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ब्लॉग संख्या :-405
सुप्रभात "भावो के मोती"
🙏गुरुजनों को नमन🙏
🌹मित्रों का अभिनंदन🌹
02/06/2019
"स्वतंत्र लेखन"
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घिरके आए जो बादल नभ पे।
मुस्कुरा के धरा गुनगुनाने लगी।।
ये रात जो आई पूनम की।
भीगी चाँदनी गुनगुनाने लगी।।
टिमटिम तारें जो चमकने लगे।
निशा चाँद संग गुनगुनाने लगी।।
मिली निगाहें तुझसे जो रातों को।
ये शबनमी सुबह गुनगुनाने लगी।।
तुम सपनों में जबसे आने लगे।
निशा पलकों पे गुनगुनाने लगी।।
जो नाम तेरा गजल में लिखा।
मेरी शायरी गुनगुनाने लगी।।
होठ जबसे थरथराने लगे।
ये धड़कनें गुनगुनाने लगी।।
मुहब्बत जो हो गई है तुझसे।
आशिकी भी गुनगुनाने लगी।।
यूँ मिला जो तेरा प्यार दिलबर।
ये जिंदगी अब गुनगुनाने लगी।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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भावों के मोती
स्वतन्त्र लिखन
अंगना हमारे आओ कृष्णा।
जगमग अंधियारे बनाओ कृष्णा।।
हम भक्त तुम्हारे, पड़े तेरे द्वारे
आकर गले लगाओ कृष्णा।
सोना न चाहे,चांदी न चाहे
बस दरश तुम दे जाओ कृष्णा।
बह रहे आंखों से अश्कों के धारे
टूटी आस तुम बंधाओ कृष्णा।
दुनिया में पाप अनाचार छाए
धर्म का ज्ञान दे जाओ कृष्णा।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
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नमन मंच
दिनाँक - 2/6/2019
आज का कार्य - स्वतंत्र लेखन
**लू का प्रकोप**
चिलचिलाती धूप,
लू के थपेड़े ,
पसीने से तरबतर बदन,
हर जन परेशान ,
अब कहाँ जीना आसान ।
फेंक रहा रवि आग के गोलें,
झुलस रहे जीव नन्हें-मुन्ने,
हर प्राणी हाल - बेहाल ,
ताक रहे नभ की ओर ,
न दिखे कहीं बादल की कोर ।
जिधर देखों बस दूर दूर ,
धूप की इठलाती लहरें ,
वृक्ष नदारद ,चहुँओर गगनचुंबी इमारतें,
तप रहा तन्दूर सा सारा जहां,
बिन वृक्ष अब छाया आये कहां।
सालों साल बढ़ रहा पारा,
घट रही बरसाती बूंदे ,
कैसी नाराजगी ये प्रकृति की ,
विकराल रूप धर करे वार ,
कौन हैं इसका जिम्मेदार.....?
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा,सिरसा(हरियाणा)
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भावों के मोती दिनांक 2/6/19
स्वतंत्र लेखन
विधा लघुकथा
सीख है पूजन में भी
घर में खुशी का माहौल था , सतीश की बैंक में नौकरी लग गयी थी लेकिन नियुक्ति उसे नागपुर में मिली थी । रमा देवी यह सोच कर परेशान थी कि सतीश वहाँ खाने की क्या व्यवस्था करेगा क्यो कि अभी तक उसे घर का खाना ही मिलता था ।
सतीश ने नागपुर जा कर ज्वाईन कर लिया और एक कमरा ले कर , खुद ही खाना बनाने लगा । कुछ दिनों बाद रमादेवी, सतीश से मिलने नागपुर आई ।
वह थक गयी थी इसलिए सो गयी । बैंक बंद होने के बाद सतीश घर आया , माँ ने दरवाजा खोला और फिर लेट गयी । इस बीच सतीश किचिन में गया और दाल, रोटी , सब्जी बना कर तैयार कर ली । इसके बाद उसने माँ को जगाया । माँ हडबडा कर उठी उसे अभी खाना भी बनाना था लेकिन माँ जब किचिन में गयी सब तैयार था । माँ ने सोचा :"कोई खाना बनाने वाली रखी होगी जो बना कर गयी है ।"
सतीश ने बताया :"माँ खाना मैने ही बनाया है ।"
तब माँ आश्चर्य से उसे देखने लगी और बोली :
" बेटा सब्जी तो बनाना ठीक है लेकिन रोटी का आटा गूंथना और बनाना बहुत मुश्किल है यह तूने कहाँ से सीखा ?"
तब सतीश ने बताया :
" माँ यह तो घर में संस्कारों का नतीजा है , पूजा पाठ और शनिवार को मंदिर में आटे का दीपक लगाने के लिए मैं आटे गूंथता था , शुरू में जरूर थोड़ी परेशानी आई लेकिन बाद में अच्छे से गूथने लगा और बीच बीच जब आप मामा के घर जाती थी तब रोटी भी बनाने लगा था, उसी नतीजा है कि मुझे कोई परेशानी नही हुई ।"
रमादेवी ने चैन की सांस ली कि :
"और सोचने लगी भारतीय संस्कृति में हर पूजा पाठ का महत्व होता है दीपक बाती हवन आरती से जहाँ मन को शांति मिलती है वहीँ घरेलू काम की बातें भी सीखने को मिलती है साथ ही सतीश अब जहाँ भी रहेगा , अपने हाथ का बना खाना खाऐगा । "
और उनकी चिंता खत्म हो गयी ।
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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नमन मंच
दिनांक .. 2/6/2019
विषय .. लगाव
विधा .. अस्पष्ट
*******************
जो कभी ना भर पाया,
मुझको वो घाव है ।
उस घाव का नाम सुनो,
तुमसे लगाव है ।
.....
कितना भी भरू पर बढता है,
रह-रह कर मुझको टिसता है।
यादों से जीवन दुश्वार है,
हाँ मुझको तुमसे प्यार है।
.....
बीती यादें आँखो मे है,
दिल मे भी है साँसो मे है।
तुमको ना सही पर मुझे आज है,
मेरे घाव का नाम लगाव है।
.....
जो इस पीडा मे जकड गया,
जीवन उसका तो निपट गया।
शेर इस पीडा से लाचार है,
मेरे घाव का नाम लगाव है।
स्वरचित एवं मौलिक
शेरसिंह सर्राफ
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नमन:"भावों के मोती"
दि.02,जून,19.
