Friday, March 6

"संवेदना"05 मार्च 2020

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ब्लॉग संख्या :-676
5 /3/2020
बिषय,, संवेदना

संवेदना केवल औपचारिकता बनकर रह गई है
अंर्तर्मन की लगन दीवार सी ढह गई है
प्रेम स्त्रोत नदी की धारा से सूख गए हैं
प्यार स्नेह पतझड़ के पत्तों से टूट गए हैं
मौत पर भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हैं
कुछ ही मिनटों में सामान्य हो जाते हैं
स्वार्थपरता का आ गया जमाना
पैसे पद के लिए इंसान हुआ दीवाना
फुरसत नहीं कि पूछें हालचाल
मतलब पड़ने पर आता है ख्याल
जिंदगी की भागमभाग में लगा है आदमी
जागते हुए भी सोया है आदमी
स्वरचित, सुषमा, ब्यौहार

विषय संवेदना
विधा काव्य

5 मार्च 2020,गुरुवार

दया करुणा स्नेह समर्पण
जो प्रस्तुत करे, वही मानव।
स्वयं स्वार्थहित जो समाहित
वही कहाता है, जग दानव।

संवेदना का पुतला मानव
करुण भाव से है संचारित।
संस्कारी बचपन से होता है
स्व कर्तव्यों से ,है आकारित।

सीमा से शहीद पार्थिव देह
जब आती है स्व निवास पर।
हाहाकार रुदन हो उठता है
संवेदना निकले हर श्वास पर।

भाव विभाव अनुभाव उठते
दीन हीन असहाय देख कर।
संवेदना जाग्रत हो उठती है
उत्पीड़ित के क्लेश देख कर।

दैहिक दैविक भौतिक दुःख से
मानस में संवेदना भर आती।
पड़े आपदा दीन दुःखियों पर
सांत्वना भी मरहम बनजाती।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनाँक-५/३/२०२०
विधा-काव्य

विषय-संवेदना

संवेदनाओं की जमीं पर उगती हैं कविताएँ
हर बार नई पौध
नए शब्दों का संसार लिए
नया सा कुछ दिखाने के लिए
पुराना सा कुछ भुलाने के लिए
गढ़ती हैं कविताएँ हर बार ही
इक नया संसार
चली जाती हैं कविताएँ
सात समुंदर से भी पार
कभी कुछ सोचती हैं
तो कभी कुछ उकेरती हैं
हृदय के धरातल पर
छिड़क सा देती है
शब्दों का,कल्पनाओं का
ढेर सारा हरा,नीला,पीला ग़ुलाल
रंग लेती हैं कविताएँ सबको
अपने रंग में
बना देती हैं पाठक को
अपने जैसा ही
सच में ये कविताएँ
हृदय के धरातल से निकलती हुई
संवेदनाओं को सींचती हुई
इक नई सी पौध
हर सफ़हे पर तैयार करती हैं
आने वाले हर नए युग के लिए
ये कविताएँ जैसे मील का पत्थर साबित होती हैं
और गढ़ती ही रहती हैं
खुद में इक नया सा इतिहास!

स्वरचित-अर्पणा अग्रवाल

विषय - संवेदना
प्रथम प्रस्तुति


संवेदना अब कहाँ रही
अमानवीयता छा रही!!

पाशविक प्रवृत्ति इंसा में
आज दिन प्रतिदिन आ रही!!

दूसरों की हंसी खुशी
अब किसको भला भा रही!!

हड़प नीतियाँ मानव की
नित दुर्दशायें ला रही!!

श्रृष्टि का सतत दोहन अब
जीवों की प्रजाति खा रही!!

असंवेदनशील मानव
को बददुआ न डरा रही!!

आस-पड़ोस की लड़ाई
आज किस हद तक जा रही!!

कालिखें पर कालिखें ये
मानवता पर लगा रही!!

असंवेदनशीलता 'शिवम'
अब आयी नाव डुबा रही!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 05/0362020

5/03/2020:: वीरवार
विषय--संवेदना


इंसान पत्थर हो गए
संवेदना पत्थर हुई
रंग बदले जब लहू के
तब वेदना बेघर हुई
इंसानियत बेबस खड़ी
क्यूँ दरिंदगी के सामने
खून अपनों ने बहाया
है बेबसी मंजर हुई।
कर्तव्य को कर्मठ किया
परिवार पत्थर कर दिया
मार्ग ने छलनी किया
तो आत्मा जर्जर हुई

रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
दिनांक-5/03/202
विषय-संवेदना

