Sunday, July 14

"स्वतंत्र लेखन" 14जुलाई 2019

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ब्लॉग संख्या :-447
सिर्फ तुम
सुनो ,ये गीत,नज्म,गजल यूं 
ही नही लिखे है,

एक तुम ही हो जिस पर इतने
जत्न किये है,
बस हसरत सिर्फ यही की
छू लू तुम्हे एक बार
की मेरा वहम न हो तुम 
आ गया मैं भी तुम्हारी तरह
रूहानी महफ़िल में जहां 
इबारत केवल इश्क की लिखी
जाती है
कितने अजीब कारीगर है यहां
पत्थर के हथोड़े से कांच के मानिंद
दिल पर वार करते है,
चलो अब न पढ़ो गुपचुप मेरे लिखे को,
सीधे मेरा दिल ही देखलो ,तुम ही तुम हो
और कुछ नही सिवा तुम्हारे।

एक झील थी इस शहर में
एक तालाब था मेरे गाँव में, 
एक बाग़ था इस शहर में

एक पींपल था मेरे गाँव में,
जाते थे लोग सैर को
रुकते थे हम भी छांव में,
एक झील थी इस शहर में।

आती थी चिड़ियां उड़ती हुई
झुकती थी कलियां खिलती हुई,
उड़ती थी तितलियां और सोन चिड़ी
मिलते थे लोग आठों घडी,
गाते थे मोर, पपीहरा
सुनती थी शाम ढलती हुई,
एक प्यार था हर लहर में
मिलती थी निगाह, निगाह में,
एक झील थी इस शहर में।

अब पत्थरों का शहर है
पानी नहीं जहर है
झील कहाँ, तालाब कहाँ
पींपल वहाँ न बाग़ यहाँ,
विकाश की आड़ में
मिट रहे हैं कई निशां,
आदमी की बढ़ती आस
तालाब सूने बारहों मास
आशाओ में लुट गए
झील-तालाब सब मिट गए
कुछ चिमनियां इस शहर में
कुछ ईंट-भट्ठे मेरे गाँव में,
जो खाली जगह थी शहर की
उसे भर दिया मेरे गाँव ने,
एक झील थी इस शहर में।

आसमां में जो शोर है
वो शायद चिड़ियों का नहीं
राग नहीं, अनुराग है
मोर-पपीहे दिखते नहीं,
मिलते हैं लोग कुछ पाने को
जीवन की कमियां छुपाने को,
आदमी की भूख ने
खा लिया है चारागाह
जीव-पंछी सब सिमट गए
कितने करेंगे हम गुनाह,
"कुछ बस्तियां इस शहर में
जिन्हें बसा दिया मेरे गाँव ने,
बड़ी बेरुखी इस शहर में
बड़ी आस है मेरे गाँव में,

एक झील थी इस शहर में
एक तालाब था मेरे गाँव में
एक बाग़ था इस शहर में
एक पींपल था मेरे गाँव में।

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।

दिनांक-14/07/2019
कलम से आज लिख दूं अंगार..

बागी एक सितारा हूँ।

किसी के आहो का आवारा हूँ।

कलम क्यों उगलती आज आग।

अक्षर से ही बनते चिंगारी।

हरदम जलते नभ में शोले

बादल बनते बिजली के क्यारी।

क्यों ही जलती सदैव

अतुल्य भारत की हर नारी।

जिसके नयनों में दीपक जलते

करुण क्रंदन पे विश्व हँसते।

सांसो से झरता स्वप्न पराग।

मन में भरा एक उश्चवास।

हँस के उठते पल में आद्र नयन।

छा जाता जीवन में एक बसंत।

लुट जाता संचित अनुराग।

यह नहीं है जीवन ऋतुराज।

है यह एक घोर अवसाद........?

स्वरचितय
सत्य प्रकाश सिंह
केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज इलाहाबाद

नमन भावों के मोती
स्वतंत्र सृजन
14/07/2019


सावन
********
सावन का मौसम आया है।
यह सबके मन को भाया है।
है हरा भरा चहुँओर दृश्य,
मन में उमंग अब छाया है।।

कर रहा नृत्य देखो मयूर।
पर साजन मेरे है सुदूर।
वह विरह वेदना समझ मेरी,
लगता है आएँगे जरूर।।

पेडों पर कूक रही कोयल।
मन में मेरे जल रही अनल,
है सावन जब से आया यह,
मिलने की इच्छा हुई प्रबल।।

मन विरह में तड़प रहा मेरा।
आकाश, मेघ ने है घेरा।
हैं सखियाँ मेरी पूँछ रही,
कब साजन आएगा तेरा?

©® रविशंकर 'विद्यार्थी'
सिरसा मेजा प्रयागराज


दिन -रविवार 
दिनांक -14/07/2019

विषय -स्वतंत्र लेखन 
========================
(रचना...वंदना)
***********************
नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,
हे माँ तेरा गुणगान करूँ।
ज्ञानप्रदायनी, वीणावादनी,
माँ तेरी जयकार करूँ,....
तेरे आंचल में जो आता,
जीवन धन्य धन्य हो जाता।
ज्ञान प्रफुल्लित चहुँ दिशा में,
दीपक बनकर सदा फैलाता।
माँ कर दे राह मेरी आलोकित,
नमन मैं बारम्बार करूँ।
ज्ञानप्रदायनि वीणावादनी,
माँ तेरी जयकार करूँ.........
नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,
हे माँ तेरा गुणगान करूँ।
हंस सवारी मां कहलाती,
वाणी में भी है बसती।
सदमार्ग मिले हे मातेश्वरी,
जब जब वीणा है बजती।
वीणा की झंकार बजा दे,
ज्ञान का तरकश हे मां भर दे।
रज तेरे चरणों की बनूँ,
विनती मैं बारम्बार करूँ,
ज्ञानप्रदायनी वीणावादनी,
माँ तेरी जयकार करूँ।
नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,
हे मां तेरा गुणगान करूँ,...

(स्वरचित /मौलिक रचना )
....भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखण्ड)

हाँ दबे पाँव आयी वो दिल में मेरे, दिल पें दस्तक लगा के चली थी गयी।
खोल के दिल की कुण्डी मैं सोचूँ यही, मस्त खूँशबू ये आके कहा खो गयी॥
हाँ दबे पाँव....
***
सोच मौका दोबारा मिले ना मिले, ढूँढने मै लगा जिस्म सें रूह तक।
पर वो मुझको दोबारा मिली ना कभी , जाने मुझको सता के कहा खो गयी॥
हाँ दबे पाँव...
***
बात वर्षो पुरानी है पर ये मुझे, ऐसा लगता है जैसे की अब ही हुआ।
जब भी ठंडी हवाओ का झोकाँ उठे, मेरा दिल ये कहे तू यही पास है॥
हाँ दबे पाँव....
***
शेर एहसास ए दिल में दबाता रहा, ख्वाब में भी सदा मुस्कराता रहा।
आज फिर मुझको खुँशबू मिली है वही, जाने ए महफिल मे तू ही कही तो नही॥
हाँ दबें पाँव....