विषय:स्वतंत्र लेखन
गीतिकाः
*
तंत्र समुन्नत हो कैसे ? जब ,जन-मानस से प्यार नहीं।
कर्दम - कीलित कलुषित मन से,हो सकता उद्धार नहीं।
शशक - सींग बन रह जाता स्वर,'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का,
यदि अन्तर्मन मलिन स्वार्थ से , औरों का हित- कार नहीं।
आँख दिखाते भाई - चारे को, संकीर्ण विचार जहाँ,
समता - प्रेम - ऐक्य का सपना , हो सकता साकार नहीं।
रंग - विरंगे सुमनों - विहगों का , संशोभन मधुवन जो,
क्षुब्ध विषमता दल - मल सकती, यदि है दृष्टि उदार नहीं।
उठो ,उठो!! जागो ,जागो!! अविवेक- तमिस्रा त्याग करो,
नर , कंकाल - मात्र जिसमें , सद्भाव - रक्त - संचार नहीं।।
--डा.शितिकंठ'
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नमन मंच
भावों के मोती
दिनांक :02.06.2019
विधा :बाल कविता
शीर्षक :पृथ्वी
सब ग्रहों में
अदभुत
ग्रह हमारा है
पृथ्वी पर
जैवमंडल
बहुत प्यारा है
जीवन केवल
सम्भव इस पर ही
सब प्राणियों का
सहारा है
वनस्पति,खनिज
धरती ही देती है
बदले में
बहुत ही कम लेती है
वसुंधरा, धरा
पर्यायवाची शब्द
कहलाते है
जमीन ,धरती भी
समानार्थी
बताए जाते हैं
अपने अक्ष के
चारों ओर
घूमे तो
परिभ्रमण गति
कहलाती है
सूर्य के
चारों ओर
घूमे तो
परिक्रमण
बताई जाती है
अब तो
पर्यावरण की चिंता
खूब सताती है
ग्लोबल वार्मिग
बढ़ती जाती है
पानी भी
डार्क जोन में
चला गया है
इसका संकट भी
गहरा गया है
1970 में था
विश्व अर्थडे मनाया
1992 में
रियो डी जेनेरो में
सम्मलेन करवाया
22 अप्रैल को
विश्व पृथ्वी दिवस मनाया
आओ मिलकर
पर्यावरण को
सुंदर बनाएँ
पृथ्वी को
भविष्य के
खतरों से बचाएँ
हरीश सेठी 'झिलमिल'
स्वरचित
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भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
2/06/19
विधा - क्षणिकाएं
विषय -ख्वाहिश, मौन, सुख-दुख
बंधन, दर्पण दर्शन।
1 ख्वाहिशों के शोणित
बीजों का नाश
संतोष रूपी भवानी के
हाथों सम्भव है
वही तृप्त जीवन का सार है ।
"ख्वाहिशों का अंत "।
2 ध्यान में लीन हो
मन में एकाग्रता हो
मौन का सुस्वादन
पियूष बूंद सम
अजर अविनाशी।
शून्य सा, "मौन"।
3 मन की गति है
क्या सुख क्या दुख
आत्मा में लीन हो
भव बंधनो की
गति पर पूर्ण विराम ही
परम सुख,.. "दुख का अंत" ।
4 पुनः पुनः संसार
में बांधता
अनंतानंत भ्रमण
में फसाता
भौतिक संसाधन।
" यही है बंधन"।
5 स्वयं के मन सा
दर्पण
भली बुरी सब
दर्शाता
हां खुद को छलता
मानव।
" दर्पण दर्शन "।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
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🌹नमन भावों के मोती🌹
___2जून 2019_
ना इजहार में
ना इन्तजार में
छुपा के रख लेतें है
हसीन
लम्हों को
चल नजरों के करार में।
न इजहार का पता चले
न इन्तजार का पता चले
सावन को भी '
पता न चले
भीगें है तन ,
रिम झिम सी
फ़ुहार में
छुपा के रख लेतें है
हसीनं' लम्हों को,
चल ,नजरों के करार मे
ना आवाज बनों
तुम 'मेरी
ना आवाज बनु
मैं तुम्हारी
साँसों को भी
पता न चले
दिल कश ये 'खुमारी
मस्ती के गोंते हो
मौजों की धार मे
छुपा के रख लेतें
हसीनं लम्हों को
चल,
नजरों के करार में |
ना तुम फ़साना बनों
ना मे कोई अफसाना बनु
खो जाएे
खयालों की वादियों में
दूर क्षितिज के "
छोरों तक,
डूब जाएें हम
तेरे मेरे संसार मे,
छुपा के रखलेते है
हसीनं लम्हों को,
चल नज़रों के करार मे !
~
पी राय राठी
राजस्थान
2 जून 2019
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शीर्षक ।। नवोदित कवियों की वकालत ।।
आज फेसबुक मंच न मिलता
नवोदितों का हुनर न खिलता ।।
जो हैं बहुत बड़े वो ही रहते खड़े
बाकी सितारे जमीं पर होते पड़े ।।
बड़े ही अपनी उपलब्धि हाँकते
अपनी क्वालिटी खुद ही भाँपते ।।
सभी नवोदितों को वो ललकारते
वो बड़े जो जोर से उन्हे दहाड़ते ।।
वो भी इंसान हैं भगवान नही
यह तो हमें करना होगा यकीं ।।
देखा इंसान का इंसानी मिजाज़
फक्कड़ कवि हूँ न करूँ लिहाज ।।
जय हो बृह्मज्ञानी कबीर की
और उनकी बतायी नज़ीर की ।।
खरी कहना होती मुसीबत बड़ी
पर अपने को पंगे की आदत पड़ी ।।
लाइक की नही रखता हूँ नीड*
मस्तिष्क में चाहिये अच्छे शीड* ।।
उन्ही की 'शिवम' उपज चाहिये
कृपा तो प्रभु की महज़ चाहिये ।।
नीड*- जरूरत
शीड*- बीज
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 02/06/2019
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नमन भवों के मोती💐
कार्य:-स्वतंत्रलेखन
विधा:-गीत (बुंदेलखंडी खड़ी बोली)
भावार्थ:- परिवार नियोजन के सन्दर्भ में खेत-माटी की तुलना स्त्री से की गई है और फसल-बीज संतान से।
एक तेरो खेत,
तूने बो दई ज्यादा फ़सलिया।
कहे लालच में बोय-बोय,
बिता दई सबरी उमरिया।।
एक तेरो खेत.......
स्यारी में सड़ गओ बीज,
मिट गई सबरी उन्हरिया।
पीरी सी हो गई देह ,
कछु लई न खबरिया।।
एक तेरो खेत..........
बरसन से काटत रहे ,
अधपके गेंहुअन की बालियाँ।
टपके सरसों के फूल पीरे ,
पड़ी रहीं सूंनीं सी क्यारियां।।
एक तेरो खेत.........
