Thursday, December 13

"कोहरा "13दिसम्बर 2018


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ब्लॉग संख्या :-236



प्रात से कुहरा अवनि पर ढल रहा है।
शीत का शासन अनौखा चल रहा है।
देखिए जिस ओर ठिठुरन प्राण घातक,
अदृष्य हो सूरज करों को मल रहा है।।
स्वरचित-मैं(




सूरज की किरणों से छनकर 
कोहरे की बादल चीर,
धूप उतरी उनिंदी धरा पर,
और बँट गई टुकड़ों में !

अलसायी सुबह ने झाँक कर देखा
चमचमाती धूप के कुछ टुकड़े ,
बादलों ने भर लिया अपने दामन में ,
और,कुछ नरम,कोमल, मुलायम
रेशमी धूप के टुकड़े बिखर गए 
मेरे आँगन में !

धूप के एक छोटे से टुकड़े से
आलोकित हुआ घर का आँगन,
सोंधी मिट्टी से महका उपवन।
ढेर सारे रंगों से 
सज गया जीवन,
वीणा के सुर झंकृत हो उठे मन में 
सपने थिरकने लगे नयन में !

हल्की सी आहट पर ,
खोला जो मैंने घर का द्वार 
मुस्कुराती नियति खड़ी थी,
बाँहों में भर ख़ुशियाँ अपार !
नन्हें- नन्हें पाँवों से चलकर
ख़ुशियों ने किया गृह प्रवेश
सुबह के उजाले संग ले गए 
रात के अवशेष !

गदगद सी एक अभूतपूर्व एहसास को सहेजती
बहुत देर तक मंत्रमुग्ध सी -
मैं निहारती रही
कभी झरोखे से छनकर आती 
भोर की प्रथम किरण को,
कभी द्वार पर दुधिया मुसकान बिखेरती 
इस जीवन - धन को !

मन पखेरु आतुर नीलाभ छूने,
आँखों ने न जाने कितने ख़्वाब बुनें।
नवोदित सूरज की किरणें बिखर गई आँगन में,
संगीत गूँजने लगा कण कण में
और, मैं जी गई सदियाँ
उस एक क्षण में !
स्वरचित (C)भार्गवी रविन्द्र 
All rights reserved Smt Bhargavi Ravindra





डर लगता है कोहरों से कहीं ढक न लें यादें भी
जी रहा जिनके सहारे वो हसीं मुलाकातें भी ।।

सर्द हवायें कर सकतीं थीं धड़कन भी बंद
धड़क रहा जिससे यह दिल वो यादें चंद ।।

आज नही तो कल यह खबर हो जायेगी 
दिल की यह दास्तान अमर हो जायेगी ।।

दिल के इन जज्बातों में इतनी ताकत है
ये मुहब्बत न वो मुहब्बत यह इबादत है ।।

कोहरे तो छट ही जाते है वक्त का फेर 
देर ही होती हरदम , नही होता अन्धेर ।।

फलसफा ये खास प्यार का लिखना था 
कोहरा कब टिका कब यह टिकना था ।।

कितने कोहरे आये और छाकर चले गये 
हर एक कोहरों में हम अपने को ढले गये ।।

अब न लगता डर कोहरों की चादर से 
आस की किरण भी दिखी अब बादल से ।।

कोहरों में हम शान्त हो उनको जपते हैं
तभी तो ''शिवम'' रचनायें हम रचते हैं ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 





सुप्त हृदय मे पुनः प्रेम का, अंकुर फिर फूटा है।
वर्षो बाद वो बिछडा साथी, रस्ते मे देखा है॥
🍁

भूल रहा था जिन यादों को, फिर से झिझोरा है।
मन के दर्पण मे फिर छाया, सुन्दर सा मुखडा है॥
🍁

हर वो लम्हे गुजरे पल सब, आँखो के आगे है।
मन की सब कडवी बातों का, अब ना कुछ मतलब है॥
🍁

सोच रहा हूँ क्यो झूठे, अभिमान का डंका पीटा है।
मधुर सुनहरी यादों मे क्यो, कडवाहट को घोला है॥
🍁

