Sunday, December 16

"स्वतंत्र लेखन "16दिसम्बर 2018

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ब्लॉग संख्या :-239
स्वतंत्र लेखन
िरामिड

1)
मैं 
नारी 
विमान
गतिमान
चाहती मान
कुटुंब विहान
कर्तव्य प्रतिमान।

2)
है
मन
विमान
झूठी शान
नही सम्मान
ये चलायमान
न कर अभिमान।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक

विधा-हाइकु
विषय- यादें


बिखरी यादें
सिमेटती खुशियाँ
सजाती आज

अंधेरी रात
अनचाहा एकांत
यादें प्रकाश

पुरानी यादें
जागती भावनाएँ
दिखती आस

स्वरचित-रेखा रविदत्त
16/12/18
रविवार


तड़फ है मेरी कलम में जो मिला सुनाता हूँ
कुछ विरह के कुछ जिरह के गीत मैं गाता हूँ ।।

करती रही सवाल दुनिया कैसे कैसे
करती रही बेहाल दुनिया कैसे कैसे ।।

कभी अपने रूठे तो कभी पराये 
कभी मन की ठानी तो रूह रूलाये ।।

अजीब कश्मकश जीवन में सदा पाये 
विरह की मत पूछो खिलते ही मुरझाये ।।

गीत क्या तड़फ है इस मायूस दिल की
एक गुम चोट ही है दुनिया संगदिल की ।।

आ गया हूँ इस महफिल में सुनाने को 
कुछ और भी होंगे मेरे से उन्हे बताने को ।।

मिल बाँटकर सांझा कर घटते हैं गम 
यही रास्ता दिखा आज मुझे ''शिवम"

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 16/12/2018

मेरे गांव की आबोहवा अब भी वही है
बदलते मौसमों के साथ ये बदली नहीं है।
वही हैं खेत वही सौंधी सी मिट्टी की महक

वही किसान वही बैलों की घंटी की खनक।
वही है गांव की अल्हड़ गोरियों की लचक
वही है चाँदनी अब भी वही सूरज की चमक।
वही चिड़ियों की चुनचुन है वही भँवरे की गुंजन है
वही तुलसी का दीया है वही साझा सा आँगन है।
वही गोरी के नखरों पर छबीलों का चुहलपन है
वही है प्यार और आदर वही अब भी समर्पण है।
है अब भी वैसा ही लोगों का वो अलबेलापन
है अब भी वैसा ही मासूम सा खिलता बचपन।
है अब भी वैसा ही मंदिर से गूंजता वो भजन
है अब भी शहरों से ज्यादा अमन और सुखन।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखण्ड)
#स्वरचित

बस यूँ ही----कुछ अनकहा
🥀
दुआ करतें सलामत हो करो तुम बेवफाई भी।
वफ़ा हमनें सदा की है नही ऐसे जताते हैं।।
🥀
बदल ली राह जो तुमनें नये साथी चलेंगे संग।
हमारा क्या अकेलें हैं खुदी खुद को मनाते है।।
🥀
बडा मुश्किल सम्भलना था बिखरना था नही हमको।
समेटा है अभी खुद को नही बिखरे बताते है।।
🥀
अरे ओ आसमा तूने नही देखे सितारे क्या।
अभी टूटे अभी बिखरे नज़र में वो समाते है।।
🥀
अभी भी रो रहै देखो "कुसुम" पागल है ये बादल।
गरजतें हैं कभी देखो बरसकर भी ये जाते है।।
कुसुम शर्मा नीमच


परिवर्तन
याद आ गया वो बचपन का जमाना।
मिट्टी के खिलौने और कागज की नाव।
खेलते रहते थे दिन और रात।

कपड़े की गुड़िया बनाती थी दादी।
उसकी रचाते थे बड़े शौक से शादी।

कहाँ गये वे खेल,खिलौने।
मोबाइल,टेबलेट से आज खेलते हैं बच्चे।

फिर भी बच्चे होते नहीं खुश।
कैसा आ गया यह युग।

उँगलियाँ नाचती रहती मोबाइल पर।
पड़ोसियों से नहीं नहीं बातें होती मिलकर।

फिर भी सब रहते हैं टेंशन में।
ना जाने क्या चाहिये जीवन में।

क्या बच्चे,क्या बूढ़े, क्या जवान।
सबका बस एक हीं काम।

मोबाइल चलाना,वीडियो गेम खेलना।
यही हैसाराखेल,खिलौना।
पता नहीं कहाँ जा रहे हैं हम।
मशीनी युग में मशीन हो रहे हैं हम।।
वीणा झा
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी

