Sunday, December 9

"स्वतंत्र लेखन "9दिसम्बर 2018


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ब्लॉग संख्या :-232






पचपन में भी बचपन रखिये
जवां सदा मन खुद में रखिये

माना तन है थका थका सा
मन मानस को जवां ही रखिये।

बचपन से पचपन है आया
दौरे लुत्फ उठाते रहिये।

खट्मीठी बातों की गठरी 
अंत समय तक साथ है रखिये।

छूट गया सो छूट गया है
हाथ जो आया , थामें रखिये।

बचपन से है कठिन चढ़ाई 
हौसले बुलंद सदा ही रखिये।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


कीर्ति की कामना मुझे नहीं 
फिर भी कर्मों के पथ से
कभ भी रुका नहीं 

ताज की चाहत मुझे नहीं 
फिर भी सत्य पथ से 
पल भर भी डिगा नहीं 

यशोगान का मुझे लोभ नहीं 
फिर भी बाधाओं से 
कभी भी डरा नहीं 

सुख की लालसा मुझे नहीं 
फिर भी निराशाओं से
मन मेर घिरा नहीं 

मंजिल की तमन्ना मुझे नहीं 
फिर भी राहों में खड़ा अकेला 
कभी भी रुका नहीं 

जीत की आकांक्षा मुझे नहीं 
फिर भी शत्रुओं से कभी
डरकर हारा नहीं 

स्वरचित पूर्णिमा साह




आज मैं बिल्कुल अकेला,
बैठा सरित के छोर तृण पर,
हो रही हावी स्मृति,
तात तेरी मन-पटल पर,

याद आता है लड़कपन,
याद आता है लड़कपन,
जब ये पग थे लड़खड़ाये,
थामने मुझको पिताजी,
तुम हमारे पास आये,
झाड़कर रजकण मुझसे,
गोदी उठाकर मुस्कुराये,
होजा चुप मेरा राजा बेटा,
होजा चुप मेरा राजा बेटा,
पांव धरनी पर पटककर,
मारे थे पग चार गिनकर,
मैं विहँस उल्लास में फिर,
भूल जाता था की दुखपर,

थाम तेरी उंगली पापा,
मैं चला बर्षों बरस तक,
अब कहाँ कोई उठाये,
सौ बार गिरता हूँ जमी पर,
हो व्यथित मन को दबाये,
मैं अकेला फिरता पथ पर,
मैं अकेला फिरता पथ पर,

हैं बहुत अपने पराये,
पर जानते है क्या?
मैं भी हूँ उज्ज्वल सितारा,
सब मानते है क्या?
क्या किया अर्जित सफल,
कितना हुआ हूँ मैं,
मोल मेरा है वही,
जितना हुआ हूँ मैं,
....
है कहाँ दो बांह ऐसी,
जो की कंधें पर झुके,
कुछ नही तू सब्र कर अब,
दुख भला क्योंकर सहे,
मत उलझ जीवन में कुछ भी,
आखिरी होता नही,
पाता वही है लक्ष्य केवल,
धैर्य जो खोता नही---

याद है एक बार जब,
मैं हार बैठा था,
अब नही कुछ होगा मुझसे,
स्वीकार बैठा था,
तब पिता तुम पास आये,
मौन-मृदु-मंद मुस्कुराये,
क्या हुआ क्यों हार बैठा?
अपने मन को मार बैठा,
हारना और जीतना बस,
दो ही तो परिणाम है,
कर्म कर और करता जा,
बस यही तो काम है,
तुम उठो नव शक्ति भरकर,
लक्ष्य का संधान कर,
तू है पथ का कर्म योद्धा,
अपने पर अभिमान कर,
अपने पर अभिमान कर--

अब नही स्वर है वो मुखरित,
व्योंम में कहीं खो गये,
हम शहर आये कहीं,
और भीड़ में फिर खो गये,
फिर न जाना कहाँ हो,
क्या तुम्हारा हाल है,
क्या तुम्हारा हाल है---

है सदन पर घर नही है,
जो नींद दे विस्तर नही है,
कितने बरस हमने विताये,
बिन नींद के सोते हुये,
हाँ तुमने भी तो काटे होंगे,
ये बरस रोते हुये----

