Saturday, December 22

"संसार "22दिसम्बर 2018

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कभी नफरत कभी प्यार
कभी खिजां कभी बहार 
कभी नकद कभी उधार 
है यहाँ कर्मो का व्यापार
यही कहलाता है संसार.....

कभी रोना कभी हंसना 
कभी उवरना कभी फंसना 
कभी झगड़ना कभी गसना
कभी मौज कभी खुमार 
यही कहलाता है संसार.....

कभी झूठ कभी साँच
कभी आस कभी निराश 
कभी गम कभी उल्लास
कब किसकी 'शिवम' भरमार
यही कहलाता है संसार.....

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 22/12/2018


**************
ये मेरा घर-संसार ,
मेरे बच्चों से है आबाद, 
इनकी शरारतें मुझको प्यारी,
मेरी बगिया की हैं ये फुलवारी |

सास-ससुर की है छत्रछाया, 
इससे बड़ी नहीं कोई माया, 
देवर-देवरानी का है साथ, 
ऐसा है मेरा घर-संसार |

पति मेरे बहुत ही प्यारे, 
सबकी आँखों के वो तारे, 
हैं वो बड़े ही जिम्मेदार ,
ऐसा है मेरा घर-संसार |

मेरी तो दुनियां यही है, 
ज्यादा की अपेक्षा नही है, 
खुशियाँ यूँही रहें बरकरार, 
बना रहे मेरा घर-संसार |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

श्रद्धाजँलि 🌹
आज के दिन ही छोड गयी थी, वो मेरा संसार।
शेेर हृदय ने फिर लिखा है,भाव छलकता सार॥

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

बादलो के पार उसका छोटा सा संसार है।
अनकही सी अनसुनी वो दिव्य सा संसार है।
🍁

जिसमे रहते है मेरे अपने जो अब है पास ना।
मेरी '' प्रीती '' भी छुपी है बादलो के पार हा।
🍁

कौन देखा उसे कब कौन जान पाया था।
जानने से पहले वो यमराज बन कर आया था।
🍁

तोड के सारे ही बंधन आज ना वो पास है।
बादलो के पार उसका छोटा सा संसार है।
🍁

देखती रहना मुझे तुम अपना वादा याद कर।
मै भी ना तोडूगाँ वादा बात पर विश्वास कर।
🍁

बादलो के पार से तुम मेरा रस्ता देखना।
वादा पूरा करके अपना आऊगाँ मै भी वहाँ।
🍁

फूल सा दिखता हृदय मे काँटो का आरण्डय है।
शून्य है प्रारब्ध मेरा शून्य मेरा अन्त है।
🍁

शेर के तपते हृदय का अनकहा सा सत्य है।
शून्य है प्रारम्भ मेरा, शून्य ही अब अन्त है।
🍁

...
🍁तुम बहुत याद आती हो.... Sher Singh Sarra
चञ्चल चपल मायावी जग में
कोई वस्तु स्थिर नहीं है
कब क्या हो जावे जगति में
पूर्व कथन भी ठीक नहीं है
सारी सृष्टि अथाह सागर है
जिसका कोई छौर नहीं है
बड़वाग्नि आती जाती नित
कोई जिसका तौल नहीं है
यह मेरा है वह् उसका है
जग में यह भी ठीक नहीं है
आशा और विश्वास अधूरे
अपना पराया उचित नहीं है
जीवन जीना एक कला है
जैसा चाहें वैसा जीते
कोई जग में सब कुछ पाते
कुछ रहते जग रीते रीते
जीवन ही संग्राम जगत में
संघर्षी जन आगे बढ़ता है
महा सागरीय इस सृष्टि में
कोई रोता है,कोई हँसता है
कभी संसार स्वर्ग बनता है
कभी संसार नरक बनता है
कर्म प्रधान होते इस जग में
सद कर्मों से सब मिलता है।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

