Friday, December 7

"वेदना "6 दिसम्बर 2018

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प्रेम वेदना
6
/12/2018

प्रेम की अभिवेदना में
नैन मूँदे ,अश्क बहते
है विकट परिस्थिती में,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

अनगिनत स्वर्ग थे गढ़े
प्रेम की परिकल्पना में
ढह गए पल पल खड़े,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

प्रेम की पायल पहन
जग में झनकी जब कहीं
तार टूट,नैन विगलित,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

प्रेम मेरा है निरूपित
नही पतित है वो कहीं
पुष्प में काँटों को सहना,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

चर चराचर है जगत में
प्रेम की वर्षा रही
कहीं झोली भरी,कोई खाली रह गया
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

वीणा शर्मा वशिष्ठ(स्वरचित )

वेदना हाइकु 
6/12/2018

नारी वेदना 
1
अवहेलना 
मरती सवेंदना 
नारी वेदना 
2
करे संहार 
नाश दुर्व्यवहार 
वेदना वार 
3
नारी जीवन 
वेदना अंतर्मंन 
देवी के सम 
4
रोती प्रकृति 
वेदना है अगाध 
सहे प्रहार 
5
नारी लाचार 
नष्ट है सवेंदना 
सहे वेदना 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित



''विरह वेदना"

विरह की वेदना न पूछो आँसू की लड़ी थी 

तकदीर छडी़ लेकर के सामने खड़ी थी ।।
एक ही झटके में जुदा कर दिया था उसने
बड़ी बेरहम वक्त की वह घड़ी थी ।।

सुना भी न सके हाले दिल
अकस्मात छूटी वो महफिल ।।
आँसू की अमानत देकर गई
वो बेरहम तकदीर संगदिल ।।

वेदना में बहते आँसू रह गये 
गमों के सैलाब से बह गये ।।
हम भंवर में फँसे रह ''शिवम"
और स्वप्न सारे जो थे ढह गये ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"



निर्मल सी बा छुवन थारी,
अण यादां माय समाय रही।
हर्षित व्याकुल हुयो घणो मै,
अंखिया अंसुवन धार बही।।

भुल नही मैं पायो इब तक,
मिलन हुयो बो प्राणा प्यारो।
नेह.भरी बे तिरछी निजरां,
भूलूँ कियां बो रूप निरवालो।

इ प्रेम समंदर हिवड़ै माहि,
लाय री लपटां लाग रही।
सांस निसांस री लहरां चाली,
तन मन अगन जगाय रही।।

पीड़ ही पीड़ इब बाकी रहगी,
आ जीवन पीड़ पहाड़ बणी ।
थारी पवित्र यादां में खोयी,
इ मनड़े चैन री फांस बणी।।

विरह वेदना इण विद छायी,
ज्यू सावण में बादल छाय।
बियाबान बिच अगन लाग री,
बांस रे वन सूंसाट मचाय ।।

रूप पाणी बिन ओ तो मरसी,
आकर इणरी तिरस बुझाय।
हाय रे कितरा.सावण बित्या,
इब तो आकर प्राण बचाय। 

गोविंद सिंह गेहलोत मंडावा


विधा-*कुण्डलिया छंद*

मेरे मन की #वेदना , साजन ही उपचार
विरहा की मारी हुई , कब हों नैना चार
कब हों नैना चार,सजन कब होगा आना
तुम को न देखूं तो ,सब जग लगे वीराना
राह नज़र न आये , छाये घने अंधेरे
मेरे मन की पीर , हरेंगे साजन मेरे।।

जिसका न हो रंग रूप,जिसका नहि आकार
पीड़ित मन की #वेदना ,दिखलाता व्यवहार
दिखलाता व्यवहार , न कोई समझा जाना
परहित परमोधर्म , जगत कोई नहि माना
कैसे होंगे कर्म , कि तारण होगा किसका
उसका जीवन सफल,पुन्य का पथ हो जिसका।

