Sunday, December 23

"स्वतंत्र लेखन "23दिसम्बर 2018

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विधा=हाइकु 
🌹🌹🌹🌹🌹

(1)वात्सल्य भरा 
सागर से गहरा 
माॅ का ह्रदय 
🌹🌹🌹🌹🌹
(2)जय गणेश 
हर लेते कलेश 
पुत्र महेश 
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(3)भक्ति का धन
जिसने रखा संग 
हुआ ना तंग 
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(4) शुभःप्रभात
सुन्दर सब काम 
लो प्रभु नाम
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(5)करे सम्मान 
चेले को मिले जब 
गुरु का ज्ञान 
🌹🌹🌹🌹🌹
🌹स्वरचित🌹
मुकेश भद्रावले 
हरदा मध्यप्रदेश 
गजल 🌺
🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺
भोर के पुलकित सुमन महकते है 
शब्दों के सु
रभित पुँज को नमन करते हैं

साहित्य के सफर मे अपने सभी बेगाने
संस्कार की धरा पर मिलते बिछडते है।

है वंद्य हिंद, हिंदू,हिंदी की भाव भूमि
स्नेहिल सघन जतन से पत्थर भी पिघलते है

सजे मांग सिंदूरी फले फूले सुहाग
पूजन के थाल में रक्त सुमन खिलते है

प्रीत पलाश लिए दिनकर सुमन खिले
सुहाग विभाग इसे सूर्य मुँखी कहते हैं।

खयालों की फितरत अपनी अपनी ही 
ना जाने क्यों बनते बिगडते रहते हैं।

मन पंछी ये बावरा बावरा सा घूमताहै ं
बस शाम ऐ सहर दिवाने बने फिरते है

धवल पृष्ठ पर स्याह से मोती उभरे
हां मगर कितने सुहाने से लगते है

🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺
🌹स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 🌹


ग़ज़ल


मेरी उम्र भर का यह रियाज़ है

ये गीत मेरे दिल का साज है ।।

सोचा पसंद आयेगा आपको 
पर मिले न अब तक मिजाज़ है ।।

दुनिया पसंद न करे नही गिला 
पर गम है आपका मिला न राज है ।।

आपने ही छेड़े हैं दिल के ये तार 
बजे आपको सितार कल औ आज है ।।

गर कोई गिला है बतायें खुलकर 
आदत सुनने की दिल नासाज़ है ।।

आपसे ही हंसता और गाता हूँ
आपसे ही दिल के परवाज़ है ।।

तुम्हे बेशक न हो हम पर नाज़ 
हमें तुम पर ''शिवम" नाज़ है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 23/12/2018
पौष माह के इस मौसम में
ओढे हम नित नयी रजाई
मफ़लर स्वेटर जाकिट पहने
सदा गज़क रेवड़ी सब खाई
शाल टोपा कम्बल सोहता
फिर भी तो हम थर थर कांपे
चाय पकौड़ी खट्टी चटनी खा
गरम सिगरी में सब मिल तांपे
सरहद पर बंदूक साथ ले
सैनिक सर्दी से नित लड़ता
बर्फीली चोटी के ऊपर वह्
सीना ताने वह् आगे बढ़ता
भूख प्यास सहता निशदिन
मातृभूमि जन सेवा करता है
कर शौभित लहलाये तिरंगा
सिंह हिय ,वह् आगे बढ़ता है
होली राखी और दीवाली
अति मौज मिल हम मनाते
भारत माँ के प्रिय लाडले वे
रक्त फाग मिल गोली खाते
रिपु मर्दन लक्ष्य उनका है
बस,भारत की सेवा करना
कभी स्मरण न करते उन्हें
जिन्हें मौत से कभी न डरना
धन्य धन्य वे भारत सैनिक
धन धन्य त्वम मात पिता
सदा खेलते काल चक्र से
तुमने हर दिल को है जीता।।
स्व0 रचित
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


परिस्थिति की विषमताओं
और
काल के कुचक्र से जूझता
आज का हर युवक
गरीबी,भुखमरी
और बेरोजगारी से त्रस्त
एक प्रश्नचिन्ह बना
त्रिशंकु की भांति
अपने ही सीने पर उगे
अवसादों के शूल की
असह्य वेदना
कुण्ठाओं में घोलकर
चुपचाप पी रहा है।

(मेरे कविता संग्रह की कविता " काल चिंतन ")
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना(म.प्र.)

