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ब्लॉग संख्या :-412
सुप्रभात "भावो के मोती"
🙏गुरुजनों को नमन🙏
🌹मित्रों का अभिनंदन🌹
09/06/2019
"स्वतंत्र लेखन"
हाइकु----"कलि"
1
घर की कली
पलकों पर पली
दहेज बलि
2
कली को चूमा
मतवाला भँवरा
बाग महका
3
मासूम कली
शिकार दरिंदगी
फूल न बनी
4
जूही की कली
सजन मन भाई
जूड़े में सजी
5
कली मुस्काई
फूल बनके खिली
बहका भौंरा
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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नमन मंच
विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा-मुक्त छंद
शीर्षक-वातसल्य
"""''""""""""""'''""""""""""'"""""""""""''"""
प्रेम वत्सल है माँ मेरी
लिए भाव सरलता
है माँ देव मूर्त मेरी
दूर है जिससे वाक्छलता।
माँ दिखाती सदा निजता
उससे कोसों दूर है कपटता
है सरल स्वभावी स्नेह मूर्त
है मेरी वो सफलता।
देखो माँ की तुम सरलता
मेरा रूप उसी से निखरता
वातसल्य की है परिचायक माँ
ऐसा ममत्व कहाँ बाजार में है बिकता ?
"""""""""""""""""""""""""""""'"'""""""""""""""""""""
राकेशकुमार जैनबन्धु
रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा
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भावों के मोती 🙏
सुप्रभात
9/619
स्वतन्त्र लेखन
विषय-बेटी
विधा -हाइकु
-----------------
बेटियाँ
------------------
1)
स्नेहिल माता
स्वर्ग से धरा पर
बिटिया आयी ।।
2)
हत्यारिन है,
कलियाँ तोडते हैं
फूल बेटियाँ ।।
3)
बेटी हमारी
कार चलाई आज
फिर संसार।।
4)
अमर रहे
बेटी पेड,फलते
जीवन बीज।।
÷÷÷÷÷÷÷÷
क्षीरोद्र कुमार पुरोहित
बसना,महासमुंद,छ ग
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नमन मंच
09/06/19
**
समाज में व्याप्त बुराईयों पर किसे दोष दे जब अपना ही सिक्का खोटा हो।ऐसे हर बिगड़े अपराधी बेटों की माँ का आत्ममंथन..
शर्मिंदा हूँ ...
बेटे तेरे कृत्यों पर
मैं शर्मिन्दा हूँ
कोख शर्मसार हुई
मैं क्यों जिन्दा हूँ ।
रब से की थी असंख्य दुआएं
प्रभु से की मंगलकामनाएं ।
पग पग पर आँचल फैलाये
तुम पर कोई आंच न आये ।
लाड़ प्यार संग नैतिकता
का तुमको पाठ पढ़ाया था ।
कहाँ हो गयी चूक हमसे,जो
तुमने गलत कदम बढ़ाया था ।
प्यार के अतिरेक मे
तुम बिगड़ते गए,या
गलतियाँ तुम्हारी हम
नजरअंदाज कर गए ।
कहाँ तुम कमजोर पड़ गए
क्यो तुम मजबूर हो गए
एक नेक इंसान से
तुम कैसे हैवान बन गए ।
हैवानियत भी आज शरमा रही
तुम संग स्वयं से घृणा हो रही
मेरा दूध आज लजा रहा ,
दूसरे को क्या दोष दे ,जब
अपना ही सिक्का खोटा हो रहा ।
जब मासूमों से दरिन्दगी करते हो
उनमें अपनी माँ बहन नहीं देख पाते हो।
इतनी हैवानगी कहाँ से लाते हो
गरीबों की चीखें सुन नहीं पाते
बद्दुआओं से तिजोरी भरते हो
और भी न जाने क्या क्या
तुम अपराध किया करते हो ।
मत कर तू शर्मिन्दा मुझे
अभी समय है चेत जाओ
अपराधों की सजा भुगत
पश्चाताप ,कर सुधर जाओ
नेक रास्ते पर कदम बढ़ा
दूध का कर्ज चुका जाओ ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
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🙏 नमन मंच 🙏
आयोजन विषय : स्वतंत्र रचना
प्रतिभागी : आशुतोष तिवारी 'कुमार आशू'
दिनांक : ०९/०६/२०१९
दिन : रविवार
विधा : कविता
🌹🌹 एक प्रणय गीत 🌹🌹
"कर नए प्रतिमान निर्मित, एक दूजे में समाकर..
मैं तुम्हारा स्वर बनूंगा तुम प्रणय के गीत गाना..!!
गीत वह जो शुष्क मन मे नीर का संचार कर दे..
गीत वह जो स्वर्ग से सुंदर विजन संसार कर दे..
गीत वह जो नेह बैरी रुग्णता को शुद्ध कर दे..
गीत वह जो निर्दयी इस आत्मा को बुद्ध कर दे..!
तुम बना मुझको चिरन्तन, इस धरा से उस गगन तक,
तुम मेरे प्रासाद को निज प्रेम से स्वर्गिक बनाना..!
मैं तुम्हारा स्वर बनूंगा तुम प्रणय के गीत गाना..!!१!!
छल विकल्पों का मेरे संकल्प को उलझा रहा है..
जानकी-मन स्वर्णमृग फिर आज धरने जा रहा है..
हैं विरह के तीक्ष्ण शर जो बेधते मेरे हृदय को..
ले परीक्षा डगमगाने पर तुले हैं जो प्रणय को..!
प्रेम शाश्वत है हमारा इसलिए निश्चिंत होकर..
तुम विरह की अग्नि में मुझको तपा कुंदन बनाना..!!
मैं तुम्हारा स्वर बनूंगा तुम प्रणय के गीत गाना..!!२!!
यह पथिक अब थक चुका है बिन तुम्हारे पग बढ़ाकर..
कंठ जैसे चिर तृषा में व्यग्र हैं अब गीत गाकर..
अस्त होता सूर्य नयनों का तुम्हारी राह तककर..
किन्तु मन में आस है जो उठ रहा यह शब्द बनकर..
मैं हृदय में दीप बनकर जगमगाऊंगा तुम्हारे..
और तुम तज लोक लज्जा कंठ से मुझको लगाना..!
मैं तुम्हारा स्वर बनूंगा तुम प्रणय के गीत गाना..!!३!!
