Monday, March 2

"स्वतंत्र लेखन "1मार्च2020

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ब्लॉग संख्या :-672


विषय मन पसंद लेखन
विधा काव्य

01 मार्च 2020,रविवार

दिव्य प्रिय भारत की भूमि
अतिथि देवो भवः मानती।
सत्यअहिंसा के पथ चलती
इसने देखी कई जन क्रांति।

वसुधैव कुटुंब समझकर
सबको अपने गले लगाती।
पालन करती पुत्र मानकर
विश्व जन निज गले सजाती।

आये यँहा अंग्रेज फ्रांसीसी
आये यँहा हूण डच अरबी।
जो आये सब बने भारतीय
सबको समझा उन्हें करीबी।

पुत्र समझ कर पाला उनको
वे कट्टर बन गए हैं धार्मिक।
गाली बकते भारत माँ को
तब मन बन जाता मार्मिक।

एक पिता की सब सन्ताने
सबका स्वामी एक हमारा।
राजनीति बहकाती सबको
सभी बनो मिल देश सहारा।

भारत अतीत गौरवशाली है
यह बना नित विश्व सहारा।
सारे जग में है अति न्यारा
भारत प्यारा है देश हमारा।

राम रहीम एक समान यह
तुला राशि है इन दोनों की।
मन्दिर मस्जिद सिंह राशि
रक्षा करते निज भक्तों की।

स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
भावों के मोती।
विषय-मनपसंद लेखन।
विधा-काव्य, हास्य-व्यंग्य।
शीर्षक-पर्यावरण।
स्वरचित।

पर्यावरण मनाने को,
या यूं कह लो
दुनिया को दिखाने को,
कुछ लोग एक ,कुछ लोग ज्यादा
पौधे लगाते हैं।नारे उछालते हैं,
फोटुयें खिंचाते हैं,
अखबारों में छपता है।
अगले दिन
सब भूल जाते हैं।

पौधे अनाथ से,
खाद, पानी और स्पर्श के अभाव में
सूखते, मुरझाते हैं
और फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।

कुछ नाजाय़ज औलादों की तरह
(बैसे औलादें नहीं रिश्ते नाजायज होते हैं
,ये मेरा मानना है।)
वक्त के थपेड़ो की मार सह जाते हैं,
मिट्टी से मुठ्ठी भर, अपनी सांसों के लिए
जुगाड़ कर ले जाते हैं,
और इस तरह-
"वृक्ष लगाओ, पर्यावरण बचाओ"।
कार्यक्रम को सफल कर जाते हैं।।

प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"

#समय पर नही जागे#
#अब कहाए अभागे #

लालची मरा है मरता है
मान नही मिला न मिलता है!!
इज्जत से कमाना सीखो
क्यों मुफ्त की चाह करता है!!

हश्र अच्छा न हुआ न होएगा
मुफ्त खाकर स्वाभिमान खोयगा!!
दर्द कुछ एक ऐसा मिलेगा
जो की सदियों तलक रोएगा!!

छोटे छोटे स्वार्थ कितने ठगे हैं
रोग ये सदियों के लगे हैं!!
चाह थी कुर्सी कि दुर्योधन को
मिलकर महाभारत रचे हैं!!

ये कर्म ही हमको खाते हैं
दोष औरों पर लगाते हैं!!
छोटे छोटे लोभ लालच ही
हमें मुसीबत में गिराते हैं!!

अक्ल मिली अक्ल का यूज करो
दिमाग का बल्ब न फ्यूज करो!!
निज अधिकारों को जानो 'शिवम'
भूलकर न इनका मिसयूज करो!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 01/03/2020

🐾 साथ चलें 🐾
समान्त - आयें , पदांत - साथ सभी
🍑🌿🍅 गीतिका 🍅🌿🍑

🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒

दिलों में प्यार का दीपक जलायें ,साथ सभी ।
चलें फिर एक होकर मुस्करायें , साथ सभी ।।

सियासत ने हमें तो बाँट कर नफरत दी है ,
प्रीति से आपसी खाई मिटायें , साथ सभी ।

दिलों के फासलों को अब मिटाना है अच्छा ,
चलो मिल हर्ष की बगिया खिलायें ,साथ सभी ।

नफरतों से गमों की घटा छाई है चहुँ दिश ,
फिजाओं में खुशी के रँग मिलायें ,साथ सभी ।

