Friday, December 7

"साया "3 दिसम्बर 2018


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जब घेरे मुझको मोह-माया,
साथ छोड़े अपना ही साया,
तब श्री हरि चरणों में जाकर,
मैंने अपना शीश नवाया |

जब अपना लगे पराया,
पीछा करे डर का साया,
तब जाकर माँ के आँचल में,
मैंने ओढ़ी ममता की छाया |

जब जीवन में संघर्ष आया,
मन मेरा बहुत घबराया,
तब पिता का साथ था साया,
आशीष उनका मैनें पाया |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*



कोई शजर नही था न ही कोई साया
कड़ी धूप थी मेहनत को गले लगाया ।।

खजूर के पेड़ तो जरूर थे बेशक
पर उनसे क्या कोई कुछ पाया ।।

बदनसीबी बदहाली बेरूखी ये वो 
शै जिसने इंसान को इंसान बनाया ।।

कोई टूट गया है तो कोई नही टूटा 
जो न टूटा उसने बड़ा साया पाया ।।

न रो ये गमे दिल मुश्किलों में यहाँ
कोई विरला ही इनमें मुस्कुराया ।।

कोई साया यहाँ कब तक साथ देता 
मुश्किलों ने उस साया से मिलवाया ।।

जिसकी छाया कभी खत्म न होती
उस सुकून का अहसास आजमाया ।।

अमीर कोई नही है यहाँ ''शिवम"
सबने ही अमीरी का ढोंग रचाया ।।

मत भूल कभी परमात्मा का साया
वो ही सबको देता सुकून और छाया ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"





1
कर जतन
थक हारे
भरी दुपहरी
हाथ न आया
मेरा साया।
2
कद को बेहद
करने की
तमाम उम्र
जद्दोजहद
कुछ काम न आया
पल-पल
सिमटता ही गया
मेरा साया।
3
बटोर कर माया
खूब इतराया
ढली शाम
तो
संग छोड़ गया
मेरा साया।
4
गोरी के गाँव मे
पीपल की छाँव में
बैठे थे हम-
मैं और मेरे गम
फिर भी
मन मुस्काया
भीनीं-सी महक लिए
गुजरी यादें
बन हमसाया।
-©नवल किशोर सिंह




यादों के जंगल में, 
अतीत के साये!!
लिपट जाते हैं, 
सूखे तिनकों की तरह।
लाख चाह कर भी,
नहीं निकल पाते ,
इस भूल-भुलैया से..।
मन बढ़ता दो कदम आगे,
लौटता चार कदम पीछे..!
लिपटा उन्हीं सायों से ।
जिसमें वर्तमान अक्सर..
ठिठक जाता मेहमान की तरह।
थम जाता है प्रवाह,
उन्नति का...!
हम बने मूक दर्शक!!
उलझे रहते हैं,
सत्य की तलाश में..।
यह सत्य जो हमेशा,
चलता साये की तरह साथ,
कि, जीवन और मृत्यु में,
बस है शरीर का फासला ..
शरीर साया है आत्मा का,
चलता है तभी तक साथ,
जब तक है आत्मा को मंजूर !!

अभिलाषा चौहान





चलते हुए जब राह में साया न पाएगा।
यह आखिरी बिरवा उसे फिर याद आएगा।
रुख़्शत से उसकी आज यूँ घबरा रहा है दिल,
वह दूर जा रहा है मुझे भूल जाएगा।।
स्वरचित-मैं(अ़क्स)






जीवन है वही जिनपे है,माँ-बाप का साया
जिनके रहे कभी भी , बुरा वक्त न आया
तू लाख हो फौलाद ,जमाने से संभालना 
माँ -बाप के जैसा न , कोई ढ़ाल बन पाया।

~प्रभात




साया कहूँ या दर्पण कहूँ
जैसा हूँ वैसा ही दिखाया तूने
सुख दुख में ना भेद किया
हरपल साथ निभाया तूने

रंगों का कोई मोह नहीं
स्याह रंग अपनाया तूने
कभी कद से बड़ा कभी छोटा
हर रूप अपनाया तूने
हर पल साथ निभाया तूने

जीवन के हर मोड़ पर
जीने का एहसास कराया तूने
जैसा करता मैं वैसा ही किया तूने
बचपन में खेल बहुत खिलाए तूने
हर पल साथ निभाया तूने

बनकर हमसाया सदा 
साथ निभाया तूने
मतलब की इस दुनिया में
निस्वार्थ भाव सिखाया तूने
हर पल साथ निभाया तूने