 पिता मेरे
************


आज मैं बिल्कुल अकेला,
बैठा सरित के छोर तृण पर,
हो रही हावी स्मृति,
तात तेरी मन-पटल पर,

याद आता है लड़कपन,
याद आता है लड़कपन,

जब ये पग थे लड़खड़ाये,
थामने मुझको पिताजी,
तुम हमारे पास आये,

झाड़कर रजकण मुझसे,
गोदी उठाकर मुस्कुराये,

होजा चुप मेरा राजा बेटा,
होजा चुप मेरा राजा बेटा,

पांव धरनी पर पटककर,
मारे थे पग चार गिनकर,

मैं विहँस उल्लास में फिर,
भूल जाता था की दुखपर,

थाम तेरी उंगली पापा,
मैं चला बर्षों बरस तक,

अब कहाँ कोई उठाये,
सौ बार गिरता हूँ जमी पर,

हो व्यथित मन को दबाये,
मैं अकेला फिरता पथ पर,
मैं अकेला फिरता पथ पर,

हैं बहुत अपने पराये,
पर जानते है क्या?

मैं भी हूँ उज्ज्वल सितारा,
सब मानते है क्या?

क्या किया अर्जित सफल,
कितना हुआ हूँ मैं,

मोल मेरा है वही,
जितना हुआ हूँ मैं,
....
है कहाँ दो बांह ऐसी,
जो की कंधें पर झुके,

कुछ नही तू सब्र कर अब,
दुख भला क्योंकर सहे,

मत उलझ जीवन में कुछ भी,
आखिरी होता नही,

पाता वही है लक्ष्य केवल,
धैर्य जो खोता नही---

याद है एक बार जब,
मैं हार बैठा था,

अब नही कुछ होगा मुझसे,
स्वीकार बैठा था,

तब पिता तुम पास आये,
मौन-मृदु-मंद मुस्कुराये,

क्या हुआ क्यों हार बैठा?
अपने मन को मार बैठा,

हारना और जितना बस,
दो ही तो परिणाम है,

कर्म कर और करता जा,
बस यही तो काम है,

तुम उठो नव शक्ति भरकर,
लक्ष्य का संधान कर,

तू है पथ का कर्म योद्धा,
अपने पर अभिमान कर,
अपने पर अभिमान कर--

अब नही स्वर है वो मुखरित,
व्योंम में कहीं खो गये,

हम शहर आये कहीं,
और भीड़ में फिर खो गये,

फिर न जाना कहाँ हो,
क्या तुम्हारा हाल है,
क्या तुम्हारा हाल है---

है सदन पर घर नही है,
जो नींद दे विस्तर नही है,

कितने बरस हमने विताये,
बिन नींद के सोते हुये,

हाँ तुमने भी तो काटे होंगे,
ये बरस रोते हुये----

मैं सुखी हूँ सोचकर,
तुम सुखी होते हुये,

रोते होंगे मां से छिपकर,
धैर्य को खोते हुये,

सोचते हो की तपाकर,
लौह को कुंदन बनाकर,

भेजा है जग जितने को,
लक्ष्य का भुज-भीचने को,

हूँ दृढ़ भीतर से लेकिन,
कच्चा अभी हूँ मैं,

हो गया हूँ मैं बड़ा,
पर बच्चा अभी हूँ मैं,
पर बच्चा अभी हूँ मैं-----

ऐ हवा तू उतना कहना,
मैं जितना कहता हूँ,

देखना तुम ये न कहना,
जो मैं सहता हूँ,

ऐ मेरे प्रियतम सुहावन,
ऐ मेरे तुम पुण्य-पावन,

ये संदेशा जाकर कहना,
खुश बहुत मैं हूँ,

बस तुम इतना जाकर कहना,
खुश बहुत मैं हूँ,

हो मगन दिन-रैन बीते,
शुभ मगन मैं हूँ,

देखो लेकिन हँस न देना,
देखो उनको शक न देना,

ऐ मेरे प्रियतम सुहावन,
ऐ मेरे की पुण्य-पावन,

आंख जो उनकी भर आये,
आँसूँ तुम उनके पोंछ लेना,
कहना उनसे दुख करें ना,

लौट आऊंगा मैं उसदिन,
पूर्ण होंगे स्वप्न जिस दिन,
हाँ पूर्ण होंगे स्वप्न जिस दिन------