~प्रभात




सं
वेदना हो वेदना
हो चुकी परिवेदना 
धुमिल अस्तित्व है 
सुप्त सारी चेतना 

औद्योगिकी प्राद्योगिकी
निर्जीव या सजीव की 
तलातल अंतरिक्ष 
व्याप्त परियोजना 

शोध क्या परिशोध है 
स्पर्श ही अवरोध है 
सूक्ष्म का परिधान ही
है बनी विडंबना 

लोलुपता महाव्याप
नियति का क्रंदन है 
सोन चिरैया खो चुकी
यंत्र प्रदूषण है 

उत्थान या पतन है 
जीवन ज्यों दूभर है 
स्याह शब्द मौन सभी
चेतन अचेतन,,,,,, 

स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 
दाहोद(गुजरात)



वेदना होती बहुत् है
जब कोई घर को उजाड़े।
अपना ही पराया बनके
वह् गरल मुँह में पिलादे
नायक ही खल नायक बनते
वेदना होती बहुत् है
आस्तीन के सांप फुफकार ते
पीड़ा अति होती बहुत् है
वेदना से व्यथित हो मन
जब विश्वास को डिगा दे
महा प्रसाद के भरोसे
जब कोई जहर मिलादे
जयचन्दों की कमी नहीं रही
जब वे आकर देते धोका
अर्थ का अनर्थ करने का
देखें वे सदा जग मौका
विपदाएं देते हैं स्वजन
पूत कपूत बन जाते हैं
रोटी मत दो प्यार ही देदो
स्वहित में वे खो जाते हैं
कुछ विपदाओं के दोषी हम
कुछ विपदा चलकर आती है
सामंजस्य संघर्षी बनकर ही
आ विपदा खुद लौरी गाती है
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्
कोटा,राजस्थान।



विघा... तेवरी
...........................
कभी मेरे भी घर तुम आया करो ।
प्रेम के गीत तुम गुन गुनाया करो ।।
मैनें दर्पण लगाया तुम्हारे लिये ,
सूरत तुम अपनी देख जाया करो ।।
याद आते मुझको पुराने वह दिन ,
कभी आकर मुझे फिर सताया करो ।।
कुन्तलों की लटें बुलाती तुझे हैं ,
उन्हें आ कर कभी सुलझाया करो ।।
धूल में है सना मन - मन्दिर मेरा ,
उसे आकर कभी तो सजाया करो ।।
रुठने अरु मनाने का वो सिलसिला ,
कभी आकर मुझे तुम मनाया करो ।।
छिपना छिपाना वो मन को चुराना ,
मुझे भाता बहुत फिर सताया करो ।।
घुट घुट के जीना नहीं ठीक पंकज ,
वेदना निज व्यथा को बताया करो ।।
आदेश कुमार पंकज
स्वरचित
रेणुसागर सोनभद्र
उत्तर प्रदेश



 तुम्हारा खत यूं सम्हाल कर रक्खा हुआ है। 
जख्मे जिगर ज्यों पाल कर रक्खा हुआ है।


लगाया तुमने जिससे मेरे जख्मों पे मरहम। 
मैंने वह कांटा निकाल कर रक्खा हुआ है। 

यूं पूछते हैं कि तुम अब मुस्कुराते क्यों नहीं। 
आंखों में समन्दर उबाल कर रक्खा हुआ है। 

अब वही जाने कि उनके दिल मे छुपा क्या। 
हमनें ये कलेजा निकाल कर रक्खा हुआ है।

मुझको किसी सूरत अब अफसोस न होगा। 
उसने तो सिक्का उछाल कर रक्खा हुआ है।

वो घर की चौखट जो छोड कर आए थे तुम। 
उसी पर हमनें दिया बाल कर रक्खा हुआ है। 

जो हंस रहे थे बीच शहनाईयों के उस पल। 
उन्होने अब घूंघट निकाल कर रक्खा हुआ है। 

क्या करेगी कल ये दुनिया जल रही है जब। 
सिर्फ हाथों में हाथ डाल कर रक्खा हुआ है।

है नसीहत को ये पुतले देख कुछ डरो सोहल। 
तूफान शीशे मे पिंघालकर कर रक्खा हुआ है।

विपिन सोहल




जब अपने 
अपने न रहे
तब होती है
वेदना

जब समुन्दर की
लहरों को 
ठुकरा दे किनारा
तब होती है
वेदना

जब किसी 
पंछी के
घरोंदे को 
उजाड़ दे कोई 
तब होती है
वेदना

जब बुढापे में 
माँ बाप को 
ठुकरा दे कोई 
तब होती है
वेदना

जब हरे भरे 
पेड़ो को 
काट दे कोई 
तब होती है
वेदना

पति पत्नी के
अहं से होने वाले
विछोह से 
जब बच्चे होते है
तिरस्कृत 
तब होती है
वेदना