(1)रहे सतर्क 
मतलबी संसार 
ओ मेरे यार 

(2)संसार रीत 
अच्छे कर्मों की जीत 
यही तू सीख 

(3)जीवन मृत्यु 
संसार का नियम 
अटल सत्य 

(4)खिलते यहाँ 
संसार उपवन
विभिन्न फूल 

(5)संसार नाव
बैठ के सुख दुःख 
करेंगे पार
🌹🌹🌹🌹🌹
स्वरचित 
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश 


Vipin Sohal
हर दौर बुरा है देखो अंजाम शरीफों का। 
इस दुनिया में नही कोई काम शरीफों का। 


करता है कोई और भरता है कोई और। 
बस हुआ है बदनाम तो नाम शरीफों का। 

हर रिश्ता एक धोखा हर वादा है साजिश।
फिर दिल क्यों न होता नाकाम शरीफों का।

ईमान बिके दौलत के एवज अरमान बिके। 
लालच के बाजारों में क्या दाम शरीफों का।

क्या क्या कह गुजरें हैं नानक और कबीर। 
कौन सुने है इस दहर पैगाम शरीफों का। 

कितनी मीनारे और मूरत तुमने बनवाई। 
जोहे बाट अवध में मेरा राम शरीफों का। 

विपिन सोहल




 इस बार सलोना जीवन है,
उस बार न जाने क्या होगा,
न हम होंगे न तुम होगी,

संसार न जाने क्या होगा,

न छाँव तुम्हारे केशों की,
न गीत तुम्हारे अधरों का,
न गंध तुम्हारे तन-मन की,
न सुरा तुम्हारे यौवन का,

नवदिप्ति छटा इस यौवन का...
श्रृंगार न जाने क्या होगा...

इस बार सलोना जीवन है,
उस बार न जाने क्या होगा,
न हम होंगे न तुम होगी,
संसार न जाने क्या होगा,

पता नही तरु होंगे की,
तरुवर की छाया भी न होगी,
न हरित पत्र तरुवर की,
न उसकी कोमल फुनगी होगी,

इस हरी -भरी प्रकृति का,
व्योहार न जाने क्या होगा....

इस बार सलोना जीवन है,
उस बार न जाने क्या होगा,
न हम होंगे न तुम होगी,
संसार न जाने क्या होगा,

पता नही इन सुन्दर-सुन्दर,
फूलों का फिर क्या होगा,
क्या फिर अलि-दल पर,
भोर समय भौरा होगा,

इस धरती पर इन पुष्पों का,
उपहार न जाने क्या होगा....

इस बार सलोना जीवन है,
उस बार न जाने क्या होगा,
न हम होंगे न तुम होगी,
संसार न जाने क्या होगा,

पता नही इन नदियों के,
कल-कल,छल-छल का क्या होगा,
झीलों के तीरे बैठे इन,
खग दल-बल का क्या होगा,

झर-झर बहते झरनों के,
झनकार न जाने क्या होगा....

इस बार सलोना जीवन है,
उस बार न जाने क्या होगा,
न हम होंगे न तुम होगी,
संसार न जाने क्या होगा,

