Friday, March 20

"ऋण/कर्ज़"19मार्च 2020

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ब्लॉग संख्या :-688
19 /3/ 2030
विषय--कर्ज

जन्म लिया जिस माटी मे
कर्ज उसका चुकाना है
नहीं रहना अबोध हमे
कर्तव्य अपना निभाना है।
अक्षुण कर्ज है गुरुजनों का
सदा सुज्ञान को पाना है
उस ज्ञान का कर प्रसार हमें
विश्व बंधुत्व बढाना है।
मात-पिता का कर्ज अमिट है
सबको यह बताना है
नित्य करें उनकी सेवा हम
यह संस्कार बनाना है।
पल मे लडना-पल में हँसना
प्रेम अनोखा बचपन का
करें सदा बहनों की रक्षा
राखी का कर्ज चुकाना है।
कर्ज हम पर है सदा से
पंचतत्व की सृष्टि का
करें सदा सम्मान इसका
भविष्य सुरक्षित पाना है

रचित------लोकेश 

विषय कर्ज,ऋण
विधा काव्य

19 मार्च 2020,गुरुवार

मात पिता है प्रिय गुरुजन
सद्संस्कार मिले आपसे।
ऋणी आपका है जग सारा
जो कुछ हम, तेरे प्रताप से।

दयानिधि हो करुणा सागर
पञ्च तत्व हैं ,दिए प्रभु तेने।
जग ऋणी परमेश्वर हम सब
नटवर नागर तेरे क्या कहने?

सीना ताने सीमा पर सैनिक
निश दिन करता प्रिय सुरक्षा।
ऋण उऋण कैसे हो सकते?
हिमगिरि ऊपर करे नित रक्षा।

होली खेलता सदा मिट्टी से
खून पसीना निश दिन बहता।
कर्ज तुम्हारा हम पर अनुपम
तू सहता जग कुछ न कहता।

शस्य श्यामला भारत माता
पालन कर्ता सुख जन देता।
जन जन तेरा हिय ऋणी है
क्या तुमसे मानव नहीं लेता।

दया करुणा ममता बरसाती
नारी जग में कभी न हारी।
तू नित फर्ज निभाती अपना
तेरा कर्ज है सब पर भारी।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

विषय-- कर्ज़/ऋण

एक नही हैं दो नही हैं
कर्ज़ हैं इंसा पर हजार ।

फिर भी इंसा बेफिकर है
करवे नही सोच विचार ।

कर्ज़ चुकाना पड़ता है
उऋण होना पड़ता यार ।

मात पिता औ गुरु का ऋण
जाने जग जाने संसार ।

उधार पूँजी लेकर आय
दुनिया में करने व्यापार ।

बेपरवाही डुबाय रही
जमा पुँजी जो रही हमार ।

जाग 'शिवम' तूँ जाग अभी
कर्ज़ जन्मों का उतार ।

कर्ज़ को विसराना भूल
न कर भूल समझ इस बार ।

चौरासी का चक्कर है
नर तन रतन मुक्ति का द्वार ।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 19/03/2030


विषय-- कर्ज़/ऋण
द्वितीय प्रस्तुति


कर्ज़ कुछ उनकी निगहबानी
का काम ऐसा कर गया!
माना बेतहाशा तड़फा
रोया मगर फिर सँवर गया!

मैं तो कुछ भी न होता पर
भावों से ऐसा भर गया!
कोरा कागज था ये दिल
अक़्स उनका वो उतर गया!

गा रहा हूँ गीत नगमें
दिल पर जादू जो चल गया!
अमानत लौटाता उनकी
की कोशिश मैंने घर गया!