जब नदी तालाबों
झील झरनों में 
होता है
प्रदूषण 
तब होती है 
वेदना

वेदना 
तेरी वेदना है 
असहनीय 
जो जितना 
इसमें तपेगा
वो उतना
निखरेगा

लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


ग़ज़ल,
कभी हंसता,कभी रोता रहा सावन,

मधुर यादों में खोया रहा सावन।।१।।
बिखर कर रह गया,आशा कुसुम लेकिन,
विमोहित सा मुझे करता रहा सावन।।२।।
रही जो अपने प्रीतम की प्रतीक्षा में,
बरस कर उनको तरसता रहा सावन।।३।।
पथिक की प्रयास को सागर की चाहत थी,
मगर बूंदें ही टपकता रहा सावन।।४।।
रचे जो गीत मेरी वेदनाएं ने,
उन्हें रिमझिम के स्वर देता रहा सावन।।५।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,फोंन नंबर ६२६६२७८७९२।



भीड़ कितनी भी हो मगर
पर तन्हाईयां रास आतीं हैं
होती है कुछ वेदना भरी 
स्मृतियां मन मस्तिष्क से 
नहीं निकल पातीं हैं
ऐसे ही जब कोई अपना
असमय ही साथ छोड़ जाता है
मन में सिवाय वेदना के 
कुछ भी नहीं रह जाता है 
इक क्षण में बिखर जाते हैं
रिश्तों के मायने टूट कर
द्वेष पाल कर बैठ जाते हैं
वेदना पहुंचाने मेंं अक्सर
जीवन में कई मोड़ लेकर
आते हैं जिंदगी के रास्ते
कहीं कहीं फूलों भरे हैं
कहीं भरे असंख्य कांटो से 
कभी कभी कह दी जाती है
कुछ बातें अनजाने में
एक पल भी नहीं सोचते हैं
हम उसे वेदना पहुंचाने में
लौटकर नहीं आती हैं
जो बातें ज़बान से निकले
मन ही मन तड़पातीं हैं
जो गर ख्याल से न निकले
क्यों खुद की खुदगर्जी में
इतना खो जाते हैं लोग
वेदना पहुंचाकर मन को
फिर हो जाते हैं मौन
कोशिश हर इंसान की
अपनेपन की होनी चाहिए
कभी भूले से न देना किसी को दर्द
वो इंसानियत होनी चाहिए
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना






" वेदना "

वेदना की वेदना का मैं आपको क्या बताऊँ

छुप नहीं पाती उभर आती चाहे कितना भी छिपाऊँ

वेदना देती है इतनी पीड़ा मन और शरीर को

तड़प तड़प उठतें हैं दोनों बार बार मैं आपको क्या बताऊँ

वेदना भी तो होती है कई प्रकार /स्वरूप की

कुछ तो शरीर और कुछ गहरे मन की

दोनों ही करती रहती है आहत जब तक जियो

वेदना का कारण पता हो तो उसका इलाज भी करवाऊँ

जब तक न हो त्राण वेदना से मैं कैसे सुख और संतोष पाउँ

(स्वरचित)

अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव


ये विरह की वेदना है,
या मिलन की झंकार,
बाबा की लाडली कैसे,
देखो पराई हो गई आज |

विदाई के आँसू लिये,
आँखों में नये सपने लिये,
छोड़ बाबुल का अँगना,
बेटी पराई हो गई आज |

माँ की ममता,आँचल की छाँव,
मैं कैसे भुला पाऊँगी,
अपनों से विदाई की वेदना,
कैसे मैं सह पाऊँगी |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*



