Friday, June 15

"कुरीति' 15जून2018


प्रश्नचिन्ह बना है
कुठाओं का
कुरीतियों का
भव्य समाज के ढकोसलों का
जो झण्डा गाड़ते है
रीति रिवाजों का
मान मर्यादाओं का
संस्कारों का
दंभ भरते है 
आदर्श विचारों का
आधुनिकता का
कर्त्तव्य परायणता का
किन्तु ये सभी घोतक हैं
संकीर्ण मानसिकता का
ओछे विचारों का
रूढ़िवादिता का
हम किस स्तर पर जी रहे है
किस समाज का हिस्सा हैं
एक भेडचाल है
जिसके हम सब मौन भागीदार है
बाल विवाह में आंखे मूंद लेते है
नन्हें बच्चों का भविष्य धुंए मैं उछाल देते है
दहेज प्रथा मैं मौन सहभागी बनते है
उपहार के नाम पर लालच को बढ़ावा देते हैं
पर्दाप्रथा पर गर्व से छाती ठोकते है
स्त्री के उत्पीडन अत्याचार पे मुंह छुपाते हैं
विधवा को स्वयं की जागीर समझते है
किन्तु उसके पुर्नस्थापन से जी चुराते हैं
मृत्यु भोज में डटकर खाते है
खाना अच्छा न हो तो नुक्स निकालते हैं
अंधविश्वास के आगे सर झुकाते हैं
और पाखंडियों की बदनियती को झेलते हैं
जातिवाद प्रान्तवाद में उलझे हैं
दंगे फसाद छुआछूत का दंश भोगते है
ऑनर किलींग के नाम पर युवाओं को रौंदते है
बलात्कार होने पर स्त्री को ही दोष देते हैं
हम किस देश में जी रही हैं
किस हाल में जी रहे हैं
अन्तर्मन कचोटता हैं
कुरीतियों का कचरा
सडांद मारता है
समरसता समरूपता सब चाहते हैं
परन्तु मौन है
उत्पीडन अत्याचार से मुक्ति सब चाहते है
परन्तु सहते है
और कुरीतियों का दंश भोगते हैं
ये कुरीतियां ही सामाजिक समस्याओं की जननी हैं
गरीबी भ्रष्टाचार इसकी संगीनी हैं
लोगों जागो
दोष देना बन्द करो
स्वयं को टटोलो
बन्द आंखे खोलो
नारेबाज़ी तोडफोड हड़ताल कैण्डल मार्च
किसी से हल नहीं निकलने वाला
अन्तःकरण को जगाओ
शिक्षा की अलख जगाओ
सुदृढ़ मानसिकता लाओ
स्वयं को बदलो
हम बदले समाज बदलेगा
समाज बदलेगा तो देश बदलेगा
प्रश्न चिन्ह को बदल कर
पूर्ण विराम लगा दो
जहां बचपन निश्चल हो
यौवन सुरक्षित हो
और बुढ़ापा निश्चिंत हो
जहां स्त्री स्वतंत्र हो
न भय हो न पतन हो
आओ हम फिर से एक हो जाए
सामाजिक उत्थान की जोत जगाएं
कुरीति उन्मूलन को अपना कर 
देश को फिर स्वतंत्र बनाएं

स्वरचित : मिलन जैन



आओ मिलकर आज मिटा दें
चहुँ ओर फैली कुरीति,
होगा सम्भव समग्र प्रयत्न से

होगी तभी हमारी जीत।
1-जाति-पात की सीमा तोड़ें
प्रेम भाव का संबंध जोड़ें
मानव धर्म को अपना लें सब
मन से बढ़े हमारी प्रीत।
2-दहेज प्रथा को आग लगा दें
बेटा बेटी के फर्क दफना दें
विधवा को जीने का हक़ देकर
जग में नई चला दें रीति।
सर्वेश पाण्डेय
15-06-2018


कोशिश जब भी हुई किसी को पराधीन बनाने में
सच मानो तो शुरुआत थी यह नई कुरीति बनाने में ....


थोपा जिसने नियमों को परंपराओ का नाम देकर 
भय या लालच था कुछ भी इस नई रीति चलाने में .....

कोई हंसता रहा दुख देकर अट्टहास करता चला 
क्या मिला उसे, इंसान से इंसान की प्रीति घटाने में .....

