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ब्लॉग संख्या :-241
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सूरज ढलते ही किसी से रोज
मेरी मुलाकात हो जाती है,
वो रोज ही आती है, पर आज
बात ज्यादा ही खास हो गई |
चाँद का माथे पर टिका पहने,
सितारों की सिर पर चुनर ओढ़े,
कोई सुन्दरी आसमान से आई,
ये रात की रानी निशा कहलाई |
निशा की इस छाया में,
चाँद ने अपनी चाँदनी बिखराई,
वरना चाँद की कौन करता बड़ाई,
ये आकाश सुन्दरी मन को है भाई|
आज तो निशा और भी मनभावनी लगी,
पूनम के चाँद की रोशनी जब उस पर पड़ी,
धरती पर चमक ऐसी हो रही मानो,
निशा की आज शादी हो रही |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
सूरज ढलते ही किसी से रोज
मेरी मुलाकात हो जाती है,
वो रोज ही आती है, पर आज
बात ज्यादा ही खास हो गई |
चाँद का माथे पर टिका पहने,
सितारों की सिर पर चुनर ओढ़े,
कोई सुन्दरी आसमान से आई,
ये रात की रानी निशा कहलाई |
निशा की इस छाया में,
चाँद ने अपनी चाँदनी बिखराई,
वरना चाँद की कौन करता बड़ाई,
ये आकाश सुन्दरी मन को है भाई|
आज तो निशा और भी मनभावनी लगी,
पूनम के चाँद की रोशनी जब उस पर पड़ी,
धरती पर चमक ऐसी हो रही मानो,
निशा की आज शादी हो रही |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
ये चाँद हम पर हँसे क्या दीवाना है
कहीं गवाही न दे क्या ठिकाना है ।
नींद कहाँ अब आती रातों में
जब से देखा वो रूप सुहाना है ।।
मंज़र ही बदला जिन्दगी का
मुश्किल अब उन्हे भुलाना है ।।
उन आँखों में क्या खंजर थे
मुश्किल उनको बताना है ।।
आईं रातें गईं रातें कितनी ही
दिल का हाल वही पुराना है ।।
सपने भी अब आयें कैसे
उनका बन्द आना जाना है ।।
रात तो मानो दिन हो गई
अब शायर खुद में पहचाना है ।।
सजदा कर उन्हे रातों में
अब कलम संग दोस्ताना है ।।
दिन से बहतर रातें लगतीं
लिखूँ नित 'शिवम'तराना है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 18/12/2018
कहीं गवाही न दे क्या ठिकाना है ।
नींद कहाँ अब आती रातों में
जब से देखा वो रूप सुहाना है ।।
मंज़र ही बदला जिन्दगी का
मुश्किल अब उन्हे भुलाना है ।।
उन आँखों में क्या खंजर थे
मुश्किल उनको बताना है ।।
आईं रातें गईं रातें कितनी ही
दिल का हाल वही पुराना है ।।
सपने भी अब आयें कैसे
उनका बन्द आना जाना है ।।
रात तो मानो दिन हो गई
अब शायर खुद में पहचाना है ।।
सजदा कर उन्हे रातों में
अब कलम संग दोस्ताना है ।।
दिन से बहतर रातें लगतीं
लिखूँ नित 'शिवम'तराना है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 18/12/2018
विमल स्नेह अनुराग अनुपम
रवि शशि नभ आते जाते
भू मंडल आलोकित करते वे
गीत मधुर मिलकर के गाते
तारों की झिलमिल चुनरिया
सप्त ऋषि आभूषण सजती
बिंदिया ध्रुव का तारा बनता
अति संकुचित मन मे लजती
निशा नायिका मोहित हेतु ही
चँदा पल पल रूप बदलता
कभी अमावस कभी पूर्णिमा
बनकर सदा उसे निरखता
निशा मयंक का प्रेम अनौखा
रहकर दूर समीप ही रहते
नीरव शांत अंनत गगन में