✍️ 'कुमार आशू'
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
स्वतंत्र लेखन
नमन मंच
***"**
आज का कार्य हास्य रचना
छोटा सा शहर
कस्बाई सोच
होली का त्योहार
संयुक्त परिवार
नया नया जोश
नयी नयी शादी
लुकछिप कर
देखना था सिनेमा
अकेले हम दुकेले
कालेज में फंक्शन के बहाने
गये हम शोले
सात बजे लौट रहे घर पर
रास्ते में नजर पड़ी कक्का पर
पूरे मोहल्ले के समाचार पत्र
कल सुबह का हमारे नाम सत्र
बाबूजी की तरेरती आंखें
अम्मा के ताने
हम लगे थरथराने
"झूठ बोलने लगे हो
बहू ने सिखाया होगा
बहन को नहीं ले जा सकते थे"
हम दोनों चुप
सिनेमा की बसंती का
चटकीलापन, चटर पटर
नशा उतरा सिर से
रसोई में चूल्हा जला दिया
दाल का अदहन चढ़ा दिया ।
रंजना सिन्हा सैराहा (बांदा, उ प्र)
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
नमन मंच भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
लघुकविता
09 जून 2019,रविवार
कविकुलगुरु वाल्मीकि ने
काव्य सुधा सरिता फैलाई।
कालीदास वेदव्यास मिल
नव ज्योति किरण सुलगाई।
कवि कलम कभी न थकती
सतयुग से कलियुग में आई।
तुलसी सूर मिल मीरा मैथिली
राम कृष्ण की अलख जगाई।
सद प्रेरणा मिली कवि गुरु से
तिमिर हिय आलोकित कर्ता।
हम जुगनू वत घूम रहे सब
परम पिता जग विपदा हर्ता।
वेद ऋचाओं ने सिखलाया
गीता ने नित ज्ञान दिया है।
ज्ञानामृत मिला है सबको
सुख शांति से इसे पिया है।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
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बेचैन थे बे-सबब रात भर ।
सो न सके अजब रात भर ।
कुछ सलीका था उनका।
और कुछ हमारी झिझक।
कुछ कह सके न सुन सके।
बस ढहे गजब रात भर।
बेचैन थे बे-सबब रात भर ।
सो न सके अजब रात भर ।
बैठे हुए थे वो नज़रे चुराए।
सिमटे हुए न मुखड़ा उठाए।
यूं दिल हमारा जलाती रही।
उन्ही की तलब रात भर।
बेचैन थे बे-सबब रात भर ।
सो न सके अजब रात भर ।
मुख से कुछ भी बोले नहीं।
और ना ही घूंघट हटाये।
गुस्ताख दिल कैसे काबू रहे।
बेताब था बे-अदब रात भर।
बेचैन थे बे-सबब रात भर ।
सो न सके अजब रात भर ।
विपिन सोहल
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।। मानवता की हार ।।
चिरौरी का गया जमाना
भूल भी न स्वीकार है ।
कहो अगर तो आँख तरेरें
अब चुप रहने में सार है ।
सड़क चलते झगड़े दिखें
आज मानवता की हार है ।
कैसी भाग कैसी मंजिल
जब बचे न संस्कार है ।
आज इंसान इंसान नही
पशुओं से भी खूँखार है ।
भूल से धक्के लगने से
भी खिंच जाए तलवार है ।
हम कहें सभ्यता जिसे
वो पशुता के विस्तार है ।
मानवता मर जाती जब
बच्चियों से होते बलात्कार है ।
सृष्टि बचाने के ''शिवम"
अब प्रभु ही कर्णधार हैं ।
सत्य आज रो रहा है
असत्य की जय जयकार है ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/06/2019
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नमन मंच
दिनांक ..9/6/2019
विषय .. स्वतन्त्र लेखन
*****************
झुकी हुई पलको पे मेरे, पलके रख कर देखो।
मेरे आँखो के ख्वाबो को, तुम भी पढ कर देखो।
......
क्या होता महसूस तुम्हे ये, मुझसे खुल कर बोलो,
क्या कहती है शेर की धडकन, तुम भी सुन कर देखो।
....
बादल बरसा जहाँ-जहाँ पर, पृथ्वी पूरी तृप्त हुई।
बरखा जल ने जीवन दी,कृषक सभी सम्पन्न हुए।
.....
कही हँसाती कही रूलाती,पानी की है कई कहानी,
मर्यादा मे जीवन देती, नही तो सच ये जीवन लेती।
....
भावों का गठजोड बुरा, जो ना समझे हाल बुरा है।
तृप्त अतृत्प के संघर्षो मे, जो देखो वो ही उलझा है।
....
शेर का मन भी भटक रहे है,जाने किसको ढूँढ रहा है।
शायद कोई दूजा होगा, ऐसा क्यो हर बार लग रहा।
....
स्वरचित
शेरसिंह सर्राफ
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नमन🙏भावों के मोती
विषय :-मोबाइल
विधा:-छ़ंद मुक्त कविता
😍😍😍😍😍😍😍
मोबाइल
दिखे नहीं जब प्रिय मोबाइल दिल मेरा घबराये
वार वार तुझे निहारते अँखियाँ भी थक जाये😂
लेकर तुझको साथ में बैठूँ मन आतुर हो जाये😂
जो तुझको कोई छीन ले मुझसे लाल आँख हो जाये
सुबह सवेरे वंदना स्तुति तू ही तो कर बाएं 😂
तू ही मेरा कान्हा और तू ही भगवान कहा ये
जब काम से फुरसत मिलती तुझे देख मुस्करा दूँ
खाना पीना भूलूँ फिर तुझे देख पेट भर जाये😂
ये हालत है मेरी अब कोई राह नजर नहीं आये
ऐसी व्यथा कथा के आगे सब बेबस हो जाये😂
स्वरचित
नीलम शर्मा #नीलू
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
,🌹🙏जय माँ शारदे🌹🙏
सादर अभिवादन,,
नमन,मंच,, भावों के मोती
9 /6 /2019
बिषय स्वतंत्र लेखन
दादाजी को समर्पित
दादाजी की गोद में बीता मेरा बचपन
हम बच्चों के लिए उनका सदा समर्पण
उनसे ही मिली शिक्षा
मिला है माँ के जैसा प्यार
वर्तमान में जो भी पाया
हैं मेरे दद्दाजी जी के संस्कार
सारी सारी रात जागकर
हम बच्चों को पाला है
बड़े जतन से लाड़ प्यार से
खुद के साँचे में ढाला है
हम जागे तो वह जागे
हम रोए तो वह रोए
जरा भी कष्ट हुआ हमको.
पल भर भी चैन से न सोए
हमारी झोली खुशियों से भर दी
खुद जाने किस जहां में खो गए
हमें अकेला छोड़ चिरनिद्रा में सो गए
अश्रुपूरित श्रध्दांजलि करते हैं
बहु बार नमन
बंदन है बंदन मेरे दद्दाजी
तुमको बंदन
अब जब भी धरती पर आओ
मेरी माँ बनकर आना
हम बच्चों पर फिर वही
अपना प्यार दुलार लुटाना
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार,,
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
,🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
,,🏵🌼🌸🏵🌼🌷🏵
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8/6/19
भावों के मोती
विषय-नीम
__________________
स्वप्न में झाँक उठी
स्मृतियाँ कुछ पुरानी
छुट्टियों में गाँव में
ठंडी नीम की छाँव तले
खेले बचपन में बहुत खेल
गेंहू के खेतों में हरा-भरा
नीम का पेड़ खड़ा बहुत घना
निवोरी की सौंधी महक
गूँजती चिड़ियों की चहक
रस्सी की बुनी चारपाई पर
आ बैठती बुजुर्गो की टोली
किस्सों-कहानियों की धूम मचती
हँसी-ठहाकों की गूँज उठती
अकेला खड़ा फिर भी अकेला नहीं
मेरे खेत के नीम तले
रहती हरदम भीड़ सदा
ठंडी हवाएँ शीतल छाया
तोता,मैना की स्वरलहरी
कानों को लगती प्यारी
झूम-झूमकर नाचे डालियाँ
जब चलने लगे तेज हवाएँ
जाने कितनी यादें समेटे
जाने कितने बचपन देखे
लिए बुजुर्गो के तजुर्बे की गाथा
पेड़ नीम का खड़ा लहराता
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित✍
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जय मां शारदे!