संवेदना विहीन हो गये हैं हम
मानव संबंधों में न रहा दम।

रिस्तों की परिभाषा बदल गई है
इंसान की अभिलाषा बदल गई है।

पैसा अब पहचान हो गया है
झूठा ये जहान हो गया है।

मानवता जाने क्यों मर गई है
संवेदना इमोजी में ढल गई है।

स्वरचित
सीमा आचार्य(म.प्र.)
तिथि 5/3/2020/गुरुवार
विषय-*संवेदना*

विधा -काव्य

संवेदनाऐं मर गई तभी जब,
कुछ ग्रंथ घृणास्पद रच गये।
मैल भरे हृदय में इन सभी ने,
धार्मिक संविधान जो रच गये।

धर्मभीरू जो धार्मिक बने हैं।
वही घृणा ‌ के बीज बो रहे हैं।
पता नहीं इनके भगवान कौन,
जो संवेदनाऐं खो‌ रहे हैं।

कलुषित धारणा रखते सदा जो,
बुद्धिमान नहीं कह सकें कदापि।
मानवीयता नहीं इस हृदय में,
भगवान खुदा न हो सकें कदापि।

धर्म नहीं जो आपस में लडाता।
वैरभाव जो हम सबको सिखाता।
न मानें ग्रंथ जो दुर्भाव सिखाएं,
सदगुरु वहीं जो सदराह बताता।

क्या मिलेगी शांति ‌लडते झगड़ते।
मरे मानवता लड़ते झगड़ते।
पढ़ाई नहीं जो संवेदनाऐं शून्य,
रहें प्रेम से गले मिलते जुलते।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

05/03/2020गुरुवार
विषय-संवेदना
िधा-लघुकथा
🔥🌴🔥🌴🔥🌴
********************
उसने भगवान को भद्दी सी गालियाँ दी।मैंने कहा-नहीं,उसे ऐसा मत कहो।वह बोला-क्यों न कहूँ,स्साला...बड़ा दयालु बनता फिरता है,दुनिया में।मैंने कहा-क्या हो गया यह तो बताओ?
उसने आक्रोश मिश्रित दुखी शब्दों में कहा-सुनो!एक 12-15वर्षीय बालक जिसके कंधे पर पूरे परिवार का भार था।वह कड़ी मेहनत करके बड़ी शिद्दत के साथ अपना घर चला रहा था।क्या अपराध था,उस निर्दोष का जो उसे इस संसार से उठा लिया?अब उसके परिवार वाले बेसहारा हो तड़फ रहे हैं।भूखों मर रहे हैं।उनकी तकलीफें देखि नहीं जातीं,सही नहीं जाती।कहाँ गई उसकी समदर्शिता,बोलो?
नहीं!मुझे लगा, सचमुच,अभी मानवीय संवेदनाएं मरी नहीं हैं,जिन्दा हैं।मनुष्य पर संवेदनशून्य होने का आरोप सर्वथा झूठ व गलत है।
🌻🌷🌻🌷🌻🌷
श्रीराम साहू अकेला
दिनांक-05/03/2020
विषय-संवेदना



संवेदनाओ के स्वयंवर......


अनचाहे मन, चाहे तो पढ़ लेना।
संवेदनाओ स्वयंवर को
हर धड़कन पर नाम तुम्हारा।
खुले अधरों के आमंत्रण को।।
कनक मंजरी कर्ण के।
नछत्र तुम्हारे नित्य-निरंतर।।
अधर चांदनी पी रहे।
उम्मीदों के नव अभ्यंतर को।।
स्मृतियों की बाहों में।
यामिनी व्याकुल खड़ी सी,
चांदनी सेज सजा रही,।
वेदना कसकती इतनी भयंकर।।
अंग अंग नव छंद आज।
देख पुकार उठी धड़कन,
रुधिर में बढी रक्त की लालिमा
सांसो का क्रम हुआ इतना परिवर्तन।।
कष्टों की कलमुँही रात में।
आधी रात की काली सच ने
वेदनाओं ने रचे नए-नए स्वयंवर।।
खुलेआम जालिम दुनिया ने।
हंसते हंसते आंसू लड़ियों को लुटे।
अगणित बूंदे गिरी पृष्ठ पर
भावनाओं के कोरे झरने फूटे।।
नहीं मिला कोई भी अब तक अपना प्रियवर।
साक्षी रहे कलयुग के अवनी और अंबर।।
प्यार के सरहद पर खड़ी रहूंगी
जलते दीपक की तरह तत्पर...........