मगर खुदा कसम बेरहम
किस्मत का नही असर गया!
हूँ कर्जदार 'शिवम' रहूँगा
बाखुदा नज़र से मर गया!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
दिनांक-19/03/2020
विषय- कर्ज




कर्ज़ गुरु की चरनन में
कैसे मैं उतारू।
हर अक्षर में ओम विचरन करे
ऋण गुरु का कैसे उतारू।।
गुरु की गोद में प्रलय , निर्माण पले
कर आराधना सच्ची राह संवारू।
हर पल शरण ज्ञान सिंधु की
गुरु को अंतर्मन से मैं पुकारूं।।

मौलिक रचना सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
19/3/2020
बिषय, कर्ज,, ऋण

बच्चे माँ बाप का ऋण कभी नहीं चुका पाते
सात जन्मों तक के कर्ज दार हो जाते
जो भी कर लेते अपने मातपिता की सेवा
इसी जन्म में दे देते भगवान उसको मेवा
जननी जनक के चरणों में शीश झुका दिया
सारे जहां में सिर ऊंचा उठा दिया
जो सेवा में तत्पर रहते उन्हें न कोई दुख सताता
धन दौलत माल खजाना उसकी झोली में आ जाता
वुजुर्ग हमारी धरोहर हैं ए साथ न कुछ ले जाते
इन्हें हमारी चिंता रहती कुछ न कुछ हैं देकर जाते
इनका कर्ज चुकाने आई अपनी बारी
तन मन से इनकी सुश्रुत की कर लें तैयारी
स्वरचित सुषमा ब्यौहार

दिनांक-19-3-2020
विषय-ऋण/कर्ज़


असह्य पीड़ा सह कर
माँ ने संतान को जन्म दिया
पिता ने सारी पूंजी
बच्चों के ऊपर लगाई

अथक परिश्रम कर
किसानों ने अन्न उपजाया
तब हमारा पेट भर पाया
हम पर इन सबका कर्ज़ है भाई

जिस हवेली के हम
मालिक कहलाते
जिस पर हम इतना इतराते
वो इमारत कामगारों ने है बनाई

जो सड़क हमें घर तक पहुँचाती
जिस पर गाड़ी चलती इठलाती
लंबी दूरी पल में सिमट जाती
वो भी गरीब मज़दूरों ने है बनाई

हमने ये पूरी ज़िंदगी
उधार में है पाई
अपनी ज़िंदगी तो दूसरों की
अमानत है भाई

सरहद पर वीर सैनिक
सर्दी गर्मी ताप सहते
निशिदिन देश की सेवा करते
उनका भी तो अहसान है भाई

इन सबके प्रति कुछ फ़र्ज़ निभाना
ज़िम्मेदारी समझ सारे ऋण चुकाना
जिस देश के हम वासी कहलाते
उसका भी तो हम पर कर्ज है भाई।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
विषय-कर्ज/ऋण
दिनांक-19-3-2020

विधा --दोहा मुक्तक
1.
न्यून ब्याज पर मिल रहा, कर्ज,मगर है फर्क।
किंतु चुकाते समय में, सम्मुख दिखता नर्क।
बढ़े ब्याज पर ब्याज भी, इसका गणित विशाल।
ऋण लेकर बस घी पिओ, फिजूल है ये तर्क।
2.
अच्छी व भली जिन्दगी,कर्ज बनाय गुलाम।
दुख को हो गर ओढ़ना, चलो कर्ज के गाम ।
जो कुछ अपने पास है, उसका सदउपयोग-
तदअनुकूल जीवन से, मिट सकता कुहराम।

*****स्वरचित *************
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551

दिनांक_१८/३/२०२०
शीर्षक-ऋण/कर्ज


सायली छंद
१)
ऋण
सदा साथ
माता पिता भगवान
रहे कृतज्ञ
भवपार

२)
करें
देश सेवा
ऋण उतारे हम
सच्चे देशभक्त
बने।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

दिनांक , 19,3,2019
दिन , गुरुवार .

