Thursday, December 27

"धरती "27दिसम्बर 2018

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सदियों से सब कुछ सहती हूँ
पर मुख से कुछ न कहती हूँ
ये दुनियां वाले क्या जाने
मैं हर पल रोती रहती हूँ

स्वार्थ भरी इस दुनियां में
कौन सुने फरियाद मेरी
किससे कहूँ मैं अब जाकर
कि है दुनियां बर्बाद मेरी
फिर भी अपने आँचल में
मैं सारी दुनियां रखती हूँ

अपने लहू से सींच के मैंने
इस गुलशन को खिलाया है
जाने कैसी किस्मत मेरी
सबने मुझे रूलाया है
टूट चुकी हूँ अंदर से मैं
ऊपर से हँसती रहती हूँ

भले बुरे हर इन्सा को मैं
सीने से लगाकर रखती हूँ
पर मां कहकर भूल गए सब
मैं ऐसी माता धरती हूँ
सकल धरा है लोक सुहावन।
फिर क्यूं कुठार लिऐ फिरते हो।
इतना तो पशु भी नही.करते।

इतना क्यूं उन्मादित रहते हो।
गजराज जहां रहता वनमें।
क्या वहां वन वृक्ष नही होता।
होते खुब वृक्ष.वहां वृक्षादित्।
हर कदम गजराज का क्षुप बचाता।
मानव फिर भी कुटिल कुठार लिऐ।
अब जागो कब जागो के।
पालिथीन को कब बंद करोगे।
मिट्टी कपडे का उपयोग अब।
हम सबको नित करना है।
धरती मां के प्राण के खातिर।
हम सब को जागरूक होना है।
न खरपतवार नाशी डालना।
न अब कतई जीवनाशी।
अब जागरूक होना है।
और जागरूक करना है।
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
स्वरचितः
राजेन्द्र कुमार अमरा

विधा.. लघु कविता 
********************
🍁
हृदयस्थली चटक रही है,
सूख रही धरती से।
कब आकर बरसोगे मुझपर,
सावन की बदली से॥
🍁
नैन निहारे द्वार कभी तो,
राह है देखे उठकर।
कभी मुडेर तो कभी मै छत से,
रस्ता देखू हरदम॥
🍁
सावन- भादों बीत गये सब,
ठंड ने दे दी दस्तक।
बिन तुमरे अब रहा ना जाए,
पीडत है मोरा मस्तक॥
🍁
गये प्रिया परदेश सुहानी,
रातें काटे हरदम।
भावों के मोती भी झलके,
शेर ना आए अबतक॥
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf

कौन भला भुला सकता है धरती माँ का प्यार
भाँति भाँति के फल फसल दे करती है सत्कार ।।

कहीं उगाये फल मेवा कहीं अनाज से भरे भंडार 
कोई न जीव भूखा रह पाये सबका करे विचार ।।

गर कोई बीमार पड़े तो बूटीं भी हैं अपार 
धूप से न मुरझाये कोई है पेड़ों की कतार ।।

कौन खरा है कौन है खोटा सबके प्रति दुलार
अजगर हो या बन्दर सबको दिये हैं आहार ।।

पेट चीर शीतल जल देती कर मानव स्वीकार
क्यों आखिर भूला ''शिवम" धरती माँ का प्यार ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"


कल जो उगलती थी सोना।
वही आज बंजर पड़ी है।
किसानों की देखो हालत।
जिंदगी उनकी उजड़ी है।

धरती में अन्न ना उपजे।
कैसी विपदा आन पड़ी है।
बच्चे भूखे बिलख रहे हैं।
माँ की हालत बिगड़ी है।
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
जिस धरा पर जन्मे प्रभु राम कृष्ण अवतार हैं। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।

लोक पर उपकार में आतिथ्य और सत्कार में। 
प्राणों को अर्पित किया ऋषियों ने भी बलिहार में। 
शूर- वीरो की गाथाओं के भी जहाँ अम्बार है। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।
जिस धरा पर जन्मे प्रभु राम कृष्ण अवतार हैं। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।

