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ब्लॉग संख्या :-243
"अरे !कमला सुन।"
तुम्हारे मोहल्ले में कोई झाड़ -फूँक करने वाला है क्या?
हाँ है न ,मैडम जी।का हुआ ?
क्या बताऊंँ कमला,कल से मेरा बेटा खाना ही नहीं खा रहा।
"एक बुढ़िया क्या आईं कल माँगने ।" मेरे बेटे की भूख भी साथ ले गई।"नजर लग गई उस कलमुँही की।"
क्या !कमला तुरंत बोली
"हम गरीबों को नहीं मिलती ऐसे बुढ़िया"..
क्या बोल रही है कमला!
हाँ मैडम जी
"कहांँ मिलेगी वो बुढ़िया? "
क्यों क्या करना है तुझे?
"मेरे बच्चों से मिलवा दूंँ।"
निगोडी भूख ही बहुत लगे है उन्हें...
स्वरचित
गीता लकवाल
गुना मध्यप्रदेश
**************
भूख जब तिलमिलाती है,
कयामत सी आ जाती है,
भूख की ये तिलमिलाहट,
अच्छे,अच्छों को रूला जाती है |
भूख की तड़पन क्या होती है,
गरीब की आँखों में दिख जाती है,
फिर क्या कचरा,क्या जूठन,गंदगी
कुछ भी नजर कहाँ आती है |
अमीरी जिनका गहना है,
उनका तो क्या कहना है,
करोड़ो,अरबों की शादी करते,
फिर भी ज्यादा नहीं चल पाती है |
अन्न की कितनी बर्बादी होती,
उनको समझ नहीं आती है,
किसी भूखे को भोजन करा दें तो,
जैसे जान उनकी निकल जाती है|
जिनके पेट भरे होते हैं,
अच्छी नींद में वो सोते है,
बचपन अपना जो बेचते हैं,
बच्चे वही भूखे होते हैं |
पेट की भूख मिटाने की ख़ातिर,
दर-दर वो भटकते रहते हैं,
कभी चौराहे पर कभी सड़कों पर,
कभी कचरे के ढ़ेर में मिलते हैं |
किसान की भी होती ये मजबूरी,
अन्न दाता होकर भी दो वक्त की,
रोटी भी उसे नहीं मिलती पूरी,
उसके नसीब में भी भूख ही होती|
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
भूख कहाँ लगती जब इश्क परवान चढ़ता है
रात दिन महबूब का अक्स दिल में उभरता है ।।
भूख न सिर्फ पेट की दिल भी ये मचलता है
ज्ञानी भी ज्ञान की खातिर क्या नही करता है ।।
भूखे पेट रहकर अध्ययन को आहें भरता है
कामी को काम की भूख उसका पैर फिसलता है ।।
भूख बड़ी बेशर्म हर भूख से इंसा गुजरता है
पेट की खातिर मदाड़ी कर्तव से न डरता है ।।
जान की बाजी खेलकर पेट की भूख हरता है
धन दौलत की भूख बड़ी ईमान बेंच सँवरता है ।।
ईश भक्ति श्रेष्ठ भूख जन्मों का पाप उतरता है
परलौक भी बने 'शिवम' वर्तमान निखरता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 20/12/2018
भूख
1
भूखा किसान
पसीने से बेहाल
फांसी झूलता
2
वो मजदूर
ताकता पकवान
भूख हँसती
3
लालची नेता
राजनीति की भूख
हिन्द ताकता
4
विप्र लाचार
भूख हुई बैरन
ताकता चूल्हा
5
कूड़े में खाना
भूख करे दीवाना
गरीब खाये
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
साॅनिट
""""""""""""""""""
बहुधा मन रोता रहता है
देख देख ढब आकाओं के
नहीं प्रीति है इन्हें किसी से
नहीं किसी से लेना देना
सिर्फ साध अपनी की खातिर
गर्ज़ मन्द बन घर घर आएं
नए नए लालच दे दे कर
नई नई बातें बगराएं
काम सरे पर भूले फूले
आपनि सर्व मौज मस्ती में
लेते नहीं खबर हम सब की
अपनी मर्जी के मालिक हैं
जैसा मिले ख़ज़ाना हड़पैं
इधर भूख से जन जन तड़पैं ।
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया
जो सभी के पास होती है।
मगर बराबर नहीं होती,
न कद-काठी,न डील-डौल में।
गरीब में भूख है, रोटी कपड़े की,
अमीर में भूख है, धन-संपत्ति की।
विद्यार्थी भूखा है ज्ञान विज्ञान का,
नेता भूखा है पद सम्मान का।
मगर इन सबसे परे है एक भूख,
जिसकी जरूरत सबको होती है,
धनी-निर्धन, छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे
और वह है प्रेम की, संवेदना की।
प्यार सच्चा मिल जाए अगर तो,
क्या नहीं कर सकता बसर।
यह एक भूख सबमें बराबर है,
हर इंसा इसके आगे नतमस्तक है।।
