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ब्लॉग संख्या :-462
शाश्वत संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य की दौड़.लगी है
मैं न पीछे रह जाऊं हर
शख्स को होड़ लगी है
आधुनिकता के परिवेश में
सभ्यता को छोड़ दिया
नकली जिंदगी के चक्कर में
मनीषी संस्कृति को निचोड़ दिया
दुनियां की नजरों में चढ़ने अंग्रेजी लिबास ओढ़ लिया
हमने तो स्वयं ही विनाश से
नाता जोड़ लिया
चरण छूने की जगह कहने
लगे हेलो हाय
राम राम कहने में शर्म
कहते हैं अब वाय वाय
दीमक की तरह चारों तरफ लग चुका है यह रोग
पूरी तरह ले डूबेगा समझ
बैठे जिसको हम भोग
भावी पीढ़ी को भी हमने
ढकेल दिया सागर में गहरे
चहुं ओर से लगा दिए हैं
नकली समझौतों के पहरे
माँ को माम् पिताजी को डैड
कहलाऐंगे
एक दिन ऐसा आएगा
रिश्ते ही सब खो जाऐंगे
स्वरिचत,, सुषमा ब्यौहार
मैं न पीछे रह जाऊं हर
शख्स को होड़ लगी है
आधुनिकता के परिवेश में
सभ्यता को छोड़ दिया
नकली जिंदगी के चक्कर में
मनीषी संस्कृति को निचोड़ दिया
दुनियां की नजरों में चढ़ने अंग्रेजी लिबास ओढ़ लिया
हमने तो स्वयं ही विनाश से
नाता जोड़ लिया
चरण छूने की जगह कहने
लगे हेलो हाय
राम राम कहने में शर्म
कहते हैं अब वाय वाय
दीमक की तरह चारों तरफ लग चुका है यह रोग
पूरी तरह ले डूबेगा समझ
बैठे जिसको हम भोग
भावी पीढ़ी को भी हमने
ढकेल दिया सागर में गहरे
चहुं ओर से लगा दिए हैं
नकली समझौतों के पहरे
माँ को माम् पिताजी को डैड
कहलाऐंगे
एक दिन ऐसा आएगा
रिश्ते ही सब खो जाऐंगे
स्वरिचत,, सुषमा ब्यौहार
शीर्षक-- दौड़
प्रथम प्रस्तुति
सब अंधी दौड़ में चल रहे
एक दूसरे को कुचल रहे ।।
भूल गये जीवन का ध्येय
सच न मन में अब पल रहे ।।
क्या लक्ष्य जीवन का कौन
सुने अब वक्त नही मिल रहे ।।
कहाँ पहँचेंगें कुछ पता नही
कुछ राह में आँखें मल रहे ।।
भागना शैतानों का काम
अब इंसा इंसा न लग रहे ।।
कैसी मदहोशी यह हीरा
जन्म माटी मोल बिक रहे ।।
कभी हम इंसा कहाते थे
अब इंसान नही दिख रहे ।।
शैतान लजा जाएगा उन
राहों पर अब हम बढ़ रहे ।।
कभी शतायु हुआ करते थे
अब अर्ध शतक पर हिल रहे ।।
बच्चे भी अब चश्मा लगायें
कम्पटीशन उनको खल रहे ।।
महत्वाकांक्षा के बोझ तले
'शिवम' जी नही हम मर रहे ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/07/2019
प्रथम प्रस्तुति
सब अंधी दौड़ में चल रहे
एक दूसरे को कुचल रहे ।।
भूल गये जीवन का ध्येय
सच न मन में अब पल रहे ।।
क्या लक्ष्य जीवन का कौन
सुने अब वक्त नही मिल रहे ।।
कहाँ पहँचेंगें कुछ पता नही
कुछ राह में आँखें मल रहे ।।
भागना शैतानों का काम
अब इंसा इंसा न लग रहे ।।
कैसी मदहोशी यह हीरा
जन्म माटी मोल बिक रहे ।।
कभी हम इंसा कहाते थे
अब इंसान नही दिख रहे ।।
शैतान लजा जाएगा उन
राहों पर अब हम बढ़ रहे ।।
कभी शतायु हुआ करते थे
अब अर्ध शतक पर हिल रहे ।।
बच्चे भी अब चश्मा लगायें
कम्पटीशन उनको खल रहे ।।
महत्वाकांक्षा के बोझ तले
'शिवम' जी नही हम मर रहे ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/07/2019
दौडती भागती जिन्दगी रह गई।
फुर्सतें वक्त बस ढूंढती रह गई।
भागता - दौडता मै रहा उम्र भर।
छूट पीछे कहीं हर खुशी रह गई।
मुस्कुराती जहां उम्मीद थीं कभी।
चेहरे पर फकत मायूसी रह गई।
थम गए पांव जब मेरे जज्बात के।
पलकों पर मेरी कुछ नमी रह गई।
चल दिए तोड कर वो दिल मेरा।
मेरे साथ बस यह शायरी रह गई।
विपिन सोहल
फुर्सतें वक्त बस ढूंढती रह गई।
भागता - दौडता मै रहा उम्र भर।
छूट पीछे कहीं हर खुशी रह गई।
मुस्कुराती जहां उम्मीद थीं कभी।
चेहरे पर फकत मायूसी रह गई।
थम गए पांव जब मेरे जज्बात के।
पलकों पर मेरी कुछ नमी रह गई।
चल दिए तोड कर वो दिल मेरा।
मेरे साथ बस यह शायरी रह गई।
विपिन सोहल
भावों के मोती
शीर्षक- दौड़
अपने ही जब गैरों से लगने लगे।
तब हम गैरों पे यकीं करने लगे।।
रोना तो बहुत चाहा मगर रो न सके
कांटे राहों के अब फूल से लगने लगे।
वक्त ने मारी कुछ इस तरह चाबुक
हम घोड़ों की माफिक तेज दौड़ने लगे।
सिकवा किस बात का करें अय जिन्दगी
हपने ही सवालों से अब हम तो डरने लगे।
यूं "निलम"अब हर रिश्ते पहचाने गए
नकाब चेहरे से जब उनके उतरने लगे।
स्वरचित
निलम अग्रवाल, खड़कपुर
शीर्षक- दौड़
अपने ही जब गैरों से लगने लगे।
तब हम गैरों पे यकीं करने लगे।।
रोना तो बहुत चाहा मगर रो न सके
कांटे राहों के अब फूल से लगने लगे।
वक्त ने मारी कुछ इस तरह चाबुक
हम घोड़ों की माफिक तेज दौड़ने लगे।
सिकवा किस बात का करें अय जिन्दगी
हपने ही सवालों से अब हम तो डरने लगे।
यूं "निलम"अब हर रिश्ते पहचाने गए
नकाब चेहरे से जब उनके उतरने लगे।
स्वरचित
निलम अग्रवाल, खड़कपुर
नमन मंच
खूब लगाया दौड़ तुमने
तब जीता स्वर्ण तस्तरी!
