''प्रकृति"
आधुनिकता की अँधी दौड़ में ,प्रकृति की न परवाह है ।
किसकी फिकर करेगा , प्रकृति दूध देती गाय है ।।
मानव पर सब कुछ लुटाया , वो ही बेपरवाह है
कितने जीवों पर किये , कितने ही गुनाह है।।
निज स्वारथ के चलते कितने पेड़ भी किये तबाह है
जीवन के हर मोड़ पर जिससे सुख बेपनाह है ।।
उसकी भी न फिकर करना ये पीढा़ असहाय है
कभी सुना करते थे पानी प्रथ्वी पर अथाह है ।।
आज तो नदियाँ भी सूखीं अब दिखती न कोई राह है
कितने संकट खड़े सामने मानव को करे आगाह है ।।
मगर अभी भी बेफिक्री , नही कोई भी भाह है
हाय ''शिवम"इंसा की फितरत , कौनसी ये चाह है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
आधुनिकता की अँधी दौड़ में ,प्रकृति की न परवाह है ।
किसकी फिकर करेगा , प्रकृति दूध देती गाय है ।।
मानव पर सब कुछ लुटाया , वो ही बेपरवाह है
कितने जीवों पर किये , कितने ही गुनाह है।।
निज स्वारथ के चलते कितने पेड़ भी किये तबाह है
जीवन के हर मोड़ पर जिससे सुख बेपनाह है ।।
उसकी भी न फिकर करना ये पीढा़ असहाय है
कभी सुना करते थे पानी प्रथ्वी पर अथाह है ।।
आज तो नदियाँ भी सूखीं अब दिखती न कोई राह है
कितने संकट खड़े सामने मानव को करे आगाह है ।।
मगर अभी भी बेफिक्री , नही कोई भी भाह है
हाय ''शिवम"इंसा की फितरत , कौनसी ये चाह है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
तुम कबतक खेलते रहोगे प्रकृति से।
जंगलों को काट काट कर खत्म कर दिया।
वीरानी सी छाई है वहाँ।
इसीलिए वर्षा नहीं होती।
सूखा पड़ गया है सारा जहाँ।
तुम.........
नदी,तालाब सूखे पड़े हैं।
प्रदूषण के कारण।
प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया।
तुम क्यों कहलाते मानव।
तुम.........
एक बूँद पानी को तरसता।
सारा जगत में सूखा है पड़ा।
त्राहि त्राहि मची है हर तरफ।
मानवता शर्मशार हो गया।।
तुम............
स्वरचित
वीणा झा
2जून 2018
2-6-2018
प्रकृतिहे प्रकृति!
ओढ़ लो तुम चादर हरीतिका
सदा प्रियदर्शनी बन रहना तुषारिका,
फैला कर ओस के पंख तन को सजाना
रश्मि किरणों से भी प्रकृति को लुभाना।
निर्विरोध ,नर्तकी सी हृदय में समाना,
मेरे स्वप्नों में भी हरियाली बनके आना।
तुषार दूर्वा से मोह न छुड़ाना,
कुंदन सी चमक ,बन धरा में तुम आना।
कोहिनूर जैसे तुम सदा चमकना
मिट्टीका दूब पर ,सदा राज करना।
प्रकृति ही है अद्भुत सामंजस्य बैठाए
मानव तुम प्रकृति का सदा साथ देना।
वीणा शर्मा
"प्रकृति'
प्रकृति हूँ मैं, माँ हूँ मैं।
दू दुहाई सताओ मत मुझे।
मुक्त हस्त प्यार लुटाऊँ मैं।
कृत्घन मत बनो समझाऊँ मैं।
सखा हूँ मैं, प्रतिपल तेरे साथ हूँ मैं।
मत तोड़ो अपनी सीमाओं को
सब्र का बांध टूट जाये न मेरी
बिनास ला दूं बिना किये देरी।
फूल हूँ मैं, फल हूँ मैं।
नदियां हूँ मैं,पहाड़ हूँ मैं
देखो। कितनी मनोरम हूँ मैं।
क्यों बिनास पर तुल गये हो?