वेदना
कल प्रीतम से जो हुई बात
नवोढ़ा का खिल गया गात
सीमा पर खड़े सीना तान
साजन तो ठहरे एक कप्तान
सुना,साजन आएँगे परसों
मन-ही-मन में फूली सरसों
परसों छोड़ वो आ गए आज
सुन सुन कर आई कुछ लाज
पर,चीख चीख माता का क्रंदन
व्यथित पिता का करुण रुदन
आए यूँ लिपट, तिरंगे के वेश में
ऐसा तो कहा नहीं संदेश में
सीमापार से चल गई गोली
खेली प्रीतम संग खून की होली
मेहँदी का निष्ठुर उपहास
हिय-शूल,अवरुद्ध कंठ सायास
झरे नीर नयन ढुल-ढुल
कोख में जीव का कुलबुल
इस अजन्में के विधना को
कौन पढ़े इस वेदना को
लुप्त होती संचेतना को
प्रकट करूँ किस वेदना को?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


पिया मिलन की आस में नैनों से बरसे मेरी अश्रुधारा 
विरह वेदना में पड़ी हूँ मैं होकर बेसहारा 
ना जाने ये कैसी प्रेम की लग्न लगी हैं 

ना जाने कैसी प्रीत ने दिल में मेरे हलचल मचाई हैं .

मैं राधा बन गई तुम्हारी प्रेम वेदना में 
पर तुम श्याम ना बन पाये मेरे लिये
मैं निर्झर नैना बरसाती रही विरह में 
तुम मेरी ह्रदय की वेदना को कभी समझ ना सकें .

ह्रदय में हैं मेरी विरह की वेदना 
पर मन में फिर भी मिलन की आस हैं प्रिये 
नैनों में तुम्हारी सूरत हैं बसी 
कैसे बताऊं मैं इस करुण वेदना को शब्दों में .

तुम्हारी विरह वेदना में गूंजती हैं ये चारों दिशायें
ये उपवन मुझे लगे मधुवन की घटायें सी 
तुम नटखट से रास लीला रचाते कान्हा से 
मैं तुम्हारी प्रेम वेदना में तड़पती बरसाने की राधा सी .

बाहों में आकर तुमसे गले लग जाना हैं 
दिल के शिकायत को सदैव के लिये मिटाना हैं 
कभी भी तुमसे दूर नहीं होना हैं 
फिर से कभी प्रेम वेदना में नहीं तड़पना हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट




नयन पट पर तैर आए 
बूँद आँसू वेदना के

चिर -परिचित मुस्कान लिए 
घनी- पीर की चादर ओढ़े
नभ -नक्षत्रों सा दमके 
बूँद में विराट समोए 

उमड़ते हैं ज्वार- भाटा
अंतः सिंधु में सर्जना के 

चले विचारों के आँधी 
शब्दों -भावों की गहरी
संग- संग चली सहचरी 
पंक्ति बद्ध अक्षर लहरी

टूटेंगे संयम के बंध 
आज सारी वर्जना के

पीड़ाओं को मथ -मथ कर
आशाओं को थाम- थाम 
श्रृंगारित होते भाव -भाव 
शब्दों को हैं बाँध -बाँध 

रे!आज कोश है बरसा
नवल कोई चेतना के 

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 



विधा =हाइकु 
==========
वेदना शूल
देते वृद्धों को आज
कठोर पुत्र 

देख वेदना 
हो जाती है भावुक 
मेरी बेटियां 

गर्भस्थ माता 
मुस्काते सह लेती
वेदना सारी 

वेदना शूल 
बच्चे स्वीकारें भूल
बनते फूल

स्वरचित 
मुकेश भद्रावले 
6/12/2018




!! *समझ पाते* !!

