Monday, July 1

"स्वतंत्र लेखन"30 जून 2019

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ब्लॉग संख्या :-433

स्वतंत्र लेखन

छलके आँसू
अपमान सहते
दिल से रोते

नादान दिल
भावना में बहते
दु:ख ही पाते

मासूम दिल
जज्बात है गहरा
आघात मिला

दिल-ए-नादां
दामन ना छोड़ता
दर्द सहता

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।

30 जून 2019,रविवार

जन्म मृत्यु मध्य जीवन
साकारित प्रभु देन यह।
पर हिताय पर सुखाय
अद्भुत जीवन होता वह।

खुद का जीना पशुतुल्य है
परहित जीना होता जीना।
जय जवान जय किसान से
सीखो श्रम जीवन में करना।

प्रभु अवतारित भव्य जीवन
सदा प्रेरणा का स्रोत यह।
दानव से जो बन गए मानव
प्रेरणादायक सोच है वह।

जीवन सार है जगति का
आओ कुछ ऐसा कर जाओ।
नश्वर चँचल इस काया से
कर्म सहारे प्रभु पद पाओ।

स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

विधा लघुकथा 

"ऐ लड़की " मत बोलो 

मैं मम्मी की लाडली बेटी हूँ। मेरे जन्म से पहले ही पापा और दादा-दादी तो कह रहे थे , लड़का

ही होगा । 

खैर मेरा जन्म हुआ , मातम सा रहा । पापा अपनी खीज निकालने के लिए मुझे " ऐ लड़की , ऐ लड़की " 

कहने लगे । 

मुझे यह अच्छा नहीं लगता । 

मैं स्कूल जाने लगी , बहुत होशियार हूँ मैं फस्ट आती और खूब ईनाम जीतती पर वह खुश नहीं होते । 

मम्मी मेरा संबल है ।

अब पापा फिर एक लड़के को लाने के लिए मम्मी से कहते , पर मम्मी मुझे ही लड़का समझती , उनकी निगाह में लड़का - लड़की एक हैं बस परवरिश अच्छी होनी चाहिए । 

अब पापा कहते :

" ऐ लड़की , तू लड़की है और उसी की तरह रह । मुझे फ्राक से चिढ़ है लेकिन वह वही पहनाते ।

मैं बड़ी हो रही थी और समझदार भी , अब मेरा मन मुझे कचोटने लगा 

आखिर एक दिन मैने पापा को बोल ही दिया: 

" ऐ लड़की , ऐ लड़की मत बोलो " 

स्वलिखित 

लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल


30,6,2019

खारा पानी आँख का, देता इतनी सीख । 
जो देखा वो झूठ था, समझ रहा वो ठीक।।

सच्चा झूठा कुछ नहीं, जो कहना है बोल ।
रहना सब कुछ है यहीं, बातें अपनीं तौल ।।

दुनियाँ एक सराय है ,कटते हैं दिन रैन ।
जाना अपने देश है, फिर काहे बैचैन ।।

सोना चाँदी के लिये, हर कोई हैरान ।
नेह प्याला हम पियें, मन का कहना मान ।।

जीवन वृक्षों का भला, देते हैं संदेश ।
जादू सेवा का चला, देना मत उपदेश।।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,


😁 कुछ दिल की हो जाए 😁

टोप फ्लोर पर मैं रहता 
र नीचे रहते मनचंदा ।।

खोल रखा शायद उनने 
कोई अपना गोरखधंधा ।।

पैनी नजर रखूँ मैं पर
हूँ एक सीधा साधा बंदा ।।

क्यों झाँकू कोई खिड़की
अपने संग भी कई फंदा ।।

अब से नही शुरू से है
पढ़ा हूँ मैं लेकर चंदा ।।

कभी भाई कभी बहन से
पिता का काम था मंदा ।।

स्कूल से ज्यादा किस्मत
की रही परीक्षा और डंडा ।। 

इसी के चलते कवि बना 
हुई आदत लेने की पंगा ।।

पर आदमी हूँ मनमौजी 
रहता हूँ मैं हरदम चंगा ।।

मगर सीख खास सुनाऊँ
हो जब तक न संग अड़ंगा ।।

कोई सफलतम न होता 
हो बेशक वह मुस्तंडा ।।

संघर्ष से ही बलिष्ठ हों
हमारी भुजायें औ जंघा ।।

खुद को ही न छोड़ूँ मैं
हूँ आदमी कुछ बेढंगा ।।

आज सुझाऊँ सूझ 'शिवम'
वह आँसुओं की है गंगा ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/06/2019