मतभेदो को मनभेदो मे, बरबस ही क्यो बदल दिया।
शेर की कविता पूर्ण न थी पर, उसे अधुरा छोड दिया॥
🍁

सम्बन्धो के पुनः समागम, पर कविता पूरी होगी।
तिमिर मिटेगा जब मन का, तब ये रचना पूरी होगी॥
🍁

घने कोहरे के छंटते ही, सूर्य उदित हो जाएगा।
हृदय मे भाव पुराने थे जो, सामने वो आ जाएगा॥
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf



फूंस की ठंडी हवा,और
छाई कोहरे की धुंध ।
कहाँ खो जाती है चाँदनी,
अमावश्या की रात-चुपके से ।।

दिन की उजली धूप और कालिमा,
बदलते आयामी दायरे।
कहाँ खो जाती है-अरुण प्रभा,
आजकल के बीच-चुपके से।।

(मेरे कविता संग्रह से )
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,



(1)आज की बात
अज्ञान का कोहरा
तरक्की रोके

(2)सर्दी मौसम
आवागमन ठप
फैला कोहरा

(3)आँख दिखाता
सूरज को कोहरा
छाया अंधेरा

(4)भोर ने ओढ़ी
कोहरे की चादर 
दुबका सूर्य 

(5)गई है जान 
गाड़ियों में भिड़ंत
घना कोहरा 
===========
स्वरचित 
मुकेश भद्रावले 





प्रातःकाल छाया रहता कोहरा
रश्मि रवि की छिप जाती इसमें।
मेरे अंतस में भी अंधकार फैला 
ये सभी बुराईयां समाई हैं इसमें।

प्रभु तमस मेरे मन का हर लेवें।
जीवन सफल हमारा कर देवें।
कोहरा छंट जाऐ अंतर्मन का,
हृदय सुमन आलोकित कर देवें।

परिष्कृत हो व्यक्तित्व हमारा।
कुसुमित हो अस्तित्व हमारा।
गर कोहरा हट जाऐ मानस से,
ये मनमंन्दिर हो गर्वित हमारा।

अगर छंटे धुंध ये कोहरे की तो 
सूर्यकिरण सब अंतरतम हर लें।
जगमग जग प्रकाशित हो जाऐ,
यह सूर्यदेव हमें सुंदरतम वर दें।

स्वरचितः ः
इंजी. शशंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय






"ये मौसम कौनसा है? " 

भरोसे का पतझड़ है,
अविश्वासों का कोहरा है, 
कहाँ रिश्तों की गर्माहटें, 
ये मौसम कौन सा है? 

धुंध विषमता छाई है, 
संशय बादल गहरा है, 
क्यों स्वार्थ की आई सीलने, 
ये मौसम कौन सा है? 

रंग बदलती दुनिया है, 
रूप बदलता चेहरा है, 
हैवानियत की आती आहटें, 
ये मौसम कौन सा है? 

धूप भी डरती है 
कालिमा का पहरा है 
छुपी कहाँ मुस्कुराहटें 
ये मौसम कौन सा है


स्वरचित 
ऋतुराज दवे






ोहरे का साम्राज्य घना है
वातावरण भी तना तना है
बाधित हो रही अब द्रष्टि
कठिनाई में अपनी सृष्टि ।

सूर्य निकले तो यह कम होता
प्रकृति का भी यही नियम होता
पर हमारे सूर्य तो पैंतरा बदलते
और यहीं सारा ग़म होता। 

बेरोज़गारी का घना कोहरा है
आदमी ही आदमी का मोहरा है
आप किससे बात करोगे जब
आदमी का ही चरित्र दोहरा है

एक कोहरा है जातपाँत का
एक कृषि की दुर्बल आँत का
एक संवेदनाशून्य कोहरा
अस्पताल में टूटी साँस का। 

भ्रष्टाचार का कोहरा निर्मम
यह तो छाया रहता हरदम
स्थिति कैसी भी हो चाहे
नहीं होता कभी भी यह कम।