मैं सुखी हूँ सोचकर,
तुम सुखी होते हुये,
रोते होंगे मां से छिपकर,
धैर्य को खोते हुये,
सोचते हो की तपाकर,
लौह को कुंदन बनाकर,
भेजा है जग जितने को,
लक्ष्य का भुज-भीचने को,
हूँ दृढ़ भीतर से लेकिन,
कच्चा अभी हूँ मैं,
हो गया हूँ मैं बड़ा,
पर बच्चा अभी हूँ मैं,
पर बच्चा अभी हूँ मैं-----

ऐ हवा तू उतना कहना,
मैं जितना कहता हूँ,
देखना तुम ये न कहना,
जो मैं सहता हूँ,
ऐ मेरे प्रियतम सुहावन,
ऐ मेरे तुम पुण्य-पावन,
ये संदेशा जाकर कहना,
खुश बहुत मैं हूँ,
बस तुम इतना जाकर कहना,
खुश बहुत मैं हूँ,
हो मगन दिन-रैन बीते,
शुभ मगन मैं हूँ,
देखो लेकिन हँस न देना,
देखो उनको शक न देना,
ऐ मेरे प्रियतम सुहावन,
ऐ मेरे की पुण्य-पावन,
आंख जो उनकी भर आये,
आँसूँ तुम उनके पोंछ लेना,
कहना उनसे दुख करें ना,
लौट आऊंगा मैं उसदिन,
पूर्ण होंगे स्वप्न जिस दिन,
हाँ पूर्ण होंगे स्वप्न जिस दिन------

...राकेश...स्वरचित,



प्रीत! बसन्त का आगमन
प्रीत! सौहार्द का आचमन
प्रीत! कोयल का मधुर गान
प्रीत! बादल का धरा स्नान। 

प्रीत! शब्दों का सुन्दर संयोजन
प्रीत! अलंकृत सुन्दर सम्बोधन 
प्रीत! मधुर भावों का स्पन्दन 
प्रीत! मानव मस्तक पर चन्दन। 

प्रीत! अर्पित भावों की अभिलाषा 
प्रीत! सुसंस्कृत सुन्दर मनोभाषा
प्रीत! संवेदन की भोली परिभाषा 
प्रीत! प्रकृति की ही चिर आशा।

प्रीत! विलक्षण आत्मीय प्रवाह
प्रीत! रोम रोम से उठती चाह
प्रीत! अन्तरतम से उठती वाह
प्रीत! निहाल करती मस्त निगाह।



लोग तलाश रहें है वजह मुस्कुराने की |
टूटे हुऐ रिश्तों को फिर से निभाने की ||


अनजाने में हुई अपनों से हर ख़ता को |
बशर कोशिश में अपनों को मनाने की ||

दिलों में प्यार ही प्यार इक दूजे के लिये |
चाहत में हर कोई अपनों को पाने की ||

छोटे छोटे से परिवारों में जी रहे लोग |
हठ सभी की बैठ आंगन में बतियाने की ||

इक ही गुजारिश "मनी" की भूल नफरत सभी |
कोशिश करो सभी प्रेम बाग़ सजाने की ||

मनिंदर सिंह "मनी"




नहीं देखा मेने ईश्वर को
मात पिता को मैने देखा
परवरिश में कमी नही थी
उनने लिखा जीवन लेखा
नो माह कोंख में पाला
उस माता को कैसे भूलूँ
लोरी गा गा मुझे सुलाया
कभी मैं पलना में झुलूँ
हाथ पकड़ कर प्रिय पिता ने
वर्णमाला लिखना सिखलाया
कभी पिता को संग लिये मैं
मन पसंद घर खिलौने लाया
ममता के आंचल में सोया
माँ देवी बन मुझको पाला
कितने कष्ट सहे थे माँ ने
उन कष्टों को देख न पाया
माँ जगदम्बा माँ ईश्वर है
पिता स्वयं है पालनहारा
सृष्टि के सुख आनन्द को
बन कृपालु जीवन निखारा
मात पिता के बने दुलारे
क्या था उनने नही दिया
सुधा घूंट पिलाया उनने
मिल उनने खुद गरल पिया
कुमाता कुपिता नहीं हैं
पुत्र कुपुत्र बन जाते हैं
घृणास्पद हैं ऐसे सुत जो
निज मातपिता भुलाते हैं
बृह्मा विष्णु मात पिता हैं
देते हैं जो लेते नहीं हैं
नतमस्तक हो शीश नवावे
देने को कुछ और नही है।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्