...राकेश...स्वरचित,

"इन गुलमोहरों को देखकर"
~~~~~~•●•~~~~~~ 


दिल के तहखाने में बंद 
कुछ ख़्वाहिशें...
आज क्यों अचानक 
बुदबुदा रही हैं?
महानदी की... 
इन लहरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

शाही अपना भी रूतबा था
मामाजी के गाँव में!!
बचपन में हम भी..
हुआ करते थे राजकुमार..
सुबहो-शाम घूमा करते थे
नाना की पीठ पर होके सवार..
हमारे हर तोतले लफ्ज़ आदेश..
और हर बात फरमानी थी !
उनका कंधा ही सिंहासन था
और आंगन राजधानी थी !
अपना दरबार तो बैठता था 
वहाँ पीपल की छांव में!
शाही अपना भी रूतबा था
मामाजी के गाँव में!!

क्यों बचपन छटपटाता है?
पीपल के... 
इन मुंडेरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

'क्षितिज' के पार खिसकती
नन्हीं ढिबरी लिबलिबाती 
पहाड़ी की उस चोटी पर..
और चंदा-मामा आ गये हैं 
दूधिली-मीठी-रोटी पर...!
हम रोते-हँसते-खिलखिलाते 
सब रोटी चट कर जाते थे,
और 'चंदा मामा आओ न'
कहकर गुनगुनाते थे !!

क्यों नानी के हाथों से
वो खाना याद आता है ?
कबूतरों के..
इन बसेरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

पगडंडियों से सरकते
सूरजमुखी के खेतों में...
कहीं बचपन खिलखिलाता था !
धूल,धुआँ और कोयले से आगे 
एक कांक्रीट की बस्ती में कैद...
आज यौवन तिलमिलाता है ।

दशहरे-दिवाली की छुट्टियों में 
क्यों भागता है मन?
शहर की चकाचौंध से दूर 
पहाड़ी के पार...
अमराई से झांकते हुए 
इन सवेरों को देखकर !!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!
-@निमाई प्रधान 'क्षितिज'
विरासत 

देखो किसी को किसी की खबर नहीं |

डूबे सभी खुद की जिंदगानी में ||
कैद हो बंद दीवारों में बैठे |
खोये हैं लोग अपनी कहानी में ||

ना माँ के कलेजे से ही लिपटना |
कौन सुने अब्बा की बात सयानी ||
गलियां सुनी पड़ी हैं जाने कब से |
बच्चें करते नहीं वहां शैतानी ||

जादुई कागज़ की तलाश सभी को |
कैसे देखो भूलें खाना पीना ||
बातें करें लोग जाने कितनों से |
औरों को सुन भूलें ख़ुद का जीना ||

ना स्वेटर बुने सिलाइया किसी की |
न दूध से मक्खन मथानी निकाले ||
बरगद की छाया में बैठे बुजुर्ग |
गांव की बातें आपस में सुना दे ||

कागज़ की किश्ती, बारिश की मस्ती |
वो मिट्टी के खिलौनों से खेलना |
तेल के दीप जलाना शाम होते ||
अंगीठी पर चपाती को सेंकना ||

हल चलाना वो भरी धुप खेतों में | 
पत्नी का धुप में रोटी ले आना ||
पल्लू से पति का पसीना पोंछना |
प्याज़, छाछ से मिलकर रोटी खाना |

पहले हर घर कच्चा मन सच्चा था |
अब सबके मन झूठे हैं घर पक्के |
मतलब पर आज टिके सारे नाते |
पैसे आगे झूठे भी हैं सच्चे ||

"मनी" गुज़ारिश है तुझसे बस एक ही |
रिश्तों को मिलकर प्यार से निभा ले ||
अपनी विरासत को आज कैसे भी |
कोशिश कर बच्चों के लिये बचा ले ||

मनिंदर सिंह" मनी"
गजल

आइने सी हुँ इकदिन बिखर जाऊँगी 

साथ तेरा मिले तो सँवर जाऊँगी

लाख कर ले जफा ऐ मेरे दिलनशी
तेरी आँखों में इकदिन उतर जाऊँगी

मिल सके गर नहीं तेरे दिल में जगह
तेरे चरणों में ही रह के तर जाऊँगी