विषय , कर्ज, ऋण

कर्ज बुरी होती बीमारी,
इसके आगे दुनियाँ हारी।

एक बार जब ऋण ले डाला,
पड़ा मुसीबत से फिर पाला ।

सूद चुकाना मुश्किल होता,
मूलधन करो कैसे चुकता ।

नींद चैन सब ही उड़ जाता ,
भूख प्यास से टूटे नाता।

जितनी चादर पैर पसारो ,
बात ऋण की मन से निकालो।

बहुत बड़ी हो जो मजबूरी,
मत रखना तुम श्रम से दूरी।

बूँद - बूँद से घट भरता है ,
सपना सच होकर रहता है।

स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
विषय-कर्ज
विधा- दोहा

दिनाँक-19/03/2020

कर्ज बला अति ही बुरी,मिट जाते हैं लोग।
मुक्ति कभी मिलती नही,ऐसा है यह रोग।।

आप कभी भूलें नहीं,मात-पिता का कर्ज।
सेवा उनकी नित करें,समझें अपना फर्ज।।

माटी अपने देश की ,हमको रही पुकार।
इससे तन अपना बना,इसका कर्ज अपार।।

जीवन जिसने है दिया,साँसों का उपहार।
कर्ज धरा का है चढ़ा ,सहे प्रदूषण मार।।

कर्ज की अति बखान कर,गाल बजाना व्यर्थ।
मुक्त प्रदूषण भू करें,तभी सार्थक अर्थ।।

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश

दिनांक 19/03/2020
विषय ऋण/कर्ज़

विधा सायली छंद

ऋण
हमेशा उधार
मात-पिता का
बच्चों पर
नमन

मिलावट
नैतिक पतन
समाज पर कर्ज़
भुगतना होगा
महामारी।।

स्वरचित
सीमा आचार्य(म.प्र.)

भावों के मोती।
विषय-कर्ज/ऋण

स्वरचित।

कर्ज़ है मुझ पर मेरे खुदा का।
जीने को मानव जीवन दिया है।।

कर्ज़ है मुझ पर मेरे बड़ों का।
छोटा समझ के बहुत कुछ दिया है।।

कर्ज है मुझ पर जमीं आसमां का।
रहने को जो हमें बसेरा दिया है।।

कर्ज है मुझ पर चंदा सूरज का।
तपन और नमी का मिश्रण दिया है।।

कर्ज है मुझ पर मेरी मातृभूमि का।
जिसने जनमने का मौका दिया है।।

कर्ज है मुझ पर नदियों झीलों का।
अपने जल से जो सिंचन दिया है।।

कर्ज है मुझ पर पौधों वनस्पतियों का।
खाद्य सामग्रियों का वरदान दिया है।।

कर्ज है मुझ पर इस बहती हवा का।
सांसो को सांसो का पैगाम दिया है।।

कर्ज है मुझ पर हर उस शख्स का।
जिंदगी जीने का मुझको सलीका दिया है।।

****
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
19/03/2020


आज का शीर्षक - #ऋण
विधा-छंद मुक्त

अधूरी कहानी कोई
बिना रंग भरा हुआ चित्र
निरुद्देश्य सा जीवन
उद्गम और लक्ष्य दोनों को
भूलती सरिता मैं सुभागी।

द्वंद और अंतर्द्वंद के बीच फंँसी
निरुपाय असहाय पिता की बेटी
जिसकी सद्यप्रसूता मांँ ने
एक नए जीव को धरती पर लाकर
अपनी चेतना खो दी।

कोई कोहराम नहीं मचा,
कोई उथल-पुथल पुथल नहीं हुई,
जब शाला से लौटकर देखा माँ
का निर्जीव शरीर सोलह सिंगार में।

परिजनों के चेहरे पर नहीं था संताप
कोई बिछोह अथवा अनुताप
सारी लज्जा को त्याग नारियाँ
कर रही थी मृतका के भाग्य से डाह।

नित शाला को जाती थी
बहाना कभी न बनाती थी
किशोरी कन्या के पिता के माथे पर
बल कभी पड़ जाते थे
मैं हंँस कर उन्हें मनाती थी।

देहरी पिता की छूट गयी
रूठी किस्मत और रूठ गयी
सप्तपदी के वचन दिए
संग सत्यवान का मिला मुझे
क्या प्रारब्ध विधाता का।

श्वसुर गृह तो आयी थी।
पर मन न किसी के भायी थी।
कुछ लोक लाज का साया था
स्त्री धन में मिले जोत जगह
के टुकड़े ने मन ललचाया था।

पिता पुत्री के ऋण से उऋण हुए
जीवन बंधन से मुक्त हुए
अनुभूति हुई कोहराम की।
उनसे भी कह न पायी थी
अँसुवन की धार बहाई थी।

इतिहास रटा रटाया था
कुलवधू का धर्म निभाया था
एक पुत्री को था जन्म दिया
मन सत्यवान का डगमगाया था।
नाम सुलक्षणा धारा था।
हर संकट से मुझे उबारा था।