सादर मंच को समर्पित -

🌹🌴 गीत 🌴🌹
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छंद - लावणी 
मात्रा =30 ( 16+14 )
☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️

झाँक चलें रे मन मन्दिर में , 
सत्य सदा ही स्वीकारें ।
खोजें खुद को अपने अन्दर ,
विनम्रता से व्यवहारें ।।

सृष्टि सँजोती प्रकृति रुपहली ,
कण-कण संजीवन बोती ।
पग-पग पर बिखरीं हैं खुशियाँ ,
चुन लें हम सागर मोती ।।
मानव श्रेष्ठ बनाया जग में ,
बुद्धि , विवेक , ज्ञान सौंपा ।
संवेदना प्यार उपजाया ,
गर्मी , शीत ,पवन झोंका ।।

चन्दन माटी द्रव्य खजाना ,
नत मस्तक हो सिर धारें ।
खोजें खुद को अपने अन्दर , 
विनम्रता से व्यवहारें ।।

बड़े भाग्य मानव तन पाया ,
मिली साँस हैं गिनती की ।
क्या था करना , क्या करते हम,
उड़ें उड़ानें नभ ऊँची ।।
आज रेत पर दौड़ चल रही ,
भूल जमीनी सच्चाई ।
कागज की नावें गल जातीं ,
अंधी होड़ न सुखदायी ।।

जीवन मर्म जान लें मितवा ,
अभी साँस कल भू धारें ।
खोजें खुद को अपने अन्दर ,
विनम्रता से व्यवहारें ।।

जैसी करनी वैसी भरनी ,
यहीं कर्मफल मिल जाये ।
फिर पछताये क्या रे बन्दे ,
चिड़िया खेती चुग जाये ।।
सुबह भूल कर शाम लौटता ,
भूला नहीं कहाता रे ।
अब भी देर नहीं है मीता ,
अन्त भला सुख पाता रे ।।

यह दुनिया तो रैन बसेरा ,
पंछी फिर उड़ संचारें ।
खोजें खुद को अपने अन्दर ,
विनम्रता से व्यवहारें ।।

🌹🌴🌻🌸

🍀🍊🌻....... रवीन्द्र वर्मा
37ए/111डी , मधु नगर ,आगरा 

।। कश्मीरी वादियाँ ।। 

कश्मीरी वादियो की हवायें ही कुछ ओर है, 

दुनिया-भर में खूब ख्याति ही जोर है, 
खूबसूरत नीले आसमाँ के नीचे 
पहाड़ो पर ढकी सफ़ेद घास,
बीच से निकलता शीतल जल 
धारा प्रवाहित कर पोखर बनाता,
ऐसा भोर का नज़ारा ही कुछ ओर है,
कश्मीरी वादियो की हवायें ही कुछ ओर है। 

कश्मीर को आज क्या हो गया, 
स्वर्ग सी जमीं रक्त से रक्त हो गयी, 
भाई-भाई न रहा, यह देखना काम न रहा, 
पाक भूल गया वे सब लोग अपने, 
भाई समझा होगा कश्मीरियो को, देख
कश्मीरी वादियो की हवायें ही कुछ ओर है। 

कश्मीर ने भी क्या खूब क़िस्मत पायी है 
इधर-उधर दोनों तरफ से ही खायी है 
नजारा ऐसा देख लगता है कि
कश्मीरी वादियो की हवायें ही कुछ ओर है। 