विधा लधु कविता
शीर्षक भारत
विश्वकुटुम्बकम सीख सिखाई
पथ अहिंसा परमो धर्म चला
चार वेद उपनिषद ग्रन्थ दे
जग जन जीवन किया भला
विश्व गुरु सद संत वाणी ने
शुभ गीता का संदेश दिया
भूले भटके जन अंतर का
जगति नेक कल्याण किया
यह भारत जग वह् भारत है
राम कृष्ण ईश्वर भू उतरे
दानव नाश किया धरती पर
दूर किये हित जन खतरे
हिमगिरी बना भारत प्रहरी
गङ्गा विमल कल कल बहती
स्वर्गीम केसर कश्मीर सुहाना
परहित कथा जग को कहती
विश्व विजेता अंतरिक्ष पर
भारत कीर्तिमान रचता है
प्रक्षेपास्त्र स्थापित कर वह्
विश्व शांति हित लड़ता है
शस्यश्यामला लावण्य लाडली
भारत माता गौरव करती है
तमसो मा ज्योतिर्गमय हो कर
जन मानस संकट हरती है
माँ देती है लेती नहीं वह्
गीत उसी के मैं खुद गाता
मनमोहक अंचल के ऊपर
जय जय जय हो भारतमाता।।
स्व0 रचित 
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा- दोहे
( विरह के )

स्वतन्त्र लेखन

पवन वेग से जब चले,याद पिया की आत
कसकत मन है बावरा,दामन उड़ उड़ जात

हिना न छूटी हाथ से , पिया गये परदेस
पाती भेजी न कोई , भेजा नहि सन्देस

मन लगता अब नहि कहीं,सूनी दरो दिवार
तुम आओ तो चमन में , शीतल बहे बयार

सूना अँगना हो गया , बिरवा भये उदास
द्वार लगी है टकटकी , है आवन की आस

सांस पवन सी अब चले,शीथिल मेरा गात
बौराई सी घूमती , दिन हो चाहे रात

चन्दा दे नहि चाँदनी, सूरज अगन लगाय
तड़पत हूँ दिन रात मैं,नींद न हमका आय

अंखियाँ बाट निहारती,पल पल नीर बहाय
सखि नहि आये सजनवा,तू काहे मुस्काय

तन की सुध हमका नहीं,अन्नजल मन न भाय 
बाट तकत नयना थके,घर नहि हमें सुहाय

बिन तेरे कैसे जियें , बतलाओ हे नाथ
उड़ कर आ जाओ अभी , हम तुम होंगे साथ

पंख लगा के लौट आ, जो करते हो प्रीत
तेरे आने से निभे , यही प्रीत की रीत

सरिता गर्ग
(स्व रचित)
श्रीमती जी-
कुछ और दिन मायके में रहियो
ताकि मेरी अतृप्त लेखनी
बर्षों की प्यास बुझा सके
और सृजन की राह में
कोई रुकावट न आ सके,
बंद कमरे में ।

क्योंकि-
घर के राशन में वेतन की तरह
लेखनी की स्याही भी चट हो जाती है
और
फटे कुर्ते की जेब से
असहाय-सी लटकती लेखनी
इधर-उधर बगलें झांकती है
तुम्हारे संग रहने पर
ठीक मेरी तरह ।

प्रिये-
तुम्हे आशीष,बच्चों को प्यार
घर के बुजुर्गों को लाख दुआयें
हृदय से भेज रहा हूँ
मायके में रहकर
सहर्ष स्वीकार करना
और
विरह के दिन खुशी से काटना
फिर आकर
पूरा हिसाब छांटना
मैं वैसा ही हिष्ट-पुष्ट
विश्वास न हो,तो आने पर देखना
हाँ-
थोड़ा फूल अवश्य गया हूँ
ठीक लेखनी की तरह ।

( मेरे कविता संग्रह की कविता " पत्र " )
डॉ. स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना (म.प्र.)
प्रेमांतर
****************
हाँ ये सच है की,