निलम अग्रवाला, खड़कपुर
🍁
तृप्त हृदय से भूख मिट है,
सावँरिया दरबार मे।
तुम भी आना वक्त मिले तो,
वृन्दावन जस धाम मे॥
🍁
तन मन को संतुष्टी मिलेगी,
कृष्ण के इस संसार मे।
अन्तर्मन की भूख मिटेगी,
कमल नयन श्री श्याम मे॥
🍁
वो ही सृष्टि नियन्ता है अरू,
वो ही पालनहार है।
मानव के इस भूख प्यास का,
वो ही तारनहार है।
🍁
उसके बिन तो इक पत्ता भी,
कभी ना डोला करता है।
विप्र सुदामा हो या मीरा,
संग खडा वो रहता है ॥
🍁
गीता संग लिए चक्र सुदर्शन,
नटवर नागर धानी है।
शेर की कविता उन्हे समर्पित,
जो मन से अज्ञानी है॥
🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf
सुनाई देती है हमें
एक आवाज़ जो
कभी-कभी हमारे भूख के
लिए उठती है
पर, फिर शांत हो जाता है सबकुछ
जैसे कोई आंधी
आकर जाती है........।
बस पिछे रह जाती है
हमारी वही खाली थाली
जो खनकती, चिल्लाती
तरपती है ,
एक-एक निवाले को
हर पल आँखें तरसती है.........।
आप मजहब के लिए लड़ते हो
पर हमारी लड़ाई तो
पेट के लिए है साहेब !
नहीं फर्क पड़ता हमें
मंदिर या मस्जिद से
हमारी तो लड्डु और खीर
दोनों हीं भूख मिटाती है..........।
स्वरचित: - मुन्नी कामत
आग पेट में जब भी लगती है, फिर हद से ज्यादा बेचैनी बढती है |
सुध बुध जन को नहीं रह जाती है, चारों तरफ रोटी ही रोटी दिखती है |
ये भूख बड़ी ही निर्मम होती है , कुछ भी करने को आतुर रहती है |
असर भूख का जब रहता है , तब मौसम अपराध का आ जाता है |
धन की भूख तो अमर होती है, ये जीवन में कभी नहीं ही मिटती है |
तन की भूख जब जब बढती है, तब तब बडी शर्मसार दुनियाँ होती है |
कभी मन की भूख नहीं मिटती है, जीवन में तलाश चलती रहती है |
भूख राजनीति की खतरनाक होती है , स्वार्थ हेतु कुछ भी करती है |
भूख ज्ञान की जितनी बढती है , मानवता उतनी ही सिंचित होती है |
भूख वैराग्य भाव की जब जगती है, प्राणी को मुक्ति तभी मिलती है |
मन से ही तो हर भूख जुड़ी है , और मानव की मन पर नहीं चली है |
दुनियाँ में मन पर जिसकी जीत हुयी है , लालच मोह दंभ की दीवार गिरी है |
मानवता कहती रहती है , धरती माता तो सबकी ही माता रहती है |
फिर भूख गरीबी क्यों पलती है, कया धरती हमसे न्याय नहीं करती है |
जरूरत से ज्यादा जो जोड़ा है, प्रवृत्ति यही तो जग में भूख की जननी है |
स्वरचित , मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
सबक जिन्दगी का सिखाती है रोटियाँ।
फर्जो अलम की राहें दिखाती है रोटियाँ।
भूखा हो अगर तो जानवर से कम नहीं।
आदमी को ये इन्सान बनाती है रोटियाँ।
जलती हुई रूह को है मिलता बडा सुकूं।
जब आग पेट की ये बुझाती है रोटियाँ।
बढे है स्वाद हो जो मुहब्बत की मिलावट।
घर - घर की दास्तान ये सुनाती है रोटियाँ।
ऊंची उठी मिनारों का कुछ नहीं मतलब।
खेतों में अगर नहीं लहलहाती है रोटियाँ।
निकला हूँ साथ लेके मै मंजिल तलाशने।
फिर शाम ढले घर मुझे बुलाती है रोटियाँ।
कोई कहे मकसद तो कोई कहे है ख्वाब।
मुझे हरेक नजर मे नज़र अाती है रोटियाँ।
विपिन सोहल
भूख एक होती है बस,
इतना ही मैं जान सका।
एक भूख मिटाने को ,
नित नई भूख ने जन्म लिया।।
मन की एक भूख होती है,
मरकर ही मिटने वाली ।
चाहे जितना सीमित कर लो,
सुरसा सी वो बढ़ने वाली ।।
भूख एक तन की होती है,
जो नहीं मिटाये मिटने वाली।
जितना चाहो खाते जाओ,
मन सरस् प्राण को हरने वाली।।
अंतिम भूख पेट की होती,
जो सिकुड़े पेटों में मिल जाती।
एक जून रोटी की खातिर ,
दिन-रात मेहनत से पिटने वाली।।
( मेरे कविता संग्रह से)
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना(म.प्र
फेके हुये भोजन के खातिर,
स्वानों से लड़ते देखा है...
