Saturday, December 1

"सरिता "01 दिसम्बर 2018


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ठेलती सूरत दृगों को पर इशारों से रहित है।
भंगिमा बेशक मधुर है रति व्यवहारों से रहित है।
भाल से ऊपर सलिल है डूबने से बच रहा मैं,
तैरता हूँ उस सरित् में जो किनारों से रहित है।।
स्वरचित-आप का मित्र(मैं)



कलकल छलछल बहती जाय 
सरिता क्या क्या कहती जाय ।।।
क्या उमंग है , क्या तरंग है ,
प्रिय से मिलने को हरषाय ।।

पथ की क्या बाधा सताय 
मन में इतना हर्ष समाय ।।
पत्थर से भी टकरा जाय 
लागी लगन नही विसराय ।।

लगन का वह असर दिखाय 
पथ की बाधा खुद हट जाय ।।
पीछे मुड़ना नही है सीखा
कुछ पल भले बिखराव आय ।।

कितनों को तो साथ बहाय 
आत्मविश्वास का अलख जगाय ।।
देर सबेर तो चट्टानों से भी 
सरिता ''शिवम्" लोहा मनवाय ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"




(1)
बाधाएँ संग 
"सरिता" सा जीवन 
बहता मन 
(2)
भीगा सावन 
हरिता में "सरिता" 
मनभावन 
(3)
आंसू "सरिता"
दर्द का बांध टूटा
बही भावना 

स्वरचित 

ऋतुराज दवे



गिरी हृदय चीर

निसृत होती
इठलाती, बलखाती
वेगमयी जलधारा
निर्झरिणी कहलाती
तप्त धरा की प्यास बुझाती
धरती हरीभरी हो जाती
जल धारा करती किल्लोल
कभी शांत जल
बहता पल पल
जड़ चेतन की प्यास बुझाती
कभी उद्दंडता पर आ जाती
सब कुछ साथ बहा ले जाती
दृश्य विहंगम होता नदी तट
डूबते सूरज की परछाई
लाली जल में पड़े दिखाई
नीला अम्बर दिखता जल में
चाँद भी हिलता दिखता जल में
जले दीप नदियों के तट पे
अनुपम छटा दिखे तब तट पे
धरती पर सौंदर्य बिखेरे
शहर शहर डाले है डेरे
सरिता है जब तक धरती पर
जीवन बचा रहेगा तब तक
इनको मैला करना रोको
कूड़ा करकट कभी ना फेंको
सूख गई गर नदियाँ ये सब
जीवन सारा मुर्झायेगा
होठों पर मुस्कान न होगी
कोई कमल न खिल पायेगा

सरिता गर्ग



हिमगिरि के हिम खण्ड पिघले
बन जाते सब पानी पानी
झरने,सरिता पुष्कर बनते
जिसका नहीँ है कोई सानी
समय एक बहती सरिता है
कभी हाथ आती नहीं है
भागती ही जा रही वह्
कभी दूर भी जाती नहीं है
हर प्यासी आत्माओं को
तृप्ति की संभावना है
पाप विनाशिनी गङ्गा माँ से
मोक्ष प्राप्ति कामना है
निर्मल जल देती प्रिय सरिता
जल अमृत का पान कराती
कलियां फूल नव नव पादप
हरित क्रांति धरती पर लाती
जल जीवन का पान कराती
बिन जल के अस्तित्व नहीं है
जड़ी बूंटीया, वनस्पति निधि
का साकार स्वरूप वही है
कलकल करती बहती सरिता
समाहित होती वह् सागर में
उसका दिव्य स्वरूप निहारु
श्यामल श्यामल नटनागर में
जीवन निज है नदी स्वरूपा
प्रभु मांझी खुद खेवनहार है
महाशक्ति के बल पर ही
जन्म मृत्यु का पालनहार है
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम




जब भी लिखती हूँ मैं कविता,

लगती है मुझे वो सरिता,
स्याही जैसे जल बन जाये,
भाव मेरे मौंजें बन जाये,
लेखनी में हलचल मच जाये |

ये कविता बनाम सरिता,

भावों का जो सैलाब लाये,
डूब जाती हूँ मैं इस कदर,
फिर निकलने को मन न चाहे,
और लेखनी मेरी लिखती जाये |