नमन मंच भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र रचना
विधा- गज़ल
221 1222 221 1222
🌹🌹
दिलदार मुहब्बत का बेजार भरम होगा,
सौगात नहीं लाना सौ बार करम होगा।
🌹🌹
आराम मिले दिल को तुम शाद नजर आना,
मुस्कान खिले तेरी महताब नरम होगा।
🌹🌹
सरकार इबादत से नगमात लिखे होंगे,
रुखसार रहो चाहे शादाब हरम होगा।
🌹🌹
सादात किताबों में हर हर्फ सुनहरा है,
दिलकश ये नजारे हैं दस्तूर शरम होगा।
🌹🌹
तौहीन तुम्हारी है उल्फत गर झूठी है,
अंजाम रिफाकत का ख्वाब भरम होगा।।
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तर्ज- जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना।
शालिनी अग्रवाल
9/06/2019
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भावों के मोती
९\६\१९
स्वतंत्र लेखन
मत्तगयंद सवैया
देह खिली कचनार कली तब है अलि आकर रूप निहारे।
चौंसठ चंद्र कला सब शेखर वो शशि से तनु ऊपर वारे।
पंकज सा लगता यह आनन शोभित सुन्दर ये कजरारे।
ओष्ठ सुकोमल बिंब फलों सम जान करे मति कीर विसारे।
स्वरचित
संदीप कुमार विश्नोई
दुतारांवाली अबोहर पंजाब
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भावों के मोती
9 06 19
स्वतंत्र लेखन
विधा अतुकांत कविता
धरा और विरहन..
तपता हुवा चांद उतर आया
विरहन की आंखों में
चांदनी जला रही है तन- मन,
झरोखे में उतर उतर
कैसी तपिश है ये
अंतर तक दहक गया
जेठ की तपती दोपहरी जैसे
सन्नाटे उतर आये मन में
यादों के गर्म थपेड़े
मन झुलसाय
मुरझाये फूलों सा
रूप कुम्हलाय
नैनो का नीर गालों की
गर्मी में समा कर सूख जाय
ज्यों धरा के तपते गात पर
तन्वंगी होता नदीयों का पानी
लताओं जैसे निस्तेज
घुंघराले उलझे केश
मलीन चीर की सिलवटें ऐसे जैसे
धरती का सूख कर सिकुड जाना
प्यासे पंछियों सा भटकता मन
उड़ता तृषा शांति की तलाश में
हां चांद भी तपता है.....
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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सादर अभिवादन
स्वतंत्र विषय
09-06-2019
कर्ण
पुछे लोग जनक, जाति औ वर्ण
बंद होंठ, हिय धधक लिए कर्ण
छल, छद्म सहे अनीति अन्याय
कर्ण, शोषित, वंचित का पर्याय
भाग्य बैरी उसका या भगवान
पग-पग प्रताड़न और अपमान
मिल जुल जिसने भी शाप दिये
क्या उसने कमतर ये पाप किए
निष्ठा का प्रतीक, धनुर्धर धीर
अपितु न विचलित वो दानवीर
यद्यपि दुर्योधन दुर्भाव से भरा
मैत्री मिलन कर बनाया मोहरा
अंग का ताज देकर किया मान
हुआ उऋण वो भी तजकर प्राण
मित्रता अक्षुण्ण कोई छल नहीं
परिणामभिज्ञ बली विकल नहीं
स्वाभिमान, संबल का परिचायक
कर्ण, महाभारत का महानायक
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
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वाह पानी आह पानी
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सूखा कंठ, फूटा मटका
हाय तौबा , पानी पानी,
अनावृष्टि, रूठा बादल,
हाय तौबा, पानी पानी,
अतिवृष्टि, फूटा बादल,
हाय तौबा, पानी पानी।
आतंकी मंज़र, खंज़र ही खंज़र,
बोझिल ऑखें, पानी पानी,
सब कुछ सौंप, दिया है तुमको
विश्वास हमारा, न हो पानी पानी।
उस बेटी का शील, हुआ भंग,
सभ्यता हुई, पानी पानी,
बूढ़े माँ बाप, वृध्दाश्रम में,
संवेदना हुई, पानी पानी।
दूध से तुम , मिलते हो पानी,
दोस्ती की यही है, अमर निशानी,
कैसे कटती, यह ज़िन्दगानी,
यदि न होते तुम, जग में पानी।
दूसरे ग्रह की, जब भी खोज़ होती
सबसे पहले तुम्हें ही, ढूँढते पानी
प्रकृति के सौन्दर्य में, तुम हो
कहाँ नहीं हो तुम पानी।
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नमन 'भावों के मोती'
दिनाँक: 09.06.2019
विषय: स्वतंत्र लेखन
।।मुक्तक कविता : तुम देना साथ मेरा सनम ।।
जीवनसंगिनी
माँ का घर मैं छोड़ कर आई हूँ
घर से माँ की तश्वीर ले आई हूँ।
अब तुम मुझे अपना लेना साथी
एक घर से पराई होकर आई हूँ।।
जीवनसाथी
मेरा घर आँगन आज से तेरा हुआ
एकलौता दिल, आज से तेरा हुआ।
बस मेरे माता पिता अपने समझना
मेरा तन मन धन आज से तेरा हुआ।।
जीवनसंगिनी
मुझे मेरी माँ की याद आ रही है
मुझ मेरे पापा की याद आ रही है।
एक नए परिवार की जरूरत है
बिछड़े परिवार की याद आ रही है।।
जीवनसाथी
माँ से दूर हो तुम्हें याद तो आएगी
पापा से दूर हो याद तो आएगी।
मेरे परिवार को तुम अपना समझना
परिवार से दूर हो याद तो आएगी।।
जीवनसंगिनी
तुम मेरा ख्याल रखोगे? वादा करो
अपनों सा प्यार दो गे ? वादा करो।
अब तुम ही मेरा घर संसार हो साथी
तुम मेरा संसार बनोगे? वादा करो।।
जीवनसाथी
अपना बनाकर रखूंगा, वादा है मेरा
दिल मे बसाकर रखूंगा, वादा है मेरा।
तुम भी मुझे पराया मत समझना
रानी सी सजाकर रखूंगा, वादा है मेरा।।
जीवनसंगिनी
घर की जिम्मेदारियां कैसे संभालूंगी?
जीवन की नोका को कैसे संभालूंगी?
अगर डगमगा जाए, संभाल लेना
उफ्फ़! पता नहीं ये सब कैसे संभालूंगी??