मैंने...
कभी आसमानों की ख्वाहिश नहीं की
कभी चाँद तारों की फरमाइश नहीं की
न चाहा कभी ऐश ओ आराम कोई
न चाहा कभी मेरा हो नाम कोई
चाहा सदा एक छोटी सी दुनियां
जहां खिलखिलाए ऊम्मीदों की परियां
सुनहरे हों सपने सुहाना सफर हो
गुलों सा हो आँगन महकती हों खुशियां
मगर मेरे मालिक ने किस्मत में मेरे
उजालों के बदले दिया है अँधेरा
कि बदलेंगे कब ऐसे हालात मेरे
न जाने कब होगा सुखों का सवेरा।
"पिनाकी"


"आओ सब हिंदी के हो लें"

आओ सब हिंदी में बोलें-

कानों में मिश्री सी घोलें,
खुसरो,तुलसी,सूर,कबीर-
मीराबाई के संग हो लें.

मां बाबा फिर से कहते हों-

माॅम डैड सुर से डरते हों,
बालक नए आएं धरती पर-
राम राम निशदिन रटते हों. 

हिन्दी भाषा सरल सुहानी- 

महिमा ना ही जाए बखानी, 
बोलें,पढ़ें,लिखें और सुनकर-
इस जीवन में लाएं रवानी.

हिंदी जग की शान है-

अटल जी का अरमान है,
दिल धड़के इसमें कितनों के-
अवचेतन तन की जान है.

मधुर-मधुर गीतों के स्वर-

गाते गायक नारी- नर,
सरस सयानी हिन्दी में-
सुनें उठे हैं भाव-लहर.

भारत के गौरव को जानें-

अपनी भाषा को पहचानें
अमृत के कलशों को खोलें 
आओ सब हिन्दी में बोलें.
--------
#स्वरचित
डा.अंजु लता सिंह 


स्वतंत्र बिषय लेखन
पति,पत्नी और 'वो '
कहने को कह दो
साधारण है शब्द ' वो '
जो जुड़ा है-
एक के बाद एक ,निरन्तर
असीमित श्रृंखलाओं में
गहरा अर्थ लिये
एक जंजीर की तरह
अनगिनत, कई कड़ियों-सा।



इख्तियार
गर दिल धड़कता है तो खुलकर धड़कने दो,
एहसास-ए-मोहब्बत है तो फिर बहकने दो,

ख्वाहिशों पर क्यूं कर लगाते हो पाबंदियां,
जीनें के लिए इन्हें बेइंतहा बेशुमार बढ़ने दो,

हर लम्हा जिंदगी का जियो तो मुकम्मल जियो,
गम की तपिश में कतरा कतरा ना पिघलने दो,

गुमां है मोहब्बत पे तो गुमां रख बदगुमानी नहीं,
इश्क है तो फिजा़ में खुशबू की तरह बिखरने दो,

चुनके फूल कदमों में बिछा दे खार छूने ना पाये
सजे तब्बसुम होठों पर नूर आंखों से छलकने दो,

खुशियों के सितारे टांक दो सारे आंचल मे हमारे,
इश्क में गर गम खरीदने का खुमार है तो चढ़ने दो,

इकरार पर नहीं अपनी चाहत पर इख्तियार रख ,
"विजय"बांट दो मोहब्बत रिश्तों को ना बिगड़ने दो।
©"विजय"



वो करके इश्क़ का इज़हार फिर तकरार करता है
कहे है जाँ से भी ज़्यादा वो हमसे प्यार करता है।

बना फिरता है वो मजनू है मेरे प्यार में पागल
जरा सी चोट पर मेरी दुआ सौ बार करता है।

बताऊं क्या जमाने को सभी वो लाज को तजकर
सजाकर रेशमी चूनर मेरा श्रृंगार करता है।

बड़ा भोला बड़ा सीधा बड़ा मासूम सा लगता
गगन के चाॅंद के जैसे मेरा दीदार करता है।

मना कैसे करे अब इति दिवाने की मुहब्बत को
वफ़ा के वो सभी वादे भरे बाजार करता है।

इति शिवहरे



रूपमती
मेरे अंतर्मन में एक हलचल सी मच गई है प्रिय
जब से तेरे रूप की मादकता सिर चढ़ी है प्रिय।