रिमझिम आषाढ़ बीतो, सावन भी,
बीतो फागुन फगरिया।
गर्मी के लौंकन में टपक पड़ी,
पीरी सी अमिया।।
एक तेरो खेत........
कारी होगई वा ज्वांर ,
लम्बी डरी डीमन में डरियाँ।
उघरा से धोरी पड़ गईं,
हरी-भरी चनन की घेटियां।।
एक तेरो खेत........
दे-दे खरार बोत रहे,
टेढ़ी-मेड़ी हरिईयाँ ।
डाली न एक मुठी खाद,
कोरी बो दई बंजरिया।।
एक तेरो खेत...........
ऊसर सी हो गई माटी ,
जो देत रही घर भर को रोटियाँ।
अब बंजर खेतन कों देख ,
कहे रोत हो दे-दे घुटइयाँ ।।
एक तेरो खेत............
भागन की बातें छोड़ो ,
पड़ो अब करमन के पइयाँ।
कैसो बदलो है जमानो ,
अब देखो मोरे भइया ।।
एक तेरो खेत..........
दैके तुम खाद-पानी ,
वो दो अपनी टुकरिया।
खेतन के बीच फिर ,
उगेंगी दो -दो फ़सलिया।।
एक तेरो खेत.............
( मेरे कविता संग्रह से )
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना (म.प्र.)
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"मैं ढूंढता हूँ मुझको"
देख कर बदलाव को
रो रहा सड़ता शहर
गाँव के पनघट हैं सूखे
सड़ रहा तालाब रो रहा
आदमी का मन रो रहा
बीता हर जीवन रो रहा
उन आंसुओ के सैलाब से
व्यथा मन को धोती है
मैं ढूंढता हूँ मुझको
जब ये रात उदास होती है।
बीते हुए हजारों दिन
हजारों रातें लाखों पल
हजारो यादें लाखों चेहरे
नजदीकियां-दूरियां
चहकता बचपन सुहाना
दौड़ती चढ़ती जवानी
फिर काली छायाँ प्रौढ़ पन की
जाती उम्र सयानी होकर
सब याद करके रोती है
मैं ढूंढता हूँ मुझको
जब ये रात उदास होती है।
स्वप्न भी हो गए पराये
नींद कैसे मुझको आये
चाँद तारे नहीं सुहाते
क्यूँ अँधेरे मुझे बुलाये
इंसान का बनावटी पन
देख के मन घुट घुट जाए
तब अँधेरी रातो में
ये कविता उदास हो जाती है
मैं ढूंढता हूँ मुझको
जब ये रात उदास होती है।
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
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नमन मंच-भावो के मोती
दिनांक-02.06.2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा-रचना
शीर्षक- तुम क्या जानो?
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मैंने कितनी बार पिया है, दुःख सरिता को
तुम क्या जानो?
मैंने कितनी बार सहा है ,हर विपता को
तुम क्या जानो ?
मन के वासी तुम्हें बनाया ,चाह संजोई,
अपनाने को ।
इच्छा के डग तोल-तोल कर,चलता रहा
तुम्हें पाने को।।
छवि अंकित कर हृदय पटल पर,अभिलाषा
जोखिम कर बैठी।
बहुतेरी समझाई फिर भी ,आँख मेरी
रिम-झिम कर बैठी।।
वाणी ने कर गान अलापा,निज क्षमता को
तुम क्या जानो ?
मैंने कितनी बार पिया है दुःख सरिता को,
तुम क्या जानो ?
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
चलता हूँ मैं सँभल-सँभल कर ,जीवन राहें
पथरीली हैं।
आशाएँ बह जातीं गलकर मानो ढेरी
वर्फ़ीली हैं।।
वह राही हूँ नहीं जानता मंज़िल कितनी
दूरी पर है ?
लेकिन इतना फ़र्ज है मेरा ,चलते रहना
जीवन भर है।।
मैंने कितनी बार जगाया उत्सुकता को,
तुम क्या जानो ?
मैंने कितनी बार पिया है दुःख सरिता को,
तुम क्या जानो?
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
कितनी बार लड़ी आशंका हृदय समर में,
तुम क्या जानो?
कितने ज्वार उठे उतरे मन के सागर में,
तुम क्या जानो?
कितनी बार जलीं ज्वालाएँ उर अन्तर में,
तुम क्या जानो?
कैसे मधुरिम प्रेम बचा है मेरे उर में ,
तुम क्या जानो ?
मैंने कितना "अ़क्स" सराहा भावुकता को,
तुम क्या जानो ?
=========================
स्वरचित- राम सेवक दौनेरिया "अ़क्स"
बाह-आगरा (उ०प्र०)
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नमन भावों के मोती
विषय - स्वतंत्र सृजन
02/05/19
रविवार
कविता
अटल विश्वास हो मन में तो मंजिल पास आती है,
अथक यत्नों से किस्मत भी चमक अपनी दिखाती है।
जो बढ़ता लक्ष्य-पथ पर पूर्ण दृढ़ता और श्रम-बल से,
उसे सच्ची लगन से शुभ-सफलता मिल ही जाती है।
कभी विश्वास उसके मन का किंचित कम नहीं होता ,
हों पथ में लाख बाधाएं, उसे कुछ गम नहीं होता।
वह दृढ़ चट्टान बन स्वीकार करता हर चुनौती को,
मनोबल देख उसका, विघ्न सब पथ छोड़ जाती हैं।
यही है सत्य जीवन में अटल विश्वास के बल पर,
असम्भव से असम्भव बात सम्भव हो ही जाती है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
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भावों के मोती... वन्दन
अस्तित्व
""""""""""
कुछ दीये सूरज ने जलाए
और रख दिए सृष्टि की
सहस्त्रधारा पर
अंधेरे कोनों को
आलोकित करने के
पवित्र कारण के साथ...।
कुछ अंधेरे पुँज
चहलकदमी कर रहे है
अपनी आँखें बंद कर
सूर्य रश्मियों की
अनदेखी करते हुए
रोशनी को मुँह चिढ़ाते...।
कुछ दीये सूरज के
अड़े हैं अपनी जिद्द पर
तिमिर को उजालों का
अर्थ बताते हुए..कि देखो!
तल में मेरे भी है
अंधेरे का अस्तित्व...।
और हम पूरक हैं दोनों
एक-दूसरे के सृष्टि में
विलोम तो कदापि नहीं,
अपनी-अपनी उपस्थिति का
अहसास रखकर
प्रकाशित करना है जगत् को
अंधेरे के गर्भ से ही
सृष्टि का सृजन करना है...।
अंधेरे हैं तो..