मेरा प्रेम पवित्र है
और तुम्हारा पावन
पर कुछ भेद हैं मध्य 
तुम्हारे और मेरे
मैं प्रेम को....
समर्पण समझता
और तुम....
समर्पण को प्रेम
मुझे आनंद मिलता है
हृदय के अनुराग से
तुम्हे चिढ़ है 
प्रेम के राग से
तुम आनंद को
पाना चाहती हो,
मैं आनंद को 
खोजना चाहता हूँ,
है आकांक्षा तुम्हारी
की तुम सागर की
तरह ज्वारित हो अपनी
लहरों में समेट लो मुझे...
किन्तु मैं चाहता हूँ,
की किसी पुरानी घनी,
वृक्ष की छाँव की तरह,
तुम मुझे धूप-ताप-गर्मी
से बचाती रहो...
हाँ तुम ये भी तो चाहती हो
कि मैं कायल रहूँ,
तुम्हारी प्रतिभा का
ज्ञान का सौन्दर्य का,
कोई गलत नही है इसमे
ये तो मानव प्रवृति है
और मैं कायल भी हूँ
तुम्हारे प्रतिभा ज्ञान 
और सौन्दर्य का
किन्तु मैं प्रदर्शित 
कर नही पाता..
मैं चाहता हूँ की 
तुम समझो...
की मेरा तुम्हारे
साथ होना ही
प्रमाण है की मैं 
अनुरागी हूँ तुम्हारा
मेरे अथाह प्रयास
के बाद भी तुम्हारा
यह कहना कि..
'मुझे विश्वास नही'
मेरे संकल्प को
तोड़ने के लिये 
बहुत होता है,
तुमको क्या पता कि
तुम्हारे हर आक्षेप पर
मैं अंदर कितना टूटता हूँ...
पर मैं क्या करूँ?
लोगों को प्रेम हो जाता है
पर मैं प्रेम में पड़ गया हूँ,
मेरा हर शब्द,मौन,तड़प,वेदना,
इस बात का साक्षी है
कि मुझे प्रेम है तुमसे,
अथाह प्रेम है तुमसे,
तुमसे नाराज होकर,
तुम्हारे बुलाने का
इंतजार करना
साक्षी है इस बात का
कि मुझे प्रेम है तुमसे,
अथाह प्रेम है तुमसे...
यदि तुम अनुभव कर सको तो....

स्वरचित....राकेश पांडेय,
विषय प्रकृति ( स्वतन्त्र लेखन )
रचयिता पूनम गोयल

प्रकृति की गोद में ,
मैं रहना चाहती हूँ ।
अपनी इस प्यारी माँ की गोद में ,
मैं सोना चाहती हूँ ।।
ये घने पेड़-पौधें ,
ऊपर बादलों की ओट ।
जी चाहता है कि
इन्हें आँचल बना के ,
लूँ ओढ़ ।।
ये झील , ये झरनें ,
बहुत अधिक भाते हैं मुझे ।
इसलिए , हर पल ,
मैं निहारना चाहती हूँ इन्हें ।।
ये कल-कल करती नदियाँ ,
ये दूर-तलक
फैली-पसरी ,
पहाड़ों की चोटियाँ ।
क्या कहूँ ?
इन सबने ,
कितना अधिक 
मेरा मन मोह लिया ।।
यद्यपि आजीविका हेतु , 
शहर का जीवन
जीना पड़ता है ।
तथापि बार-बार ,
प्रकृति की ही शरण में ,
जाने को जी
करता है ।।
क्योंकि इससे बढ़ कर ,
मानव-जीवन के लिए ,
कोई स्थान नहीं ।
इसके अतिरिक्त कहीं भी ,
मिलता है आराम नहीं ।।
#तिथि 👉१६.१२.२०१८
#वासर 👉रविवार 
#विधा 👉मुक्तक 
🌹🌾🌹🌾🌹🌾🌹🌾🌹
/१)
मृदु स्वप्न सरोजित नैनन मे ,
पियु प्रीत पलाश लिए खिलती।
मन मंदिर स्नेहिल दीप बना,
द्युति मौन हिये मुखरित झरती।
(२)
गीत कि गितिका,गेयता ना घटे,
प्रीत मे पात्र की प्रेयता ना खुटे।
जीत मे जश्न की जेयता ही डटे,
जीव जग यक्ष का प्रश्न फिर क्यो हटे।
(३)
धूले पन्नों की स्याही में फकत अपनी ही परछाई, 
करो गर लाख कोशीश भी, मगर मिटती नहीं झांई।
जरा धीरज धरो प्रियवर,सुफल होगी हर एक आशा, 
बडी ही खूबसूरत जिंदगी को, जिंदगी की पहुनाई।
(४)
मनवा चंचल चितचोर चपल, अद्य तनु मन भ्रमरित है, 
तन से तन कि गति विगलित तो,मन से मन की युतिअविचल है। 
संध्या फूली रक्तिम द्युति ले, नीशि से आलिंगन ले जाती। 
रजनी नीरव मुस्कान लिये, अरूणिम उषा सहला जाती। 
🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 
दाहोद(गुजरात)

बिषयःस्वतंत्र ःःमुक्तक लेखन

मानव नहीं दानव कहूँ जो मारते हैं बेटियाँ।
यहीं जहाँ में आने से पहले मारते हैं बेटियाँ।
भगवान शायद कभी माफ नहीं उन्हें करेंगे,
जो दिन दहाडे भी मारकर गाडते हैं बेटियाँ।

रात की बात नहीं रही नया सबेरा आएगा।
गीत बहारें गा रही कोई नया सपेरा गाएगा।
आऐं कुछ मिलजुल मानवता जीवित करें,
तभी जीत होगी हमारी सुखी बसेरा पाएगा।

स्वरचितः ः
स्वरचितः ः
इंजी.शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

दि०-16/12/2018
अमिट प्यास
##########
प्रेयसि,तेरी दृष्टि की हाला
पी-पी कर हम बे ख़ुद होकर
प्रणय परिधि में फँसे ठगे से
अपनी करनी भुगत रहे हैं।