प्रिय मिलन को सदा तरसते
नीलाम्बर को श्यामल करती
निशा धरा विश्राम दिलाती
पीर हरण करती वह् नभ से
वह् निंद्रा में सुधा पिलाती
नभ में अगर निशा न होती
फिर जग में हंगामा होता
कोई रोता कोई बिलखता
सुख की नींद न सोने पाता
निशा दिवस तो अडिग सत्य हैं
भव्य प्रकृति है तानाबाना
सुख दुःख जीवन के प्रतीक हैं
जीवन स्वयं है आना जाना।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
रवि शशि नभ आते जाते
भू मंडल आलोकित करते वे
गीत मधुर मिलकर के गाते
तारों की झिलमिल चुनरिया
सप्त ऋषि आभूषण सजती
बिंदिया ध्रुव का तारा बनता
अति संकुचित मन मे लजती
निशा नायिका मोहित हेतु ही
चँदा पल पल रूप बदलता
कभी अमावस कभी पूर्णिमा
बनकर सदा उसे निरखता
निशा मयंक का प्रेम अनौखा
रहकर दूर समीप ही रहते
नीरव शांत अंनत गगन में
प्रिय मिलन को सदा तरसते
नीलाम्बर को श्यामल करती
निशा धरा विश्राम दिलाती
पीर हरण करती वह् नभ से
वह् निंद्रा में सुधा पिलाती
नभ में अगर निशा न होती
फिर जग में हंगामा होता
कोई रोता कोई बिलखता
सुख की नींद न सोने पाता
निशा दिवस तो अडिग सत्य हैं
भव्य प्रकृति है तानाबाना
सुख दुःख जीवन के प्रतीक हैं
जीवन स्वयं है आना जाना।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
हाइकु
@
दस्तक रवि
जागो हुआ सवेरा
सिमटी निशा
@
ले अँगड़ाई
नाचती निशा आई
साँझ विदाई
@
ओस की बूँदें
मोती बन चमके
निशा के आँसू
@
सूझे ना रास्ता
मन भी दिशाहारा
अँधेरी रात
@
मन को घेरा
ये रात की कालिमा
द्वंद का डेरा
@
दादी व नानी
रात का इंतजार
किस्सा सुनाती
@
निशा की गोद
झिलमिल आकाश
हँसता चाँद
@
भीगी है रात
सताती तेरी याद
रूठा ना करो
@
गाँव, शहर
प्रकोप शीत लहर
रात कहर
@
पूस की रात
दु:खी हुआ किसान
खेतों में धान
@
पूस की रात
जाना पड़ेगा खेत
"रामुकाका"को
@
पूस की सर्द
ठिठुरती है निशा
गरीब दर्द
@
रात्रि पहरा
ठिठुरकर बोला
'जागते रहो'
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
@
दस्तक रवि
जागो हुआ सवेरा
सिमटी निशा
@
ले अँगड़ाई
नाचती निशा आई
साँझ विदाई
@
ओस की बूँदें
मोती बन चमके
निशा के आँसू
@
सूझे ना रास्ता
मन भी दिशाहारा
अँधेरी रात
@
मन को घेरा
ये रात की कालिमा
द्वंद का डेरा
@
दादी व नानी
रात का इंतजार
किस्सा सुनाती
@
निशा की गोद
झिलमिल आकाश
हँसता चाँद
@
भीगी है रात
सताती तेरी याद
रूठा ना करो
@
गाँव, शहर
प्रकोप शीत लहर
रात कहर
@
पूस की रात
दु:खी हुआ किसान
खेतों में धान
@
पूस की रात
जाना पड़ेगा खेत
"रामुकाका"को
@
पूस की सर्द
ठिठुरती है निशा
गरीब दर्द
@
रात्रि पहरा
ठिठुरकर बोला
'जागते रहो'
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
🍁
मिलन की चाह मे बैठा,
निशा के आज आँगन मे।
मधुर बरसात भी होगी,
तेरे आते ही सावन मे।
🍁
खिलेगी चाँदनी रश्मि,
जलेगी रात चाहत में।
जो सज के आज आओगी,
मिलन होगी मोहब्बत में।
🍁
निशा ढलने ना पायेगी,
जगेगी आज आँखो मे।
मिलन की चाह ले करके,
मै बैठा आज सुबह से।
🍁
नही कटता समय अब तो,
अभी तक वो नही आयी।