स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह
इलाहाबाद

विषय-संवेदना
___________
संवेदना घायल पड़ी है
सबको अपनी पड़ी है
कहीं खींच कहीं तान
जात-पात के गुलाम
कहीं खून कहीं गोली
कैसी आई है ये होली
छोड़ सच का सम्मान
थामें झूठ की कमान
भूलके प्रेम की उमंग
भीगे नफ़रत के रंग
धूमिल अबीर गुलाल
कड़वी होती मिठास
बैठ शाखाओं पे हम
काट रहे वृक्ष तन
जलते हुए घर-द्वार
ये इंसानियत की हार
अनुराधा चौहान स्वरचित
दिनांक-5-3-2020
विषय-संवेदना

विधा-छन्दमुक्त

समाज में करुणा संवेदना
का मानो अकाल पड़ गया है
चहुँ ओर निर्ममता बिखरी है पड़ी
क्योंकि आदमी अब आदमी नहीं
मशीन बन कर रह गए हैं

भाई भाई का दुश्मन बना है
हर शख्स इक दूजे पर तना है
सब संवेदन हीन हो चले हैं
मासूम लड़कियों को छेड़ते मनचले हैं
प्रायः आज लोग संस्कारविहीन हो गए हैं
क्योंकि आदमी अब आदमी नहीं
मशीन बन कर रह गए हैं।

वृद्ध माता पिता की फिक्र नहीं
हक की बात याद है कर्तव्य का ज़िक्र नहीं
एकल परिवार में रहना उन्हें पसंद है
न बड़ों का आशीष न कोई पाबंद है
फिर भी न जाने क्यों वे अप्रसन्न हुए हैं
क्योंकि आदमी अब आदमी नहीं
मशीन बन कर रह गए हैं।

तीज त्यौहार रस्मोरिवाज
बस औपचारिकता है
अपने परिवार तक सीमित हैं
रिश्तेदारों को कौन पूछता है
आज भावहीन सबके चेहरे हो गए हैं
क्योंकि आदमी अब आदमी नहीं
मशीन बन कर रह गए हैं।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

दिनांक : 05.03.2020
आज का विषय : संवेदना
विधा : स्वतंत्र

गीत

खोई कहीं संवेदनाएं ,
हम इसके जिम्मेदार हैं !!

हम क्या हैं एहसास नहीं ,
सद्चरित्र अब पास नहीं !
दयाभाव से दूर का नाता ,
करुणा का भी साथ नहीं !
रंगरलियों में खोये खोये ,
रंगे पटे , बाजार हैं !!

गम की ना हिस्सेदारी ,
होती ना पलकें भारी !
अपने सुख में हम खोये ,
अपनी ही विपदा भारी !
मन संवेदनशील रहा ना ,
खुशी के पहरेदार हैं !!

गुम सुम सी आज चेतना ,
चुप चुप सी आज वेदना !
मन में हूक कहाँ उठती ,
चुन चुन कर पल समेटना !
अपनेपन में डूबे डूबे ,
अपन के चौकीदार हैं !!

हम मिल जुल कर मन बदलें ,
आज नहीं तो कल बदलें !
अब बदलाव ज़रूरी है ,
गुण , चरित्र सब कुछ बदलें !
हम गति देते हैं समाज को ,
सच जानो हिस्सेदार हैं !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )
दिनांक-५/२०२०
शीर्षक_संवेदना।


मरी नही है हमारी संवेदना
झकझोर देती है देश की वेदना
सोचनीय हो गई है देश की हालत
अपनो से कैसे निपटे भारत?।

दुःखी है आज हमारी आत्मा
क्यो नही जागती सबकी अंतरात्मा
भाई भाई को काटे से न चूके,
भला हम अपनी संवेदना क्यों भूले?

तरकश से तीर जब निकल जायेगा
तब पछताने से क्या होगा,
इंसा इंसा से क्यो रूठे?
कभी किसी का साथ ना छूटे।

संकल्प ले हम करे प्रयास
कभी ना करे हम विश्वासघात
संवेदना कभी ना मरे हमारी
रहे सदा हम सदाचारी।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
संवेदना
दोहा छन्द गीतिका


***

सरल भाव उर में नहीं,यही प्रेम आधार।
व्यथित जगत की रीति से,कैसे निम्न विचार।।


नफरत की आँधी चली ,बढ़ा राग अरु द्वेष,
अपराधी अब बढ़ रहे, दूषित है आचार ।


जग में ऐसे लोग जो ,करें नारि अपमान
व्याधि मानसिक है उन्हें ,रखते घृणित विकार ।


निम्न कोटि की सोच से,करते वो दुष्कर्म
लुप्त हुई संवेदना ,क्या इनका उपचार ।


रंगहीन जीवन हुआ,लायें सुखद प्रभात,
नींव संस्कार की रहे ,मिटे दिलों के रार ।

अनिता सुधीर
विषय : संवेदना
विधा : कविता

तिथि : 5. 3. 2020

संवेदना भीख दे कर, अहंसंतुष्टि पाने में नहीं
संवेदना भिखारी को आत्मनिर्भर बनाने में है।
उसे भीख मांगने की हीनता, समझाने में है
संवेदना उसे दीनता की सोच से जगाने में है।

उसे श्रम के मान का बोध कराएं
आओ हम उसमें स्वाभिमान जगाएं
वह खुद भी उठे , दूसरों को उठाए
उसे अभिमान से जीने योग्य बनाएं।

संवेदना वह जो जीवन उपयोगी बनाए
संवेदना वह जो समाज संतोषी बनाए
बुद्ध व गांधी सभी प्रबुद्धों का है संदेश
संवेदना है सत्कर्म, नहीं कोरा उपदेश।