उजालों का महत्व है
दोनों की साधना ही
जीवन का तत्व है...।।
✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान
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2/6/19
भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन
___________________
हर समय खुद को भूला
औरों के लिए जीती रही
अपनी खुशियों को छोड़
सबकी खुशियाँ चुनती रही
न दिन देखा न रात देखी
खड़ी रही सबके लिए
डॉक्टर बनी,नर्स बनी
सारे घर की नौकरानी बनी
शिक्षिका बन बच्चों को
जीवन का पाठ पढ़ाया
पति की प्रेयसी बन
जीवनसंगिनी का धर्म निभाया
फिर भी नहीं थी
मैं किसी के काम की
नज़रों में सबके थी
ज़िंदगी मेरी आराम की
मेरे काम की करें अनदेखी
फिर भी मैं करती
उन सबके मन की
बस यही ख़राबी थी
शायद मुझ में
सोचा नहीं मैंने
कभी अपने लिए
ज़रूरतें पूरी हुई
सब निकल पड़े अपने रस्ते
आज़ अकेले होकर जाना मैंने
मतलब के थे सारे रिश्ते
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित✍
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नमन मंच को
दिन :- रविवार
दिनांक :- 02/06/2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन
विधा :- वर्ण पिरामिड
है
दृश्य
पशुता
भ्रूण हत्या
कृत्य संगीन
रोती मानवता
दुष्ट मानसिकता
है
रोग
हवस
बलात्कार
कृत्य पशुता
खोती मानवता
रुग्ण मानसिकता
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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01-6-2019
विषय:- नारी
विधा :- कुण्डलिया
१
बदकिस्मत नारी नहीं , गया समय वह बीत ।
अब न सहे आतंक को , तोड रही है रीत ।।
तोड रही है रीत , समझती हक़ है अपना ।
सबकी है आधार , करे पूरा हर सपना ।
होता है अब मान , बनी नारी ख़ुशक़िस्मत ।
बीत गया वह दौर , दिखे थी जब बदकिस्मत ।।
२
कठपुतली का खेल है , औरत की यह जात ।
सब रिश्ते है खेलते , देखते न जज़्बात ।।
देखते न जज़्बात , बनी रहती बेचारी ।
होती बहुत निराश , करें जब फ़तवे जारी ।
दे पंखे पर टाँग , गले में बाँधे सुतली ।
औरत करे पुकार , नहीं हूँ मैं कठपुतली ।।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
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वरदान रुपी पेड़
🎻🎻🎻🎻🎻
सबको हो रहा संताप
बढ़ता जाता भू का ताप
पेड़ों को उजाड़ देंगे तो
यही मिलेगा सबको अभिशाप।
पेड़ों की भूमिका अति प्रभावी
बिना इसके प्रदूषण हावी
भूमि का बंजर हो जाना
बिना इसके अवश्यम्भावी।
क्या नहीं करते ये बचाव
भूमि का रोकते ये कटाव
बाढ़ आ जाती है जब भी
ये ही रोकते प्रबल बहाव।
ये प्रकृति के अद्भुत वरदान
इनसे ही मिलते हमको प्रान
यदि इनका नहीं विस्तार किया तो
दिखेगा हर ओर श्मशान।
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सादर नमन
02-06-2019
आर्यावर्त
सुशिष्ट, सभ्य, श्रेष्ठ, परहित सुखद शिरोधार्य
विज्ञ स्तोता, यज्ञ-होता, मृदुआचरणप्रिय आर्य
अधिवास आर्य पुण्यभूमि, शुद्ध सनातन प्रवर्त
सप्तसिंधु-सलिल सिंचित वैदिक भूमि आर्यावर्त
अखंड गुण-ज्ञान-संपदा साधित मुनि सत्य-संधान
लघुता-गुरुता त्याज्य, पूर्णता का सतत अनुसंधान
योग, वेद, संवेदयुक्त भाव सकल विश्व कल्याण
संस्कृति, सुप्रवृति निरत मही, है आर्यावर्त महान
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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नमन मंच
विधा-हाइकु कविता
विषय-स्वतंत्र लेखन
शीर्षक-मजदूर
बचपन से
भाल पर लकीर
मजदूर के।
नंगे बदन
बचपन बिताया
दयनीय था।
चहेरे पर
युगों का खालीपन
ढीला जबड़ा।
मेहनत की
मूक निराश छवि
खाली उदर।
शक्ति स्वरूप
ईश्वर की रचना
क्या ऐसी ही है ?
निराशा भरा
तमयुक्त जीवन
रहा सदैव।
शान्त खामोश
पर धधकी आग
बन खतरा।
सूखा काँटा-सा
संग्राम को तैयार
जागा शोशित।
शासक सोचे
विद्रोह की चिंगारी
भड़क उठी।
युग नूतन
अब मजदूर का
हिला शासन।
राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव-रिसालियाखेड़ा,सिरसा
हरियाणा
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सादर अभिवादन
नमन मंच
भावों के मोती
दिनांक : 2-6 -2019 (रविवार)
विषय : स्वतंत्र लेखन
बहुत याद आए ए सनम तेरा प्यार
पलके उठ गिरती थी बार-बार
बहुत याद आए ए सनम तेरा प्यार
वो गुजरा जमाना
वो चाहत की बातें
मोहब्बत भरी वो चांदनी रातें
सबकी नजरें बचाकर
वो आना तेरा
बहुत याद आए ए सनम तेरा प्यार
तेरे साथ हंसना
तेरे लिए रोना
तेरे ख्यालों में हर वक्त खोना
तेरे साथ ही गुनगुनाना मेरा
बहुत याद आए ए सनम तेरा प्यार
कितनी थी प्यारी
हमारी वह दुनिया
भड़ी थी चहुँ ओर
खुशियां ही खुशियां
अब सपनों में आ सताना है बार-बार