हमारे पूर्वजों ने है सिखाया अपनापन ,
उन्हीं की सीख को खुद में समायें ,साथ सभी ।

हमेशा स्वार्थ में जी कर बने हैं बेरहमी ,
दुखी के दर्द में खुद को बिठायें , साथ सभी ।

जमाने में नहीं कोई पराया है मितवा ,
गले मिल हर्ष से अपना बनायें , साथ सभी ।।

🍑🌿🍋🍃🍅🍈🌲🍓

🍅🍃🏵** ....... रवीन्द्र वर्मा , आगरा

स्वतंत्र विषय
विद्या --काव्य



"भारत माता धिक्कार रही"

दिल्ली को करके लहू लुहान,आई न तुमको तनिक लाज।
आरोपों की झड़ी लगा कर ,कर दी तुमने सब हदें पार।।

जो नित प्रति दंगा भड़काते हैं, वही शांति मार्च भी करते हैं।
जब पुलिस रोकती है उनको, धरना भी वो ही करते हैं।।

कैसे निर्लज ढीठ हो तुम, कैसे यह नाटक करते हो?
सुनकर विलाप माँ बहनों का, तुम तनिक न आहें भरते हो।।

इस माया नगरी का गिरगिट ,मुम्बई से दिल्ली आता है।
खाकर बिरयानी काफिर की, वह तनिक नहीं शर्माता है।।

वो क्या समझेगा दु:ख उनका, जिसने नहीं बेटा खोया है।
अपने नापाक इरादों से, यह बीज उसी ने बोया है।।

कुछ चैनल वालों के क्या कहने, वो भी हैं रोटी सेक रहे।
इन जलती हुई चिताओं में,वो पुरस्कार हैं ढ़ूंढ रहे।।

शर्मिंदा आज भगत होगा, रुह बिस्मिल की रोई होगी।
असफाक उल्ला और शेखर की, भ्रकुटी फिर से तन गई होगी।।

हम साथ लड़े हम साथ सहे, फंदों को चूमा खुशी खुशी।
क्या मोल चुकाया था हमनें,यह सोच के होते होंगे दु:खी।।

मैं पूछ रहा हूँ आज तुम्हें, यदि तुम्हें सुनाई देता हो।
देखो माँ कैसे बिलख रही, यदि तुम्हें दिखाई देता हो।।

कभी सोचा है तुमने दिल से,क्या क्या हम सबने खोया है।
खाकर बिरयानी मुफ्त की, विष आबो क्षवा में घोला है।।

जिस को मारा है धोखे से, रुह उसकी है तुमसे पूछ रही।
क्या मिली खुशी तुमको इससे, उसकी अबला है पूछ रही।।

सुन लो मेरी यह खरी खरी, , यह सब का सब सुनियोजित था।
जो दंगा फैलाया तुमने, वह सब का सब प्रायोजित था।।

तुमने घातक मंसूबों से, गोला बारूद जुटाया था।
बना निशाना निर्दोषों को,कत्ले आम मचाया था।।

कभी सोचा न होगा तुमने, दुनिया तुमको धिक्कारेगी।
जिसने दी थी कभी शरण तुम्हें, वही लात तुम्हारे मारेगी।।

आज हिमालय को घायल कर, शान दिखाते हो अपनी।
जिस दिल्ली ने पाला तुमको, उसे औकात दिखाते हो अपनी।।

तुम जाहिल हो तुम काफिर हो, तुमने ही नाम डुबाया है।
भारत माता धिक्कार रही,क्यों तुमने दूध लजाया है।।

वह देख हिमालय मौन खड़ा, काफिर की इन करतूतों पर।
यदि उथल पुथल हुई इसमें , नहीं एक बचेगा धरती पर।।
(अशोक राय वत्स)©® स्वरचित
रैनी, मऊ उत्तरप्रदेश
विषय-- स्वतंत्र लेखन
विधा--नवगीत
_________________
भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

ढलते-ढलते साँझ चली जब ,
कहती मन उजियारा करले‌।
उड़ने चला पखेरू बनकर ,
मन को अपने काबू करले।
पंछी उड़ते कलरव करते,
साँझ घनी होने वाली है।
भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

पल-पल बीत रहा है जीवन,
कब अंत घड़ी आ द्वार खड़ी।
जब अपने सपनों से निकले,
तो खुशियाँ आकर पास खड़ी।
कह रही अब समय की धारा,
भोर नयी होने वाली है।
भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।

भावों के अथाह सागर में,
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब तंद्रा टूटी,
लगा रैन होने वाली है।
***अनुराधा चौहान***स्वरचित