तिल-तिल कर मरते देखा है....
............
निर्बल और असहाय बेचारे,
मंदिर-मस्जिद और गुरुद्वारे,
रोटी के टुकड़ों के खातिर,
आते-जाते सब लोगों के,
पैरों में गिरते देखा है....
तिल-तिल कर मरते देखा है....
.......................
हाय करे का वो माता बेचारी,
अपने लला के भूख से हारी,
पग पकड़ी और हाथ पसारी,
हार गयी सब कौतुक करके,
फिर सीने पर पाहन रखकर,
निज लालन के भूख के खातिर,
पैरों में बिछते देखा है.......
तिल-तिल कर मरते देखा है....
................
जो है धनिक वो मोल क्या जाने,
भूख के पीड़ा का तौल क्या जाने,
हाय नाथ क्या कर्म है इनके,
क्यों ये दीन है जनम-जनम से,
युग-युग से तापित और शापित,
सड़कों पर गिरते देखा है.....
तिल-तिल कर मरते देखा है....
.......स्वरचित..राकेश,
भुख वह नही जो हम भोज्य लेते।
औल ऊर्जित हो तृप्त होते सदा।
क्षुधा वह है हम लेते उतना ताकि।
बचे न कण इतना की व्यर्थ जाऐ।
भूदेव का श्रम किसी क्षुधातुर
अधिकार।
भूख मिटाऐ कठोरता से अपने शत्रुकी।
काम क्रोध लोभ मोह मद क्षुधा हैं सभी।
कभी न पेटू बनो न क्षुधातुर रहे कोई।
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
राजेन्द्र कुमार अमरा।
एक बुढ़िया
जबरन चलती
आती इधर
गिरती संभलती
डग से मानो
जिंदगी को छलती
चिंदी पहने
चिथड़े ही गहने
आँखों में झाँई
आंते कुलबुलाई
सूखी ठठरी
हाथ लिए गठरी
कंधे पे बोरी
सर्वस्व ये तिजोरी
सिर घोसला
सुस्त पड़ा हौसला
बालों में जीव
उत्पात, उपद्रव
अंतर्वेदना
माथे में सम्वेदना
सिर छालती
गठरी खंगालती
पार न पाती
पुरजोर खुजाती
भूख का भाव
पेट में अंतःस्राव
कचरेदान
उसका वरदान
कुछ बोलती
कूड़े को टटोलती
अमृत-प्याला
एक जूठा निबाला
भाव जो गढ़े
इसको कौन पढ़े?