बहुत याद आए ए सनम तेरा प्यार
यह रचना मेरी स्वरचित है
मधुलिका कुमारी "खुशबू"
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मंच को नमन
दिनांक -2/6/2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
आशाओं का यह सुखद सवेरा
देखो , फिर उग आया है
अनुप्राणित है तन मन मोरा
खिली धूप से मुसकाया है
सोई कलियों ने आँखें खोली
देखो , तंद्रालस दूर भगाया है
डाल -डाल महक रही है
पुष्पों ने इत्र फैलाया है
आह्लादित हो रहा हवा का झोंका
देखों , पुष्पों को छूकर आया है
पीने मकरन्द तैयार है भ्रमर
खिले पुष्पों ने उसे रिझाया है
तितलियों ने कर ली तैयारी
देखो , जुनून -सा छाया है
वन -उपवन की छटा निराली
प्रकृति का यौवन इतराया है
नन्ही चिड़िया ने चीं चीं करके
देखो , अपना राग सुनाया है
दूर गगन में जाएगी उड़ने
उसके हौंसलों ने गीत गाया है
छटा देखकर अपनी बगिया की
देखो , मन ने कुछ बुदबुदाया है
लिख देने को आतुर है कितना
अंतर्मन में जो कुछ समाया है
✍🏻संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
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नमन मँच
दिनाँक-2/06/2019
स्वतंत्र लेखन
गाँव और शहर
*************💐
शहर में हम ढूंढ रहे, एक नया आशियाँ।
वो गाँव अब मन का नही,जिस गाँव ने बड़ा किया।।
होती थी जहाँ बैठकें, पीपल की छाँव में।
गाती थी गीत औरतें, हर एक काम में।।
चाचा का मन में खौफ़ था, पापा की डाट थी।
हर एक के मन में बसी, बस एक बात थी।।
कि नाम अपने गाँव का, रौशन करेंगे हम।
होकर बड़े इस गाँव का, काया करेंगे कल्प।।
पर क्या करें अब भा रहा है, शहर वो मुझे।
अपनी तरफ बुला रहा है, शहर वो मुझे।।
सपनों में पँख मैं लगा दूँ, कह रहा है वो।
तुमको गगन में मैं उड़ा दूँ, कह रहा है वो।
वो कह रहा है आओ, मैं शोहरत तुम्हे दूँगा।
सम्मान दूँगा साथ में, दौलत तुम्हे दूँगा।।
पर मन मेरा अब मुझसे ही, यह प्रश्न कर रहा।
कि गाँव जैसा है सुकून, शहर में कहाँ।।
तुमको कहाँ मिलेगी, वह छाँव नीम की।
पेड़ के नीचे की, वह नींद खाट की।।
जाने की है तमन्ना, तो जाओ शहर में।
जब ऊब जाना, लौट आना इसी चमन में।।
रवि 'विद्यार्थी'
सिरसा मेजा प्रयागराज
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नमन भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन
विधा- कविता
🐿🐿🐿🐿🐿🐿🐿
गिल्लू रानी बड़ी सयानी ,
करती वो दिनभर मनमानी।
उसकी अटखेलियां लुभाती ,
उछल कूद, फोटो खींचाती।
हमें देख फरार हो जाती ,
जैसे वो हमसे शर्माती।
दिनभर काजू पिस्ता खाती,
छुपने की वो जगह बनाती।
ऊपर नीचे दौर लगाती,
रोज़ इक करामात दिखाती।
एसी भोली शक्ल बनाती,
जिसको मै फिर भूल न पाती।
🐿🐿🐿🐿🐿🐿🐿
स्वरचित
-वेधा सिंह
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नमन मंच को
दिनांक 2/06/2019
शीर्षक -विकास
हम जब छोटे बच्चे थे
बड़े -बड़े सपने संजोते थे
मेरे गाँव में भी सड़क बनेगी
मेरे गाँव में भी बसें चलेगी
मेरे गाँव में भी बिजली जलेगी
मेरे गाँव में भी फिल्मे चलेंगीं
मेरा गाँव भी शहर बन जाएगा
वाह! तब कितना मज़ा आएगा ?
फिर ऐसी भी बात आई
हाँ विकास की आँधी आई
सड़क बन गई , बसें चल गई
कट गई हमारी अमराई
चल गई विकास की पुरवाई
लड़ गए आपस में भाई भाई
टूट गया घर चौबारा
उजड़ गया मेरा द्वारा
गुम हो गया तुलसी का चौरा
कट गया नीम का बिरवा
खत्म हो गया गेंदें का फुलवा
बिक गयी रामा ,बिक गयी श्यामा (गाय )
आई घर में मारुति ,यामाहा
ग़ुम हो गई संध्या बाती
अब माएँ घर देर से आती
भूल गए दादा दादी को
भूल गए चाचा चाची को
अब घर केवल मम्मी -डैडी के
हेखी और शेखी के
अब ना परियों के किस्से हैं ना दादी की कहानी हैं
न मम्मी की लोरी है बस केवल टीवी की कहानी है
यही विकास की कहानी है ।
स्वरचित-मोहिनी पांडेय
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दिनांक - २/६/१९
नमन भावों के मोती मंच
आज का कार्य - स्वतंत्र लेखन
पतन
देखी एक बूंद,
निकली फेनिल सागर से |
किनारे की रेत पर ,
छिपी थी आवरण में ,
मैने पूछा !
क्या डर है नश्वरता का ?
जो छुपा रखा है स्वयं को ,
वो बोली !
यह भारत वर्ष है|
यहाँ की भूमि न्यारी है
सारे जहाँ से |
संस्कृति सभ्यता की जननी है |
मैं आवरण में हूँ लिपटी ,नही गयी हूँ जकड़ी |
हृदय से वरण किया है इसे |मैने !
यही मेरी संस्कृति है |
यही है सभ्यता |
ये आवरण ,ये छाँव दी है मुझे मेरे पूर्वजों ने |
इन विचारों ने कर दिया मुझे निरुत्तर |
मैने !
फिर देखी -
एक बूँद |
छिन गया था, जिसका आवरण |
लहरों ने फेंक दिया था उसे ,
करके निर्वस्त्र |
मुझे देख सिमट गई वो ,
सहम गयी वो |
मैने कहा ठहरो !
सजल नेत्रों से बोल पड़ी वो !