दूर करना न हमको कभी ओ सनम
जीते जी ही कसम से मैं मर जाऊँगी

यूँ न रूठा करो हमसे कुछ तो कहो
तेरे कहने से पी मैं जहर जाऊँगी

आइना सी हुँ इकदिन बिखर जाउँगी
साथ तेरा मिले तो सँवर जाउँगी 

इति शिवहरे
औरैया


लिखने को आज हूँ स्वतंत्र कुछ भी
फिर भी भाव नहीं ,उग रहे कुछ भी
मन का परिंदा , खूब दूर घूम आया
पर वो भी कुछ , नया न ला पाया
कहानी कोई हो , लगती पुरानी सी
वही दुख दर्द,सुख दुख की निशानी सी
वही देश भक्ति है , वही राजनीति है
बुराई सामाजिक है वही कूटनीति है
वही देशद्रोह और , प्रिय परिवार है
वही दरिंदगी है , वही व्यभिचार है
प्रकृति का वर्णन , वही बरसात है
कटुता से किसी की लगा आघात है
मन बेचैन है , नया कुछ लिखने को
कलम ठहरी है , कुछ नया रचने को
ठहरो प्रिय , कुछ आज न लिख पाऊंगी
मन में कुछ जागा तो कल फिर आऊंगी

सरिता गर्ग
(स्व रचित)


दोहा ग़ज़ल

कभी नहीं उन साख पे , खिलें इश्क के फूल ।
जो साखें ढलती नहीं , मौसम के अनुकूल ।।

इश्क तपन है आग सी , राह नहीं आसान ।
राह पकड़ना बाद में , पहले सीख उसूल ।।

होते वह बरवाद ही , जो भी करें घमंड ।
ऊपर जो हैं देखते , नीचे चाटें धूल ।।

रूप रंग का आवरण , देख किये हैं प्रेम ।
मन की तह में झाँक के , किसने देखा मूल ।।

जलन प्रव्रत्ति ठीक नहीं , इसे दीजिये छोड़ ।
भला देख क्यों गैर का , मन में चुभते शूल ।।

स्वरचित 

देवेंद्र देशज 
खैरा पलारी

चीरकर धरती का सीना
पसीने से उसे सींचता है
खुद भूखा रहकर वह
हम सबका थाल सजाता है। 

न रूकता, न थकता
न छुट्टियाँ मनाता है
सहकर तपन सूर्य की
वह अन्न उपजाता है। 

भरता जो पेट हम सबका
क्यों उनकी थाली खनकती है
हमारे बच्चे स्वस्थ रहते
क्यों उनके बच्चे कुपोषित है? 

भूख हरता आज 
आत्महत्या करने को मजबूर है
दुखद है इनकी दशाएँ
क्या यही हमारा किसान
प्रधान देश है? 

स्वरचित: - मुन्नी कामत।


किसान दिवस पर विशेष
---------------------------

कृषक,
भूमिपुत्र,अन्नदाता!
भारतीय अर्थतंत्र का विधाता।

आज स्वयं बना फकीर,
उसकी दशा हृदय देती चीर।

कभी व्यवस्था,कभी प्रकृति,
कभी कर्ज,कभी नियति।

देती नहीं उसका साथ,
महंगाई जैसे कोढ़ में खाज।

अन्नदाता के घर में पड़े अन्न के लाले,
अपनी बिगड़ती हालत कैसे सम्हाले?

बिचौलियों ने किए उसके दिन काले,
छीन लिए इनके मुख के निवाले।

बीज और यूरिया की होती कालाबाजारी,
किसान ने अपनी अब हिम्मत हारी।

खेतों से उसने की है मोहब्बत,
बहाता पसीना करता है मेहनत।

मिट्टी के मोल बिकती हैं फसलें,
बिचौलिए नहीं सही कीमत उगलें।

दो पाटों के बीच पिसता है घुन-सा,
समझ नहीं पाता है दोष किसका?

ऋण माफी की लगाता रहता गुहार,
कागज़ों में पूरी होती ऋण
माफी की पुकार।

योजनाएं उन तक पहुंचती नहीं है,
दशा उनकी देखो सुधरती नहीं है।

कैसे दुर्दिन किसानों के आए?
रोज एक किसान फांसी चढ़ जाए।

तड़पता हृदय मन जार-जार रोता,
किसानों का दर्द कहां कोई सुनता!!

अभिलाषा चौहान

स्वरचित

*कैसे हो रहे हैं अब लोग*
--------------------------------
देख तेरे संसार में प्रभू
कैसे हो रहे हैं अब लोग 
जिनको न रिश्तों की फ़िक्र है