********************
स्वरचित एंव मौलिक 
शेर सिंह सर्राफ 
नयी बाजार देवरिया, उ0 प्र0
पिन- 274001
ईमेल .. Sher3639@gmail.com

14 /7/2019
बिषय ,स्वतंत्र लेखन

,,सावन,,
कैसी सावन की बहार 
बरषे रिमझिम फुहार
छाय रही कारी कारी रे बदरिया
धरा पहने मुतियन हार
करे हरित सिंगार
दुल्हन बन सजी ओढ़े हरी रे चुनरिया
सरिता नागिन सी बलखाय
कलकल शोर मचाय
मानो आज चली है ए पिय की नगरिया
ये पवन अलबेली
कर रही अठखेली
बीच राह में उड़ाय रही गोरी की चुनरिया
गर मेहंदी रचे हाथ
और साजन का हो साथ
फिर सारी दुनिया की नहीं रे खबरिया
कोउ बाबुल घर जाए
कोउ ठाड़ी पछताए
देखे भैया की राह चढ़ी चढ़ी रे अटरिया
सावन ऋतु मन भाए
क्यों न सुषमा गुनगुनाए
छलक उठी गीत रस की गगरिया
स्वरचित,, 
सुषमा ब्यौहार ,


विधा लघुकविता
14 जुलाई 2019,रविवार

सबका साथ और विकास हो
सत्य अहिंसा हृदय निवास हो।
जन जन में हो नित भाई चारा
हर मानस परमेश्वर वास हो।

गङ्गा जमुनी निर्मल संस्कृति हो
ईश्वर अल्लाह अंतर कभी न हो।
पावन मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में
द्वेष भाव कट्टरता कभी न हो।

हिन्दू मुस्लिम भाई भाई हो
दिल में लंबी खाई कभी न हो।
एक पिता की हम सब संताने
जनजन मध्य अंतर कभी न हो।

भिन्न भिन्न पर एक सभी हम
भरी विविधता पर एकता हो।
शस्य श्यामल भारत भूमि पर
यत्र तत्र सुवासित भव्यता हो।

स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान

विषम :- बहार
विधा:-
नज्म
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹

बहारों ने फिर से मुह छिपा लिया .
मैं ने जो तेरा नाम उनको बता दिया ।।

गुनगुनाने लगी थी मैं भी गीत एक
कोयल ने भी तब खुद को छिपा दिया

मदहोश थी निगाहें जब मोहब्बत के नाम से
फिर क्यों जमाने ने गमों को पिला दिया ।

जाओ खुश रहो ये दुआ है हमारी तुम से
अपना हिस्स खुशियों का अब मिटा दिया ।

ढूंढ लाओ सुकून-ए-चैन अपना तुम
हमने चाहतों को अपनी बेमुरादी बना दिया ।

कैसे चैन पायेगी "नीलू"अब बतादें ये रूह
सभी तोहमतें को उसके सर लगा दिया

साँझ /शाम/संध्या पर हाइकु1)
हुआ मिलन
पूर्व संग पश्चिम 
जनमी साँझ ।।
2)
बच्ची थी संध्या 
रजनी जवाँ हुई
भोर दे गई ।।
3)
ढ़ेर है रवि
क्षितिज के पलंग 
शाम की छवि।।
4)
रवि की छाया
धरती पर शाम
चांद ने लाया।।
5)
प्रभा ने चूमा 
विभोर रवि आँखे 
मूदें तो शाम।।
6)
भूख की ज्वाला
लुप्त सुप्त जग ले 
शाम निवला।।
7)
व्यस्त व्यापर
घोषणा करे शाम
लो अब आराम
8)
प्रचंड रवि
शाम कहे जग से
मृदुल छवि ।।
9)
बन प्रदीप 
सिमटी ये रश्मियाँ 
शाम को दीप्त।।
●●●●●●●
क्षीरोद्र कुमार पुरोहित 
बसना,महासमुंद,छ,ग,

।। किसान की पीड़ा ।।

बारिश के बलबूते बैठे

बारिश के तेवर हैं रूठे ।।

हम ठहरे किसान भैया 
कहाँ से आऐंगे रूपैया ।।

एक जरिया खेती है
वो ही नैया खेती है ।।

दूजा न कोई चारा है
ये जीवन बेसहारा है ।।

लाज बचाये पालनहारा 
बुरा वक्त न आए दुबारा ।।

पिछली साल सूखा था 
बद्री काका भूखा था ।।

कौन किसकी करे मदद
लोगों की थी कम अदद ।।

भागे थे परदेश सारे 
जवान बूढ़े औ गभुआरे ।।

सरकारी मदद थी दिखावा
पंचायत को चढ़े चढ़ावा ।।

क्या करें मजबूरी है
गरीब अमीर में दूरी है ।।

अमीर अमीर बनता जाए
गरीब सर को धुनता जाए ।।

जब से देश आजाद है
बड़ों के बड़े परवाज़ है ।।

छोटे धूल फांक रहे 
बड़े गिद्ध से तांक रहे ।।

हम जमीर के पक्के रहे 
इसलिये हमें धक्के रहे ।।

गाँव की खुशी शहर खायी
फिर एक बुढ़िया जहर खायी ।।

जाने कब उत्पात रूकेगा 
इंसानियत को इंसा झुकेगा ।।

'शिवम' जमाना ये ठीक नही 
अब गम में कोई सरीख नही ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/07/2019

14/07/19
विषय काश

*
काशशशशश.....
छोटे से शब्द का 
अंतहीन भार...
असीमित संभावनाओं 
के मध्य इसका सार ..
आशाओं आकांक्षाओं के 
मध्य डोलता ..
कभी निराशा और 
अवसाद में डूबता ...
समय के बंधन से मुक्त
सारी युक्तियों से युक्त 
मस्तिष्क पर अधिकार जता
दिलों पर नियंत्रण कर रहता 
ये काशशशश..
काश 
मेरा काश भी पूरा हो जाये..
कोई मासूम मेनहोल में न समाये
भरी बस की सवारियां सुरक्षित रहें 
काश कृषकों की फसलें मौसम 
की मार से बची रहें 
कोई मासूम दरिंदगी का शिकार न हो
युवा नशे की गिरफ्त से दूर रहें 
काश "चमकी "अब न आये 
काश व्यवस्था सुधर जाये 
काश..
सबकी निरोगी काया हो जाये ...
काश.....