नमन तुम्हारे हौसले को,
हिमा तुम हो उड़नपरी!
दौड़ लगाई तुमने ,
इतिहास बना डाला,
भारत का दम खम,
दुनियां को दिखला डाला!
राजेन्द्र मेश्राम "नील"
बालाघाट
खूब लगाया दौड़ तुमने
तब जीता स्वर्ण तस्तरी!
नमन तुम्हारे हौसले को,
हिमा तुम हो उड़नपरी!
दौड़ लगाई तुमने ,
इतिहास बना डाला,
भारत का दम खम,
दुनियां को दिखला डाला!
राजेन्द्र मेश्राम "नील"
बालाघाट
बिषयःः दौड
विधाःः काव्यःः
भाग दौड करता मन अपना,
फिर भी नहीं अंतर्मन में चैन।
अस्त व्यस्त हुई जिंदगी सारी,
जुटे सभी हम यहाँ दिन रैन।
दौडधूप से व्यवसाय चल गया,
नहीं मिलती हमें इससे फुरसत।
क्या अपना जीवन यूंही चलेगा,
जबतक नहीं हो जाते रूखसत।
आराम हराम हुआ है सबका,
सबकी जीवनशैली बदल गई है।
सुखशांति ढूंढते भौतिकता में,
अपनी मन मानसी बदल गई है।
नहीं दिखाई देती व्यवहारिकता ,
हम सब मोबाइल में रचे बसे हैं।
करें दौड भाग राशन पानी को
इस मनोमालिन्य में हम फंसे हैं।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
1भा.**दौड**काव्यःः
विधाःः काव्यःः
भाग दौड करता मन अपना,
फिर भी नहीं अंतर्मन में चैन।
अस्त व्यस्त हुई जिंदगी सारी,
जुटे सभी हम यहाँ दिन रैन।
दौडधूप से व्यवसाय चल गया,
नहीं मिलती हमें इससे फुरसत।
क्या अपना जीवन यूंही चलेगा,
जबतक नहीं हो जाते रूखसत।
आराम हराम हुआ है सबका,
सबकी जीवनशैली बदल गई है।
सुखशांति ढूंढते भौतिकता में,
अपनी मन मानसी बदल गई है।
नहीं दिखाई देती व्यवहारिकता ,
हम सब मोबाइल में रचे बसे हैं।
करें दौड भाग राशन पानी को
इस मनोमालिन्य में हम फंसे हैं।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
1भा.**दौड**काव्यःः
भावों के मोती
30/07/19
विषय-दौड़
छंद मुक्त कविता।
अम्बर प्रागंण में कुछ झिलमिलाते फूल खिले,
हीर कणी से चमक रहे, क्या रत्नों के लिबास पहने !
चाँद के साथ करते अठखेलियाँ हो मस्त कुछ ऐसे ,
कुछ अविस्मृत चित्र ,ज्यों चक्षु पटल पर "दौड़" चले ।
मां का तारो जड़ी चुनर,छोटे घुंघट से झांकता मुखड़ा ,
आकाश पर जड़े तारों की मेखला ओढे चंद्र टुकड़ा ।
अम्बर प्रागंण में......
कितने प्यारे, कितने न्यारे तुम निशा की सन्तति हो ,
सूरज से डरते हो कितना, आते ही छुप जाते हो।
क्या चांद तुम्हारा मामा लगता, या है कोई और ही नाता,
अपने ही जैसा रजत रेशमी रूप तुम में क्यों भर देता ।
अम्बर प्रागंण में... ।
कुछ नही कहते चुप रहते, कभी छोड़ते घर अपना ,
दिन में कंहा छुपे रहते ,क्या देखते सोकर सपना ,
कितने प्यारे कितने न्यारे,क्यों कभी नही बडे़ होते,
काश हम भी कभी न बढ़ते ,सदा सदा बच्चे रहते ।
अम्बर प्रागंण में ...
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
30/07/19
विषय-दौड़
छंद मुक्त कविता।
अम्बर प्रागंण में कुछ झिलमिलाते फूल खिले,
हीर कणी से चमक रहे, क्या रत्नों के लिबास पहने !
चाँद के साथ करते अठखेलियाँ हो मस्त कुछ ऐसे ,
कुछ अविस्मृत चित्र ,ज्यों चक्षु पटल पर "दौड़" चले ।
मां का तारो जड़ी चुनर,छोटे घुंघट से झांकता मुखड़ा ,
आकाश पर जड़े तारों की मेखला ओढे चंद्र टुकड़ा ।
अम्बर प्रागंण में......
कितने प्यारे, कितने न्यारे तुम निशा की सन्तति हो ,
सूरज से डरते हो कितना, आते ही छुप जाते हो।
क्या चांद तुम्हारा मामा लगता, या है कोई और ही नाता,
अपने ही जैसा रजत रेशमी रूप तुम में क्यों भर देता ।
अम्बर प्रागंण में... ।
कुछ नही कहते चुप रहते, कभी छोड़ते घर अपना ,
दिन में कंहा छुपे रहते ,क्या देखते सोकर सपना ,
कितने प्यारे कितने न्यारे,क्यों कभी नही बडे़ होते,
काश हम भी कभी न बढ़ते ,सदा सदा बच्चे रहते ।
अम्बर प्रागंण में ...