घिर गया है जग'
अहम के तिलस्म में'
प्रकम्पित है रक्तरंजित है धरती |
सौरभ स्तब्ध है ,
प्यार अभिशप्त है ,
वासना फैला रही है पंख |
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई मैं ,
वही एक बूँद हूँ
जो थी कभी-
एक आवरण में ,
लाज से लिपटी हुई |
तिरते थे स्वप्न
आँखों में |
सबके सब बिखर गए |
लरज़ते थे गीत होंठो पे ,
सदा के लिए
मौन हो गये |
हाँ ! मैं वही एक बूँद हूँ जो थी कभी आवरण में लाज से लिपटी हुयी |
मंजूषा श्रीवास्तव 'मृदुल'
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नमन मंच
दिनांक-२/६/२०१९
"स्वतंत्र -लेखन"
"लघुकथा"नेट "
"ओ पिंकी"क्यो उदास बैठी हो,चेहरे पर १२क्यो बजे है?और तेरे बच्चों का चेहरा क्यों लटका हुआ है?"घर में घुसते ही रिंकी ने पिंकी पर सवालों का बौछार कर दिया।
पिंकी ने अपनी प्यारी सहेली रिंकी को गले लगाते हुये बैठने को कहा,और पूरे बिस्तार से कल की घटना बताते लगी"हुआ यूं कि कल रात को मेरी बेटी कीर्ति का मोबाइल का नेट नही चल रहा था,उसने बहुत कोशिश की आखिर निराशा ही हाथ लगी,नेट को नही चलना था सो नही चला, उसे कुछ जरूरी पढ़ाई अपलोड करना था,कामयाबी नही मिलने पर उसने खाना नही खाया, फिर मेरा बेटा भी फरमान जारी किया, दीदी खाना नही खायेगी, तो मैं भी नही खाऊँगा।लाख समझाने पर भी नेट नही चलने पर मेरे दोनों बच्चों ने खाना नही खाया, फिर क्या था ,मेरी ८०बर्षिय सास ने भी खाना खाने से साफ मना कर दिया, कहा"जब बच्चे भूखे पेट सोयेंगे तो मैं खाना क्यों खाऊँ?"।और वो भी भूखे ही सो गई।
रात १०बजे जब मेरे पति आँफिस से आये तो मैं सहानुभूति पाने के उद्देश्य से उन्हें पूरी घटना से अवगत कराई,परन्तु वे काफी गुस्सा हुये और बोले जब मेरी माँ और मेरे बच्चे भूखे पेट सो गये, तो मैं भी खाना नही खाऊँगा"और जब मेरे घर मे किसी ने भी खाना को हाथ नही लगाया, तो मुझे भी लाचारी बस भूखे ही सोना पडा़,रिंकी ने सोचा कि नेट ने किस कदर पिंकी के परिवार को अपने नेट मे जकड़ लिया है।वह अपने परिवार को इसके जाल से बचाने का उपाय सोचते हुये अपने घर को चल पड़ी,साथ ही उसके परिवार में प्यार व समर्पण देख वह अभिभूत हो गई।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
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आज का विषय स्वतंत्र,
सेदोका गीत,
प्यार दीया जलाये,,
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तेरे ही संग,
जीवन रंग भरे,
प्यार दीया जलाये,
प्यार का दीया,
हम जलाये हुए,
अंधेरे को उजाले,
महकाये है,
तुम्हें देखकर ही,
खुशियां लुटाई थी,
ढाई आखर,
अनजानो मिलाय,
जन्मों के मीत बने,
मन आँगन,
आँसू बनकर के,
सावन सा बरसे,
देह तरु से,
तृषा लता विहँसे,
प्यार एक प्यास,
प्यार की छाँव,
प्यार सदा बहार,
प्यार इक संसार,
तेरे ही संग,
जीवन रंग भरे,
प्यार दीया जलाये।।
स्वरचित सेदोका गीत,
देवेन्द्रनारायण दासबसना छ,ग,।।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
#नमन::::भावों के मोती::::
#वार :::::रविवार:::::
#दिनांक::::२,६,२०१९::::
#विधा :::::स्वतंत्र:::::
#रचनाकार:दुर्गा सिलगीवाला सोनी:::
""*""*जल है तो कल है*""*""
जल बिन जल जाएगा ये जग,
जल से बुझती जग की प्यास है,
जल से बनते हैं बाग और घरौंदे,
जल से फल फसल ही आस है,
यह भी अटल सत्य है पानी ही,
विश्वयुद्ध का एक कारण होगा,
या तो कंठ सूखेंगे हम सभी के,
या फिर तपन से हमें मरना होगा,
जो पानी नहीं बचा पाएंगे हम,
तो एक दिन ऐसा भी आएगा,
फिर ताप बढ़ेगा इस धरती का,
हिमखंड पिघलने के ही कारण,
जल ही जलजला बन जाएगा,
पानी की गैर मौजूदगी की हम,
कल्पना भी कैसे कर सकते हैं,
जल है तो आगे भी कल होगा,
विश्वास से हम यह कह सकते हैं,
एक एक बूंद बचा लो पानी दुर्गा,
जो ये धरती अब तुम्हे बचाना है,
बूंद बूंद से ही तो घड़ा भरता है,
यह नुस्खा भी जाना पहचाना है,
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नमन भावों के मोती मंच
आज का शीर्षक ---स्वतंत्र लेखन
तारीख ---2 जुन 2019
वार --रविवार
दरारें घर की दिवारों को कमजोर कर देती है
सच छिप जाता है झूठ इतना शोर कर देती है
हम चाहते है जिदंगीं में हालात बदलना
मगर तकदीर हालात कुछ ओर कर देती है
आज माझी चाहता था तुफां से मुकाबला
मगर हवाएं इशारा कुछ ओर कर देती है
मै भी जीना चाहता हूं मुस्कराहट बिखेर कर
मगर दुनियां अश्कों का दौर पुरजोर कर देती है
हर आदमी चाहता है दो वक्त की रोटी दोस्तों
कभी नसीब की गद्दारी बुरे दौर कर देती है
दिल किसका लगता है अपनों से बिछुड़कर रहके
मगर जरूरत फूटपाथ को भी अपना ठौर कर देती है
हम चाहते है हालात कुछ बदले मगर
तकदीर जिदंगी के हालात कुछ ओर कर देती है
संदीप शर्मा
अलवर राज .
स्वरचित......
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सादर नमन मंच को--
स्वतंत्र लेखन के तहत---
''ग़ज़ल''
मोहब्बत में तेरी वफ़ा चाहती हूँ।
वही प्यार का सिलसिला चाहती हूँ!
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वज़ह तो बताओ सनम दूरियों की!
तेरे दिल में मैं आशियाँ चाहती हूँ!!
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सदा मुस्कुराये, सलामत रहे तूँ!
हर पल यही मैं दुआ चाहती हूँ!!
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कर दे उजाला जो सारे जहाँ में !
जलना वही एक दीया चाहता हूँ!!
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लिए ख़्वाब आँखों में गुज़रा जमाना,
नहीं होना तुझसे ख़फ़ा चाहती हूँ!
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तुझे दिल से चाहा यही एक खता थी!
गुनाहों की अपनी सजा चाहती हूँ!!
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मिटा दो सनम रंजिशे अब पुरानी!
नहीं और शिक़वा गिला चाहती हूँ!!
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दिल की गली से जो एक बार गुज़रो
मुक़म्मल वफ़ा का जहाँ चाहती हूँ!!
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तसव्वुर में तेरे जो लब मुस्कुराये!