पिंजरे में बंद पंछी सा जीवन जीता कोई ताउम्र 
कोई लडता रहा फिर कहीं केवल कुरीति हटाने में .....

कितनी बलियां चढी है देव प्रसन्न करने के लिए 
कोई तो आखिर आगे आए ये कुरीति मिटाने में .....

लाभ भला क्या आखिर अंधाधुंध इस दौड का 
भला बस केवल स्वतंत्र जीवन सुनीति बनाने मे .....

........कमलेश जोशी कांकरोली राजसमंद


1भा.15/6/2018( शुक्रवार)शीर्षकःकुरीति।
विधाःःकविता
हमने कुरीतियों के पागलपन को कंधों पर

ऐसे ढोया है।
जिससे अच्छा भला जनमानस आज तक रोया है।
जरूरी नहीं हम सभी के विचारों मे समानता हो,
मगर सुनिश्चित ही हमने बैज्ञानिक युग में
बहुत कुछ खोया है।
कुछ लोग आज भी इन्हें अपने हृदय मे 
संजोए हैं।
अपने मानसपटल को कुरीतियों के पंक मे 
भिगोए है।
जो बेचारे आर्थिक रूप से कमजोर हैं बहुत
परेशान हैं,
वे अंधविश्वासों और ढकोसलों से स्वयं कर्जों
में डुबोए हैं।
मृत्यु भोज देने की कुपृथाऐं पागलपन तक
पहुंच चुकी हैं।
जिन्होंने जीवित माँ बाप को नहीं खिलाया
आज दुखी हैं।
समाज में सम्मान पाने के लिए पानी की तरह
रूपया बहा रहे,
क्या हम पागलपन तक कुरीतियों मे खर्च कर
हृदय से सुखी हैं।
हम अनपढ गंवार नहीं रहे फिर भी कुरीतियों मे जकड रहे हैं।
क्यों पागलपन की हद तक हम इन कुपृथाओं
को पकड रहे हैं।
व्याह शादियों मे हम बेतहाशा खर्च कर पैसा
दिखावे मे वहा रहे,
रोटी खाने गरीब तरस रहे हम बर्बाद कर अन्न अकड दिखा रहे।
स्वरचितः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी।



समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए
कुछ रीति रिवाज तो जरूरी है।
पर समाज को जो कमजोर करें
वह रीति नही कुरीति हैं।

समय बदला और हम बदले
बदल गई हमारी जरूरतें।
बस नही बदली तो सोच हमारी।
कुरीति को तो हम यूं ढ़ोय
जैसे हो हमारी कोई लचारी।

परिवर्तन तो श्रृष्टि का नियम है।
तो फिर क्यों न बदले हम
अपनी कुरितियों को।
दहेज प्रथा, जाती प्रथा तो है
सिर्फ दिखाती खोखली मानसिकता को।
हमें जरूरत है समाज के सुधार की ओर पहला कदम उठाने को।
दुसरा कदम त़ अपने आप उठ जाता
है सही दिशा में जाने को।

हमारे लिए समाज है।
समाज के लिए हम नही।
विस्तार देना होगा हमें अपनी
सोच की सीमाओं को।
और बदलना होगा सभी समाज
के ठेकेदारो को ।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।



II कुरीति II 

सोच में पड़ गया आईना देख कर मैं...

क्या ज़िन्दगी इसकी है....
मैं हँसता हूँ तो ये हँसता नहीं...
रोता हूँ ये रोता नहीं...
मेरे हाव भाव ही क्यूँ दिखाता है...
अपना सब क्यूँ छिपाता है....