--रीता ग्रोवर
--स्वरचित
दिनांक, ५,३,२०२०
दिन, गुरुवार

विषय, संवेदना

संवेदना का दीप दिल में,
जलाते रहें हम उम्र भर ।
आये कभी भी वो घड़ी ना,
हम चुप रहें मनु वेदना पर ।

है व्यर्थ जीवन जो हँसा,
एहसास को रख ताक पर।
पिघला नहीं जो आँसुओं से ,
दाग है वो मनुज के नाम पर ।

हमारे संसार का आधार हैं,
अभी तक यही संवेदनाएं।
माता-पिता नहीं पालते शिशु ,
होतीं न जो उनमें संवेदनाएं।

प्यार , ममता , दया , करुणा ,
हैं स्तम्भ हमारी सभ्यता के।
मिट जाते हैं नफरत के साये,
सिर्फ सहयोग की भावना से।

सदा जागृत रखें संवेदना हम,
इंसानियत को हम मरने न दें।
यूँ ही ओरों में न ढूँढ़ें कमी हम,
पावन रखें हम मन आत्मा को।

स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
विषय - संवेदना
05/03/20

गुरुवार
कविता

जमाना न जाने चला है किधर,
नहीं राह मंजिल की आती नजर।

जो इंसा को गुमराह करती सदा,
वही सबने जीवन की पकड़ी डगर।

न संवेदना है , न है दिल्लगी,
यूँ लगता है रिश्तों से सब बेखबर।

उदासी का मंज़र है चारों तरफ,
तमन्ना दिलों की गयीं हैं बिखर।

चलो मिलकर हम एक वादा करें,
कि लाएं नई जिंदगी की लहर।

सही अर्थ जीवन का जाने सभी,
हो पूरा खुशी से सुहाना सफ़र।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
5/3/2020
विषय-संवेदना


नैना रे अब ना बरसना
शीत लहरी सी जगत की "संवेदना" ,
आँसू अपने आंखों में ही छुपा रखना ।
नैना रे अब ना बरसना।

शिशिर की धूप भी आती है ओढ़ दुशाला ,
अपने ही दर्द को लपेटे है, यहाँ सारा जमाना।
नैना रे अब ना बरसना।

देखो खिले-खिले पलाश भी लगे झरने,
डालियों को अलविदा कह चले पात सुहाने।
नैना रे अब ना बरसना।

सलज कुसुम ओढ़ तुषार दुकूल प्रफुल्लित ,
प्रकृति के सुसुप्त नैसर्गिक द्रव्य है मुखलित।
नैना रे अब ना बरसना।

जो कल न कर सका उस से न हो अधीर ,
है जो आज उनसे कर इष्ट मुक्ता अंगीकार ।
नैना रे अब ना बरसना ।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।

विषय-संवेदना।
कैसे हुआ शामिल दिल में ना लगा पता।
दिल क्यूं चाहे उसको खुद ना लगा पता।।

संवेदना के तार यूं जुड़ गए कब?
उसके साथ मुझे खुद ना लगा पता।।

उसके दर्द दाखिल हो गये कब ?
मेरे दिल में मुझे खुद ना लगा पता।।

उसकी खुशियां चाहत बन गईं कब?
मेरे ज़हन में मुझे खुद ना लगा पता।।

उसकी मुस्कान राहत देने लगी कब?
बेखबर रही"प्रीति"खुद ना लगा पता।।
****
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
05/03/2020
सम्वेदनाओं का अकाल
*******************
हर चेहरे पर है शून्यता,

है भावों की कुछ न्यूनता
लगता है इंसान मशीन होगया
सम्वेदनाओं का अकाल पड़ गया।।

माँ बाप लगे बस अधिक कमाने,
बेहतर से बेहतर सुविधा जुटाने।
माँ की ममता आया का प्यार हो गया,
सम्वेदनाओं का अकाल पड़ गया।।

निकले घर से बाहर किसी से थे टकराए
सोच रहे पड़े सड़क पर,कोई हमें उठाएं।
भीड़ लगी, खूब वीडियो गए बनाए।
घायलों का अधिक रक्त बह गया,
सम्वेदनाओं का अकाल पड़ गया...।।

घर पहुंचे बच्चे काम पर निकल गए,
सेवा को एक आया छोड़ गए,
आया भी बैठी फ़ोन चलाये
बिस्तर पर पड़े चीख़ चीख कर थक गया।
सम्वेदनाओं का अकाल पड़ गया..।।

गीतांजली वार्ष्णेय
दिनांक-05/03/2020
विषय - संवेदना

विधा- कविता

संकट की घड़ी
कठिनाइयों से
लड़ने का साहस
हृदय में आशा का
उदय , सदा रहो
निर्भय।
संवेदना प्रकट करने
वालों की लम्बी कतारे
मन में कुछ और
आँखो से .....
औपचारिकता की बातें!!