आकाशीय कोहरे घोषित होते
पर हमारे कोहरे पोषित होते
हमसे ही यह चलते रहते
और हमें ही छलते रहते।





आकाश से टपकते 
ओस कण
श्वेत कोहरे के आगोश में

दबी सहमी भोर
इजाजत नही किसी को 
भीतर झांकने की
उद्दंड किरणें सूरज की
दुस्साहस करती
चीर कोहरे की घनी चादर
अदम्य कोशिश करती धरा छूने की
मगर नाकाम
कोहरे के उस पार
मुस्कुराती दो आँखें
बुलाती अपने पास
घनी धुंध चीर
आगे बढ़ता 
गुम होता 
पलपल
साहस से
आलिंगन करने प्रिय का
कभी छुप जाती धुंध में
कभी झलक दिखाती मुस्कुराती
आख़िर हटा
कोहरे का आवरण
मिलन प्रिय से कराया
घूँघट की ओट से
सूर्य रश्मियों ने
धरा पर बिखर
कोहरा लाचार
सिमट गया
खुद में
अगली भोर की
प्रतीक्षा में

सरिता गर्ग




जब छाये अज्ञान का कोहरा
ज्ञान का लौ जलाना होगा
ज्ञान का एक लौ जलाकर
राह प्रशस्त करना होगा

मंजिल न नजर आवे कोहरे मे
हिम्मत नही हमें हारना होगा
जब आये ज्ञान की रश्मि
धूंध कोहरे का छँटना होगा

घने कोहरे के बीच
पग बढा़ये सोच समझ कर
ज्यों ज्यों पग आगें बढ़ेंगे
त्यों त्यों मंजिल साफ होगा

जब प्रकाश फैलेंगे, तो कोहरा छँट ही जायेंगे
प्रकाश का इंतजार हमें करना होगा
छँट जायेंगे कोहरा तो
रास्ता हमारा साफ होगा।
स्वरचित -आरती-श्रीवास्तव।





छाया है घना कोहरा ,
दुःख के बादलों से ।
मैं कैसे बाहर निकलूँ ?
इस दर्दभरे क्षण से ।।
कोई जो अपना है मेरा ,
वह पास होकर भी , बहुत दूर है ।
और चाहकर भी दिल ,
उससे दूर रहने को मजबूर है ।।
इन विवशताओं के विषय में ,
किसे और कैसे समझाऊँ ?
अपने मन की व्यथा को ,
भरी दुनिया में 
किसे सुनाऊँ ।।
छँट जाए यदि यह कोहरा तो ,
मन को थोड़ा चैन मिले ।
कुछ क्षण के लिए ,
मैं जी लूँ हँसके ,
यदि किसी का साथ मिले ।।





घना कोहरा
रुका आवागमन
त्रस्त जीवन
🌤️
छाया कोहरा
मन का आसमान
घाव गहरा
🌤️
छाया कोहरा
मौसम बेईमान
शाम,सवेरा

मन का पंछी
कोहरे में सिमटा
उड़ान रुका

बना कोहरा
सामाजिक कुरिती
छँटेगा कब

श्वेत कोहरा
आवरण सवेरा
शीतल धरा

स्वरचित पूर्णिमा साह





अत्याचार का कोहरा...
अच्छादित चहुँओर..
गूँजती मासूम चित्कारें..
मौन पड़ी सरकारें...
हत्या और बलात्कार का दौर
है अच्छादित चहुँओर..
नहीं बदलेगी तस्वीर सरकारों से..
मानवता तो आती है संस्कारों से..
कब तक बदले हम सरकार..
भ्रष्टाचार के कोहरे से..
अच्छादित है हर सरकार..
नोटों के धुँध में..
अदृश्य होता न्याय...
धार्मिक उन्मादों की धुँध है फैली..
लील रही निर्दोष जनमानस..
जात,धर्म के कोहरे से...
अच्छादित हर जन मन...
मंदिर,मस्जिद पर भिड़ते...
लोकतंत्र के रखवाले..
सबके ज्ञान पट पर फैली धुँध है...
कोहरे की चादर..
अच्छादित चहुँओर..
झूठे वादो से जुमलों से,
बन जाती सरकार यहाँ..
चंद नोटों में बिक जाते..
वोटों के दातार यहाँ..
कैसे छटे ये कोहरा..
विकास की रश्मि बांट जोहती,
मातृभूमि विश्व गुरु बनने की आस लिए
जनमानस से पूछ रही..
कौन हरे ये श्वेत अंधकार..
कब होवे जय जयकार..
कब होवे जय जयकार..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