शब्दों में कौन मढ़े?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
मन भी क्रंन्दन करता है।
भूख प्यास स्वतः लगती रहती है,
मानवमन वंन्दन करता है।
भूख अनेक प्रकार की होती है,
जैसे पैसा,पेट,प्रभुता,पाने की।
कहीं भूख मनोरंजन की होती है
जैसे प्रेम प्यार शुचिता पाने की।
मुझे भूख बुद्धि शुद्धि करने की।
मुझे भूख चित्त शुद्धि करने की।
अहमअंधकार मिट जाऐ मनसे,
मुझे भूखअंतसशुद्धि करने की।
प्रेमपुष्प मन अंकुरित हो जाऐं।
प्रभुभक्ति से प्रफुल्लित हो जाऐं।
भूख बढे स्नेह प्रेमानुभूति पाऊँ,
मिलें प्रेमी प्रभु पुलकित हो जाऐं।
स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
देखो कैसे बदल रहा इंसान
अस्मिता नारी की खो रही
नारी को समझते एक चिज है
मासूमों को मिली नहीं छूट है
इज्ज़त की मची लूट है
हवस की कैसी यह भूख है
देखो कैसे बदल रहा इंसान
ईमान कौड़ियों में बिक रहा
बेईमानी गर्व से फूल रहा
चंद रुपयों की खातिर
काले कारनामों में मशगूल है
नगदी की कैसी यह भूख है
देखो कैसे बदल रहा इंसान
भूलाकर प्रीत और प्रेम को
ईर्ष्या से नफरत को सिंच रहे
रिश्ते अपनापन खो रहे
अपनों से हो रहे दूर हैं
स्वार्थ की कैसी भूख है
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
पेड़ की शाख
फल का स्वाद
पाने को आतुर
लटका है तोता
उल्टा बेहाल
#भूख का कमाल
कूड़े का ढेर
संध्या सबेर
फेंका जो भोजन
ढूंढ ढूंढ खाते
बेबस फटेहाल
#भूख का सवाल
अर्धनग्न तन
खिलता यौवन
सड़क- किनारे
बेचे गुब्बारे
लाए भूचाल
#भूख का धमाल
हरी-हरी घास
शशक का ग्रास
विषधर भी ताके
बाज का उल्लास
सब मालामाल
#भूख चले चाल
तन-मन खाली
उपवन बिन माली
बिल्कुल निस्सार
चाहें सब प्यार
होवें खुशहाल
#भूख का खयाल
______
#स्वरचित काव्य सृजन
डा. अंजु लता सिंह
नई दिल्ली
============
(1)झेलती आज
महंगाई की मार
भूख उदास
(2)अमीर मर्द
भूख लगती नहीं
ऐसा है मर्ज
(3)गरीब मर्द
भूख मिटाने वास्ते
ले रहा कर्ज
(4)भूखे भेड़िये
घूमते सरेआम
नहीं लगाम
(5)तोड़ मर्यादा
बेच रही अस्तीत्व
बेशर्म नारी
(6)भूख मिटाती
तन बेच अपना
वह अबला
(7)भूख चपेट
आया है पूरा देश
पड़ा अकाल
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
आगरा (उ.प्र.)
**********************
भूंख
भूंखौं को भूंख पड़ी दिखलायी ना।
ये भूंख भी निचोड़ी कभी झिक पायी ना।
एक नेता को भूंख होती वोट के कद की।
चुनाव जीतने के बाद मंत्री के पद की।
मंत्री के बाद भूंख बंगला कार की।
बंगला के बाद भूंख धन अपार की।
धन कमाने भूंख होती भ्रष्टाचार की।
सात पीढ़ी बैठ खायैं उस व्यापार की।
फिर अय्यासी को भूंख सुन्दर पर नार की।
जनता की भूंख होती सब बेकार की।
डाक्टर को भूंख होती उच्च फीस की।
वैरा को भूंख होती उच्च बक्शीस की।
मास्टर को ट्यूशन की होती है भूंख।
इन्जीनियर को कमीशन की होती है भूंख।
ऐक्टर को भूंख होती शौहरत अपार की।
हीरोइन को भूंख होती अंग उघार की।
सुसराल में भूंख होती सालियौं की।
कवियों को भूंख होती वाह वाह तालियां की।
भूखौं को भूंख की बात समझ आयी ना।
ये भूंख भी निचोड़ी कभी झिक पायी ना
भूख!!
जलाती है,
तन को मन को,
संसार के समस्त,
कर्मों के पीछे,
है यही भूख।।
भूख के हैं कई रूप,
क्षुधातुर...!!
नहीं देखता,
उचित-अनुचित;
मांगता भिक्षा या
जूठन में ढूंढ़ता,
अपनी भूख का इलाज।।
भूखे बच्चों की तड़प,
पिता को चढ़ा देती फांसी !!
दहेज-लोभियों की भूख!!
निगल जाती,
किसी की जिंदगी।।
सत्ता की भूख!!
भुला देती,
नैतिक-अनैतिक।।
भूख ही जन्मदाता!!
भ्रष्टाचार की।।
भूख या पेट की आग,
निगल जाती,
संस्कार, नैतिक मूल्य।।
भूख देती है,
अनचाहे अपराधों,
को जन्म।।
लालच की भूख है,
सबसे ख़तरनाक,
जिसमें स्वाह होते,
रिश्ते-नाते,मां-बाप!!
और न जाने क्या-क्या??
घर भरे होने पर भी,
भूख की आग..!
अगर हो बलवती,
तो जला देती,
संसार को।।
भूख ही बनती है वजह;
कुकृत्यों की!!
भूख.....?