काश! तुम
समझ पाते 
मेरी #वेदना / मेरे आंँसू,
तड़प का अहसास
जब जरा सी बात पे ,
यूँ ही झिड़क देते हो 
सबके सामने
चिल्लाकर पूरा घर ,
सर पर उठा लेते हो 
देते हो गाली / करते हो रुसवा
रिश्तें की मर्यादा
करते हो तार-तार
जब कहते मेरा घर 
सब कुछ मेरा
सच कहूंँ ! मन रोता है ,
सामने तुम्हारे मौन रहती हूँ
किन्तु ??
सीले हुए काष्ठ सम
धीरे-धीरे सुलगती ,
न जलती न बुझती , 
अंगारे सी दहकती।
ज्वालामुखी बन ,
लावा सी खौलती हूंँ ।
अपने पुरुषत्व के 
अभिमान में चूर 
मेरा तन-मन रौंदते हो
क्या सोचते हो ?
काश ! कोशिश करते
समझने की
मेरी इच्छा / अनिच्छा 
मैं क्या चाहती हूंँ
समझ पाते मुझे ।

रचनासिंह"रश्मि"
स्वरचित



असीम वेदना से पीड़ित ये नारीं,
परित्यक्ता,विधवा, दुष्कर्म की मारी।
बिना किसी अपराध झेलती दंड,
समाज भी छुड़ा लेता अपना पिंड।
सीता,शंकुतला, यशोधरा की व्यथा,
किसी ने कहां सुनी इनकी कथा।
भोगती रही दंश असीम वेदना का,
अकेलेपन और परित्यक्ता होने का।
स्थितियां कभी कहां बदलती हैं!!
आज भी नारियां ये दंश झेलती है।
वैधव्य भोगती हो जो अबला!
परिवार मानता है उसे बला!!
मनहूस कहकर जाती दुत्कारी,
पीती आंसू वह वेदना की मारी।
दुष्कर्म की मारी, समाज से हारी,
जीवन हो जाता उसके लिए भारी।
मरतीं हैं ये रोज थोड़ा-थोड़ा,
समाज ने इनसे अपना नाता तोड़ा।
भोगती निरपराध दंड अपराध का,
बन जाती जो नासूर उस वेदना का।
कौन समझता है भला इनका द्वंद्व,
क्योंकि लोग हैं दृष्टिहीन और मंतिमंद।।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित



विधा -छंदमुक्त

तुम कब,
समझोगे 
मेरी वेदना।
मेरे कहे 
हर शब्दों को
कर देते हो अनसुना।
फिर अनकहे 
अल्फाजों को,
कैसे तुम 
सुन पाओगे।
मन का दरपन
चटक गया
ख्बाव अधूरा टूट गया।
अब किरचों के 
नश्तर चुभते है।
रूठे अरमान 
कसकते हैं।
तुम 
कब समझोगे 
ह्रदय वेदना।।

रचनाकार
जयंतीसिंह




तिरस्कार या विलगता अपनों की, या टूटना ख्वावो का। 
अक्सर ही बन जाया करता है, कारक यही वेदना का। 
कभी-कभी नहीं सह पाता है, मन अपनों का तिरस्कार। 
हो जाता है दिल टुकड़े टुकड़े, रोया करता है जार जार। 
प्रिय वियोग भी तो दे कर जाता है, कितना ज्यादा नैराश्य हमें । 
हर पल मिलने का रहता ख्वाब, और बनी रहती आस हमें। 
जीवन में सबके ही होता है , कोई ना कोई तो सपना । 
हो जातीं कोशिशें सभी नाकाम, और टूट जाता सपना। 

आवाज भले ही होती ना हो, कभी भी इनके टूटने की , 
लेकिन वेदना तो हम सब की, बन जाया करती है थाथी। 
कभी-कभी वेदना यही, उपहार हमारा बन जाया करती । 
होता है अबोध बालक सा मन, इससे धीरता आ जाती । 
बन जाता मन मजबूत बडा, मुश्किल नहीं डिगा पाती । 
संवेदना जागरण हो जाता , इंसानियत मन में जग जाती। 
निश्चय को पूरा करने के लिए, दृढ़ता हौसलों में रहती । 
कभी-कभी जीवन में वेदना, दुखद भी हो जाया करती। 
मन विरक्त हो जाता दुनियाँ से, जिदंगी बेवसी सी होती। 
कड़वाहट से भर जाता मन, रिश्तों से बेरुखी हो जाती। 
वेदना को हम बना लें गहना, वेदना कलम भी बन जाती । 
जब सुर में वेदना ढल जाती, इतिहास नये वो रच देती । 
रूप कोई भी हो चाहे, सब के ही जीवन में वेदना आती । 
इंसान वही जो सह जाता, आबाद शख्सियत हो जाती |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,