न अपनों का कोई जिक्र है
कैसा आया है यह दौर
कैसे हो रहे हैं अब लोग
संवेदनाएं दम तोड़ती
मतलबपरस्ती दिल में बसती
इंसानियत का नहीं कोई मोल
कैसे हो रहे हैं अब लोग
दौलत वाले दौलत को मरते
भूखे दाने-दाने को तरसते
किसान बिचारे कर्ज में दबे
पर दिखे न इनका तोड़
कैसे हो रहे हैं अब लोग
जाने कितने"कर"नए लाते
सुविधाओं के नाम से भुनाते
जनता बातों में आ जाती
वादों की गोली जब खिलाते
यहां सिर्फ वोटों का है मोल
कैसे हो रहे हैं अब लोग
घोटाले करो और उड़ जाओ
देश का धन बाहर ले जाओ
फिर भी कोई पकड़ नहीं है
पैसों की ताकत बड़ी तगड़ी है
ग़रीब पर चलता सबका जोर
कैसे हो रहे हैं अब लोग
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना

विधा .. लघु कविता
********************
🍁
यादें तो चिर यौवना है,
उस पर ना झुर्री आती है।
मन अरू मस्तिक मे विचर रही,
सपनो मे भी आ जाती है॥
🍁

अच्छी हो तो मन भाती है,
कुछ यादें बहुत रूलाती है।
मन के भावों अरू जीवन पे,
यह अमिट छाप बन जाती है॥
🍁

यादों को याद भले रखना,
यादों को सीख बना लेना।
पर मन पे हाबी हो जाए,
ऐसी यादों को भुला देना॥
🍁

पर बात नही आसा होती,
कुछ भूल नही पाती।
जीवन के पथ पर बार-बार,
यादें रह-रह कर आ जाती॥
🍁

यह शेर की जो रचना होती,
सब यादें है स्मृतिया है।
कुछ खट्टी है कुछ मीठी है,
कुछ तेरी है कुछ मेरी है॥
🍁

स्वरचित ... Sher Singh Sarraf

शीर्षकः- करने वालों निर्बलों पर जुल्मों सितम

करने वालों निर्बलों पर, अपने ज़ुल्मों सितम ।
खाओ स्वयं अपऩे पर ही,तुम भी कुछ रहम ।।

रखोगे तुम यदि जारी, अपने ज़ुल्मों सितम ।
रहोगे नहीं जीवित, अघिक समय तक तुम ।।

रहता नही जीवित, अघिक समय बड़ा ज़ालिम ।
बताते यही,संसार के सभी फाज़िल व आलिम ।।

सुनते हैं प्रभु भी, केवल निर्बल की ही पुकार ।
कहर से उनके करते हैं,दुष्ट सदा ही हाहाकार।।

करोगे बेईमानी तुम,या मारोगे किसी का हक ।
होगी नहीं सुनवाई तुम्हारी,उसके दरबार तक ।।

करो नहीं झगड़ा भाईयों से,न उनसे बेईमानी ।
दोहरायेंगे पुत्र भी तुम्हारे, तुम्हारी ही कहानी ।।

करेंगे आप यदि कोई बेईमानी या मारेंगे हक ।
बेईमान बड़ा आप से,दिखा देगा सूनी सड़क ।।

मिलता हे दबंग को बहुधा, दबंग उस से बड़ा ।
ढ़ाता है सितम उस पर वह, उससे भी कड़ा ।।

कृपा से प्रभु की भोला कटरा,सदा दूध है पीता ।
स्याने कौए को, मिलती सदा खाने को विष्टा ।।

लगाओगे पेड़ बबूल के,खाओगे कैसे तुम आम ।
मिलेगा फल वैसा आपको, करोगे जैसे काम ।।

बीज नफरत का बोने से, नफरत तुम पाओगे ।
बोओगे बीज जैसा,फसल वैसी तुम ही काटोगे ।।

करते बच्चों से अपने तुम,जितना अधिक प्यार।
करता है मालिक, बन्दों अपना उतना ही दुलार।।

गर बन्दे को मालिक के,जितना तुम सताओगे ।
कहर मालिक का तुम, अधिक उतना उठाओगे ।।

मालिक के नाम अनेक, होना चाहिये तुम्हें ज्ञान।
मालिक के हर नाम पर, होना तुम्हें सदा कुर्बान।।

घर मालिक के किसी नाम का, यदि तुम तोड़ोगे ।
होंगे नाराज़ मालिक, फिर कहीं के भी नहीं रहोगे।।

मिलेगा नहीं किसी भी जहाँ में, तुम्हें कोई ठिकाना।
