Sunday, March 15

" दुविधा/कशमकश "14मार्च 2020

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ब्लॉग संख्या :-684

II दुविधा / कश्मकश II नमन भावों के मोती...

विधा: काव्य


सभी रंग फीके पड़ गए...
इक श्याम रंग के आगे....
सभी उड़ाएं अबीर गुलाल....
मोहे श्याम रंग ही भाये....
सभी रंग फीके पड़ गए...
इक श्याम रंग के आगे....

माथा कान्हां सुहाए ऐसा....
केसरिया गया मुरझाये...
देख तिरछी नजरिया कारी...
लाल रंग खड़ा शरमाये....

जब मैं देखूं रंग गुलाबी..
बदरंग नजर वो आये....
गाल लल्ला के चमकें ऐसे...
छटा गुलाबी बिखरी जाए....

रंग कनक को हाथ लगाऊं....
कुण्डल मोहे धमकाएं....
पीताम्बर धारी कृष्णा देख...
कनक रंग राख हो जाए....

रंग आसमानी रिक्त सा लागे..
जब कान्हां नयनों में झाँकूँ...
प्रेम भाव की गहराई ऐसी...
जिसे अम्बर देख ललचाये....

कैसे कहूँ मैं दुविधा अपनी....
हर रंग ही गया कुम्हलाये....
हर रंग रंगा मैं कृष्णा अपना...
पर कोई रंग वो रंग न पाय....

पीड़ा उमड़ी अश्रू बह आये...
व्यथा मेरी ने लल्ला हिलाये...
मधुर मधुर होंठों से कान्हा...
मेरे कर्णों में मुरली सुनाये...

प्रेम रंग रंगा जो मोहे कान्हा....
हर रंग में श्याम नज़र आये....
मन भीतर हर रंग में कान्हा....
मेरी दुविधा देख मुस्कुराये...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१४.०३.२०२०

विषय दुविधा/कशमकश

क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता

जी हाँ,
जब सफ़र शुरू किया था मैंने
तब मैंने बेशक कुछ सोचा न था
अब खो गया लड़खपन मेरा,
सुना है, कभी मेरे भीतर भी एक बचपन था।
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
दोस्त कहते हैं मेरे की एक रास्ता मिल गया है मुझे
और मैं खो गयी हूँ किसी सफ़र में
तो क्या हुआ जो इरादे बदले बदले से लगते हैं।
इस हक़ीक़त को कोई क्यूँ नही मानता कि यार मेरे सारे बिछड़ गये
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
मुस्कुराते चेहरे ने फ़िक्र का चादर ओढ़ लिया
ख़ुशियों ने जैसे मुझसे नाता तोड़ लिया
और बरबस लगता निभाती हूँ चेहरे की मुस्कान को
न जाने खुद से मैंने यह कैसा सौदा कर लिया
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
इस रोज रोज की कशमकश में थक जाती हूं।
मेहनत की आग में जब तप जाती हूँ।
और मेरी अंतरात्मा जब मुझसे करती है सवाल तो जवाब के तौर पर,
आईने के तरफ एक तक निहारूँ न तो खुद से नफ़रत जाती हूं।
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
तन्हाई में अब तो शाम गुज़र जाती हैं।
रात न जाने क्या कयामत ढाती है।
ओर सुबह का सूरज भी देखो न कैसा शरमाया सा रहता है।
स्वर्णा की लेखनी पर इतराया सा रहता है।
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
यह दुनिया मतलब से मतलब रखती है, कंचन
तेरे ज़हन को यह क्यूँ समझ नही आता।

सादर,
लेखिका 
कंचन झारखण्डे🙏
भोपाल मध्यप्रदेश। 

विषय दुविधा, कश्मकश
विधा काव्य

14 मार्च 2020,शनिवार

आती जाती रहती दुविधा
दुविधा तो जीवन की साथी।
संघर्षो का है जीवन मेला
तम ज्योति तो आती जाती।

सोचो समझो कदम बढाओ
कंटक भरी राह जीवन की।
बागवान हम सब जीवन में
सुरक्षा करें जग उपवन की।

दुविधाओं से क्या घबराना
डटे रहो कर्तव्य डगर पर।
मानवजीवन अति अद्भुत है
शंका समाधान पद पद पर।

कश्मकश तो बनी रहती जग
सत्य असत्य आखिर क्या है?
जीवन मंच नहीं खेल तमाशा
मातृभूमि मिलता नहीं क्या है?