विरह मे शेर जलता है,
तपन अब आग बन आयी।
🍁
सुलगते तन-वदन मन आज,
मेरा आज चाहत मे।
निशा ढलने को आयी है,
ना आयी आज आँगन मे।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
मिलन की चाह मे बैठा,
निशा के आज आँगन मे।
मधुर बरसात भी होगी,
तेरे आते ही सावन मे।
🍁
खिलेगी चाँदनी रश्मि,
जलेगी रात चाहत में।
जो सज के आज आओगी,
मिलन होगी मोहब्बत में।
🍁
निशा ढलने ना पायेगी,
जगेगी आज आँखो मे।
मिलन की चाह ले करके,
मै बैठा आज सुबह से।
🍁
नही कटता समय अब तो,
अभी तक वो नही आयी।
विरह मे शेर जलता है,
तपन अब आग बन आयी।
🍁
सुलगते तन-वदन मन आज,
मेरा आज चाहत मे।
निशा ढलने को आयी है,
ना आयी आज आँगन मे।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
फिर वही शाम का मौसम होगा।
तेरी यादों से नमोदर गम होगा।
चांदनी मे नहा जवां रात होगी।
हवा के परो मे वही खम होगा।
इन्तजार का मतलब न कोई।
मगर कैसे ये गुमां कम होगा।
सरसराहट के आहट है कोई।
कुछ नहीं शायद ये वहम होगा।
यादों के चटखे आईने में तेरा।
वादा टुटी हुई कसम होगा।
विपिन सोहल
स्वरचित
तेरी यादों से नमोदर गम होगा।
चांदनी मे नहा जवां रात होगी।
हवा के परो मे वही खम होगा।
इन्तजार का मतलब न कोई।
मगर कैसे ये गुमां कम होगा।
सरसराहट के आहट है कोई।
कुछ नहीं शायद ये वहम होगा।
यादों के चटखे आईने में तेरा।
वादा टुटी हुई कसम होगा।
विपिन सोहल
स्वरचित
विषय =निशा
विधा=हाइकु
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
(1)निशा जलाती
चाँद का लालटेन
धरा मुस्काती
(2)निशा लगाती
रोज बालों में खुद
चाँद का फूल
(3)निशा बिछाएं
तारों वाली कालीन
चाँद मेहमां
(4)निशा हटाएं
चेहरे से घूंघट
चाँद दिखाएं
(5)चाँद की टार्च
निशा ले चली साथ
राह आसान
(6)निशा पहने
तारों की पैंजनिया
खूब चमके
🌷स्वरचित 🌷
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
18/12/2019
विधा=हाइकु
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
(1)निशा जलाती
चाँद का लालटेन
धरा मुस्काती
(2)निशा लगाती
रोज बालों में खुद
चाँद का फूल
(3)निशा बिछाएं
तारों वाली कालीन
चाँद मेहमां
(4)निशा हटाएं
चेहरे से घूंघट
चाँद दिखाएं
(5)चाँद की टार्च
निशा ले चली साथ
राह आसान
(6)निशा पहने
तारों की पैंजनिया
खूब चमके
🌷स्वरचित 🌷
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
18/12/2019
रातों में तारे हम गिनें,तुम भोर बन गये।
आँधी सी बनकर तुम चलो,हम शोर कर रहे।।
टपकी न अब तलक बून्द,क्यों स्वाती बन गये।
बरसेगी बरखा कब तलक, हिये उल्टे लटक रहे।।
बक्त की बैसाखी पे चढ़कर,
झींगुर बोल उठे।
हम से ली आवाज ,
और वो गा उठे।।
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना(म.प्र.)
आँधी सी बनकर तुम चलो,हम शोर कर रहे।।
टपकी न अब तलक बून्द,क्यों स्वाती बन गये।
बरसेगी बरखा कब तलक, हिये उल्टे लटक रहे।।
बक्त की बैसाखी पे चढ़कर,
झींगुर बोल उठे।
हम से ली आवाज ,
और वो गा उठे।।
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना(म.प्र.)
