परदेस मे घायल पडा घर से कितना दूर हूँ।
माँ ने है पूछा हाल मेरा क्या कहूँ मजबूर हूँ।
टीस में हंस के कहा मां तुम अपनी सुनाओ।
कहने लगी बेचैन हूँ बच्चे मेरे सच्ची बताओ।
मौत से बच कर हूँ आया ये भला कैसे कहूं।
दुखती हुई रगें लहू का सिलसिला कैसे कहूं।
सच कहूं तो दर्द मेरा सहन कहां कर पायेगी।
जीती हो कुछ साल तो पहले ही मर जायेगी।
कहने लगी मुझे बना मत बात कुछ और है।
बचपन ही से है छुपाता दिल मे तेरे चोर है।
मैंने कहा कि ठीक हूँ है बात बिल्कुल सही।
माँ कहे कि फिर मुझे नींद क्यों आती नहीं।
दिल है घबराए के जैसे चीज कोई खोई गई।
सच कहूं बेटा तुझे दो दिन से मै सोई नहीं।
सोचा था विज्ञान की तकनीक का न तोड़ है।
पर मां बेटे के दिल का दूर से कैसा जोड़ है।
जरा तकलीफ में हूँ तो घबरा जाती है माँ।
मुश्किलें मुझपे हों तो बिखरा जाती है माँ।
ठीक हो जाऊं तो ही घर मिलने जाऊँगा।
बिल्कुल मै ठीक हूँ हर बार ये बतलाऊगां।
कुछ मुझे सूझा नहीं सच मै यह कह न पाया।
पहली बार झूठ कह के कितना सुकूं आया।
विपिन सोहल
शीर्षक ''परदेश"
परदेश रहके पहचाना मातृभूमि का प्यार
कोई न अपना मिला तरसे अपनों को यार ।।
न भाषा न बोली न हँसी ठिठोली रार
बुत की तरह बने रहे जल्द गया मेैं हार ।।
दुआ रही ऊपर वाले की भई न कहीं टकरार
वरना कोई न अपना न ही अपनी सरकार ।।
सौ क्लेश परदेश में घर है सुख की सार
तजो न घर , दो दिन भूख की सहलो मार ।।
अपनों के बिछोह के दुख का न उपचार
कितनी कोशिश करलो याद आती बार बार
स्वर्ग से बड़ी ''शिवम" जन्म भूमि घर द्वार
कुछ न रखा परदेश में व्यर्थ की मारामार ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
कितना अच्छा लगता था।
जब रहते थे अपने देश।
आज भये परदेशी।
छूटा अपना देश।
वो अपनी कच्ची सड़कें।
वो अपना छोटा सा घर।
वो अपना लड़ना झगड़ना।
वो अपना सबों का प्यार।
बहुत याद आता हमें।
अपना प्यारा देश।
आज भये परदेशी।
छूटा अपना देश।
आमों की बगिया में जाकर।
कैसे कच्चे पक्के आमों को खाना।
दौड़ना,भागना, ऊधम मचाना।
हर हालत में खुश हीं रहना।
वो ख़ुशी कहाँ मिलेगी।
जब छूटा अपना देश।।
आज भये परदेशी।
छूटा अपना देश।।
कितना अच्छा.........
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
निर्मोही बदरा घर आजा
परदेस को छोड़ के घर आ जा
ओ वैरागी घर आ जा
परदेस जाके बरस रहा है
घर आंगन सूखा पड़ा है
पतझर घर में आन बसा है
भटका सावन घर आ जा
घर की गोद सूनी पडी है
छत की दृढता मौन खड़ी है
आकर प्राण बसाता जा
बन हरियाली घर आ जा
चूल्हे में अब आग नहीं है
खीर मैं वो मीठास नहीं है
यादों पे जाले अटे पड़े हैं
घर की रौनक घर आ जा
आंगन तुलसी फुहार को तरसे
नेह उदासी झर झर बरसे
भोर उजासी राह तके
नेह मल्हारी घर आजा
बंजर धरा में प्राण नहीं है
आंखों में भी जान नहीं है
ख्वाबों की फसल की राह तकूं मैं
सावन की फुहारी घर आजा
परदेसी बदरा घर आजा
मेरी जीवन ज्योति घर आजा
परदेस को छोड़ के घर आ जा
ओ बेदर्दी घर आजा
स्वरचित मिलन जैन
******परदेश ******
उड़ते परिंदो से पूछो
फड़फड़ाए पंख इनके
कैसे देश कैसे परदेश
महकती फिजाओ हवाओं से पूछो
खुशबू ये बिखराए
कैसे देश कैसे परदेश
चाँद और तारों से पूछो
तारों संग चाँदनी मुस्काए
कैसे देश कैसे परदेश
सूरज की किरणों से पूछो
लालिमा आभा बरसाए
कैसे देश कैसे परदेश
ये ना जाने देश परदेश
इंसान कयों तू
नफ़रत की आँधी से दिल दहलाए
देश और परदेश
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
कैसे तुम बिन चैन धरूँ पिया, कैसे धङकते मन को समझाऊँ,
छलक रही नैनों की गगरीया, कैसे ये गीत विरह का गाऊँ।
आंगन बुहारू, मांडणा मांडू, अंग-अंग खिलती रंगोली सजाऊँ,
भोर अटरीया बोले कारा कागा,पल पल द्वारे दौङती क्यूं आऊँ।
कुमकुम भरे कदमों से नाचती शुभकामनाऐं लिख लिख जाऊँ,
पी रो संदेसो ले आ रे सुवटिया, तेरी चौंच सुनहरी मढवाऊँ।
कैसे तुम बिन चैन धरूँ पिया,कैसे धङकते मन को समझाऊँ!!!