महल बनावें हम सपनों का
सुख शांति भव्य जीवन का।
भ्रातृ भाव स्नेह अवतरित हो
रहे एकता आनंद जीवन का।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक 14 मार्च 2020
विषय कश्मकश


तेरे बिन जीना अकेले,कश्मकश है
सारे पल जीना अकेले,कश्मकश है

दिन के बाद रात, रात के बाद दिन
पल पल रहना अकेले, कश्मकश है

पगला था दिल, इश्क मे पड गया
राह मे खडे है अकेले,कश्मकश है

बातें, यादें, वो प्यारी सी मुलाकातें
याद करता हूं अकेले, कश्मकश है

जिंदगी का सफर कितना बडा है
चलना भी दूर अकेले, कश्मकश है

दूर इतना तुम छोड़कर चल दिए
रह गए पीछे अकेले, कश्मकश है

कुछ ऐसा हो कि लौट आओ तुम
तुम बिन जिंदगी अकेले, कश्मकश है

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

14 /3 /2020
बिषय,, दुविधा,कश्मकश

अजीब दुविधा में देश हमारा
कोरोना महामारी ने पैर पसारा
घर से निकलने में डरने लगे हैं लोग
एक दूसरे से परहेज करने लगे हैं लोग
खतरनाक वायरस दुनिया को चपेट रहा है
भारत को भी लपेट रहा है
कश्मकश में है हर शख्स का मन
कैसै सुरक्षित हो अपना ए जीवन
नौनिहालों का अजीब ही है हाल
हर चेहरे पर है यही सवाल
ईश्वर सबको इस संकट से बचाऐं
जल्दी से जल्दी इसे देश से भगाऐं
सभी स्वस्थ रहें यही है कामना
हे प्रभु स्वीकार करो मेरी ए प्रार्थना
एक तो ए बीमारी और मौसम की मार
शंका कुशंकाओं में मन है सवार
इंद्रदेव की नाराजगी दिख रही है साफ
घनेरे नभों को समेटकर गलतियों को करें माफ
स्वरचित,, सुषमा,, ब्यौहार

दुविधाओं से घिरा है मानव
कैसी महामारी है आई,
पैर पसारे दुनिया भर में
सारी दुनिया है घबराई ।।
आवागमन पे रोक लगी
हाथ मिलाने की है मनाही,
भारतीय संस्कृति की 'नमस्ते '
दुनिया भर में सबको भाई।
जाओ कोरोना वापिस जाओ
अब हमपर मत रोक लगाओ
हम सब मिलकर संग रहे हैं
वसुधैव कुटुंबकम के हम राही।
***
स्मृति श्रीवास्तव स्वरचित
विषय-*दुविधा/कश्मकश*
विधा-काव्य

हमें जीवन में सब मिलेगा।
नहीं कोई कोरा रहेगा।
दुविधा कश्मकश चलते रहें,
सामना सब करना पड़ेगा।

चिंतन मनन करते चलें हम।
कश्मकश से बचते चलें हम।
चलें अगर योजना बनाकर,
दुविधाओं से बचे रहें हम।

लक्ष्य प्राप्ति के साधन बनाऐं।
मनसे इन्हे पालन कराऐं।
डरें नहीं संघर्ष करने से,
दूरी दुविधाओं से बढाऐं।

सोच लें क्या उद्देश्य अपना।
ठान लें अब कैसे पहुंचना।
रखें कहीं कोने में दुविधा,
पहले सही मनसा परखना।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

भावों के मोती
दिनांक14/ 03/2020

दिवस- शनिवार
आज का शीर्षक-दुविधा/ कश्मकश
एक अजनबी-सी लड़की
अक्सर मुझे है मिलती
खामोश लब हैं रहते
आंखों से कुछ है कहती
शायद सवाल आंखें
उसकी यही हैं करती
कौन है तू मेरा
क्या तेरी मैं हूं लगती
एकअजनबी- सी लड़की
अक्सर मुझे है मिलती।
कशमकश में अब तो
रातें मेरी हैं कटती
बेचैन दिल की धड़कन
बस यही है कहती
श्याम है तू उसका
मीरा है वो तेरी।

स्वरचित- सुनील कुमार
जिला-बहराइच, उत्तर प्रदेश।
दिनांक, १ ४,३,२०२०
दिन, शनिवार

विषय, दुविधा, कशमकश,

दुविधाऐं जीवन में बहुत हैं ,
कहना मुश्किल मन का हाल।
तिल तिल जल रहा इंसान है,
पर कह सके न मन की बात।

नये पुराने में क्या ठीक है ,
रहता है सोच सोच बेहाल।
आज कोरोना जैसा वायरस,
बन गया है मानवता काल।