"निशा" शीर्षकांतर्गत हायकु रचना ---
(1)
'निशा' निराली
चंद्रमा का यौवन
मन दिवाली।
(2)
'निशा' स्वरूप
अंधेरा मन कूप
रूप विद्रूप।
(3)
चंचल मन
'निशा' का आगमन
भ्रमित जन।
(4)
दिल में 'निशा'
टूट गया भरोसा
बुरा संदेशा।
(5)
सूरत भोली
चांदनी सँग 'निशा'
शर्माए गोरी।
(6)
'निशा' का खौफ
काली है अमावस्या
डर बेखौफ।
(7)
सताए सर्द
जन - जन में दर्द
'निशा' में बर्फ।
(8)
'निशा' शिशिर
प्राणी जाए ठिठुर
नभ मिहिर।
(9)
'निशा' बर्फीली
शरद है हठीली
जले अंगीठी।
(10)
'निशा' सताए
शरीर ठिठुराए
हेमंत आए।
--रेणु रंजन
( स्वरचित )
18/12/2018
(1)
'निशा' निराली
चंद्रमा का यौवन
मन दिवाली।
(2)
'निशा' स्वरूप
अंधेरा मन कूप
रूप विद्रूप।
(3)
चंचल मन
'निशा' का आगमन
भ्रमित जन।
(4)
दिल में 'निशा'
टूट गया भरोसा
बुरा संदेशा।
(5)
सूरत भोली
चांदनी सँग 'निशा'
शर्माए गोरी।
(6)
'निशा' का खौफ
काली है अमावस्या
डर बेखौफ।
(7)
सताए सर्द
जन - जन में दर्द
'निशा' में बर्फ।
(8)
'निशा' शिशिर
प्राणी जाए ठिठुर
नभ मिहिर।
(9)
'निशा' बर्फीली
शरद है हठीली
जले अंगीठी।
(10)
'निशा' सताए
शरीर ठिठुराए
हेमंत आए।
--रेणु रंजन
( स्वरचित )
18/12/2018
विधाःःः मुक्तकःःःः
मन की निशा नाश तो निर्मल मन होगा।
गर मुस्कित इंन्दु रात्रि निर्बल तम होगा।
रजनीचर आऐ निश्चित निशिचर भागेंगे,
पुलकित मन तो अपना हर्बल तन होगा।
निशा निशापति प्रतिदिन आते जाते हैं।
सुबह शाम रवि प्रतिदिन आते जाते हैं।
सुखदुख आते जाते हैं सबके जीवन में,
फिर क्यों सबके सबजन ये रोते गाते हैं।
हम जीवनपथ पर चलते जाऐं सबजन।
बढें प्रगतिपथ पर मिलते जाऐं सदजन।
निशा तमस कभी नहीं रहे अखिलेश्वर,
हृदय प्रेम प्रफुल्लित करते पाऐं जनमन।
स्वतंत्र रहें सदा नहीं हमें अंधकार हो।
परतंत्र रहें क्यों जब हमें अधिकार हो।
उज्जवल भविष्य होय हम सबका ही,
यदि स्वनिर्माण उर हमें साधिकार हो।
स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
मन की निशा नाश तो निर्मल मन होगा।
गर मुस्कित इंन्दु रात्रि निर्बल तम होगा।
रजनीचर आऐ निश्चित निशिचर भागेंगे,
पुलकित मन तो अपना हर्बल तन होगा।
निशा निशापति प्रतिदिन आते जाते हैं।
सुबह शाम रवि प्रतिदिन आते जाते हैं।
सुखदुख आते जाते हैं सबके जीवन में,
फिर क्यों सबके सबजन ये रोते गाते हैं।
हम जीवनपथ पर चलते जाऐं सबजन।
बढें प्रगतिपथ पर मिलते जाऐं सदजन।
निशा तमस कभी नहीं रहे अखिलेश्वर,
हृदय प्रेम प्रफुल्लित करते पाऐं जनमन।
स्वतंत्र रहें सदा नहीं हमें अंधकार हो।
परतंत्र रहें क्यों जब हमें अधिकार हो।
उज्जवल भविष्य होय हम सबका ही,
यदि स्वनिर्माण उर हमें साधिकार हो।
स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
विधा - छंद मुक्त
निशा तमाम
अभी बाकी है
प्रिय जाने का
अभी नाम न लो
साँसों में हलचल बाकी है
ये हलचल यूँ ही रहने दो
देखो नभ ने इन तारों को
बाहों में अपनी भरा हुआ
शीतल किरणें देखो प्रियवर
करती मानों इसरार कोई
न जाओ अभी
साजन मेरे
करना है
प्रणय इजहार अभी
