Monday, June 24

"दर्पण /आईना"20 जून2019

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ब्लॉग संख्या :-423


दर्पण अब हमको चिढाने लगा
हकीकत सबको बताने लगा
चेहरे पे हवाईयां उडाने लगा
उडने को पंख फेलाने लगा
दर्पण अब हमको चिढाने लगा
काला पन सबको दिखाने लगा
झूठ फरेबी सबको बताने लगा
आईना ही है जो सच बताने लगा
दर्पण अब हमको चिढाने लगा
स्वरचित एस डी शर्मा
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🚩भावों के मोती🚩
शीर्षक 🌳दर्पण/आईना🌳
२०/६/१९@०६'५६
दर्पण नित नित देखो ।
दृग गढाओ कर्म पर।।।
भाल निहारे जग सारा।
तुम/हम निहारे कार्य को।
ऐसा न कोई कर्म बने।
कलंक टीका भाल पड़े।
नित दर्पण निहारो।।
नित नित कर्म निहारो।
असुन्दर भी श्रेष्ठ कर्म।
सुन्दर है शोभितम् है।
सुन्दर है घृणित कर्म।
वह असुन्दर अशोभितम्।
दर्पण का यही मोल्य है।
यही भाव जो परख करै।
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
स्वरचित
राजेन्द्र कुमार अमरा
२९/६/२०१९

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नमन मंच,भावोंके मोती
विषय   दर्पण,आईना
विधा     लघुकविता
20 जून 2019,गुरुवार

मन दर्पण में धूल जमी है
मैं दर्पण तुझसे कुछ कहता।
मायावी अंधकार जगत से
तू क्यों नहीं बाहर निकलता?

मुझमें मत तुम मुँह देखो रे
मैं टूट फूटकर अति रोऊंगा।
देख रहा हूँ पाप गठरिया
कैसे स्वयम को मैं रोकूंगा?

दर्पण मिथ्या कभी न बोले
हर झूँठ उजागर करता है।
सुधरो अब तो अरे मानवी
सत्य पथ ,क्यों न चलता है?

बाह्य आवरण दर्पण देखे
स्वविवेक देखे अंतर को।
चार दिन की यह जिंदगानी
अब भूल जंतर मंतर को।

स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
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नमन मंच
विषय-आईना
विधा-व्यंगात्मक शैली

बन-ठन के 
इतराता है तू
आईने के सामने
क्या रज़ा पूछी है कभी
आइने से
तेरी औकात भी क्या है?
उसकी नजर में।

पूछा आईने से जब मैंने
तो आईना बोला-
जवाब मैं क्या बोलूँ
दिल चूर-चूर हो जाएगा तेरा
डरता हूँ मैं तुझसे
तभी तो रोज झूठ बोलकर
खुद को चूर-चूर होने से
बचा लेता हूँ मैं।

राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव-रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा


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विषय - ''दर्पण/आईना"
विधा--🌷ग़ज़ल🌷

कल आईना देखा तो वो हँस रहा था
मैं अपनी हकीकत से दूर बच रहा था ।।

मैंने आईना रख दिया हो गया खामोश
पर लगा जैसे कि वह मुझे डस रहा था ।।

क्यों कि देर तुमने महबूबा से मिलने में
लगा कि जैसे मुझसे यह कह रहा था ।।

पर अब क्या अब तो गया वह जमाना
दिल के आँगन में ये सवाल नच रहा था ।।

किसी काम में देरी मत करो कभी भी
मैं मनमें अन्दर ही अन्दर उलझ रहा था ।।

मगर यह प्रेम तो सच्चा है रूह का है 
मैं काया में न बिका न बिक रहा था ।।

पर जब वह यह समझे ''शिवम" तब न
बड़ी बिडंवना में ये दिल फँस रहा था ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 20/06/2016

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दि- 20-6-19
विषय- दर्पण/ आइना 
सादर मंच को समर्पित -

             ☀️     गीतिका      ☀️
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         🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

मिलते हैं  यहाँ  सब  से , दर्पन की  तरह  हम ।
हो जायें कभी ओझल , धड़कन की तरह हम ।।

हमको  हैं  सदा  प्यारी , खिलती  हुई  कलियाँ ,
बस  जायें किसी  मन में , गुलशन की तरह हम ।

दीवाना    बना   देतीं ,  मद   मस्त   ये   वादी ,
खो  जायें  हँसी  आँचल , बचपन की तरह हम ।

फूलों  की  महक  हमको , महकाती   रही  हैं,
उलझे  रहे  भँवरों  की ,  गुंजन  की तरह हम ।

जो प्यार से मिलते हैं , दिल अपना  डुबो  कर ,
टँक  जाते  हँसी  चूनर , तुरपन की  तरह हम ।

दुनिया   के   झमेले  में , अवसाद  भी   पाये ,
कुछ  दंश  भी  झेले  हैं , उतरन  की तरह हम ।

आसान नहीं था कभी , मिल जाय भी मंजिल ,
गिर कर भी रहे उठते , फिसलन की तरह हम ।

बीते   हुये   लम्हों   के ,  यादों    के   आइना ,
डूबे  हैं  भरी उल्फत ,  तड़पन  की तरह हम ।

खुशी  और  गम  सँजोये , सरी  राह  जिन्दगी ,
यों  साथ  निभाते  रहे , बर्तन  की  तरह  हम ।

                 🌹🌴☀️🌻🌺

🏵🌻🍊**.....रवीन्द्र वर्मा आगरा 
                  मो0- 8532852618.
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नमन मंच 🙏💐
सुप्रभात मित्रों व गुरूजनों 🙏😊
दिनांक- 20/6/2019
शीर्षक- "दर्पण/आईना"
विधा- कविता 
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चुपके से जो मैंने देखा आईना, 
कुछ गुनाह अपने छिपाने को,
सच्चाई बयां कर रहा आईना, 
खड़ा मेरा मजाक उड़ाने को |

चेहरे पर बनावट कर रही मैं, 
हाव-भाव अपने छिपाने को, 
रेत को तपा कर बना आईना, 
नहीं तैयार मानने, मनाने को |

चेहरा मेरा हो या किसी ओर का, 
आईना तो है अक्स दिखाने को, 
सामने जब आ जाता है आईना, 
फिर न होता कुछ भी छिपाने को |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*
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नमन भावों के मोती
शीर्षक-दर्पण/आईना