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
आज का विषय,
दरिया हूँ मै,
पर्वत से सागर,
दौड़ रही,जीवन,
मेरा पथ है,
चट्टानों से लड़ना,
बहना है जीवन।।1।।सेदोका
2/कैसी खुशबू,
तुम्हारे ईर्दगिर्द,
मुझे खीच लाती है,
कैसा जादू है,
प्रेम दीप जलता,
रात दौड़ के आती।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दासबसना छ,ग,।।
दरिया हूँ मै,
पर्वत से सागर,
दौड़ रही,जीवन,
मेरा पथ है,
चट्टानों से लड़ना,
बहना है जीवन।।1।।सेदोका
2/कैसी खुशबू,
तुम्हारे ईर्दगिर्द,
मुझे खीच लाती है,
कैसा जादू है,
प्रेम दीप जलता,
रात दौड़ के आती।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दासबसना छ,ग,।।
शीर्षक - दौड़
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
जीवन की इस आपाधापी में
हम नाहक दौड़ लगाए जा रहे हैं
स्वयं भी निरुद्देश्य भटक रहे हैं
अपनों को भी भटकाए जा रहे हैं
बचपन से लेकर यौवन तक
वृद्धावस्था से मरण तक
प्रभात से मध्यान्ह तक
फिर संध्या तक खुद को
समय की सूली पर लटकाए जा रहे हैं
चैन की नींद कब से न सोया
स्वप्न में भी,अवचेतन में भी दौड़ा
अतृप्त रूह को भी
आतंकित, आशंकित करके छोड़ा
मन के मतवाले घोड़े सरपट झटके दिए चले जा रहे हैं
थोड़ा थम जा जरा
जीवन मे प्राण भर पूरा
इस सत्य को स्वीकार कि
तू न रहेगा गर सांस हो अधूरा
दौड़ कर,हांफ कर
किस खोह में इसे अटकाए जा रहे हैं
सरलता से जीने में जो सुकूनहै
वो सर्वोच्चता में नहीं
भाग कर चढ़ जाएगा तू बेशक शिखर पर,
मगर ये उचित रास्ता नहीं
शिखर पर और भी हैं जो तुझे हर पल औंधे मुंह गिराने आ रहे है
जीवन वही जो दूसरे के काम आए
तब तुम्हारी दौड़ को वास्तविक आराम आए
निज स्वार्थ से ऊपर उठना शाश्वत सत्य का उद्द्येश्य है
ज्ञानी जन कब से हमें यही तो समझा रहे हैं...!!
✍️वंदना सोलंकी©️स्वरचित
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
जीवन की इस आपाधापी में
हम नाहक दौड़ लगाए जा रहे हैं
स्वयं भी निरुद्देश्य भटक रहे हैं
अपनों को भी भटकाए जा रहे हैं
बचपन से लेकर यौवन तक
वृद्धावस्था से मरण तक
प्रभात से मध्यान्ह तक
फिर संध्या तक खुद को
समय की सूली पर लटकाए जा रहे हैं
चैन की नींद कब से न सोया
स्वप्न में भी,अवचेतन में भी दौड़ा
अतृप्त रूह को भी
आतंकित, आशंकित करके छोड़ा
मन के मतवाले घोड़े सरपट झटके दिए चले जा रहे हैं
थोड़ा थम जा जरा
जीवन मे प्राण भर पूरा
इस सत्य को स्वीकार कि
तू न रहेगा गर सांस हो अधूरा
दौड़ कर,हांफ कर
किस खोह में इसे अटकाए जा रहे हैं
सरलता से जीने में जो सुकूनहै
वो सर्वोच्चता में नहीं
भाग कर चढ़ जाएगा तू बेशक शिखर पर,
मगर ये उचित रास्ता नहीं
शिखर पर और भी हैं जो तुझे हर पल औंधे मुंह गिराने आ रहे है
जीवन वही जो दूसरे के काम आए
तब तुम्हारी दौड़ को वास्तविक आराम आए
निज स्वार्थ से ऊपर उठना शाश्वत सत्य का उद्द्येश्य है
ज्ञानी जन कब से हमें यही तो समझा रहे हैं...!!
✍️वंदना सोलंकी©️स्वरचित
मापनी - -2122 , 2122 , 2122 , 2
समान्त -- आया , पदान्त-- है
🌹🌻🌲 गीतिका 🌲🌻🌹
******************************
🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒
आज सच्चे ज्ञान को हमने भुलाया है ।
शान झूठी , स्वार्थ को दिल से लगाया है ।।
पहन रखते हैं मुखौटे हम यहाँ कितने ,
भान होता और कुछ यों सच छुपाया है ।
कौन अच्छा है,भरोसा अब करें किस पर ,
बात मीठी बोल कर दिल को दुखाया है ।
खोगये हैं मीत सब , अपना नहीं कोई ,
गूँजता है " मैं " यहाँ मन में बिठाया है ।
खोजते हैं जिन्दगी को जगत में देखो ,
झाँक लें अपने दिलों में , क्या कमाया है ।।
🌹🌻🌲🍑🍒🌹
🍑 **** .... रवीन्द्र वर्मा , आगरा
समान्त -- आया , पदान्त-- है
🌹🌻🌲 गीतिका 🌲🌻🌹
******************************
🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒
आज सच्चे ज्ञान को हमने भुलाया है ।
शान झूठी , स्वार्थ को दिल से लगाया है ।।
पहन रखते हैं मुखौटे हम यहाँ कितने ,
भान होता और कुछ यों सच छुपाया है ।
कौन अच्छा है,भरोसा अब करें किस पर ,
बात मीठी बोल कर दिल को दुखाया है ।
खोगये हैं मीत सब , अपना नहीं कोई ,
गूँजता है " मैं " यहाँ मन में बिठाया है ।
खोजते हैं जिन्दगी को जगत में देखो ,
झाँक लें अपने दिलों में , क्या कमाया है ।।
🌹🌻🌲🍑🍒🌹
🍑 **** .... रवीन्द्र वर्मा , आगरा
#दिनांक:३०,७,२०१९:
#विषय:दौड़:
#विधा:काव्य:
#रचनाकार:दुर्गा सिलगीवाला सोनी:
""*****"" दौड़ ""*****""
एक कठिन संघर्ष है जीवन तेरा,
जो तू दौड़ गया तो पार गया,
तू थक गया तो हार गया,
हाथों से तेरे आधार गया,
कुछ क्षण का तुझे आराम नहीं,
सुकून नहीं तुझे एक पल का,
जीवट ही नहीं जो मंसूबे तेरे,
ठिकाना भी नहीं तेरे कल का,
समय भी नहीं है थकने का अब,
दौड़ लगाना ही अंतिम विकल्प,
नजदीक नहीं इतनी भी मंजिल
समय भी तुझे मिला है कुछ अल्प,
अवरोध मिलेंगे तुझे पग पग में,
प्रतिरोधक क्षमता तुझे दर्शाना होगा,
होगी झडी ईंट पत्थर की तुझ पर
जवाब में चट्टान तुझे बरसाना होगा,
साध निशाना तू अर्जुन बनकर,
तुझे लक्ष्य हर हाल में बेधना होगा,
अन्यथा शिकार तू हो जाएगा,
चक्रव्यूह तुझे ही भेदना होगा,
#विषय:दौड़:
#विधा:काव्य:
#रचनाकार:दुर्गा सिलगीवाला सोनी:
""*****"" दौड़ ""*****""
एक कठिन संघर्ष है जीवन तेरा,
जो तू दौड़ गया तो पार गया,
तू थक गया तो हार गया,
हाथों से तेरे आधार गया,
कुछ क्षण का तुझे आराम नहीं,
सुकून नहीं तुझे एक पल का,
जीवट ही नहीं जो मंसूबे तेरे,
ठिकाना भी नहीं तेरे कल का,
समय भी नहीं है थकने का अब,
दौड़ लगाना ही अंतिम विकल्प,
नजदीक नहीं इतनी भी मंजिल
समय भी तुझे मिला है कुछ अल्प,
अवरोध मिलेंगे तुझे पग पग में,
प्रतिरोधक क्षमता तुझे दर्शाना होगा,
होगी झडी ईंट पत्थर की तुझ पर
जवाब में चट्टान तुझे बरसाना होगा,
साध निशाना तू अर्जुन बनकर,
तुझे लक्ष्य हर हाल में बेधना होगा,
अन्यथा शिकार तू हो जाएगा,
चक्रव्यूह तुझे ही भेदना होगा,
"भावो के मोती"
30/07/2019
"दौड़"
मुक्तक
**********************
समय का पहिया निरंतर घूम रहा है,
गुजरा कल लौटकर कभी ना आया है,
माया मोह में ही फंसा रहता इंसान,
जिंदगी की दौड़ में मौत को ही पाया है।
नशा दौलत का जब किसी को लग जाता है,
दौलत की खातिर अंधी दौड़ लगाता है,
मन से दया, प्रेम और ईमान खो देता,
फिर तो भावना मन का शून्य हो जाता है।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
30/07/2019
"दौड़"
मुक्तक
**********************
समय का पहिया निरंतर घूम रहा है,
गुजरा कल लौटकर कभी ना आया है,
माया मोह में ही फंसा रहता इंसान,
जिंदगी की दौड़ में मौत को ही पाया है।
नशा दौलत का जब किसी को लग जाता है,
दौलत की खातिर अंधी दौड़ लगाता है,
मन से दया, प्रेम और ईमान खो देता,
फिर तो भावना मन का शून्य हो जाता है।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
दिनांक :- 30/07/2019
शीर्षक :- दौड़
स्वार्थ की अंधी दौड़ में...