कंक्रीट के जंगल बनाने पर तुल गये हो।
प्रकृति हूँ मैं, माँ हूँ मैं।
मेरे बच्चे खुश रहो तुम।
बस तुम मेरा कहना मानो
मुझसे मत छिनो हरियाली मेरी
नदिया,घाटी सुन्दर आबोहवा
है मुझे बहुत ही भाते।
मैं सुरक्षित तो तुम्हारा भविष्य
रहे सुरक्षित।
समझ जाओ मेरे संतान
प्रकृति हूँ मैं, माँ हूँ मैं तुम्हारी।
स्वरचित -आरती श्री वास्तव।
भा.2/6/2018(शनिवार )शीर्षक ःप्रकृतिःः
जिंदगी क्यों बदहाल हुई हमारी
प्रकृति प्रेम या प्रदूषण पर्यावरण।
अब सोचने की बारी है हमारी,
कौन सा चाहिए हमें आभूषण।
माँ की ममता की मूरत इसमें देखें।
माँ सी समता की सूरत इसमें देखें।
क्या नहीं मिला प्रकृति गोद से हमको,
स्वयं माँ की गरिमा हम इसमें लेखें।
तार तार करदी प्रकृति की महिमा।
नहीं रखी हमने थोड़ीसी भी गरिमा।
निशदिन नोंच रहे इसकी इज्ज़त हम,
बताऐं कहाँ कब छोडी इसकी गरिमा।
बिल्कुल लहुलुहान हमने इसे किया है।
क्या कुछभी सम्मान हमने इसे दिया है।
जी चाहा जितना हमने ही लूटा इसको
क्या गौरवान्वित तुमने इसे किया है।
असहनीय पीडा पहुंची है प्रकृति को,
अब क्यों लेगी ये कभी सुधि हमारी।
भूल चुके सब उपकार माँ प्रकृति के,
लगता है निश्चित ही मारी मति हमारी।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
एक सुरमुई भीगी भीगी शाम
ओढ कर चुनर चांदनी के नाम
सुनो.............
तुम जरा मेरे साथ तो आओ,
कुछ मौसमों को भी बुला लाओं,
मै...... मैं बादल ले आऊं,
और इस भीगी भीगी शाम में,
गुलमोहरी मधुमास चुराऊं।
सुनो.............
तुम आज कुछ बिगङो, कुछ बनो
और आंधियां भी संग ले आओ,
मैं........मैं चिराग बन जाऊं,
और इस आंधी संग जल जल के,
अपना विश्वास आजमाऊं।
सुनो.............
तुम कुछ पल पहाङ बन जाओ
और सन्नाटे से लहरा जाओ,
मैं........मैं धुंधलके साये सी मचलूं
सन्नाटे में तुम्हारा नाम पुकारूं।
सुनो.............
तुम आज वक्त बन जाओ,
और मेरे लिये थोङे ठहर जाओं,
मै............मैं फिर स्मृतियां छू लूं,
दर्पण में अनुरागी छवियां निहार लूं।
सुनो.............
तुम आज मेरा आंगन बन जाओं,
और मेरा सपना बन कर बिखर जाओं,
मै...........मैं मन के पलाश सी खिल जाऊं
अनुरक्त पंखुरी सी झर झर जाऊं।
सुनो.............
फिर एक सुरमुई भीगी भीगी शाम
ओढ कर चुनर चांदनी के नाम
मै........तुम्हारी आखों के दो मोती चुराऊं
और उसमें अपना चेहरा दर्ज कराऊं।
डा. निशा माथुर
शनिवार 2/6/18
विषय -प्रकृति
संध्या वर्णन
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आसमान में हल्के -हल्के
गहरे होते सांझ धुंधलके
धूसर केशो को बिखराती
सुरमई आंचल लहराती
लो आई वो संध्या सावरी
मगन समीर, दिशा वावरी
हीर कनो के अगनित झरने
अंबर तल पर लगे उतरने
लगे सिमटने दल फूलों के
प्राणहीन दंभ ,रवि शूलो के
आकुल अवनि की तपन हरने को
प्यासे जन में अमृत भरने को
लिए कर कलशो में शीतलता
प्रकृति ने है निशा का रूप धरा ।।।।।
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शब्दों में नहीं हो सकता, प्रकृति का सुन्दर चित्रण,
इसका तो विशेष ही, दिखता रहता है हर कण,
कोई नहीं हो सकता, इसके इस ऋण से उऋण
इसमें यदि डूबो तो मिलेगा, एक से एक सुन्दर क्षण।
एक ही सूर्य आकाश में, आठों पहर है डोलता,
कहां कहां अन्धकार है, स्वयम ही वह टटोलता