जिसके इर्द-गिर्द
घूमता है सारा संसार।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
सब में ही छिपा रहता क्षरण
सब ही करतीं बेचैन केवल
लगता कैसे हो अब भरण।
सबसे प्रबल है पेट की आग
इसमें झुलस जाते चिराग
भूख से तिलमिलाना मरना
मानव सभ्यता पर गहरा है दाग।
कुर्सी की भूख करती है छल
इसमें भरी रहती सदा दलदल
षणयन्त्रों की रहती हलचल
कुटिलता से भरा रहता सदा हर पल।
वासना की भूख बड़ी भयंकर
हर युग में यह रही है तनकर
इसमें लिपटे आधुनिक संत देखो
प्रतिष्ठा में इनकी बिखरे हैं कंकर।
दौलत की भूख तोड़ती मर्यादा
कुबेर भी सोचता धन आये ज्यादा
भ्रष्टाचार अपना शंख बजाता
नहीं चूकता कोई राजा या प्यादा।
न मन का दुःख ,
सबसे बड़ा है ,
पेट की भूख l
अच्छे बुरे ,
पुरे अधूरे ,
हर काम कराती है ,
पेट की भूख l
घर छुड़ाती है ,
दूर भगाती है ,
अनजाना बनाती है ,
पेट की भूख l
सुख लेती है ,
दुःख देती है ,
नींद चैन चुराती है ,
पेट की भूख l
जोकर बनाती है ,
नौकर बनाती है ,
हर नौकरी कराती है ,
पेट की भूख l
हड्डी के ढांचे ,
कंकाल के सांचे ,
देख मुस्कुराती है ,
पेट की भूख l
पेट से चिपकी ,
निःशब्द ठिठकी ,
जूठन उठवाती है ,
पेट की भूख l
दूर बुलाती है ,
बहुत रुलाती है ,
सबकुछ कराती है ,
पेट की भूख l
स्वरचित एवं मौलिक © BP YADAV
मैं इंसांं हूं भगवान नहीं।
जब पेट की आग सुलगती है,
तब सही ग़लत पहचान नहीं।
मैं भूखा हूं और नंगा भी,
जो ढूंढ रहा इक इक दाना।
तुमने जो आधे खा कर के,
कूड़े में फेंक दिया खाना।
मैं उन खाने को कचरों में,
कुत्तों के संग टटोल रहा।
वो उपर वाला भी सोया,
हमें इक पलड़े में तौल रहा।
अब अपनी नज़रों में मेरे,
खुद का कोई सम्मान नहीं।
जब पेट की आग सुलगती है,
तब सही ग़लत पहचान नहीं।
* ✍️ नाम-श्वेता ठाकुर(स्वरचित)
* 👉 शहर-फरीदाबाद (हरियाणा
माता-पिता को छोड़ स्वदेश
चंद सिक्कों की खनक,
भा गई मन को।
छोड़ दिया लावारिस,
वृद्ध जन को।
कुछ दिन तो संदेशे आए,
ना आया फिर कोई संदेश।
राह तकती बेटे की,
सो गई भूखी अंखियाँ।
हुआ अचंभा तब बेटे को,
जब खा गई उन तन को चिंटियाँ।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
भूखे प्यासे शिशु बन आये
जननी ने क्या सहा नहीं था
कुतिया भूखी स्व शिशु खाये
शाम सुबह जठराग्नि जागे
सब रोटी के पीछे लागे
खून पसीना सदा बहाकर
भूख साध्य जन सब भागे
धन भूखा कोई तन भूखा है
भूखे तो भूखे होते हैं
अधिक लालची बनते हैं जो
वे ही जीवन मे रोते हैं
दुनियां सारी गोल गोल है
जिसका कोई नही मोल है
गोल चपाती भरे पेट को
जिसका कोई नहीं तोल है
भूख न जाने देश भक्ति को
भूख न जाने काबा काशी
भूख तो बस भूख ही होती
इक रोटी में मिटे उदासी
भूखा जन क्या पाप न करता
उदर हेतु वह् मन को मारे
तन कृष,कर लकड़ी थामे
नित जाता वह् द्वारे द्वारे
भूख मानव रूप बदलती
ग़लती तो हर बार होती
कभी रोता कभी हँसता सा
उसे चाहिये बस एक रोटी
दाताओं से आस लगाता
जाड़ा उसको रोज़ कंपाता
विनती करता मन्नत मांगता
शीश नवाता भारत माता ।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
किसी को हंसाती है तो किसी को बहुत ही रुलाती है....