हर विपदा मैंने देखी थी
पथरीली राहें झेलीं थी
पर यह न कभी भी सोचा था
उजड़ेगी अब मांँग मेरी
काल यकायक आया था
फिर कोहराम दिखाया था।

सावित्री से हुआ न प्रतिकार।
तिरोहित हुआ सब सुख सार
शोक विलाप की चीखें थी
अटल काल की सीखें थी
अब जुड़ा भाग्य कोहराम से था
दु:ख प्रतिपल अविराम से था।

शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित

विषय _ कर्ज/ त्रृण
विधा - गीत

मुझे आगे ही बढ़ते जाना है ,
बस भारत माँ का कर्ज चुकाना है।

फसलें- नस्लें जब जलती है धरती पर,
उदास आँखो से माँ देखा करती हैं।

उनकी नस्लें उनकी फसलें हमें बचाना है ।
मुझे भारत माँ का कर्ज चुकाना है। ।
गिर -गिर कर हम संभलते हैं ।
हिम्मत से आगे बढ़ते हैं ।।

कभी चैन नहीं माँ को हरदम आहें भरती हैं।
अपने बच्चों के लिए जागी जागी रहती हैं ।।
बस आगे ही बढ़ते जाना है,
मुझे भारत माँ का कर्ज चुकाना है। ।
स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्ना वर्मा
धनबाद झारखंड


दिनांक 19 मार्च 2020
विषय कर्ज


सपने देखे कितने सारे
नौ महीने मां पेट मे पाले
पालन पोषण प्यार करे
कर्ज मां का कैसे उतारे

हर मौसम मे वो चलता
हम तो सोते है वो जगता
अपने सुख की चाह नही
कर्ज पिता का कैसे उतारे

सुख दुःख मे साथ रहते
अपने मन की बात कहते
भाई बहन सा कौन भला
कर्ज स्नेह का कैसे उतारे

देता अच्छा है ज्ञान सदा
सीखाता आन मान सदा
पथप्रदर्शक और हितैषी
कर्ज गुरू का कैसे उतारे

वो अपने आंचल मे रखती
अन्न जल से पालन करती
सुख चाहे सदा मातृभूमि
कर्ज इसका कैसे उतारे

रहता हर घडी साथ खडा
रहता है वो जिद पर अड़ा
हर स्थिति मे साथ निभाए
कर्ज दोस्ती का कैसे उतारे

अपनी चाह को सदा दबाती
सुख दुःख मे साथ निभाती
प्यार कहो या जीवनसंगिनी
कर्ज प्यार का कैसे उतारे

सीखाता धर्म और परंपराएं
सीखाता क्या हम अपनाए
कार्य सभी मिलकर करता
कर्ज समाज का कैसे उतारे

जिसने दिया जीवन सबको
हुनर दिया अनोखा सबको
रचता जो विधि विधान सब
कर्ज प्रभो का कैसे उतारे

सबसे हिलमिल साथ चले
मन मे प्रेम व विश्वास चले
सबको दे स्नेह व सम्मान
कर्ज कुछ हम ऐसे उतारे

पूरे जीवन हम लेते जाते है
कितना कुछ हम दे पाते हैं
कोशिश हो मानव सेवा की
कर्ज हम सब ऐसे उतारे

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
विषय- ऋण /कर्ज
दिनांक 19/03 /2020


धरती मां तेरे तेरे कर्ज का
मोल कभी न चुका पाएंगे हम ।
तेरी हवा मैं सांस लिए हम,
तेरे अन्न का रसपान किए हम।
मां तेरा मोल न चुका.............।

धरती मां तेरा कर्ज बहुत है।
हम पर तेरा उपकार बहुत है।
तेरी मिट्टी मे पले -बढे हम ,
तेरी मिट्टी का पानी पिए हम।
मां तेरा मोल न चुका..........।

तेरी मिट्टी की सौंधी खुशबू,
दूर क्षितिज तक जाती है ।
अपना फर्ज पूरा करने को ,
पल-पल एहसास कराती है।
मां तेरा मोल न चुका.......... ।

मिट्टी की शान की खातिर,
जान की बाजी लगानी है ।
हमें अपना फर्ज निभाना है ।
मिट्टी का कर्ज चुकाना है ।
मां तेरा मोल न चुका.........।