अपनों नें साथ छोड़ा भले ही
मुंह मोड़ा कभी ना तूने
आज भले ही जग छोड़ दिया मैंने
अंतिम चिता तक भी साथ दिया तूने
हर पल साथ निभाया तूने

स्वरचित :- मुकेश राठौड़





कन्या के जन्म लेते ही पिता, ऐसा पिता बन जाता है।
पल पल बढ़ते उसके रूपों संग, उसका साया बन जाता है ।

अपनी तनया को गोदी लेते ही , वो मां जैसा बन जाता है,
अपने सीने से लगा प्यार से, थपकाकर उसे सुलाता है।

उसके रोने, उसकी सिसकी पर, जब वो लोरी बन जाता है,
पलको की कोरो पर अश्को के मोती, बीन बीन कर लाता है।

नन्हें नन्हे उसके कदमों संग, हरपल वो बच्चा बन जाता हैं,
अपनी बेटी की तुतलाती बोली में अपना बचपन जी जाता है।

तितली सी खिलती तनूजा का, फिर ऐसा साथी बन जाता है,
उसकी मुस्कान, हंसी खुशी के लिये, कैसे यारीयां निभाता है।

स्वप्न सजाती वैदेही के लिये जब वो जनक बन जाता है,
अपने अनुभव और सामथ्र्य से बेहतर का, राम ढूंढकर लाता है।

ससुराल विदा होती आत्मजा का, जब वो बाबुल बन जाता है,
अपने अंश वंश को भीगे नयनों संग,कैसे डोली में बैठाता है ?

आंगन में उङती फिरती चिङिया का, जब सूनापन छा जाता है,
अपनी उम्र उसे लगा,जीवन को हार, मन्नतें मांगता रह जाता है।

----- डा.निशा माथुर--




अपने मन को सजा कर रखिए
नित नई धुन ताल पर
क्योंकि मन में थिरकती रहती
असंख्यासंख्य रश्मियां
जो जोड़ती हमें
स्थूल से सूक्ष्म शरीर की ओर
मन के विस्तृत आकाश में
अंकित हो जाता ध्यान से सुना
हर एक चमत्कृत शब्द
वही झंकृत सुरभित वाणियां
ही तो हमारे संस्कार में बदल जाती
उन्हीं संस्कारों​ के महाकाश
तले हमारा#साया
अदृश्य साया
हमारी देहाकृति के
साथ साथ चलता
और तल्ख पीड़ाओं में,
घुट रही संवेदनाओं​में
हमें संभाले रखता
खण्ड खण्ड बिखरने
से बचाये रखता
जिसे कोई ईश्वर कहता
कोई खुदा
कोई वाहेगुरु तो
कोई जीसस

चंचल पाहुजा



ईश्वर के हम सब साया हैं
सबकी अपनी निज काया है
ब्रह्म एक है मार्ग अलग हैं
यही तो जग अद्भुत माया है
प्रकाश पुंज जगत एक है
सचराचर उस के अंश हैं
धर्म वर्ण निर्माता स्वयं हम
फिर भी भिन्न भिन्न वंश हैं
जल थल अंतरिक्ष निर्माता
सबको नाच नचाता वह् है
कठपुतली से नाच रहे सब
पालनहारा जग का वह् है
जन्म मरण का वह् नियन्ता
सब हमतो बस साया हैं
जो मिला है इस जगति में
उसी कृपा फल पाया है
अंहकारित घूम रहे सब
अमर नहीं हो पाया है
सत्य असत्य को तो समझो
इसीलिये ब्रह्म साया हैं।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम




जब तक जीवन
चलता जाए
साया साथ न छोड़ें
जाने कितने रूप रंग में
जीवन में रंग जोड़े
पैदा होते ही मिला मुझे
माँ के आंचल का साया
लाड़ प्यार से जिसने
मेरा जीवन है चमकाया
धीरे-धीरे बढ़े हुए तो
पिता बने फिर साया
जीवन की हर 
धूप-छांव में मुझको
चलना सिखाया
फिर मिला मुझे जीवन में
साया हमसफर का
बड़ा सुहाना बना दिया
सफर उसने जीवन का
खुद का साया
साथ तभी तक
जब तक यह जीवन है
साया रूठा जीवन टूटा
साया का भी जीवन है
***अनुराधा चौहान***