मोहब्बत का बस इम्तेहाँ चाहती हूँ!!
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# मणि बेन द्विवेदी
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भाव के मोती : स्वतंत्र लेखन
......................................
इक प्यारा घरौंदा बनाए.....
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चलो तिनके-तिनके चुनकर इक प्यारा घरौंदा बनाए
अपने ख़्वाबों की तस्वीर से उसकी दीवारें सजाए।
हरी मख़मली ज़मी हो और नीला आँचल आसमा
नव वधु सी सजी - धजी सुहानी भोर मुसकाए ।
इंद्रधनुषी रंगों से रंगा हो ये हमारा प्यारा संसार
अरमानों की कलियों से घर का आँगन सजाए ।
आँधी -तूफ़ान कभी न गुजरे इसकी गलियों से
फूलों की भीनी ख़ुशबू से इसकी राहें सजाए।
रातें प्यार बरसाती हो दिन हँसता मुसकुराता हो
मधुर यादें जीवन की जुगनू बन जगमगाए ।
बडी इमारतों में दब जाती हैं छोटी छोटी ख़ुशियाँ
इंसान की ख़ुदगर्ज़ी ने जाने कितने सितम ढाए।
बडी मुश्किल और जद्दोजहद से बनते हैं ये घरौंदे
आँधी -तूफ़ान में देखो ये तिनके बिखरने न पाए।
खुदा इसे महफ़ूज़ रखे हर ज़ुल्म ,हर बला से
ये आशियाँ हमारा हमेशा यूँ ही महके महकाए ।
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स्वरचित(c)भार्गवी रविन्द्र ......बेंगलूर
दिनांक ९/५/२०१९
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आज की राजनीति,
कौन राजा कौन भिक्षु,
कौन गुरु कौन शिष्य,
ये कैसी नीति,
फैली अनीति।
संविधान,
व्यवधान,
अब कहां तार्किक
निदान।
घोड़े खच्चर
सब समान।
नीति को कहें अनीति,
अनीति बन रही है रीति,
जाति का उगलते ज़हर,
आरक्षण का फैला कहर,
धर्म का आतंक है,
मज़हब बना कलंक है।
भाई भाई की जान ले,
बच्चियों के तन बिकें।
लूट का साम्राज्य है,
अपराधी आज़ाद हैं।
बलात्कार रेल है,
न्याय धन का खेल है।
राजनीति मूल्यहीन,
राजनीतिज्ञ चरित्रहीन।
पक्ष हो या हो विपक्ष,
सब के सब बने तक्षक।
डँस रहे हैं देश को,
भागते विदेश को।
त्राहि-त्राहि है मची,
विनाश की आयी घड़ी।
आवो कुछ विचार करे,
खुद तो सदाचार करें।
अनीति का विरोध हो,
अब न राष्ट्र द्रोह हो।
छिपे हुये कलंकियों का
अब खुला विरोध हो।
जागो जागो आम जन,
तब बचेगा ये चमन।
कलमकार बिक रहे,
चेतना कैसे मिले।
आओ खुद को साध लें,
समाज को भी साथ लें।
राष्ट्र का उत्थान हो,
स्वर्ग ये जहान हो।।
भावुक
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
आप सभी को हार्दिक नमस्कार
मुक्त दिवस पर मेरी प्रस्तुति
गीत
कैसे फिर कोई सृजन होगा
घनी भूत पीड़ा की आँधी, टीस देती उमड़- उमड़ कर।
भावों की लहरें टूट जाती,
चट्टानों से सर टकरा कर।
जब तलक न मन से, मन का आलिंगन होगा।
कैसे फिर कोई सृजन होगा?
कैसे फिर कोई सर्जन होगा?
गर्म रेत की दीवारें हैं,
झुलस रही शब्दों की क्यारी।
जैसै कोई नवेली दुल्हन,
सिंदूर विहीन लगे कुंवारी।
स्वप्निल रंगीन चुनर से,
सजा न मन प्राँगण होगा।
कैसे फिर-----
थक जाते हैं नन्हें कदम,
मंजिल की है आस बड़ी।
नैनो के अगाध सिंधु में ,
अधरों पर है प्यास बड़ी।
जब तलक न बूँदों झरता,
शब्दों का सावन होगा।
कैसे फिर -----
जीवन का इतिहास यही है,
प्रतिपल है अबूझ पहेली।
उलझ- उलझ कर रह जाए मन,
राह दिखाए कौन सहेली।
नवीन पथ, कंटक सघन है,
कैसे तन्हा गमन होगा ?
कैसे फिर-----'
निशी- दिवस पल -पल गूंथे,
सपनों की सृजन माला।
लेकर पूजन दीप थाल,
मन मंदिर में जिसे पुकारा।
जब तलक न मन का प्रीत,
सुरभित पावन चंदन होगा?
कैसे फिर------
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
2-6-2019
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शुभ साँझ
🌷ग़ज़ल🌷
हो किसी को कुछ मुझे वो आँखें चाहिये
जिसने गिरफ्त में लिया वो सलाखें चाहिये ।।
मीठी मधुर मुस्कान बिखेरती वो निगाहें
और उनकी सुन्दर रसीली बातें चाहिये ।।
जिसे देखते मन खोता होश-हवास वो
मय के प्याले वो काजू वो दाखें चाहिये ।।
जुल्म कर गई वो उनकी हसीं अदायें
फिर से वही लम्हे औ वही राहें चाहिये ।।
साज छेड़े जिन्होने दिल के कभी वो
खूबसूरत महफिल वही पनाहें चाहिये ।।
क्या रखा दुनिया में देख ली अब तो
उनसे कुछ मुलाकात की सोगातें चाहिये ।।
ऐ-हवाओ जरा कहना उनसे इस टूटे
दिल को जीने के लिये कुछ सांसें चाहिये ।।
संभालकर रखा उनकी यादों ने ''शिवम"
अब नही संभलता दिल मुलाकातें चाहिये ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 02/06/2019
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नमन "भावो के मोती"
02/06/2019
गजल
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न सितम ना जफा से डरती हूँ
मै तो बस बद्दुआ से डरती हूँ
मौत से डर मुझे नही लगता
उन की कातिल अदा से डरती हूँ
जख्म इतने मिले हैं उल्फत में
प्यार की कल्पना से डरती हूँ
याद आती है उनकी सावन में
इसलिए तो घटा से डरती हूँ
झूठे होते हैं उनके हर वादे
बेवफा की वफा से डरती हूँ।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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नमन मंच भावों की मोती दिनांक 2 जून 2019 दिन रविवार आयोजन स्वतंत्र लेखन
दो जून की रोटी
दो जून की रोटी मिलती, हम हैं किस्मत वाले ।
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
हाथ ठेला लिए धूप में, आम-जाम चिल्लाए ।
तब जाकर घर वालों को वो, आधा पेट खिलाए ।
रोटी की खातिर बेचे, गुपचुप चने मसाले ॥1॥
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
फूल बेचने वाले बच्चे, ढूंढे दृष्टि आस की ।
आधा तन कपड़ा पहने जो, खेती करें कपास की ।
जूते बेचने वालों के, पैरों में भी है छाले ॥2॥
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
जिनके कांधे पे हल है, उनके भी आंसू झलके।
हलधर की हल-आशा जिनसे, वो हैं कितने हल्के ।
अन्नदाता करे फाँके चाहे, कितनी फसल उगाले ॥3॥
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
बहुत विवश कर देती है ये, दो जून की रोटी ।
और विवश का लाभ उठाते, नीयत जिनकी खोटी ।
तन भी कर देना पड़ता तब, औरों के हवाले ॥4॥
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
भरे पेट का शौक है कविता, बात ये कड़वी सच्ची ।
जितनी पीड़ा हो गाथा मैं, समझी जाती अच्छी ।
भूख पे कविता लिखके पहने, हैं मंचों पर माले ॥5॥
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
दो जून की रोटी मिलती, हम हैं किस्मत वाले ।
कितने लोग भूखे रहते हैं, मिलते नहीं निवाले ॥
-अंजुमन 'आरज़ू'©✍
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नमन भावों के मोती,
दिन, रविवार,
दिनांक 2,6,2019.