🌹दर्पण🌹

मिल गई मुझको प्यारी सहेली 
सुलझाती हूँ देखो मैं ये पहेली

पहुँची जब दर्पण के नजदीक
मिली वहाँ  मुझे सखि रुहेली

पुछ रही थी मुझसे  मेरा हाल
थे जहन में कितने ही सवाल

कह रही देख मुँह कि झुर्रियां
देख सर अपने ये सफेद बाल

आँखो के नीचे है काले धब्‍बे
डगमगाती लड़खड़ाती चाल

शरीर तो जैसे लगता तरबूच
पापड़ जैसे पिचके तेरे गाल

भुल गई तू कंचन सी काया
टमाटर से  गाल लाल लाल

कमल जैसे थे  नयन तुम्हारे
हिरनी जैसी थी चंचल चाल

गुलाब पंखुड़ी से लब तुम्हारे
घनघोर घटा जैसे काले बाल

सखि कि बातें लजा रही थी
शर्म से हुई   में लालम लाल

होंठो से बस  इतना निकला
क्‍या करती तुम भी कमाल

आओ सखी गले लग जाओ
अब मैं करूंगी बहुत धमाल 

तुमने मुझे मुझसे  मिलाया
अब ना डरूँ मैं  कोई हाल

स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
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दर्पण

उसके पायल की छन् छन्,
सुमधूर कर देती घर आंगन ।
तुतलाते उसके बोल,
कानों में देते संगीत घोल ।
माँ,बाप की थी वह परी ।
सुंदर सी राजकुमारी ।
लगाती माथे पर,
काज़ल का टिका ।
ना लगे नज़र किसी की बुरी ।
सजी गुडिया सी,
रुकती एक क्षण ।
देखती फिर दर्पण ।
चलती थी अपने रास्ते ।
एकदिन किसी की,
पङी नज़र बुरी ।
टुटी हुई चूडिया,
बिखरी थी सारी ।
चिख चिख कर,
कह रही थी,
मजबुरीयां सारी ।
चहल पहल,
हो गयी,अब उसके लिए गौन,
फिर ना देखा उसने,
कभी भी दर्पण ।

@प्रदीप सहारे
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नमन भावों के मोती
दिनांक-20/6/2019
विषय-दर्पण/आईना
मुक्तछंद
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स्वयं से 
स्वयं का संघर्षण
किंचित सत्य ही तो 
बिंबित करता है 
                  बाह्य दर्पण..!

किसी भी कंदरा में 
छिप जाऊं
गुंजायमान हो उठता है 
                 मन दर्पण..!

सकल जगत की 
सभ्यताओं का दर्शन कहता है
तेरे न होने से कुछ न बदलेगा
न ही बदलेगा 
               किसी का आचरण..!

आत्मबोध,आत्मदर्शन
का माध्यम है मन दर्पण
पर प्रकाश पुंज के बिना
क्या है 
            तेरा आकर्षण..?

ये बाह्य रूप ही तो 
दर्शाता है
भ्रमित करता है
व्यथित करता है
तहों के भीतर का चेहरा
नहीं दिखाता है 
                    ये दर्पण...!

आत्मावलोकन अब कौन करे
अब तो सब करते हैं
एक दूसरे पर दोषारोपण
स्वयं से स्वयं का संघर्षण
सत्य बिंबित करता है 
                   मन दर्पण...!

न किंचित घबरा
सब कर उसको अर्पण
तब पूर्ण सत्य कहेगा 
            मन का  दर्पण..!

ये जीवन भी है एक दर्पण
जो बस प्रतिबिंबित करता है
         कर्मो का दर्पण ..!!

    @वंदना सोलंकी©️स्वरचित
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1*भा.20/6/2019/गुरुवार
बिषयःः#दर्पण/आईना#
विधाःःकाव्यःः

 नित अंतरतम में झांकूं माते,
   कुछ मात शारदे ऐसा कर दे।
     मन दर्पण का मैल हटे कुछ,
       हमको वीणापाणि ऐसा वर दे।

माँ धुले कलुषिता अंतर्मन की,
   यह मन पावन हो ऐसा कर दे।
      जलें ज्ञानदीप हर मनमानस में,
          माँ तेल अलौकिक ऐसा भर दे।

हम हर जीवन में कटुता छोडें।
  न कभी सत्य प्रेम से नाता तोडें।
     नहीं धुंधला हो ये मन का आइना,
         हम सभी स्नेह की सरिता जोडें।

स्नेहासिक्त रहें सभी संसारीजन,
  क्यों न मनदर्पण प्रकृति का देखें।
    भूकंप ,बाढ से विपदाऐं परोसती,
       क्या कारण है हम कुछ तो लेखें।

स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र. 
जय जय श्री राम राम जी

1भा.20/6/2019/बुधवार
#दर्पण/आइना#काव्यः ः

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नमन भावों के मोती
आज का विषय, दर्पण, आइना
दिन, गुरुवार
दिनांक, 20,6,2019,

रहता सामने रोज ही दर्पण है , 
नहीं समझती उसकी बातों को।

सम्बोधित वह करता  ही रहता है,
हरदम  मेरे  मन  के  दर्पण को ।

मैला  कुचैला तू क्यों रहता है,
क्यों साफ नहीं करता खुद को।

खोया सदा अंधकार में रहता है ,
बाँटेगा प्रकाश कैसे जग को ।

कितने लोभ घृणा के दाग लगे हैं,
कैसे पहचानेगा प्रेम प्यार को ।

क्यों मोह वासना से ढ़का हुआ है,
जग में  कैसे  ढूँढेगा तू  हरि को।

मीत मेरे मुझे तुझसे कहना है ,
पहचान जरा अपने अहंकार को।

होती छोटी सी ये जिंदगानी है,
क्यों व्यर्थ गँवा रहा है इसको ।

मकसद जीवन का हल करना है,
फर्ज निभाना है मानव होने का।

हमें पुण्य कर्म कुछ कर लेना है,
फिर जाना है प्रभु से मिलने को ।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
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नमन मंच भावों के मोती
20/6 /2019/
बिषय,, दर्पण/आइना ः
नादान थे हम समझ सके न 
दर्पण ने सब दिखा दिया
.गरुर था जो हमको अभी तक
चेहरे से पर्दा हटा दिया
 ए हसीं मंजर सूरत ए शोहरत
सारे जहां की बस हमनें पाई
कद है हमारा कितना ऊँचा
आइना ने समझा दिया
नींद से जागे टूटा है सपना
रुख से नकाब गिरा दिया
दौलत जवानी  ए ठाट तेरे
 सदा किसी के नहीं है होते
 कर्म चलेगा साथ तुम्हारे
जो कुछ भी तूने भला किया
छिप न सका है दर्पण से कुछ भी
साक्षात्कार सच का कराए
 मैंने भी कर दिया आत्मसमर्पण
सिर को अपने झुका दिया
स्वरचित,, (सुषमा ब्यौहार)


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नमन -भावों के मोती
दिनांक-२०/०६/२०१९
विषय- दर्पण

तमाम उम्र मैं गुनाह करता रहा

धूल तो मेरे चेहरे पर थी

मैं आईने को साफ करता रहा।

खुदा का बंदा हूं मैं.....