स्वरचित
अनिता सुधीर


 सादर प्रेषित : भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन


अहसास हमारे
""""'""""""""""""""

आओ! हम संचय कर लें
इठलाती सुधियों को
इन नेहिल रातों में..।

आँखों से बह निकला दरिया
तोड़ किनारे यादों में,
बह गये थे हम दोनों ही संग में
ख़ामोशी और वादों में...।

शाख़ से झरते फूलों को जब
शूलों ने ही छिल दिया,
आँख से रिसते दो आँसू को
पीड़ा ने ही लील दिया..।

मौन विवशता सहनी होगी
अधरों पर यादें लेकर के,
नयनों के दर्पण में सुधियाँ
सांसों में वादे लेकर के...।

कहाँ गये वो मधुरिम सपने
आशाओं के दीप जलाके,
प्रणय-वाटिका की यादों
हरित दूब में शीप लगाके...।

शब्दातीत है अहसास हमारे
सागर यह पार नहीं होता,
दूर हुए आँगन से मधुवन
अभिमान पर वार नहीं होता..।।

✍🏻गोविन्द सिंह चौहान


विधाःः काव्यःः

धर्म क्या हमें यही सिखाता,
ईश्वर अल्ला अलग अलग हैं।
सच आँख मूंद के यही देखते,
ईश्वर अपना अलग थलग है।

धर्मांध हुऐ हैं सभी यहां हम,
ये मानवता अब कहाँ रही है।
अधर्म साथ इंसानियत रोती,
कहीं संवेदनाऐं यहाँ नहीं है।

बंटे हुए सब हिंदू मुस्लिम में,
असल धरम मानवता खोई।
जातपात के बंधन में बंधकर,
धर्म आड सुख शांति खोई।

क्या ऐसा ही जीवन जीना है।
रोज हलाहल हमको पीना है।
समझें एक ईश की सब संतानें,
सत्य हमें संगसंग ही जीना है।

तुम कितना किसको काटोगे।
अपने स्वजन जिनको मारोगे।
धर्म नहीं जो वैरभाव बतलाऐ,
रागद्वेष में तुम दिलको हारोगे।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

दिनांक-14.07.2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा-ग़ज़ल
अर्कान-फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
मात्राभार-2122 1122 22/112
======================
ख्वाब सीने में सजाया हमने ।
बे वफ़ा दोस्त बनाया हमने ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
टूटती साँस है अब आ जाओ,
ख़बर कर यार बुलाया हमने ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
शादमां हो न सके तुम आख़िर ,
तुमको बेकार सताया हमने ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
रोकते आप तो लानत होती,
क़ौम का बोझ उठाया हमने ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
आपसे आँख मिलाकर अपनी ,
प्यार में नाम कमाया हमने ।।
====================
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया "अ़क्स"
बाह -आगरा (उ०प्र०)


विधा लघुकथा 

संस्कार 

संगीता घर में सबसे छोटी बहू बन कर आयी है, 

रामलाल के तीन लड़के हैं जो नौकरी

करते हैं । दो की शादी हो गयी है बहुएं बड़े घरों

से हैं , उन्हें किटी पार्टी, बर्थडे पार्टियों से फुर्सत ही नहीँ मिलती । दोनों के दो दो बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं , उनका होमवर्क कराने का किसी के पास समय नहीं होता । वह परेशान होते रहते हैं । आखिर बच्चों को ट्यूशन लगा दी । एक एक बच्चे के दो दो हजार लग रहे थे । लड़के भी अपनी अपनी पत्नियों के खर्चों से और स्कूल फीस , टयूशन परेशान थे , लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे थे ।

तीसरे बेटे की शादी के समय रामलाल ने पैसे की जगह संस्कारों को महत्व दिया और संगीता को घर ले आये । संगीता पढ़ी लिखी समझदार लड़की है उसके घर आते ही दोनों जेठानियों ने अपने रंग में रंगने की कोशिश की , लेकिन संगीता ने अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से जीने का तय किया ।

संगीता के व्यवहार से बच्चे, बड़े सब उसको चाहने लगे थे । जब संगीता को मालूम हुआ कि बच्चे पढ़ाई और होमवर्क के लिए परेशान होते हैं, और घर से आठ हजार रूपये फीस भी जाते हैं , तब उसने बच्चों को ट्यूशन नहीं भेजने का निश्चय किया ।

अब जब दोनों जेठानियाँ दोपहर को 

बाजार , किटी पार्टी में जाती तब संगीता चारों बच्चों को पढ़ाने बैठ जाती । इस तरह बच्चों का ट्यूशन जाना बंद हो गया , इससे पैसे भी बचे और बच्चों का जाने आने का समय भी बच गया ।

रामलाल भी संगीता की इस पहल से बहुत खुश हुए और अब संगीता मोहल्ले के दूसरे बच्चों को भी पढ़ाने लगी ।

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


स्वतंत्र लेखन
विधा लघुकथा 

संस्कार 

संगीता घर में सबसे छोटी बहू बन कर आयी है, 

रामलाल के तीन लड़के हैं जो नौकरी

करते हैं । दो की शादी हो गयी है बहुएं बड़े घरों

से हैं , उन्हें किटी पार्टी, बर्थडे पार्टियों से फुर्सत ही नहीँ मिलती । दोनों के दो दो बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं , उनका होमवर्क कराने का किसी के पास समय नहीं होता । वह परेशान होते रहते हैं । आखिर बच्चों को ट्यूशन लगा दी । एक एक बच्चे के दो दो हजार लग रहे थे । लड़के भी अपनी अपनी पत्नियों के खर्चों से और स्कूल फीस , टयूशन परेशान थे , लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे थे ।

तीसरे बेटे की शादी के समय रामलाल ने पैसे की जगह संस्कारों को महत्व दिया और संगीता को घर ले आये । संगीता पढ़ी लिखी समझदार लड़की है उसके घर आते ही दोनों जेठानियों ने अपने रंग में रंगने की कोशिश की , लेकिन संगीता ने अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से जीने का तय किया ।

संगीता के व्यवहार से बच्चे, बड़े सब उसको चाहने लगे थे । जब संगीता को मालूम हुआ कि बच्चे पढ़ाई और होमवर्क के लिए परेशान होते हैं, और घर से आठ हजार रूपये फीस भी जाते हैं , तब उसने बच्चों को ट्यूशन नहीं भेजने का निश्चय किया ।