स्वरचित ,मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
विषय-कर्ज
दिनांक १९-३-२०२०




कर्ज़ किसी का कोई,कभी चुका ना पाया।
बस अपना-अपना,सबने ही फर्ज निभाया।

झूठ कहा सब,मैंने अपना कर्तव्य निभाया।
और इस तरह ही,एहसान तले सब दबाया।

धरती हरा-भरा कर,यूं सबने हिस्सा पाया।
कम दिया ज्यादा लिया,कैसा कर्ज चुकाया।

मात पिता गुरु ऋण, क्या कोई चुका पाया।
लोक लिहाज डर,बस फर्ज समझ निभाया।

ऐसो आराम जिंदगी दे,पिंजरे में कैद बनाया।
अपनों बीच गैर बने ,आदर सम्मान न पाया।

हर कार्य सब, बस दिखावा ही सदा जताया।
गैर नजर अच्छा बना, कहता कर्ज चुकाया।

मात पिता ऋण दबा रह ,और आशीष पा,
भूल कर ना कहना,मैं माँ कर्ज उतार पाया।



वीणा वैष्णव
कांकरोली

आज का शीर्षक- कर्ज/ ऋण
दिनांक-19/ 03/ 2020
दिन- गुरुवार

भूख मिटाने को बच्चों की
खुद भूखी रह जाती है
सुख की नींद सुलाने बच्चों को
खुद कांटों पर रात बिताती है
वो मां है,जो बिना स्वार्थ
अपना फर्ज निभाती है।
अंगुली पकड़कर बच्चों की
चलना मां सिखाती है
भले- बुरे का भेद बता कर
जीवन राह दिखाती है
वो मां है जो बिना स्वार्थ
अपना फर्ज निभाती है।
धूल सने बेटे को भी मां
चंदा- सूरज बतलाती है
लाख खता भले कर ले बेटा
सीने से उसे लगाती है
वो मां है जो बिना स्वार्थ
अपना फर्ज निभाती है।
घिर आते जब दुःख के बादल
सुख की बूंदें बरसाती है
घर-आंगन में सदा
ममता के मोती लुटाती है।
हमें बनाने को लायक
सारा जीवन कष्ट उठाती है
वो मां है जो बिना स्वार्थ
अपना फर्ज निभाती है।
जीते जी मां, कर्ज ममता का चुकाती है
मरते-मरते भी दुआ वो जीने की दे जाती है।

स्वरचित-सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश।

🌹कर्ज/ऋण🌹

चिंत
ा तनाव सँग ले...
जीवन में आता कर्ज..
लील लेता खुशियाँ सारी...
ऐसा विशैला ये मर्ज...
दिन दूना रात चौगुना...
बढ़ता ज्यौं ये कर्क रोग..
झूठी शान दिखाने को..
खुद ही ले आते कुछ लोग..


स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

भावों के मोती
तिथि 19/03/2020

विषय-कर्ज/ऋण

कर्ज/ऋण
********
है हम पर भारी ऋण
माता पिता और परिवार का
हमारा वजूद इनसे ही है
रहें हम सदा ऋणी इनके।

इस देश और समाज का भी
है हम पर कर्ज
इस धरा पर हम पले बढे
करें देश की सेवा हम

कितना भी कुछ कर लें
उतरे ना इनका कर्ज
रहें हम सदा नतमस्तक
उतरे ना इनका ऋण ।

अनिता निधि

19/03/20
विषय-कर्ज


कविता

कर्ज बनके दुनिया मे हुआ दाखिल
हिसाब होंगा क्या क्या किया हासिल।

रातों में नींद लिया मस्ती भी खूब किया
मन भर सब कुछ खाया जो सोचा वही लिया
पढ़ लिख के तू बना समाज के काबिल
अपनो में खूब हँसा रोग से तड़पे तिल तिल
बहुत अहंकार लेके न बार बार मिल और हिल
जाने कैसे दुनिया मे हुआ दाख़िल।