एक ही चन्द्र पूर्णिमा में, खुले ह्दय से बोलता,
और अपनी इस धरा पर, उजले पथ को खोलता।
सरिता का सुन्दर समर्पण, सागर का स्वागत में गर्जन
प्रकृति की यही अद्भुत शैली, जो बताती कैसे होता अर्पण
पुष्प लताओं में भौरों का गूंजन,मन में भरता स्पन्दन
सुगन्धित प्यारी बयार बहती, मन को भिगो देती छन छन।
पर्वत के ये ऊंचे मस्तक, पहुंच जाते हैं गगन तक,
तूफान नमन करते हैं शत शत, इनको अभिवादन देते हैं नत नत,
अथाह सम्पदा लिये हुए, ये प्रकृति के गौरव,
इनके आश्रय में मिलते हैं, नित सुन्दर अनुभव नव नव।
पेड़ों की तो बात निराली, झूम झूम कहती हर डाली,
कोयल यहीं गूंजती मतवाली, नहीं रहता है कुछ भी खाली,
ये जब देते घनी छाॅह, प्रकृति की दिखती सुन्दर बाॅह,
नहीं मिलेगी ऐसी सुन्दर, शीतल प्यारी मनोहर ठाॅह।
स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
शीर्षक: प्रकृति
ईश्वर ने कूची उठाकर जब
प्रकृति का श्रृंगार किया
अद्भूत रूप लावण्य देख
स्वयं पर ही नाज़ किया
सूर्य सी सुन्दर आभा दी और
सितारों से कान्तिमान किया
चन्द्रमा के रूप में सब को
शैत्य वर्ण उपहार दिया
नीला अम्बर नीला सागर
सुखद काव्य अहसास दिया
पोखर नदिया कलकल झरने
मधुर नीर अमृत दिया
हरित विटप मनभावन लगते
सुगंधित कुसुम श्रृंगार किया
सुन्दर अचल शीश मुकुट सुशोभित
विस्तृत कानन भाल दिया
मंत्रमुग्ध करती ऋतुओं से
प्रकृति को यौवन अहसास दिया
सुन्दर मनभावक जीव सृजन से
प्रकृति को ममत्व आभास दिया
प्रकृति स्वरूप रंग से भर के
ईश्वर ने तनिक विश्राम किया
फिर ईश्वर ने श्रेष्ठ कृति
मानव का निर्माण किया
पर ईश्वर की श्रेष्ठ कृति ने
प्रकृति का संहार किया
विटप दर्द पीड़ा से कांपे
अमृत जल विशाक्त किया
खनन विदोहन करके
धरा को शर्मसार किया
घातक परमाणु विस्फोटों से
धरा को लहुलुहान किया
प्राण वायु को दूषित करके
प्रकृति का ह्रास किया
ओजोन परत का नाश करके
ग्लोबल वार्मिग का आहवान किया
प्रकृति भी क्रोध से कांपे
प्राकृतिक आपदा का आगार किया
मानव जीवन कांप रहा है
जब प्रकृति ने रोद्र रुप धार लिया
ईश्वर ने भी विह्वल होकर
प्रकृति का ही साथ दिया
अपनी इस श्रेष्ठ कृति को
उसके किये का ही प्रसाद दिया
विनम्र निवेदन करूं मैं सबसे
प्रकृति का ख्याल करो
पर्यावरण संरक्षण करके ईश गौरव सम्मान करो
स्वरचित : मिलन जैन
दिनांक: २ मई १८
Rekha Ravi Dutt
झरने , नदियाँ, और ये पर्वत,
है चारों ओर हरियाली,
ये महकते उपवन,
पक्षियों की गुंजन,
है प्रकृति की देन,
उगते सूरज की किरणें,
गिरती जब धरा पर,
बूँदें ओस की बने मोती,
ये प्रकृति की देन है एेसी,
बढ़ जाए नजरों की ज्योती,
ढलते सूरज का अपना ही ,
एक रूप है,
फैला हर तरफ सुनहरा रंग रूप है,
स्वरचित-रेखा रविदत्त
2/6/18
शनिवार
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नित प्रति नूतन रंग बदलती है प्रकृति
कभी आग में झुलसकर
आप ही जलती है
कभी थरथराती काँपती ठिठुरती हिम हो जाती है
जब कभी झूमने पर आती है तो उमड़ती घुमड़ती
कड़कती तड़पती अपने ही आँसूओं में डूबती है जिंदगी
मधुमास मनाने को आतुर
फूलों से लबरेज होती है
पर समय की कीमत आंक
अपने रुक्ष वस्त्र त्यागती है प्रकृति।।
डा.नीलम
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