तमाम उम्र नेक काम करता रहा

उम्र बीत गई ,  मैं खुदा से डरता रहा

मैं आईने को साफ करता रहा....
स्वरचित 
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज

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भावों के मोती
दिनांक:20-6-2019
विषय:दर्पण ।
मोहे दर्पण देखन की अब तनिक भी चाह नहीं,
तेरी अंखियां ही अब म्हारो दर्पण है हे मेरे श्याम!
मेरे उर की हर धड़कन में,बस बसती है तेरी ही छाया,
मेरी सांस-सांस में बस तू ही समाया हे! प्यारे घनश्याम।
बिन तोरे ये सारा जग लागे, अब मोहे अति सूना-सूना,
जो तू न दिखे पल भर को तो मैं हो जाती हूँ निष्प्राण।
असीम प्रीत की ये जाने कैसी लगन लग गयी है मुझको ,
तुम बिन कान्हा! मेरी काया हो जाती है पूर्णतः निष्काम।                               
करती हूँ हे प्रभु! अपना ये जीवन पूर्ण-समर्पित तुझको,
अपने चरणों की रज-धूलि मोहे बना लो हे ! मेरे श्याम।
बस मोरो मन रम जाए तुझमें और रहे न कुछ भी ध्यान,
ये भवसागर तू पार करा दे! हे मेरे किशन- कृपानिधान।।
(स्वरचित)      ***"दीप"***

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नमन  मंच  भावों के मोती 
तिथि          20/06/19
विषय         दर्पण
***
दर्पण  को आईना दिखाने का प्रयास किया है 

    दर्पण
*********
दर्पण, तू लोगों को 
आईना दिखाता है
बड़ा अभिमान है  तुम्हें 
अपने  पर ,कि
तू  सच दिखाता है।
आज तुम्हे  दर्पण,
दर्पण दिखाते हैं!
क्या अस्तित्व तुम्हारा टूट
बिखर नहीं जाएगा 
जब तू उजाले का संग
 नहीं पाएगा 
माना तू माध्यम आत्मदर्शन का
पर आत्मबोध तू कैसे करा पाएगा 
बिंब जो दिखाता है
वह आभासी और पीछे बनाता है 
दायें  को बायें
करना तेरी फितरत है 
और फिर तू इतराता  है
 कि तू सच बताता है ।
माना तुम हमारे बड़े काम के ,
समतल हो या वक्र लिए 
पर प्रकाश पुंज के बिना 
तेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
दर्पण को दर्पण दिखलाना 
मन्तव्य  नहीं, 
लक्ष्य है
आत्मशक्ति के प्रकाशपुंज
से  गंतव्य तक जाना ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

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नमन भवों के मोती💐
कार्य:-शब्दलेखन
बिषय:- दर्पण
विधा:-मुक्त काव्य

हर मिलने वाला कहता
आप दुबले हो गये
पहिले से कुछ अधिक
गाल पिचक गये
चेहरा भी झुलस गया
      मैं चुपचाप सुनता रहा।

कहने बालों से त्रस्त
घर आकर आईने में
सांय-सुबह-दोपहर
पहिले से कुछ अधिक
अपना ही मुखड़ा
      दिनरात निहारता रहा।

वही लोग फिर कहने लगे
आप मोटे हो गये
पहिले से कुछ अधिक
अच्छे लगने लगे
चेहरा अब खिल उठा
       मैं चुपचाप हँसता रहा।

अपनों का तांता बढ़ने लगा
मेरी सूरत के इर्द-गिर्द
सांय-सुबह-दोपहर
पहिले से और अधिक
चेहरे नये बदलते रहे
       दिन-रात की तरह ।

घर आकर एकान्त में
मेरा मन हँस देता
सीना फूल उठता
मिलने वाले क्या जानें
      मैंने दर्पण देखना छोड़ दिया।

(मेरे कविता संग्रह से )

डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी
गुना(म.प्र.)
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आप सभी को हार्दिक नमस्कार 
आज के विषय पर प्रस्तुति 

।।।।।दर्पण ।।।।
चिर चिरतम से
स्वच्छ निर्मल 
तराजू की तुला बन
झूठ का आवरण खोलता
और जो,
सच का मुखड़ा तौलता 
वह आज भँवर में फँसकर 
नाकाम हो रहा।
देखिए!
दर्पण बदनाम हो रहा!!

जमाने की चलन,
गर्दिश में आचरण।
धूल- धूसरित चमन
कहाँ जाए अब,
क्या दिखाए दर्पण ?
कैसे रखे, सत्य का चेहरा? 
हर चेहरे पर, परत दर परत ,
घना आवरण।
पसीने छूट रहे अब 
सच झूठ बताने में।
कोने में पड़ा बस समान हो रहा।
देखिए दर्पण बदनाम हो रहा।

लगा है दर्पण अपना, अस्तित्व बचाने में 
इस आदमखोर- 
भ्रष्टाचार के जमाने में,
छुपा रहा अब ,
स्वंय का मुखड़ा ।
दर्पण शर्मिंदा है कि,
आज आदमी कैसै जिन्दा है!!
टूट रहा दर्पण, 
बिखर रहा कण -कण।

कही ना कहीं भीतर ईमान रो रहा ।
देखिए दर्पण बदनाम हो रहा।

अब भी वक्त है बचा लो इसे,
करो निर्मल आचरण।
हर चेहरा खूबसूरत हो,
मिटा लो धूल गंदगी ,
ताकि जीवित  रह सके,
स्वच्छ नजरिया। 
चमक उठे दर्पण,
लौट आए जो, 