बेचनियां कुछ पाने की और आगे बढ़ जाने की
इश्क में दिल्लगी की ख्वाइश और दिल लगाने की
महक से चहक उठती रंग से दुनिया बनाने की
पूरी करता हर अरमान इंसा दुनिया में आने की
जवानी का रंग उतरेगा बुढाई में होँगी मुश्किल
कर्ज बनके दुनिया में हुआ दाखिल।
उमाकान्त यादव उमंग
मेजारोड प्रयागराज

विषय : कर्ज़
विधा : कविता

तिथि : 19.3.2020

चुकाना कर्ज़
नैतिक फ़र्ज़।

धन का हो, या मन का हो
ममता का हो या मातृभूमि का हो
चुकाया नहीं तो होता दर्ज
कार्मिक लेखा, समझ मर्म।

चुकाना कर्ज़
नैतिक फ़र्ज़।

गुरू का भी होता है कर्ज़
मित्रों से भी निभाओ बिन हर्ज
कर्ज की जकड़न आमरण।
कर्ज से मुक्ति अपनी ही गर्ज़।

चुकाना कर्ज़
नैतिक फ़र्ज़।

कर्मलेखा को ग्रसे कर्ज़-मर्ज़
जन्मों जन्मों का छीने हर्ष
कर्ज़ मुक्ति देवे शांति
सुधर जाए लेखा अर्श।

चुकाना कर्ज़
नैतिक फ़र्ज़।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित

विषय - कर्ज /ऋण

बस निभा कर फर्ज अपना,
सोचते हैं कर्ज चुकाया।
मात-पिता का त्याग भुला,
कर्तव्य उनका था बताया।

पर जरा तू सोच अपने,
बल देकर पेशानी पे।
नौ महिने गर्भ में पाली,
कष्ट सही जो जननी ने।
तब कहीं काबिल हुए हम
इस धरा पर साँस लेकर।

पिता के कांधे पर चढ़ कर
घुमा यह याद होगा।
बोझ था कितना उठाया
वो काँधा क्या याद होगा।
हर ख्वाहिश पूरी हो तेरी
बस यही था ख्याल उनको।
काट कर अपनी जरूरत
दी हर आराम तुझको।

माँ-पिता का कर्ज होता
है बड़ा भारी सुनो।
चुक ना सकता कभी
चाहे जन्म ले लो हजारों।


स्वरचित
बरनवाल मनोज 'अंजान'
धनबाद, झारखंड
विषय ऋण/कर्ज़
दि०- 20-3-2020



ना जाने कितने क़र्ज़ होते एक जान पर|
ता ज़िन्दगी उतारना है हर मुकाम पर|
जब जन्म ही इन्सान का किसी का क़र्ज़ है|
मर केभी अदा होता नहीं वो किसी दाम पर|

माँ के दूध का क़र्ज़ कहीं कोई चुका पाया?
वो पिता की देन का ऋण कोई चुका पाया?
रिश्तों के कर्ज की कोई मियाद नहीं होती|
ये पीढ़ियों से पीढ़ियों में है अन्तरित होती|

बाकी हैं जितने क़र्ज़ उनसे दूर ही रहिये|
हो कोई फ़र्ज अदायगी मत क़र्ज़ लीजिए|
बन क़र्ज़ दार वोअपनी प्रतिष्ठा है गवाता|
ये क़र्ज़ ऐसा बोझ है जो उतार नहीं पाता|

है क़र्ज़ का दस्तूर यूं तो हर सू जहान में|
ई एम आई का है दौर चल रहा जहान में|
पर अपनी औकात में ही जीना सीखिए|
जितना चुका सकें बस उतना क़र्ज लीजिए|



मैं प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी
मौलिक रचना है

विजय श्रीवास्तव
मालवीय रोड
गांधी नगर
बस्ती
उ०प्र०

विषय-कर्ज/ऋण
विधा-क्षणिकाएं

दिनांक--19 /03/2020

कर्ज जिंदगी का
कांधे पे
जनाजे सा
उठाए फिरते हैं
फरेब जमाने के
जिस्मानी जेब में
रखते हैं
उड़ाता है मखौल
हर कोई मेरा
चेहरा हमेशा
आईना सा रखे हैं।
***************
उनकी बेवफाई का
ऋण कुछ इस
तरह उतारा हमने
हर साँँस में
नाम वफा
रखा हमने।

डा.नीलम

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