स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्ना वर्मा
धनबाद -झारखंड
विषय- संवेदना
क्या फायदा ऐसी संवेदना का

अगर वेदना उसके हृदय की
न ले सको तुम।
क्या फायदा ऐसी दोस्ती का
अगर अश्रु उसके नयन के
भर अंजुरी न पी सको तुम।
पाखंड प्यार का करके
दे रहे हो खुद को ही दगा।
क्या फायदा लोक दिखावे का
मौन रहकर दर्द को उसके अगर
ना हृदय तल से
महसूस कर सको तुम।

स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़गपुर
5/3/20
विषय संवेदना

विधा छन्द मुक्त

मानवीय संवेदनाओं
से से दूर नारी की अभिव्यक्ति
***********************
थके थके पाँव
बुझे बुझे से
चली बहुत
थकी बहुत
बोझ उठाये
जिंदगी का
घिसे तलुवों सङ्ग
चलती रही
चल रही अब भी
एक मुस्कान सङ्ग
कितने जख्म
दर्दो सङ्ग
उनकी भाषा
न पढ़ सका कोई
संघर्षों की दासता
जिंदगी की कहानी
बीता इतिहास
सफर का रूप
तिरछे पैर
टेढ़ी उंगलियां
नसों की जकड़न
असहनीय पीड़ा
दिल से शुरु
अंत पाँव तक
न पढ़ सका कोई
न समझेगा भाषा
अनेक पाँवो की रूपरेखा
भिन्न रूपो में
वेश में भाव मे
आशाओं के संसार मे
नारी के रूप में
वृद्धावस्ता के दहलीज में

स्वरचित
मीना तिवारी
विषय - संवेदना
द्वितीय प्रस्तुति


संवेदनाओं के जरिए हम
दिल से दिल की बातें करते!

दिल में बसा है वो एक रब
रब से नित मुलाकातें करते!

संवेदनशीलता खो रहे
खुद के सँग हम घातें करते!

संवेदनशील है हर सजीव
प्राण कि उनमें कयासें करते!

निष्प्राण से हो गए हैं हम
कहने को खुली आँखें करते!

परमपिता से तार ही टूटे
कैसे सुख की आसें करते!

'शिवम' सार सृष्टि का भुलाए
भेदभाव और जातें करते!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 05/03/2020

दिनाक- 5-3-2020
वारः- गुरुवार

विधाः- छन्द मुक्त

शीर्षकः- संवेदना का अभाव

जे एन यू की घटना से हो गया निशब्द।
निकल नहीं रहे लेखनी से मेरे कोई शब्द।।


घटा जो कुछ वहाँ पर, है क्या राम राज्य।
या पड़ जायगा कम उसके लिये जंगलराज।।


तीन चार बजे से मचा वहाँ भयंकर उत्पात।
खुली न विश्व विद्यालय प्रशाशन की आँख।।


पचास के करीब हथियार बन्द हैं घुस आते।
मुंह पर नकाब हाथों में हथियार को लहराते।।


पड़ता था जो सामने उसको धराशायी करते।
लठ्ठ व राडों आदि से स्वागत उसका करते।।


समान व्यवहार लड़के लडकी में नहीं अन्तर।
शिक्षक व शिक्षिकाओं को भी पाया पुरुस्कार।।


2020 का पहला ही मैच पाँच छह धन्टे चला।
देख के दशा दिल व्यथित हृदय का भी दहला।।


मीडिया की नींद खुली जब गये वो भी थे कूटे।
किसी का कैमरा किसी का माइक गये थे टूटे।।


सवाल यह नहीं है अब आक्रमण कारी कौन थे।
सवाल है मिली क्यों छूट हिंसा की कैसे थे घुसे।।


2020 इस भयंकर घटना पर आप क्या करोगे।
अपराधियों को दंड या पुरुस्कार दिलवाओगे।।

लगता है हो गया आजकल संवेदना का अभाव।
संवेदना नहीं रही स्वाथ का हो गया प्रादुर्भाव ।।


डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
संवेदना

माँ, जो हमें सिखाती,
संवेदना की धरातल पर जीना ।
इसलिए आता हमें,
दूसरों का दुख देखकर रोना ।
यह अलग बात हैं,
जिंदा होकर भी,
खत्म हो गयी हमारी संवेदना ।
हर रोज होती रास्ते पर दुर्घटना,
खत्म होता किसी का जीना ।
हम मदत तो दूर,
नही चाहते छुना,
खत्म हो गयी हमारी संवेदना ।
शाम ढलते ही,
मुश्किल है, घर से
बहु बेटियों का निकलना ।
नही जानते हम ,
असामाजिक तत्व को रोकना ।
भय से पीडित,
याद तो करते है निर्भया का जाना ।
नहीं सून सकते,
मासूम सी बच्ची का,
चीखों भरा रोना ।
खत्म हो गयी समाज की संवेदना ।
रात का समय,
बच्चे के लिए माँ का रोना,
फिस का ना होना,
डॉक्टर नही चाहता छुना,
खत्म हो गयी डॉक्टर की संवेदना ।
गाँव का गरीब लंगडा मजदूर,
सरटिफीकेट के लिए,
रोज करता कचहरी आना जाना ।
कुर्सी पर बैठे प्रशासन को,
नही दिखता उसका आना जाना ।
खत्म हो गयी,बाबू की संवेदना ।
हिंसा से मेहफुस नही देश कोना,
रोज आक्रामक होती ,
पाकिस्तान की सेना ।
खत्म हो गयी नेताओं की संवेदना ।
अनगिनत है प्रसंग,
जहाँ जरूरी है संवेदना ।
समाज के बाशिंदों,
मोमबत्तियाँ बुझावों.
जलाओ भीतर की संवेदना,
संवेदना की धरातल पर सीखो जीना.

प्रदीप सहारे
दिनांक 05-03-2020
विषय-संवेदना

मुक्तक

संवेदना रिश्तों में,अब नहीं रही ।
मन सरिता में गुमसुम सी पीर बही ।।
उद्गार भाव व्याकुल हो मचलते हैं ,
कुछ बातें रह गई,मन में अनकही ।।

रिश्तों में लगाव न, कोई अनबन है
संवेदनशून्यता से ,आहत मन है ।
संग रहकर भी,मीलों की दूरी है,
खामोशी में सिमटा,सा जीवन है ।

बंधन समझौतों पे नित चलते हैं ।
उजियारे अपना बनकर छलते हैं।
दीवारें छत ही साथ निभाती हैं ,
आँखों में ख्वाब सुनहरे पलते हैं।

कहने को हम चाँद पे पहुँच गए ।
अपनों के दिल में पहुँचते रह गए।
नेटवर्क हमारा जग से जुड़ा रहा,
रिश्तों की डोर से टूटके ढह गए।।

मायूसी सभी रिश्तों में छाई है ।
कैसा विकास तकनीकी आई है ।
मोबाइल में सारा जग अपना है,
अपने रिश्तों से घर में रिहाई है।

कुसुम लता 'कुसुम'
नई दिल्ली
शीर्षक- संवेदना
सादर मंच को समर्पित -


🌺🌴 गीतिका 🌴🌺
******************************
🍎🌴 संवेदना 🌴🍎
छंद- सरसी ( अर्द्ध सम मात्रिक )
विधान- (चौपाई + दोहे का सम चरण)
मात्रा = (16 , 11 )=27
समान्त - आर , अपदांत
☀️☀️☀️🏵☀️☀️☀️🏵☀️☀️☀️


ऊँच-नीच का भेद नहीं हो , समरसता ही प्यार ।
नहीं पराया जग में कोई , मानवता आधार ।।

संवेदना रखें यदि दिल में , भाईचारा रूप ,
दया धर्म का भाव भरा हो ,शान्ति प्रेम गलहार ।

दीन हीन भी बन्धु हमारे , सेवा व्रत है ध्येय ,
अंत्योदय हमको करना है , मानव धर्म विचार ।

पढ़ें, लिखें हर बालक, बेटी, साक्षर हो हर वर्ग ,
स्वच्छ रहें घर-आँगन सब के, पायें खुशी अपार ।

कोई रहे नहीं अब भूखा , जीना सब को मीत ,
शिक्षित होकर नारी जागे , चढ़े प्रगति संसार ।

बूँद-बूँद से भरे सरोवर , सेवा पुण्य प्रताप ,
इससे बढ़ कर धर्म न कोई , दिल को रखें उदार ।

आओ हिल-मिल सब को लायें, एक सूत्र में बाँध ,
खिल जायें मन-कमल सभी के ,यह जीवन का सार ।।

🍀🌺🌴🌹🌼🌻


🍒🍀***...रवीन्द्र वर्मा आगरा
दिनाँक-04/03/2020
विषय:-"संवेदना"
िधा-हाइकु(5/7/5)

(1)
स्वार्थ बेकाबू
मरती संवेदना
सूखते आँसू
(2)
स्वार्थ का जग
संवेदना से भरा
दिल दुर्लभ
(3)
समेटे जख्म
संवेदना ने पोंछे
दर्द के आँसू
(4)
गृह चेतना
बिटिया संवेदना
बाँटे वेदना
(5)
धर्म भूलते
संवेदना को मार
फोटो खींचते

स्वरचित
ऋतुराज दवे
विषय-संवेदना
दिनांक ५-३-२०२०




मैं जब भी दुखी हुई,संवेदना ना अपनों की पाई।
मैं हुई कृतज्ञ बहु,संवेदना जब गैरों ने दिखाई ।