स्वाभिमान खो रहा 
देखिए दर्पण बदनाम हो रहा।

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
20-6-2019
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भावों के मोती
20 06 19
विषय - आईना

अंधो के शहर आईना बेचने आया हूं 

फिर से आज एक कमाल करने आया हूं 
अंधो के शहर में आईना बेचने आया हूं।

संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे में
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।

जिन्हें ख्याल तक नही आदमियत का
उनकी अकबरी का पर्दा उठाने आया हूं।

वो कलमा पढते रहे अत्फ़ ओ भल मानसी का
उन के दिल की कालिख का हिसाब लेने आया हूं।

करते रहे उपचार  किस्मत ए दयार का 
उन अलीमगरों का लिलार बांच ने आया हूं।

स्वरचित 

                        कुसुम कोठारी।

अकबरी=महानता  अत्फ़=दया
किस्मत ए दयार= लोगो का भाग्य
अलीमगरों = बुद्धिमान
लिलार =ललाट(भाग्य)
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नमन मंच
दिनांक-२०/६/२०१९
"शीषर्क-दर्पण"
टूटे हुये दर्पण से मैंने 
किये कई सवाल,
अब नही तू किसी काम का मेरा
दू तुझे कचरें मे डाल
सुनकर मेरी ऐसी बात
दर्पण ने दर्प से कही ये बात
मैं हर बार टूट कर भी दिखाऊँ
सच्ची तस्वीर 
फिर भी तुझे समझ मे
नही आये बात,
तो जाओ,
एक बार नया दर्पण 
फिर ले आओ,
लेकिन चाहे तू दर्पण बदलों
हर बार,
नही बनेगी कोई बात
दर्पण बदलने से कुछ नही होगा
स्वयं को बदल कर देखो आज,
समझ गया अब मै सच्ची बात
दर्पण नही है कसूरवार
देख ले अन्तर्मन मे एक बार
यदि स्वच्छ होगा अन्तर्मन 
सुन्दर छवि आयेगी आप।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
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नमन           भावों के मोती
विषय           दर्पण
विधा             कविता
दिनांक           20,6,2019
दिन               ब्रहस्पतिवार

दर्पण
🍁🍁🍁🍁

एक दिन निज को सजा दर्पण के पास मैं गया
और हँसी अभिमान भरी भी मेरे साथ ले गया
देख मेरे रुप को तब दर्पण ने मुझसे कहा
दिख रहे हो ऐसे मानों लाश पुरानी कफ़न नया
मेंने जब यह सुना तो शर्म से मैं गड़ गया
मुझको पराजित देख वह एक और बात मढ़ गया
देखता नहीं क्यों है तू स्वयम् को निज आत्मा में
ज़रुरत नहीं मेरी पहले विलीन हो परमात्मा में।
@@@@@@@@@@@@

आज का विषय ;;--दर्पण ।
20/6/2०19।
दर्पण स्पष्ट करता चेहरे मन के भाव ।
लाख छुपाओ मन रूपी दर्पण से छुपते नही ।
इस दर्पण पर धूल न जमने दो ।
मेला दर्पण भी सब बोलताजो छुपा मेल अंदर।
मन रूपी दर्पण उज्जवल होता दुर्गुणो की छाप न रहने दो ।
संसार से छुपा सकते हो पाप इससे छुपते नही ।
साथ इसके सदैव आत्मा साक्ष्य वही भरता ।
स्वरचित ,,दमयन्ती मिश्रा ।
गरोठ मध्यप्रदेश ।
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II  दर्पण / आईना II  नमन भावों के मोती....

मानस ह्रदय सागर....
हलचल असीम होती... 
विकल स्पंदन यादें...
तट इसके टकराती...
उच्छल कोई वेदना...  
आँखों से आ निकलती...

निश्वास प्राणों में कभी...  
ज्वाला बन धधकती... 
काया हिमशिखा सी... 
अणु अणु बन पिघलती... 
व्यग्रता चिंता कटुता...
विष की नदियाँ बहती.... 

कीचड बाहर भीतर...
भीषण आग व्यथा की...
अजगर सी मुँह फैलाये…
होठों पे आ भभकती...
अपना पराया निगलती… 
नीयत कहाँ बदलती...

मंथन हो चिंतन का...
आईना चमक जाता...
विष भी अमृत बनता...
निस्वार्थ प्रेम रस बहता...
गुलशन महक उठता...
हर मन चन्दन बनता...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
२०.०६.२०१९
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नमन "भावो के मोती"
20/06/2019
      "दर्पण"
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मेरी नजरों में जब से तुम समाए हो।
आईना जब भी देखती खुद को भुला जाती हूँ।।

हर जगह तुम ही तुम नजर आते हो।
आईने में भी क्यों तुम चले आते हो।।

अब तो आईना भी सूरत मेरी भुला बैठा।
उसे भी तेरी सूरत से नशा हो आया।।

नजरों से ओझल न होते क्यूँ तुम।
दिल को ये कैसा रोग मैं लगा बैठी।।

रोज-रोज आईना मैं बदल कर देखती रही।
इसमें अदाएँ तेरी मैं गिना करती।।

आईना भी समझता है हाले दिल मेरा।
मूरत को तेरी मेरे दिल का खुदा मान बैठा।।

इस बात को मैं जमाने से छुपा जाती।
आईने को बस  टुटने से बचा जाती।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।
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नमन भावों के मोती मंच 🙏
सभी प्रबुद्ध जनों को सादर वंदन 🙏

दिनांक - 20/06/2019
वार - गुरुवार
विषय - दर्पण

          दर्पण

रोज निहारूं तुझ को अब,
      खुद को बना लूँ दर्पण मैं! 
चंदन - वंदन कर न्योछावर,
      तन - मन कर दूँ अर्पण मैं!

