर ख़ुशी के बाद अक्सर
सांस लेती है उदासी
कल के हसीन ख़्वाब में
इंसां आज को जी जाता है।
समय के पंखों पर सवार
सरसराते हैं प्रेम के शब्द
उदित-अस्त होते रहे दिन
और जीवन विदा हो जाता है।।
विधा-दोहा छंद विषय - मानवता
1.जो मानवता धर्म का, रखते हैं संज्ञान।
वह इस मानव देह में, कहलाते भगवान।।
2.मानव ही बनते सदा, देव और शैतान।
बस भावों में फर्क है,इंसानियत प्रधान।।
3.दान, दया, सद्भावना, क्षमा, त्याग, संतोष।
मानवता का विश्व में, करते हैं उद्घोष।।
4.मानस, गीता, बाइबिल, आगम और कुरान।
सभी रहे हैं बाँटते, मानवता का ज्ञान।।
5.देख सड़क पर हादसा, मुँह लेते हैं फेर।
मानवता अब हो रही, नित ऐसे भी ढेर।।
6.शस्त्रों के पूजक बने, हुए विभेद अनेक।
भूले मानव बात यह, मानव-मानव एक।।
7.जाति, धर्म, भाषा अलग, पर रख एक विचार।
मानवता से स्वर्ग को, सकते धरा उतार।।
8.प्रेम, शांति औ संतुलन, मानवता की सीख।
मानुष मानवता रहित, जैसे चूसा ईख।।
9.सहनशीलता, शुद्धता, प्रेम, दया औ ज्ञान।
मानवता के मूल ये, मानव की पहचान।।
10.मानव जीवन को मिला, यह अनुपम उपहार।
मानवता ही मोक्ष का, एक मात्र है द्वार।।
✍️ मिथलेश क़ायनात
1.जो मानवता धर्म का, रखते हैं संज्ञान।
वह इस मानव देह में, कहलाते भगवान।।
2.मानव ही बनते सदा, देव और शैतान।
बस भावों में फर्क है,इंसानियत प्रधान।।
3.दान, दया, सद्भावना, क्षमा, त्याग, संतोष।
मानवता का विश्व में, करते हैं उद्घोष।।
4.मानस, गीता, बाइबिल, आगम और कुरान।
सभी रहे हैं बाँटते, मानवता का ज्ञान।।
5.देख सड़क पर हादसा, मुँह लेते हैं फेर।
मानवता अब हो रही, नित ऐसे भी ढेर।।
6.शस्त्रों के पूजक बने, हुए विभेद अनेक।
भूले मानव बात यह, मानव-मानव एक।।
7.जाति, धर्म, भाषा अलग, पर रख एक विचार।
मानवता से स्वर्ग को, सकते धरा उतार।।
8.प्रेम, शांति औ संतुलन, मानवता की सीख।
मानुष मानवता रहित, जैसे चूसा ईख।।
9.सहनशीलता, शुद्धता, प्रेम, दया औ ज्ञान।
मानवता के मूल ये, मानव की पहचान।।
10.मानव जीवन को मिला, यह अनुपम उपहार।
मानवता ही मोक्ष का, एक मात्र है द्वार।।
✍️ मिथलेश क़ायनात
मैं बहारों का गुलशन सजाता रहा,
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
वक़्त की चाल टेढ़ी दिखी जब मुझे,
राह कांटों में भी मैं बनाता रहा,
चैन इक पल मुझे ना मिला ना सही,
मुश्किलें दूसरों की मिटाता रहा।
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
दर्द अपनों के खलते रहे उम्र भर,
जख़्म अपनों के छलते रहे उम्र भर,
पीर अन्तस में दब कर कराहती रही,
वेदना सह सतत मुस्कुराता रहा
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा ,
हर अमावस को पूनम बनाता रहा ।
क्यों भरोसा मुझे उनके वादों पे था,
झूठा वादा तो उनके इरादों में था
टूटे वादों इरादों से खा चोट मैं,
नीड़ मजबूत दिल का बनाता रहा
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
अनुराग दीक्षित
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
वक़्त की चाल टेढ़ी दिखी जब मुझे,
राह कांटों में भी मैं बनाता रहा,
चैन इक पल मुझे ना मिला ना सही,
मुश्किलें दूसरों की मिटाता रहा।
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
