Friday, March 13

" मनपसंद विषय लेखन"13मार्च 2020

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ब्लॉग संख्या :-683
13 /3 /2020
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

आज हमने गलियों को फूलों से सजाया है
और उनको बुलाया है
द्वार खड़ी देख रही वो जरूर आएंगे
दिल के भावों से मोतिन थाल सजाया है
पूरी होंगी मन की आशा आज उनके आ जाने से
अधूरी रही कामनाओं का दीपक जलाया है
जैसे ही वो आएंगे स्वागत गीत गाऊंगी
एक पवन का झोंका संदेशा लेकर आया है
व्यथित हृदय की गाथा मैं सुनाऊंगी
जमाने ने कितना मुझे सताया है
तन्हाइयों के संग बहुत मैंने जी लिया
उनका साथ मुझको नया सबेरा लाया है
पकड़ूं जो चरण फिर कभी न छोड़़ूंगी
तुम्हें प्रभु मैंने बड़ी मुश्किलों से पाया है
मिले जो नटनागर जमाना मैंने छोड़ दिया
तेरे ही लिए मन का सरगम गुनगुनाया है
तेरा मिले सहारा और मुझे क्या करना
चरणों में तुम्हारे मैंने शीश ए झुकाया है
स्वरचित,, सुषमा,, ब्यौहार

विषय मन पसन्द लेखन
विधा काव्य

13 मार्च 2020,शुक्रवार

उठो बढ़ो है युवा वाहिनी
जीवन में हुंकार भरो तुम।
असंभव को संभव करदो
पर पीड़ा हरण करो तुम।

बल पौरुष है तेरे कंधों में
कर्मवीर तुम आगे बढ़ लो।
अमङ्गल को मङ्गल करदो
सुख शांति जीवन में भरदो।

जल थल नभ शौर मचाओ
महान क्रांति जग में लाओ।
नित विकास पुनर्जगत का
बलवीर तुम मशाल उठाओ।

जीवन को बर्बाद न होने दो
करो काम तुम ऐसा जग में।
विश्व कुटुंब का भाव जाग्रत
निर्मल स्नेह सदा रहे तन में।

सोचो समझो चरण बढाओ
माँ वसुधा को सभी सजाओ।
पेड़ लगाओ फूल खिलाओ
पर्यावरण को स्वच्छ बनाओ।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
विषय - स्वतंत्र लेखन

😋!! टारगेट ही टारगेट!!😜

पोस्ट पोंडिंग हैं कई काम
हो रही है सुवह से शाम!!
लगे कहीं बुला न लेंयँ
बीच में ही प्रभु श्री राम!!

करले तूँ भी कुछ विश्राम
भजले तूँ राम का नाम!!
बंदर कहे बंदरिया से
वो जूं हेरे लेवे घाम!!

बंदर ज्ञानी ध्यानी है
धूनी उसको रूमानी है!!
बंदरी कहाँ सुने उसकी
बंदरी बड़ी सयानी है!!

बेशक आँख से कानी है
पर नानी की भी नानी है!!
देवरानी को पटक के मारा
नजर में अब जेठानी है!!

टारगेट ही टारगेट हैं
बेशक आज भरे पेट हैं!!
बंदरी बना 'शिवम' ज़माना
जहाँ देखो तहाँ हेट है!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 13/03/2020


विषय -- स्वतंत्र लेखन
द्वितीय प्रस्तुति


🙏🌹संध्या वंदन 🌹🙏

चलो संध्या वंदन करते हैं
कुछ ज्ञान पटल पर धरते हैं!!

कुछ रोटी से कुछ बोटी से
हम ज्ञान से पेट भरते हैं!!

ज्ञान पिपासु बन गए हैं हम
ज्ञान की महिमा रखते हैं!!

कोई सुने या न सुने हम
रूह की सदा सुनते हैं!!

दुनिया की सुनते थे पहले
अब दुनिया की न गुनते हैं!!

कोई जाय मयखाने शाम
हम मन मंदिर में रमते हैं!!

दो पल आँखें मूंद कर के
उस परम ज्योत में थमते हैं!!

दुनिया की तर्कों कि थख्ती
में सदा तर्क कुछ मिलते हैं!!

खिले हुए चेहरे मुरझाय
ये तर्क बड़े ही खलते हैं!!

माँ के चरणों में रोया
अब माँ के गले लगते हैं!!