राग अगर मैं बन जाऊँ,
         वंशी में मुझे छुपा लेना।
गूँज उठे मृदु रागिनी,
     अधरों से मुझे लगा लेना।

बिखर जाऊँ जब रेणु बन,
       बरसा देना दो बूँद नेह।
तब - तब सावन बन आना ,
      जब जलूँ बन धरती देह।

प्रीत - रीत मैं न जानूँ,
       बनकर बाती मैं सदा जली।
बनी पर्याय विरह की,
     जब अश्रु बूँद में सहज ढली।

विरह व्याकुल अन्तर में,
       युगों से प्रीत का दीप जले।
तुझे पाटती दृगों के चुंबन से,
         ऐसी तो कोई साँझ ढले।
आईना 

 आईने से आज आप मुलाकात कीजिए
दिल ही दिल में दिल से जरा बात कीजिए

सूरत पे अपनी एक नज़र डालिए हुजूर
जरा ढूढिए तलाशिए चेहरे का खोया नूर
खुशियों से भरी जिंदगी की रात कीजिए
दिल ही दिल में दिल से जरा बात कीजिए

नुक्स निशां सब आपके दिखाएगा आईना
सच्चाई को कभी न तुमसे छुपायेगा आईना
फिक्रो अमल रुहानी बस दिन रात कीजिए
दिल ही दिल में दिल से जरा बात कीजिए

मुश्किलों में हो कोई तो खुद साथ दीजिए
मांगे कोई तो बढ़ा के अपना हाथ दीजिए
यूँ जुल्मों सितम की शह की मात कीजिए
दिल ही दिल में दिल से जरा बात कीजिए

विपिन सोहल
        स्व रचित
      डॉ उषा किरण
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नमन मंच
20-6-2019वीरवार
विधा छंदमुक्त
विषय  दर्पण

कौन गली में खोया बचपन
जीवन की सच्चाई दिखलाता दर्पण

गली गली सड़कों पर घूम रहे
अपराधों की दुनिया दिखलाता दर्पण

टूटे एकल परिवारों में रह
आभासी दुनिया दिखलाता दर्पण

कच्ची कचनारी कलियों को उपवन में
अभिशप्त किया उनकी दुनिया दिखलाता दर्पण

उन्नत समाज, सुविधाओं के सपने बांटे
उनको चमकी की दुनिया दिखलाता दर्पण

ऊँचे ऊँचे सपने ले कर जाता मुन्ना
मिड डे  मील कहर दिखलाता दर्पण

अब भी चेते, अब भी जागे
यही भविष्य की है थाती दिखलाता दर्पण

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
20-6-2019

.

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20/6/19
भावों के मोती
विषय-दर्पण
________________________
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
हाल दिलों के न समझ सका
वार लगे कुछ दिल पर ऐसे
चोट से उनकी न सँभल सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
किर्चें होकर बिखरा फिर भी
अक्स तेरा ही उभरता रहा
भूले से भी न भूलेंगे 
झूठे तेरे कसमें वादे 
बेवफ़ाई के किस्से कहते रहेंगे
कब तक सँभालें दिल को अपने
टूट गए जो देखे सपने
होता ग़र जो मन दर्पण-सा
पढ़ लेता यह झूठी वफ़ाएँ
हुआ दीवाना इस सूरत का
हाल दिलों का जान न सका
मोहपाश में बँधा कुछ ऐसे
अच्छा-बुरा न सोच सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
टुकड़े होकर बिखर‌ गया
मत छलना किसी को ऐसे
दर्पण जैसा मन रखना
सह न सके कोई घाव यह दिल के
रिसते रहेंगे जख्म यह दिल के
भोले चेहरे में छुपा हुआ यह
पत्थर दिल पहचान न सका
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा
ठेस लगी तो टूट गया
दिल मेरा नाज़ुक दर्पण-सा..
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित✍
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II दर्पण / आईना -२ II 

नहीं दर्पण झूठ कहे....
तेरे मन के सत्य कहे.....

काया भठ्ठी भीतर अग्नि....
लब-आँखें धू-धू जलें....
द्रुत पीड़ा सन्मुख अहे...
नहीं दर्पण झूठ कहे.....

मन कर्म वचन...
सत्य-धर आईना....
एक-ही हों तो भले....
नहीं झूठ की मार सहे...

सत रज तम नदियाँ...  
बहती शिराएं...
पल-पल मन मोह रिझायें...
सत्य आत्म-दर्पण लहै....

अध्भुत काया, सृष्टि रचाया... 
भीतर बाहर जो समाया... 
दृश्य-अदृश्य दिखे अस्तु...
जब दर्पण-कर्म कहे.....

नहीं दर्पण झूठ कहे....
तेरे मन के सत्य कहे.....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
२०.०६.२०१९
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नमन मंच को 
विषय दर्पण 
20/6/2019
मुक्त 
दर्पण हूँ मै 
सत्य बताता 
नहीं घबराता 
कोई नकारे 
या स्वीकारे, 
नही सरोकार 
करो प्रतिकार 
परन्तु... सत्य वादित
परमो धर्मः 
मयंक नहीं... 
असत्य वक्ता 
सौंदर्य दिखाता 
रात्रि मे...
स्त्री को.. बहकाता 
दाग न दिखाता... 
कुछ समय के लिए, 
प्रसन्न दिखती.... 
भोर होते ही... 
मेरे पास आती, 
फिर रुदन करती... 
क्यूंकि मै असत्य कथन 
ना कहता... 
स्वीकार करो प्रकृति का नियम, 
बदलता रहता, बदलता रहता 
क्यूंकि  दर्पण हूँ मै.... 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित

@@@@@@@@@@@@
#नमन मंच::भावों के मोती::::
#वार :::गुरुवार:;:
#दिनांक:::२०,६,२०१९::::
#विषय::::दर्पण,आइना:::
#रचनाकार:::दुर्गा सिलगीवाला सोनी:::

       *""*"" दर्पण""*""*

  दर्पण क्या समझेगा मुझको,
  वो सच क्या मेरा बतलाएगा,
 मैं सीधे हाथों का कार्य कुशल,
 वो मुझे वाम हस्त दिखलायेगा,

   अंतर्मन में मेरे क्या चलता है,
 वो मेरे बाह्य स्वरूप को दर्शाएगा,
 मेरी खोखली हंसी में हंसना होगा,
 पीड़ित मन भी क्या झांक पाएगा,

   दर्पण ने ही दर्प को जन्म दिया,
अभिमान भी बढ़ाया कुछ लोगों का,
कुंठित भी किया हीनभावना भरकर,
 अवसाद ग्रस्त बनाया मनोरोगों को,

   हम हंसते हैं वो भी हंस पड़ता है, 
     हम रोते हैं वो भी रो पड़ता है,
    संवेदना है हममें जन्म काल से,
   उसके निर्माण से उसमे जड़ता है,