कहीं तो ज़मीन खोद कर सबका पेट वो भर्ती जाती है.....
कहीं अन्नदाता को दाने दाने को मोहताज कर जाती है...
कहीं भूख से तिलमिला कर बच्चे मिटटी खाते फिरते हैं....
कहीं कुत्तों के मुंह से निवाला गिरे के लिए झगडे होते हैं....
झोंपड़ी में बच्चों को बहलाने को पानी ही पका करता है....
भूख,माँ आंसू पी बुझाती है बच्चों को थपकी दे भगाती है....
कहीं गोदाम भरा अनाज से देख लाला खूब मुस्कुराता है....
कहीं लाल अपने को माँ एक वक़्त खाना खिला न पाती है....
कहीं पसलियों में जकड़ी माँ को चूसता फिरता है शिशु...
तो कहीं किसी को ५२ व्यंजन परोसे थाली पसंद न आती है....
कहीं अबला बच्चों के क्रंदन मजबूर तन बेचती जाती है...
कहीं भूख अस्मिता लूट कर किसी की ठहाके लगाती है....
न जाने क्यूँ बेदर्द, बेशर्म, ढीठ और छिछोरी होती है भूख...
मुर्दों का तन ही नहीं उनके वसन तक उतार खा जाती है....
दोस्त या फिर हों दुश्मन भूख पल में सब बदल देती है......
नाखून अँगुलियों से पलक झपकते वो अलग कर देती है....
भूख ने नाता जिस से भी जोड़ा है वो राजा हो या कि रंक...
न चैन से उसे जीने देती है न ही चैन से उसे मरने देती है....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२०.१२.2018
बड़ी वीभत्स है वो
क्रूर डरावनी और निष्ठुर
मैं एक एक कौर के लिए
तरस रहा था
और वो ठहाके लगा रही थी
मेरा मुँह सूख रहा था
आन्ते ऐन्ठ रही थी
मुझ में उठने की ताकत नही थी
भूख हँस रही थी
घर में पूरी पकवान
काजू बादाम
दूध मलाई सब
रखा था पर
भूख ने मुझे रस्सी से
बाध रोके रखा था
मैं गिडगिडा रहा था
अपनी धन दौलत
सब देने का वादा
कर रहा था
सिर्फ एक रोटी के लिए
अब भूख मुस्कुराई बोली:
नेताओ को चुनाव जीतने की भूख
अमीरों को पैसे की भूख
दस दस मकानो की भूख
अपार ज्वेलरी की भूख
और इसके लिए भूखे को
भूखा मारने की भूख
खैर छोड़ो
भूख से दम तोड़ती बच्ची की
वह तस्वीर तो देखी होगी
जिसे झपटने के लिए
एक सिद्ध बेताव् था
दोस्त ऐसी हो तो है भूख
तुमने भूख का मजाक बना रखा है
पेट भरा होने पर भी
भूख भूख चिल्लाते हो
दोस्त अन्न की इज्जत करो
अपना ही नही सब का ध्यान रखो
नहीं तो भूख के चन्गुल से
कोई नहीं बचा पाएगा
सपना अब टूट गया था
मगर भूख से दम तोड़ती
इन्सानियत और मानवता से
साक्षात्कार हो गया था.....
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
१
भूख लगे
दुम हिलाये
भूख
मिटते ही
मुड़कर ना देखे।
२
भूख दिखती है
चेहरे से टपकती है
भूख मिटी
बांछे खिल उठी।
३
भूखा पेट
विनम्रता अशेष
भूख शांत
अहंकार घेरे
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
विषय:-"भूख"
विधा:-हाइकु
(1)
दहेज "भूख"
बेटियों को निगले
दानव रूप
(2)
दुःखित जन्म
"भूख" ने बेच दिए
तन व मन
(3)
कर्म जगाये
जीवन के मैदान
"भूख" दौड़ाये
(4)
स्वार्थ की "भूख"
विश्वास नहीं चखा
खा गई रिश्ता
(5)
ज्ञान की "भूख"
धर्म और साहित्य
आत्मा खुराक
(6)
नोचते सुख
इंसान भी भेड़िया
वासना "भूख"
(7)
धन की "भूख"
आखिरी सफर में
साथ में दुःख
स्वरचित
भूख !