अब जब दोनों जेठानियाँ दोपहर को 

बाजार , किटी पार्टी में जाती तब संगीता चारों बच्चों को पढ़ाने बैठ जाती । इस तरह बच्चों का ट्यूशन जाना बंद हो गया , इससे पैसे भी बचे और बच्चों का जाने आने का समय भी बच गया ।

रामलाल भी संगीता की इस पहल से बहुत खुश हुए और अब संगीता मोहल्ले के दूसरे बच्चों को भी पढ़ाने लगी ।

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


मैं तुम्हारे साथ आना चाहता हूँ
************************

बैठ तेरी इश्क़ की बेचैनियों में
मैं वफ़ा के गीत गाना चाहता हूँ,
नाकामियों के जर्द राहों को कुचलकर
मैं गमों में मुस्कुराना चाहता हूँ,

दो अधूरे एक पूरे हो चलेंगे,
एक दूजे के नजर में खो चलेंगे
जो कोई शिकवा शिकायत रह गया जो
अश्रु की पावन नदी में धो चलेंगे

जो तुम्हारे और मेरे दरमियाँ हैं
मैं वही पर्दा गिराना चाहता हूँ....

सारी खुशियाँ,सब बहारें,सब नजारें ,
फूल,खुशबू, चांदनी और चाँद- तारे
ऋतु वसन्ती की महकती क्यारियों को,
जागती आंखों के महके ख्वाब सारे...

चाँद-सूरज के अकड़ को धूल करके,
मैं तेरे कदमो में लाना चाहता हूँ....

गन्धवाही जुल्फ की छाये में रहकर,
दग्ध-अधरों के नसीले ताप सहकर,
पर्वतों के भार ज्यों धरणी बेचारी,
लड़खड़ाती कुन्तलों का भार सहकर

बह रहा मंदिरा नशीली आँख से जो,
इस नशे में डूब जाना चाहता हूँ....

तुम हमारी कामना मेरी लगन हो,
तुम हमारी जुस्तजू अहले चमन हो
तुम हमारे प्रेम की हो ....रास्ता
नीव तुम ही हो हमारी तुम भवन हो...

स्वर्ग के राजा -रसीले इंद्र को
भाग्य पर अपने जलाना चाहता हूँ....

पाट कर जो खाईयां हैं दरमियाँ
मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ...

छोड़ कर दुनिया के सारे भरम,
मैं तुम्हारे साथ आना चाहता हूँ

बैठ तेरी इश्क़ की बेचैनियों में
मैं वफ़ा के गीत गाना चाहता हूँ,
नाकामियों के जर्द राहों को कुचलकर
मैं गमों में मुस्कुराना चाहता हूँ,

© राकेश पाण्डेय

नमन मंच 🙏
स्वतंत्र लेखन आयोजन 
दिनांक- 14/7/2019
शीर्षक- "गुब्बारे वाला"
विधा- कविता
*************
शीशे की दुकान थी, 
पिज्जा हट बनाम थी, 
बर्गर, पिज्जा सब था, 
बच्चों से हट छप था |

अंदर बच्चे खुश थे, 
खाने में खूब मस्त थे,
बाहर का आलम जुदा था, 
गरीब बच्चा वहाँ खड़ा था |

फटी कमीज, छोटी पेंट, 
हाथ में गुब्बारे पकड़े, 
चेहरे पे मुस्कान लिये, 
वो बच्चा बाहर खड़ा था |

मन में टीस मेरी उठी,
मैं बाहर को चली गई, 
अंदर उसे,मैं ले आई,
पिज्जा पार्टी उसे कराई |

गुब्बारे सारे खरीद लिये, 
खरी कमाई उसकी कराई, 
मुस्कान उसकी ऐसी खिली, 
ओंस की बूँद जैसे मोती बनी |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


वारः-रविवार
विधाः-कविता हास्य सृजन

शीर्षकः-काश चाट पकौड़े हम भी बेच पाते

शुक्रवार की रात को चढ़ा ली थी हमने सपने में भांग।
इसीलिये कल शनिवार के स्थान दिया सोमवार टांग ।।

लगता मुझे उतरा नहीं है पूरी तरह से उसका असर ।
इसीलिये लेखनी मेरी आज भी छोड़ नहीं रही है कसर ।।

फरमा रहें बड़े बड़े नेता करना है अगर आपको ठाट ।
छोड़ सारे काम काज बेचन लागिये पकोड़े और चाट।।

हो गये हैं बोर हम बहुत सुन कर ज्ञानियों की टर टर।
बेचना चाहते थॆ चाट हम, पिता श्री ने बनाया डाक्टर।।

बच्चों के सहारे ही चाहते थे करना हम तो पूरे ठाठ।
चाहा हमने दोनों पुत्र हमारे, बेचें मिल कर मंहगी चाट।।

बोले पापा सठियाये ही नहीं वरन गये हो आप अठिया।
बैठ कर करिये राम भजन और तोडिये केवल खटिया।।

बिकवाना चाहते हैं पापाश्री, क्यों हमसे ही आप चाट।
आती नहीं बनानी हमें, मारेगा खाने वाला कस के चाट।।

करिये मत बुध्दि का प्रयोग अपनी न ही करिये टर टर।
मानी नहीं बात हमारी, बना एक शिक्षक दूजा डाक्टर।।

होगी ही नहीं पूऱी इच्छा भगवान, हमारी बेचने की चाट।
या लेना पडेगा गोद, पला पलाया बेटा बेचने को चाट।।

हो नहीं चाहे ज्ञान उसे, करता हो वह सोलह दूना आठ ।
वही बेटा बेच कर पकौड़े चाट करायेगा हमारे पूरे ठाठ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादावादी”
स्वरचित


14/7/2019
स्वतंत्र लेखन
छंद मुक्त कविता
************
*मन के किवाड़*

बातें भी 
खटखटाती हैं
मन के किवाड़ fc
जो सदियों से बंद पड़े हैं।
मन के उस हिस्से में
जंग लग गया है
जो खोलने पर 
शोर मचाते हैं 
वो बंद ही रहना चाहते हैं।
वो अनमने 
मन के द्वार न जाने कब से
यूँ ही अकड़े खड़े हैं
मगर उन्हें नहीं पता कि
बातें नहीं मानेंगी
वो पहुँच ही जाएंगी
कहीं न कहीं से सेंध लगाकर
क्यों कि बातें 'कहीं'नहीं जातीं
बातें 'कही'जाती हैं 
बातें बांटी जाती हैं
बातें काटी जाती हैं
छाँटी जाती है बनाई जाती हैं
फिर फैलाई जाती हैं
बातें भी खटखटाती हैं 
मन के किवाड़....!!