भाविक भावी

अब क्या करें
🍳🍳🍳🍳🍳

बाद
ल न जाने कहाँ मगन
गगन बरसाता है अगन
कोई भी कोना नहीं ऐसा
जहाँ न हो जलन तपन।

उमस कर देती आकुल
तपन कर देती व्याकुल
घर से निकलूँ या न निकलूँ
मनोस्थिति रहती ढुलमुल।

पर निकलना भी पडे़गा
लू से सम्भलना भी पडे़गा
पेडो़ की हत्यायें की हैं
तो प्रभाव भी झेलना ही पडे़गा।

रस्ते के जाम छोड़ते प्रश्न चिन्ह
हर कोई हो जाता है खिन्न
चौराहों पर जलती लाल बत्ती
स्थिति करती है बिल्कुल भिन्न।

दूर हो रही पेड़ की छाँह
निर्बल हो रही शीतल बाँह
पैदल चलना दुश्वार हो रहा
भीषण तप्त पडी़ है राह।


बिषय,, स्वतंत्र लेखन,,
वक्त हमको सब सबक सिखला गया
यारो हमको भी तो जीना आ गया
खो रहे थे जहां की भीड़ में
हाथ पकड़कर राह वो दिखला गया
कौन अपना कौन पराया है यहाँ
पहचानने का सहूर आ गया
नकाब ओढ़े फिरते हैं यहाँ सभी
नकली चेहरों से नकाब हटा गया
पड़ रही थी मीठी छुरियां पीठ पर
घाव गहरे थे मरहम लगा गया
हमने भी जख्म सब सहला लिए
जिंदगी भर के लिए दाग बना गया
जिनको अपना समझते थे अभी तक हम
आइना जमाने का दिखला गया
लिख न पाए दर्द रंजो ए गम
मनपटल पे हर शब्द समा गया
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार ,,


आज स्वतंत्र सृजन अंतर्गत मेरी प्रस्तुति सादर निवेदित...
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🌷 दोहा गजल 🌷
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शत शत नमन प्रणाम हे, भारतवर्ष महान |
दिग दिगंत में गूंजता, जिसका गौरव गान ||

सत्य सनातन सभ्यता,पुण्य पुरातन वेश |
दया धर्म सद्भावना,है जिसकी पहचान ||

उदधि पखारे नित चरण, हिमगिरि पहरेदार |
अमृतमय जल से भरीं , नदियाँ करतीं गान ||

आँचल है धानी सदा, अन-धन से भरपूर |
सदा सुखद बहती पवन,जन गण मन अभिमान ||

सर्व धर्म समभाव की,मिलती यहाँ मिसाल |
सब को ही आश्रय मिला,मिला मान-सम्मान ||

संत शहीदों की धरा,पावन परम पुनीत |
ईश्वर भी अवतार ले,करते हैं गुणगान ||

उन्नति पथ पर अग्रसर,नित्य रहे यह चाह |
हरदम आगे ही रहे,प्यारा हिंदुस्तान ||

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#स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी *सरस*
कहानी - सिवनी म.प्र.

बिषयःः ः#ईश विनय#
विधाःःकाव्यःः


जयजय जय हे बांकेबिहारी।
प्रभुजी सुन लो बात हमारी।
रहें सभी प्रेम परिपोषित हम,
यही केवल है अरज हमारी।

भक्तिभाव आऐ जन जन में।
कभी वैरभाव न आऐ मन में।
सदैव सुधारस बरसे वाणी से,
मन वृंदावन हो जाऐ जीवन में।

सौहार्दपूर्ण वातावरण हो जाऐ।
प्रभु रागद्वेष का क्षरण हो जाऐ।
ये विध्वंसक गतिविधियां बदलें,
बस दुनियां प्रेमावरण हो जाऐ।

रखें कृष्ण कन्हैया लाज हमारी।
पडे चरण शरण में सभी तिहारी।
बहुत व्यथित भवबंधन से हो गए,
अब तुम शीघ्र पधारो रासबिहारी।