बताओ तेरी आंखों के नूर को मैं क्या उपमा दूँ 
क्या तेरी जुल्फों को मैं नाग विषयर बता दूँ।

तेरी ऊंची लम्बी गर्दन को, सुराही सी कह दूं क्या
तेरी पतली कमर, चाल मस्तानी को क्या दूं उपमा।

साक्षात रूपमती लग रही हो, मुश्किल है व्यख्यान
सिर से पांव तक एक हूर सी,रूप माता का वरदान।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा





चल पड़ी है,
उलझी राहों पर,
ऐ जिंदगी!
टूटती बिखरती,
मंजिलों की तलाश में।
हर तरफ,
फैले स्याह अंधेरे,
कैसे राह संवारे!
लेकर आस चल पड़ी।
जिंदगी एक सफर,
मयस्सर नहीं हमराही कोई।
अकेला चला,
जिन राहों पर थे कारवां कभी!
सुनसान सा लग रहा,
सफर का कोई ठौर नहीं,
साया ही बना हमसफर है!
लेकर आस कई ,
चल पड़ी है जिंदगी!
कांटों भरे सफर को,
तराशने का ख्वाब लिए,
मन में नई उमंग लिए,
चल पड़ी है जिंदगी।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




विपुल प्रकृति विस्तार,धरा से लेकर अम्बर।
नहीं किसी का जोर, करें मनमर्जी भू पर।।
पल में होती शांत, करें पलभर में तांडव।
कौरव का भी जन्म,यहीं जन्मे थे पांडव।।

हरियाली चहुँओर, कभी रहता है पतझड़।
भिन्न-भिन्न है लोग,पढ़े हैं कुछ कुछ अनपढ़।
विपुल सम्पदा कोख,पूर्ति सबकी ही करती।
सहती सारी पीर, कष्ट सबके है हरती।।

दूषित करते लोग, प्रकृति को अब तो हरपल।
कलुषित मन के भाव,हुआ सबका मन चंचल।।
विपुल प्रकृति का सार,रहें सब इसकी जद में।
सबके‌ निश्चित काम, कर्म करतें सब हद में।।

विपुल रहें मन आस,नहीं पूरी सब होती।
होना नहीं निराश, कर्म से मिलते मोती।।
नेक करो सब काम,मान ये दुनिया देती।
विपुल दृष्टि ये डाल,हिसाब सभी से लेती।।

विपुल साज श्रृंगार,बढ़ाते शोभा तन की।
विपुल नेक व्यवहार,बढ़ाते शोभा मन की।।
बुरा करो जो काम,बुरा कहते सब कोई।
काटे वैसी फसल, यहाँ जिसने जो बोई।।

स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'





नहीं मुझे किसी बात पर अब रोना आता है
क्यूँकि मुझे प्यार में ख़ुद को खोना आता है।

किसी पर क्यूँ धरूँ इल्ज़ाम अपनी हार का
अपने कंधों पर ये बोझ मुझे ढोना आता है ।

ख़ुशी मिले न मिले ,ये मर्ज़ी ऊपर वाले की
इंतज़ार में उसकी हमें बाँट जोहना आता है।

खोने में भी अजीब सी कशिश है इन दिनों 
बिखरे मोतियों को फिर से पिरोना आता है।

सपने मेरे कभी सच हो कि न हो,किसे पता ?
मगर ,इन्हें अब आँखों में संजोना आता है ।

ज़िंदगी तुझसे कोई गिला,कोई शिकायत नहीं
मुड़ती राहों पर हमें ख़ुद को मोड़ना आता है ।

हम रुक जाते जो किसी ने दिल से पुकारा होता 
दिल की सदा पर हमें बढ़ते क़दम रोकना आता है ।

रिश्तों की अहमियत की अब समझ आने लगी है 
दिल से दिल के तारों को अब जोड़ना आता है ।
सर्वाधिकार सुरक्षित (C)भार्गवी रविन्द्र




I कचरा पेटी ... II 
आज तुम...
बहुत चुप्प चुप्प से थे...
पहले की तरह कोई बात नहीं...
कोई गिला...शिकवा...गुस्सा...
कुछ भी नहीं...
दुनिया की बातें जो चुभती थी तेरे दिल में...
कचरा कह निकालते थे सब मुझ पे...