तिथि - 20/6/19
विधा - व
विषय - दर्पण

                   दर्पण दिखाता है शरीर सौष्ठव , खूबसूरती या बदसूरती, चेहरे पर झलकते नव रस या हृदय के भाव। इसीलिए हृदय या मन को भी दर्पण कहा जाता है। अच्छे-  बुरे, सुख- दुख,घृणा ,डर ,आश्चर्य , प्रेम,आनन्द सभी कुछ तो किसी व्यक्ति के चेहरे पर लिखा होता है, जिसे हम पढ़ सकते है। अतः चेहरा भी आईना है।
         साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। समाज में जो कुछ घटित होता है, साहित्य में उसके दर्शन हो जाते है । समाज का यथार्थ ही साहित्य है ।
           दर्पण बहुत नाजुक होता है जो जरा सी ठेस लगने से चटख जाता है, कभी कभी चूर-  चूर हो जाता है।
        प्रिय जब तोड़ता है हृदय दर्पण तो दर्पण का हर टुकड़ा चीत्कार करता है पर फिर भी प्रिय के लिए समर्पित रहता है। हर टुकड़े में प्रिय ही प्रतिबिम्बित होता है।जब टुकड़े प्रिय के पथ पर बिखरते है  तब ठोकर खा कर भी मुस्कुराता है।प्रिय के जलाए दीपक में रोशनी बन बिखरता है।
     प्रिय जब तोड़े ....हृदय मेरा
     दर्पण सा ..टूट बिखर जाऊँ
     हर बिखरे ......टूटे टुकड़े में
     प्रिय को.. मैं ही नजर आऊं
     ठोकर चाहे..... मारे कितनी
     उसके पैरों में.... बिछ जाऊँ
     चाहे औरों से...... प्यार करे
     मैं उनमें .उसको दिख जाऊँ
     बस यही ....तमन्ना है उसके
     मन्दिर का दीपक बन जाऊं

सरिता गर्ग




नमन मंच
दिनांक .. 19/06/2019
विषय ... दर्पण 
***********************

आँखे ही दर्पण इस दिल का, 
जिसमे बिम्ब तुम्हारा।
आकर देखोगे नयनों मे तुम,
इसमे रूप तुम्हारा॥
.....
शेर लबों से ना कहता पर,
मन से रहा तुम्हारा।
मन मंदिर मे तुम ही तुम हो,
दूजा नही हमारा॥
......
सोच सको तो कभी सोचना,
क्या है प्रीत हमारा।
छलक रहे भावों के मोती,
क्या हम मिले दोबारा॥
.......
इक निष्ठुर से प्यार किया जो,
जो बन ना सका हमारा।
मन का दर्पण टूट गया अब,
जुडना नही दोबारा॥
........

स्वरचित ... शेरसिंह सर्राफ


सादर नमन
      दर्पण/ आईना
तेरे नैनों के दर्पण में,
अक्स अपना देखती हूँ,
ना चाहिए मुझे महल दो महले,
हृदय में तेरे मैं रहती हूँ,
प्रेम तेरा पाकर निर्मल,
पिया तेरे द्वार खड़ी,
पाकर साथ तेरा,
लगी खुशियों की झड़ी,
साफ आईने सा हृदय तेरा
छल कपट से कोसों दूर,
लगी चोट जो इसपर,
हो जाएगा ये चकनाचूर ,
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
20/6/19
वीरवार


वर्ष में
एक दिन
नारी दिवस मना कर
मेरा सम्मान बढ़ा रहे हो,
बर्ष के
शेष दिनों मेरा शोषण,
मेरा हनन,
मेरा दहन,
कर अपना पुरुषत्व
दर्शा रहे हो,
क्या यही है पुरुषत्व
की परिभाषा,
एक अकेली नारी
और छः, छः,
बलात्कारी,
वाह !
तुम जब चाहो
मुझे जला दो,
घर निकाला कर दो,
खुद बाहर
अय्याशियां करो,
घर आते ही
मेरी पवित्रता पर
छींटे कसो,
साल में एक दिन
मेरे सम्मान के
ढोल पीटो,
अरे ये छोड़ो,
मुझे मेरे अधिकार दो,
मेरा सामूहिक दैहिक
चूषण बंद करो,
मुझे सिर्फ
समता का
आभूषण दो,
समाज के आईनें
में साफ़ रहने दो।।

गंगा भावुक



नमन मंच १९/०६/२०१९
विषय--दर्पण
लघु कविता

इस कदर रोज मुखौटा लगाते हैं लोग,
अपने चेहरे को मुखौटे से छुपाते हैं लोग।
लेकिन जब भी झांकते है उस दर्पण में
अपने ही वजूद को देखकर लजाते हैं लोग।
लाख छुपालें हकीकत को हम
दर्पण में सब दिखाई दे जाता है।
यह वह माध्यम है जो सत्य बयां करता है।
मुखौटे में छिपी हकीकत को बयां करता है।
मानव को मानव बनना बताता है।
असत्य को ढकने वाले पर्दे को हटाता है।
दर्पण हमारे जीवन में सत्य का मार्ग सिखाता है।
(अशोक राय वत्स)  © स्वरचित
जयपुर



भावों के मोती दिनांक 20/6/19

दर्पण / आईना
छंदमुक्त कविता

हर रोज दर्पण से
मुलाकात होती है
दिल की बात
 दिल में  रह जाती है
बस चेहरा देख कर
खुश हो लेता हूँ
 अब तलक नूर है
चेहरे पर

इन्सान  जीता है
गलतफहमियों में
असलियत से
कतराता है
आईना दिखाता है
असली चेहरा
तब वह पछताता है 

अपने ही जाल में
फ॔सता जाता है इन्सान
दीन ईमान से दूर 
होता जाता है
आखरी समय में 
जब वक्त आईना
दिखाता है  
इन्साफ मांगता है
फिर इन्सान

भले बुरे सारे कर्मों को
दर्पण देखे और दिखाए

स्वलिखित लेखक 
संतोष श्रीवास्तव 
 भोपाल



नमन  🌹🙏🌹
दिनांक -20-6-2019
विषय /शब्द -आईना  /दर्पण /शीशा।
#विधा  -  स्वतंत्र।

                        कविता
            ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

मन दर्पण पर धूल जमी है 
पोंछ रहे हो काँच का दर्पण ।
तुमसे  बेहतर  मेरा  टुकड़ा , 
उसका  देखो तुम समर्पण ।

किसी चीज़ के टुकड़े होते ,
जीवन उसका व्यर्थ हो जाता ।
दर्पण का हर टुकड़ा दर्पण ,
फिर भी उसमें मुँह दिख जाता ।