स्वतंत्र सृजन,
तपती धरा
बैचैन प्राणी
गायब पानी
कितनी परेशानी
क्या बजह पहचानी
हम नहीं बेचते थे पानी
इफरात था खूब पानी
प्याऊ लगवाते थे
राहगीरों को पिलाते थे पानी
सफर में रहती थी आसानी
पानी की कीमत नहीं थी चुकानी
पशु पक्षियों को नहीं थी हैरानी
पर आज हम आ गये कहाँ
ये तो नहीं अपना हिन्दोस्तां
पानी के लिए लड़ाई मुकद्दमे
भटकतीं महिलायें मरते जीव
क्या नहीं हमारी कोई जिम्मेदारी
क्यों नहीं बचाते हम पानी
वृक्षों को काटने में ही दिलचस्पी
रोपते नहीं हम पौधों को
रोका है हमने बर्षा को
बर्बाद करते हैं हम पानी
प्रदूषित करके जल को
क्या जलहीन करके धरा को
हम भेंट करेंगे बच्चों को
शायद नहीं हम ये नहीं चाहेंगे
तो फिर हम पानी बचायेंगे
जल स्त्रोतों को संरक्षित करेंगे
शुध्दता का खयाल रखेंगे
नयी खोज स्थापन करेंगे
वसुंधरा की खोई रौनक को
अपने प्रयासों से जीवित करेंगे।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
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✍🏻🍪दो जून की रोटी🍪✍🏻
दो जून की रोटी खाकर तो देखिए।
मेहनत के पसीने से नहाकर तो देखिए।।
बड़ी लज्ज़त होती है मेहनत की रोटी में।
मेहनत से दो रोटी कमाकर तो देखिए।।
सुखी रोटी भी प्याज संग लगे है स्वाद।
अपनी इच्छाओं पर काबु पाकर तो देखिए।।
जितना खाते नहीं उतना छोड़ दें थाली में।
किसी ग़रीब के लिए रोटी बचाकर तो देखिए।।
बड़ी दुआएं देगा वो दो रोटी के बदले।
किसी ग़रीब को रोटी खिलाकर तो देखिए।।
अकेले अकेले लेते हो तुम मज़ा रोटियों का।
एक बार हमें भी घर बुलाकर तो देखिए।।
"ऐश"भी खिला देगा जो दिया है ईश्वर ने।
एक बार इस ग़रीब के घर आकर तो देखिए।।
©ऐश...2जून2019✍🏻
🍁अश्वनी कुमार चावला,अनूपगढ़,श्री गंगानगर🍁
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
नमन भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
🌹🌹🌹🌹
तुझे क्या सुनाये रूदादे -मंजु ऐ दोस्त
मेरे आसमाँ पे भी एक चांद था
वो छुप गया बादलों में
क्या ये बस इत्तेफाक था ।
उस वक्त भीगे हम आंसुओं में
जब मौसम बिल्कुल साफ था
गमों के बादल फिर छट गये
क्या ये बस इत्तेफाक था ।
मेरी वफायें बेअसर न हुई
तुम्हारी जुदाई में दिल नाशाद था
तुम चले आए खुद ब खुद
क्या ये बस इत्तेफाक था ।
तुम्हारे चले जाने के बाद
दिल का हर कोना बर्बाद था
तुमने फिर उसे आबाद किया
क्या ये बस इत्तेफाक था ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
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II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती....
विधा :: ग़ज़ल - देख कर तुझको मैं तुझ सा ही हुआ जाता हूँ
कुछ कहूँ खुद से न कुछ तुमको सुनाये न बने...
सांस मेरी को तेरी याद भुलाये न बने...
एक उम्मीद घटा से थी बरस जाए इधर...
वो गिरी और कहीं दिल को मनाये न बने...
शाम के बाद सहर हो गयी दिल सूना है...
चाँद सूरज में तेरा साथ बनाये न बने...
देख कर तुझको मैं तुझ सा ही हुआ जाता हूँ...
या खुदा खुद को कहीं और छुपाये न बने...
एक दीवार उठी हम से गिरायी न गयी...
अब ये आलम है कि खुद को ही उठाये न बने...
ज़िन्दगी कर गई वादा जो मुझे मिलने का...
मौत आने पे भी फिर जान को जाये न बने...
इश्क़ ईनाम कफ़न उनसे मिला था 'चन्दर'...
अश्क अंगार मेरे मुझ से गिराये न बने...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०२.०६.२०१९
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नमन मंच
02/06/19
स्वतंत्र लेखन
**
घनाक्षरी छन्द
***
एक नया परिवेश ,बदल रहा है देश,
कोई कष्ट न हो शेष ,ऐसा राष्ट्र चाहिये।
समस्यायें हैं जटिल ,चालें न हो कुटिल
तन मन है चोटिल, समाधान चाहिये ।
क्यों भूले अपने कर्म ,निभायें अपना धर्म
खोखली व्यवस्था से,देश को बचाइये ।
सबकी आन बान शान ,मेरा भारत महान
इसे सोने की चिड़िया ,फिर से बनाइये ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
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