करूणामयि माँ ममता के
'शिवम' दीप अब जलते हैं!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 13/03/2020

विधा - ग़ज़ल
विषय - शारदे मां आराधना

दिलों में जोत भक्ति की जलादे शारदे माता ।
हरिक रूह को तू अब पावन बनादे शारदे माता ।

पनपती है जहां नफ़रत व लगती आग दहशत की,
वहां इंसान को उल्फत सिखादे शारदे माता ।

तेरी आराधना करता रहूं यह वर तू मुझको दे,
मेरे ह्रदय में तू श्रदा बसादे शारदे माता ।

ऐ मेरी हंसवाहिनी मां सुरों की है सुखद देवी,
मेरी अब रूह में तू वीणा सजादे शारदे माता ।

हुआ कण कण में तेरा वास होती हर जगह पूजा,
असुर अंधकार के जग से मिटादे शारदे माता ।

करो अब दूर अनपड़ता पड़े हर कौम का बच्चा,
जहां पर ज्ञान की गंगा बहादे शारदे माता ।


आर बी सोहल
गुरदासपुर पंजाब
मनपसंद लेखन।स्वरचित।
विषय-चेहरे।

दमकते चेहरे पर
गोल-गोल बिन्दी,
मस्तक के बीचों-बीच
लाल सुर्ख सिन्दूर,
भारतीय नारी का
परम्परागत रूप।
चेहरे में ही दिखते कितने
अद्वितीय रूप अनेक।
द्रोपदी सा तेज!
सावित्री-सी सुहागन!
देवी अनुसुइया सा सतीत्व
लक्ष्मी जी सी श्री कान्ति!
सरस्वती सा निर्मल ओज
मां दुर्गा सा अलौकिक स्वरूप!
सीता सा अद्भुत पावन सौंदर्य!
देखा है दुनियां में
ऐसा कहीं और???

प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
13/3/2020
विषय-मन पसंद, स्वतंत्र लेखन


तंद्रा जाल घिरा था मन पर

बुला रही थी सपने आ तू
पलकों के पलने खाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

अंधकार ने फेंका पासा
जैसे आभा पर परदा है
अंतर में थी घोर निराशा
हृदय आलोक भी मंदा है
ऐसे मेघ घिरे थे काले
खंडित वृक्ष की डाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

काँच के जैसे बिखरे सपने
किरचिंया चुभती है तीखी
करवट बदली हर पहलू में
पीड़ा चुभती एक सरीखी
महत्वकांक्षा के घोड़े पर
उजड़े उपवन का माली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

सहसा एक उजाला अंदर
सारे ताले ही तोड़ गया
चलो उठो का रव ये गूंजा
विश्वास झरोखे खोल गया
जागो समझो तभी सवेरा
अँधकार भगाने वाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।
विषय-- स्वतंत्र लेखन
__________________
कोरोना कहता है सबसे,
दूर से करो नमस्कार।
काहे भूले तुम अपने,
पुरखों के दिए संस्कार।

शाकाहारी पदार्थों का,
खूब तुम सेवन करो।
मांसाहार से रखो दूरी,
दूध-दही सेवन करो।
हाथ जोड़ स्वागत करो,
गले लगाना है बेकार।
कोरोना कहता है सबसे,
दूर से करो नमस्कार।

काहे भूले तुम अपने,
पुरखों के दिए संस्कार।
कोरोना कहता है सबसे,
दूर से करो नमस्कार।

बाहर से जब घर आना,
हाथ साफ ज़रूर धोना।
स्वच्छता से खाना-पीना,
स्वच्छता समीप रखना।
खूब जलाओ धूप-दीप,
कर्पूर का धुआँ घर द्वार।
कोरोना कहता है सबसे,
दूर से करो नमस्कार।

काहे भूले तुम अपने
पुरखों के दिए संस्कार
कोरोना कहता है सबसे
दूर से करो नमस्कार।।
***अनुराधा चौहान ***स्वरचित 
 एक तरफ कारोना वायरस
दूजी तरफ दंगे,
जगह-जगह हो रहे

मज़हबी नंगे
क्यूं बनारस वाले गा रहे
हर-हर गंगे।

तालिबान से हाथ मिलाता
शुरु खेल अमेरिका में
समझनें वाले समझ जाएं
न रहें किसी खुशफहमी में,
देश खड़ा चौराहे पे
हम हिंदू-मुस्लिम रो रहे
दुश्मन जैसा चाह रहा
खेल वही तो हो रहे,
साजिशें हैं दूर तक
मत लो आपस में पंगे,
क्यूं बनारस वाले गा रहे
हर-हर गंगे।