परोपकार  हैं जो नर  करते ,
उनके नयन दर्पण बन जाते ।
साहस उनकी आँख में होता ,
सच्चाई द्रष्टा को दिखलाते ।  

धरती  अम्बर  तारा  मण्डल  ,
आकुल व्याकुल सब दिख जाते ।
अपवाद केवल होते हैं  मानव ,
जैसे  होते   नहीं  दिख   पाते ।

मैं   नित्य   देखता  रहता   हूँ  ,
मनुजता की गिरती दीवारों को ।
कितने  रंगों  के  सजे  मुखौटे , 
शानों  शौक़त की मीनारों को ।

फ़ितरत आदमी की समझता ,
हँसते के साथ  मैं  हँसता  हूँ।
देखते  हैं  जिन भावों के साथ,
भाव  वही मंचन  मैं करता हूँ ।

      ~~~~~~~~~

स्वरचित मौलिक रचना 
✍️ऊषा सेठी  ©

सिरसा 125055 ( हरियाणा )



शुभ संध्या
विषय -- ''दर्पण/आईना"
द्वितीय प्रस्तुति

पहले आईना देख कर
सोचता था तुमसे मिलूँ ।
अब आईना देख सोचूँ
बस केवल रब से मिलूँ ।
नही गवाही देता आईना 
क्यों न मैं कुछ संभलूँ ।
वह जाने जग मिज़ाज
क्यों न मैं कुछ बदलूँ ।
वो चाहत वो सुरूर छोड़ूँ
कुछ रब चाह में हँस लूँ ।
पर दिल कहे नही यह
रूहानी प्रेम है क्यों डरूँ ।
क्यों न सिर्फ एक बार 
उनसे दीदार कर लूँ ।
मुझे यकीन है अपनी
मुहब्बत पर कुछ सजलूँ ।
काया में नही सही 
उस रूह में ही रम लूँ ।
दो चार बातें तो 'शिवम'
उनसे आखिर कर लूँ ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 20/06/2019



नमन भावों के मोती
दिनाँक-20/06/2019
शीर्षक-दर्पण, आइना
विधा-हाइकु

1.
मेघ दर्पण
छपा इंद्रधनुष
सुंदर दृश्य
2.
सुंदर छटा
कुदरती आइना
इंद्रधनुष
3.
सूर्य दर्पण
चमकाता जग को
सृष्टि सेवक
4.
कटते पेड़
प्रदूषण आइना
देखते लोग
5.
चाँद दर्पण
प्रतिबिंब धरा का
गगन चढ़ा
6.
श्रम अर्पण
परिणाम दर्पण
लक्ष्य साकार
7.
साहित्य प्रेमी
समाज का दर्पण
कवि लेखक
8.
खाकर धोखा
दिखाते हैं आइना
वोटर लोग
9.
रिश्वतखोरी
भ्रष्टाचार आइना
क्या मजबूरी
*********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा


भावों के मोती
शीर्षक- दर्पण/ आइना
तु मेरा आईना,ओ पीया
दिखे तुझमें अक्श मेरा।
संवर जाती हूं मैं देख तुझे
निखर जाता है रूप मेरा।

बिन देखे तुझे कैसे मैं रहूं
ये विरहा के पल कैसे सहूं
तुझे देख के शाम होती है
देख तुझे होता है सबेरा।
स्वरचित
निलम अग्रवाल, खड़कपुर



नमन ,🙏🙏मंच,द्वितीय प्रयास
,💓💓💓💓💓💓
विषय:-दर्पण

आज उसे गये पूरे 10दिनहो गये हैं । लगता है जैसे 10 साल हो गये हों । राज और मैं एक ही औफिस में जॉब करते हैं ।और एक केविन है दोनों का , लगभग 3 साल से हम साथ काम कर रहे हैं । हमेशा ही एक दूसरे को समझा
और सम्मान दिया है ।पता नहीं कब ? एक दूसरे के करीब आ गये । झगड़े भी होते थे ,कभी कभी पर कुछ घंटे बाद
एक भी हो जाते थे ।ये कह कर कि सभी रिश्तों में झगडे होते हैं। और रहना तो साथ है ही, लेकिन जब उसने कहा
कि मुझे मणि तुमसे प्यार हो गया है
मैं बरस पड़ी थी उस पर..।............
न जाने कब ? मणि बिस्तर पर लेटी बीती बातों में खो जाती है ।जैसे सब सामने हो।
अब राज उसके सामने खड़ा हो और पूछ रहा हो उससे
कि तम कभी नहीं जाओगी ना मुझे छोड़ कर

मणि:-ये क्या बोल रहे हो राज मेरे बच्चे हैं ।पति हैं तुम 
मुझसे प्यार कैसे कर सकते हो ?

राज:-किसी को चाहना कोई गुनाह नहीं है मणि, और मुझे पता है तुम खुश नहीं हो अपने पति से

मणि:-हाँ नहीं हूँ खुश तो (चीखते हुए) तो छोड़ दूँ उनको
बच्चों को और चली आऊँ तुम्हारे पास

राज:-मैंने कब कहा कि मेरे पास चली आओ या छोड़ दो सबको,

मणि:-तो क्या करू ?(खीजते हुए ) तो कहने से प्यार होता है क्या?
मैं जिस दिन से आई अपने लिये प्यार और सुकून तलाशती रही पति की आँखों में, लेकिन उसे मैं दिखाई तो दी ,पर सिर्फ एक जिस्म के रूप में ,उसने कभी न अपनी जिममेदारी समझा मुझे न बच्चों को...।।।.......,?क्यों
क्योंकि मैं एक औरत हूँ? आज भी अपने लिऐ नहीं अपने बच्चों के लिऐ जी रही हूँ ।
राज:-पता है ।मुझे इस बात का इसीलिये मैं तुम्हें दुखी देखता हूँ, तो मन बिचलित हो जाता है ।और बस किसी काम मे मन नहीं लगता है..............।।।।।
मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ । मणि प्लीज़ मुझे स्वीकार कर लो ।
मणि उस दिन के बाद से बहुत बदल गयी थी । दोनों एक दूसरे का खयाल रखते थे। पर मणि ने अपने प्यार को कभी ऐक्सैप्ट नहीं किया । पर राज उसकी आँखों में सब कुछ पढ लेता था ।उसे खुश देखकर वो सब समझने लगा
था ।
लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब राज ने अपने प्यार के बारे में अपनी पत्नी को बताया ,तो जैसे सब कुछ बिखर गया ।
आज 10 दिन हो गये ।लेकिन न कोई फोन न कोई मैसेज
क्यों सब कुछ थम गया ? कैसे हुआ ये सब?
हाँ शायद यही संसार है और हम सामाजिक प्राणी अपनी सीमाओं से बँधे हुए...........।
जिसे चाह कर भी हम नहीं लाँघ सकते ।
यही सोचते सोचते मणि की आँखें छलक आई , और रोते रोते मणि कब सो गई पता ही चला ।।।।।।।।।