विषय--स्वतंत्र लेखन
विधा--नवगीत
_________________
वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।

उथल-पुथल क्यो मन के अंदर,
कोई न कारण जान सके।
उगता हुआ सूरज भी मन में,
कोई उजाला भर न सके।
मुश्किल से मत डरकर भागो,
डर से मिले न कोई छोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

चाह सुख की मन में बसी है,
तन को चाहिए बस आराम।
श्रम के बिना न जीवन सँवरे,
बनता कभी न बिगड़ा काम।
मेहनत का दामन न छोड़ो,
खुशियों की यह पक्की डोर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

वैमनस्य का कारण ढूँढो,
झाँक जरा भीतर की ओर।
उठकर अपनी आँखें खोलो,
देखो आई सुंदर भोर।।

*अनुराधा चौहान*स्वरचित
विषय-स्वतंत्र लेखन

कभी आ के तो मिल ओ जाना!!
इंतजार तेरा है मुझको कबसे??
कैसे घटेगी अपनी दूरी,
पूछ रहा है दिल मेरा तुझसे।

चाँद निकलता है जब रातों में
तेरा चेहरा नजर आता है।
मेरे ख्यालों में तू है हरदम,
अहसास तेरा तड़पाता है।

तेरी यादों के साये में ही,
अब रहना अच्छा लगता है।
बाकी दुनिया सारी झूठी ,
एक साथ तेरा सच्चा लगता है।

तोड़ के सारी रस्मों रिवाजें,
अब तो आकर मुझसे मिल।
सारी दुनिया फीकी बेरंग ,
अब तो तेरे बिन रहना मुश्किल।

भूल गया तू क्या अब वादे?
कभी किये थे तूने मुझसे ।
कैसे घटेगी अपनी दूरी,
पूछ रहा है दिल मेरा तुझसे।

🌷स्वरिचत🌷
🌷आशा शुक्ला🌷
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
1/3/20



तुम्हारी याद आती है हमे बेहद सताती है।
तुम्हारा वस्ल मरहम है कभी मिलने चले आओ।

बिछा कर रखी है पलके अजी तेरी उन राहों पर।
अरे अब इतना न तरसाओ कभी मिलने चले आओ।

तुम्हारे बिन हुआ मुश्किल है जीना मेरे ओ हमदम।
मिले दिल को तो कुछ राहत अरे मिलने चले आओ।

मेरे दिल के दर्द की दवा भी तुम दुआ भी तुम।
कही दम ही न निकल जाए अरे मिलने चले आओ।

तुम्हारी हर अदाओं के अजी तलबगार है हम।
मुरलिया फिर बजा करके अरे मिलने चले आओ।

तुम्हारे विरह की अग्नि हमे बेहद सताती है।
ये तन जलकर खाक न हो जाय कभी मिलने चले आओ।

स्वरचित
मीना तिवारी
स्वपसंद लेखन - छंदमुक्त कविता
(दिल्ली दंगों पर संवेदनाएं)

मरना आसान हो गया

कब्रिस्तान में
उठ कर
कहा उसने
जीने से,
मरना आसान
हो गया

कूचल देते है
इन्सान को
बेजान समझकर
दर्द समझते नहीं
इन्सान का
इसीलिए तो
जीने से,
मरना आसान
हो गया

जीना,
देता है
दर्द, बार बार
रोज रोज
सहने से
मरना आसान
हो गया

निकले थे
मईयत में
ठिकाने लगाने
उसे
जलते जलते
कहा उसने
जीने से,
मरना आसान
हो गया

हर तरफ है
जहर
इन्सान,
इन्सानियत का
दुश्मन हो गया
न है दर्द
मरने मारने पर
ज़माना आज
बेदर्द हो गया
तभी तो
बार बार
कहता है
मुर्दा
कब्रिस्तान में
जीने से
मरना
आसान हो गया

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

दिनांक- 1/03/2020
दिन - रविवार
विषय - मौसम
विधा - चौपाई छन्द

मौसम बड़ा सुहाना आया।
प्रकृति में कितना निखार आया
भोर सांध्य में रूप बदलता
बालक सम ये खूब मचलता।।1।।

शीतल समीर बहे सवेरे।
मध्यान्ह में ताप घनेरे।।
आई निशा बड़ी मतवाली
मौसम की ये अदा निराली।।2।।

माघ माह लगता अति सुंदर।
शोभन मौसम बाहर अंदर।।
फागुन मास बड़ा ही प्यारा।
सम शीत उष्ण लगता न्यारा।।3।।