....राकेश,स्वरचित



विधा गद्य /कहानी :/संसार
क्रोध से तमतमाई आग बबूला होरही निशा अपना आपा खो तृषा पर
गालियों की बौछार करती.हुई निरंतर चिल्लाये जा रही थी ।
अरे कम़बख़्त क्या मिला तुझे मेरा बसा बसाया घर संसार उजाड़ कर ।तृषा निरपराध होकर भी चुपचाप उसका अनर्गल प्रलाप सुन रही थी ।सारा दोष तो रवि का था जिसने उसे अपने प्रेम जाल में फंसा कर उसका शोषण किया ।वह भी न जाने कैसे उसकेप्रेम जाल में ऐसी फंसी की निकला दूभर होगया ।चाह करभी वह उस मकड़ जाल से नही निकल पा रही थी ।रवि ने उसे ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर
दियाथा कि एक ओर कुआँ था तो दूसरी ओर खाई ।
निशा ने आज उसे अंतिम निर्णय के लिये बुलाया था
यहकहते हुये कि -एक म्यान में दो तलवारें न ही रह सकती ।
मैरे समक्ष मेरा नही मेरे बच्चों का भविष्य दाव पर है ।और एट मां अपने बच्चों के लिये किसी भी हद तक जा सकती है ।उसकी कोई सीमा नहीं ।उनके लये वह अपने प्राण दे भी सकती है और किसी के प्राण ले भी सकती है ।मुझे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों का पिता चाहिये ।पति तो मैं पहले.ही खोचुकी जिस दिन वह मुझे छोड़ तेरीगिरफ़्त में आया ।
तृषा समझ गई उसे रविने अपने झूठे प्रेम जाल में फंसा कर धोखा दिया ।उसके लिये तो उसका शरीर ही सब कुछ है
प्रेम वेम कुछ नही ।प्रेम तो निःस्वार्थ होता है त्याग और बलिदान मांगता है ।मैनें उसे चाहा तो उसके परिवार की खुशियां वापिस लौटाने के लिये मुझे उसे छोडना ही पड़ेगा हमेशि के लिये ।निशा को आश्वासन देकर तुम्हारा घर संसार में टूटने नही दूंगी ।तुम स्वयं अपने पति को संभालो और उसे कहींभी भटकने से रोको ।तुम उसकी पत्नी हो बाद में अपने बच्चों की मां.तुम्हारा उस पर पूर्ण अधिकार है उसे क्यों छोड़ो ।
मैं चली तुम्हे तुम्हारा भगोड़ा पति सौंप कर देखना वह फिर कहीं किसी और के साथ न भाग जाये ।संभाल के रखना 
कह कर तृषा चली गई रवि के जीवन से हमेशा के लिये 
रात्रि को जब रवि आया तो उसने दरवाजा भड़ाक
से बंद करते हुये कहा चले जाओ यहां से यहतुम्हारा घर नही है और न मैं तुम्हारी पत्नी 
।मेरा संसार दूसरा है .....।।
स्वरचित :/उषासक्सेना

कविता 
शीर्षक मन का पंछी 
मन का पंछी पुकार रहा, 
ढूंढे शांति को यहाँ वहाँ, 
सांसारिक बंधन छोड़े कैसे, 
भटक रहा है ये सारा जहां ll

भौतिक यह संसार है, 
दुविधा अपरम्पार है, 
बांध सके जो ना मन को, 
उसका बेडा ना पार हैll

जिसने बाँध लिया है इसको, 
जीत जगत लिया है उसने, 
ये संसार केवल मोह माया, 
झूठी ममता झूठी काया ll
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित



संसार
1

कंकड़,पत्थर जोड़
बसाया
सपनों का संसार
विश्रांति की वेला में
सब असार
2
न सम है,न सार है
गूंगे के गीत का
फलता व्यापार है
पक्षाघात हाथों में,
लिए पतवार है
ये संसार है।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


हम सब ही संसारी जन प्रभुजी,
हैं सभी पुष्प तेरी फुलबगिया के।
आज सभी पुलकित हैं प्रभु जी,
कब रूखसत हों जाऐं दुनिया से।

सृष्टि के रचैया तुमहिं हो भगवन,
जो जब चाहें सब कर सकते हो।
हमें सुखी रखें या दुखी रखें आप
जब मन भाऐ तुम कर सकते हो।

क्या कर्म धर्म सब आप जानते।
भाव स्वभाव सभी आप जानते।
सब कुछ ही अब प्रभु तेरे हवाले,
तुम अंतर्यामी प्रभु सबही जानते।

हैं अनेक विचार भाव व्यवहारी।
बहुत विविधताऐं हैं बांकेबिहारी।
मन मानस सब अलग अलग हैं,
प्रेमपुँज कुछ यहां कपटी संसारी।

आवागमन सब नियति करतूति।
करें संसार हम अनेक अनुभूति।
किसी के मन की मै क्या जानूँ,
ना सुहाऐ हमें कोई पराई विभूति।