गौतम और नानक है देते प्रेम का सन्देश है। 
शश्य- श्यामल इस धरा का भक्ति भाव वेश है।
किंचित डिगे न मन कभी यही भान हर बार है। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।
जिस धरा पर जन्मे प्रभु राम कृष्ण अवतार हैं। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।

करूणा दया का भाव हो शान्त शीतल छांव हो। 
धर्म, सेवा, कर्म, निष्ठा से सुशोभित हर गांव हो। 
ऐसा ही पावन सदा पावनी गंगा मां का धार हैं। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।
जिस धरा पर जन्मे प्रभु राम कृष्ण अवतार हैं। 
शत शत नमन हे पुण्य भूमि कोटिषः नमस्कार है।

विपिन सोहल

हाइकु
*****
*
रूप हजार
फलक वसुंधरा
सृजन हार
*
कृषि उत्पाद्य
वसुंधरा प्रणम्य
कृषक धन्य
*
शोक प्रस्तुति
धरती प्रस्तर सी
चोट सहती
*
वसुधा सजी
सुमन महोत्सव
डोले बसंत
*
रंजना सिन्हा सैराहा.


(1)
आया बसंत
सरसों के गहने
धरा पहने

(2)
दिन जो ढला
छोड़ धरती उड़ी
धूप की चिड़ी

(3)
अंकुर पला
पा धरती का प्यार
दरख़्त बना

विधा=हाइकु 
~~~~~~~~~
~~~~~~~~~

(1)धरती चीर
मनु निकाले नीर
रखे ना धीर

(2)धरती पास 
अनमोल खजाना 
चाहे जमाना

(3)धरती कोख 
समाई माता सीता 
दे के परिक्षा

(4)पालनहार
जाती भेद ना जाने 
धरती माता 

(5)होती क्रोधित 
जब माता धरती
आता भूकंप 
=============
🌹स्वरचित 🌹
मुकेश भद्रावले 
हरदा मध्यप्रदेश 

धरती ( शब्द लेखन )
िधा:- छंद मुक्त,अतुकांत

जब-
भीतर की धरती फटती है
अंदर-ही-अंदर
एक कोने से दूसरे तक
फटती चली जाती है
भीतर की दरार
चुपचाप
फाड़कर बिखेर देती है
पक्के आशियाने 
ढह जाते हैं नीचे नींव से
चुपचाप ।

क्योंकि-
भीतर की धरती
बाहर नहीं दिखती ,नींव में दबी
केवल दिखते हैं
पुराने खंडहरों के अवशेष
उथली जमीन पर
और
मुंह वा देते हैं
गगनचुम्बी महल
क्रांति की
छोटी फटान से ।

( मेरे कविता संग्रह की कविता " भीतर की धरती " )
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना (म.प्र.)
धरती में रति है
जीवन का आनंद है।
धरती हमारी माता है
सुख-शांति प्रदाता है।
माँ के मस्तक पर है हिम का ताज 
जिसका चरण पखारता है सागर ।
जिसके वक्षस्थल पर है रत्नों की खान 
पोषण के लिए है फसल उगाता किसान।
हरियाली और फूलों से आच्छादित है माँ
जिसकी रक्षा के लिए ढेरो सैनिक हैं तैयार।
माँ! तुम देवी हो, शक्ति हो,पालनहार हो
तुम्हारे चरणों में शत-शत नमन!

" धरती "

धरती तो है सबकी माँ हमारा पालन पोषण करती

भोजन आवास पानी शुद्ध हवा का भी प्रबंध करती

पर क्या हम सब आपने अपने दायित्व उसके प्रति निभाते हैं

क्या सही मायने में हम उसके योग्य पुत्र बन पाते हैं

हमारी गंदी आदतें लोभ और लिप्सा के वशीभूत होकर

क्या हम माँ धरती पर अज़ब अज़ब गज़ब ज़ुल्म ढाते हैं 

गंदी नदी नाले..नंगी पहाड़ियाँ प्रदूषित वायु का प्रबंध करके

क्या हम धरती पुत्र होने का रोल सही मायनों में निभाते हैं..??