मेरे अन्दर त्याग तपोबल
सुख लेलो देदो दुःख मुझको
लेकिन मन से कह दो अपना
मैं आजीवन ऋणी रहूँगा ।

अभिलाषा नित उदक-उदक कर
प्रणय सिंधु!अनुस्यूत तुम्हारी
निष्ठुरता के उष्णोदक में
उबल न जाए वासमती सी।

जब तक मैं न कहूँ स्नेहिल
आशंकित हो घिरी मृगी सी
असमंजस में किसी और को
बाँट न देना शीतलताएं।

वैसे तुम मेरी चिर संगिनि
लेकिन चित में चंचलता है
घनीभूत प्रणय कानन में
विपिन चिड़ी तुम फुदक न जाना।

मेरे अन्दर युगों युगों की
अमिट प्यास है मरुथल जैसी
वृथा,न कोशिश करो प्रिये तुम
मेरी प्यास न बुझ पाएगी ।।
स्वरचित -राम सेवक दौनेरिया


परलोकतंत्र
लोकतंत्र नाकाम यहाँ
परलोकतंत्र हमें दे दो भगवन।
वादे औ भाषण,फिर क्यूँ हिले सिंहासन
सत्तासिद्धि हो संभव जिससे
वो अमोघमंत्र हमें दे दो भगवन।
तुम,अपनी सत्ता को तो देखो
उसे चुनौती देता ही कौन है।
मुट्ठी भर असुरों को छोड़,प्रभु
सभी देवगण मातहत, तेरे मौन है।
पर यहाँ मेरे मालिक,तू ही देख
असुर-ससुर तो बहुत दूर है
हम अपने ही खेमे के
कर्ता-धर्ता से मजबूर है।
कैसे समझाऊँ, इन जयचन्दों को
समझाने का वह संयत्र हमें दे दो भगवन।
सत्तापक्ष सदा देवों की होती
विपक्ष-विधर्मी असुरों को ढोती है।
सत्ता की कुरसी खिलखिल करती
बेंच विपक्षी की,विलखती,रोती है।
देवासन की सुरक्षा अरु
जनहित हेतु,असुर-दलन की
वेद,पुराण, इतिहास कहानी कहती है।
हम शासन-सूत्र की सुदृढ़ता हेतु
असुरेक का भी मर्दन करें तो
सारी दुनिया को बेमानी लगती है।
न्याय जोत प्रबल हो पक्ष में
ऐसा कोई यंत्र हमें दे दो भगवन।
सागर-मन्थन से सुधा निकली
पी गए गटागट देवगण
और झटक गए,पद्म,पंखुरी पत्र भी।
मारे गए बेचारे राहु-केतु
विष्णु को मिली सुरुचि-कलत्र भी।
हम एक भी रूपसी को ताक ले तो
बड़ा बवेला मचता है।
अरे,वहाँ स्वर्ग में,प्रभु के आगे
अप्सराओं का मेला लगता है।
फूल खिले अपने भी चमन में
चकमक हो उजड़ा गुलनार।
उर्वशी,रम्भा, मेनकाओं से
नितदिन तो अपना गुलजार।
कृपा कर हमपर प्रभुवर
देवतंत्र हमें दे दो भगवन।
लोकतंत्र नाकाम यहाँ
परलोकतंत्र हमें दे दो भगवन।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


विधा :- छंदमुक्त

कलम चले जब,
मद्धम मद्धम..
खिलते पुष्प,
उपवन उपवन।
रंग बिरंगी,
रसधार बहे।
करुणा,श्रंगार,
अलंकार रचे।
भाव लेकर,
कल्पना उड़ान भरे।
शब्द सरिता,
कलकल बहे,
लहरें सुर ताल बने।
अंग-अंग फड़कने लगे,
मन उमंग उमड़ने लगे।
नाचे ताता थैया,
खग,विहग व ततैया।
प्रकृति का गुणगान करे,
ईश सृजन का मान करे।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

****************
ये हमारे शहर को
क्या घेरा है, 
कमजोर दिखती यहाँ
सूर्य की किरणें
चारों तरफ घना कोहरा है। 
ये हमारे शहर को क्या घेरा है....! 
नहीं कोई करता यहाँ
किसी से बात
धीरे से फुसफुसाकर
हो जाता फिर शांत, 
देख हनन मानवता का
नहीं काँपती उसकाी रूह
दबे-दबे सहमें से
फेरते एक-दूसरे से मुँह, 
बंधा है यहाँ
हर किसी के सर
खौफ का सेहरा है
ये हमारे शहर को क्या घेरा है....! 
परिंदे के आसमां पर यहाँ
उड़नखटोला का कब्जा है
किसको है फिक्र यहाँ
सब का अलग-अलग रूतबा है
नहीं दौड़ते बच्चे यहाँ
तितलियों के पीछे
ना पतंग काटने की
उनमें कोई उल्लास है
उसके बचपन पर भी लगा
कोई मजबूत पहरा है
ये हमारे शहर को क्या घेरा है...! 
स्वरचित : - मुन्नी कामत।🙏🙏
वो दिन सुहाने