जीवनसाथी
मत घबरा, तुम नाव, मैं पतवार बनूंगा
हर मौसम, हर घड़ी तेरे साथ रहूँगा।
तुम देना साथ मेरा मेरे अज़ीज, हमदम
तेरे बिना तो मैं अकेला पड़ जाऊंगा।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
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तिथि - 9/6/19
विषय - स्वतन्त्र
जा रहे थे तुम.......मैं रोई फूटकर
शाख से पत्ता......गिरा था टूटकर
तुमने देखा न पलट कर फिर मुझे
क्या भला करती मैं तुमसे रूठकर
एक पल में टूट.... सब वादे गये
हम न होंगे फिर जुदा, वादे गए
मेरी किस्मत में लिखी तन्हाईयाँ
रूठ क्यों मुझसे.. मेरे सपने गये
तुमको आई न कभी .फिर याद मेरी
न सुनी तुमने.... कभी फरियाद मेरी
वक्त की सूई कभी एक पल न ठहरी
दे सकोगे क्या.......सुहानी रात मेरी
स्वप्न सारे झर गए फिर शाख से
धड़कनें भी थी रुकी..आघात से
श्वेत चादर थी बिछी. तन पर मेरे
ले चले कांधे लिए.. सब प्यार से
सरिता गर्ग
स्व रचित
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नमन मंच को
दिन :- रविवार
दिनांक :- 09/06/2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन
तेरा एहसास ही काफी है..
जिंदगी जी जाने को..
एक अल्फाज ही काफी है..
कोई नगमा बनाने को..
तुम मुझसे दूर ही सही..
पर यादों में हो..
हर लम्हे हर श्वांस...
तुम खयालों में हो..
जाने तेरा दीदार कब होगा..
कब खिलेगी कली दिल की..
होगा जब भी दीदार तेरा..
महकेगी हर गली दिल की..
ख्वाबों को तेरा इंतजार है..
दिल को भी तेरा ऐतबार है..
होगी बड़ी खुशनुमा वो घड़ी..
जिस घड़ी होगा दीदार तेरा..
कुछ लम्हों को समेटे रखें हैं...
सागर से मोती लाए रखें हैं..
इंतज़ार में हैं बस तेरे हम..
राहों में पलकें बिछाए रखें हैं..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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1भा/9/6/2019/रविवार
बिषयः ःकलियुगः
विधाःः ःकाव्य ः
तार तार हुई ये मानवता सारी
सचमुच में अब कलयुग आया।
फल फूल रहे यहां सभी दरिंदे,
कौन कमीन वहशीपन लाया।
कन्या देवी दूर चली गई है,
टिवंकल बेटी हम शर्मिंदा।
लगीआग जनजन के मनमें,
अब नहीं रहेंगे कातिल जिंदा।
कलियुग में ही ऐसा होता।
मानव सदैव पाप ही बोता।
दुष्टों की करतूतों के कारण,
सर्व समाज ही आंसू रोता।
उधेड देंय चमडी गुंडों की सब,
इलाज करें मिलजुलकर इनका।
नहीं धंसने दें हम कलियुगी गुंडे,
अच्छा पूजापाठ करें जरा इनका।
स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम रामजी
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1*भा.#कलयुग#काव्यः ः
9/6/2019/रविवार
नमन भावों के मोती
09-6-2019
विषय:- साहस
विधा :- मुक्तक
पुरुषार्थी की हिम्मत आगे , तूफ़ान सभी रुक जाते हैं ।
प्रथम पाँव रखता जब देखें , शैल शिखर झुक जाते हैं ।
हौंसला हारे साथियों का , वे हाथ पकड़ते साहस से ,
अपने बलबूते पर उनको , वे मंज़िल तय करवाते हैं ।।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
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#नमन मंच:::भावों के मोती:::
#विषय:::स्वतंत्र लेखन:::
#वार:::रविवार:::
#दिनांक:::९,६,२०१९:::
#रचनाकार:: दुर्गा सिलगीवाला सोनी:::
"*"""*"""अंधविश्वास"""*"""*"
अंध विश्वास में जकड़ा हुआ है,
यह देश जाती और धर्म हमारा,
हम लोक परलोक से घिरे हुवे हैं,
क्या समझोगे तुम मर्म हमारा,
सात जन्म के किस्से सुन लो,
हर घर में ये कहानी चलती है,
कल्पित मन में चमत्कारों की,
उम्मीद भी हर एक में पलती है,
पूर्व जन्मों की हम कड़ी जोड़ते,
सब मन ही मन में हरसाते हैं,
तिल और मस्सों के लक्षण देख,
हम राजाभोज ही बन जाते हैं,
ग्रह दशा जो ना अनुकूल हुई,
हम कदम भी ना आगे बढ़ाएंगे,
बिल्ली ने जो रास्ता अगर काटा,
हम डर कर ही खड़े रह जाएंगे,
अज़ान प्रार्थना या देवी जागरण,
हम खुदा तक को ना सोने देते हैं,
कोहराम मचा कर सारे जहां में,
हड़कंप सा ही खड़ा कर देते हैं,
मुहूर्त निकलवालो अब तुम दुर्गा,
साक्षात्कार करना है भगवान का,
नारियल अगरबत्ती से काम ना बने,
तो इंतजाम करो तुम पकवान का,
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
नमन भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र सृजन
विधा- गीत
🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
ऋतु गर्मी की आ गई, लेकर खुशी हज़ार।
हम सब बच्चों के लिए, मस्ती की बौछार।
गर्मी की छुट्टी पड़ी, हम सब करते मौज।
धमाचौकड़ी कर रही, हम बच्चों की फौज।
लूडो, कैरम, खेलते, दोस्त मिले जब चार।
ऋतु गर्मी की आ गई, लेकर खुशी हज़ार।
गर्मी में खाते सभी, जामुन, लीची, आम।
शरबत,कुल्फी,सोफ्टी, भरे हुए बादाम।
पढने से छुट्टी मिली, होता हल्का भार।
ऋतु गर्मी की आ गई, लेकर खुशी हज़ार।
पापा जी लेकर चलो, हमको नैनीताल।
दिल्ली में गर्मी बहुत, वेधा है बेहाल।
मिलती शीतलता वहाँ, ठंडक भरी फुहार।
ऋतु गर्मी की आ गई, लेकर खुशी हज़ार।
ऋतु गर्मी की आ गई, लेकर खुशी हज़ार।
हम सब बच्चों के लिए मस्ती की बौछार।
🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
-वेधा सिंह
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आप सभी को हार्दिक नमस्कार
आज मुक्त दिवस पर
दरिंदा
माँ! माँ !!!कहाँ कहाँ हो !!!!
पापा!! पापा !!आओ पापा!! बचा लो मुझे!!
ये ये अंकल !!
क्या कर रहे हो!
मुझे छोड़ दो
मम्मा को बुलाओ
पापा को बुलाओ
मुझे पीड़ा हो रही है
।
अंकल आप तो चाकलेट देने लाए थे
आप मुझे क्यों काट रहे
छोड़ो ना अंकल प्लीज मुझे नहीं खानी चाकलेट
मुझे जाने दो ।
मम्माआआआआ!!
जाने इस तरह कितनी बातें उस मासूम के मुँह से निकली होगी
कितनी-कितनी मर्मभेदी पाषाण पिघलाने वाली चीखें!!!!!
उफ!!
दबकर रह गई होगी खुरदरे हथेलियों मध्य किसी दरिंदे हैवानियत के आगे सहमती मासूम चीखें!!!