इस सरिता के दो किनारे,

जो समेटें मेरे भाव सारे,
कविता जब सरिता बन जाये,
मन के भाव सब तक पहुँच जायें,
जीवन में सुकुन मिल जाये |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*




1)बरसा पानी

प्राणवान हो गई 
सरिता सारी
(2)ज्ञान सरिता 
बहती झर-झर
सत्संग चल 
(3)सरिता नारी
दोहन होता खूब 
क्या है लाचारी 
(4)सरिता प्यारी 
निरंतर बहती
जीवन साथी 
(5)जल है मीठा
सरिता ही बुझाती
समुद्री प्यास
(6)कुछ सरिता 
करती है जौहर 
जा के समुद्र 
(7)सरिता सम
झेलती सुख दुःख 
नारी महान 

स्वरचित 

मुकेश भद्रावले 



तुम विशाल सागर मैं सरिता तुममें मैं खो जाऊं
तुमसे मिलकर तुमको पाऊं तुममें ही खो जाऊं।
तेरा मेरा भेद रहे ना ऐसे आज समा जाऊं
जी चाहे ये खुद को खोकर तुमको मैं पा जाऊं।
थक गई हूँ मैं बहते बहते कबतक बहती जाऊं
तेरी बांह विशाल मिले जो मैं छुप कर सो जाऊं।
मुझको आलिंगन में भरकर सागर तुम अपना लो
ढूंढ सके न कोई मुझे तुम खुद में मुझे समा लो।
"पिनाकी"



एक परिंदा बन कर उडता,
कविता लेकर नभचर मै ।
भावों के रंगीन पँख से,
छूता हूँ हर इक मन मै ॥
🍁
पंक्षी बन कर ले मै कविता ,
भटक रहा हर मंचो पे ।
अंतहीन सा लगता मुझको,
सफर मेरा इस अम्बर पे॥
🍁
कोई छाया कोई तरू ना,
स्वप्न मिटा पाया मन का।
भावों की सरिता सा बहता,
शेर हृदय तकता नभ मे॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf




गिरती सम्भली बहकती और मचलती है ।

बड़ी मुश्किल से जोगन प्रिय से मिलती है ।।
स्वयं बनाती है राह अपने प्रेम की धार से ।
अस्तित्व मिटाकर सरिता सागर से मिलती है ।।

देवेंद्र देशज




रास्ते बनते हैं खुद ही , मैं गुजर जाती जिधर

मुश्किलों से सामना , है मेरी आदत हर सफर
नाम सरिता है मेरा , मुझको जरा पहचान लो
मेरे बिन दुश्वार जीना ,ये समझ लो तुम बशर।

मैं लुटाती जिंदगी ,जाती हूँ बस अपनी डगर

मेरे अहसानों का बदला,क्या दिया मुझको मगर
फैंकते सरिता में कूड़ा, तुमने क्या समझा मुझे
मैं गई मर तो ये समझो,सब जहां जाएगा मर।

~प्रभात




सरिता

निदाघ-दाघ से शनैः-शनैः पिघल
फिर हिमशैलों से निकल-निकल
निज पथ गतिशील तरल अविरल
बाधा-बंध को कर निर्बन्ध,विकल
अधीर नीर निर्भय निरंतर प्रवाह
उद्विग्न उर,किस मिलन की चाह
निश्छल,निमग्न सदा दो पाटों में
कलकल रव,स्वर-भंग सन्नाटों में
चंचल है,इठलाती है,बलखाती है
पर ज्वारों को भी अंग लगाती है
सरिता का जीवन-धन ही लहर है
और लयमय गति-विलय सागर है
-©नवल किशोर सिंह




