Thursday, June 14

"अवकाश' 13जून2018



 "अवकाश'

आज काम नही मुझे अवकाश चाहिए

रोजमर्रा की जिंदगी नही।
अनंत गगन का उड़ान चाहिए।
हम नही मात्र एक यंत्र समान
हमें सुकून का दो पल चाहिए।

जीवन के आपाधापी से बाहर
प्रकृति के गोद मे हमें विश्राम चाहिए।
कल-कल करती नदी की ध्वनी का
कानों को मधुर स्वर चाहिए।

आज काम नही मुझे अवकाश चाहिए
हिम आच्छादित मेघों के साथ।
आकाश विचरण का एहसास चाहिए।
मंद -मंद बहती समीर के साथ
दुनिया भ्रमण का एहसास चाहिए।

कुछ पल तो हमें सुकून का चाहिए।
कुछ अपने और अपनो के साथ
कुछ समय का अवकाश चाहिए।आज काम नही अवकाश चाहिए।

ज्ञान क्षितिज बढाने को
अपने व्यकितत्व निखारने को
दुनिया को समझने को
आज काम नही अवकाश चाहिए।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं
भागते दौड़ते दर्प से
सुकुनी सांस भर लूं

चन्द हसीं ख्वाबो से 
आंखे मैं चार कर लू
मौज़ो की कश्तियों से
मौज़े हजार भर लूं
अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं

लू के गरम थपेडे
जीवन सुलगा रहे थे
जीवन के ललाट पे
चन्दन ज़रा सा मल लूं
अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं

अरमानों की बारीश
मेरी रुह भिगो रही थी
हल्की फुहारों से मिलकर
रूह में तसल्ली भर दूं
अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं

गम के बादल घनेरे
मुझे धमका रहे थे
बादलों के शामियाने को
फिर से रंगीन मैं कर दूं
अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं

बड़ी तमतमा गई है
ह्रदय की आस मुझसे
शबनमी ओस से नहाकर
रंगत सुबह सी कर दूं
अवकाश जिन्दगी से लेकर
आकाश बाहों में भर लूं

स्वरचित : मिलन जैन
दिनांक : १३ जून २०१८.




आज ""अवकाश ""है
चलिए कुछ नया करते है
मन मे दबी सालों की कुंठाओं को

कही स्वाहा करते है।
बैर भाव को न पनपने दें
आज इस पर विचार करते है।
आज "अवकाश "है
कुछ मीठे बोल
साथियाँ पर लिखने का विचार रखते है
कुछ हल्की-फुल्की बातों से
यादें रंगीन करते है।
स्नेह-बंधन के पचपन दिवस पर
मीठे का शगुन करते है।
जो बातें दिल मे हो
प्रेम से उस पर चर्चा करते है।
आज ""अवकाश "है
स्नेह के गांठें मजबूत करते है
क्रमशः....

वीणा शर्मा




*भा.13/6/2018( बुधवार)शीर्षक ः

अवकाशःःविधाःःछंदमुक्त कविता ः
मृत्यु शैया पर पहुँचने से पहले
हमें कभी अवकाश नहीं मिलता।

चाहने से इस जगत में शायद हमें
कभी किसी को कुछ नहीं मिलता।
आदमी जिंदगी भर कुछ न करे मगर
मानसिक रुप से जूझता रहे,
रामायण साक्षी श्रीराम को राज क्या
कैकई नहीं होती तो वनवास नहीं मिलता।
निठल्ले भले बैठे दिखते रहें हम
लेकिन मानसिक अवकाश नहीं मिलता।
कुछ हास्य जीवन में घोलें नहीं
बिन चाहे क्या कभी उपहास नहीं मिलता।
कितना भी कहे कोई मजे में रहकर
मै मनमौजी छुट्टियां गुजार रहा,
मगर मै यह निश्चित मानूँ जाने से पहले
शमशान यहाँ अवकाश नहीं मिलता।
स्वरचितः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी




 ''अवकाश/छुट्टी"

दस दिन की छुट्टी मिली गया घूमने ऊटी 

पत्नि पड़ी बीमार राह में किस्मत मेरी फूटी ।।

क्या कहूँ किस्मत के किस्से शनि की साढे साती 
जब सोचूँ कुछ अच्छे की ये रंग में भंग जमाती ।।