चाँदनी कभी छिटकी थी मन के आँगन में मेरे.....।
आज कोहरे ने जगह पाई देर तलक
धुंद दिल पर छाई.....
वो फूलों का खिलना बहारों ने ली
थी अँगडाई.....
रात के आगोश मे मिलकर उनसे महकी थी पुरवाई.....
श्वेत कोहरे की चादर ओढे आ गई
यादों की परछाई....
झरते हैं ओस के कण शबनम बनकर
पलकों पर घटा छाई.....
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू





सरपट जीवन
और
तीव्र गति से
भागते वाहन
अचानक एक विराम
द्रूतगति पर लगाम
वो सामने
सघन सी एक धुँध 
नमी लिए कुछ बूंद
प्रकाश का कर अपहरण
बिछा है एक आवरण
ताकती आंखों की
दृष्टि मलिन
देखना उस पार
बहुत कठिन
परत बनकर
बादल है छाया
बूंदों में
मोह माया
लोभ समाया
एक सर्द छुअन
उभारती संवेदन
असंवेदी मन में
घना कोहरा 
वातावरण में
एक और कोहरा
लोचन पे
बदलते मूल्य,बदलते अर्थ
दृष्टिगोचर नहीं यथार्थ
कड़क धूप से
ये कोहरा छंटेगा
नजरों का कोहरा पर
कैसे हटेगा?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित






 वो आ गये मेरी जिंदगी में घने कोहरे की तरह 
ना अब मुझे कोई दूसरा दिखाई देता हैं ना देखने की आरजू हैं .


यादों की छटा कोहरे में बिखरी हैं 
यादों की बारात दिल में कसक बनकर उभरी हैं .

सुबह सुबह कोहरे की अंगड़ाई फ़िज़ा में बिखरी हैं 
देखकर ठंड ने भी रुत नई सुहानी बिखराई हैं .

कोहरे सी हो गई हैं ये जिंदगी 
देखकर भी जो कभी नजर नहीं आती हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट




जीवन तेरा कैसा कोहरा, कुछ जाना कुछ अनजाना सा, 

दिखता है पर हाथ न आये, बिल्कुल मृगतृष्णा के जैसा, 

पहाड़ तुझे कुछ ज्यादा भाता, मैदानों से भी रखता नाता, 

सूरज तुझको नहीं सुहाता, देख सूर्य को झट छुप जाता, 

लोगों का जीना दूभर करता,फसलों पर गाज सा गिरता, 

जब भी उम्मीदों पर छा जाता,आह बनकर उडता रहता, 

दुश्मन नहीं कोई तेरे जैसा,जो गले मिले तू उसे जकडता, 

रिश्तों से क्यों इतना चिढता, सदा संबंधों पै छाया रहता, 

मुझको तो खिलाड़ी लगता,क्यों मँहगाई से बचता रहता, 

धन दौलत का बड़ा दीवाना, तू बंद हमेशा मुठ्ठी रखता, 

मुझे लगे राजा महाराजा, तू गरीबों ही से नफरत करता, 

शरण नहीं कोई देने वाला ,चिंता क्यों नहीं अपनी करता, 

कोई तो काम कर अच्छा ,क्यों नहीं बैरी को ठंडा करता, 

फैला जो नशा लालच का,फैला इस पर अपना साया, 

कुरीतियों को कर तू ठंडा, तू भ्रष्टाचार पर छाता जा, 

राहों को सुगम बनाता जा, दुखिया दिल ठंडा करता जा |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश



***************
शरद ऋतु की सुबह निराली,
कोहरे की चादर ओढ़े मतवाली,
शीत लहर ने कोहराम मचाया,
सूरज भी थोड़ा शरमाया |

सूरज की पड़ती जब लाली,
धरती की छवि लगती तब न्यारी,
घास-पात पर पड़ी ओंस की बूंदें,
मोतियों जैसी लगती हैं प्यारी |

अब कोहरा छँटने लगा है,
धुंधला पन साफ होने लगा है,
पंछी कलरव करने लगे हैं,
सब जन काम करने लगे हैं |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

कोहरा (हास्य कविता)

छाया है घना कोहरा
रात ढल रही है 

अचानक पत्नी ने 
झकझोर कर उठा दिया
बोली :
"सुनो जी जरा बाहर का
मौसम तो देखो 
कितना है सुहाना
शुद्ध ताजा हवा है
घुम कर आओ जरा ।"

मन नहीं था 
पर सुबह सुबह 
मामला पंगे का था



इसलिये निकल पड़ा 
घर से 
घना था कोहरा 
घनघोर था अँधेरा 
पड गया एक कुत्ते के 
ऊपर पैर
लगा भौंकने 
पडा पीछे
तीन चार और 
देने लगे साथ उसका

किसी तरह भाग कर
घर आया कुत्तों से 
पाया छुटकारा

सांस फूल रही थी 
ठंड में भी पसीने से 
तरबतर था
सब हाल सुनाया पत्नी को
वह बोली :
" वेरी गुड ऐसे ही दौडोगे तो
मोटापा छट जाऐगा 
स्मार्ट हो जाओगे
कुत्तों का क्या
उनके साथ दौडोगे 
तो दोस्त बन जाऐगे

दोस्तों पत्नी तो पत्नी 
होती है

अब पत्नी से पंगा ले या
कोहरे से
आप ही बताऐ

स्वलिखित 
संतोष श्रीवास्तव भोपाल



-------------------
शिशिर की सर्द हवाएं
छाया है घना कोहरा
बंधक बनी सूर्य किरण
धरती पर लगा पहरा

यह कोहरा तो है मौसमी
मिट जाएगा कुछ दिनों में
उस कोहरे को कैसे मिटाओगे
जिसने दिलों को घेरा

छिप गई कोहरे में कहीं
इंसानियत भी कुछ कुछ
जिसे ढूंढना है मुश्किल
दुनियां की हर गली में

छाया दिलों-दिमाग़ पर
अज्ञानता का कोहरा
जिसे मिटा सके जो
वो प्रकाश कैसे होगा

कभी तो वो दिन आएगा
जब इंसानियत हंसेगी
आशा की किरणों से ही
रोशन जहां यह होगा

***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना



कोहरा प्रकृति का नियम है
धरा आच्छादित वह् करता

जिसे कोने में गिरता है वह्
धुंधलापन धरातल रिसता
मायावी आवरण कोहरा
सत्यता से दूर रखता है
ममता दया स्नेह छोड़कर
निज स्वार्थ में लिपटा है
आत्मा स्वयं होती परमात्मा
डूबे हम सब माया कोहरे में
पर तो क्या खुद को न जाने
रहते सब हम अपने दायरे में
यह तेरा है यह मेरा है
सुत सुता पत्नी के सुख में
चाहे कितना ज्ञान पिलादो
परिवर्तन न आता रूख में
घने कोहरे की चादर में
लिपटा पूरा ही विश्व है
अपना राग सभी गाते वे
कँही सुधा कँही विष है
सबसे ज्यादा मचा कोहरा
भारत की संसद के अंदर
जनहित कम दलगत होकर
छीना झपटी करते हैं बंदर
स्वविवेक परोपकार नेह से
कोहरे की चादर हटती है
असत्य की बदरी हर कर
सत्य किरण शाश्वत रहती है
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।



क्षणिका 
विषय - कोहरा


कोहरे में लिपटी
गुनगुना रही हो
तुम हो?
या कोहरे में लिपटा
हवा से सरसराया
गुलाब की झाड़