बहती नदिया चलते चलते, बात ये कहती जाती है, 


चलना ही तो जीवन होता, वो आगे बढती जाती है, 


नहीं जीवन ऐसा होता, जिसमें मुश्किल नहीं आती है, 


तूफानों, चट्टानों से टकराकर ,सरिता आगे बढती है, 


देती चलती जीवन सबको, जल का अमृत दे जाती है, 


भाव समर्पण का हमको, मिलकर सागर में समझाती है, 


अपनी सीमाओं में रहकर, अनुशासन हमें सिखाती है, 


नहीं नाम के लिऐ ये जीती, हमें परोपकार सिखाती है, 


नव युग की सौगात यही है , अब मैली सरिता होतीं हैं, 


हमनें दोहन किया वनों का,इससे ही नदी सिमटतीं हैं, 


नभचर, थलचर, जलचर सब, इन पर ही तो आश्रित हैं, 


सरिताओं के बिन जीवन की, क्या हम कल्पना करते हैं, 


जो हम पर जान लुटाता है,हम उसके लिए क्या करते हैं, 


अस्तित्व रहे कायम नदियों का,हमको प्रयास ये करना है, 


सरिता की शुचिता बनी रहे, यह चिंतन मनन जरूरी है |


स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,





कलकल करती बहती सरिता
तन-मन निर्मल करती सरिता
बहे आँगन वसुंधरा के सरिता
प्रकृति गूंजायमान करे सरिता
जन की प्यास बुझाती सरिता
अनवरत सदा ही बहती सरिता
निष्प्राण में प्राण भरती सरिता
जीवन का सृजन करती सरिता
निर्जन को सघन करती सरिता
संदेश निरंतरता का देती सरिता
बड़ी बाधाओं को चीरती सरिता
जीवन संघर्ष का संदेश सरिता

स्वरचित :- मुकेश राठौड़





" नदी की व्यथा"
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मैं सरिता पावन निर्मल,
बलखाती बहती अविरल।

करती रही धरा को सिंचित,
भेद किया न मैंने किंचित।

निर्मल सुन्दर मेरी धारा,
स्नेह लुटाती रहती सारा।

व्यथित बहुत हूं मैं इस जग से,
बांध दिया है मुझको जबसे।

कलुष उड़ेला अपना सारा,
मैला,कचरा डाल अपारा।

घुटता दम बहते हैं आंसू,
व्यथा बहुत है कहूं मैं कांसू।

जीर्ण-शीर्ण मैं होती जाऊं,
फिर भी अविरल बहती जाऊं।

मलिन हुई मेरी जलधारा,
सबने मुझसे किया किनारा।

मां कहते-कहते नहीं थकते,
मेरी दशा को कभी न तकते।

ऐसा न हो मैं थक जाऊं,
बहते-बहते मैं रूक जाऊं।

तब क्या होगा सोचा-विचारा,
हृदय मेरा अब हिम्मत हारा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित





भागीरथी अलकनंदा मंदाकिनी 

गंगा यमुना सरस्वती सरिताऐं।
कोई हिमगिरी की बेटी तो सब,
अमृत सा जल लाती सरिताऐं।

सीना चीर पर्वत मालाओं के ये
निष्कंटक अविरल बहती जाती।
नहीं कंठ सूखने देतीं हम सबके
हर जंगल सिंचित करती आतीं।

जहां जहां से निकली सरिताऐं,
विकसित सभी क्षेत्र क्षेत्रवासी।
सभी प्रसन्न प्रफुल्लित रहते हैं,
नगरवासी हों या सब वनवासी।

शिव ने समाई जटाओं में गंगा ,
प्रचंड वेग तब कुछ शांत हुआ।
धीरे धीरे निकलीं गंगा जी जब
अमोघ प्रवाह कुछ शांत हुआ।

इनके जल की बात करूं क्या,
गंगाजल गंगोत्री है अमृत जल।
सभी सरिताओं में पावन जल है,
गोदावरी कावेरी है निर्मल जल।

वनोषधि नदियां परिपोषित करती।
ताल तडाग सब ये नदियां भरतीं
जलचर थलचर नभचर हमको ये
अमृतपान कराकर जीवित रखतीं।

स्वरचितः ःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.