पर आज...
बिना कुछ कहे...सुने तुम मुझको...
सदा के लिए अलविदा कह निकल गए....
शायद कचरा नहीं रहा मन में तुम्हारे या 
बदल दिया मुझको....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 





II कचरा पेटी2 ... II 

कभी कभी घुटन कितनी भयावह हो जाती है....
सांस चलती रहती है सहज सी पर...
लगता जैसे बोझ सा उठाये चल रही है...
ना खुद रूकती है ना दिल को ठहरने देती है....

तुम जब थे साथ तो साँसों में तुम्हारी खुशबू थी...
अपने शरीर की गंध भी उमंग देती थी...
अपने को अलग अलग रूप में संवारने का...
एक अजीब सी ललक थी हर अंदाज़ में अपने को निखारने की... 
एक तरंग थी जो नृत्य करने को मजबूर कर देती थी...
एक प्यास थी जो चाह को मजबूत करती थी....
एक अहसास थी जो अपने को अपने से मिलाती थी...
जो दुनियाँ की हर शै से अलग कर देती थी...बदहवास सी...
एक मुस्कराहट थी... 
जो हर किसी को अपना बना लेती थी...
एक तमन्ना थी...
हर उस मुकाम को पाने की जो किसी का ना था...

आज वही गंध अपनी....
परायी सी है...
घुटन देती है....बहुत....
चले गए तुम....
बदल दिया मुझको....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 





II कचरा पेटी३.... II 

तुम तब कितना अपने से थे....
कचरा ही सही सब निकालते थे...
और मैं...
उसको अपने अंदर..
कुछ इस तरह ढक लेती थी कि...
उसकी गंध किसी तक भी...
ख़ास कर तुम तक ना पहुंचे...
फ़िक्र थी तुम्हारी घुटन की...
बेशक मेरी सांसें उस गंध से घुट रहीं थी....
पर तुम्हारी साँसों को महसूस करने को...
अपनी साँसों का घुटना मंज़ूर था मुझे....
पर तुम.....
बिना बोले...
बिना मेरी घुटन को महसूस किये...
चले गए....
बदल दिया मुझको....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 






II कचरा पेटी4....II 

तुमको मेरी इस घुटन का अहसास नहीं है...
होगा भी कैसे...तुम्हारे साथ ऐसा हुआ नहीं ना....

हर कोई मुझसे सवाल करता है तुम्हारे बारे...
जो सवाल कम विष भीगे तंज ज्यादा होते....
जो नहीं करते उनकी निगाहें मेरा पीछा करती हैं...
चुभती हैं मेरे तन बदन में...
मन को मार कर सब सह रही हूँ...
कभी मन करता है सब छोड़ के भाग जाऊं...
क्यूँ सहती हूँ मैं....
पर नहीं जा पाती...
इस लिए नहीं कि पाँव नहीं चलते...
इस लिए भी नहीं कि अब...
मेरा जिस्म निर्जीव सा हो गया है...
इस लिए भी नहीं कि कोई तरस खायेगा....
मुझे अपनाएगा...
नहीं....
शायद इस लिए कि...
तुमने भी तो मेरे साथ हर पल गुज़ारा है....
एक विश्वास सा है तुम.... 
ऐसा नहीं कर सकते...
तुम्हारी सांसें भी तो उखड़ती होंगी...
तुम भी तो ऐसे ही बदहवास होगे...
जानती हूँ तुम कचरा निकाले बिना नहीं रह सकते...
मेरे सिवा और किसी पे नहीं निकाल पाओगे....
जानती हूँ तुम्हें....
ऐसा लगता है उस दिन भी तुम...
कुछ कहना चाहते थे...
कुछ तो था जो नहीं कहा....
बस उसी इंतज़ार में...
कभी तुम आओ और
अपने मन से कचरा निकालो...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 