आग तुम्हारे सर पे है
सांप तुम्हारे घर में है,
चारों ओर दुश्मन का जाल
हम दंगों के दलदल में हैं,
भारत मां के रखवाले
भारत का अंग काट रहे
देखो अपनें अगल-बगल
कितने दुश्मन झांक रहे,
ख्वाब कश्मीर का पाल रहे
पड़ौस वाले भिखमंगे
क्यूं बनारस वाले गा रहे
हर-हर गंगे।

श्रीलाल जोशी'श्री'
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
मुक्त विषय
नीर*
उमड़ रहे कुछ बादल कारे।
नील-निलय निश्छल कजरारे॥
धरे उर-उदधि में कवन पीर।
सखे, क्यों कलकल बहता नीर?

विरह-विपद लतिका लिपटी है।
धौंकनी धमक साँसे कपटी है॥
उद्वेलित निरत करत समीर ।
सखे, क्यों कलकल बहता नीर?

सागर सरक सुदूर किनारा ।
विकल तरल पल-पल है धारा ॥
हिवड़ा! धरे तनिक नहीं धीर॥
सखे, क्यों कलकल बहता नीर?

सरि, सागर की अभिलाषी है ।
भरे नीर भी वो प्यासी है॥
तृष्णा है, तो तृप्ति भी नीर।
सखे, क्यों कलकल बहता नीर?
-©नवल किशोर सिंह

विषय- मनपसंद

कोरोना

कोरोना के खौफ से,सजग हो रहे लोग।
करो नमस्ते दूर से,घातक है ये रोग
घातक है ये रोग,खतरा जान का भारी।
भोज मांस का छोड़, बनो तुम शाकाहारी।
नहीं करोगे ध्यान ,पड़ेगा निश्चित रोना।
जब ऊपर का टिकट,कटा देगा कोरोना।

दंगा
थाली में जो खा रहे,करते उसमे छेद।
फूँक रहे निज सदन को,शर्मनाक है खेद।
शर्मनाक है खेद,मरा आँखों का पानी।
खुला कत्लेआम,जंग की छिड़ी कहानी।
शरण मिलेगी यहीं ,क्यों गफ़लत में खाली।
मिली साँस है यहीं,मिली खाने की थाली।

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
हमारी हसरते भी थी कि हम भी, फूल से खिलते।
मगर ताजिन्दगी काँटो मे ही ,उलझे रहे हरदम।
**
हम अपनी चाहतों के लाश को काँधे पे लेकर के।
गुजारी जिन्दगी को शेर ने, हँसते रहे हरदम॥
**
जो भी मिला इस जिन्दगी में, मुझसे आकर के।
उसी से प्यार की चाहत में हम अटके रहे हरदम॥
**
कई रातें गुजारी नींद बिन, तारों की पहलू में।
यही सोचा की शायद आ मिले मुझसे मेरे हमदम॥
**
खनक चाँदी के सिक्कों की नही अब, कागजी है पर।
मगर मन शेर का कागज में ही, उलझा रहा हरदम॥
**
क्या लाया था जो तेरा है, क्या तेरा है जो खो देगा।
यही पर ही मिला है सब यही के सब रहे हरदम॥
**
खुदा के बिन इशारें के यदि पत्ता नही हिलता।
तो फिर हर एक मिसरे पे,वे क्यो घायल रहे हरदम॥
**
मै आधी रात को दो गजल, मसरा लिख रहा हूँ क्यो।
उजालों में मै दिल के जख्म को, ढाके रहा हरदम॥
**

शेर सिंह सर्राफ

शीर्षक .. गौरैया
*************

मेरे घर के आँगन महुआ का इक पेड।
मिट्टी की सोनी महक खेतों का वो मेढ॥

आँगन मे थी खिडकियाँ छोटे रौशनदान।
गौरैयों से भरा हुआ था मेरा वह मकान॥

चीं चीं करती रात दिन घर हो जैसे बाँग।
दाना दुनका चुनती गाती सुमधुर राग॥

कभी कभी कोई गौरैया पास मेरे आ जाती थी।
मेरे हाथों पे ही बैठ चावल का दाना खाती थी॥