टूट रहे रक्त के बंधन...
गूंज रहा अंधकूप में...
मानवता का क्रंदन...
बढ़ रहे अपराध कहीं...
रची जा रही बिसात कहीं...
अपनो को ही मात देते...
ऐसी सबमें होड़ लगी...
जग वालों देखो जरा...
कैसी स्वार्थ की दौड़ लगी..
अहं,वहं को आधार लिए...
स्वार्थ को अंगीकार किए...
रहते है सब इस ताक में...
वाणी के तीक्ष्ण औजार लिए...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
शीर्षक :- दौड़
स्वार्थ की अंधी दौड़ में...
टूट रहे रक्त के बंधन...
गूंज रहा अंधकूप में...
मानवता का क्रंदन...
बढ़ रहे अपराध कहीं...
रची जा रही बिसात कहीं...
अपनो को ही मात देते...
ऐसी सबमें होड़ लगी...
जग वालों देखो जरा...
कैसी स्वार्थ की दौड़ लगी..
अहं,वहं को आधार लिए...
स्वार्थ को अंगीकार किए...
रहते है सब इस ताक में...
वाणी के तीक्ष्ण औजार लिए...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
आज का विषय, दौड़
दिनांक 30 , 7, 2019 ,
आसाम की हिमा ने ऐसी लगाई दौड़ ,
ले आईं हैं छह स्वर्ण पदक दौलत हुई गौड़ ।
प्रतिभा कही भी हो आयेगी सामने तो जरूर ,
ढ़िग एक्सप्रेस के नाम से गाँव की बेटी हुई मशहूर ।
ट्रैक एंड फील्ड में उसने कर दिया कमाल ,
उन्नीस वर्ष की आयु में मचा दिया धमाल ।
भारत की शान में लगाये हैं चार चाँद ,
अपना तिरंगा झंडा लहराया आसमान ।
घर घर में आज चर्चा उस बेटी का हो रहा है ,
जिसने अभाव में भी शान बढ़ाई देश की है ।
बेटा हो या हो बेटी जज्वात उसके समझें,
सहयोग हर तरह से उसको हम अवश्य दें ।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश ,
दिनांक 30 , 7, 2019 ,
आसाम की हिमा ने ऐसी लगाई दौड़ ,
ले आईं हैं छह स्वर्ण पदक दौलत हुई गौड़ ।
प्रतिभा कही भी हो आयेगी सामने तो जरूर ,
ढ़िग एक्सप्रेस के नाम से गाँव की बेटी हुई मशहूर ।
ट्रैक एंड फील्ड में उसने कर दिया कमाल ,
उन्नीस वर्ष की आयु में मचा दिया धमाल ।
भारत की शान में लगाये हैं चार चाँद ,
अपना तिरंगा झंडा लहराया आसमान ।
घर घर में आज चर्चा उस बेटी का हो रहा है ,
जिसने अभाव में भी शान बढ़ाई देश की है ।
बेटा हो या हो बेटी जज्वात उसके समझें,
सहयोग हर तरह से उसको हम अवश्य दें ।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश ,
दौड़
🍀🍀
जीवन में सबके होड़ लगी है,
दौड़ रहे हैं सबके सब।
पैसे को कमाने की होड़ में,
छोड़ रहे हैं अपनों को सब।
पैसे तो कमा लोगे बहुत,
पर रह जाओगे अकेले जहां में।
इस पैसे की हीं खातिर,
कितने रिश्ते टूटे जहां में।
कुछ रिश्ते को भी अहमियत दो,
पास बैठ कर दुःख सुख बांटो।
थोड़ी देर गपशप करने से,
मन हल्का होता है।
वरना इस आपाधापी में मानव,
अपना सुख-चैन खोता है।
🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित
🍀🍀
जीवन में सबके होड़ लगी है,
दौड़ रहे हैं सबके सब।
पैसे को कमाने की होड़ में,
छोड़ रहे हैं अपनों को सब।
पैसे तो कमा लोगे बहुत,
पर रह जाओगे अकेले जहां में।
इस पैसे की हीं खातिर,
कितने रिश्ते टूटे जहां में।
कुछ रिश्ते को भी अहमियत दो,
पास बैठ कर दुःख सुख बांटो।
थोड़ी देर गपशप करने से,
मन हल्का होता है।
वरना इस आपाधापी में मानव,
अपना सुख-चैन खोता है।
🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित
विषय - **दौड़**
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मुक्तक
--------
दौड़ रहा पैसों के पीछे,
यह सारा संसार,
उचित कर्म नहीं करता कोई,
यह कैसा व्यापार,
युग को देते दोष सभी हैं,
दिखलाते हैं ताव-
छोड़ चुके हैं सब मानवता,
बढ़ा है अनाचार।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मुक्तक
--------
दौड़ रहा पैसों के पीछे,
यह सारा संसार,
उचित कर्म नहीं करता कोई,
यह कैसा व्यापार,
युग को देते दोष सभी हैं,
दिखलाते हैं ताव-
छोड़ चुके हैं सब मानवता,
बढ़ा है अनाचार।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया
30/07/2019
"दौड़"
1
जिंदगी दौड़
मायावी शहर में
मौत को जाती
2
"हिमा"की दौड़
आँसूं हुए बेकाबू
हिंद की शान
3
मन का दौड़
चाहत की लालसा
आशा,निराशा
4
दौलत नशा
माया देखे तमाशा
अंधी है दौड़
5
स्वार्थ की दौड़
आहत संवेदना
शून्य भावना
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
"दौड़"
1
जिंदगी दौड़
मायावी शहर में
मौत को जाती
2
"हिमा"की दौड़
आँसूं हुए बेकाबू
हिंद की शान
3
मन का दौड़
चाहत की लालसा
आशा,निराशा
4
दौलत नशा
माया देखे तमाशा
अंधी है दौड़
5
स्वार्थ की दौड़
आहत संवेदना
शून्य भावना
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
30/07/19
विषय दौड़
**
जीवन की दौड़ में
आगे निकलने की होड़ में
शूल हो पथ पर ,चाहे
भागते ही जा रहे हैं
क्या पाने के लिये
क्या खोते जा रहे हैं
क्या अंदाजा लगा पा रहे हैं!