रजनी भी होगी उदास
गर जल्दी तुम यूँ चले गए
ओढ़ी है चादर चाँदी की
वो तुम्हें रिझाने है बैठी
नभ से टपके इन
ओस कणों से
महक रही यामा देखो
आओ हम तुम करें मधु विहार
इस प्रणय झील की बाहों में
रोमांचित हृदय हमारे हों
सींचों मेरे इन प्राणों को
यह विभावरी फिर मेरे प्रिय
बन जाएगी एक यादगार
सरिता गर्ग
निशा तमाम
अभी बाकी है
प्रिय जाने का
अभी नाम न लो
साँसों में हलचल बाकी है
ये हलचल यूँ ही रहने दो
देखो नभ ने इन तारों को
बाहों में अपनी भरा हुआ
शीतल किरणें देखो प्रियवर
करती मानों इसरार कोई
न जाओ अभी
साजन मेरे
करना है
प्रणय इजहार अभी
रजनी भी होगी उदास
गर जल्दी तुम यूँ चले गए
ओढ़ी है चादर चाँदी की
वो तुम्हें रिझाने है बैठी
नभ से टपके इन
ओस कणों से
महक रही यामा देखो
आओ हम तुम करें मधु विहार
इस प्रणय झील की बाहों में
रोमांचित हृदय हमारे हों
सींचों मेरे इन प्राणों को
यह विभावरी फिर मेरे प्रिय
बन जाएगी एक यादगार
सरिता गर्ग
विधा :- लघु कविता
निशा चाँदनी विस्तृत गगन,
स्वच्छ चंद्रमा छवि मनोहर।
उत्कल गंगा जमुना सरिता,
बहे ज्ञान की अमृत धारा।
चंद्र अठखेलि तारों संग,
हो सुशोभित नील गगन।
खिलते सम पुष्प सितारे,
सुंदर पटल अंतरिक्ष उपवन।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
निशा चाँदनी विस्तृत गगन,
स्वच्छ चंद्रमा छवि मनोहर।
उत्कल गंगा जमुना सरिता,
बहे ज्ञान की अमृत धारा।
चंद्र अठखेलि तारों संग,
हो सुशोभित नील गगन।
खिलते सम पुष्प सितारे,
सुंदर पटल अंतरिक्ष उपवन।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
चंद हाइकु
1
कांपती निशा
ठिठुर रहा चाँद
निर्दयी शीत
2
निशा रूपसी
सुधाकर मोहित
सितारों सजी
3
निशा प्रांगण
चाँदनी की मदिरा
ले आई तारा
4
मन एकाकी
सुलोचना बुलाती
निशा स्वप्नों को
5
निशा मोहिनी
करती झील स्नान
मुग्ध मयंक
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
1
कांपती निशा
ठिठुर रहा चाँद
निर्दयी शीत
2
निशा रूपसी
सुधाकर मोहित
सितारों सजी
3
निशा प्रांगण
चाँदनी की मदिरा
ले आई तारा
4
मन एकाकी
सुलोचना बुलाती
निशा स्वप्नों को
5
निशा मोहिनी
करती झील स्नान
मुग्ध मयंक
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
निशा
बियाबान रेत में
मृगतृष्णा-सा मन
भटकता,मचलता है
सूरज भी छलिया है
उजालों से छलता है
प्रखर उजालों से
चौंधियाई आँखें
उद्भ्रांत मन
सांझ ढलने तक
क्लांत मन
तलाशता,एक छाँव
एक ठहराव
चौंध से बचने का सहारा
एक अँधियारा
काली चुनर ओढ़े
आई निशा
लिए कालिमा का वितान
प्रचंड दाहक से निदान
तिमिर,तम है
स्निग्ध,सुखद
या एक स्याह वहम है
वो नभ में उड़ते खग भी
आ गए है नीड़ में
बेसुध जग लिपट रहा
निद्रा की जंजीर मैं
दिन के तपन का स्वेद
है निशा के ओसकण
मिटा जाती है थकन
और हरित करते ताप सारे
संग मिलकर चाँद-तारे
एक नवजीवन का संचार
फिर से,चल सकने को तैयार
निहित निशा में
जीवन का एक अभिप्राय
फिर क्यूँ,
निशा कालिमा का पर्याय?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