याद आते हैं दिन पुराने,
जब देखे थे सपने सुहाने।
कल्पनाओं का था सुंदर संसार,
सुखों से सजा था सारा संसार।
प्यार की हर और थी फुहार,
नफ़रत की न थी कोई दीवार।
हकीकत से हमारा न पड़ा पाला,
संसार वो सबसे था निराला।
फिर हमने सीखी ये दुनियादारी,
एक पल में उतरी सारी खुमारी।
बैठे-बिठाएं कुछ मिलता नहीं था,
सपनों से जीवन चलता नहीं था।
बहाना ही पड़ता यहां पर पसीना,
तब ही चमकता किस्मत का नगीना।
फूंक-फूंक के कदम रखने पड़े थे,
प्यार कम जीवन में झगड़े बड़े थे।
रिश्तों के ताने-बाने सुलझे रहें ,
हम इन्हें सम्हालने में उलझे रहे।
कल्पना -हकीकत की पहचान हुई,
जिंदगी सपनों से अंजान हुई।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित
***परिवर्तन ***

नियम प्रकृति का परिवर्तन, परिवर्तन होता ही रहता है, 

जो आया है वह जायेगा , हमें कालचक्र यही कहता है। 

शासक तो बदलते ही रहते, नेता भी तो बदलते रहते हैं, 

सत्ता परिवर्तन होता ही रहता, नित नये रूप उभरते हैं । 

सिक्के के दो ही पहलू रहते , जग जाहिर ये भी रहता है, 

अपनी अपनी किस्मत होती,सिक्का तो उछला करता है। 

मन मानव का चंचल ही होता, ये पल पल रंग बदलता है, 

फायदा जहाँ पर कुछ होता,उस ओर ही बहका करता है। 

मौसम, ऋतुऐं व सूरज, चंदा, सब अपनी राह बदलते हैं, 

करने को कल्याण लोक का,ये परिवर्तित होते ही रहते हैं|

परिवर्तन होता रहे सोच का, तो बुद्धि विवेक ही बढता है,

निर्माण समाज का हो जाता, विकसित राष्ट्र हो जाता है |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती.....
विधा : ग़ज़ल - प्रेम सौगात मिल गयी मुझको…..


प्रेम सौगात मिल गयी मुझको…..
अश्क बरसात मिल गयी मुझको….

वो तेरे हुस्न कर्म के जलवे….
ज़ख्म खैरात मिल गयी मुझको…..

बिन तेरे याद कुछ न रहता है….
याद बारात मिल गयी मुझको…..

मौत बेमौत देख मर जाए….
दर्द सौगात मिल गयी मुझको….

जान कर भी न खुद को जाना, ज्यों…
अजनबी गात मिल गयी मुझको…..

देख 'चन्दर' मुझे गुमां यह हुआ.... 
चाँदनी रात मिल गयी मुझको....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१६.१२.२०१८

गीत 
16/12/2018

एक युवक एक लड़की से मेले में मिलता है और दीवाना हो जाता है 
मुखड़ा 
प्यारी सी थी वो एक लड़की, 
उससे आंखे चार हुई..., 
थोड़ा मैं लाचार हुआ.. 
और थोड़ा वो लाचार हुई ll

अंतरा 1
परी के जैसी सूरत उसकी, 
जैसे नभ से देवी उतरी l
गाल गुलाबी भवँर पड़े है, 
काली जुल्फे लब को चूमे ll
प्यारी सी.... टेक 
अंतरा 2
गीत दिवाना तरस रहा है, 
नैना उसके तड़प रहें है l
दोनों तरफ है ताप बराबर,
दिल दोनों के धड़क रहे हैंll
अंतरा 3
घिरी थी वो अपनी सखियों से, 
नहीं छिपी वो इन अँखियों से l
घड़ी मिलन की जैसे आयी, 
तभी बैरन बरसात हुई ll
प्यारी.... 
अंतरा 4
माँ ने जो माँगा था मुझसे, 
चाँद बहू साक्षात् हुई l
माँ के सपने की वो गुड़िया, 
मेले में साकार हुई ll
प्यारी..... 
(C)कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित मौलिक 
देहरादून उत्तराखंड