कछुए की कहानी
हो गयी अब पुरानी
सतत चलने वाला
दौड़ हार ही जाता है
और खरगोश सो कर
भी आगे निकल जाता है ।
कोई "हिमा " "दौड़ "के
सारे पदक ले आती है,
कोई वर्जनाओं में जकड़ी
दौड़ ही नहीं पाती है
कोई दरिंदगी का शिकार
कोई अपनों से ही छली
मोहरा बन जाती है ।
कहीं जीवन दौड़
रहा है आगे ,
कहीं मौत असमय ही
आगे निकलने की होड़ में
अपनों को डरा रही है
जी रहे हैं जो
उनको भी मार रही है ।
डर लगता अब मुझे
दौड़ने से
आगे निकल गये तो
लोग छूट जाएंगे
और पीछे रहे तो
अपने साथ छोड़ जायेंगे ।
अब बस
कदम साथ ही बढ़ाते है
यहीं जीवन को स्वर्ग बनाते हैं ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
विषय दौड़
**
जीवन की दौड़ में
आगे निकलने की होड़ में
शूल हो पथ पर ,चाहे
भागते ही जा रहे हैं
क्या पाने के लिये
क्या खोते जा रहे हैं
क्या अंदाजा लगा पा रहे हैं!
कछुए की कहानी
हो गयी अब पुरानी
सतत चलने वाला
दौड़ हार ही जाता है
और खरगोश सो कर
भी आगे निकल जाता है ।
कोई "हिमा " "दौड़ "के
सारे पदक ले आती है,
कोई वर्जनाओं में जकड़ी
दौड़ ही नहीं पाती है
कोई दरिंदगी का शिकार
कोई अपनों से ही छली
मोहरा बन जाती है ।
कहीं जीवन दौड़
रहा है आगे ,
कहीं मौत असमय ही
आगे निकलने की होड़ में
अपनों को डरा रही है
जी रहे हैं जो
उनको भी मार रही है ।
डर लगता अब मुझे
दौड़ने से
आगे निकल गये तो
लोग छूट जाएंगे
और पीछे रहे तो
अपने साथ छोड़ जायेंगे ।
अब बस
कदम साथ ही बढ़ाते है
यहीं जीवन को स्वर्ग बनाते हैं ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
विषय-दौड़
दिनांक-30/07/2019
मृत्यु की दौड़............
कैसी अंजानी आहट आई
कौन नितांत अजनबी आया
जीवन की इस सूनी संध्या में
महाप्रयाण के आगोशो में
मुझे लूटने गजनवी आया
प्रारब्ध हमारा बोलेगा
जीवन के संचित स्वरो में
दुनिया मुझको देखेगी
निश्चल कर्मों के करों में
मैं तुम्हें भूल गया था
जीवन की इस आपाधापी में
मेरे हृदय के द्वार पधारो
मृत्यु आलिंगन कि इस मधुर माटी में
स्वरचित...
@ सर्वाधिकार सुरक्षित
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज इलाहाबाद
दिनांक-30/07/2019
मृत्यु की दौड़............
कैसी अंजानी आहट आई
कौन नितांत अजनबी आया
जीवन की इस सूनी संध्या में
महाप्रयाण के आगोशो में
मुझे लूटने गजनवी आया
प्रारब्ध हमारा बोलेगा
जीवन के संचित स्वरो में
दुनिया मुझको देखेगी
निश्चल कर्मों के करों में
मैं तुम्हें भूल गया था
जीवन की इस आपाधापी में
मेरे हृदय के द्वार पधारो
मृत्यु आलिंगन कि इस मधुर माटी में
स्वरचित...