असीम को समेटे दामन में,
हो गई है उच्चश्रृंखल।
खोती जा रही अपना
प्राकृतिक रूप।
वास्तविक स्वरूप ।
भूख बढ़ती चारो
ओर,
रूप बदल- बदल कर
यहाँ -वहाँ जानें, कहाँ -कहाँ
करने लगी है,आवारागर्दी।
भूख
होती जा रही बलशाली,
दिन ब दिन,
तन, मन, मस्तिष्क
पर ,
जमा रही अधिकार,
और दे रही इंसान को पटखनी ।
पेट की आग से भी
बढ़कर,
धधकती ज्वाला मुखी,
लालच और वासना की भूख
जो कभी भी ,कहीं भी ,
फट सकती है।
अब नहीं लगती किसी को,
इंनसानियत ,धर्म, कर्तब्य और भाईचारे ,संस्कारों की भूख
बौने होते जा रहे सब।
दावानल लगी है, मनोमस्तिष्क में,
विकारों में जलता मानव,
अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए,
होते जा रहे हैवान ।
और रोटी की जगह निगल रहे समूची मानवता को ।
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
यह उदर अग्नि स्वयं में अहसास कराती
भूख का नाम देकर निज बोध कराती
कल सापेक्षता से मिली इसको स्वीकृति
भूख हर एक जीव जंतु की प्रकृति
ना इसका धर्म सम्प्रदाय से नाता
इसकी जात बिरादरी कोई ना बता पाता
पक्षियों को भी प्रयास करना पड़ता
आकुल उड़ान भर मिलों उड़ना पड़ता
चोंच भर दानों को यहाँ वहाँ खोजना पड़ता
मृत जीवों को भी नोचना समीचीन लगता
मनुष्य को भी आसानी से मयस्सर ना होती रोटी
दिन रात कमाकर खाना कहलाए कसौटी
अमीरों का चूल्हा दिन रात जलता
मगर ग़रीबों का हाशिए पर रहता
अमीरी की भूख कोई मसला कठिन नही
ग़रीबी को मशक़्क़त से नसीब होती यह रोटी
वह छप्पन भोग लगाकर ठाठ से सोता
ग़रीब दो वक़्त भी ना ठीक से खा पाता
बचपन बाल मज़दूर बन जाता
कोई नट जान जोखिम में डालता
अपनी उदर अग्नि की ख़ातिर
जीवन अपना ख़ुद दाँव पर लगाता
काँपते उभरी नसों वाले हाथ काम तलाशते
किसी के रहम कर्म पर इनकी भूख बिलखती
आँते सिकुड़कर पेट पीठ एक जाते
कभी कभी मृत्यु का ही ग्रास बन जाते
भरण पोषण जब लग जाए कष्टकारी
हाथ पसारे भीख भी लगती लाभकारी
ग़रीब कमाते ज़्यादा पर खा पाते कम
अभावों में भी ना मनाते ये ग़म
कब तक देश के उपेक्षित भूखे पेट रहेंगे ??
कब तक ? आख़िर कब तक ???
भोजन की बर्बादी कहलाती है विकृति
मिलजुलकर बाँटकर खाना यह हमारी संस्कृति ।
स्वरचित
संतोष कुमारी
1नेता की भूख,
पिशाच भी,
लाचार, बेचारा....
शर्म से हारा।
2
भूख,
आ गई फिर....
शर्म, हया,
क्या बेच खाई.....
सूखे तन पर भी,
दया न आई।
3
भिखारी,
द्वार पर,
भूख से आकुल।
नेता को देख,
स्वागत में...