जीवन के सफर में
हरपल साथ रहता
माता-पिता का साया
भटक गई जो राह कभी
पथ दिखाता बनकर
* ध्रुव तारा*

रात का सन्नाटा था
खयालों में खोई थी
मन के झरोखे से
अक्स एक उभर आया था

ले रही अँगडाई थी
देख उसे मैं घबराई थी
दहशत से आँखें बंद हुई
कानों ने कुछ बात सुनी

मुझमें समाया मेरा साया था
उसमें दिखा मेरा चेहरा था
ना जाने क्यूँ मुझसे रुठा था
रुह से आज वह टूटा था

मान अभिमान की बातें हुईं
खुद की ना कोई पहचान बनी
दुनिया की रीत में खोई रही
पहचान अपनी ही भूल गई
स्वरचित पूर्णिमा साह 




अनजान साया कोई
पीछा करता है मेरा
क्यों चाहत है 
उसे मुझसे
मैं समझ नही पाती
पीड़ा में 
मरहम बन जाता 
घावों को 
मेरे सहलाता
खुशियों में मुस्कान बना वो
दुख में आँसू भी 
पी जाता 
हंसता और हँसाता मुझको
बातें करता 
दिल बहलाता
दूर कहीं जब जाती तन्हा
राहों का साथी बन जाता
उसकी आदत सी
हो गई मुझे अब
कोई और नही वो
शायद मेरी आत्मा ही
वह साया है
जो हमदम भी है
हमकदम भी
किसी पल 
महसूस न हो अगर
पुकारती हूँ उसी
तन्हाई के साथी
साये को
तत्क्षण
हिम्मत देता है मुझे
आकर लिपट जाता है
मुझसे मेरा साया

सरिता गर्ग




साया बन तुम साथ मे रहना
जब सताये दुखः की छाया
जब मैं भटकूँ राह से अपनी
प्रभु हमें तुम राह दिखाना

जब अपने सब साथ छोड़ जाये
अपना साया भी नजर न आये
तब तुम देना साथ मेरे
यही है प्रभु अरदास मेरे

कोई ऐसा काम न करूँ
जब डराये अपना ही साया
करूँ हमेशा काम मैं ऐसा
नही सताये कोई साया

जब तक रहूँ इस धरती पर
काम करूँ कुछ ऐसा सुन्दर
पूरी दुनिया मुझसे बोले
मुझपे पड़े तुम्हारा साया।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।




हर कदम पे जिसका साथ पाया है
कोई और नहीं है वो मेरा साया है
मैं मुश्किलों से डरूँ भी तो क्यों
मेरे सर पर माँ बाप का साया है
जब अंधेरों ने मुझे सोने न दिया
माँ ने उठकर चिराग जलाया है
कभी भटका जो मैं अपनी राहों से
माँ बाप ने ही रास्ता दिखाया है
वफा के नाम पर मिटते हैं सभी
मगर वफा के काम कौन आया है
वो ही आज गैर हैं जमाने में
जिसने हमको लहू पिलाया है




किसी ना किसी आकार में
अतीत लौटकर आया है
स्वयं को उसने दोहराया है
त्रेता युग का था रावण व्याभिचारी
पुरुषोत्तम के हाथों मृत्यु भी पाई
रावण तो मरा पर उसकी परछाईं 
कलयुग में सर्वत्र पड़ रही दिखलाई
बुराई प्रतीक वह करता भयभीत
अवरुद्ध विकास हो रहा मनुज आहत
चोरी , हिंसा, लूटपाट , बलात्कार
अपहरण,हत्या ,आंतकवाद,भ्रष्टाचार
रावण रूप का भयावह साया 
व्याप्त बुराइयों में है समाया
समाज में कितना क़हर बरपाया 
पंगु हो रही मनुष्यता 
जीवन मूल्यों का मान घटाया
राव ण जलाते हम हर बार 
साया उसका फिर भी बरक़रार
हे दशरथपुत्र!तुम फिर धरो अवतार
घायल आत्माएँ लगा रही गुहार ।
स्वरचित
संतोष कुमारी




दुख की छाया जब पड़ी,
रूखा बना संसार,
कर महसुस तेरा साया
ढूँढ़ू तेरा प्यार,
इस तन्हाई में साजन
यादें तेरी सहारा है
करके याद उन लम्हों को
जीवन में उजियारा है,
साया तेरे प्यार का,
पग पग देता हौंसला
रखूँ संभालकर साजन
प्रेम का अपना ये घोंसला।

स्वरचित-रेखा रविदत्त



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