गाँव छोड दी शहरों मे अब ना मिलती गौरैया।
जाने कैसे कहाँ खो गयी प्यारी सब गौरैया॥

माँ कहती थी वो गौरैया इन्सानों की साथी थी।
दाना दुनका खाती थी दीया हम वो बाती थी॥

सालों बाद गया पुरखों के गाँव के जब घर में।
ना थे हम ना थी गौरैया खाली घर आँगन॥

शेर ने जब घर छोडा तो गौरैया भी घर छोड गयी।
उसका प्यारा सा घोसला आंगन ही वो छोड गयी॥

ना वो दिन है ना वो रातें ना गौरैया प्यारी।
पर लिख दी मन की बातें जो थी कभी हमारी॥

शेर सिंह सर्राफ
दिनांक, १३,३,२०२०
दिन, शुक्रवार
विषय, मतलब की यारी

मतलब की यारी बढ़ी,बदल गये सब ढंग।
यार हुए हैं मतलबी ,पल- पल बदलें रंग ।।
पल पल बदलें रंग, अजब फैली बीमारी।
रहता जब है काम ,बनें तब ये हितकारी।।
कृष्ण सुदामा प्रीत, नहीं पहचानें अब सब ।
करते हैं तब बात, साधना हो जब मतलब ।।

होना मत हैरान तुम, रखना आँखे खोल।
जान रहे हैं सब यहाँ, रहे ढ़ोल में पोल ।।
रहे ढ़ोल में पोल , मधुर आवाजें करता।
दुख में रह खामोश, खुशी में हामी भरता।।
करना नहीं यकीन, पड़ेगा इक दिन रोना ।
मतलब का संसार, नहीं ये अपना होना।।

स्वरचित, मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश.
तिथी_13_3_2020
वार_शुक्रवार
विषय _मनपसंद लेखन

उम्र ने तलाशी ली
एक दिन
कुछ लम्हे मिले
मन की जब से
कुछ गम के थे
अपनो से बिछड़ने के
कुछ नम से थे
जो याद दिलाते थे
गुज़रे वक़्त की
कुछ पल टूटे हुए से थे
जो अपनी कमज़ोरी
और अपनों के उपहास से टूटे थे
कुछ पल बिल्कुल
सही सलामत निकले
जो कभी लौट कर नही आ सकते
ये पल मेरे बचपन के थे

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
दिवस - शुक्रवार
विषय - मनपसंद

स्वप्नाकाश

हरा भरा है मन का आँगन,
खुशियों की बौछार है।
हृदय धरा पर नेह की,
शबनमी सी फुहार है।

प्रीत की बिछी चाँदनी,
स्वप्न कली से सेज सजी।
प्रस्फुटन उमंगों का है,
जिया ने सुखचैन तजी।

बैठ हिंडोला मन उड़ा,
अनंत स्वप्नाकाश में।
अंतर प्रकाशित होता
अब प्रीत प्रकाश में।

मधु यामिनी मन के आँगन,
छिटका देती स्वप्निल तारा।
उर निलय के प्रेम पुंज में,
डूबता होकर मन मतवारा।

डॉ उषा किरण

13/03/20
छन्द मुक्त
****

दर्पण को आईना दिखाने का प्रयास किया है

दर्पण
*********
दर्पण, तू लोगों को
आईना दिखाता है
बड़ा अभिमान है तुम्हें
अपने पर ,कि
तू सच दिखाता है।
आज तुम्हे दर्पण,
दर्पण दिखाते हैं!
क्या अस्तित्व तुम्हारा टूट
बिखर नहीं जाएगा
जब तू उजाले का संग
नहीं पाएगा
माना तू माध्यम आत्मदर्शन का
पर आत्मबोध तू कैसे करा पाएगा
बिंब जो दिखाता है
वह आभासी और पीछे बनाता है
दायें को बायें
करना तेरी फितरत है
और फिर तू इतराता है
कि तू सच बताता है ।
माना तुम हमारे बड़े काम के ,
समतल हो या वक्र लिए
पर प्रकाश पुंज के बिना
तेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
दर्पण को दर्पण दिखलाना
मन्तव्य नहीं,
लक्ष्य है
आत्मशक्ति के प्रकाशपुंज
से गंतव्य तक जाना ।

अनिता सुधीर
विषय : मनपसंद लेखन
विधा : कविता
तिथि : 13.3.2020

समझो जो ज़रूरी, तो कर दो मंशा पूरी
कमाओ गे स्वाब , यदि छोड़ो न अधूरी।

तकरार की बात नहीं, दे भी दो न मंज़ूरी
लुटें गे नहीं खज़ाने , ऐसी क्या मजबूरी?