(स्वरचित)

अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव

विधा - छंद मुक्त

सुंदर धरा
ईश्वर नियन्ता
नदियाँ पर्वत सागर झरने
फूल पौधे घने जंगल
इसी धरा पर
पशु - पक्षी और इंसान
उनमें बसी आत्मा
जन्म और मृत्यु
चाँद तारे और आकाश
एक ही धरती पर
फिर क्यों बाँटा इसां ने
धरती को
विभिन्न देशों में
क्यों बंटवारा किया
सागर और नदियों का
क्यों खींचीं सीमा रेखायें
जाति पाँति का भेद
धर्म का बंधन
क्यों बने प्रांत
क्यों किये टुकड़े पृथ्वी के
जो माँ है हमारी
क्यों प्रदूषित है
आज हवा पानी और
सम्पूर्ण प्रकृति
जागो
सचेत हो जाओ
रक्षा करो
इस खूबसूरत धरा की
एक हो जाओ और
बनो सच्चे सपूत
इस धरा के

सरिता गर्ग
(स्व - रचित)

************
धरती को कहते हम माता, 
हर कोई इसकी संतान कहलाता, 
पर दिल पर हाथ रख कर सोचो, 
क्या माँ को हमारा सुख मिल पाता |

धरती ने हमको जीवन दिया
अन्न, हवा दी और जल दिया, 
रहने का ठिकाना दिया, 
हमसे उसने क्या लिया? 

अाज इंसान हो गया मतलबी, 
कर रहा माँ धरती को दूषित, 
पर वो शायद ये भूल गया कि, 
इससे तो उसकी बर्बादी निश्चित |

मैला कर रहे धरती का आँचल,
धन के पीछे सब हो रहे पागल, 
काट दिये जंगल के जंगल फिर, 
सोच रहे क्यों हो रहा अमंगल |

मानव का इतिहास यहाँ है, 
वीरों की गथाएं सुनी यहाँ है, 
धरा को मिलना चाहिए सम्मान, 
तभी कहलायेंगें हम सच्ची संतान|

मानव तुम्हें जागरूक होना होगा, 
हरियाली है धरती माँ का गहना, 
मत करो तुम इसको खराब वरना, 
धरती माता का लगेगा श्रॉप |

क्यों घोल रहे जहर तुम जल में, 
कूड़ा-करकट फैला रहे यूँ थल में, 
हवा में जहरीली गैंसे हैं शामिल, 
कितनी कर रहें तुम मनमानी |

हे मानव! भूल अपनी स्वीकारो,
धरती का अस्तित्व बचा लो,
जीवन मिलता सिर्फ यहाँ, 
और फिर जाओगे सब कहाँ |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*
"धरती"
लघु कविता

मैं धरती जगत जननी
है सृष्टि मुझसे
सीने में अपने
भार सहती

मैं धरती जगत जननी
धुरी में नाचती
रिश्तों का संतुलन
कभी ना खोती

मैं धरती जगत जननी
दिन और रात
हूँ गतिमान
समय का मोल
बड़ा अनमोल
बखूबी समझती

मैं धरती जगत जननी
आकर्षण है मुझमें
सूर्य की किरणों से
हूँ उर्जावान

मैं धरती जगत जननी
गर्भ में मेरी
है रत्नों की खान
परिधि में समृद्धि
मैं धरती जगत जननी

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

इस दुखद सत्य पर धरती माँ रो रही,
किस्मत को अपने बरबस कोस रही।
इसी धरा पर देखे थे जो उसने,

खूब मनते हुए वार-त्यौहार।
उसी धरा पर देख रही माँ ,
करते पार्टी और सेलिब्रेशन।
लड्डू,खीर,हलवे की जगह,
ले ली भाई केक और कॉकटेल ने।
स्नेह, प्यार न जाने सब कहाँ खो गए।
अपनत्व से लोग कोसों दूर हो गए।
अपने सपूतों को देख रंग बदलते हुए,
धरती माँ ,निरंतर नीर बहा रही.....
@सारिका विजयवर्गीय"वीणा"

धरा तुझे क्या कहूँ
है गोद तेरी विशाल, 
सबको समान सींचती-पालती
दूँ मैं तुझे क्या मिसाल। 