तबलची
घर का खस्ताहाल
स्थिति बड़ी संगीन है।
घर के दौलत की देवी को
डंस गई नागिन है।
किसी के दिन में भी रंग
रातें भी होती रंगीन है।
हमारे तो,
आमद-ए-गम में बीतते दिन
रातें भी होती गमगीन है।
क्योंकि
प्रतिष्ठा की पिण्डली पर
कुंडली मार बैठा एक मिडिलची।
इसके नीचे के सभी तो
इसके ही है नकलची।
ग्रेजुएट की तो इज्जत कहाँ?
हम तो हुए कौड़ी के तीन है।
बड़े बेंग को भी पेंगे मार
आँख दिखाता एक बेंगची।
चमचा की रौनक चारों ओर
देगचा के आँखों की भींगी कोर
आदमी के चमचा बन जाने से
परेशान नज़र आता आजकल
धातु का बना हर एक चमची।
हम तो चमची,नकलची 
कुछ भी न बन पाएँ
आओ आज एकजुट हो जाएँ
फिर बनेंगे हम तबलची।
-©नवल किशोर सिंह





 हर विन्दू पर जीवन रहस्य है
इसकोपूरा समझ के चलना है 
भूला भटका है बाजार भाव जी

सही रास्ते से बच निकलना है
किस्से कहानियाॅ बहुत बताते
उनको सिर्फ मध रख बचना है
स्वरचित एस डी शर्मा





कभी तुम दिल लगाकर देख लेते,
हमें अपना बनाकर देख लेते।

उदासी से भरी मेरी ये आँखे
जरा इनको हंँसाकर देख लेते।

गिरा लो और तुम कितना गिरा लो,
कभी नजर उठाकर देख लेते।

कदम पीछे हटाते ही रहे तुम,
कभी आगे बढ़ाकर देख लेते।

खफा महताब से है चाँदनी क्यों,
मुहब्बत आजमाकर देख लेते।

ये आंसू आज तुझसे कह रहे हैं,
जरा इनको चुराकर देख लेते।

हुए हैं आज दिल पर जख्म 'चंचल'
जरा तुम मुस्कुराकर देख लेते।

चंचल पाहुजा






"क्या गुनाह किया"
बस इतना आज बताएं मुझे,
क्यों मारा मुझको कोख में।

मैनें था क्या गुनाह किया,
जो फेंक दिया था ढेर में।
मैनें था बस एक गुनाह किया,
मैने नारी का रूप लिया।
मैने तो प्यार लुटाया था
फिर मुझको क्यों यह नरक दिया।
सतयुग से लेकर कलयुग तक
तुमने मेरा उपयोग किया।
जिस कोख में पाला था तुमको,
उस कोख को ही निलाम किया।
क्यों भूल रहे हो ऐसे तुम
मुझे भरी सभा में बेचा था।
लेकर अग्नि परीक्षा तुमने,
मुझे जंगल में बिसराया था।
मत आंको मुझको कमतर तुम,
ना भूलो मेरे उपकारों को।
जब तुम पर संकट आया था,
रण चन्डी बन कर आई थी।
क्यों आज बिसराया है मुझको।
बस बतला दो तुम एक बार।।
क्या गुनाह किया था मैने वो।
बस बतला दो तुम एक बार।।
(अशोक राय वत्स ) स्वरचित





मन वैरागी हो गया, जब से छूटा साथ।
नैनौ से आसू सूख गये, मन मे ना अब राग।
🍁
भाव शून्य से हो गये, बादल क्या बरसात।
अब ना मन मे प्रीत है, ना मिलने की चाह।
🍁
भोग- विलास की कामना, शब्दों का माया जाल।
लिखते-लिखते थक गया, ना समझा मन भाव।
🍁
सुप्त हुआ माधुर्य सभी, सुप्त हुआ हर भाव।
शेर की कविता सुप्त हुई, लगता है इस बार।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf





 ''कुम्हार का पक्का घडा़"

पड़े रहे हमें फेर से

बोले हैं हम देर से ।।
पल भी अब न गँवायें
ऐसे जुनून हैं ढेर से ।।

दांव पेंच वो जाने सारे
कैसे खुलेंगे ज्ञान के द्वारे ।।
बड़ा गूढ़ है वो विधाता
ऐसे ही न श्रष्टि सँवारे ।।

क्यों न होता जुनून भारी
जिन्दगी गम में गुजारी ।।
कसक रह गईं हैं हजार
कितनी बिखरी बनी तियारी ।।