उमङ घुमङ घन गरजे काले, मैं पात सरीखी कंप कंप जाऊँ,
कुहूकू कोयलिया बोले मीठी बोली, मैं, हूक कलेजे में पाऊँ,
सावन सुरंगा क्यूं करे अठखेली, मैं, कजरा नीर छलकाऊँ।
पिया परदेस,भीगा मोरा तन-मन, का से हिय की पीर बताऊँ।
कैसे तुम बिन चैन धरूँ पिया, कैसे धङकते मन को समझाऊँ!!!
चंचल हिरणी सी घर भर में डोलूँ लक्ष्मी केरा हाथ सजाऊँ,
मन-भावन मांडण को निरखती, पिय मिलन की आस बंधाऊँ।
सखी-सहेलियां करें अठखेली, कनखियाँ नजर भर मुस्काऊँ,
चंदन लेप, कुन्तल केश,चंचल चितवन, सौलह सिणगार सजाऊँ।
कैसे तुम बिन चैन धरूँ पिया, कैसे धङकते मन को समझाऊँ!!!
छलक जाय नैनों की गगरीया, कैसे यूं गीत विरह का गाऊँ।
डा. निशा माथुर/8952874359
दिन गुजरे माह गुजरे ओर गुजरे साल
पिया परदेश हे इंतजार हुए सालो साल
****
बिटिया अभी अभी चलती पडती कहती
तुतलाती कहती आएगे बापू इस साल
***
साल दर साल गुजर गए रूकते नहीं ऑसू
नही हुई बरसात हुई नही फसल इस साल
****
कोनसा सुख वहां है यारो मिलता नही यहां
पहले तो ख़तुत पर ख़तुत आते हर साल
*****
इंतजार कर थकी थकी सी रहती हे ऑखे
बिटिया सयानी हो रही हे देखो हर साल
****
पडोसी भी रोज रोज सुनावें फेरे ताना
बडी सेठ बनी फिरी हे 'मोहन' माला माल
***
स्वरचित===मनमोहन पालीवाल
कांकरोली
बैठे है परदेस सजन
मन छंद किसे बनाऊँ मैं
टूटे फूटे भावों को
कैसे उन्हें सुनाऊँ मैं।
बंसी धुन बन आते तो
अधरों से घुल मिल जाती मैं
मन मल्हार ये बन जाता
गीत नया रच जाती मैं।
परदेसी आ पवन ये बोली
छू मुझे वो अहसास पा लो जी
परदेस है भाया उसको अब
विरहणी लत लगा लो जी।
कृष्णा....
भेजा क्यूँ परदेस....
मोहे...
भेजा क्यूँ परदेस...
कृष्णा.....
पांच तत्व देह डोली बिठा कर....
खूं की महंदी में मुझ को रचा कर....
धर दिया काहे तू भेस.....
कृष्णा....
भेजा क्यूँ परदेस.....
जग ससुराल मोहे न भाये...
मोह माया के काले साये...
पल पल दें हैं मुझे ठेस....
कृष्णा....
पल पल दें हैं मुझे ठेस.....
कृष्णा
भेजा क्यूँ परदेस....
जिब्हा मेरी पे स्वाद बैठाये...
आँखों में हर रंग बिखराये...
मन उलझाए कलेश.....
तुझ बिन...
मन उलझाए क्लेश....
कृष्णा...
भेजा क्यूँ परदेस...
लोभ मोह मुझे नाच नचाये...
तेरा नाम मुझे दिया भुलाये....
कैसे दू अब सन्देश...
तोहे मैं...
कैसे दू अब सन्देश...
कृष्णा...
भेजा क्यूँ परदेस.....
बाट निहारूं हर पल तिहारी...
हाथ जोर करूँ बिनती बिहारी...
ओ गिरधारी कृष्ण मुरारी....
लिवा लीजो अपने देस......
कृष्णा.....
मुझे भाये न परदेस......
कृष्णा...
मुझे भाये न परदेदेदेदेदेदेदेस...
कृष्णाआआआआआआ....
लिवा लीजो अपने देस.....
मुझे भाये न परदेस......
कृष्णाआआआआआआ.......
II स्वरचित बिनती - सी.एम्.शर्मा II
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