मिलना जुलना सब छोड़कर,
क्या हो जायें घर में कैद लोग।
बताओ होली के त्यौहार में,
कैसे रहेगा कोई अपनों से दूर।

है शाकाहारी पद्धति ही सही,
क्या स्वीकारेंगे इसे हम लोग।
सिद्धांत जो जीव संरक्षण का ,
क्या उसे अपनायेंगे सब लोग।

जो आवरण आधुनिकता का,
विकृत यहाँ, उसे तजेंगे लोग।
या फिर संग्रह करके सार का,
संसार में,खुशहाल बनेंगे लोग।

स्वरचित, मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश 

भावों के मोती।
विषय- दुविधा।
स्वरचित।

दुविधा में जनता है।
कोरोना में समता है।
नहीं करे भेदभाव
धर्म-निर्पेक्षता है।।

आओ खेलो होली सब।
गुलाल,शक करो ना।
यहां प्रेम वायरस।
कोरोना से डरो ना।।

नाक,कान,आंख सब
हरदम धोना हाथ।
ढको खांसते,छींकते,
रूमाल के साथ ।।

ऐसे वैसे कितने ही
वायरस झेल लिये,
भारतीयों का हाजमा
तगड़ा बड़ा देखिए।।

प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
14/03/2020

विषय : दुविधा
विधा : कविता

तिथि : 14.3.2020

जब- जब होती असुविधा
खड़ी हो जाती दुविधा
बोल कर मैं हक मांगूं
या फिर दूं सब्र की परीक्षा?

जब जब आवाज़ उठाओ
जब-जब झंडा लहराओ
तब- तब आता ज़लज़ला
कभी शोर,कभी दिलजला!

अन्याय करना होता पाप
अन्याय सहना दोहरा पाप
पर ज़लज़ले को टालने को
क्या बनूं हवन की समिधा?

जीवन है कठिन परीक्षा
कदम कदम पर दुविधा
असमर्थ हो जाती दीक्षा
यही जीवन की समीक्षा।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित.

विषय-दुविधा/कश्मकश
दिनांक 14/03/2020

घर आ गई
आक्रामक बीमारी
कैसी दुविधा
सावधानी बरतो
कोरोना को भगाओ।

दुविधा बड़ी
भारत के सामने
आतंकवाद
आतंक से निपटे
वायरस भगाये।।

स्वरचित
सीमा आचार्य(म.प्र.)
दिनांक- 14/3/2020
शीर्षक-"दुविधा/कश्मकश"
विधा- छंदमुक्त कविता
********************
दुविधा से निकलना आसान नहीं होता,
ये न होती तो इंसान कभी परेशान न होता |
दुविधा मतलब दो कस्तियों की करो सवारी,
हल न मिलने पर डूबने की करो तैयारी ||

दिल और दिमाग का तालमेल सही रखो,
वरना विपदा भरी जिंदगी का स्वाद चखो |
संयम से दुविधा में काम करना होगा,
हे मानव! यही मूल मंत्र तेरे साथ चलेगा ||

स्वरचित- संगीता कुकरेती

🍊🌲 गीतिका 🌲🍊🍑
**************************
🍀 दुविधा 🍀
मापनी--2122 , 1212 , 22
समांत-- अर , पदांत - पर है
***************************
🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒

जिन्दगी अब नयी डगर पर है ।
जा रही है कहीं सफर पर है ।।

बात ही बात जग भुला बैठे ,
कौन जाने किसी शहर पर है ।

वक्त की चाल से बडी़ दुविधा ,
आज पल की नहीं खबर पर है ।

जो चला है जमीन पर पैदल ,
दर्द उसको नहीं असर पर है ।

जख्म दिल पर लगे कभी ऐसे ,
टीस मन में अभी कहर पर है ।

प्यार की बात यों करें सब ही ,
साथ कोई नहीं बशर पर है ।

आइना देख कर भरा दिल यों ,
लूट भी इस कदर नज़र पर है ।।

🍑🌲🍊🍋🍓🍎

🍑🌿🍎 **... रवीन्द्र वर्मा , आगरा
विषय-दुविधा
दिनांक १४-३-२०२०



यह कैसी दुविधा,आज मेरे दिलो दिमाग छाई।
हकीकत कहूं सबसे,या कहूं सिर्फ बात बनाई।

सब मेरे अपने, यह मैं कभी नहीं बिसरा पाई।
इसीलिए हर कदम बस,मैंने सच्चाई ही बताई।

सच सुनना पसंद नहीं ,झूठ की है वाह वाही।
भरी महफिल,और देखो मैं हुई सबसे ही पराई।

नहीं किया कुछ भी गलत,बस राह नेक बताई।
इसमें भी सबको,बस मेरी ही कमी नजर आई।

दुविधा में फंसो को,बस गैर बुराई नजर आई।
अहम डूबे सब,और सबने अपनी-अपनी गाई।

नेक राह जिसने बताई, उसकी हुई जग हंसाई।
स्वार्थ अंधों को,मैं कभी सही समझा नहीं पाई।