रवि अब ऊपर चढ़ता जाता।।
बहुरंगी मौसम भरमाता।।
गरम हो गए अब दिवस रात।
जल्द उठे तब बने कुछ बात।।4।।

सदा एक सा न रहता मौसम।
कभी भयंकर तो कभी नरम।।
जीवन का ये पाठ पढ़ाता।
हर हाल में जीना सिखाता।।5।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
01/03/2020
मुक्त विषय


वीर/आल्हा छंद
(16,15, अंत-गुरु,लघु, चार चरण,
क्रमागत दो-दो चरण समतुकांत)

चांडाल देहरी पर चढ़कर,
सबको आज रहा ललकार।
जिसके रग में लहू न खौले,
उसके जीवन को धिक्कार॥
जागो वीरों आँखें खोलों,
माटी तुमसे कहे पुकार।
कलम करो सर बेशर्मो का,
खींच म्यान से चल तलवार ll
राणा के तुम वंशज प्यारे,
भूले नहीं अभी चौहान।
छलनी छाती कर वहशी का
फिर से साध वही विषबाण॥
बोली या गोली वो दागे,
धीर खड़े रह सीना तान।
बस एक करामत तुम कर दो,
कपटी की लो कतर जुबान ll

-©नवल किशोर सिंह
तिथि 1/3/2020/सोमवार
विषय-*मैं स्वार्थी*
विधा-काव्य

जो कुछ देखता हूं मगर मैं,
कहीं वैसा लिखता नहीं हूं।
कहीं लिखता हूं यहां साथी,
उसको कभी पढ़ता नहीं हूं।

ईश से मिली मुझे ‌धरोहर,
लिखता रहूं डरता नहीं हूं।
स्वार्थ में डूबा हुआ मैं,
शत्रु से भी मरता नहीं हूं।

मारेंगे क्यों कभी मुझे ये
जब मैंने ही इन्हें बसाया।
ये बात मानते अलग है,
इन्हें अपना जमीर लुटाया।

रिश्तेदारी हमने निभाई।
इन गद्धारों से की लुटाई।
देश रहे न रहे हम रहेंगे,
हम तो खाते रहें मलाई।

आरज़ू यह करते खुदा से,
विदेशी सभी आबाद रहें।
मरें ‌ कटें ये भारतवासी,
हम स्वार्थी ही आवाद रहें।

एक एक अंग मुझे बेचना।
आसाम बंगाल समेटना।
केरल में भी आग ल‌गी है,
जहां चाहें वहीं सहेजना।

बुद्धिजीवी कैसे बना हूं।
अच्छे जेएनयू में पढा हूं।
मुफ्तखोरी की दाढ़ें लगी,
तबसे ‌ स्वार्थ में सना हूं।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
जयजय श्रीराम रामजी

*मैं स्वार्थी*काव्य
1/3/2020/सोमवार

आज मनपसंद के अंतर्गत मेरी प्रस्तुति

वज़्न -1212 1122 1212 22/112

ग़ज़ल

ख़िरद बता न सकी इंतिक़ाम किसका है,
ये साजिशों से भरा इंतिज़ाम किसका है ।

ये क़त्लो खून क़ज़ा का निज़ाम किसका है,
सवाल अब भी खड़ा है ये काम किसका है ।

भुला के अम्न चले नफरतों की राहों में,
पता नहीं ये सियासी पयाम किसका है ।

बताओ रंग को मज़हब में बाँटने वालों,
ज़मीं पे ख़ूँ जो बहा उस पे नाम किसका है ।

भरत भी भाई है केवट भी भाई है जिसका,
वो शबरी का है जो बेटा वो राम किसका है ।

नज़ीर-ओ-सूर के रसखान के भजन सुनकर,
करोगे फ़ैसला कैसे कि श्याम किसका है ।

किसी को ख़ूब दिया है किसी को कुछ भी नहीं,
ख़ुदा ये तू ही बता इंतिज़ाम किसका है ।

बदल के इस्म वो पढ़ता है जो सरे महफ़िल,
हमें पता है ये उम्दा कलाम किसका है ।

है 'आरज़ू' कि मेरे मुल्क को फ़रोग़ मिले,
फ़साद हो न बहस हो कि गाम किसका है ।

-अंजुमन 'आरज़ू' ©
29/02/2020
________________
अदक़ लफ़्ज़ :-
ख़िरद =बुद्धि, अक़्ल
निज़ाम = व्यवस्था
पयाम =संदेश
इंतिज़ाम =व्यवस्था
इस्म =नाम
फ़रोग़ = उन्नति
गाम =पहला क़दम

