अपने आप से जब कुछ सवाल करता है ।
हकीकत में ये दिल बडा मलाल करता है।
डुबा के लिखता हूँ हर्फ को दर्द जख्मों में।
लोग कहते हैं कि शायर कमाल करता है।
जब कहा मैंने के आओ जरा मिल के चलें।
कह रहे रहनुमा के तु क्यों बवाल करता है।
मिला के आग को पानी मे जब बरसता है।
बन के बादल मेरा साहिब धमाल करता है।
हैरान हूँ खिला के फूल सेहरा मे दरिया में।
किस तरह से वो रौशन जमाल करता है।
विपिन सोहल
किसी को अपनों की तलाश है ।
किसी की अपनों से खटास है ।
आखिर इंसान अाज उदास है ।
किसी को दौलत की प्यास है ।
किसी को शोहरत की आस है ।
कोई ये सब पाकर भी हताश है ।
कहें अगर जिन्दगी बकवास है ।
ये बदलती सदा ही लिबास है ।
सच्चा अन्त:करण का प्रकाश है ।
मिलेगा प्रतिरोध अपनों से जो पास है ।
जिनको है स्वारथ वो दिखेगा निराश है ।
यही है हकीकत जिन्दगी की जो खास है ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
1*भा.11/6/2018(सोमवार )शीर्षक ःहकीकतःः
दिलों में क्या छिपा रखा भगवान जाने।
असलियत जिंदगी की ये रहमान जाने।
दिलों में कुछ इनसानियत बची तुम्हारे,
यह हमारे अंतस में बसा इनसान जाने।
हकीकत समय पर सामने आ ही जाती है।
छिपाऐं बात पर जमाने में आ ही जाती है।
नहीं सोचें सच्चाई कभी उजागर नहीं होती,
कभी तो ये हकीकत सामने आ ही जाती है।
ये जितना झुठलाऐं हकीकत जरूर आती है।
सत्यता छिपी हकीकत कभी जरूर लाती है।
नहीं गिरूँ इतना कि चेहरा ही न दिखा पाऊँ,
हकीकत सामने आके कभी गरूर ढहाती है।
स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
क्यूँ करूँ मैं बात अब सब औरों की...
ईमान की बात में मैं सब चोरों की...
चहरा तो हर किसी ने छुपा रखा है...
अपनों में मेरी सीरत भी है गैरों की...
हवस पे चश्मा प्यार का चढ़ा रखा है...
बलात्कारियों ने मुंह चमका रखा है...
शान-ओ-शौकत दिखाते हुए पेट ने ...
भूखे गरीबों का हक़ दफना रखा है...
हकीकत का आलम अब ऐसा हो गया है....
बिना आग के धुआं उठता दिखाई देता है...
ईमान को झूट का गुब्बार निगल जाता है...
जलती बस्तियों में हैवान खिलखिलाता है...
नफरतों के पौधे रोम रोम में खिल रहे हैं...
सफ़ेद पीत वस्त्र भी उन को सींच रहे हैं...
चमक से बुद्धि सब की चुंधिया रही है...
खून सफ़ेद दिल इलेक्ट्रॉनिक्स हो रहे हैं...
कहाँ गए वो दिन जब दिलों में प्यार था....
न गैर से तुम रहे कभी और न गैर मैं था...
घर अगर किसी का जला कभी 'चन्दर'...
आग बुझाने में तू मेरे और मैं तेरे साथ था...
दम्भ में क्यूँ अकड़ी है यह गर्दन तेरी...
राख मुट्ठी भर ही तो हकीकत है तेरी...
चाल नहीं बदली तुमने अपनी तो वक़्त...
राख कर देगा बदलती हकीकत तेरी...
II मौलिक - चन्दर मोहन शर्मा II
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1
शरीफो की बस्ती में
नकाब कैसा है
कनक की दुकान में
खंजर कैसा है
हकीकत है कि
यहाँ आदमी नहीं कोई
यह बस्ती प्रान्तर जैसी है
2
घर घर आदमी क्यों रो रहा है
फूल फूल पर ओस क्यों गिर रहा है
इनकी व्यथा कम हो
कहीं से दवा लाओ
हकीकत है कि
यहाँ दवा नहीं
हरजगह जहर की दुकान है
3
तड़प रही कब से
मेरी करूण कल्पना
देखकर कब्र में
जिन्दा आदमी को
सिसकियाँ भर रही है
मेरी कविता
हकीकत है कि
यहाँ संगीत नहीं
हर तरफ बेबसी की
चित्कार है
4
थी राह पूछती लाश
विरानो की निर्जन बस्ती की
कोई फूँक प्राण- उत्तेजना
उसे जगा रहा था
जैसे राख से
मिट्टी बना रहा था
हकीकत है कि
यहाँ राख नहीं
हर तरफ धुंआ ही धुंआ है
5
बैठकर दरवाजे पे
अपनी सुध खोयी हुयी थी
प्राण हीन तन में
मौत की साँसे चल रही थी
हकीकत है कि
यहाँ प्राण नहीं
हर तरफ मुर्दा ही मुर्दा है
6
शहर के चमन में भी
चिंगारी चिटकती है
चमन को स्वर से भी
जलते देखा
हकीकत है कि
यहाँ शत्रु से नहीं
अपनो को अपनो से
लड़ते देखा
@शाको
स्वरचित
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