स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम रामजी


धन--

धन पुत्र है
धन बाप है,
बिना धन के "तुम"
धन रहने पर "आप" हैं।

धनी होना पुण्य है
निर्धन होना अभिशाप है,
धन के पीछे रिश्ते-नाते
बिना धन किसी का न साथ है।

निर्धन की कोई पूछ नहीं
धन ही तो औकात है,
धनी कहे तो रात में सूरज
धनी बोले तो उजाले में रात है।

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर


अर्कान-फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
मात्राभार- 2122 2122 2122 212
विधा-ग़ज़ल
=========================
मान जाऊँगा उसे बा हौसले मिल जायगा ।
शाद हूँगा बाट मेरी जोहते मिल जायगा ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
बात मेरी मानना सच उसके मिलने का असर,
दिल खिलेगा जब खुशी वो बाँटते मिल जायगा।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
चाँद है दरकार तुझको देखने के वासते,
सब्र कर कुछ और दिल में दिन ढले मिल जायगा ।।
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
कर रहा है बात मिलने की सिनेमाघर पै तू,
आस लेकिन दे मुझे कितने बजे मिल जायगा?
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺
ढ़ूढ़ता हूँ दोस्त ऐसा साथ हो, ता ज़िन्दगी ,
बा वफ़ा किस्मत में लिक्खा है मुझे मिल जायगा ।।
=====================
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया "अ़क्स "
बाह-आगरा (उ०प्र०)


शेर की कविताए...
.......
मुसाफिर तंन्हा हूँ मै, साथ चलोगे क्या तुम मेेरे।
है मंजिल दूर सफर मुश्किल , पर साथ चलोगे मेरे।
यही है डगर एक एक मंजिल है तो फिर साथ चलो ना,
सफर कट जायेगा दोनो का, हमसफर बनोगे मेरे।
......
करेगे दुख सुख की बातें, बातों से खनक बढेगी।
हमारे दिल से तेरे दिल की भी, कुछ ललक बढेगी।
ना सोचो तंन्हा हो तो, बात करे हम दिल से दिल की,
हमारे बातों से लोगो की भी कुछ धडक बढेगी।
......
शेर के शब्द सुनो तो, रस्ता यू ही कट जायेगा।
चलेगे साथ अगर तो मंजिल, पास नजर आयेगा।
टटोलो दिल को अपने साथ शेर के चलना है क्या,
तुम्हारे दिल के दरवाजे पे , शेर नजर आयेगा ।
.......

स्वरचित एंव मौलिक
शेरसिंह सर्राफ


विधा- ग़ज़ल
30/6/2019

राह चलते हैं वही जो है मुनासिब प्यार के,
छेड़ करके क्या किया तुमने तराने प्यार के।

इश्क की दावत हुई हाजिर सनम साबिर हुए,
खिल गई सारी फिज़ा गाके तराने प्यार के।

खूबसूरत है सनम लगता मुझे है चांद सा,
तीरगी दिल से मिटी जब हैं फसाने प्यार के।

मुंतजिर हैं प्यार के अब और कुछ दिखता नहीं,
हमनवाई में मिले हैं फिर बहाने प्यार के।

यूं सुखनवर मिल गए जैसे मिली सौगात हो,
फिर बहारें गा रही हैं खुद तराने प्यार के।

शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित


**जीवन सुख सार यही**
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बहर -22 22 22 22 22 22 22 2
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वह जीवन भी क्या होगा, जो अँधियारे में ही गुजरे।
वक्त बदलता जाता है, फिर भी बात विचारे में ही गुजरे।।

खौफ़ में हम अपना क्यों, यूँ ही मुँह छुपा के जिएँ-
जीना है न ऐसा जीवन, जो गलियारे में ही गुजरे।

आए हैं धरती पर हम तो, कुछ करना भी जरूरी है-
वक्त सारा बेकारी में क्यूँ, फ़नकारे में ही गुजरे।

नदियों के आगे पत्थर का, अपना कुछ चलता ही नहीं-
वो धारा भी क्या है जो, ऐसे बेचारे में ही गुजरे।