स्वरचित-रेखा रविदत्त
6/12/18
वीरवार

होंठों पर मुस्कान लिए,
आँसू छिपाऊँ नैनों में,
यादें तेरी मुझको तड़पाएँ,
तन मन जलता इन रैनों में,
मिथ्या हँसी सबको दिखाऊँ,
वेदना दिल में समाई है,
लम्हे वो सारे भूले ना जाते,
आँखें मेरी भर आई हैं,
दिलकश बातों से तेरी,
आच्छन्न है हृदय मेरा,
वेदना के तीरों से,
विर्दीर्ण हुआ हृदय मेरा,
तेरी यादों की वर्षा से,
शाद्वल हुआ हृदय मेरा,
वेदना की इस तपन में,
स्निग्ध हरित प्रकाश सा चेहरा तेरा।
आच्छन्न- घिरा हुआ
विर्दीर्ण- भेदना
शाद्वल- नयी हरी घास से युक्त
स्निग्ध हरित प्रकाश- एेसा हरा प्रकाश जिसमें चमक
और शीतलता हो।


मुक्त काव्य(उजड़ा चमन)

माली मिट्टी को कोड़कर
कुछ बीज बोया था
बगिया को सिंचा था
नन्हें-नन्हें पौधों को
हाथों से संजोया था
बढ़ते पौधों को
प्यार से थपथपाया था

कुछ दिन बाद---
सपने साकार हुए
हरे-भरे बागों में
कलियाँ आई मुस्कान लिए
भँवरे मँडराने लगे
गीत खुशी के गाने लगे
खिली कली सुंदर रुप लिए

वसंत ऋतु--- 
भँवरों की गुँजन से
फूलों ने गीत गाया था
देख माली मंद-मंद मुस्काया था
खिला-खिला उसका चेहरा था
प्यार से फूलों को सहलाया था
उसके हाथों में चुभा काँटा था
लहू भी निकल आया था
दर्द को छुपा प्यार से 
सहलाया था

आहिस्ता-आहिस्ता
वक्त ने करवट बदला
पतझड़ का मौसम आया
भँवरा फूलों को छोड़ गया
बाग से नाता तोड़ गया
मकरंद फूलों का लूट गया
फूलों नें हँसना छोड़ दिया

फिर एक दिन---
सारे फूल मुरझाने लगे
डालियों से टूटने लगे
यह देख माली का 
अन्तर्मन वेदना से भर उठा
अश्रुधार बह चली
फिर नहीं वह संभला था
बिलख -बिलख कर रोया था
उजड़ा उसका चमन था

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल



7/12/18
विषय-वेदना( क्षणिका)

बहुत वेदना होती है
नारी से दुराचार सुनकर
मन हौले से यह रोता है
जब भी ऐसा कुछ पढता है

मन में वेदना है
पढा जब से समाचार
घोंट दिया गला गर्भ में
पता चला जब बेटी है।
(अशोक राय वत्स )स्वरचित©

जयपुर 8619668341💐

घायल मन में अवचित आया
सुखद पलों की लेकर छाया।

भीषण गर्मी में जल की धारा
मन वेदना को मिले सहारा।

अपनों ने ही कली मसली
रस निचोड़े भँवरा गली गली।

अधःपतन लांछित नारी
कटु कुठार मन में भारी।

देहत्याग निकली ललना
थाम लिया प्रीत भावना।

गम का मारा वो बंजारा
एक दूजे के बने सहारा।।

स्वरचित
डॉ. नीलीमा तिग्गा (नीलांबरी



मेरी वेदनाऐं कुछ बढती जा रहीं हैं।
मुश्किलें नेता बनने मे आ रही हैं।
मै चाहता जल्दी से नेता बन जाऊँ,
दिक्कतें खजाना लुटाने में आ रही हैं।

चाहता एक लाख रूपये में फसलें खरीदूं।
अपनी प्यारी जनता को एक रपये में बांटूं।
पैट्रोल डीजल चाहे लाखो रूपये में लाऊँ,
लेकिन जनता को मुफ्त में लगातार बांटूं।