स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


संसार एक माया नगरी है
दु:खों की ज्वाला में जल रहे
कभी सुख की ठंडी छाँव है

संसार एक माया नगरी है
कौन है अपना कौन पराया
बड़ा मतलबी यह जहान है

संसार एक माया नगरी है
प्रेम प्रीत का मोल नहीं
दौलतों से करते अभिमान हैं

संसार एक माया नगरी है
अहंकार में जल रहे देखो
इर्ष्या द्वेष के चढ़े परवान है

संसार एक माया नगरी है
माटी के हैं हम पुतले
खो रहे निज पहचान है

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


संसार मेरा तू 
रखवाला मेरा तू
तू ही पालनहारा
तारणहार मेरा तू
तुझ बिन मेरा कोई नहीं
संसार मेरा तू
पालनहार मेरा तू

आसमां में तू
जमीं मे तू
प्रकृति के कण-कण मे तू
संसार मेरा तू
पालनहार मेरा तू

मेरा भक्ति भाव तुझसे
मेरी हर प्रार्थना में तू
तेरे ही नाम की माला जपूं हरदम
संसार मेरा तू
पालनहार मेरा तू

भक्ति का प्रसाद दे
हर मेरे अवसाद ले
प्रभु तेरी माया 
तन माटी की काया
हर मार्ग मेरा कर प्रकाश तू
संसार मेरा तू
पालनहार मेरा तू

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


संसार है रंगमंच,
हम सब हैं कठपुतलियां।
नाचते रहते सदा,
जैसे नचाता विधाता।
नश्वर को मानकर सत्य,
अपना लेते जीवन में असत्य।
सांसारिक मोह-माया,
कभी धूप कभी छाया।
बनती जीवन का उद्देश्य,
भूल जीवन का लक्ष्य।
संसार में संसार के लिए,
रहते हैं सदा लड़ते।
ईश्वर का ये सुन्दर संसार,
हम मनुष्य ही असुंदर बनाते।
बन कठपुतली माया की,
सत्य विमुख हो जाते।
मेरा-तेरा, अपना-पराया,
इसमें ही उलझे जाते।
सागर जैसे इस संसार में,
जीवन-नैया डोलती।
तिनके-सा अस्तित्व हमारा,
ये बात न आंखें खोलती।
सबकुछ होता पास हमारे,
कुछ भी काम न आता।
उठ जाती जब डोली,
संसार धरा रह जाता।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

होता सार नहीं जिसका कोई, ये संसार वही कहलाता है, 

मतलब तो नहीं समझा कोई, प्राणी आता जाता रहता है, 

हुआ पैदा जुड़ी रिश्तों की डोरी, छोटे से बड़ा हो जाता है, 

आबाद नयी दुनिया होती, सामना उलझनों से होता है, 

कुछ तस्वीर बुढ़ापे की ऐसी, केवल पछतावा ही होता है, 

आया भटका गुजारी जिंदगी , वापस फिर जाना होता है, 

बातें हैं ये संसार सागर की, एक घर संसार भी होता है , 

होतीं बातें जहाँ खोने पाने की, पैमाना प्यार का होता है, 

हसरत यहाँ रहती पाने की, मतलब ही मतलब होता है, 

यहाँ घेरे कामनाएँ रहतीं , घर संसार ऐसे ही चलता है , 

कोशिशें बहुत सी सबने कीं, संसार चक्र नहीं रुकता है, 

दुनियाँ में परमगति चलती , आवागमन ये चला करता है,

अच्छी गति हो जीवन की, प्रयास हमें यही तो करना है |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,


"क्षणिका"
विषय:-"संसार"
(1)
दौड़ते रहे
मरीचिका में 
हाथ न आया 
सार 
अतृप्त 
ईच्छाओं का बाज़ार 
माया "संसार"
(2)
आतंकवाद 
मानवता की हार 
स्वार्थ का व्यापार 
प्रदूषण ने घोंटा गला 
दुःखी "संसार" 
(3)
विषमता अपार 
बिकता प्यार 
भावनाओं का व्यापार 
दिल भी खिलौना 
अजब "संसार"
(4)
धरा बिछौना 
आकाश ओढ़ना 
पेट की खातिर 
तन तोड़ना 
छोटे-छोटे सुख को सहेज 
सोता मन को मार 
गरीब का संसार 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