भगवान भी पत्थर हो गया गगन नहीं डोला भूकंप नहीं आया!!
आदी हो गये सब
इस चारित्रिक प्रदूषण के ????
क्या कन्या होना ही अपराध है?
कैसे सपोले पलने लगे मेरे देश में जो अपनी माँ का दूध लजाते हुए तनिक भी नहीं हिचकिचाते?
अब ढाई साल की बच्ची भी
बदनियति के निशाने पर???
क्या अब इंसान के पास हवस के सिवा कुछ नहीं बचा??
किसे दोष दे?
कानून हैवान संस्कृति संस्कार बदलते परिवेश नशा????
फिर आक्रोश भरे कुछ जुमले कुछ आलेख कविताएँ भाषण फिर???,
कितनी मासूमों कितनी निर्भयाओं कितनी-कितनी??
आज कहाँ जा रहा भारतीय समाज?
इंटरनेट आदि में आँखे गड़ाते अच्छे बुरे संप्रेषित
दृष्यों की परिणितिया आत्मघाती नशीली दवाईयों का सेवन??
आखिर आए दिन ऐसी होने वाली मर्मांतक घटनाओं का कहीं अंत भी है या केवल शाब्दिक मरहम ही लगाते रहेगे।
अरे इंसान हो तो जागो
रोको इस सड़ांध को आगे बढ़ो।
कठोर कानुन के साथ अच्छे संस्कारों का भी निर्वाह हो।
ऐसै हैवानों को सिर्फ मौत ही दिया जाए ।।
कहने को बहुत कुछ
पीड़ाओ का पारावार नहीं ।
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
9-6-2019
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नमन मंच ०९/०६ २०१९
स्वतंत्र विषय लेखन
लघु कविता
"बिटिया हुई हलाल "
द्रवित हो गया मन है मेरा, कलम हो गई कुन्द है,
आज अली के गढ में देखो, बिटिया हुई हलाल है।
तीन वर्ष की बेटी आखिर ,छोड़ गई संसार को,
प्रश्न वही फिर छोड़ गई, वह फिर से आज विचार को।
कहाँ गए वो चैनल वाले, कहाँ गए सब रोने वाले,
कहाँ गई वह कठुआ गैंग, कहाँ गई माया नगरी।
आज छुपे हैं सबके सब,पट्टी बांध कर आंखों पर,
क्यों भूल गए सब ट्विंकल को, वह भी तो किसी की बेटी है।
मैं पूछ रहा हूं यह सबसे, वो बाँलीवुड वाले कहाँ गए,
जो बात दोगली करती हैं, वो भोली सकलें कहाँ गई।
मैने सोचा इंसाफ मिलेगा, ट्विंकल बिटिया की चीखों को,
मैं भूल गया मैं बैठा हूँ, गूंगे बहरे दरबारों में।
उठो उठो संघर्ष करो, ट्विंकल को न्याय दिलाने को,
आग लगा दो उस बहसी पन को, जहाँ जन्म मिला है जाहिद को।
ऐसी मौत देओ भाई, इन बहसी कौमी जल्लादों को,
कोई जाहिद पैदा न हो, ज़ो आंख उठाए बहनों पर।
सुनो वत्स की बात नहीं तो, भरते रहना जख्मों को,
आज जनाजा ट्विंकल का है, कल रोना अपनी बहनों पर।।
(अशोक राय वत्स) © स्वरचित
जयपुर
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नमन
भावों के मोती
९/६/२०१९
स्वतंत्र लेखन
मासूम बेटी
मां-बाप का खिलौना
भोगती दंड
असह्य अत्याचार
मानवता की मौत।
**************
झाड़ी में शिशु
रोता औ बिलखता
कुत्ते नौंचते
भीड़ देखे तमाशा
मानवता की मौत।
**************
मदद मांगें
दुर्घटना से ग्रस्त
पत्थरदिल
खींचते हैं तस्वीरें
मानवता की मौत।
**************
राह चलते
मनचलों की आंखें
भेदती तन
सहमी-सहमी सी
बेटियों की जिंदगी।
**************
वृद्ध लाचार
मांगें भिक्षा राहों में
बेघरबार
वृद्धाश्रम आश्रय
निकृष्ट हैं संतान।
**************
बच्चे लापता
होता अपरहण
मांगते भिक्षा
बेटियां बेचे तन
निष्ठुर मानवता।
**************
नशे की लत
बरबाद हैं घर
नित हो क्लेश
पड़ता है असर
बच्चे कुंठा से ग्रस्त।
***************
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
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नमन "भावो के मोती"
09/06/2019
"स्वतंत्र लेखन"
################
तन्हा दिल सूरत को आइना बना कर देख लेती हूँ।
दिवा सपनों को रंगों से सजा कर देख लेती हूँ।।
हवाओं से तुम्हारी खैरियत पूछ लेती हूँ।
तेरी सलामती रब से माँग दुआ कर देख लेती हूँ।।
फिर से बागिया फूलों से खिलके महक उठे।
भावना प्रीत की हाथ बढ़ा कर देख लेती हूँ।।
बहुत मुश्किल हो रहा ऐसे हाल में मुस्कुराना।
मगर मैं तेरे साथ तराने गा कर देख लेती हूँ।।
चल रही हो आँधीयाँ हर तरफ फिर भी।
मुहब्बत का दीया जला कर देख लेती हूँ।।
कभी भी जब अहं का टक्कर मैं के साथ हुआ हो।
सितारे को "बॉबी"नजरें उठा कर देख लेती हूँ।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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नमन भावों के मोती
दिनांक- ९/६/१९
दिवस- रविवार
समान्त- आग
पदान्त- हैं
प्रेम के हर भाव झूठे, आग हैं।
देखिए विकराल काले नाग हैं।
शिष्टता व्यवहार में है अब नहीं,
रोज ही उनके बदलते राग हैं।
लौटती पारम्परिक प्राचीनता,
बहु तियों से कर रहे अनुराग हैं।
क्यों पुरुष ही दोष का भागी बने,
नारियों के भी जुड़े कुछ भाग हैं।
भ्रूण हत्या पाप भारी जानिए,
कोंपलों से फूल एवं बाग हैं।
प्रेम की उफ ये जलन क्यूँ आग है,
दे रहे क्यों घाव गहरे दाग हैं।
आप बलखाती हुई क्यों आ गईं,
भाव *बृज* प्यारे चुके अब जाग हैं।
---बृजेश पाण्डेय विभात
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सादर अभिवादन
नमन मंच
भावों के मोती
दिनांक : 9-6 -2019 (रविवार)
विषय : स्वतंत्र लेखन
इस तरह
न कमाना इस तरह कि
धन से ज्यादा पाप बढ़ जाए
न खर्च करना इस तरह कि
औकाद से ज्यादा कर्ज़ चढ़ जाए
न खाना इस तरह कि
स्वाद के चक्कर में स्वास्थ्य खो जाए
न बोलना इस तरह कि
प्रेम से ज्यादा क्लेश हो जाए
न चलना इस तरह कि
पहुंचने में बहुत देर हो जाए
न सोचना इस तरह कि
चिता समान चिंता हो जाए
यह रचना मेरी स्वरचित है
मधुलिका कुमारी "खुशबू"
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नमन भावों के मोती