बड़ा लक्ष्य तो बड़ा होता
यूँ न कोई कड़ा होता ।।
हजार चोट खाकर 'शिवम'
कुम्हार का पक्का घडा़ होता ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"






सौन्दर्य
मैं नहीं जानता की तुम सुन्दर हो या तुम्हारी बातें 
बिलकुल वैसे ही जैसे चांदनी सुन्दर है या चांदनी रातें 
मैं यहाँ न होता अगर तुम मेरी जिंदगी में न आते 
तुम्हारे बिना मुझे न मिल पाती यह जिंदगी की सौगातें l
मेरा मानना है की तुम जैसा सुन्दर इस धरती पर कोई और नहीं 
अगर ईश्वर तुमसे भी सुन्दर कुछ बनाते तो दोबारा तुम्हे ही बनाते l
तुम्हारे सौन्दर्य का बखान कवि की कलम भी नहीं कर सकती 
शायद आज यह कार्य मैं भी नहीं कर पाता अगर तुम मेरा साथ ना निभाते l
उन लोगों ने तुम्हे नहीं देखा है शायद 
जो तुम्हारे अलावा किसी और को सुन्दर है बताते l
मेरी किस्मत अच्छी है जो तुम मुझे मिले हो 
क्योंकि अमूल्य खजाना किस्मत वाले ही है पाते l
नहीं होती इतनी सुन्दर यह कविता 
अगर आज यह शब्द तुम्हारे बारे में न गुनगुनाते l
मेरी कविता के माध्यम से हमेशा जीवित रहेगी तुम्हारी अद्वित्य सुन्दरता 
और भविष्य में हजारों सालों तक लोग करेंगे बस तुम्हारी ही बातें l

स्वरचित 
जनार्धन 'भारद्वाज'





मन

बाबूजी लगातार दरवाजे की चौखट को देख रहे थे 
दीपक की लो झपझपा रही थी । सुमन बडी उम्मीद से एकटक बरामदे में खड़े हो कर रास्ते मे आते जाते हर रिक्शा को देख रही थी। 
आखिर वह बाबूजी की खाट के पास आ गयी। बाबूजी ने निराश हो कर दरवाजे की तरफ से चेहरा हटा लिया ।
सुमन ने एक लम्बी सांस ली और बाबूजी के मुंह में पानी की चार पांच बूंदे डाल दी ।
सुमन शून्य मे देख रही थी और एक चलचित्र उसकी आँखो के सामने घुम गया :
" बाबूजी याने हमारे पिताजी दयाशंकर जी । सरकारी दफ्तर में बाबू थे । रमादेवी से उनकी शादी हुई । दिनेश भईय्या के बाद बाबूजी को फिर से एक बेटे की चाह जागी । उनका कहना था :
" घर में दो बेटे तो होना ही चाहिए जब दोनों के साथ निकलूं तो गर्व से सीना चौड़ा हो जाऐ ।"
लेकिन इस मेरा याने सुमन का जन्म हो गया । माँ बताती थी : 
" इससे बाबूजी काफी निराश हो गये थे ।"
खैर बाबूजी ने दिनेश को पढ़ने लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुझे सरकारी स्कूल में डाल दिया । 
अब नौकरी के समय भी दिनेश को जब बाहर का मौका मिला तब एक बार फिर बाबूजी हताश से हुए। लेकिन दिनेश ने कहा :
"बाबूजी आप चिन्ता क्यो करते हो सुमन तो है ही ।"
दूसरे शहर से होते हुए दिनेश विदेश निकल गये । बाबूजी को जैसा डर था वैसा ही हुआ और कम्पनी में ही लड़की शादी कर विदेशी हो गया । इसी गम में रमादेवी बेटा बहू का मुंह देखे बिना दुनियाँ से चल बसी ।
बाबूजी ने सुमन को सहारा समझ कर शहर मे ही सुमन की शादी कर दी ।
बाबूजी के शरीर में कुछ हरकत हुई और सुमन का चलचित्र टूट गया ।
सुमन ने बाबूजी की हालत देखते हुये भईय्या को पूरी बातें बताते हुए जल्दी आने का कहा था। 
बाबूजी ने गहरी सांस छोड़ते हुए सुमन के सिर पर हाथ रखा और कहा :
" बेटी अब इन्तजार नही होता ।"
घर के बाहर रिश्तेदार दोस्त इकट्ठे हो गये थे । बाबूजी को अग्नि कौन देगा इस पर चर्चा हो रही थी ।
अंतिम यात्रा के पड़ाव में एक तरफ सुमन भारी मन से कंधा दे रही थी।