मैं सरिता
पहाड़ों की बेटी
निर्मल जलधारा
आस लिए बहती

कल-कल संगीत
गाती जीवन के गीत
मन में लिए प्रीत
ढूँढती मनमीत

है मंजिल मेरी
सागर को पाना
सफर हो जाए सुहाना
सोच मन ही मन इतराना

राहों में मिल गयी
कुछ सखि सहेलियाँ
कुछ है सुलझी
कुछ अनसुलझी पहेलियाँ

चली बाधाओं संग टकराती
रुकना नहीं जानती
बनी वसुधा की तृप्ति
हरियाली की संजीवनी

संघर्षों संग टकराती
मन ही मन घबराती
गंदगी को भी समेटती
चली स्वयं को संभालती

निर्मलता मेरी खो गयी
गहरी थी यह वेदना
मन मेरा दुःखी हुआ
आक्रोश से भर उठा

क्या से क्या मैं हो गई
दामन मेरी मलिन हुई
बड़ी मुश्किल में थी पड़ी
मिलन की होगी कैसी घड़ी

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल





ह्रदय गुहा से निकली निर्मल,
भावों की सरिता उज्ज्वल।
अनुभव और अहसासों की,
धवल धार करती कल कल।

कविता की सरिता निकली,
अलंकार से नित्य सजी।
अनुबन्धों के तट तरंगिनि,
भाव भरी रसदार बही।।

काव्य सुधा रस है मतवाला,
कविजन इसका पान करें।
भाव मयी सरिता का निशदिन
आओ सब यशोगान करें।।

रचनाकार
जयंती सिंह





पर्वत मेरा पिता कहलाता
मैं उसकी पुत्री सरिता हूँ
पर्वत श्रृंखलाओं से निकलकर
जीवन प्रवाह में मैं बहती हूँ
टेढ़े मेढ़े रास्ते बाधाएँ मेरी
उनको पराजित मैं करती हूँ
बड़ी उमंग बड़े वेग से
मैं मैदानों में उतरती हूँ
सीमाओं की बाधा को मिटाकर
निज जल का बोध मैं करवाती हूँ
अन्नदाता के खेतों में बिछकर
सिंचाई साधन मैं बन जाती हूँ
वन्य जीवों संग मानव अधरों की
उनकी सहृदयता से प्यास बुझाती हूँ
मेरे तटों पर जाता बस बसेरा 
मचलकर क्रीड़ा कलेल मैं बन जाती हूँ
कहीं धर्म और कहीं आस्था बनकर
कवियों की काव्य साधना बन जाती हूँ 
सिर पर मेरे बाँध और पुलिया
आवागमन सुलभ मैं बनाती हूँ 
जल मेरा वाष्पीकरण में ढलता
तब वर्षा रूप में बरस जाती हूँ
यदि आक्रामक रौद्र रूप दिखाऊँ
जल प्रलय कर बाढ़ बन जाती हूँ
उपादेयता और अपनी रवानगी पर
गर्व मैं ख़ुद पर ही किया करती थी
पर कूडा कचरा रासायनिक अपशिष्ट देखकर
मानव अज्ञानता से मैं उदास हो जाती हूँ
वाणी मेरे भाग्य की रेखा में नही
मौन रहकर इस पीड़ा को सहती आई हूँ
स्वरचित
संतोष कुमारी
नई दिल्ली





सरिता 
! अमर तुम्हारी,प्रेम कहानी,
तुम सच में हो, प्रीत की रानी,
खारे सागर को, दे देती, 
तुम अपना सारा ,मीठा पानी।

तुम प्रियतम से ,मिलने जाती,
अपना पथ भी,स्वयम् बनाती,
और अपने फैले आँचल से,
प्रकृति का सौन्दर्य बढ़ाती।

बस एक लगन,बस एक लगन,
उसमें ही रहती, तुम हो मगन,
तुम्हारे द्रवित, हृदय में अदभुत,
भरी रहती है,प्रेम अगन।

तुमसा नहीं ,कोई दीवाना,
तुमसा नहीं, कोई मस्ताना,
हिम शिखर से ,प्रेमी हृदय का,
सारा रस्ता ही,तुमने छाना।

कई तीर्थ हुए सृजित,तुम्हारे पथ के साक्षी,
उसमें डुबकी लगाने के,हम भी हो गये आकांक्षी,
बात सारी पाप धुलने तक भी,जा पहुँची,
मोक्ष के हो गये , हम फिर महत्वाकाँक्षी।