1/3 /2020
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

आज बैठे बैठे याद उनकी आ गई
कानों में रह घोलती आवाज उनकी आ गई
मिलने के लिए दिल बेकरार हो गया
बैचैनियां बढ़ गई बेसुमार हो गया
काटे नहीं कट रहे मेरे पल पल
अश्रु धारा में बह रहा आँख का काजल
तन में लगी अगन मन है विह्ववल
बिन उनके कट रही जीवन की फसल
जाने कब दूर होगा उनसे ए फासला
दम निकालता हुआ मन का ए हौसला
जाने कब दर्शन दोगे मोर मुकुट बाले कन्हैया
वंशी के बजैया राधा के सावरिया
जमाने को छोड़ दें तुम्हें न छोड़ूंगी
जग से नाता तोड़ तुमसे ही जोड़ूंगी
स्वरचित, सुषमा, ब्यौहार
01/03/20

लघुकथा
मंच को सादर समर्पित

अपराधी कौन ?

****
शिशिर को परेशान देखकर अजय ने पूछा _क्या बात हो गयी भाई!
यार अखबार पढ़ कर मन खराब हो जाता है।देखो न भ्रष्टाचार में भारत कितने ऊँचे पायदान पर है।
अखबार दिखाते हुए बोला।
अजय...अरे भाई शांत हो जाओ।समाधान तो हम सब को मिल कर निकालना है।
शिशिर .. मेरे बचत पत्र की अवधि पूरी हो गयी है ,वो लेने जाना है, चल यार मेरे साथ ,बातें भी होती रहेंगी।

ये काम आज नही हो सकता ,आप कल आइयेगा
कहते हुए कर्मचारी ने शिशिर की ओर देखा ।

शिशिर ..कुछ चाय पानी के लिये ले लो, पर मेरा काम जरा जल्दी करा दो।

अजय शिशिर को देख रहा था ।

स्वरचित
अनिता सुधीर
रविवारीय आयोजन
विषय : मनपसंद विषय

विधा : हाईकू
तिथि : 1.3.2020

ज़िदगी घुन
अपना तूं खुशियां
उत्तम गुण।

उत्तम चुन
सही सपने बुन
मधुर धुन।

हो रुनझुन
रच संगीत धुन
अंतर सुन।

ज़िदगी लून
भर छेद परून
बचा सकून।

-- रीता ग्रोवर
-- स्वरचित
दिन - रविवार
नमन मंच "भावों के मोती "

विषय मुक्त पर हमारी प्रस्तुति-
विषय- बसंत
विधा - कविता

डोले तन मन
नयन भय चंचल
प्रेम सुधा बरसाए
देखो बंसत लुभाए !!

प्रीत प्रेम का गीत सुनाए
टहनी डाली झुक झुक जाए
बेसुध ज़िया भरमाए
देखो बसंत लुभाए !!

सरसराहट हवाओं की
हुकम चलाए
कलियों पर भौंरा मंडराए
देख गोरी शरमाए
देखो बसंत लुभाए!!

स्वरचित मौलिक रचना
सवरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्ना वर्मा
धनबाद -झारखंड
विषय -स्वतंत्र सृजन
दिनांक 1-3- 2020


माँ ममता की गहराई को,कोई समझ न पाया है।
नो महिने दर्द सहा, और मनु उसने ही जाया है।

सब कुछ किया समर्पित,पर सम्मान ना पाया है।
माँ दिल कितना बड़ा,यह मैने सदा ही बताया है।

रख होठों पर मुस्कुराहट,दर्द को उसने छुपाया है।
ममता आगे मजबूर,किसी को कुछ ना बताया है।

आँख में आया आसुं,कचरे का बहाना बनाया है।
रोते-रोते हंसने लगी,बेटे को जब सामने पाया है।

पर पत्नी के आते ही,क्यूं कोहराम घर मचाया है।
किसका दोष इसमें, अब भी समझ ना आया है।

हर घर हाल यही,संस्कार अभाव नजर आया है।
सास को माँ तो माना, पर सम्मान कहाँ पाया है।

तू भी तो एक औरत,ये बस मैंने याद दिलाया है।
बनेगी तू भी सास,तूने भी तो एक बेटा जाया है।

बच्चों की खुशियों में शामिल,हर गम भूलाया है।
प्रभु नहीं आते धरा,माँ को उन्होंने भिजवाया है।