बिताएं कुछ पल साथ, हां शाम है सिंदूरी
मंद मंद शीतल पवन, बनाए सांझ धतूरी।

भोगा जो विरह, आ सजन कर लें वसूली
प्यार के सपनों से,फूट रही सुगंध कस्तूरी।

समझो जो ज़रूरी, तो कर दो मंशा पूरी
कमाओ गे स्वाब , यदि छोड़ो न अधूरी।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
शुक्रवार
मनपसंद विषय लेखन
विधा -ग़ज़ल

चेहरे

हैं एक चेहरे पे लाखों चेहरे
हसीन से बेनक़ाब चेहरे।।

छुपे थे चिलमन की ओट में जो
हुए सभी बेनक़ाब चेहरे।।

हमीं से मिल कर हमीं को छलते
मेरे ही थे बेहिसाब चेहरे।।

कभी तो ग़ैरों का रूप लेते
कभी हमारे रुआब चेहरे।।

कभी शिला से हैं ठोस जड़ से
हैं मोम जैसे ये आब चेहरे।।

हरेक चेहरे पे दूसरा है
न जाने कितने ख़राब चेहरे।।

मेरे तरद्दुद,मेरे मसले
मुझे मिले हैं जवाब चेहरे।।

है दिख रहा जो,कुछ और ही है
हैं डाल रखे नक़ाब चेहरे।।

‘उदार’ इन पर न रीझ जाना
बड़े हैं शातिर जनाब चेहरे।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘

भावों के मोती
दिनांक-13/ 2 /2020
दिवस-शुक्रवार
आज का आयोजन- मनपसंद विषय लेखन एवं ऑडियो वीडियो प्रस्तुति।
विधा- कविता
शीर्षक- खुशियों की तलाश में।

खुशियों की तलाश में
राह कांटों की चलना होगा
तप कर सोने की तरह
निखरना होगा।
देखे हैं जो तुमने ख्वाब सुनहरे
सच उनको करना होगा
दिन हो चाहे रात
आंधी हो या तूफान
तुमको निरंतर चलना होगा। निकलोगे जब तुम घर से बाहर खुशियों की तलाश में
यह दुनिया तुमको बहुत कुछ सुनाएगी
इतना की आंखें तुम्हारी नम हो जाएंगी
पर अश्रुधारा तुमको नहीं बहाना होगा
मंजिल की ओर कदम बढ़ाना होगा सफलता जिस दिन तुम्हारे हाथ आएगी
यह दुनिया तेरे कदमों में झुक जाएगी
सुंदर कल वो तुम्हारा होगा
खुशियों पर राज तुम्हारा होगा।

स्वरचित- सुनील कुमार
जिला-बहराइच,उत्तर प्रदेश।
विषय-स्वतंत्र लेखन
दिनांक 13-3-2020




नहीं हुई संतान ,तो दर-दर माथा टिकाया।
बड़ी मिन्नतो बाद,माँ की कोख लाल आया।

यह सुन पूरा घर,खुशी से फूला ना समाया।
कहीं जागरण हुआ,तो कहीं नारियल चढ़ाया।

नो माह दर्द सह,देखो माँ ने बेटे को जाया।
हर दर्द को भूली,बेटे को सीने से लगाया।

मां-बाप का देखो,बुढ़ापे में बचपन आया।
बच्चे के संग खेले कूदे,और उम्र को हराया।

अच्छी शिक्षा मिले,खूब पैसा उन्होंने लगाया।
गहने क्या घर खेतों को भी,गिरवी रखाया।

उदरत ले पैसे,बेटे का ब्याह उन्होंने रचाया।
बहू ने घर आते ही,नासमझ उनको ठहराया।

नहीं पसंद मुझे गांव,कोहराम उसने मचाया।
हंसते खेलते घर को,आते ही नर्क बनाया।

बेटा मजबूर,रिश्तो में तालमेल न कर पाया।
गांव छोड़ कर ,वो बहू को शहर ले आया।

शहर की रंगीनियों में,मां बाप को भूलाया।
उनके उपकार ,वो नादान समझ ना पाया।

कुछ ही दिनों में,माँ बीमारी का खत आया।
बुलाने का बहाना कह,बहु ने उसे जलाया।

बेटे से दूरी सह न पाई,मौत को गले लगाया।
माँ को कंधा देने के लिए,बेटा घर ना आया।

हर घर यही हकीकत,पर सबने इसे छुपाया।
लोग क्या कहेंगे,यही सोच दर्द गले लगाया।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