-वंदना सोलंकी©️स्वरचित

पीढ़ी दर पीढ़ी
जीवन की सीढ़ी
संस्कार सिखाती
जीने का ढंग बताती
सेवा भाव जगाती
माँ गोदी में खिलाती
बचपन, किशोरावस्था में
दोस्त खूब बनाते हैं
हँस हँस कर बाते करते
बात बात पर खिलखिलाते है
किशोरावस्था के बाद 
जब युवावस्था आती
जीवन में वह
परिवर्तन है लाती
युवा जब पढ़ता है
निश्चित ही आगे बढ़ता है
नव तकनीक का प्रयोग करता है
जीवन के ख़ालीपन को भरता है
जब कभी वह पथ से भटक जाता है
अंधकार ही उसे नज़र आता है
अंतिम सीढ़ी वृद्धावस्था
जब आती है
चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं
बचपन से बुढ़ापे का सफर
ऐसे ही कटता जाता है
दीये का तेल
ऐसे ही घटता जाता है
कुछ ख्वाहिशें
पूरी हो जाती है
तो कुछ ख्वाहिशें
अधूरी ही रह जाती हैं

हरीश सेठी 'झिलमिल'

विषय- स्वतंत्र लेखन
_________________
प्यार में पागल दिल
क्यों भूल जाता है
माँ-बाप की ममता
उनका त्याग-बलिदान
उनका मान-सम्मान
जो दिन-रात देखे सपने
क्या कोई मोल नहीं 
जो पल भर में टूटकर
बिखर जाते ज़मीं पर
रह जाते सिर झुकाए
अपनी संतान की जिद्द पर
उस हर एक पल को याद करते
जब चोट लगी बच्चों को
तब खुद दर्द में उनके रोए
अपने सपने ताले में बंद कर
बच्चों के सपनों में खोए
करते रहे ज़रूरतें पूरी
छोड़ अपनी जरूरतें अधूरी
सब क्षणभर में बिखर जाता
जब बच्चों से मिलता धोखा
प्यार में यह कैसी मजबूरी
माँ-बाप से बढ़ जाती दूरी
झुकाकर सिर समाज में उनका
पूरा कर लेते अपना सपना
मत कहो स्वार्थी हैं माँ-बाप
जो प्यार के आड़े आते हैं
स्वार्थी तो वो संतानें हैं
जो अपने प्यार के पीछे
माँ-बाप की ममता भुलाते हैं
***अनुराधा चौहान***©स्वरचि


नमन माँ शारदे।🙏
विषय मोबाईल 
दिनांक 14/07/19
******************

जिसके देखो उसके हाथ,
मोबाईल है सब के साथ।

जेबों में धड़कन गिनता,
पर्सों में पैसों से मिलता।

फ़रेबी दुनियाँ का ये राज,
आभासों का पहनता ताज।

इसका रिश्ता बड़ा निराला,
जग को परिवार बना डाला।

नेट से इसका ताना-बाना,
गूगल देता ज्ञान खजाना।

वाट्सअप मित्रों से मिलाता,
फेसबुक संसार बसाता।

रिश्तेदारों की जला होली,
खयाली दुनियाँ हम जोली।

माँ-बेटे का रिश्ता छाया।
फैलायी ये कैसी माया ।।

बच्चों का तन घडती माता।
स्वयं का तन भी मर जाता।।

माँ के हुऐ भाग्य कैसे??
अंतिम कर्म हुऐ वी सी से। 

आधुनिकता की बली चढ के।
अस्थियाँ आई कूरियर से।।

स्वरचित
मीनू "रागिनी "
14/07/19
भावों के मोती:
#दिनांक:१४"७"२१:
#विषय_स्वतंत्र लेखन:
#विधा_काव्य लेखन:
#रचनाकार:दुर्गा सिलगीवाला सोनी:

*""""* मर्यादा पुरुषोत्तम *"""*

भय बिन होय ना प्रीत यह रीत,
यही नीत जगत को सिखलाया,
षठ संग षठ सा व्यवहार करो,
यह सदजन जन को सिखलाया,

नर के रूप में जन्म नारायण का,
धरती को निश्चर से हीन किया,
पाषाण अहिल्या उद्धार किया,
शिवरी को भी जिसने चीन्ह लिया,

आज्ञा वन भ्रमण पिता की थी,
राजपाठ का भी सब त्याग किया,
सीता सी पत्नी खोकर जिसने,
रावण कुल का भी संहार किया,

नीति अनीति का पाठ पढ़ाने,
अपराजित बाली वध कर डाला,
स्वीकारी हनुमत सी सेवकाई,
लंका का दहन भी करवा डाला,

मर्यादित हर एक कृत्य था उनका,
तभी मर्यादा परसोत्तम कहलाए,
ब्रहमास्त्र चलाने वाले खुद भी,
शरणागत हो सब शीश झुकाए, 

ऐसे श्रीराम के चरण कमलों में,
विनय वत है यह जग सारा,
"दुर्गा" की भी अब यही विनती है,
फिर से जन्म लला लो दोबारा,


 बारिश पर गजल साथियों नमस्कार,
गजल,
सावन की है पहली बारिश,

लो धरती पर उतरी बारिश।।

रात अंधेरी बिजली बारिश,
हवा के संग ही बरसी बारिश।।

ठंडी आहों रात गुजरती,
यादो की ढिबरु जलती बारिश।।

नदी दौड़ती मिलने सागर से,
मिलन के गीत गाती बारिश।।

बूंदो की पायल पहन बदली,
दर्द भरे नगमें गाती बारिश।।

यहाँ जीना है यहाँ मरना हमें,
कहाँ जायेगी जिन्दगी बारिश।।
स्वरचित देवेन्द्रनारायण दासबसना छ,ग,।।।


दिनांक _१४/७/२०१९ 
विषय _स्वतंत्र 
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
प्रात:नमन में, 
सूर्य से कहा मन ही मन में। 
क्यों अपनी तपिश से 
जन जन को झुलसा रहे हो। 
सूखती धरा, सूखते पेड़ 
रहम करो, अब मान जाओ। 
आहत भरे शब्दों में सूर्य ने कहा, 
मैं तो जीवन दे रहा हूँ। 
व्यर्थ में तुम लानत दे रहे 
मैं तो बस प्रकाश हूँ। 
अपनी आराधना में ये मत मांग 
क्योंकि ये संग्राम घनघोर है 
दोष सब तुम्हारा है 
पर्यावरण से खिलवाड़ कर 
संकट तूने खुद बुलाया है। 
मांगती कुछ और इससे पहले 
रह गयी बात मन की मन में ही। 