कहती वीणा माँ ममता,बखान नहीं हो पाया है।
किस्मत वाला जग में वो,जिसने माँ प्रेम पाया है।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
विषय :- "स्वतंत्र लेखन"

धुआँ
 धुआँ शहर है..
सियासी रोटियां सिक रही है..
कौडियों के दाम यहाँ..
इंसानी बोटियाँ बिक रही है..
जल रही हर कारीगरी..
चल रही सियासी दूकानदारी..
शह और मात का है खेल यहाँ..
छद्मवेशियों का है मेल यहाँ..
कुछ मुआवजे तक बंट रहे..
पर निर्दोष ही यहाँ कट रहे..
लील रही नफरत की यह आग..
खेल रहा जैसे फागुन का फाग..
रक्तरंजित है गलियां यहाँ की..
खामोश सारी कुर्सियाँ यहाँ की..
कारुण्य यहाँ चित्कार रहा..
हर जन त्राहि-त्राहि पुकार रहा..
सियासत यहाँ की..
आरोप-प्रत्यारोप कर..
कॉलर उठा घूम रही है..
कराह रही इंसानियत यहाँ..
खो गई मानवता यहाँ..
ये आग कब बुझेगी??
है पहेली जो अब तक..
जाने कब सुलझेगी??

स्वरचित :-"राठौड़ मुकेश"

दिनांक_१/३/२०२०
स्वतंत्र-लेखन

शीर्षक-क्षितिज"

क्षितिज पर भास्कर देख
मन में उठा विश्वास
नक्षत्र अच्छे हो या बुरे
होना नही है परेशान
जिस क्षितिज पर सूरज डूबता
निकलता फिर वही से
सतत चलना ही जीवन है
रूकना नही हमारा काम
रोज सुबह भास्कर की किरणें
जगाये मन विश्वास
घोर निराशा में भी
छोड़े ना विश्वास का साथ।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव
दिनांक, १,३,२०२०
दिन, रविवार

स्वतंत्र लेखन
विषय, माँ
विधा, कुंडलिया

देती जो ममता हमें ,और स्नेह दुलार।
माँ के जैसा कौन है , जाने सब संसार।।
जाने सब संसार, पैर में जन्नत इसकी।
करना माँ से प्यार, दुआ मिल जाये उसकी।।
जीना हो आसान ,खुशी की होती खेती।
माँ को करें सलाम,छाँव आँचल की देती।।

काँटे दुनियाँ दे रही , माता देती फूल ।
मोल नहीं वो चाहती,बात कभी मत भूल।।
बात कभी मत भूल, प्रेम को बाँटा करती।
दुख सह कर के आप,कष्ट बच्चों के हरती।।
सेवा कर हर हाल,उसी ने सुख हैं बाँटे।
माँ का है उपकार , राह से बीने काँटे।।

स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना, मध्यप्रदेश .
दिनांक -१/३/२०२०
विधा - स्वतंत्र
*
**************

#इश्क

इश्क़ था मुझे
दिल की गहराईयों में
मेरी तन्हाइयों में
खामोशियों में
जज़्बातों में
हमेशा सबसे छुपा रखा था।
क्योंकि हजारों बंदिशें थीं
इश्क़ पर
तो इबादत ही सही
शिवालय की घंटियों की
आवाज में सुनती तुम्हें
कभी मंदिर के अगरबत्ती
से उठते धूँएँ में महसूस करती
तुम्हें...
जब चंदन को माथे से लगाती
तो लगता तुमने छुआ है मुझे
हवन सामग्री की रज बन, तुम
अपना लेना मुझे।
अगर मेरा इश्क़ गुनाह था
तो ऐ खुदा..!
माफ करना मुझे
मैंने इश्क़ को ही इबादत
माना है....