@ सर्वाधिकार सुरक्षित
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज इलाहाबाद
विधा:कविता
विषय:दौड़
जिन्दगी दौड़ती रही और इतिहास बन गया
छोटे-छोटे कदमों को आसमान मिल गया
बचपन की भाग- दौड़ को नया आयाम मिल गया
जीवन की हर लक्ष्य आसान बन गया
अम्मा-पापा के प्यार से जीवन संवर गया
गुरु आशीर्वाद से हर दौड़ जीत गया
शिक्षा और ज्ञान का सागर मिल गया
सुनहरे सपनों को पंख लग गया
मोहब्बत की दौड़ भी पास कर गया
प्रिया संग जीवन आसान हो गया
रिश्ते-नातों व समाज में घुल मिल गया
जिन्दगी दौड़ती रही और इतिहास बन गया
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
विषय:दौड़
जिन्दगी दौड़ती रही और इतिहास बन गया
छोटे-छोटे कदमों को आसमान मिल गया
बचपन की भाग- दौड़ को नया आयाम मिल गया
जीवन की हर लक्ष्य आसान बन गया
अम्मा-पापा के प्यार से जीवन संवर गया
गुरु आशीर्वाद से हर दौड़ जीत गया
शिक्षा और ज्ञान का सागर मिल गया
सुनहरे सपनों को पंख लग गया
मोहब्बत की दौड़ भी पास कर गया
प्रिया संग जीवन आसान हो गया
रिश्ते-नातों व समाज में घुल मिल गया
जिन्दगी दौड़ती रही और इतिहास बन गया
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
भावों के मोती दिनांक 30/7/19
दौड़
होता नहीं
मुकाम नज़दीक
लक्ष्य गर
दिख जाए
लगाओ दौड़
बिना रूके
मंजिल
पहुँच जाऐंगे
हिमा है
भारत की शान
इच्छाशक्ति
जगाई मन से उसने
आत्मविश्वास
बढ़ाया उसने
फिर लगाई
ऐसी दौड़
विश्व में बढ़ाया
भारत का मान
थक जाते है
बुढ़ापे में
भागते दौड़ते
गुजरती उम्र
जब होती
आराम की उम्र
बच्चे वॄध्दाश्रम
की दौड़
लगवा देते हैं
मत डरो
दौड़ से
कोई आगे तो
कोई पीछे
रहेगा ही
उम्मीद है यह
आज नहीं
तो कल
आगे आएंगे ही
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
दौड़
होता नहीं
मुकाम नज़दीक
लक्ष्य गर
दिख जाए
लगाओ दौड़
बिना रूके
मंजिल
पहुँच जाऐंगे
हिमा है
भारत की शान
इच्छाशक्ति
जगाई मन से उसने
आत्मविश्वास
बढ़ाया उसने
फिर लगाई
ऐसी दौड़
विश्व में बढ़ाया
भारत का मान
थक जाते है
बुढ़ापे में
भागते दौड़ते
गुजरती उम्र
जब होती
आराम की उम्र
बच्चे वॄध्दाश्रम
की दौड़
लगवा देते हैं
मत डरो
दौड़ से
कोई आगे तो
कोई पीछे
रहेगा ही
उम्मीद है यह
आज नहीं
तो कल
आगे आएंगे ही
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
भावों के मोती
विषय- दौड़
==================
वायु वेग से दौड़ता मन
ख्यालों में खोया
ख्व़ाबों पर सवार
कभी धरती आकाश
कभी तारों के पार
मस्त मगन हो फिरे मन
संघर्ष तो तन का किस्सा है
भाग-दौड़ इसका हिस्सा है
खोना-पाना,पाना-खोना
चलता यूँ ही अफसाना
ज़िंदगी भर भागते
मंज़िल के पीछे दौड़ते
पथरीले रास्तों पर
अनुभव की अनुभूतियाँ
सत्य का अहसास
जीवन के रंग देखकर
थककर विचलित हो
फिरते शांति की खोज में
भाग-दौड़ की ज़िंदगी में
आराम के पल तलाशने
दौड़ती हुई ज़िंदगी
कुछ पाने की आस में
थकती,रुकती फिर दौड़ती
ज़िंदगी एक दौड़ है
जीवन के अंत तक दौड़ाती
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित
विषय- दौड़
==================
वायु वेग से दौड़ता मन
ख्यालों में खोया
ख्व़ाबों पर सवार
कभी धरती आकाश
कभी तारों के पार
मस्त मगन हो फिरे मन
संघर्ष तो तन का किस्सा है
भाग-दौड़ इसका हिस्सा है
खोना-पाना,पाना-खोना
चलता यूँ ही अफसाना
ज़िंदगी भर भागते
मंज़िल के पीछे दौड़ते
पथरीले रास्तों पर
अनुभव की अनुभूतियाँ
सत्य का अहसास
जीवन के रंग देखकर
थककर विचलित हो
फिरते शांति की खोज में
भाग-दौड़ की ज़िंदगी में
आराम के पल तलाशने
दौड़ती हुई ज़िंदगी
कुछ पाने की आस में
थकती,रुकती फिर दौड़ती
ज़िंदगी एक दौड़ है
जीवन के अंत तक दौड़ाती
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित
पटल
वार : मंगलवार
दिनांक : 30.07.2019
आज का विषय : दौड़
विधा : काव्य
गीत
हम तुम सारे दौड़ा करते ,
चैन किसे मिलता है !
समय यहाँ पर भरे कुलाँचे ,
पग पग पर छलता है !!
कुछ पाने की सदा लालसा ,
मन में जागा करती !
अभिलाषाएं संभल संभल कर ,
इसीलिये डग भरती !
उम्र तो बस बदले पड़ाव है ,
जैसे दिन ढलता है !!
जन जीवन क्या और नियति भी ,
नित को दौड़ लगाते !
जितना पाओ उतना थोड़ा ,
ज्यादा से न अघाते !
तन थक जाये , मन दौड़े है ,
अवसर कब टलता है !!
बचपन , यौवन और बुढापा ,
हाय हाय कर बीते !
जाने कितने प्रश्न न सुलझे ,
सदा रहे मनचीते !
क्या हासिल ना कर पाये बस ,
वही हमें खलता है !!
धन , वैभव , पद , कुर्सी चाहो ,
आन , बान और शान !
धर्म , सभ्यता और संस्कृति ,
फैशन , मद और मान !
राह रुके ना राही रुकता ,
मन टेढ़ा चलता है !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )+
वार : मंगलवार
दिनांक : 30.07.2019
आज का विषय : दौड़
विधा : काव्य
गीत
हम तुम सारे दौड़ा करते ,
चैन किसे मिलता है !
समय यहाँ पर भरे कुलाँचे ,
पग पग पर छलता है !!
कुछ पाने की सदा लालसा ,
मन में जागा करती !
अभिलाषाएं संभल संभल कर ,
इसीलिये डग भरती !
उम्र तो बस बदले पड़ाव है ,
जैसे दिन ढलता है !!
जन जीवन क्या और नियति भी ,
नित को दौड़ लगाते !
जितना पाओ उतना थोड़ा ,
ज्यादा से न अघाते !
तन थक जाये , मन दौड़े है ,
अवसर कब टलता है !!
बचपन , यौवन और बुढापा ,
हाय हाय कर बीते !
जाने कितने प्रश्न न सुलझे ,
सदा रहे मनचीते !
क्या हासिल ना कर पाये बस ,
वही हमें खलता है !!
धन , वैभव , पद , कुर्सी चाहो ,
आन , बान और शान !
धर्म , सभ्यता और संस्कृति ,
फैशन , मद और मान !