कितना सुंदर तूने यह संसार बनाया
रंग बिरंगे फूल बनाया
सूरज चाँद सितारों से
रौशन हमारा संसार बनाया

सुंदर सुहाना मौसम बनाया
दिन रात का चक्र बनाया
सबसे सुंदर विवेकी मानव
सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया

स्थायी नही पर ,यहाँ कुछ भी
जो आये है संसार में आज
कल उसे जाना होगा
हर कुछ है यहाँ नश्वर

बस रह जाये नाम यहाँ पर
करें हम कुछ ऐसा काम
अमर हो जाये नाम हमारा
रह जाये संसार मे नाम हमारा।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


विधा - गद्य

संसार की रचना ब्रह्मा ने की । संसार ने ब्रह्मा से पूछा 'इतनी बड़ी सृष्टि की जिम्मेदारी मैं कैसे सम्भालूँगा ?' ब्रह्मा जी ने कहा 'तुम निश्चिंत रहो । मैंने पृथ्वी पर एक जीव भेजा है , जो विलक्षण प्रतिभा का धनी है , वही सब संभालेगा ।' संसार ने कहा 'जरा स्पष्ट करिए' । ब्रह्मा बोले 'मानव ही इस समस्त जड़ - चेतन, चर- अचर की देखभाल करेगा ।' संसार ने फिर पूछा 'भला क्यों ? ' इसके जवाब में वे बोले 'उनकी रक्षा में ही उसका अपना स्वार्थ नीहित है । जब तक वह इनकी रक्षा करेगा, खुद भी सुखी और सही - सलामत रहेगा। यदि वह इनका दुरुपयोग या नाश करेगा, खुद भी नष्ट हो जाएगा और एक बार मानव जीवन मिला तो उसे वह आसानी से नही गंवाएगा ।' संसार बोला 'मगर प्रभु मानव खुद इन पशु - पक्षियों का शिकार करता , इन्हें खाता है'।ब्रह्मा बोले 'यह भी एक व्यवस्था के तहत है ,यदि वह इन्हें न खाए तो सागर जल जीवों से भर जाए और असंख्य कीट - पतंगे धरती पर जमा हो जायें । क्योंकि ये ज्यादा मात्रा में पैदा भी होते हैं । इस व्यवस्था के तहत ही यह चक्र चलता है । बड़े और शक्तिशाली जीव छोटे और कमजोर का भक्षण करते हैं ।'
' यदि मानव प्रकृति का नाश करेगा , पेड़ - पौधे काटेगा तो उसे प्राण वायु ,फल और फूल कहाँ से मिलेंगे , नदियाँ दूषित करेगा तो पेय - जल कहाँ से उपलब्ध होगा । इसी तरह प्रकृति पर ही उसका जीवन निर्भर है । किसी भी चीज का विनाश उसे मेहँगा पड़ेगा अतः वह इनकी रक्षा स्वयम करेगा फिर बाकी मैं खुद सम्भाल लूंगा। समय - समय पर
मानव को दंडित भी मैं ही करूँगा। उसके सुख दुख मेरे हाथ में हैं। अब यह उसके हाथ में है , चाहे तो अपने हिस्से की खुशियां बटोरे चाहे आजन्म दुख भोगे ।उसके कर्म ही उसके मोक्ष की दिशा तय करेंगे ।' इतना सुन संसार निश्चिंत हो अपनी गति से चलने लगा ।
( संसार का मानवीयकरण )

सरिता गर्ग
(स्व रचित)


" संसार"
आँखों में खुशियाँ
दिल में प्यार
तुम्ही दोनों फूल
मेरा छोटा सा संसार
आशाएँ सारी पूरी हो,
दुआ यही बारंबार
तुम दोनों ही हो
मेरे जीवन का आधार
सांसारिक दुखों से 
ना कभी घबराऊँ
तुम्हारी खातिर मैं
दुनियाँ से लड़ जाऊँ
मत घबराना तुम कष्टों से
छाया तुम पर मेरे प्यार की
सुख-दुख की सीढ़ी चढ़ना
रीत यही है संसार की ।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
22/12/18
शनिवार




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