तनुजा दत्ता ( स्वरचित)
विषय - कविता का विषय
विधा स्वतंत्र

दिनांक 1 मार्च 2020

तुमने जब
पहली कविता लिखी
सचमुच मन से लिखी होगी
हर शब्द दिल से
खुद ब खुद निकल आया होगा
और बहुत सुकून मिला होगा
तुम जब आगे बढे तो
सिलसिला चला
कविताएं बनती गई
तुम पहचाने जाने लगे
एक नई महफिल मिली
पर यहां कुछ नया था
तुमको नया लिखना था
पर वो दिल का नही
दिमाग का लेखन था
वो कविता तो थी
शब्द थे, भाव भी थे
पर आनंद नही था
दिल से लिखी कविता सा
तुमको वो लिखना था
जो महफिल चुनती
या पसंद करती
अब विषय तुम्हारा नही
वो महफिल का था
सच ही तो है
बाजार में वही टिकता है
जो सबकी पसंद पे खरा हो
क्या ये कविता का बाजार था
या कविता रास्ता भूल गई
नही कविता सही थी
तुम भी सही थे किंचित
महफिल नही थी वो सही
वो बाजार ही था
जिसका तुम हिस्सा बन गए
तुम उसके हिसाब से लिखते
उसके हिसाब से चलते चले गए
तुम कठपुतली से बन गए
क्या करते तो
फिर चले जाते घर
अपनी अकेली दुनिया मे
केवल कविता के साथ रहते
कविता किताबो मे दब जाती
भावनाएं एक एक कर दम तोड जाती
फिर क्या उचित
बाजार सा बन जाना
या अपने मे ही रम जाना
आनंद की कीमत नही होती
वो खरीदा नही जाता
कविता मे आनंद था
मैने वापस कविता को चुना
विषय भी मेरा, कविता भी मेरी

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
"दर्द की दास्तां"पुर-खुलूस थी मन की खोर
इश्क की थी पहली भोर।।
हो रहा था हल्का हल्का
दोनो ओर बराबर शोर।।

इक मंजिल के राही थे
दोनो ज्ञान के ग्राही थे।।
एक मोड़ पर दो राहें
होना मानो तबाही थे।।

वो तो छूटे ही छूटे
किस्मत के भी तार टूटे।।
एक दिल और सौ गम थे
ऐसे भाग्य ये रूठे थे।।

दर्द ही हमको मिलना था
मुरझकर के खिलना था।।
किससे कहें गम की गाथा
खुद ही गम को सिलना था।।

गम को सिलते हम रह गए
वो ख्वाब सारे ढह गए।।
सिसकते अरमां 'शिवम' सब
आँसुओं के संग बह गए।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 01/03/2020
जागो रे जागो
💘💘💘💘

दि
ल भारी हो गया लग गयी बदन में आग
दुष्टों ने बुझा दिये हमारे प्यारे सुन्दर चिराग
सदा से ही जयचन्दों ने लूटा है देश का भाग
उदास हो रहा बहुत रंगों वाला अब कि फाग।

देश की ज़मीन है देश का ही तो है अन्न
फिर इसे ही उजाड़ने में लोग क्यों होते प्रसन्न
सदियों की दासता से अब भी नहीं जाग सके
क्या अब भी चाहते हैं फिर से होना विपन्न।

ऐसे ही ताण्डव होगा शुरु तो बनोगे कैसे विश्व गुरु
और गाण्डीव उठाये बिना नहीं समझेंगे ये कुरु
कितने अंकित शर्माओं को देनी होगी रोज़ बली
क्या अब भी किसी के मन में नहीं उठती है ख़लबली।

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त

एक बाला थी सुंदर सलोनी
थी कोकिल सी उसकी बोली
कोमल उसके कपोल थे न्यारे

ज्यों भोर की उषा से प्यारे।।

हुआ बरस अठारहवाँ आगाज
किया आकर्षक उसका साज़।
नव-नव आभरण पहनाये गए
सम्बन्धी सब बुलाये गए।।

लेकिन आज का ये दृश्य विचित्र
फूट पड़े घर के भित्ति चित्र
विदाई बाला की हो रही थी
आँखे तात की रो रही थी।।

आज बाला ने नया गृह देखा
दिया सास ने घर का लेखा।
पति ने उसको मिलने के बार
दिया मनभावन सुंदर हार।।

किंतु कुछ समय बीतने के बाद
ससुराल हुआ अधम जल्लाद।
एक दिन उससे कहासुनी हुई
पति के सामने खूब रोई।।

पर फर्क पड़ा न चीख से उसके
निकल सकी ना उनसे बचके।
कोमल गात वह मुरझा चुका था।
मृत्यु फाटक पर जा चुका था।

- परमार प्रकाश

दिनाँक-01/03/2020
विषय:-दंगा
िधा-हाइकु(5/7/5)
(1)
दंगों का धुआँ
राजनीति तवे पे
निर्दोष सिका
(2)
दंगा शहर
बिल्ली खाए मलाई
भिड़ा बंदर
(3)
दंगों की रात
खो गया भाईचारा
घृणा के हाथ
(4)
धर्म से नापे
दंगों में जला बस्ती
हाथ न काँपे
(5)
स्वार्थ की ओट
एकता दीवार में
दंगों से चोट
(6)
भाई भी चारा
दंगों ने भुला डाली
भारत माता