विषय- स्वैच्छिक
13/03/20
शुक्रवार
गज़ल
रदीफ- हद है

स्वार्थ का अब बढ़ रहा व्यवहार...हद है,
कर रहा कोई नहीं उपकार...हद है।

धर्म और जाति को ले होते हैं दंगे,
एकता होती है शर्मसार... हद है।

हर तरफ ही खेल सियासत का चले,
युवा भी अब कर रहे तक़रार...हद है।

देश हिंसा से आज आहत बहुत है,
दुष्प्रचारों से घिरी सरकार .. हद है।

कैसे उन्नत देश बन पाएगा भारत,
खत्म न होता यह भ्रष्टाचार ...हद है।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
विषय -जिंदगी
13/03/2020
***************
ऐ जिंदगी तू मुझसे और मजाक न कर
तवाह हो गया इतना और तवाह न कर

माना जिन्हें अपना वहीँ अंजान कहते है
इतना भी मुकद्दर मेरा यूँ तारतार न कर

मेरे अरमान सारे अब परेशान करते है
सारे अधूरे ख्वाबो को सरे बाजार न कर

उनकी थी जुस्तजू मैं कोई सौदागर तो नही
इतना रहम कर कोई अब करार न कर

अब उनके दरमिया मेरा रहा कुछ भी नही
मेरे हिस्से के गमो का कोई हिसाब न कर

चलता ही गया हूँ कोई शिकवा नही किया
थी नफरतो सी राहे उनको भी फरार न कर

दूर रहकर ,सुना हूँ किसी की याद आती है
अब करीब आने की जिल्लत हजार न कर
छबिराम यादव छबि
लोटाढ, मेजा,प्रयागराज
13/03/2020

दिनांक १३/३/२०२०
मनपसंद लेखन

शीर्षक-"शिकायत"

हरपल सुखमय हो
यह जरूरी तो नही
रब से शिकायत करें
ये मजबूरी तो नही
आरोह अवरोह तो
आये जीवन में
हरपल सुखमय हो
यह जरूरी तो नही
ये हैं जीवन हमारा
रजत पट तो नही
कनक नही है हमारा लक्ष्य
जीवन में हो सुन्दर कर्म
यही है जीवन का मर्म
आवहन करे अपनी कर्मठता को
जीत मिलेगी, मिलेगा लक्ष्य।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
विषय -मनपसंद
दिनांक 13/03/2020

अभियान गीत

हम करते रहे नवनिर्माण यही संकल्प
हमारा ।
ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें हम ,हर बच्चा यहां
सदाचारी हो ।
द्वेष, दंभ छल मिटे यहां पर ,ना कोई
भ्रष्टाचारी हो।
हम करते रहे नवनिर्माण यही संकल्प
हमारा ।
अनाचार से नाता तोड़े, नैतिक बने
उदार बने ।
सदाचार अपनाएं बच्चे प्रभु के
साझेदार बनें।
हम करते रहे नवनिर्माण यही संकल्प
हमारा।
ज्ञान का प्रकाश फैलाएं ,अज्ञानता को
हम दूर भगाएं ,
हम शिक्षक बने महान यही संकल्प
हमारा।
हम करते रहे नवनिर्माण यही संकल्प
हमारा।।

स्वरचित ,मौलिक रचना
रंजना सिंह प्रयागराज

विषय - मनपसंद लेखन

कोरोना के आने से, मचा हुआ कोहराम।
नहीं कोई इलाज दवा ना, रखिए खुद पे लगाम।
है संक्रमण का रोग बड़ा यह, बन गया महामारी।
जग पुरा परेशान पड़ा है, लोगों में लाचारी।

साफ सदैव हाथों को रखें, पहन के रहें मास्क।
खांसें छींकें बुखार हो तो, फौरन कराएं जांच।
रहें भीड़ से दूर जहाँ तक कर सकते हों कोशिश।
मांसाहारी त्यागें भोजन, लें शाकाहारी डीश।