कोहरा छीन लेता
गरीब की मुस्कान
अलाव 
को तरस रहा 
सर्द कोहरे में मन
3
कोहरे की चादर में
लिपटा देखो देश।
सूरज दादा ने आकर के
दिया नया संदेश।

शहर लिपटा कोहरे में
रोशनी मद्धिम पड़ी
सूर्यदेव
थके -थके लगे कोहरे में।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर




घना कोहरा 
है जिद पर अड़ा 
विजयी रवि 


ओढ़ कोहरा 
अवनी सकुचायी 
शर्मायी निशा 

3 छटा कोहरा 
विजयी रश्मि रथी 
है मंद हँसी 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )



विषय-कोहरा

दुख कोहरा
उम्मीद है किरणें
सुख की भोर

यादें धूमिल 
जीवन की रफ्तार
वक्त कोहरा

रूका विकास
अज्ञानता कोहरा
जीवन दुखी

बेटी आवाज
परंपरा कोहरा
हटानी आज

सुख ओझल
अपनों से दूरियाँ
आँसू कोहरा

स्वरचित-रेखा रविदत्त
13/12/18
वीरवार



दिल में चाव 
कोहरे की चादर 
प्रेम अलाव 

एक कोहरा 
प्रेम से अनुरक्त 
हो न विभक्त

कोहरा ओढ़ 
बेदर्दी प्रेम सिंधु 
मुख ले मोड़ 
४ 
निशा ओढ़ती 
कोहरे का लिबास 
शशि उदास 

रश्मि की पीठ 
रवि के हस्ताक्षर
लुप्त कोहरा 

श्वेत कोहरा 
पारदर्शी रश्मियाँ
निर्वस्त्र दिन 

मस्त कोहरा 
अंकपाश भरता
बना छिछोरा 

जीवन थोरा 
ठाट बाट का राज्य 
करे कोहरा 

शरद गाए
कोहरे दुकूल में 
प्रात:लजाए 

रवि आज़ान 
कोहरे की मध्याह्न 
दिनावसान 
१०
मद्धम रवि 
कोहरा भ्रष्ट छवि 
बालेन्दु जैसा

पेड़ों की -
फुनगी से उतरती
कोहरे में लिपटी 
सुरमई सांझ 
धीरे धीरे पसरने 
लगी है धरती पर ।
सब को अपने में
समाहित करती रात
अंधियारे को साथ लिये
ढूंढ़ रही है प्रकाश की 
वह किरण जो -
जो उसे इस.कोहरे से 
आजाद कर 
जीना सिखाये ।
स्वरचित :-उषासक्सेना



विधा:-हाइकु 
विषय:-"कोहरा "

धुंधला पन 
कोहरे की चादर 
उदास मन 

सर्द हवायें 
कोहरा घबराये 
रवि मुस्काये 

शरद ऋतु
धुंध का आलिंगन 
सुहाये अग्न 

मन को भाते 
बढ़ती सिरहन 
मक्का के दाने 

दुख कोहरा 
जीवन में पसरा 
व्यथित मन

आस की धूप 
है कोहरा चिंतित 
सूरज मीत 
बबीता "सहर "



कोह
रा आर्त अकेला चुपचाप 
खड़ा है सड़क के उस पार ,

कभी कभी सामने से आती किसी गाड़ी को देख मुस्कुराने की नाकाम कौशिश करता है ,
पर उसकी तरफ कोई नही देखता ,
उल्टे उसे कोसते हुये सब निकल जाते हैं "बीच में खड़ा है "।

वह सोचता है,बीच में खड़ा हूँ ,
क्या मेरी गलती है ,
परिस्थितियों से जन्मा मैं ,
मेरा क्या दोष ,
आह! काश ! मेरे भीतर की नमी कोई देख पाता।

मैं आर्त अकेला ,
ठंठ में ठिठुरता ,
सड़क के उस पार ,
नियति का मारा ,
मैं कोहरा , मैं कोहरा ।

सुमित्रा 'अपराजिता'
स्वरचित 'मौलिक'

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