बियाबान रेत में
मृगतृष्णा-सा मन
भटकता,मचलता है
सूरज भी छलिया है
उजालों से छलता है
प्रखर उजालों से
चौंधियाई आँखें
उद्भ्रांत मन
सांझ ढलने तक
क्लांत मन
तलाशता,एक छाँव
एक ठहराव
चौंध से बचने का सहारा
एक अँधियारा
काली चुनर ओढ़े
आई निशा
लिए कालिमा का वितान
प्रचंड दाहक से निदान
तिमिर,तम है
स्निग्ध,सुखद
या एक स्याह वहम है
वो नभ में उड़ते खग भी
आ गए है नीड़ में
बेसुध जग लिपट रहा
निद्रा की जंजीर मैं
दिन के तपन का स्वेद
है निशा के ओसकण
मिटा जाती है थकन
और हरित करते ताप सारे
संग मिलकर चाँद-तारे
एक नवजीवन का संचार
फिर से,चल सकने को तैयार
निहित निशा में
जीवन का एक अभिप्राय
फिर क्यूँ,
निशा कालिमा का पर्याय?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
निस्तब्ध निशा
**********
निविड़ अंधकार में ,
ख़ामोश आधी रात को,
चुपचाप सोता है-
जब जहाँ ,
निस्तब्ध निशा के प्रांगण में !
अनकहे , अधूरे सपनों के
मायाजाल में
भटकता सा-
कहीं कोई आहट नहीं ,
सब शांत !
सब चुप !!
और,
नीलाभ का सूनापन
जब झाँकता,
सूनी आँखों की कोरों से,
तब,जाने कहाँ से
भर आता आँखों में पानी
और, रह रहकर -
ढुलक जाता है गालों पर !
उधर,
नभ पर से एक सितारा टूट,
विलीन हो जाता है
जाने कहाँ ?
इस अथाह साग़र में -
आँखों के
अश्रुनीर सा !!
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र
सर्वाधिकार सुरक्षित
**********
निविड़ अंधकार में ,
ख़ामोश आधी रात को,
चुपचाप सोता है-
जब जहाँ ,
निस्तब्ध निशा के प्रांगण में !
अनकहे , अधूरे सपनों के
मायाजाल में
भटकता सा-
कहीं कोई आहट नहीं ,
सब शांत !
सब चुप !!
और,
नीलाभ का सूनापन
जब झाँकता,
सूनी आँखों की कोरों से,
तब,जाने कहाँ से
भर आता आँखों में पानी
और, रह रहकर -
ढुलक जाता है गालों पर !
उधर,
नभ पर से एक सितारा टूट,
विलीन हो जाता है
जाने कहाँ ?
इस अथाह साग़र में -
आँखों के
अश्रुनीर सा !!
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र
सर्वाधिकार सुरक्षित
विधा - विधाता छन्द आधारित
मात्रा भार - 1222 1222 1222 1222
**************************
मुक्तक
गगन में चाँद निकला है, अहा कैसी लुनाई है।
मनौ निशि सुन्दरी माथे, सुभग बेंदी सजाई है।
छिटकती चाँदनी है या, चुनरिया दूधिया ओढे।
सितारों के सजा गजरे, सुहानी रात आई है।
स्वरचित
रामसेवक सिंह गुर्जर
बाह आगरा
मात्रा भार - 1222 1222 1222 1222
**************************
मुक्तक
गगन में चाँद निकला है, अहा कैसी लुनाई है।
मनौ निशि सुन्दरी माथे, सुभग बेंदी सजाई है।
छिटकती चाँदनी है या, चुनरिया दूधिया ओढे।
सितारों के सजा गजरे, सुहानी रात आई है।
स्वरचित
रामसेवक सिंह गुर्जर
बाह आगरा
मुक्तक
"""""""""""""""""
साथियो, है सालती मन में चुभन अपराजिता ।
जागरण करता हूँ जब होती मुदित काली निशा ।
काँधों पै मेरे बोझता अब बोझ जग भर का नहीं,
छोड़ ही मैंने रखा आसक्तियों का सिल्सिला ।।
स्वरचित-R.s.Dauneria
Bah-Agra (U.P.)