रहेगा नहीं कोई भी अपना, होगा जग सारा बेगाना।।

हो जायगा व्यथित हृदय तुम्हारा,मिलेगा नहीं चैन ।
जियोगे भय व चिंता के साये में, दिन हो चाहे रैन ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
व्यथित हृदय मुरादाबादी
स्वरचित

विधा :: ग़ज़ल-हम सदा रिश्ते क्यूँ आजमाते रहे... 


रात भर तुम मुझे यूं सताते रहे... 
चाँद तारों में छुप मुस्कुराते रहे...

उम्र भर आयी तो मन लगा सोचने...
हम सदा रिश्ते क्यूँ आजमाते रहे... 

रात आंधी चली कुछ ऐसी ज़ोर से.. 
सहर में भी बिखर बिखर जाते रहे...

हो नहीं साथ दिल मगर कहता यही...
रहगुज़र मेरी तुम रौशनाते रहे...

मैं ख़ुशी का पता जब से गम का दिया...
मिलने से सब मुझे हिचकिचाते रहे...

शायद आ जाए मुझ पे तेरा दिल कभी... 
सोच कर तुमसे नज़रें मिलाते रहे...

सोच मत दुनिया से है मिला क्या 'चँदर '... 
गालियां दीं जिन्हें पूजने भी उन्हें जाते रहे...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
विधा लघु कविता

एक तलाश रही सदा,
खुद में ही खुद की।
जकड़े रही मोहपाश में,
लालसा भौतिक सुख की।

चल रहा द्वंद्व अंतर्मन में,
लेकर कुछ अरमानों को।
छोड़कर अब सब यहाँ,
चलना है आसमानों को।

है एक रंगमंच कुदरत का,
जीवन है खेल तमाशा।
गिरने को है परदा अब,
खत्म होने को है प्रत्याशा।

आशा व निराशाओं का,
तना हुआ था सब पर घेरा।
सज रही पालकी अब,
यहाँ रहा न कोई अब तेरा।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
लूट लिया किसी ने
मुझसे मेरी हँसी
खिलखिलाकर हँसने की
फितरत थी मेरी
नजर ये मुझपर
किसकी लगी

मीठी थी वो मुस्कान
बन गई चाहत मेरी
पत्थर दिल बन बैठा
बनाकर अफसाना कोई

मेरी चाहतों ने चाहा है जिसे
एक तू ही है नहीं दूजा कोई
अर्पण कर आई थी
चरणों में तेरी
वो पूजा के फूल थे मेरे

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


किसान
(1)
मंदिर खेत 
कृषक ने चढ़ाये 
कुसुम स्वेद 
(2)
मौसम मार
कृषक झोली आँसू
श्रम बर्बाद
(3)
ठिठुरी रात
खेत माँ का आँचल
गोद किसान
(4)
कर्ज का मर्ज
किसान आत्महत्या
श्रम को शर्म
(5)
प्रभु आसरे
स्वप्न बोए किसान
आशा के खेत
(6)
खेत माँ सर
किसान पहनाए 
हरी चुनर
(7)
रजत वर्षा
भू से निपजा स्वर्ण
कृषक हर्षा
(8)
कृतध्न इंसां 
किसान अपमान 
नाली में धान 
(9)
भोला अंजान 
बिचौलिये व कर्ज़ 
ठगा किसान 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
पाकर तेरा साथ 
मुस्कुराना सीख लिया,
ना बुझने देंगे हम,
दोस्ती का ये दिया,
अंधेरी जींदगी में,
रोशनी बनकर आए,
रहती हैं साथ सदा,
ए दोस्त तेरी दुआएँ,
सूने दिल में मेरे,
प्रेम के फूल महकाए,
बनकर साज मेरा,
हरदम गुनगुनाए,
है दुआ यही खुदा से,
साथ ना तेरा छूटे,
हर राह में रहे साथ,
कभी ना की रूठे,

स्वरचित-रेखा रविदत्त

23/12/18
*****दुनियाँ *****

नहीं कोई तेरा न है तू किसी का, दुनियाँ मतलब की साथी रहेगी | 

अंधेरे उजाले फूल हैं इस चमन के, गुजर तुझको इन से ही करनी पड़ेगी |

आया है अकेले तुझे जाना भी अकेले, तुझे अकेले ही रुखसत करनी पड़ेगी |

बहुत ही वेवफा है ये जिदंगानी, तुझे मुहब्बत इसी से करनी पड़ेगी |