स्वलिखित 
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल





*पनघट *
सूना पनघट है प्यास निराली
गागर भये सब खाली खाली 

कहाँ गए सब मीत- प्रीत 
बदल गई जीवन की रीत
हृदय वेदना टीस उभरती 
समय साक्षी बना सवाली गागर भये----

पंथ निहारे नैन बावरिया 
करघन शोभित लचक कमरिया 
रंग -बिरंगी ओढ चुनरिया 
पनिहारिन आतीं मतवाली 
गागर भये---

कितने सपनें कितनी रातें 
हँसी- ठिठोली पिय की बातें 
प्रीत- प्यार की अनुबंध गलियाँ
शर्म- हया की वो रंगत लाली

गागर भये----
पनघट रह गया एकाकी 
रहा ना पहले सा कुछ बाकी 
स्मृतियों की महक सुवासित 
राधा -किसन गोप-गोपिया आली
गागर भये----

सभी राज हृदय में छुपाए
हरआगत को गले लगाए
ढूंढता है अस्तित्व पनघट 
हुआ है पतझड़ कीडाली 

गागर भये--

स्वरचित 
सुधा शर्मा 







 शक्ति बाण लगा लक्ष्मण को 

राम हुए होंगे बड़े व्याकुल,
मूर्च्छित अवस्था मे देख
भाई-भाई करते रोते
विलाप करते होंगे
राम है व्याकुल,
समाधान
ढूंढते हनुमान 
जब निकले होंगे 
विभीषण के कहे पर
लाए होंगे वैद्य सुषेण को,
सुषेण ने संजीवनी मंगवाई
महाबली चले संजीवनी ढूंढने को।

संजीवनी, संजीवनी पर ढूंढते हुए
कालनेमि पिशाच ने रोका होगा
मार आगे बढ़ते चले होंगे,
सं

जीवनी न मिलने पर
श्री राम का नाम ले
संजीवनी उठा 
महाबली 
चल पड़े होंगे,
लक्ष्मण की मूर्च्छा
भंग करने के लिए ही,
संजीवनी ले पहुँचे होंगे लंका
चारों ओर खुशी की लहर छाई होगी,
प्रसन्नतापूर्वक राम-हनुमान गले मिले होंगे।

स्वरचित
भाविक भावी



दीवार पर टँगी
तस्वीर से झाँकती
वो दो आँखें
पीछा करती हैं मेरा
जहाँ जहाँ जाती हूँ
पीछे रहती हैं मेरे
लगता है पीठ से
चिपकी हों मेरी
क्या करती हूँ
कहाँ जाती हूँ
क्यों जाती हूँ
सब पर नजर 
रहती है उसकी
कभी सामने आ
रोक देती है
कुछ करने से
कभी खुश हो
प्रेरित करती कुछ करने को
कभी प्रिय साथी बनती
कभी दुश्मन सी दिखाई देती हैं
ये दो आँखें
ये तस्वीर कभी 
बातें करती मुझसे
भला बुरा समझाती है
एकांत में इसके सामने बैठी मैं
एकटक देखती हूँ इसे
कोई और नही 
यह अंतरात्मा ही है मेरी
और तस्वीर में 
मैं खुद हूँ
जो दर्पण दिखाती है
मुझे खुद का

सरिता गर्ग


अक्सर जब मै तुम से दूर जाती हूं,
फिर भी तुम से ही मिल जाती हू ।
तुम से मिलकर तुम मे खो जाती हूं,
हर अहसास अब तुझमें ही पाती हूं ।
ढूंढती हूँ मैं तुम मे अपने वजुद को 
क्यो नही पाती-तुम में खुद को ।
बस ये ही अलग अहसास को 
अब मै तुम हम में ढूंढ पाती हूं ।
काश ये दूरी कम हो जाती ,
तुम और मै - हम हो जाते ।

छवि ।

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"अंदाज"05मई2020

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