एक साहब हुये रिटायर दूजे दिन ही चल बसे
देख कर ये वाकया आँसू कम हम खूब हँसे ।।

मेरी छुट्टियों की भी शायद थी उसे खबर 
बीच राह में ही रोका मेरा ये हँसीन सफर ।।

कभी तो रोना आता खुद पर और कभी हँसी
चलती हुई गाड़ी यहाँ कब किसकी नही फँसी ।।

अवकाश के इन्तजार में रहते सभी ''शिवम"
अवकाश प्राप्त साहब को शायद तके थे यम ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"




या तो कुछ नये भाव जगा कर,
इन अधरों पर प्यास देदो।


या फिर जीवन समर से,
अब मुझे अवकाश देदो।।

मुक्त कर सारे दुखों से,
नींदका वरदान दो।
या फिर जीवन सजा कर,
सपनों को सम्मान दो।।

पतझड़ सी जिंदगी को...
फिर से तुम मधुमास देदो।

या फिर जीवन समर से,
अब मुझे अवकाश देदो।।

.....राकेश





काश! ऐसा हो अवकाश का

ये दिन बदस्तूर रहे।
काम के बोझ की आने वाली
सुबह थम सी जाये
पल पल पे हो विराम 
मन चैन की नींद सो जाऐ।
हमसे अनुमति लेकर 
अलविदा हो ख्वाब हमारे
अछूते लम्हे ,जीवन दे जाये
कुछ भूले कुछ याद रहे 
सपनों का दर्द ना रहे। 
चारो पहर की सादगी
शांत, सरल सी नीरवता
मन में ये डर ना सताने दे
इस रात्रिकाल की विदाई
महत्वाकाशाओ का वियोग
कल फिर होना ही है
उठ जाग मुसाफिर भोर भई
छुट्टी का ये दिन,तुझे खोना ही है।

-----डा. निशा माथुर





"अवकाश "

अवकाश का शब्द तो हर एक को बहुत सुहाता है

आखिर 6 दिन की तमाम मगजमारी के बाद आता है

सब सोंचते हैं कि यार मुँह ढक के बस दिन भर सोयेंगे

ये क्या पता रहता है कि बीबी बच्चे जान को रोयेंगे

न जाने उनको आपसे कौन कौन काम निकल आते हैं

और इस या उस बहाने आपको सारा सारा दिन जगाते हैं

सोंची हुई सारी की सारी योजनायें धरी ही रह जाती हैं

फिर भी मुन्ना की अम्मी घुड़कतीं और आँखे सुर्ख दिखलाती हैं

(स्वरचित)


 अब अवकाश होके भी, अवकाश कहाँ रहता है 
अब वो सुकून वाला, ईतवार कहाँ रहता है 
कामों कि फ़ेहरिस्त, मुँह चिढ़ाती है मुझको 

बाग को भी अब मेरा, इंतजार कहाँ रहता है l 

ढूँढ़ता हूँ यादों में, वो पुराना यार कहाँ रहता है 
खुद से मिलने का भी बहाना लगा रहता है 
उम्र के साथ वक्त भी, होता गया महँगा 
इक सस्ते अवकाश का, इंतजार बना रहता है




संग संगती में हमने 
लिया एक दिन का अवकाश 
निकल पड़े हम सबने 

देखने देश का बिकसित 
बिकास ।।

जोरो का बिकसित हुआ 
है देश. भिड़ फैली है ज्यादा
खेत कट छट छोटे होगये 
आबादी शहरो का आधा 
फूल थमाया जब हमने 
रोता मिला भूख से बिकास ।।
एक दिन घुमने निकला मै 
लेकरअवकाश ।।

कही प्यासे राहो में 
नंगे पॉव‌‌ के दिखे छॉले 
तिनको के सहारे टिके 
झुग्गीया कौन सुने ऐ हाले 
महलो को छोड़ देखे 
दीनता लगी कितनी आश 
निकल पड़ देखने हम 
लेकर. योजना आवास ।।

अवकाश पर प्रयास 
मौलिक रचना इंदू मिश्रा मुम्बई

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