तुझसे लिपटकर मैंने
सुख-दुख साझा किया, 
भूख लगी तो तेरे ही
सीने से अमृत पान किया। 

जन्मी नही तेरी कोख से
पर तुने ही पोषित किया, 
नानी-माँ और बेटी
कितनी पीढ़ी गुजर गया

इस धरती पर मैं जन्मी
पर है मुझे मलाल, 
समा जाऊँगी इसी धरा में
आएगा जब वह काल। 

माँ सुला लेना तुम
गोद में अपने
थपथपाना करना दुलार, 
समाकर तुझमें मैं भी
बन जाऊँ तुझसा
भगवन मिले मुझे ऐसा उपहार। 

स्वरचित: - मुन्नी कामत।

धरती
िरामिड
1
हो
वेद
पुराण
श्रेष्ठ ज्ञान
गीता महान
खेत-खलिहान
धरती में समृद्धि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक


नहीं दानी कोई धरती के जैसा बनी इसीलिऐ धरती माता , 

पर उपकार की यह देती शिक्षा रखती नहीं है कोई भी अपेक्षा |

दे कर वनस्पतियों का खजाना जीवन को है सुगम बनाया ,

उर अंर्त बहती जल की धारा सिंचित होता प्राण हमारा |

खनिजों का भंडार लुटाकर दुनियाँ को समृद्ध बनाया, 

रत्नों की खान बनी यह हमें इसने ही श्रृंगार सिखाया |

जन्म दिया इसने माटी से फिरआखिर में गोद में सुलाया, 

ऋण नहीं कभी चुकता इसका हमने फिर भी बिसराया |

बाँट लिया इसको टुकड़ों में अलग अलग है नाम धराया ,

खून खराबा किया हमेशा हमनें मानवता को झुठलाया |

जो पालन पोषण अपना करती देती है ममता की छाया ,

शीश झुकायें नमन करें हम बनता यही है कर्तव्य हमारा |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
जगत जननी
जगत पालनी है
धरती
असीम कष्ट 
असीम संकट
झेल कर भी 
पालती है धरती
धरती के बिना
शून्य है 
मानव का अस्तित्व 

भटक गया है इन्सान 
स्वार्थी हो गया है इन्सान 
धरती के जिस संतुलन को
बनाया था प्राकृति ने
उसे विध्वंस कर रहा है इन्सान 

जंगल काट रहा
नदी तालाब प्रदुषित कर रहा
कांक्रीट से सजा रहा 
धरती को

पशु पक्षी पेड पौधे 
दे रहे है अभिशाप इंसान को

तभी तो बाढ सुनामी सूखे अकाल
का है तान्डव पूरी धरती पर

समय रहते जागरूक हो इंसान 
धरती का करे मान सम्मान 
धरती माँ का करे उद्घोष 
और संरक्षण का 
हम करे संकल्प 

स्वलिखित 
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
हरे चुनर का अंधाधुंध चीरहरण
सिसक रहा धरती का कण कण
प्रकृति संग अन्याय,धरा विकल
प्रगति का पर्याय धुए का बादल
घुटे दम,साँसो को न मिले हवा
आहार की स्थानापन्न बनी दवा
युगों से धारित सृष्टि को संकट
आत्महंता बने,निज नाश निकट
कई जीव हुये अस्तित्व विहीन
कुछ संघर्षरत बनकर बल क्षीण
क्रोधित सूर्य,वर्धित है नित अंगार
दिन दूर नहीं सकल धरा हो क्षार
सब मिल फिर मोहन बन जाओ
बिलखती वसुधा का प्राण बचाओ
संकल्पित हो धरा का सर्व-सिंगार
शस्य-श्यामला का पुनः मंत्रोच्चार
पर्यावरण-संरक्षण सहर्ष,सदय हो
धारित्रि,धरती-माता की जय हो
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


नमन करें हम धरती माता

तुझे सबजन शीश नवाऐं।
सबकुछ पाते हैं तुझसे माँ,
स्वर्ण अन्न बख्शीश पाऐं।

प्राणवायु मिलती प्राकृतिक,
गंगा सरिताऐ सुधा पिलाती ।
धरती माँ कितना कुछ देती,
यह हम सबको मुधा दिलाती।