समाप्त
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू


नमन भावों के मोती 
विषय - दर्पण 

किसको कौन दिखाए दर्पण , 
चेहरों पर नकली चेहरे हैं 
दर्पण के सीने पर 
घाव बहुत गहरे हैं ।
जनता की नींद उड़ी हुई 
शासन की बखिया उखड़ी गयी  ।
सहेज रखी थी बड़े जतन से जो 
वो सुंदर बगिया गई ।
चमकी का फैला आतंक 
मौत नाचती फैलाये पंख ।
दर्पण चकनाचूर हुआ 
हाय! देखो प्रशासन कैसा मगरूर हुआ ।
बातें इतनी बड़ी बड़ी 
भीतर घातें भी है बड़ी बड़ी ।
नन्हे नन्हे बच्चों की 
टूटती श्वासों की लड़ी 
देख दर्पण भी मरता घड़ी घड़ी ।
नेता हैं या अभिनेता हैं 
ये कैसे देश प्रणेता है ?
यह प्रश्न दर्पण से 
पूछ रहा विधाता है ।
बिहार पर जो बीत रही 
प्रकृति भी छाती पीट रही ।
किसको कौन दिखाये दर्पण 
प्रकृति चाह रही ,
मनुजता का समर्पण ।
स्वयं दर्पण भी असमंजस में है 
बुखार से बिहार हारा 
या बिहार ने बुखार से मारा 
क्यों मानवता घिरी प्रभंजन में हैं ?

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई  (दुर्ग )



नमन सम्मानित मंच
   (दर्पण/आईना)
    ************
नित्य  दर्पण   से   दृष्टि   चुराने  लगा  हूँ,                       मैं  खुद  को  ही  खुद  से  छुपाने लगा हूँ।

असलियत छू नहीं पा रही आज मुझको,
मुखौटा   मनुज   का   दिखाने   लगा   हूँ।

इन्सान    हूँ    ये    नहीं    याद    किंचित,
स्वार्थपरता से   आँखें   मिलाने   लगा  हूँ।

आईना  तो   सदा   बोलता  सत्य  केवल,
सत्य  रिश्तों  से  रिश्ता   मिटाने  लगा  हूँ।

कौन था  मैं  कभी  हो  चुका आज  क्या,
दनुजता  को   मन   में   बसाने   लगा  हूँ।

पुनः  मन  को   दर्पण   बना  दे  विधाता!,
चारु  नयनों   से   आँसू   बहाने  लगा  हूँ।
                                    --स्वरचित--
                                       (अरुण)



नमन "भावो के मोती"
20/06/2019
   "दर्पण"
1
धर्म, संस्कार
कुशल व्यवहार
"दर्पण"घर
2
मन दर्पण
अहं का समर्पण
ईश दर्शन
3
चेहरा बिंब
कर्म का प्रतिबिंब
"दर्पण"दृश्य
4
नैन "आईना"
मुरली मनोहर
मन को भाया
5
सुंदर मन
आईने में दिखता
निज स्वरूप
6
दिल जो टूटा
बना काँच टुकड़ा
"दर्पण"रोया
7
टुटा "आईना"
पुरानी पहचान
अक्स ढूँढता
8
ज्ञान "दर्पण"
भाग्य को सँवारता
राह दिखाता

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।




नमन मंच
' भावों के मोती '
दिनांक 20/06/19
विषय- आईना / दर्पण 
**************
1"
आईना वही ।
     चेहरा साफ कर।
              मुस्कुरा सही ।
2' 
 साफ हो मन ।
      चरित्र हो दर्पण ।
                 कर जतन ।
3' 
कर अर्पण ।
      प्रभु प्रेम चरण ।
                मन दर्पण ।
********************
स्वरचित -'  विमल '



नमन मंच
 द्वितीय प्रस्तुति 
20/6/2019
दर्पण 
हाइकु 
1
झूठा है चाँद 
सच्चाई पर पर्दा 
सच्चा दर्पण 
2
दर्पण दोस्त 
कुछ नहीं छिपाता 
सत्य दिखाता 
3
मन दर्पण 
कर लो समर्पण 
खिले भविष्य 
4
कर्म दर्पण 
धर्म का  समर्पण 
श्रम अर्पण 
कुसुम उत्साही 
स्वरचित



नमन भावो के मोती 
दिनांक:20/06/19
विषय; दर्पण
गीत 

मेरा दर्पण सदा मुझसे ये कहे,
एक दुनिया मेरे भीतर भी रहे।

वो जो सच है सभी तेरे शहर में
बहे भाव ,संवेदना की  लहर में
नित नए रंग है जीवन के तेरे-
कभी खुशियाँ कभी आतंक कहर में।

कर्मो से दुख सुख के सब सवेंग सहे,
एक दुनिया मेरे भीतर भी रहे।

मैं सदा मौन हूँ यही मेरी शक्ति
कब करी तेरे जहाँ संग आसक्ति
तू जो जैसा है,वहीँ मुझमे दिखे-
मै कहाँ देखूं विचारों की विभक्ति।

मेरा सब आभासी ,प्रतिबिंब गहे ,
एक दुनिया मेरे भीतर भी रहे।

नीलम तोलानी
स्वरचित



नमन मंच 
विषय - दर्पण 
चंद हाइकु 
🌹🌹🌹


सच बोलता 
मन दर्पण न्यारा 
भेद खोलता 


झील दर्पण 
खिलती कुमुदिनी 
विधु को देख 


निशि दर्पण 
देखे और तड़पे 
चंद्र चकोर 


देख दर्पण 
नैनों में पिया हँसे 
वधु लजायी 


नैना दर्पण 
देख हुई बावरी 
प्रेम छलके 


मन दर्पण 
बंद आंखे देखती 
प्रिय सूरत 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई  (दुर्ग )







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