फिर देखा एक शीशा और ...
जो था बिलकुल सीधा नकोर...
आर पार उसके नज़र साफ़ आता था...
पर उसमें मैं नज़र न आता था...
एक महल सा दीखते घर में...
शान-ओ-शौकत से लगाया जा रहा था...
और जिसमें नज़र आती थी शक्ल मेरी...
उसको एक साइड में फिट किया जा रहा था...
सोच में बवाल उठा....
एक सवाल उठा...
क्यूँ ऐसा ये होता है...
कैसे सब ये होता है...
फिर भीतर से आवाज़ आयी...
पगले शीशे के ऊपर पर्त चढ़ी है...
वो आर पार देख पाता नहीं...
तभी तू नज़र आता है...
जिसपे पर्त चढ़ी नहीं...
उसमें तेरी शकल दिखती नहीं.... 
मेरा फिर दिमाग चकराया....
सच ही तो है भाया....
मन पे पर्त (कुरीति) चढ़ाये बैठा हूँ...
अपनी और देखता नहीं...
औरों को उनकी औकात दिखाते फिरता हूँ...
बाल मजदूरी पे लेख लिखा करता हूँ..
अपने बच्चे को साल में ६ महीने टैलेंट के नाम पे.. 
टीवी पे दिखाता फिरता हूँ...
पढ़ाई उसकी भाड़ में जाए...
पैसे कमाता फिरता हूँ...
मन मेरा फिर बोला...
और कितनी कुरीतियां तुझमें...
क्या तुझको गिनवाऊँ मैं...
सुन न सकोगे बिखर जाओगे...
शीशे से भी बदतर लगोगे...
वो तो बिखर के फिर भी...
टुकड़ों में तुझे दिखाता है...
तू टूटा तो कुछ न बचेगा...
अपना और सब का नाता टूट जाता है...
बिखरने के डर से मैंने...
शक्ल पे शक्ल चढ़ा रखी...
कुरीति नाम की पर्त चढ़ा रखी है...
अपनी देखता नहीं औरों को...
उनकी कुरीतियां दिखाने की...
आदत बना रखी है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II



 आज के विषय " कुरीति' पर मेरी ये रचना - " सफ़ेद साड़ी" आप सबकी नजर....एक विधवा के जीवन की नियति एक कुरीति ..... 
सफेद साङी
अवसान के समय स्वरमय पहना दिया सफेद कफन

सभला दी गयी बंदिशो और प्रथाओं की ढेरों चाबियां
जिस सिन्दूरी रिश्ते को वो मनुहार से जीती आयी थी
वही निर्जीव नसीब में लिख गया जमाने की रूसवाईयां।

उसके माथे की लाली फिर धो दी समाज के ठेकेदारों ने
आंगन में लाल चूङियां भी तोङ दी वज्रकठोर रिश्तेनातों ने।
कानून बनाकर मौलिक अधिकारों पे संविधान लागू हो गये
वैधव्य का वास्ता देकर समाजी रंगो की वसीयत लूट ले गये।

सरहदें तय कर दी गयी अब घर की देहरी, चौखट तक की
उसकी जागीर से छीन ली गयी मुस्कराहट उसके होठों की।
स्पन्दित आखें नमक उतर आया गंगाजल से उसे शूद्ध कराया
बटवारें में ऐलान सांसों को गिन गिन कर लेने का आया।

निरामयता समपर्ण से जुङे रिश्ते तो उसे निभाने ही होंगे
शून्य सृष्टि सी प्रकृति संग विरक्ति के नियम अपनाने होंगे
बिछोह का दंश रोज छलेगा तपस्या ही अब जीवन होगा।
तन पे सफेद साङी सूनी कलाई और खामोश मातम होगा।
--------------डा. निशा माथुर/8952874359



संस्कृति, संस्कार कि गलियाँ
भूल चुके है हम
पुरातन संस्कृति 

षोडश संस्कार 
रस्मों रिवाज का चलन
समाज कि वांछनीयता है 
हां बदलाव भी है तो जरूरी 
ऋतुऐं, अयन, दिन -रात 
सभी कुछ बदलता तो है 
सीमाओं की परिमिति में 
मगर कहीं से हवा ऐसी चली
झंझावाती तूफान ने
सब कुछ तहस-नहस किया 
परिणाम स्वरूप कुरीतियाँ
आ धमकी 
निश्छल मन से जब बहे, 
सरस नेह की प्रीत। 
कुत्सित कुंठा छोड़ दें, 
रहे अमिट प्रेम की रीत।।




" कुरीति "

दहेज देना और लेना है गुनाह ये कानून देश का कहता है

पर बिना लिये और दिये दहेज आज भी समाज में काम नहीं चलता है

जब देना पड़ता है स्वयं को दहेज तो बहुत रोते हैं लोग

पर लेते समय कन्या पक्ष की खाल भी उधेड़ लेते हैं लोग

ऐसे दोगले घटिया समाज में बसते हैं दोमुंहें साँप

इन सांपों के फन कुचले बिना क्या कोई दहेज मिटा सकता है

इस लिये जरूरी है कि इस सोंच को जल्द से जल्द बदला जाये

और बिना दहेज बहु ला के एक स्वस्थ परंपरा शुरू की जाये

(स्वरचित)

No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...