राह रुके ना राही रुकता ,
मन टेढ़ा चलता है !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )+
सादर प्रणाम
विषय=दौड़
🌺☘🌺☘🌺
आजकल चल रही है खूब अंधी दौड़
आदमी एक दूसरे को पीछे रहा छोड़
अपनी अपनी रोटी सेकने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति कर रहा है जोड़-तोड़
एक दूसरे का नहीं करते है सम्मान
समझते नहीं दे देते जवाब मुंहतोड़
जब खुल जाती है उनकी पोल
तो हो जाता है उनका भंडाफोड़
कुछ की मेहनत पर फिरता है पानी
कुछ तो कमा रहे हैं लाखों करोड़
भाग्य पर हमें नहीं इतराना चाहिए
पाने के लिए हम भी मेहनत करें बेजोड़
हमारे पूर्वज कहते थे भाई साहब
गलत कार्य करोगे तो फूटेगी कोड़
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
30/07/2019
विषय=दौड़
🌺☘🌺☘🌺
आजकल चल रही है खूब अंधी दौड़
आदमी एक दूसरे को पीछे रहा छोड़
अपनी अपनी रोटी सेकने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति कर रहा है जोड़-तोड़
एक दूसरे का नहीं करते है सम्मान
समझते नहीं दे देते जवाब मुंहतोड़
जब खुल जाती है उनकी पोल
तो हो जाता है उनका भंडाफोड़
कुछ की मेहनत पर फिरता है पानी
कुछ तो कमा रहे हैं लाखों करोड़
भाग्य पर हमें नहीं इतराना चाहिए
पाने के लिए हम भी मेहनत करें बेजोड़
हमारे पूर्वज कहते थे भाई साहब
गलत कार्य करोगे तो फूटेगी कोड़
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
30/07/2019
दिनांक ३०/७/२०१९
शीर्षक_"दौड़"
दौड़ दौड़ कर हम थके
हर दौर में हम
कोई ऐसा दौर नही
जिसमें मिले हमें ठौर।
इल्जाम लगाया जमाने पर
लिया न विवेक से काम
दिखावे के इन्द्रजाल में
हुआ जो बुरा हाल।
कभी लचके, कभी झटके जिंदगी
कभी लगावे दौड़
सम्पूर्णता नही जीवन का नाम
इसे समझावें कौन?।
खुदगर्जी जीवन नही
जीवन है अनमोल
कुछ कर्म ऐसा करें
कीर्ति फैले चहूँ ओर।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
शीर्षक_"दौड़"
दौड़ दौड़ कर हम थके
हर दौर में हम
कोई ऐसा दौर नही
जिसमें मिले हमें ठौर।
इल्जाम लगाया जमाने पर
लिया न विवेक से काम
दिखावे के इन्द्रजाल में
हुआ जो बुरा हाल।
कभी लचके, कभी झटके जिंदगी
कभी लगावे दौड़
सम्पूर्णता नही जीवन का नाम
इसे समझावें कौन?।
खुदगर्जी जीवन नही
जीवन है अनमोल
कुछ कर्म ऐसा करें
कीर्ति फैले चहूँ ओर।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
30/7/2019
विषय-दौड़
द्वितीय प्रस्तुति
🌹🌹🌹🌹🌹
आज हमने भी खेल जगत में
कीर्तिमान रचे होते
हम भी पी टी उषा,आशा राय
दुति चंद और हिमा दास जैसे
भारत के लिए दौड़े होते
स्वर्ण,रजत,कांस्य पदक
हमारे गले में सुशोभित होते
सभी देशवासी ,परिजन
गर्व से कहते जन जन
क्या दौड़ लगाती है
उड़नतश्तरी सी उड़ती है
एक पल में मैदान फतह
कर जाती है
ये मेरे देश की बेटी है
जो बिजली से भी
तीव्र गति से भागती है
अगर तुमने हमें
कोख में न मारा होता
तो इन विजेताओं में
एक नाम हमारा होता ।।
✍️वंदना सोलंकी©️स्वरचित
विषय-दौड़
द्वितीय प्रस्तुति
🌹🌹🌹🌹🌹
आज हमने भी खेल जगत में
कीर्तिमान रचे होते
हम भी पी टी उषा,आशा राय
दुति चंद और हिमा दास जैसे
भारत के लिए दौड़े होते
स्वर्ण,रजत,कांस्य पदक
हमारे गले में सुशोभित होते
सभी देशवासी ,परिजन
गर्व से कहते जन जन
क्या दौड़ लगाती है
उड़नतश्तरी सी उड़ती है
एक पल में मैदान फतह
कर जाती है
ये मेरे देश की बेटी है
जो बिजली से भी
तीव्र गति से भागती है
अगर तुमने हमें
कोख में न मारा होता
तो इन विजेताओं में
एक नाम हमारा होता ।।
✍️वंदना सोलंकी©️स्वरचित
आज का विषयः- दौड़
लगी है सब में ही आगे निकलने की होड़।
मची हुई है भागम भाग लगा रहे हैं दौड़।।
डरते सभी दूसरे न उनको कहीं पीछे छोड़।
लगा रहे है सब ही जीवन की मैराथन दौड़।।
लगा नहीं रहे यह जन, ईमानदारी की दौड़।
मौका पा दूजे को गिरा कर पीछे देते छोड़।।
रहती है सभी में मंजिल को पाने की होड़।
कुछ पाते अपनी मंजिल सबको पीछे छोड़।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
लगी है सब में ही आगे निकलने की होड़।
मची हुई है भागम भाग लगा रहे हैं दौड़।।
डरते सभी दूसरे न उनको कहीं पीछे छोड़।
लगा रहे है सब ही जीवन की मैराथन दौड़।।
लगा नहीं रहे यह जन, ईमानदारी की दौड़।
मौका पा दूजे को गिरा कर पीछे देते छोड़।।
रहती है सभी में मंजिल को पाने की होड़।
कुछ पाते अपनी मंजिल सबको पीछे छोड़।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
नमन भावों के मोती
बिषय--दौड़
विधा--मुक्त
त्वरित प्रयास
आधुनिकता के दौर में
जीवन की दौड़ में
कदम बढाकर चल पड़े
मंजिल का नहीं पता
बस एक दूसरे से होड़ है,कुछ बनने की चाह है
प्रतिस्पर्धा की भावना
चैन से जीने नहीं देती
एक जनून सा सवार है
एक दूसरे को मात देते हुए
दौड़ में इतना बढ गए
खुद ही स्वंय को
भूल
जीवन के रंगमंच का
किरदार
बन कर रह गये।
स्वरचित लता कुसुम चाँडक
बिषय--दौड़
विधा--मुक्त
त्वरित प्रयास
आधुनिकता के दौर में
जीवन की दौड़ में
कदम बढाकर चल पड़े
मंजिल का नहीं पता
बस एक दूसरे से होड़ है,कुछ बनने की चाह है
प्रतिस्पर्धा की भावना
चैन से जीने नहीं देती
एक जनून सा सवार है
एक दूसरे को मात देते हुए
दौड़ में इतना बढ गए