अपना स्वार्थ सिद्ध करने ,सदा दबाव बनाया।
ज्यादा समझदारी बता, उसने ही मुँह की खाई।

कश्मकश सदा रहा,और अंत समय जब आया।
इतने दिन बिसराई,वो सब बातें आज याद आई।



वीणा वैष्णव
कांकरोली

दिनांक १४/३/२०२०
शीर्षक-दुविधा/कश्मकश

कश्मकश जिंदगी के कम नही होते कभी।
संकल्प लें करे चयन, तभी दुविधा दूर होगी कही।
ज्ञानी नही कोई यहां पर
बस नीति रीति से करें काम।

अनुकूल नही हो परिस्थितियां कभी
तो दुविधा में फंस जाते हम
अभिष्ट को पाना है तो
हरपल प्रयास करना होगा

परार्मश लेकर अपने बड़ों का
दुविधा दूर करना होगा
हर पहलू को रख कर ध्यान
एक राह पर आगे बढ़ना होगा
मिल जायेगी मंजिल हमारी।

जितनी जल्दी हो निकले दुविधा से
होगी हमें उतनी सुविधा
दुविधा से निकलने को
करनी होगी कुछ तैयारी।

हर पहलू को सोचे समझे
फिर निर्णय पर करें भरोसा
दुविधा से दूर निकल जाये
और पुरुषार्थ पर करें भरोसा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

तपती दुपहरी में
जलते किसान की
व्यथा लिखूँ?
या
भूख से तड़पते
उस इंसान का
अंतर्नाद लिखूं?

बोलो ना!
मैं क्या लिखूं?

तुम मर चुके हो
क्योंकि
मेल कहाँ है तुम में?
मानव-मानव का।
पस्त हुए इस ठूँठ में
नरता का भाव लिखूं?

बोलो ना!
मैं क्या लिखूं?

आह!
लेखनी झर रही है
संसृति की हालत देख
हाथ भी काँप रहे है
जाने क्यों टूट रहे है?

लिखूं मैं या
धीमे-धीमे लिखूँ
या अपने जीवन में
मरहमपट्टी लिखूँ?

बोलो ना!
मैं क्या लिखूँ?


- परमार प्रकाश
#स्वरचित

विषय- दुविधा/ कश्मकश
जीवन सफर में चलते-चलते
कई बार दो रास्ते आते।
कश्मकश में हम पड़ जाते
चलें आखिर किस रास्ते।
दिल व दिमाग की जंग में
हम कुछ समझ न पाते।
चयन किसका करें हम
इसी चिंता में डूब जाते।
एक गलत निर्णय हमारा
दर्द जीवन भर का बनता।
पछतावे के अलावा
हाथ हमारे कुछ न बचता।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़गपुर

14/3/20
विषय- कश्मकश
" कश्मकश"
ये कैसी कश्मकश है,
जो हृदय में हलचल मचाए,
थामकर आँखों में आँसू,
हम आज मुस्कुराए,
दूर रहकर भी तझसे,
तुम्हे ना भूल पाए,
गमों के बादल में,
हैं यादों के साए,
प्रेम शब्द वो तेरे,
आज मुझे तड़पाए,
तन्हाई इस कदर आई,
अपने हुए पराए।
***
स्वरचित- रेखा रविदत्त
शनिवार
दुविधा/ कश्मकश
कभी कभी दुविधा होती है बात कहने में.
कभी कभी दुविधा होती है बात पूछने में.
कभी कभी दुविधा होती है मिलने में किसी से.
कभी कभी दुविधा होती है जानने में कोई बात.
कभी कभी दुविधा से कई काम बिगड़ जाते हैं.
कभी कभी दुविधा बहुत ही घातक होती है लोगों के लिए.
व्यक्ति को दुविधा दूर करने का सदैव प्रयास करना चाहिए.
तभी अज्ञान का पर्दाफाश होता है, अज्ञानता दूर होगी.
इसलिए व्यक्ति को कश्मकश में नहीं रहना चाहिए.
कश्मकश को तोड़ते हुए दुविधा मिटा देनी चाहिए.
दुविधा को सदैव दूर करने का प्रयास करना चाहिए.

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन
उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली सिवान बिहार

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