चाहे जो भी हो, समृध्दि आई सब ओर,
अध्यात्म की भी, थोड़ी मजबूत हो गई डोर,
कई लोगों का जीवन भी सँवरा,
उज्जवल हो गई,उनकी भोर।

नदिया! तुम प्रगति के पहले अध्याय,
नहीं नहीं,तुम तो प्रगति के पर्याय।




सरिता कहे मैं निर्मल-धारा
चलती हूँ मचल मचल
राह मे जो भी कंटक आये
रोक सके न राह हमारा

छोटी नदी, नाले समेटे
चलती मैं ठहर ठहर
रोक सके न मुझको कोई
जब वेग से निकलू मैं

अत्याचार करो न मुझपे
हे मानव, मैं दू दुहाई
मत करो मेरा रंग मटमैला
मैं स्वच्छ जल की धारा हूँ

सिन्धु से मिलने को आतुर
मैं प्रेयसी उनकी हूँ,
निर्मल धारा हैं श्रृंगार मेरा
बन ठन कर मैं निकली हूँ

हे मानव क्यों भूल गये?
तुम भी हो मेरे समान
ईश्वर है तुम्हारे सागर
तुम हो उनके सरिता समान
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।




सरिता- सरिता जीवनाधार
कल-कल बहती इसकी जलधार 
चलती जाती राह बनाती
जीवन का है मर्म सिखाती
कभी न रुको कठिनाई में 
कभी न रहो तन्हाई में 
कभी मुङो, कभी मोड़ो
जीवन का लक्ष्य कभी न छोड़ो
हरदम बहना इनका काम 
हरदम देना इनका नाम
कोई कितना भी कलुषित कर दे
अपने गुणों से जीवन भर दे 
खेतों को अभिसिंचित करती 
मानव को परितृप्ति देती 
कोई इसको कितना बाँधे
फिर भी जाती है आगे 
हारी नहीं है अपने वश पर 
बहती जाती अपने पथपर 
इसकी अविरल जलधार 
सरिता -सरिता जीवनाधार ।
स्वरचित : मोहिनी पांडेय


सरिता तट पर खड़ा वृक्ष ,
अब सोच रहा है मन ही मन।
जब आएगी बाढ नदी में,
मेरा होगा हाल विहल ।
माना मेरी यह हरियाली ,
देन इसी सरिता की है।
जब होगा मेरा अंत जहाँ में
कारण भी यही सरिता होगी।
इसकी शीतल निर्मल धारा
हर पल कल कल कर बहती है
सिंचित करती है फसलों को
हम सबकी प्यास बुझाती है।
अपना सर्वस्व लुटा कर भी
हर पल शीतलता देती है।
जब सबको खुश कर लेती है
अपना अस्तित्व मिटाने को
सागर को गले लगाती है।
(अशोक राय वत्स)स्वरचित
7665994959जयपुर

जीवन नदी की धारा है, 
सुख दुःख दो किनारे है, 
यहाँ से जाना है असंभव, 
साँसे तो बस लहरे है ll

कल कल करती सरिता जैसे, 
धड़कन की ध्वनि है ऐसे , 
हमको तो यूँ बढ़ते जाना है, 
सागर में ही मिलना जैसे ll

लाखो कष्ट आते है उसको, 
पर नहीं फुसलाते उसको, 
बहती रहती हर पल वो तो, 
सागर से ही मिलना उसको ll

कर्म किये जा नदी के जैसे, 
नहीं घबरा कष्टों से ऐसे, 
ईश भी साथ उसी का देते, 
कर्म जो है निरंतर करते ll
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून


मैं सरिता कल कल करती...मेरी पीड न जाने कोई...
जो भी आता मैल ही धोता...बिन पूछे मुझे हर कोई !

समय के साथ बहती मैं हर पल....जाने है हर कोई....
फिर भी अपने मतलब को मुझे बींध रहा हर कोई ! 

क्या रंग है मेरा अपना....रंग अपना भर जाता हर कोई.....
दर्द अपना मैं किस से कहूँ.....बेदर्द है हर कोई !

काश फिर से आये भागीरथ....फिर आये शिव कोई.....
मुझको अपने संग में ले ले....पीड रहे न कोई !

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
०१.१२.२०१८

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