खुद ही स्वंय को
भूल
जीवन के रंगमंच का
किरदार
बन कर रह गये।
स्वरचित लता कुसुम चाँडक
नमन मंच
शीर्षक।। दौड़ ।।
विधा--छंद मुक्त
द्वितीय प्रस्तुति
कुछ न मिलेगा
आधुनिकता की
इस अंधी दौड़ में
जितना पाएगा
उतना गँवाएगा
बन कुछ सरल
पी कुछ गरल
अपने लिये नही
औरों के वास्ते
स्वतः खुलेंगे
मंजिल के रास्ते
भागने से कुछ नही मिले
जागने से सब कुछ मिले
तुझको जागना होगा
खुद को आँकना होगा
सच को तूँ जान
सच को तूँ मान
भेड़ चाल चलना छोड़
अपनी राह सच को मोड़
कोढ़ नही हैं एक यहाँ
यहाँ 'शिवम' हजार कोढ़
सच्ची दौड़ है ईश स्नेह
हर दौलत वहाँ अपरिमेय
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/07/2019
शीर्षक।। दौड़ ।।
विधा--छंद मुक्त
द्वितीय प्रस्तुति
कुछ न मिलेगा
आधुनिकता की
इस अंधी दौड़ में
जितना पाएगा
उतना गँवाएगा
बन कुछ सरल
पी कुछ गरल
अपने लिये नही
औरों के वास्ते
स्वतः खुलेंगे
मंजिल के रास्ते
भागने से कुछ नही मिले
जागने से सब कुछ मिले
तुझको जागना होगा
खुद को आँकना होगा
सच को तूँ जान
सच को तूँ मान
भेड़ चाल चलना छोड़
अपनी राह सच को मोड़
कोढ़ नही हैं एक यहाँ
यहाँ 'शिवम' हजार कोढ़
सच्ची दौड़ है ईश स्नेह
हर दौलत वहाँ अपरिमेय
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/07/2019
जीवन की इस दौड़ में
हीरा जन्म गंवाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने
जीवन की इस दौड़ में ।
बचपन बीता अल्हाद में ,
गंवा दी जवानी भी बाद में ।
कब गृहस्थि में रंग गया मैं ,
गुजरे बुढ़ापा बस याद में ।
हरि नाम ना गाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
कितने बुरे हैं कर्म किए ,
स्वार्थ में बदल भी धर्म लिए ।
दंभ पाप की गठरी भर ली ,
आवे ना मोरे शर्म हिय ।
अपनों पे जुल्म कमाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
अय्याशी जीवन का ढ़ंग ,
उतरा दया भाव का रंग ।
गर्त में गिरते सोच ना पाया,
कब छूटा अपनों का संग ।
अपनों को भुलाया मैंने
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
जीवन की इस दौड़ में ।
जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर , पंजाब
हीरा जन्म गंवाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने
जीवन की इस दौड़ में ।
बचपन बीता अल्हाद में ,
गंवा दी जवानी भी बाद में ।
कब गृहस्थि में रंग गया मैं ,
गुजरे बुढ़ापा बस याद में ।
हरि नाम ना गाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
कितने बुरे हैं कर्म किए ,
स्वार्थ में बदल भी धर्म लिए ।
दंभ पाप की गठरी भर ली ,
आवे ना मोरे शर्म हिय ।
अपनों पे जुल्म कमाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
अय्याशी जीवन का ढ़ंग ,
उतरा दया भाव का रंग ।
गर्त में गिरते सोच ना पाया,
कब छूटा अपनों का संग ।
अपनों को भुलाया मैंने
जीवन की इस दौड़ में ।
क्या खोया क्या पाया मैंने ,
जीवन की इस दौड़ में ।
जीवन की इस दौड़ में ।
जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर , पंजाब
नमन "भावों के मोती"🙏🏻
दिनांक-30/7/2019
विधा-हाइकु
विषय :-"दौड़"
(1)
तन को छोड़
गई कल्पना लोक
मन की दौड़
(2)
स्पर्धा की दौड़
मायूस बचपन
थोपे हैं स्वप्न
(3)
शांति को छोड़
पद-पैसों की दौड़
मृत्यु से होड़
(4)
कर्म के पथ
सीने में लिए आग
दौड़ता रवि
(5)
मन घुमाये
जीवन मरीचिका
तृष्णा दौड़ाये
(6)
घुमाव,मोड़
जीवन के पथ पे
पेट की दौड़
स्वरचित एवं मौलिक
ऋतुराज दवे,राजसमंद(राज.)
दिनांक-30/7/2019
विधा-हाइकु
विषय :-"दौड़"
(1)
तन को छोड़
गई कल्पना लोक
मन की दौड़
(2)
स्पर्धा की दौड़
मायूस बचपन
थोपे हैं स्वप्न
(3)
शांति को छोड़
पद-पैसों की दौड़
मृत्यु से होड़
(4)
कर्म के पथ
सीने में लिए आग
दौड़ता रवि
(5)
मन घुमाये
जीवन मरीचिका
तृष्णा दौड़ाये
(6)
घुमाव,मोड़
जीवन के पथ पे
पेट की दौड़
स्वरचित एवं मौलिक
ऋतुराज दवे,राजसमंद(राज.)
विषय:दौड
विधा:दुर्मिल सवैया
मापनी
112 112 112 112
112 112 112 112
हम डोलत हैं जगती भर में, सबछोड चले मुख मोड़ चले।
रहते सब थे जब साथ बने ,
निज देश सभी अब छोड़ चले ।
ममता सुत की कब याद रही, अपना सपना कर पूर्ण चले ।
जिस ने अपना सुख चैन दिया,
अपनी सभ्यता, पितु छोड़ चले।
नवनीत दिशा अब ढूंढ रहे
नयना सपना अब खोज रहे
सब दौड लगा कर भाग रहे
अपने लक्ष्य को पहचान रहे
अब आस गई सपने टुकडे,
करके अब वो कब लौट रहे
बहनें लगती तब आँख पिते,
जब हाथ पिता सम्भलाय रहे।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विधा:दुर्मिल सवैया
मापनी
112 112 112 112
112 112 112 112
हम डोलत हैं जगती भर में, सबछोड चले मुख मोड़ चले।
रहते सब थे जब साथ बने ,
निज देश सभी अब छोड़ चले ।
ममता सुत की कब याद रही, अपना सपना कर पूर्ण चले ।
जिस ने अपना सुख चैन दिया,
अपनी सभ्यता, पितु छोड़ चले।
नवनीत दिशा अब ढूंढ रहे
नयना सपना अब खोज रहे
सब दौड लगा कर भाग रहे
अपने लक्ष्य को पहचान रहे
अब आस गई सपने टुकडे,
करके अब वो कब लौट रहे
बहनें लगती तब आँख पिते,
जब हाथ पिता सम्भलाय रहे।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
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