विषय -स्वतंत्र सृजन
09/06/19
रविवार
कल्पनाओं के सुनहरे पंख फैलाकर मेरा मन , आज फिर आकाश में स्वच्छन्द उड़ना चाहता है |
मोह ,ममता ,लालसा और स्वार्थ के बंधन छुड़ाकर ,
एक सुंदर अंतहीन उड़ान भरना चाहता है |
मैं अभी तक मौन रह अन्याय सब सहता रहा था,
आज मेरा मन जुबान से सत्य कहना चाहता है |
इस सुगर्वित राष्ट्र पर कुर्बान है सर्वस्व मेरा ,
किन्तु मन निज भूमि-हित कुछ और करना चाहता है |
कितने भी तूफान मेरे लक्ष्य की राहों में आएँ ,
मन मेरा उन आँधियों से जंग लड़ना चाहता है |
है मेरी यह कामना संसार में हर जन सुखी हो ,
दिल तो चेहरों पर मधुर मुस्कान लाना चाहता है|
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
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नमन-मंच
दिनांक-९/६/२०२९"
स्वतंत्र लेखन-संस्मरण
इंतजार
पिछले दिनो मेरे एक दूर के रिश्तेदार मेरे घर आये थें,जब भी कोई मेहमान मेरे घर आते है,तो मैं पूछकर प्रत्येक के रूचि अनुसार ही खाना व नाश्ता का प्रबंध करती हूँ, आदतन मैं अपने मेहमान जो रिश्ते मे नन्दोई लगते थे,मैं पूछ बैठी"आज आप नाश्ते मे क्या लेना पंसद करेंगे-चाऊमीन, उपमा या फिर पूरी,पाराठा".उन्होंने अपनी पसंद बता दिया, फिर जब मैं अपनी नन्द की तरफ मुखातिब हो पूछ बैठी"और दीदी आप नाश्ते मे क्या लेना पसंद करेंगी।"
मेरा ऐसा पूछते ही वे आँखो मे आँसू भरकर बोली"मुझे पता ही नही है आज तक कि मेरी पसंदीदा खाना क्या है,और आज साठ बर्ष की अवस्था तक किसी ने मुझसे यह बात नही पूछा कि मैं क्या खाना पसंद करती हूँ सबके लिए जो बनाती हूँ वही खा लेती हूँ।"
यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ,मुझे इंतजार है उस घड़ी का जब नारी अपने परिवार को महत्व देने के साथ साथ अपने आप को भी महत्व दे
और परिवार के पसंद नापसंद के साथ साथ, अपना पसंद और नापसंद का भी ख्याल रखे।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
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नमन मंच
भावों के मोती
9/6/2019
212/212/212
रूठतों को मना साथिया
उलझने ना बढ़ा साथिया
प्यार की राह में मुश्किलें
सैकड़ो ,ना डरा साथिया
रंग ही रंग हो हर तरफ
उलझनों को भुला साथिया
सफ़र में साथ तेरा मिले
ज़िंदगी रंग ले साथिया
हार कर हौंसले जीतिये
ज़िदंगी हो हसीं साथिया
भूल जा हारना जीतना
प्रीत का गीत गा साथिया
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
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नमन् भावों केमोती
9जून19
विधा हाइकु
घूमते गुंडे
सिसकती बच्चियां
अँधा कानून
रोती बालिका
कहाँ हैं मानवता
सभ्य समाज
बेशर्म लोग
असहाय बच्चियां
पापी समाज
न्याय मांगती
प्रताड़ित बच्चियां
सरकार से
सुधारो देश
पढ़ाओ नैतिकता
आध्यात्म ज्ञान
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
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नमन मंच
स्वतंत्र लेखन
जग शर्मिंदा
😢😢
नीच वहशी दरिंदों की , बस एक ही हो सजा
जीते जी देखे बेरहम क़ज़ा ।
घसीट कर छोड़ आओ वनों में
भूखे जंगली जानवरों के बीच
नोच नोच बोटियां इनकी खाएं पशु
अंत तक बहते रहें इनके आंसू ।
मर गयी जिनकी मनुजता
उन दरिंदों संग
भला कैसी उदारता ।
हाय! मासूम संग हुई
जो पशुता, बर्बरता
आखिर कब खत्म होगी
सबूतों की खोज में
ये अंधे कानून की विवशता ।
क्या यूं ही बरसों बरस ,कटघरे के पीछे
पलती पनपती रहेगी, पशुता, बर्बरता ।
इस घिनौनी आदमियत पर
अब तो पशु भी हो रहे शर्मिंदा ।
सभ्य समाज मे आखिर ,एक पल भी
वहशी क्यों रहे जिंदा ।
लगता आ गया समय
किसी चामुंडा काली का हो उदय ।
काट काट गला इन रक्तबीजों का
जो पी जाये लहू ।
माताओं उठा लो अब सौगंध
ना पैदा होने पाए नर पिशाच कोई
कि आज इनके भार से
वसुधा भी खून के आंसू रोई ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
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नमन:भावों के मोती
'स्वतंत्र लेखन'
गीतः
*
कभी याद आते बीते दिन।
अकस्मात् ही अनचीते दिन।
तडित -कौंध-युत जब लघु जलधर।
सहसा उमड़ - घुमड़ नत होकर।
मरु - आँगन - उर पर अनजाने,
रिमझिम बरस पड़ा था झर - झर।
निशदिन के रस-डूबे पल-छिन।
विद्युत - माला सदृश झूम कर।
सम्मुख आ , मन - मुदित,घूम कर।
पड़कर गले , विनोद - मोद - रत,
अधरामृत दे अधर चूम कर।
रचे चरित मनचीते अनगिन।
देख जिसे ऊषा मुसकाई।
वायु गंधवाहक बन पाई।
कूजी कोकिल ले स्वर - पंचम,
ललित शुभ्रता कलित जुन्हाई।
कबित कहाँ शारद - गीते बिन ?
कभी याद आते , बीते दिन।
अकस्मात् ही अनचीते दिन।।
--डा.उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
स्वतंत्र लेखन
शीर्षक-पर्यावरण
छंद मुक्त कविता
...........
गर्मी से बेहाल
भाल पर श्रमजल छलके
शुष्क होष्ठ
सांस है अटकी
तपती दुपहरी में
कतार में खड़ी एक नार
पानी की आस लगाए
सिर पर लादे मटकी
गर्म रेत जलते चूल्हे की
आग सी लगे
लू के थपेड़े
बदन पर अंगार से लगें
कहाँ है पानी
कैसे जग की प्यास बुझे?
सूखी धरती,सूखे नयन
उजड़े पड़े हैं बस्ती कानन
स्वार्थ में लिप्त हुए सभी हैं
धरती की पुकार कौन सुने?
'जल ही जीवन है
जल है तो कल है
जल अमृत है'
ये बस हैं ज़ुबानी चर्चे
कागज़ी कार्यवाही में
कुआँ,नहर हैंडपंप
सब दिखे
जन की प्यासी रूह
अब अनगिन परतों से झाँके
चेत जाओ बंधुओ!