समाज रीति को समझ,ना कभी जग हंसाई।
आभार गैर,जिसने बिन डरे यूं हिम्मत दिखाई।

जिसे अपना समझा,संवेदना ना उसने जताई।
हुई तन्हा लडी़ अकेली,दुश्मन ने मुंह की खाई।

कौन है जहां में, जो पराया दर्द अपना समझेगा।
तुम मेरे अपने थे,क्यों परायापन दीवार बनाई।

अनगिनत उपकारों को,मैं कभी समझा ना पाई।
संवेदनाओं का गला घोंट,बस यूं जिंदगी बिताई।

ना मिला प्यार अपनों का,वह गैर करीब आई।
गैरों ने दिया अपनापन,कैसे कहूं वो हरजाई।


वीणा वैष्णव
कांकरोली
विषय निर्दिष्ट
विधा कविता

दिनाँक 5.2.2020
दिन गुरुवार

सँवेदना एकदम तार तार हो गई
चुभन ऐसी हुई कि दिल के पार हो गई
नन्हीं कली को भी खिलने नहीं दिया
मानवता क्यों ऐसी जड़ और बीमार हो गई।

आपस में लोग एक दूसरे में बँट गये
कैसे मिलाप होता जब आपस में ही कट गये
अलग अलग मान्यताओं की चादर बिछ गई
लोग एक साथ एक मंच पर आने में नट गये।

रंगों में भी अज़ब विभाजन हो गया
इसी में सँवेदन भी कहीं खो गया
रंगों में रंगोली अब कैसे सजायें
अब तो चिन्तन भी थक के सो गया।

अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग है
हर ज़गह फन फैलाये बैठा विषैला नाग है
साम्प्रदायिक वैमनस्यता की भयंकर जलती आग है
आज की स्थिति पर यह कैसा काला दाग है।

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
5/3/2020
विषय-संवेदना।

द्वितीय प्रस्तुति।

नहीं ये कोई स्वाभाविक मौत नहीं है !
संवेदनाओं की मृत्यु यूं होगी
निस्तब्ध हूं मैं!!
सरासर हत्या है ये ,सामुहिक संस्कारों की।
इसके पीछे कोई गहरी साजिश है।
कैसे कोई निज सर्वार्थ के लिए
बड़े से गुट बनाकर उसका
मस्तिष्क प्रक्षालन कर है?
क्या झुठी भावुक बातों में व्यक्ति
अपनी अति साधारण समझ को भी धत्ता दीखा देता है,
बिना दूर गामी परिणाम जाने।
बिना स्वयं, समुदाय समाज और देश का नुक़सान जाने।
क्या ज्वालामुखी पर बैठने से पहले वो ये भी नहीं सोचता कि अगर फट पड़ा ये तो सबसे पहला परिणाम स्वयं की जान ही होगी ।
कैसे कोई इतना क्षुद्र हो
लिप्सा में लिप्त होता है कि भूल जाता है ,
उसे भी सब -कुछ यहीं छोड़कर
जाना है।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।

विषय -संवेदना
दिनांक 05/03/2020


तेरी संवेदनायें गई कहां
मैंने तो राज-ए- दिल कहा
कैसे तुमने कह दिया
आउं ना आज के बाद
हमने कलेजा काट कर
रख दिया आगाज के बाद
हो सके तो लौट आना
सुनकर अल्फाज के बाद
संवेदनाएं जगा कर
मिलना नए अंदाज के बाद। ।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह। प्रयागराज
बिक रही संवेदनाएं लोभ के बाजार में।
कट रहे रिश्तों के धागे बेखुदी की धार में।
स्वार्थ के इस मंजर में कौन किसको चाहता।

खोद रहे अपना जड़ नफरत के औजार से।

हो गया मानव अब जानवरों से भी बदतर।
पी रहा इक दूजे हाथों से खुद ही जहर।
गुमनाम सी जिंदगी कौन किसे पहचानता।
सब समझते छाने वो ही चू रहा जिसका घर।

बीच सड़क पर जिंदगी संग खेलते हम ही।
और तस्वीरों को देख लेते मजा हम ही।
बहता खूं का कतरा या होती इज्जत तार तार है।
सर घुमाकर आँख मींच कर चल देते हम ही।


स्वरचित
बरनवाल मनोज
धनबाद, झारखंड
II संवेदना IIनमन भावों के मोती....