हम धरती की संतान हैं माते,
पीयूषपान तेरी छाती से करते।
समझें नालायक स्वयं को जो,
नहीं अभिमान थाथी से रखते।

महावीर,महापुरुष महारथी जाया,
ये भारत की धरती है गौरवशाली।
शतशत नमन वंदन करते हैं माते,
जन्मे धरती पर जो है वैभवशाली।

जनमन मनोरंजन सब करते यहां, 
लेकिन तेरा ध्यान मान नहीं रखते।
तोडफोड संरचनाओं का कर हम,
सीना छेदकर सम्मान नहीं करते।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय

हम कहते हमारी माँ है धरती
यही तो सबका पेट है भरती
यही तो जीवन का आधार है
इस पर ही खडा़ सारा ही संसार है

यह अन्नपूर्णा सबको ही देती रहती
और न जाने हमारे कारण क्या क्या यह नहीं सहती
हिरोशिमा नागासाकी के बम भी इसने झेले हैं
इसको ही लेकर करते हम लोग झमेले हैं।

धरती हमारी है सदा से ही उर्वरा
युगों युगों से इसने खूब हमारा पेट भरा
इसने हमें पेड़ दिये ठण्डा जल दिया
पर हमने ही इससे छल किया
आज हम इसकी कोख तक उजाड़ते हैं
सारी वनस्पतियाँ ही बिगाड़ते हैं।

दुनियांभर के कैमिकल खाद डाल दिये
बडे़ बडे़ रुप लौकी फलों के निकाल दिये
सीमेंट कंकरीट के बना दिये बडे़ जंगल
प्रकृति के श्रंगार बिना कैसे होगा अब मंगल।

धैर्य भरा हो जिसके अंदर
वह है मेरी धरती मईया
पाप पुण्य का बोझ जो ढ़ोती
वह होती है धरती मईया

हरी भरी वृक्षों से जो सजती
वह होती है धरती मईया
सुन्दर नदियाँ जहाँ कल कल
बहती, वह होती है धरती मईया

छोटे बड़े है गिरी जहाँ पर
वह होती है धरती मईया
मुक्त हस्त जो प्यार लुटाये
वह है मेरी धरती मईया

एक से बढ़कर एक वीर पुत्रों को
जन्म देती है मेरी धरती मईया
दिन रात धुरी पर घुमती
समय बदलती धरती मईया

अनमोल हो तुम हमारी मईया
संकल्प लेते हैं हम धरती मईया
रक्षा करेंगे हम तुम्हारी मईया
तुम हो हमारी धरती मईया।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
धरती मां की आंखों से,
निरन्तर प्रेमाश्रु बह रहे हैं।
देख अपनी संतानों में वैमनस्य,

बारम्बार ये कहरहे हैं।
क्यूं भाई,भाई का दुश्मन है,
नहीं तुममें कोई हिन्दू मुस्लिम है।
तुम दोनों ही हो मेरी संतानें,
तुम दोनों ही हो मुझको प्यारे।
निलम अग्रवाला, खड़कपुर

धरती
धरती हमारी जननी, हमारी पालनहार
जीवन में भरती रंग रूप श्रृंगार

अन्न वस्त्र ,आहार -विहार 
सब कुछ देकर किया सरोबार 
बचपन में खेले , जवानी में घूमें 
इसके आगोश में ही जी भर के झूमें 
परंतु कितनी कृतज्ञता निभाते हैं हम ?
कितनी हरीतिमा बढ़ाते हैं हम ?
चुरा रहे हैं इसकी पवित्रता को दिनोदिन 
फैला रहे हैं इसमें जहर दिन प्रतिदिन
उसके श्रृंगार वृक्षों को काटकर वीरान कर रहे हैं
इसको उजाड़ कर स्वयं का वर्चस्व बढ़ा रहे हैं 
इसकी सहनशीलता की परीक्षा ले रहे हो 
नित नव चुनौतियाँ दे रहे हो इसे 
परंतु सोचो समझो और जानो ये तुम 
धरती से ही तुम्हारा अस्तित्व है मानो ये तुम 
अतः धरा को सजाओ , वृक्ष लगाओ
इसकी हरीतिमा बढ़ाओ ,स्वयं का अस्तित्व बचाओ


धरती की कहानी
क्या हुआ धरती माँ ???