विषय-हाय ये भूत परीक्षा का
विद्या-लेख


परीक्षा एक ऐसा शब्द जो सुनते ही बच्चे व बड़े सभी के दिमाग को हिला कर रख देता है। हर समय सब अपने माथे पर क्विंटल का बोझ लिए घूमते हैं। बात बात पर बच्चों को रोका टोका जाता है। देखो तुम्हारी परीक्षा है। आज से टीवी देखना बंद, यार दोस्तों के साथ घूमना बंद। सुबह से शाम तक सिर्फ पढ़ाई ही करनी है। यहां तक की माता पिता भी टीवी, मोबाइल सब कुछ बंद कर देते हैं। तब बच्चों को लगता है की क्या परीक्षा इतनी बड़ी मुसीबत है कि घर में कर्फ्यू का माहौल लगता है। जो बच्चे पढ़ाई में होशियार होते हैं। साल भर मेहनत करके दिमाग को परीक्षा के लिए तैयार करते हैं। वो भी इस माहौल से परेशान हो सकते हैं। बच्चों से ज्यादा तो माता पिता परीक्षा से परेशान लगते हैं। इसलिए मेरे हिसाब से परीक्षा के नाम को इतना भी बदनाम ना करें की बच्चों को परीक्षा सहज न लगकर एक आतंकवादी का स्वरूप लगने लगे। ये सब करने से कमजोर बच्चे तो वैसे ही डर जाएंगे। इससे अच्छा हो बच्चों को समझाया जाये की परीक्षा वो चीज है जिसमें तुम स्वयं को परख सको। इससे तुम जान सकोगे की तुमने साल भर में कितनी मेहनत की है। इस समय माता पिता को चाहिए की अपने बच्चे का उत्साहवर्धन करें। अपने बच्चों का मानसिक लेवल जानकर उसे प्रोत्साहन दे, नहीं की दूसरे बच्चों से बराबरी करने के लिए ये कहे की पड़ोसी का बेटा 100 प्रतिशत लाता है और एक तुम हो की 80 प्रतिशत पर अटके हुए हैं। तुमने तो हमारी नाक ही कटवा दी। ये सब करने से बच्चे का मनोबल कम हो सकता है। इसकी जगह हम बच्चों से कहें की बेटा गई बार आप 80 प्रतिशत लाये। हमें बहुत खुशी हुई पर इस बार आप थोड़ी और मेहनत करेंगे तो शायद 90 प्रतिशत आ जाए। हम चाहते हैं की आप और आगे बढ़ो। होशियार दोस्तों से मिलकर विचार विमर्श करो, मोबाइल, टीवी से अच्छी जानकारी लो जो तुम्हें जीवन में आगे काम आये। परीक्षा को मुश्किल काम नहीं पर आसान जीवन में आगे बढ़ने की राह का नाम दे। और बच्चों को भी इसी तरह आसान तरीके से परीक्षा का परिचय कराएं। ना की डरावनी डायन बना स्वयं भी डरे व बच्चों को भी डराएं। 

स्वरचित कुसुम त्रिवेदी

आज फलक पर क्यूँ तू चांद एतबार ढूंढता है।
आंखों में अश्क क्यूँ चांद दिलदार ढूंढता है।
मौज में होगी वो अधूरी कहानीयों के पन्ने।

उन बदहाल पन्नों पर अपना इंतजार ढूंढता है।

क्यों मौसिकी लिए लफ्ज़ों में तू चांद इजहार ढूंढता है।
सितारों से बिगड़ी तेरी कहानी किश्ती मझधार ढूंढता है।
साहिल को ख़बर नहीं दरिया कौन सी किनारे में किस्ती।
किस्ती बदहाल पन्नों पर अपना इंतजार ढूंढता है।

आज अपना अक्श संभाले क्यूँ चांद फनकार ढूंढता है।
अजनबी सितारों से हो गई आशिकी फनकार ढूंढता है।
किसे बताएं अवध अपनी नाकामी की अजनबी दास्तान।
उन बदहाल पन्नों पर अपना इंतजार ढूंढता होता है।

अवधेश कुमार राय अवध
धनबाद झारखंड

-स्वतंत्र विषय लेखन-
*प्रेम*
प्रेम शुचि,जगती का वरदान।
समर्पण दृढ़ - आधार महान।

नहीं आदान - प्रदानी भाव,
दान है केवल, केवल दान।

प्राण का मोह - त्याग उत्सर्ग,
हेतु तत्पर, पा आत्म - ग्यान।

जगत - दर्शन करते साक्षात,
स्वयं आकर मिलते भगवान।

'अहं ब्रह्मास्मि'-शिखर आरूढ़,
'तत्वमसि' का पाते संधान।।

--डा.उमाशंकर शुक्ल'शितिकंठ'

"स्वतंत्र-लेखन"
"मैं चुप हूँ।"

मैं चुप हूँ
क्योंकि-जब मैं बोलूंगी,
सामने वाले की गलतियाँ
गिनाने लगूंगी, तो वह
चुप हो जायेगा।

मैं चुप हूँ क्योंकि मैं
रिश्तों की मार्यादा जानती हूँ
मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे परवाह है
दूसरों की भावनाओं की