"""""""""""""""""
साथियो, है सालती मन में चुभन अपराजिता ।
जागरण करता हूँ जब होती मुदित काली निशा ।
काँधों पै मेरे बोझता अब बोझ जग भर का नहीं,
छोड़ ही मैंने रखा आसक्तियों का सिल्सिला ।।
स्वरचित-R.s.Dauneria
Bah-Agra (U.P.)
हाइकु निशा
1
बनी बैरन
सौतन बनी निशा
प्रीत तरसे
2
निशा का दर्द
अमावस समझे
चाँद तरसे
3
निशा निगोड़ी
बहुत तरसाये
नेह बरसे
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
1
बनी बैरन
सौतन बनी निशा
प्रीत तरसे
2
निशा का दर्द
अमावस समझे
चाँद तरसे
3
निशा निगोड़ी
बहुत तरसाये
नेह बरसे
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
निशा दिवा की बात निराली
आते दोनों बारी बारी
दोनों है श्रृष्टि के चक्र
चलते यह अनवरत
हो गर बीमार
तो निशा करती परेशान
करें कोई न ऐसा काम
होना पड़े हमें बीमार
पूस की रात खूब सताये
गरीबों को रह रह डराये
नही करे काम कोई ऐसा
छुपा न पाये दिवा मे वैसा
जैसे आते दिवा और निशा
वैसे आते सुख दुखः जीवन में
जैसे हम दिवा निशा को अपनाते
फिर हम दुखः से क्यों घबराते?
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
आते दोनों बारी बारी
दोनों है श्रृष्टि के चक्र
चलते यह अनवरत
हो गर बीमार
तो निशा करती परेशान
करें कोई न ऐसा काम
होना पड़े हमें बीमार
पूस की रात खूब सताये
गरीबों को रह रह डराये
नही करे काम कोई ऐसा
छुपा न पाये दिवा मे वैसा
जैसे आते दिवा और निशा
वैसे आते सुख दुखः जीवन में
जैसे हम दिवा निशा को अपनाते
फिर हम दुखः से क्यों घबराते?
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
विधा:-छंद मुक्त कविता
संध्या सूरज को संग लिये
चल दीफिर अस्ताचल को ।
दरवाजे पर रथ रोक दिया
निशा खड़ी थाल लेआरती ।
सूरज फिर रूप बदल आया
अंधियारे को संग में लाया
जगमग तारे चूनर बनकर
रजनी ने ओढ़ लिये लाकर
यौवन की मधुरस गागरी
मधुशाला बनकर सांवरी
सूरज को पिला रही हाला
भरभर कर मधु की हाला
मदहोश हुआ सूरज पीकर
बन गया निशा का मतवाला ।
स्वरचित :-उषासक्सेना
संध्या सूरज को संग लिये
चल दीफिर अस्ताचल को ।
दरवाजे पर रथ रोक दिया
निशा खड़ी थाल लेआरती ।
सूरज फिर रूप बदल आया
अंधियारे को संग में लाया
जगमग तारे चूनर बनकर
रजनी ने ओढ़ लिये लाकर
यौवन की मधुरस गागरी
मधुशाला बनकर सांवरी
सूरज को पिला रही हाला
भरभर कर मधु की हाला
मदहोश हुआ सूरज पीकर
बन गया निशा का मतवाला ।
स्वरचित :-उषासक्सेना
विषय -निशा
हाइकु
१
निशा घिरी
जगमग आकाश
तारा मंडल
२
अंधेरा छाया
आगमन निशा का
दीपक जला
३
बेला निशा की
कवि मन हर्षित
रचना रची
(अशोक राय वत्स)स्वरचित
जयपुर
हाइकु
१
निशा घिरी
जगमग आकाश
तारा मंडल
२
अंधेरा छाया
आगमन निशा का
दीपक जला
३
बेला निशा की
कवि मन हर्षित
रचना रची
(अशोक राय वत्स)स्वरचित
जयपुर
चाँद रात भर चलता रहा
निशा को हिम्मत दिलाता रहा
साथ हूँ तेरे
अकेला न समझ मेरे साथी
निशा ने इन्सान से कहा
मैं बनाई ही गयी हूँ इसलिए
अगले दिन नयी ऊर्जा नयी उमंग से
तू फिर फतह कर किले को
निशा हर गम को दिल के
आले में जगह दे देती है
तभी तो
गमगीन दिल आंसू भी अपने में
छिपा लेता है
अब क्या बयां करूँ
ऐ निशा तेरे हाल ऐ दर्द
रात के गुनाह देख कर
तू झटपटा तो जाती है
पर आदत से मजबूर
अंधेरे को अंधेरा
ही रहने देती
किसी की आबरू की खातिर
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
निशा को हिम्मत दिलाता रहा
साथ हूँ तेरे
अकेला न समझ मेरे साथी
निशा ने इन्सान से कहा
मैं बनाई ही गयी हूँ इसलिए
अगले दिन नयी ऊर्जा नयी उमंग से
तू फिर फतह कर किले को
निशा हर गम को दिल के
आले में जगह दे देती है
तभी तो
गमगीन दिल आंसू भी अपने में
छिपा लेता है
अब क्या बयां करूँ
ऐ निशा तेरे हाल ऐ दर्द
रात के गुनाह देख कर
तू झटपटा तो जाती है
पर आदत से मजबूर
अंधेरे को अंधेरा
ही रहने देती
किसी की आबरू की खातिर
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
ये कैसी निशा?