दस दिनों में यह सब करके दिखाऊंगा।
पहले आप मुझे वोट दें फिर बताऊंगा।
मेरे बाप ने बहुत कमाकर रखा है यारो,
जो जिसे चाहिए मुफत में ही लुटाऊंगा।

सभी बेरोजगारों को नौकरी दिलाऊंगा।
जो नौकरी भी नहीं करेंगे बैठे खिलाऊंगा।
राशन बिजली पानी सडकों मुफत बंटेंगे,
प्रधान बनने दो सबकी वेदनाऐं मिटाऊंगा।

जादू की छडी मैने हाथ में पकडी भाइयों।
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई मिलाऊं भाईयो।
सभी विदेशियों को मै चरणों मे लिटाऊंगा
अत्याचार आतंकवाद पल में मिटाऊं भाईयो।

हाथ हजारों मै अपने हाथों में लगाऊंगा।
हाथ बलात्कार भ्रष्टाचार सबमें लगाऊंगा।
चिंता नहीं आप विश्वास करें आँखें मूंदकर,
जो भी वेदनाऐं हों चुटकियों में मिटाऊंगा।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

भावों से अलंकृत कविता
सच्चाई साज़ बन जाती
अनुभूति का जो अहसास कराए
वह संवेदना कहलाती
मन को सालता
अंतर्मन चीत्कार कर उठता
ऐसा ही भाव वेदना बनकर
जब जब उभर जाता !
वर्तमान परिदृश्य में आदमी
भावशून्य होता जा रहा
स्वार्थों की अंधी दौड़ में
ख़ुद को धकेल रहा
कर लिया ख़ुद को आत्मकेंद्रित
औरों का हित भुला दिया
ख़ुद के ताने बाने में उलझकर
मानवता को ही ठुकरा दिया !
हृदय विदारक दृश्य 
ना आज उसे झकझोरता
करके मौन धारण बस
मूक दर्शक बनकर देखता !
माँ, बहनो,बहू, बेटियों की 
लुटती अस्मत ना उसे कचोटती 
कोई दुर्घटनाग्रस्त घायल प्राणी की
पीर वेदना ना उसे कचोटती !
जाति धर्म के मुद्दों को
दंगों में ख़ूब उछाला जाता 
जो कुछ कमी रह जाती
आरक्षण नाम पर अराजकता का
खेल घिनौना भी खेल लेता !
हिंसक बन हिंसा फैलाता
आंतकवाद का ज़हर
फ़िज़ाओं में घोल देता
निरीह मासूम जिंदगियाँ रौंदता
रक्त पिपासा तब भी ना बुझा पाता
मानवीय अत्याचारों का यह प्रत्यक्ष प्रमाण
भाव वेदना जागृत करता और मानवता खोती निज प्राण !

स्वरचित 
संतोष कुमारी
नई दिल्ली
जब काली अंधियारी रातों में,
प्रियतम की याद सताती है।
जब आँखों में अश्रुधारा,
लहु बनकर बह जाती है।
जब चुप्पी से चीख़ निकालकर,
आग कंठ में लगाती है।
उसी विरह की वेदना संग
तेरी प्रियतमा निपट अकेले सो जाती है।

जब तुम्हारे अवलोकन को,
हृदय तड़प सा जाता है।
जब तुम्हारे स्वर सुनने को,
कर्ण गदर मचाता है।
तुम अपने जीवन मे ख़ुश हो,
मस्तिष्क ये याद दिलाता है।
बस उसी प्रेम की वेदना में ,
तेरी प्रियतमा को फिर दिल समझाता है।

जब अरमानों की अर्थी पर ,
निष्फल कर्मों के फूल सजते हैं।
जब मिलन की प्यास लिए,
विरह के फ़न डसते हैं।
मूर्छित होता साहस सारा,
अभिलाषा क्रंदन करते हैं।
बस उसी शोक की वेदना में,
तेरी प्रियतमा के व्यथित मन सिसकते हैं।

स्वरचित
मोनिका गुप्ता

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