अभी भी समय है
पुरखों का ऋण चुकाने का
यही उचित समय है
अपने वारिसों को
कुछ तो छोड़ के जाओगे
या इस पावन वसुंधरा को
शुष्क,शापित
कुपित छोड़ जाओगे?
इतना
कि उसकी आत्मा भी
इंसान की तरह दर दर भटके..??
**वंदना सोलंकी* #स्वरचित
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नमन भावों के मोती
आज का विषय, स्वतंत्र लेखन
दिन, रविवार
दिनांक, 9,6,2019
नींद नहीं आती अब आँखों में,
बात यही बस है एक जहन में ।
नारीत्व आज क्यों है संकट में ,
क्या वापस हम आये जंगल में।
आज दुधमुँही बच्चियाँ संकट में,
अब न खेलेंगी ये पास पड़ोस में ।
छिपा कौन भेड़िया किस कोने में,
आग लगा दे जाने कब जीवन में ।
अब न जरूरत मादा की धरा में,
जियें दरिंदे यहाँ पर अकेलेपन में।
शेष नहीं पुरुषार्थ जिनके मन में,
फूल खिलें क्यों उनके आँगन में।
सो गये देवता भी अब स्वर्ग में,
मनुज देखते न अगल बगल में।
बहार हिंसक जीवों के जीवन में,
अबोध कट रहीं यहाँ अंग अंग में।
अब शेष रहा क्या इस जीवन में,
एक ही कामना है बस इस मन में।
नहीं नाम रहे पापियों का जग में,
बस अमन चैन रहे अपने वतन में।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश
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नमन भावों के मोती
आज का विषय, स्वतंत्र लेखन
दिन, रविवार
दिनांक, 9,6,2019
नींद नहीं आती अब आँखों में,
बात यही बस है एक जहन में ।
नारीत्व आज क्यों है संकट में ,
क्या वापस हम आये जंगल में।
आज दुधमुँही बच्चियाँ संकट में,
अब न खेलेंगी ये पास पड़ोस में ।
छिपा कौन भेड़िया किस कोने में,
आग लगा दे जाने कब जीवन में ।
अब न जरूरत मादा की धरा में,
जियें दरिंदे यहाँ पर अकेलेपन में।
शेष नहीं पुरुषार्थ जिनके मन में,
फूल खिलें क्यों उनके आँगन में।
सो गये देवता भी अब स्वर्ग में,
मनुज देखते न अगल बगल में।
बहार हिंसक जीवों के जीवन में,
अबोध कट रहीं यहाँ अंग अंग में।
अब शेष रहा क्या इस जीवन में,
एक ही कामना है बस इस मन में।
नहीं नाम रहे पापियों का जग में,
बस अमन चैन रहे अपने वतन में।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश
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शुभ संध्या
।। समाज के बिगड़ते हालात ।।
द्वितीय प्रस्तुति
बच्चे भी अब टेन्शन में रहते हैं
हालात आज के कुछ कहते हैं ।।
क्या सुनेंगे किसी की सीख डाँट
अंगार उनमें पहले से बहते हैं ।।
हालात बदतर होते जा रहे हैं
अदब अब खोते जा रहे हैं ।।
तरक्की की सीढ़ी चढ़ रहे हैं
पर इंसानियत धोते जा रहे हैं ।।
क्या होगा समाज का स्वरूप
दिख रहा आज चेहरा कुरूप ।।
घटती घटनायें व्यक्त करती हैं
चाहिए समाज को सख्त भूप ।।
जो संभाले लचर कानून व्यवस्था
दे अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा ।।
बहुत देखी स्वतंत्रता ''शिवम" अब
नही चाहिए स्वतंत्रता का और मजा ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/06/2019
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द्वितीय प्रयास🌹🌺🌹🌺🌹
शुभ संध्या सभी को🙏🙏
विषय:-संवेदना
विधा:-क्षणिका
1)))
संवेदनहीन हाँ शायद
हूँ में संवेदनहीन ,जो टूट
रहा है भीतर ही भीतर
"नीलू" क्या है वो हृदय
मन दिमाग के अंदर
जो घुमड़ रहा है
2)))))
संवेदना मन के अहाते
में उतरी कुछ वेदना
"नीलू " पढ न सकी
दुनियाँ अवचेतन मन
की कल्पना
3))))
कोमल संवेदनाएं
मरने लगी हैं शायद,
लोगो के स्वार्थ के
आगे"नीलू"तभी"
मौन हैं जिजीविषा
के आगे बाल मन
स्वरचित
नीलम शर्मा #नीलू
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सादर नमन
स्वतन्त्र लेखन में मेरी रचना
गर्मी के इस माहौल ने ,
सब डावाँडोल कर दिया,
रात को बनते प्रोग्राम ,
सुबह कदम पिछे कर लिया,
तपती गर्मी ने धरा को,
आग से नहला दिया,
बरस जाओ रे बादलों,
विनति करता ये जिया,
लू के थपेड़ों ने ,
सबका जीना दुश्वार किया,
इस तपती गर्मी ने,
बुझा दिया प्राणों का दीया।
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
9/6/19
रविवार
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नमन मंच को
विषय : स्वतंत्र लेखन
दिनांक : 09/06/2019
विधा : ग़ज़ल
गमों का आकाश
दिल में गमों का आकाश है ,
तेरे जाने के बाद मेरे पास है ।
बस रह सकूं मैं यहां चैन से ,
एक ऐसी जमीन की तलाश है ।
यहां यादें न तेरी सताएं मुझे,
पता तेरा न कोई बताए मुझे ।
एक गुमनाम जिंदगी की चाह है ,
इश्क़ फिर से न दे दे सजाएं मुझे ।
दर्द ए इश्क़ का अब तक अहसास है ,
बस रह सकूं मैं यहां चैन से,
एक ऐसी जमीन की तलाश है ।
देता ताने जमाना अब भी तेरे नाम से,
जीना मुश्किल है होकर यूं बदनाम से।
अब तो इतना भी हमको गवारा नहीं,
कोई फिर न खेले दिल ए नादान से।
अब न इश्क़ से नाता रहा खास है
बस रह सकूँ मैं यहां चैन से,
एक ऐसी जमीन की तलाश है ।
जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर , पंजाब ।
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नमन मँच
दिनाँक-09/06/2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
शीर्षक- गाँव और शहर
शहर में हम ढूंढ रहे, एक नया आशियाँ।
वो गाँव अब मन का नही,जिस गाँव ने बड़ा किया।।
होती थी जहाँ बैठकें, पीपल की छाँव में।
गाती थी गीत औरतें, हर एक काम में।।
चाचा का मन में खौफ़ था, पापा की डाट थी।
हर एक के मन में बसी, बस एक बात थी।।
कि नाम अपने गाँव का, रौशन करेंगे हम।
होकर बड़े इस गाँव का, काया करेंगे कल्प।।
पर क्या करें अब भा रहा है, शहर वो मुझे।
अपनी तरफ बुला रहा है, शहर वो मुझे।।
सपनों में पँख मैं लगा दूँ, कह रहा है वो।