मैं चुप हूँ क्योंकि
मैं अपनी मनमर्जी करने 
लगूंगी तो दूसरो की मर्जी
के विपरीत होगा

मैं अपनी पसंद को ताक पर रखी हूँ
क्योंकि जब मैं अपनी पसंद का करूँगी
जो दूसरों का नापसंद होगा

इतना सब अनचाही परिस्थितियों के
बीच मैं चुप हूँ।
क्योंकि मैं नारी हूँ, घर की आधारशिला हूँ।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

दिनांक - 16/12/2018
िन - रविवार 
दोहा - ग़ज़ल
जन्म-जन्म की है प्रिया, तेरी-मेरी प्रीत। 
है साँसों की डोरिया, तेरी-मेरी प्रीत। 

हमें देखकर गिर पड़े, बागों के सब फूल, 
फैलाये कस्तूरिया, तेरी-मेरी प्रीत। 

वादें दुनिया की लगे, मुझको केवल झूठ, 
तनिक नहीं जानो रिया, तेरी-मेरी प्रीत। #रिया-दिखावा

सावन की बरसात है, और स्वाति की बूंँद, 
सुनो सहचरी गुजरिया, तेरी-मेरी प्रीत। 

मेहरिया की माँग को, साँवरिया 'मिथिलेश', 
करे हरदम सेंदुरिया, तेरी-मेरी प्रीत। 

✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार

ंद हाइकु 
विषय:-"आँख/नयन" 
(1)
बोलें "नयन"
पलक चिलमन
झाँकता मन
(2)
"नयन" भाषा
बूझे मन की बात
मिला ईशारा
(3)
छुपा बेकार
"नयनों" की चुगली
पकड़ा प्यार
(4)
दिल के घर
"नयनों" की तलाशी 
टटोले मन
(5)
भावों का वेग
"नयन" झील भरी
चादर चली
(6)
चकित सोना
"नयनों" पर जंचा
शर्म गहना
(7)
उम्र को ठेंगे
"आँखो" की शरारत
मन को छेडे
(8)
"आँखें बदरा 
सजनी का काजल
प्रेम पसरा 
(9)
हैरान मन !
श्वेत श्याम "नयन"
रंगीन स्वप्न

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
स्वतंत्र लेखन"दिल में एक राज है गहरा 
जी चाहता है आज खोल दूँ
लबों से अपने तुम्हें बोल दूँ

रातों को सपनों में आकर
क्यों उमंगें जगा जाते हो
सुबह परिंदों सा उड़ जाते हो

दिन को ढूँढता ये मन तूझे
एक झलक को तरस जाता है
तेरी कही बातों को दुहराता है

सुबह शाम याद बहुत आते हो
कहना मेरा मानो या ना मानो 
रिश्ता अपना सा लगता है

समझकर भी नासमझ हो
कह भी दो तुम मेरे कौन हो

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम में
किरणों ने दिनकर की आरती उतारी
झीलों में खिले कमल लगते मनहारी।
नीड़ त्याग विहगों ने भरी है उड़ाने ।
विदा दो निशा को अब रवि की है बारी।

उपवन में खिले पुष्प ,कलियाँ हरषाई
बूँदो ने पत्तों पर रंगोली सजाई
महक उठा कण कण , है चहुदिशि उजियारा
प्रातः का ये आगमन, हर्षित जग सारा।

जागरण का है समय व्यर्थ न गवाओं
उठो,जागो ,आगे बढ़ मंजिल को पाओ
फूलों पर तितलियाँ भी मंडरा रही है
कोकिल आशा के ,नवगीत गा रही हैं।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'

"माँ का कर्ज"
माँ के हैं उपकार बहुत ,
तुम कर्ज चुका नहीं पाओगे।
दूध पिलाया जो बचपन में
तुम वह कर्ज चुका नहीं पाओगे।
पाला है नौ माह गर्भ में,
मत भूलो उसके उपकारों को।
सींचा है अपने लहू से उसने,
मत भूलो माँ के बलिदानों को।
खुद भूखी रह कर भी उसने,
हमको पाला है नाजों से ।
क्या भूल गये वो दिन तुम अब,
जब माँ सोती थी गीले में।
हम सोयें चैन की नींद सदा,
इसलिए माँ जगती थी रातों में।
क्यों भूले हो उन उपकारों को,
कैसे यह कर्ज चुकाओगे।
तुम जितना माँ को बिसराओगे,
वह उतना ही तुम्हें याद आएगी
माँ के हैं बहुतेरे कर्ज तुमपर ,
हरगिज तुम चुका नहीं पाओगे।
मत बिसराओ इस देवी को,
तुम कर्ज चुका नहीं पाओगे।
तुम कर्ज चुका नहीं पाओगे।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर।



विधा: छंद मुक्त (संवादयिक कविता)

आक्रन्ति ???