तनुजा दत्ता (स्वरचित) 


 गीत

मौसम बदला हुआ सुहाना,

हर्षित जन मन आज।
गीत सुनाती पुरवा डोले
लेकर नूतन साज।

तन सहलाती गुनगुन गाती
राग मेघ मल्हार ।
झूम रहे है तरुवर देखो,
शीतल चली बयार।

लाया सावन झूम झूम कर
बूँदों की सौगात।

गीत सुनाती---'

कारे कारे बदरा छाते
ढँक लेते आकाश 
नर्तन करती बिजुरी रानी
चम चम करे उजास

गरज गरज कर उमड़ उमड़ कर
घन बरसे दिन रात

गीत सुनाती---

रिमझिम बरसात

बूँदें कंचे खेल रही हैं 
लिए काँच सम गात
चूम चूम कर भू का आँचल
करते मन की बात।

हर्षित होकर मयूर नाचे
पंख बिखरते जात

गीत सुनाती---

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
14-7-2019


स्वतंत्र लेखन
विधा-कविता

मुद्दतों बाद
आज धूल छाड़ कर
एलबम उठा लाई
कितनी सहेज के रखी थी
मैंने यादो की किताब
जैसे ही पलटे पन्ने
कुछ भूले
कुछ याद रहे वादे
निकल आये
कुछ किस्से
जो तेरे मेरे बीच थे
मुखरित हो गयी वो यादे
चटक रंग लिए
खुलने लगे पन्ने दर पन्ने
मन में दबी लिप्सा
फिर जाग उठी
उग आए आँखों में
चाहत अनगिनत
महक उठे कुछ छंद
बनते बिगड़े
नये पुराने अनुबंध
कुछ फूल खिले
कुछ कांटे चुभे
कुछ खटका हुआ
अचानक तन्द्रा टूटी
वर्तमान में जब देखा
तुम थे और तुम्हारी यादे
क्षितिज के आंचल में
जब लालिमा ने सूरज लिया
फागुन के रंगों से
भीगा वो तेरा स्पर्श
मन के सुने आंगन में
फिर तुम्हारी यादो से
जा टकराई
बोल तो न कुछ पाई
बस थोड़ी लड़खडाई
मुद्दतों बाद फिर
खुद से मुलाकात कर आई

शोभा गोयल
मेरे लफ़्ज़ों से....


दिनांक ... 14-07-2019
वार ... रविवार 
स्वतंत्र लेखन ..

स्वतंत्र सृजन के अंतर्गत मानव मन की अपूर्ण इच्छा पूरी न होने पर ....,बेबसी को दर्शाती हुई रचना आपके समीक्षार्थ .....,

*बेबसी*
-----------
बाबू हरि वंश राय जो जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं 
पर उनके मन की इच्छा जागृत हो उठी जो उन्होंने 
अपनी पत्नी के संग सोचा था कि एक बार चार धाम 
की यात्रा सपरिवार करें |
पर दुनियादारी के चक्कर में पूरी न हो सकी ,पत्नी भी 
पिछले साल सांसारिक यात्रा पूरी कर अकेला छोड़ 
परलोक सिधार गई थी ,बाबू जी पूरी तरह से टूट गए थे | हमेशा सदा खुश रहने तथा बात बात पर खिल खिला कर हँसने वाले इंसान ने एक चुप्पी सी ओढ़ ली,
और धीरे धीरे अंदर से टूटने लगे |
उन्होंने कई बार बेटे को बोला की एक बार परिवार सहित चार धाम की यात्रा करा दे ताकि मै चैन से तेरी 
माँ के पास जा सकूँ ,बेटे ने कहा एक बार सिंगापुर से टूर से आ जाऊं फिर चलते हैं | 
आज बाबू जी ने खाना खाते समय जब से समाचार सुना है कि चार धाम की यात्रा केदारनाथ मे आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण अनिश्चित काल के लिए स्थगित है तब से कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रहे थे ,जो चेहरे पर साफ झलक रही थी .....,जैसे कुछ छूट रहा हो ....,आँखों में घोर निराशा के बादल छा रहे थे .....,एक वीरानी सी चुप्पी .....,जैसे जीवन के अंतिम क्षड़ों में कुछ खोने का अहसास .....,वहीं कुछ अधूरा रहने का मलाल ,
मानो अभी नहीं तो कभी नहीं ....,उम्मीदें टूटने लगी ....,दिल में एक हूक सी उठ रही थी ....,जैसे कोई ख्वाब अधूरा सा रह गया हो ,जो अब पूरा नहीं हो सकता |
कुछ इसी तरह के निराशा भरे विचार के भवँर में डूबते उतराते उस रात बाबू जी सोये तो ....फिर उठ नहीं सके ....,सुबह का सूरज नहीं देख सके |
हाँ ,चेहरे पर उदासी और बेबसी का भाव साफ झलक 
रहा था ...|
शशि कांत श्रीवास्तव 
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब 
©स्वरचित लघु कथा


कविता

सुर्योदय का अपूर्व दृश्य

अवनि से अंबर तक दे सुनाई
मौसम का रुनझुन संगीत
दिवाकर के उदित होने का
दसों दिशाऐं गाये मधुर गीत।

कैसी ऋतु बौरायी मन बौराया
खिल-खिल जाय बंद कली
कह दो उड़-उड़ आसमानों से
रुत सुहानी आई मनभाई भली।

धरा नव रंगो का पहने चीर
फूलों में रंगत मनभावन
सजे रश्मि सुनहरी द्रुम दल
पाखी करे कलरव,मुग्ध पवन ।

सैकत नम है ओस कणों से
पत्तों से झर झरते मोती
मंदिर शीश कंगूरे चमके
क्यों पावन बेला तूं खोती।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।


दिन :- रविवार
दिनांक :- 14/07/2019
आयोजन :- स्वतंत्र लेखन व 
दृश्य, श्रव्य प्रस्तुति

तुम बिन जिंदगी है अधूरी...
तुम ही हो रिश्तों की धूरि..
तुमसे ही है हर खुशी मेरी...
तुम ही हो पूरी जिंदगी मेरी..
ख़याल मेरे है ख्वाब तुम्हारे है..
जिंदगी मेरी अब नाम तुम्हारे है..
एहसास बनकर आई हो..
खुमारी बनकर छाई हो..
जीवन की इस डगर पर..
सँग चलती परछाई हो..
कोई अंधकार न तुम्हें मुझसे छिने..
आ विश्वास के कुछ धागे बुने..
सुंदर झील का शीतल एहसास तुम...
सरगम का हो मधुर साज तुम..
सौंदर्य की तुम प्रतिमा हो...
पल-पल उभरती प्रतिभा हो...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