दर्द अपनों के खलते रहे उम्र भर,
जख़्म अपनों के छलते रहे उम्र भर,
पीर अन्तस में दब कर कराहती रही,
वेदना सह सतत मुस्कुराता रहा
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा ,
हर अमावस को पूनम बनाता रहा ।
क्यों भरोसा मुझे उनके वादों पे था,
झूठा वादा तो उनके इरादों में था
टूटे वादों इरादों से खा चोट मैं,
नीड़ मजबूत दिल का बनाता रहा
मैं बहारों के गुलशन सजाता रहा
हर अमावस को पूनम बनाता रहा।
अनुराग दीक्षित
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कवि जसवंत लाल खटीक
💐रतना का गुड़ा ,देवगढ़💐
काव्य गोष्ठी मंच, राजसमन्द
हाथ की लकीरो के भरोसे ,
सुनो ,कभी तुम मत रहना ।
ये सब कहने की बातें ,
मन में वहम तुम मत रखना ।।
मेहनत का फल मिलेगा जब ,
पसीना परफ्यूम ज्यूँ महकेगा ।
खून-पसीना लगेगा तब ,
भाग्य अपने आप चमकेगा ।।
भाग्य का निर्माण स्वयं करेंगे ,
कोई नही इसे लिखेगा ।
जिंदगी की इन राहो में ,
आसान सफर नही मिलेगा ।
भाग्य के भरोसे रहने वाले ,
कर्म के बीज नही बोते है ।
अरे ,भाग्य तो वो भी लिखते है ,
जिनके हाथ नही होते है ।।
पुश्तैनी दौलत जिनके होती ,
वो घोड़े बेच कर सो जाते है ।
मेहनत की रोटी खाने वाले ,
इतिहास में अमर हो जाते है ।।
भाग्य के भरोसे रहने वाले ,
थोथली उड़ान भरते है ।
चार दिन की चाँदनी होती ,
फिर दर-दर भटकते है ।।
खून पसीने का एक रुपया ,
सोने की मोहर ज्यूँ लगता है ।
किस्मत को चमकाने के लिए ,
इंसान दिन रात जगता है ।।
मेहनत करते जाओ तुम ,
किस्मत दौड़ती हुई आएगी ।
" जसवंत " तेरी मेहनत जरूर ,
लोगों में जागरूकता लाएंगी ।।
प्रेम नृत्य
🔏🔏🔏🔏
प्रकृति जब नृत्य करती,
धरती को उपकृत करती,
सरिता जब नृत्य करती,
सिन्धु प्रेम सत्य करती।
और मन जब नृत्य करता,
अद्भुत उमंगों से भरता,
मखमली मृदुभाव को,
मन की पूरी ठाँव को,
मधुर मिलन की आस लिए
चल पड़ता प्रिय के गाँव को।
शुरू होती यहीं से साधना,
प्रियतम की आराधना,
प्रेम की अभिव्यक्ति ले,
मधुर डोर से बाँधना
और नेह का काजल बना
प्रियतम की आॅख आॅजना।
प्रेम नृत्य की सुन्दर भंगिमा,
अलंकृत करती है गरिमा,
कितनी अद्भुत यह ललिमा
सब खो जाता धीमा धीमा
मेरे साथ भी रास रचालो,
कृष्ण मेरा ये जनम बचालो।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
बचपन की बारिश *
बहुत भिगोती थी
वो बचपन की बारिश
वो स्कूल से आना
बारिश मे दौड लगाना
छप छप की आवाजें
साथी को भिगो जाना
वो हंसी की फुंहारें
भीगे तन मन सब हारे
बहुत भिगोती थी
वो बचपन की बारिश
टिप टिप
बारिश का आना
मम्मा छत पर है जाना
डांट मम्मा की खाना
सैकड़ों बहाने बनाना
छत पे उछल कूद
देर तक नहाना खूब
बहुत भिगोती थी
वो बचपन की बारिश
सरपट चलती
कागज की नावें
लहर लहर चलती
वो मस्ती भरी नावे
दौड बहुत मचती
नाव का आगे जाना
सखी को बहुत जलाना
बहुत भिगोती थी
वो बचपन की बारिश
किसी भी बहाने
बाहर को जाना
छतरी का न खुलना
बस भीगते जाना
दिल का बच्चा
उछल कूद मचाता
न सुनता किसी की
बस अपनी मनवाता
बहुत भिगोती थी
वो बचपन की बारिश
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
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