तुमको गगन में मैं उड़ा दूँ, कह रहा है वो।
वो कह रहा है आओ, मैं शोहरत तुम्हे दूँगा।
सम्मान दूँगा साथ में, दौलत तुम्हे दूँगा।।
पर मन मेरा अब मुझसे ही, यह प्रश्न कर रहा।
कि गाँव जैसा है सुकून, शहर में कहाँ।।
तुमको कहाँ मिलेगी, वह छाँव नीम की।
पेड़ के नीचे की, वह नींद खाट की।।
जाने की है तमन्ना, तो जाओ शहर में।
जब ऊब जाना, लौट आना इसी चमन में।।
रवि 'विद्यार्थी'
सिरसा मेजा प्रयागराज
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नमन मंच को
द्वितीय रचना
स्वतंत्र लेखन
दिनांक : 09/06/2019
बच्चियों को आखिर
नाजो से उसे पाला मैंने,
हर मोड़ पे उसे संभाला मैंने।
अब रोज़ ही आती है़ बुरी ख़बर,
बेटियों का बाप हुं, लगता है़ डर।
हंसते है़ सब मैं कहता हुं तो,
दिल का दर्द मैं किसे सुनाऊं,
घात लगाए हर मोड़ पे बैठे,
बच्चियों को आखिर कहां लें जाऊं ।
बच्चियों को आखिर कहां लें जाऊं ।
एक चोट जो उसको लगती तो ,
दिल मेरा जख्मी होता है़।
उसे क्यूँ इंसान भी कहते हो,
जो इतना बेरहमी होता है़।
नर पिशाच न होंगे देश में ,
किससे मैं उम्मीद लगाऊं,
घात लगाए हर मोड़ पे बैठे,
बच्चियों को आखिर कहां लें जाऊं ।
इन पापियों पे क्यूँ मेहरबां सरकारें ,
सर कलम की सजा क्यूँ नहीं सुनाते।
इंसाफ न मिला निर्भया को अब तक,
तभी तो हौंसले बढ़ते जाते।
जाओ लाडली निशचिंत होकर,
कैसे उसे यकीन दिलाऊँ
घात लगाए हर मोड़ पे बैठे,
बच्चियों को आखिर कहां लें जाऊं ।
बच्चियों को आखिर कहां लें जाऊं ।
जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर , पंजाब ।
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भाव के मोती : स्वतंत्र लेखन
**********************
दर्द .......
********
दर्द की कोई ज़बान नहीं होती
दर्द की कोई पहचान नहीं होती ।
दर्द की कोई जात न कोई मज़हब होता है
न रंग ,न रुप ,न कोई लिबास होता है ।
उसकी सीमा निर्धारित नहीं होती है
उसका दायरा भी सीमित नहीं होता है।
दर्द का कोई अपना पराया नहीं होता है
अमीर ग़रीब का भेदभाव नहीं होता है ।
उसका कोई नाम ,कोई निशान नहीं होता है
उसका कोई देश ,कोई गाँव नहीं होता है।
उसके नज़दीक कोई बडा या छोटा नहीं होता
कोई खरा या खोटा नहीं होता ।
दर्द अपनों से मिला हो या ग़ैरों से
दर्द तो बस दर्द होता है !!!!
स्वरचित(c)भार्गवी रविन्द्र .....बेंगलूर
९/६/२०१९
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भावों के मोती दिनांक 9/6/19
स्वतंत्रलेखन
विधा लघुकथा
मेरा साथी मेरा मकान
" अब मैं क्या करूँगा , कैसे समय गुजारूँगा आफिस में तो काम करते चार लोगों से बात करते समय का पता ही नही चलता ।"
रामलाल जी आज अपनी उम्र के 60 साल पूरे करते हुए सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो रहे थे । उन्होंने अपनी नौकरी ईमानदारी और मेहनत से की थी । इसीलिए सब उनकी इज्जत करते थे । उन्होंने अपने संबोधन भी यहीं बाते कहीं थी ।
एक हाथ गैदे के फूल की माला लिए उन्होंने घर में प्रवेश किया ।
पत्नी रमा तो खुश थी कि अब रामलाल के साथ समय गुजरेंगा नहीं तो जिन्दगी भागदौड़ में ही गुजरी थी ।
बहुऐ नाकभौ सिकोड़ रही थी अभी तक सास की ही टोका-टोकी थी अब ससुर को मी दिनभर झेलो ।
खैर रामलाल इन सब बातों से दूर थे शुरू में आफिस चले जाते थे और बिना किसी लालच के अपनी सीट का काम करते थे जो ज्यादा दिन नहीं चल सका जिसको सीट दी थी वह अपने हिसाब से कमाई करते हुए काम करना चाहता था । इसलिए उन्होने आफिस जाना छोड़ दिया ।
एक दिन रामलाल बाजार से लौट रहे थे तभी उन्हें अपने मकान की बाउन्डरी की दिवाल में दरार दिखी जो बढती जा रही थी और कभी भी वह गिर सकती थी ।
रामलाल ने ठेकेदार को बुला कर काम चालू करवा दिया अब मजदूर और उनके बच्चों के साथ बात करते , रामलाल का समय गुजरने लगा ।
जब यह काम खत्म हुआ तो फिर उन्हें खालीपन लगने लगा ।
सेवानिवृत्ति पर पैसा तो मिला ही था उन्होंने ऊपर की मंजिल का काम शुरू करवा दिया ।
रामलाल अपने मकान की बेटे की तरह देखभाल करते और ध्यान देते ।
इस तरह कैसे उनका समय गुजर रहा मालूम ही पड रहा था साथ ही जरूरत से ज्यादा हिस्से को वह जरूरतमंद को किराये पर देने लगे उन लोगों से बातचीत और मेल-मुलाक़ात से अच्छा समय गुजरने लगा उनके इस काम में रमा भी साथ देने लगी ।
जहाँ चाह राह के चलते रामलाल जी का सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने आप को व्यस्त रखते हुए अच्छा समय गुजारने लगा और उनका मकान भी जो पहले उनकी व्यस्तता के कारण उपेक्षित सा था अब बन-संवर रहा था ।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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"जिस दिशा में नफरत थी"
प्यार के गांव में
अपनों ने मुझे रोक लिया,
जिस दिशा में नफरत थी
मैं उधर गया ही नहीं l
आशाएं बांटता रहा
दोस्तों के बीच
जीवन यादों से भर गया,
निराशा के अँधेरों में
मैने सफर किया ही नहीं l
राहों में अजनबी मिले
अपनें बनते चले गये
हाथ बंन्धन से भर गया,
जीवन कहता और चल
दिल अभी भरा ही नहीं l
मै प्यार हूँ हर प्रीत का
संस्कार हूँ हर रीत का
मेरी डोर सबसे बंधी रहे,
जिस गीत में मधुर प्रीत न हो
वो गीत मैंने लिखा ही नहीं l
ये वादियां ये चाँद-तारे
ये मौसमों का आना-जाना
मेरी फितरतों की मिसाल है,
जो नफरतों में जीता है
वो किरदार मैनें जीया ही नहीं l
प्यार के गांव में
अपनों नें मुझे रोक लिया,
जिस दिशा में नफरत थी
मैं उधर गया ही नहीं l
श्री लाल जोशी "श्री"
(तेजरासर) मैसूरू
९४८२८८८२१५
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