कुछ नही बेटा...
फिर तेरी आंखों में आंसू कैसे?
बस ऐसे ही निकल आये बेटा...
फिर भी कुछ तो बात होगी।
चल ले फिर सुन बेटा...
हा.... माँ (ध्यान लगा मैं सुनने लगा)
आप लोग मुझे माँ कहते हो ना??
हा, माँ....कहते है
तो फिर क्यों वन काट रहे हो 
मेरे शरीर के अंगों को क्यो आपस मे बांट रहे हो.?
कई किसान तो पराली को जलाते है
मेरे सीने में आग लगाते है
ले सुन अब...कुछ लोग मुझ पर
कूड़ा करकट फेंकते है। 
जहा जी किया वहा फेंकते है।
ट्यूबेल लगाकर मेरा सीना छलनी करते है
इस तरह मुझे चोट पहुँचाते, 
लोग मनमानी करते है ।
अब तू बता क्या करूँ मैं ?
रोने के अलावा कुछ कर भी नही सकती।
ओह! माँ आँखो में नीर बह आया है
तेरी दुखदायी कहानी सुनकर
अपने आप को जगाया है
जितना होगा मैं करूँगा
माँ तेरी इस कहानी का
प्रसार जन जन तक मैं करूँगा।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा
स्वर्णिम किरणे जब धरती पर आई,
हरितीमा चारों ओर है छाई,
ओंस की बूँदें बनकर मोती,
आशा भरे सपने हैं संजोती,
पीली चादर ओढ़े जब धरती,
तब परिंदों की टोली है चहकती,
श्रम ये कृषक का रंग लाया,
धरती पर सोना लहराया,
जिस की खातिर पसीना बहाया,
मेहनत का फल उसने पाया,
पूज्नीय है तू धरती माता,
चिर कर सीना बनी अन्नदाता,
लहलहाते इस पर खेतखलिहान,
तुझ पर न्यौछावर हमारे प्राण,
खनिजों की है तू खान,
धरती माता है तू महान।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
27/12/18
वीरवार
धरती पर,
जीवन का संगीत

छुपा मानव।।१।

यह धरती,
मानव कर्मक्षेत्र,
कर्म ही गति,।

सारे प्राणियां,
धरती पर आते,
कर्म करने।।३

पेड़ ने कहा,
धरती सुन्दर है।
सब जीते हैं।।

मेघ देवता,
जब छा जाते,तब
पुलक उठी।।
विधा लघु कविता
जगत भार वहन जो करती
सहनशील बनकर जो रहती
सबकुछ देती वह् जगति को
इसीलिये जग कहाती धरती
जन्म मृत्यु पाते धरती पर
अद्भुत सुख पाते धरती पर
वनस्पति आगार धरती पर
स्वच्छ सुधा नीर धरती पर
जलनिधि उत्तुंग गिरिवर धारित
हिमाच्छादित नग नीर बहता है
अथाह खनिज आगार हैं अद्भुत
धन्य धन्य माँ,नित जग कहता है
शस्य श्यामला सुन्दर शौभित
कली कुसुम केसर की क्यारी
ममतामयी मनमोहक मुदिता
धरती छटा अंतरिक्ष मे न्यारी
जीवन धर्ता पालन करता
जीव जंतु उदर को भरता
सुधा नीर बहे धरती पर
जन जन की माँ पीड़ा हरता
जीवन के सारे सुख दाता
ऐसा क्या जो नहीं दिया है
अपने सुपुत्रों के खातिर माँ
तेने सदा गरल ही पिया है
तेरे पूत कपूत हैं माता
प्रदूषित किया है तुमको
कैसे नयन मिला सकते हैं
शर्म आ रही है माँ हमको।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्
कोटा,राजस्थान।

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