नाम अपना जहाँ में रह जाय जिंदा, कुछ कमाई ऐसी भी करनी पड़ेगी |

करें काम हम वो हो न किसी की बुराई, हमें रब ने भेजा करने भलाई |

मुफ्त की बातों में गँवायें न जिदंगानी, करें कुछ इबादत जीत लें हम खुदाई |

मौका न देगी बेरहम है जिदंगानी,आज ही हम करें जो भी करना कमाई | 

किसी को कल की तस्वीर पडी न दिखायी, न दुनियाँ किसी के कभी हाथ आई |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

ब्द उदगार है,
शब्द सत्कार है,
शब्द उपहार है,
शब्द बहार है।

शब्द महान है,
शब्द निर्माण है,
शब्द प्राण है,
शब्द सभ्यता का प्रमाण है।

शब्द जीवन की बुनियाद है,
शब्द एक अनुपम प्रसाद है,
शब्द कविता का उन्माद है
शब्द मानवीय फसल की खाद है।

शब्द शक्ति है,
शब्द अभिव्यक्ति है,
शब्द भक्ति है,
शब्द प्रशस्ति है।

तू है शब्द से परे,मेरे परवरदिगार,
फिर भी शब्द से गुँथा,यह महकता हार,
तेरी शान में अर्पित, यदि कर ले स्वीकार,
तो मेरा जीवन भी, हो जाये एक त्योहार।

कर ले मुझे,अपने में लीन,
मैं तड़पती,प्यासी मीन।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि।

हसरतें दिल में कई पलती है
-
---------------------------------------

हसरतें दिल में कई पलती है
कुछ मिटे हैं तो कुछ फलती है।

आज मन ने कहा मुझे कुछ ये
गम न करना फ़िज़ा बदलती है।

झूमती वादियाँ कहे कान में ये
प्यार के रुत कभी पिघलती है।

बिन तेरे मेरा अस्तित्व कहाँ है 
तुमसे ही मेरी दुनिया पलती है।

वो कहे थे मुझे मैं आऊँगा 
जाने दुनिया क्यों बदलती है?

हर तरफ धूंध सी दिखती है
आस उसकी रंग बदलती है।

शोखियाँ हैं बहुत ही बातों में 
हिय में मेरे उमंग पलती है।

सपने मन में अनेक जो पलते 
रुसवाई से हमेशा खलती है।

हर तरफ धूंध सी बिखेरे जो, 
भ्रम मन को हमेशा छलती है।

--'रेणु रंजन
( स्वरचित )
विषय - किसान

है 
तेज 
तपती
धूप फैली
हल जोतता
फसल सींचता
भारतीय किसान 


देखे
बरखा
गर्मी सर्दी
खेती करता
फसल उगाता
मेहनती किसान

सरिता
गर्ग
(स्व रचित)


स्वेद श्रृंगार
जीवन उपजाता
ये अन्नदाता ।

अन्न उपजे
खेत खड़ा किसान
भूखे बच्चे

निराशा परे
फिर नई फसल
आस किरण।

धरती पुत्र
कठिन परिश्रम
अनवरत।

लड़े किसान
अन्न का अपमान
मोल न कोई।

नियत वर्षा
धन धान्य है क्षेत्र
कृषक खुश।

सुखद फल
अथक परिश्रम
कृषक जय।

स्वरचित

गीता गुप्ता "मन"

एक अंकुर प्रस्फुटित हुआ
बना वह कोमल नन्हा पौधा
पानी खाद व धूप से सींच
अंकुर बना एक विशाल पौधा

जो था कल तक सबसे छोटा
आज बन बैठा वह विशाल पेड़
सैकड़ों खग का आश्रय बना वह
वह जो था कल नन्हा पौधा

जो आज छोटा हैं,
उसे कम नही समझे हम
कल को वह बन सकता 
है हमारा आका।
कल क्या हो किसने देखा?
कब बदल जाये किसकी रेखा
अपने कर्मों का लेखा जोखा
हमें स्वयं ही रखना होगा

हमारा एक छोटा सा प्रयास
बदल सकता है किसी का जीवन रेखा
करें हम कुछ ऐसा काम
दूसरों के साथ बदल जाये
अपनी भी जीवन रेखा।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।

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