आगे कर दिया।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित ,मौलिक
दिखते लड़ते हैं श्वानों से ।
इक रोटी के लिए अड़े हैं ,
बने दरिंदे हैवानों से ।
तन मन धन की भूख प्रबल है
पर अति भयावह भूख पेट की ।
तन की भूख ले देकर मिटती
रोटी बिन नहीं भूख पेट की ।
माँ सुलाती भूखे बच्चों को ,
दिखा कर चाँद की रोटी गोल ।
दो जून की रोटी ले आती ,
इज्जत बेच अपनी अनमोल ।
कम कपडों मे अधनंगी सी ,
चौराहे पर पेट बजाती ।
दया करुणा से भीख न देते ,
खुले वक्ष रोटी मिल जाती ।
पूछो मत क्या चीज भूख है
दिखा देती है दिन में तारे ।
जूठी पत्तले चाट चाट कर ,
सो जाते किस्मत के मारे ।
मज़हब नहीं भूख का कोई ,
जाति आँखों से है दिख जाती ।
भूख तो सिर्फ भूख है होती,
दुनिया के सब रंग दिखाती ।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी ✍️
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
भूख का बहुत बड़ा है वर्गीकरण,
जीवन का गड़बड़ाता समीकरण।
पहली भूख रोटी की,
फिर रकम मोटी की,
सोने की चाँदी की,
नौकर और बाँदी की,
ज़मीन जायदाद की,
चाहे हो विवाद की,
भूख पद प्रतिष्ठा की,
बात न करो निष्ठा की,
नशा कुर्सी की भूख का,
अपने अपने रसूख का।
वासना की अलग भूख,
कर्तव्यों में होती चूक,
भूख बोतल की अड़ी,
अवरुध्द हुई जीवन कड़ी।
कुर्सी की भूख मचल गई
सिद्धान्तों को छल गई
वो बाॅह जो इतराई इस गले में
अब उस गले में डल गई
लेकिन पेट की भूख असली है
वही तोड़ती सबकी पसली है।
पेट की भूख आग है,
मानवता के लिये दाग है,
नौकरी को भटक रहा,
ये देश का चिराग है,
इस भूख को जलाना होगा,
सबको काम दिलाना होगा,
वरना ये भूख करेगी ,रोज़ ही नये प्रश्न खड़े,
सबको ही रुलायेगी ,छोटे हो या हो बड़े।
भूख होती है
पनियाली आंखों में
पपड़ाये होठों पर
उलझे बालों और
फटे कपड़ों में
भिनकती मक्खियों से भरे
सूखे से तन पर
घुटनों से पेट दाबे
एक इंतजार
मां की कलाई में थमी
मिट्टी की खाली हांडी में
घूमती कडछी पर
टकटकी लगाए देखती
कुछ आँखें
उबलते पानी से निकलती भाप
देती एक आश्वासन
भोजन पक रहा है
सब्र से बैठे बालक
कुछ देर में सामने होगा
गरमा गरम खाना
और माँ
आंसुओं से भीगे
फटे आँचल से
नाक पोंछती
इंतजार करती की
भूख को हराकर
किसी तरह
बचपन सो जाये
और गुजर जाये
फिर एक भूखी रात
सरिता गर्ग
(स्व रचित)
जब भूख लगी हो आँतो में
नींद न आती रातो मे।
एक रोटी की खातिर भागती
है दुनिया सारी
सामने पड़ा हो जब छप्पन भोग
पर न जगी हो भूख हमारी
सब लगते बेकार, बेस्वाद
जब लगी हो जोरों की भूख
सूखी रोटी भी लगे अमृत समान
भूखे पेट को हम दे निवाला
जिससे हो जाये उसका भला
जब वह रोटी खायेगा
दिल से दुआ दे जायेगा
भूख से न हो एक भी मौत
ऐसा हो देश हमारा
अपना भूख मिटाने के बाद
दूसरों की भूख हमें मिटाना है।
नही अच्छी है सत्ता की भूख
दिनोंदिन यह लालच बढ़ाये
भूख अच्छी है शोहरत की
इसके लिए हम कुछ आच्छा
कर जाये
भूख अच्छी नही जमीन-जायदाद की
अपनो मे ये भेद कराये
भूख अच्छी है भक्ति की
जीवन नैया पार कराये।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
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भूखे पेट की माया
कहीं धूप कहीं छाया
दाने-दाने को मोहताज
फिरते लिए हड्डियों का ढांचा
काम मिला तो भरता है पेट
नहीं तो भूखे कटते दिन अनेक
बेरोजगारी बनी बीमारी
जिसने छीनी खुशियां सारी
पर परेशानी का हल निकले कैसे
मंहगाई तो कमर तोड़े ऐसे
जिनके हाथों में इसका हल है
उनको जनता की फ़िक्र किधर है
सब अपनी कुर्सी के भूखे
जनता जिए या मरे भूखे
भूख,भूख, हाय यह भूख
कहीं दो रोटी की चाहत
तो कहीं दौलत की भूख
फिर भी मिटती नहीं
पता नहीं कैसी है यह भूख
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
1
भूख खा गयी
बचपन सलोना
बंधुआ बना
2
भूख की आग
जलाती घर बार
खत्म संसार
3
ठंडी अंगीठी
ठिठुरता मौसम
भूखा कृषक
4
जिस्म की भूख
विकृत मनःस्थिति
बने दरिंदे
5
दौलत भूख
बेईमान बनाती
अधह क्रिया
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
१
तरसे नैन
अविचलित मन
प्रेम की भूख
२
सत्ता की भूख
बेईमानी का कुआँ
खेलते जुआ
३
पिता का प्यार
पकवान बहार
भूख का अंत
४
ज्ञान की भूख
शब्दों की है ड़गर
गुरू का द्वार
स्वरचित-रेखा रविदत्त
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