विद्या.. लघु कविता
(भोजपुरी भाषा में गीत)

"बरसे ले बदरिया सावन में"

बरसे ले बदरिया सावन में,
बहके ला इ मनवा सावन मे।
बदरा में सजेला फूलन के गजरा
गोरिया भी सजेलीं सावन में।

गरजे ले बदरिया सावन में,
करवट जो बदले याद सताए
अखरे ले दूरी मन घबराए ,
पिया न आवे रात सताए 
बरसे जब बदरिया सावन में।

चमके जब बिजुरिया सावन में,
निंदिया भी उड़ावे सावन में।
याद पिया के सबके सतावे,
बरसे जब बदरिया सावन में।

बेला जो महके याद सतावे,
निंदिया उड़ावे चैन चुरावे।
याद पिया के हर पल सतावे।
बरसे जब बदरिया सावन में।

गोरी जो तड़पे , मन बा इ बहके 
हरियाली जो छाए , गोरी मन भाए।
बारिश के बूंद मन में आष जगावे
बरसे जब बदरिया सावन में,
बहके ला मन सभी के सावन में।।
(अशोक राय वत्स) © स्वरचित
जयपुर


14/07/2019
स्वतंत्र लेखन
################
प्रीत को अब भुलाने लगी हूँ।
खत तेरे मैं जलाने लगी हूँ।।

नेह का दीपक जो जला था।
दीपक वो बुझाने लगी हूँ।।

प्रीत के हर डगर छोड़कर मै।
नफरतों को मुस्कुराने लगी हूँ।।

देखती अब न सपने ख्वाब में।
जागी अरमां सुलाने लगी हूँ।।

आंसू जो भी मिला था सफर में।
जिंदगी से सुखाने लगी हूँ।।

हर मिले जख्मों को छुपाकर।
किस्मत आजमाने लगी हूँ।।

कौन है अपना इस दूनिया में।
बात दिल को बताने लगी हूँ।।

जिंदगी में रहा रात सा पहर।
राह पे लड़खड़ाने लगी हूँ।।

आस न होती पूरी सभी की।
दूनिया को बताने लगी हूँ।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।।


स्वतन्त्र लेखन में मेरी रचना
विषय- सहारा
जिंदगी के सागर में,
सुख-दुख का भँवर है,
क्या होगा कल यहाँ,
किसको ये खबर है,
आँसूओं की नदी में,
हो तेरे प्रेम की पतवार,
उम्मीदों के सहारे,
खुशियों के होंगे हम हकदार,
परेशानियों के दलदल में,
ना खुद को ड़ूबने देना है,
मजबूत इरादों संग चलें,
साथ हौंसलों की सेना है।
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
14/7/19
रविवार


नमन भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
दिन, रविवार
दिनांक, 1 4,7,2019,

**यादें**

चिराग मीठी यादों के तुम दिल में जलाये रखना 
यादों में अपनी अपनों को सदा बनाये रखना ।

होगा बहुत ही लम्बा सफर हमारी जिंदगानी का,
सहारा अपनी यादों का जरूर ही बनाये रखना ।

मुमकिन है हो कभी लड़खड़ाना तेरे कदमों का ,
हिदायतें अपने माँ बाबा की अंर्त में जगाये रखना ।

छोड़ना नहीं दामन कभी भी अपने संस्कारों का,
अपने पुरखों की दहलीज हमेशा बसाये रखना ।

कागज की वो नाव भीगना रिमझिम बरसातों का ,
बचपन के दोस्तों के प्यार को महकाये रखना ।

ऐतवार हमेशा ही करना तुम अपने रिश्तों का ,
महकते फूलों जैसा अपना गुलशन सजाये रखना ।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश.

नमन् भावों के मोती
दिनांक:14जुलाई19
विषय: जामुन
विधा: कविता

बस यूं ही लिखा
आप सब को शायद अच्छी लगे

पेड़ों पर झूमती है जामुन
मन्द हवा के झोकों से
सबको ललचाती है जामुन
बदली हुई फिजाओं से

कच्चे-पक्के हैं जामुन
काली मेघ घटाओं में
काली-काली है जामुन
रिमझिम मस्त फुहारों में

बागों में इठलाते हैं जामुन
बच्चों संग शोख़ अदाओं में
जिह्वा स्वाद बढ़ाते हैं जामुन
खुशियों संग विभिन्न दवाओं में

मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली


।। मेरा पथ ।। 

मेरा पथ उस बवण्डर में जा चुका है 
जिसमें तुम गुम-सुम सी बैठी हो, 
उस अंधियारे मुख के बाहर रुखसत है 
जिसको तुम कल्पना का नाम देती हो, 
उन सुनसान राहों से गुजरे कैसे, बता दो 
जिस पथ पर हमने-तुमने स्वप्न संजोये हो, 
राह इतनी मुश्किल क्यों कर चली हो 
जैसे तुम रोज मेरा इम्तिहान ले रही हो, 
नादान उन स्वप्नो को फिर से संजोने में 
क्यूँ तुम मेरा इम्तिहान ले रही हो, 
उन हँसी पलो को यूँ तो न ले जाओ 
जिसमें तुम्हारी रूह बसी हो। 

भाविक भावी

Pramod Golhani 🙏🌹
दि. - 14.07.19 
्वतंत्र सृजन अंतर्गत मेरी प्रस्तुति सादर निवेदित.... 
=============================

मुहब्बत से मिलो सबसे तल्ख़ व्यवहार छोड़ो भी |
भरा जो नफरतों से वो चलो बाजार छोड़ो भी ||

अमन औ चैन हो कायम रहे खुशहाल ये बस्ती ,
जो दुश्मन हैं सदाकत के सभी औजार छोड़ो भी |

रखो मासूमियत दिल में अकड़ हरदम नहीं अच्छी,
कभी इजहार भी कर लो चलो इनकार छोड़ो भी |

बना लो तुम मकां ऊँचे जोड़ लो खूब दौलत पर,
बिना ईमान के जो हो रहा व्यापार छोड़ो भी |

फिजाँ में घोलकर नफरत तमाशा देखते हैं जो,
सियासत के नुमाइंदों से अब इकरार छोड़ो भी |

वतन से कुछ नहीं बढ़कर वतन अभिमान है अपना,
वतन के वास्ते अब आपसी तकरार छोड़ो भी |

बने तो काम ही आओ पराया दर्द अपनाओ,
करे कल याद ये दुनिया "सरस" आधार छोड़ो भी |
============================
#स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस 
कहानी सिवनी म.प्र.