प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाए, खाएं ऐसा भोजन।
यकृत को मजबूती दें तभी, दूर रहेगा संक्रमण।
बदलें अब स्वभाव मिलन का, छोड़ें हाथ मिलाना।
'अंजान' न हों संस्कृति से अपनी, उत्तम जगत ने माना।


स्वरचित
बरनवाल मनोज 'अंजान'
धनबाद, झारखंड
दिनांक - 13/3/2020
विषय - मनपसंद विषय

शब्दों से होता मान - सम्मान
शब्दों से ही हो जाता अपमान
साधकर अपने शब्दों को बोलें
शब्द होते व्यक्तित्व पहचान ।

शब्दों में सदा सत्य का वास हो
असत्य का ना कदापि आवास हो
मधुरता का अहसास साथ लिए
अभिव्यक्ति प्रिय एवं ख़ास हो ।

हमारे शब्दों में निहित रहे प्रेरणा
जिनसे मनोबल पड़ता उकेरना
हार को भी जीत बनाकर छोड़े
शब्दों में ऐसी हो अभिप्रेरणा ।

शब्दों में कोरी सकारात्मकता हो
दूरी केवल नकारात्मकता से हो
तीर से गहरे अर्थ होते हैं इनके
प्रयोग में केवल वैचारिकता हो ।

शब्द होते हैं बड़े ही ऊर्जावान
शब्दों की महिमा से गुणगान
विवेक के तराजू में तोलकर ही
वाचन-समय सदा रखना ध्यान ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति
आदमी है जो जिए आदमी के लिए।
सोच लीजिए घड़ी दो घड़ी के लिए।

एक मुहब्बत ही नहीं मुसीबत है।
और भी गम है यहां जिन्दगी के लिए।

है अजब शौक करें किससे शिकायत।
आपने जान है ली दिल्लगी के लिए।

उम्र जाएगी गुजर देखते - देखते ।
फुर्सतें ढूंढ न तू बन्दगी के लिए।

शब गुजरने का इन्तज़ार है कैसा।
एक दिया है बहुत रौशनी के लिए।

विपिन सोहल स्वरचित
दिनांक 13/3/2020
विषय * कवि-हंस *

कीमत कितनी तय करोगे
इन मोती चुगते हुए हंसो की
नीर- क्षीर को अलग करे ये
कुल परंपरा यह इन हंसो की

शांत सौम्य स्वभाव सरल
कपट जरा नही इनके मन मे
सकल वसुधा स्वजनवत
गुणगाथा है यह इन हंसो की

न शोर मचाते है काकवत्
होती नही दृष्टि कुटिल कभी
निर्वाहन अपना धर्म सदा
गाथा अद्भुत है इन हंसो की

अपने श्रम से करते तलाश
मोती एक एक अनमोल यहां
उपासक है मां शारद के ये
कांति रजत सी इन हंसो की

विश्व गाता आया है जिसके
वो गीत निर्माता दिव्य महान
युगों युगों तक अनुकरणीय
रचनाधर्मिता है इन हंसों की

.......कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

तिथि -13/3/2020/शुक्रवार
विषय*उन्मुक्त पंछी*,
विधा-काव्य

पिंजरे का पंछी उन्मुक्त गगन चाहता है।
अपनी स्वतंत्रता और अधिकार मांगता है।
चाहे समंदर के ऊपर उठानी भरना,
ये मुक्ताकाश की आजादी चाहता है।

मन के पंछी का कोई ठिकाना नहीं है।
कहां कहां तक उड़ जाऐ बताता नहीं है।
प्राण पखेरू कब उड़ें न जाने जमाना,
कोई कर्तव्य पूरा अब निभाता नहीं है।

सागर में चलते इन जहाजों पर रहूं मैं।
इन स्वछंंद हवाओं की वफ़ा में उडूं मैं।
पिंजरे का दरवाजा जब ये तुमने खोला,
तुम्हारी दुआओं के लिए संग भजन करूं मैं।

भगवान जाने कबतक ये सलामत जीवन।
कौन जाने हमारा कब ढल जाऐ यौवन।
पिंजरे बदल जाऐ‌ कब हमारे तुम्हारे,
आओ करें काम कहीं शुभ मिले नवजीवन।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
जयजय श्रीराम रामजी

*उन्मुक्त पंछी*


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