जिसकी सुबह नहीं!
बनी दुख की प्रतीक,
था घना अंधकार,
बेबसी और तन्हाई
वैधव्य से पाई
पिय का वियोग
दुख से संयोग
हर ओर अंधेरा
अमावसी निशा
छिपा उसका चंद्रमा
भविष्य में कालिमा
सदा के लिए आई।
छिनी बूढ़ी आंखों की ज्योति
खोया हृदय का मोती
आंखों में अंधेरा
निशा ने सदा के लिए घेरा
क्या ,आएगा कभी सवेरा?
अभिलाषा चौहान
विषय-निशा
१
निशा की बाँहें
मिटाती हैं थकान
मीठे सपने
२
बिटिया रानी
निशा का इंतजार
बाँहों का झूला
३
निशा के फूल
हृदय महकाते
साजन संग
स्वरचित-रेखा रविदत्त
18/12/18
१
निशा की बाँहें
मिटाती हैं थकान
मीठे सपने
२
बिटिया रानी
निशा का इंतजार
बाँहों का झूला
३
निशा के फूल
हृदय महकाते
साजन संग
स्वरचित-रेखा रविदत्त
18/12/18
जब भी आती है निशा,
चांद को गले लगाकर,
करती हुई अठखेलियां।
मन जाने कैसा कैसा हो जाये,
क्या करूं कुछ समझ न आए।
जब भी आती है निशा,
संग लिए यादों का कारवां,
मृदुल मौन मुख पर छा जाता,
दृगों से झडती अश्कों की लड़ियां।
जब भी आती है निशा,
एक एक लम्हा युगों सा लगता,
नींद से दुश्मनी कर लेती अंखियां।
बस यही सोचती रहती रातभर
कैसे भी हो कट जाए ये रतिया।
निलम अग्रवाला, खड़कपुर
चांद को गले लगाकर,
करती हुई अठखेलियां।
मन जाने कैसा कैसा हो जाये,
क्या करूं कुछ समझ न आए।
जब भी आती है निशा,
संग लिए यादों का कारवां,
मृदुल मौन मुख पर छा जाता,
दृगों से झडती अश्कों की लड़ियां।
जब भी आती है निशा,
एक एक लम्हा युगों सा लगता,
नींद से दुश्मनी कर लेती अंखियां।
बस यही सोचती रहती रातभर
कैसे भी हो कट जाए ये रतिया।
निलम अग्रवाला, खड़कपुर
निशा....
तुम मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा हो....
इंतज़ार की लम्बी रात हो....
घुटती साँसों की धड़कनों में....
डूबती...तैरती सी आहट हो...
मेरे कांपते हाथों में....
एक दूसरे को संभालती...
उँगलियों की बदहवासी....
जिन्होंने जितनी बार तेरा नाम लिखा....
अपने होश खो दिए....
पलकें इंतज़ार करते करते....
इतनी बोझिल हो गयी हैं...
कि जलने लगी हैं....
अंगारों सी...
निशा आती है तो यह बंद नहीं होतीं...
डरती हैं....
कहीं तुम सपनों में आओ...
और तेरा दामन जल जाए...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१८.१२.२०१८
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