विधा:: काव्या


एक अदना सा पत्थर रास्ते में पड़ा हुआ....
ठोकरों से इधर लुढ़का कभी उधर लुढ़का...
जानवर हो या इंसान...
सब के पाँव तले दबला कुचला गया....
मल से कभी किसी की गाली से वो धुलता रहा...
निदा पत्थरों की बन गयी.... “निदा” की निदा*...
जब उसने अपनी कलम से लिखा...
**“पत्थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं....
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजा कर देखो"**...
एक दिन एक मस्त निगाह ने इसको छू लिया...
कोमल मखमली स्पर्श ने इसको सहला दिया...
अपने साथ ले गया वो इसको उठा के….
दिन बदल गए उस पत्थर के नाज़ुक स्पर्श पा के....
रोज़ रोज़ के अहसास से उस में भाव जागे...
कभी इधर तो कभी उधर मटकने लगा....
बहुत रोका उसको पर वो न रुका...
पत्थर तो आखिर पत्थर है...
कितना रोको तुमको कुछ फर्क नहीं पड़ता...
यह कहके एक दिन उन्हीं हाथों ने उसको फेंक दिया....
वो रास्ते में पड़ा हुआ किस्मत को देखता है....
कल था यहाँ पड़ा आज भी वहीँ है....
लगती थी ठोकर जो पहले...वो आज भी सही है....
फर्क मगर यह की अब दर्द महसूस होता है....
पत्थर को तराशने में..अपने हाथ भी छिलेंगे ...
यह सब जानते हैं...फिर भी...
पत्थर तो आखिर पत्थर है...
उस शायर का कलाम गुम सा हो गया...
“चन्दर” फिर से...बेजान पत्थर हो गया...
संवेदनहीन हो गया...!!

II सी.एम्.शर्मा - स्वरचित II
०५.०३.२०२०

"निदा" - मशहूर शाइर जनाब निदा फ़ाज़ली साहिब
*निदा - बुलाना /आवाज़
**जनाब निदा फ़ाज़ली साहिब की ग़ज़ल से एक शेर
संवेदना
आज धरती से संवेदनाएं समाप्त होती जा रही है.
अब कोई किसी के लिए रोता, तड़पता नहीं है.

जिंदगी इतनी व्यस्त हो चुकी है कि हम दूसरों की परवाह करना भूल गए हैं.
हम यह नहीं सोचते हैं कि गर दूसरे भी परवाह करना भूले तो क्या होगा?
जो फसल हम बोतें जा रहे हैं वहीं तो एक दिन हमें काटना होगा.
हम किसी का दु:ख नहीं बाँट पा रहे तो कोई हमारा दु:ख कैसे बाँटेगा.
इसलिए आइये आज ये संकल्प लें कि आज से हम दु:ख बाँटने का वीड़ा उठाये.
तभी इस धरती पर प्रेम, सद्भावना, भाईचारा, अपनत्व, ममता, क्षमा जैसे सद्गुण अक्ष्क्षुण रह पायेंगे.
त्याग, सेवा, परोपकार, सहयोग, दया, स्नेह का दीप जलता रहेगा.
हमारी संवेदनाओं को संबल प्राप्त होता रहेगा,
मानवता जिन्दा रह पायेगी, उसकी बेल फलती फूलती रहेगी.
धरती का जीवन अंधकारमय होने से बच जाएगा.
इसलिए संवेदनाओं को बचा कर रखना है.
प्यार और सद्व्यवहार के लिए.
मानवता को बचाने के लिए.
धरती को स्वर्ग बनाने के लिए.
ईश्वर के अस्तित्व को बताने के लिए.
संवेदनाओं को बचाना जरूरी है.

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ
डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन
उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली, सिवान, बिहार 841239

5/3/20
संवेदना

कहाँ दिखाई देती हैं संवेदनाएँ
अब नहीं किसी के मन में बचा दर्द.. कोई
कांक्रीट की दीवारें और पक्के चमचमाते फर्श.... बस इन्हीं के नीचें.... दब गईं कहीं....
अब दर्द नहीं होता... देख किसी का दर्द...
अब कोई नहीं चाहता.... बाँटना
किसी के आँसू...
किसी के पास नहीं बची कोई.... इच्छा की वो बाँट ले बुरा वक्त किसी का...
गुम सा है हर कोई एक अपनी बनाई सोच के कैद खाने में....
जिसके अंदर वो बंद है अपने ही
बिचारों के जाले में....
बुनता रहता है सोच के धागे से एक ऐसा मकड़जाल...
नहीं निकल पाता उसमें से.... वो चाहे अनचाहे...
छटपटाता है अपने ही... बनाये कुछ जटिल समीकरणों के बीच...
जिसमें चीख कर... सर पटक कर तोड़ देती हैं संवेदनाएँ अपना अस्तित्व.....
मरी मुरझाई सी वो संवेदना... नहीं जीवित रह पाती....
इस जटिल सी दुनिया के बीच...
स्वार्थ की दुनिया में हो बेजार वो...
छोड़ देता है दया माया और इंसान का मूल स्वरुप...
इंसानों की दुनिया में इंसान ही नहीं मिलते....
जिनको कहते हैं हम इंसान... उनमें इंसानियत नहीं मिलती....
सच यही आज का.... संवेदना अब इंसान में नहीं मिलती
पूजा नबीरा काटोल नागपुर

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