स्वतंत्र लेखन 
विधा कविता

इतर

गुमराह होती बारिश

बारिश भी 
आज हो रही
बेईज्ज़त 

खुश होने के
बजाय 
कोसते हैं 
बारिश को 
इन्सान 

भर जाता है
पानी 
शहर, मोहल्ले,
गली में 
करता है त्राहि त्राहि 
इन्सान 

बांध देते है 
नदी झील के 
रास्तों को
अतिक्रमण कर
फैलाते जा रहे 
कांक्रीट के जाल
धरती रहती है 
प्यासी 
कहर बन जाता है
पानी 

चेतो अभी भी
स्वार्थी , मतलबी
इन्सान

जिन दिन 
हो जाऐगी
प्रकृति बेरहम
तरसोगा
एक एक बूँद के लिए 
इन्सान 

स्वलिखित लेखक 
संतोष श्रीवास्तव भोपाल


विधाःकविता

* गीतः
उस भारत -भू का अभिवंदन।
जिसकी रज , चंदन का चंदन।

शुभ्र किरीट हिमालय जिसका,
चरण पखारे अविकल सागर।
रवि-शशि सुभग आरती करते,
सु-स्तव गाते विहग के निकर।
कलिका मुसका,कुसुम विहँसकर,
करते नित प्रति जिसका स्वागत,
विविध रूप से भूषित करतीं,
क्रम से षड्ऋतुएँ आ - आकर।

जहाँ ठिठकता यम का स्यंदन।
उस भारत - भू का अभिवंदन।

जगत् वंद्य जिसकी शुचि संस्कृति,
आर्ष - ग्यान जिसका संपूजित।
विश्व - वंधुता , विश्व - शान्ति स्वर,
जिसके श्वास - श्वास में स्फूर्जित।
जहाँ अतिथि को देव मानते ,
संग्रह में भी त्याग , दान है,
शरणागत का सदा समादर ,
एक - तत्व सर्वान्तर - दर्शित।

जहाँ नृपति रहते विदेह बन।
उस भारत -भू का अभिनंदन

गूँजी जहाँ कृष्ण की गीता,
वाणी कवि वाल्मीकि - व्यास की।
मथा सिन्धु उर , रचा सेतु भी,
हेम - लंक राक्षसी नाश की।
भूतल , जल में , अंतरिक्ष में,
शौर्य - ध्वजाएँ जिसकी फहरीं,
आतंकी दानवता पोषक ,
को सौगातें , मिलीं त्रास की।

बहु रंग - विरंगे जहाँ सुमन।
उस भारत-भू का अभिनंदन।।

--डा. 'शितिकंठ'

Damyanti Damyanti

सखी कारी कारी घटा छाई ,
बादल उमड घमडशोर मचाये ।
कह गयेपावस ऋतु मे आवन की ,छलिया छल कर गये बान ललचाने की ।
दामिनी दमके हृदय मे हलचल,
डडंक पडेजब फुहारें पडे सावन की ।
चातक तरसे स्वाति बूँद को मैं तरसू तुझसे मिलन को।
जब तक ज्ञान न आवे न हो गुरू मिलन ।
ईश्वर बिन कौन गुरू जो हृदय मे समाऐ ।
आस मिलन की विरह मे झडी लगी नैनन मै ।
पावस ऋतु लगे बैरन सम ,मिलेन राम रमैया ।
है गुरू वर करो कृपा हो हृदय मे वास श्यामा श्याम का ।नित दर्शन करू ।
दमयन्ती मिश्रा ।


नटखट नन्हें


मैंने सुनी उसकी मोहक पदचाप
मेरे कमरे को उसने लिया था नाप
नन्हीं दंतावली की अलग पहचान थी
होठों पर एक गर्वीली मुस्कान थी।

हाथों में थोड़े खिलौने थे
मधुर भावों के बिछौने थे
कोई तो पूरा साबुत था
किसी के टूटे हुए कौने थे।

मुझे उत्साह से बतलाती थी
कितनी प्यारी तुतलाती थी
न समझ में आने वाली शैली में
कितना मुझको बहलाती थी।

मैं सम्मोहित हो हाॅ में हाॅ मिलाता था
मुझको भी अनजाने में गुप्त धन मिल जाता था
मन का मुरझाया पौधा अनायास खिल जाता था
उदासी का वो खम्भा बुरी तरह हिल जाता था।

नन्हें नन्हें अबोधों में है कितना आनन्द भरा
परमेश्वर ने इनमें कितना इसको छान छान धरा
निर्मलता का अकूत ख़ज़ाना इन के हास्य में झरा
निहाल हो गई वसुंधरा और निहाल हो गई ये धरा।

बच्चे आबाद रहें

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त


दिनांक-१४/७/२०१९
स्वतंत्र लेखन 
कविता
यह संसार एक भूलभूलैया
यही है इसका हकिकत भैया
संत महात्मा जान गये सब
ज्ञान का मार्ग अपना गये सब
धन दौलत का चमक दमक
ये सब तो हमें भरमाते
बस हकिकत है इतना
अपना लें हम परमार्थ का मार्ग
खुल जाते जब ज्ञान चक्षु
दिख जाये तब असली स्वरूप
सारे ब्रम्हांड बस एक से ही
हम सब बस उनके स्वरूप
कर्म सबका अलग अलग
मार्ग सबका अलग अलग
मंजिल बस एक है
वह मंजिल बस तू है।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती....

ग़ज़ल - वो शफ़क़ शर्म हया तेरी भुला भी न सकूं....

इश्क़ ज़ंजीर बनी खुद को छुड़ा भी न सकूं....
ज़ख्म पैराहन-ए-वफ़ा मैं सिला भी न सकूं....

ज़िन्दगी रोज़ मुझे मिल के बिछड़ जाती है...
टूटते दिल में बसाऊं क्या बिठा भी न सकूं....

शाम अटकी है मेरी चाँद हिना हाथों पे..
वो शफ़क़ शर्म हया तेरी भुला भी न सकूं....

वो समझ पायें वफ़ा इतनी तो उम्मीद नहीं....
पर तगाफुल-ए-सज़ा उनकी भुला भी न सकूं....

सांस भी कैसे तेरे नाम करूँ मैं 'चन्दर'...
जो चला भी न सकूं और बढ़ा भी न सकूं...

शफ़क़ - शाम की लालिमा 
तगाफुल - उपेक्षा 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१४.०७.२०१९

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