स्वरचित
ऋतुराज दवे
विषय-विरह-वेदना
स्वतंत्र -लेखन


विरह-वेदना में जलती मैं ,पल-पल जलता अंतर्मन।
तन-मन शीतल हो प्रिय मेरा,ऐसा तुम कुछ करो जतन।।

साँस हृदय में घुटता है, कभी तूफां वो बन जाता है।
आहों की जब आँधी उठती ,तब गात मेरा थर्राता है।।

नयना बन गए समंदर , मोती भर-भर आते हैं।
गालों पर गिरने को आतुर,वहीं कहीं जम जाते हैं।।

हृदय-वेदना प्रियवर मेरी , खींच रही है मेरे प्राण।
सहरा-सहरा भटक रही मैं, मुझे दिला दो इससे त्राण।।

सरिता गर्ग
स्व-रचित

भावों के मोती
विषय- बेटी

बेटी दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है स्वरचित कविता बेटी
जीवन की कुहू कुहू है बेटी
जीवन की सरगम है बेटी
जीवन का मधुबन है बेटी
जीवन का सावन है बेटी
पायल की छनछन है बेटी
चूड़ी की खनखन है बेटी
जीवन का मान है बेटी जीवन का सम्मान है बेटी
गीता का कर्म है बेटी
बाइबल और कुरान है बेटी
त्रेता की सीता सी बेटी
कलयुग की सानिया सी बेटी
जीवन की सुबह है बेटी
जीवन की शाम है बेटी
जीवन का गुलाल है बेटी
जीवन का श्रंगार है बेटी
जीवन की उजास है बेटी
जीवन की सुवास है बेटी
दोनों कुलों की शान है बेटी
जीवन की अनुपम कृति है बेटी
जीवन पथ की प्रगति बेटी
स्मृति का अभिमान है बेटी
श्रीमती स्मृति श्रीवास्तव
शासकीय महारानी लक्ष्मी
बाई नरसिंहपुर

सुख में ऐशो-आराम याद आते हैं,
दुःख में भगवान याद आते हैं।


यूं तो सदैव रहती लोगों की भीड़,
मुश्किल में मित्र ही काम आते हैं।

शाला में पढ़ते तो विद्यार्थी बहुत,
पर परिश्रमी ही मंजिल को पाते हैं,

झुठा थाली में छोड़ देते हैं बहुत,
कीमत रोटी की,भूखे जान पाते हैं।

बूढ़े मां-बाप को दिया नहीं सहारा,
वें बुजुर्गों पर भाषण दे आते हैं।

गरिबों से लूट-खसोट की जिसने,
नाम के लिए वे भंड़ारा चलाते हैं।

समय पर तो चेत सके नहीं है वो,
सांप जाये,फिर लाठी बरसाते हैं।

खुद किया नहीं है उस पर अमल,
मुफ्त की राय लोगों को दे आते हैं।

बनते है ज्ञान चंद,शांति के मसीहा
धरना,प्रदर्शन में आग वें लगाते हैं।

समय रहता नहीं,एकसा किसी का
शायद नादान समझ नहीं पाते हैं।

रामगोपाल आचार्य
पीपली आचार्यान, राजसमंद
होली के शुभआगमन पर,,,,#रसिक बिहारी भगवान श्री #कृष्णा के नाम ,,,,,

*******( दोहा गीतिका)******

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खिले चमन हर्षित धरा,फागुन का है शोर /
बासंती मन हो रहा,,,,,,नाचत है मन-मोर//

बृज की होली-श्याम की,बड़ी निराली होय,
बरसाने में डांडरी,,,,,,,नृत्य चलै घनघोर //

झूमरहे ब्रज-ग्वाल सब,गा कर फगुवा गीत,
होली की आहट सुनी,थिरक रहे वन-मोर /

नव रंगों की झोलियाँ,,,हाथ लिए गोपाल,
इत छोड़ैं पिचकारियाँ,,उत रंगन में बोर //

होरी तो बृजधाम की,,,,तन मन रंगे खूब,
प्रेम-रंग जा पर चढ़े,,,आत्मा होय विभोर//

मन-"वीणा" हर्षित हुई,,,,गाए गीत-सप्रीत ,
प्रेम -रंग डारौ प्रभो ! शरणागत कर जोर//

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ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार

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