*अजन्मी बेटी* 
मैं कोई अपराधी हूँ क्या माँ?
ज़रा मुझे एक बात समझा।
सज़ा ए मौत की हकदार
मैं हुई कैसे ? ज़रा ये तो बता.

*मां* 
ना बेटी, ना ही अपराधी है तु
और ना ही सजा की हकदार।
तेरे दादा जी ही का हुक्म है
बेटी नहीं बेटा हो अबकी बार।।

*अजन्मी बेटी* 
गलती क्या है..? फिर मेरी 
क्यूँ कोख में रही है मार.?
क्यों तेरे लिए हुक्मदार बना
ये नीच सोच का सरदार*।।
*=दादा जी

*मां* 
चुप रह कैसे जुबान चलाती है
ये नीच सोच के नहीं ये बड़े है।
जो बड़े कहेंगे वो ही हम करेंगे
खानदान के कायदे थोड़े कड़े है।।

*अजन्मी बेटी*
कायदे के पीछे क़ातिल बनेगी?
क्यों तुम पे नीच सोच भारी है।
किस काम के वो तुगलकी कायदे 
जिनसे पैदा हुई * *ये बीमारी है ।।
** भ्रूण हत्या।

*मां* 
बस कर बेटी अब मत रूला
मैं जीवनदाती, नहीं जीवनन्ति।
मैं भूल गयी थी कर्तव्य मेरा
रखूंगी मैं तेरा नाम आक्रन्ति।।

*अजन्मी बेटी*
मां समझ गयी तुं मेरी बात
शुक्र गुजार तेरी रहूंगी...।
दुनियां देखती रह जायेगी
इक ऐसी उड़ान भरूंगी।।

*मां* 
बेटा सोच बदल दी तूने मेरी..
मैं जन-जन को जा बताउंगी
मां जीवनदाती है जीवनन्ति नहिं
मैं सब जन को समझाऊंगी।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा
वो साल,वो दिन,वो घड़ियाँ फिर लौट कर नहीं आईं,
बचपन वाली वो ख़ुशियाँ फिर लौटकर नहीं आईं।

मुलायम गद्दों पे,करवटें बदलते,रात भर जागती रही रात
मगर,पहली जैसी वो चैन की नींद फिर लौटकर नहीं आई।

आसमान छूते मकानों में आँखों को चुभती रौशनी मिली
छतों से उतरती धूप और बारिश फिर लौटकर नहीं आई।

माटी के चूल्हे से उठते धुएँ संग अठखेली करती थी हवा,
ग़ुब्बारे सी फूली,इतराती रोटियाँ फिर लौटकर नहीं आईं।

वो लंबी रातें,काग़ज़ के टुकडों में सिमटी दिल की बातें,
रिश्तों में वो कसावट,वो कशिश फिर लौटकर नहीं आई।

वकत के साथ हँसने की तहज़ीब,जीने का शउर आगया
खुद को गुदगुदाने वाली वो हँसी फिर लौटकर नहीं आई।

उन क़दमों के निशान तो मिले साहिल की गीली रेत पर
गीले हाथों में रंगबिरंगी सीपियाँ फिर लौटकर नहीं आई ।

बचपन में यही जाना इंसानियत ही है मज़हब सबका,वले
उमर गुज़र गई ये बात ज़हन में कभी फिर लौटकर नहीं आई।

जिंदगी का सफ़र तय करते जाने-कब,कहाँ,खो गया बचपन 
हर मोड़ पर पुकारा मगर मेरी सदाएँ फिर लौटकर नहीं आई ।

शिद्दत से ढूँढने पर सुना है खुदा भी मिल जाता है अकसर यहाँ
वो बचपन वाली बेतकल्लुफ़ी क्यों फिर लौटकर नहीं आईं ।

बचपन वाली वो ख़ुशियाँ फिर लौटकर नहीं आई.......
स्वरचित (C)भार्गवी रविन्द्र 
सर्वाधिकार सुरक्षित all rights reserved

भलाई की आदत जो अपना सकोगे |
भलाई करो तुम भला पा सकोगे ||

सता कर किसी को ये सच मान लेना|
कहीं चैन दुनिया में पा न सकोगे ||

हो इंसान लेकिन न हो इंसानियत तो |
बिन इसके इंसां कहला न सकोगे ||

जो पहचान अपनी न रख पाये कायम |
तो सम्मान फिर कहीं पा न सकोगे ||

नहीं प्यार दिल में वतन के लिए तो |
कोई प्यार फिर तुम निभा न सकोगे ||

मैं आवाज हूँ आपके अंर्तमन की |
मुझे तुम कभी भी भुला न सकोगे ||

मुझे तुम कभी भी भुला न सकोगे |
मुझे तुम कभी भी दबा न सकोगे ||
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स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी "सरस" 
कहानी-सिवनी म.प्र

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