चढ़ते जाएँ ऊपर- ही- ऊपर को, चाहे जितना भी हम-
पर जीवन सारा बिगाड़े में न, सँवारे में ही गुजरे।

सबके ही जीवन में होता है सुख- दुख का बँटवारा-
जीवन का हर दुख छोड़, सुख के नज़ारे में ही गुजरे।

अक्सर हम आँसू को पीकर, खुशियाँ दिल से लुटाते हैं-
फिर ऐसे जीने का क्या, जब जीवन खारे में ही गुजरे।

वो प्रेमी भी कैसा है, जो पल - पल रंग बदलता रहता -
है प्रीति उसकी कैसी जो, इकरारे में ही गुजरे।

भँवरों से आहत होकर फूलों ने, काँटों से कहा है -
जीवन के सुख का सार यही , दुख बँटवारे में ही गुजरे।

******************************************
-- रेणु रंजन
( स्वरचित )

मौन 
मुझको न अब सहना है, 
ना मौन अब रहनाहै 
नारी की विवशता को, 
तोड़ कर अब रहना हैl

आत्मा से कह दो तुम
न मौन अब रहना है, 
छोड़ दे विवशता को, 
दर्द नहीं सहना है l 

युगो युगो से होता आया, 
पुरुष दोष धरता आया, 
न सोच तू समाज की, 
अपने लिए जीना है ll
आत्मा.... 
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित 
देहरादून


हे नाथ हृदय में आओ ना
********************
हे नाथ हृदय में आओ ना...

जीवन अंजन, श्यामल रातें
तमहर किरणे लाओ ना
डग-मग-डग, मन डोल रहा है
नीरव-कूल दिखलाओ ना

लेकर अपनी रजत-तूलिका
मोहक चित्र बनाओ ना
शांत-निशा से उतरे शीतल कण
जीवन में विखरावो ना....

हे नाथ हृदय में आओ ना....

थाह नही किस ओर किनारा
माझी का मन डोल रहा है
शिथिल हो रहे कौतुक सारे
एक-एक बन्धन खोल रहा है

भरता जल नाव-छिद्र से-
नाथ युक्ति बतलाओ ना
जिस पथ जीवन सुगम-शरल हो
वो पथ 'केशव' दिखलाओ ना....

हे नाथ हृदय में आओ ना......

पंख हैं जर्जर वृहद सागर
अनहद भार, भाव का गागर
मन की कुंठा करती दूनी
मोह और लालच की माहर

शिथिल हो रहा विहग हृदय का
नव-ऊर्जा भर जाओ ना
कब तक अन्तर्धान रहोगे
सस्मित-शुचि-मुख दिखलाओ ना

हे नाथ हृदय में आओ ना....
हे नाथ हृदय में आओ ना....

....© राकेश...
'मुझे पढ़ना जरा'

विषय- स्वतंत्र लेखन
______________________
दिल है कि मानता नहीं
बुनता रहता ताने-बाने
कभी प्रीत भरे
कभी रीते मन के अफसाने
बिखरी किर्चे चुनता रहता
सहेजता उन्हें बार-बार
टूटकर बिखरता रहता
दिल है कि मानता नहीं
अरमानों की पालकी में बैठ
प्रिय का इंतज़ार करता
सुनहरे स्वप्नों में खोकर
नवजीवन के सपने बुनता
उम्मीदों के पंख लगाकर
नीले अम्बर पर उड़ता
आशा की डोली में बैठकर
बीते लम्हों को याद में
मन ही मन बिसूरता रहता
दिल है कि मानता नहीं
जख़्म सहकर भी हँसता
झील की गहराई में उभरा
अक्स देख प्रिय का
चुपके-चुपके मुस्कुराने लगता
रात की पालकी में सवार हो
कहीं अँधेरे में जा छुपता
दिल है कि मानता ही नहीं
अरमानों की पालकी में बैठ
नवजीवन के सपने बुनता
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित
विषय -मानवता 
30/06/2019

अनाज के कुछ दानें पक्षिओं के हिस्सें में जाने लगे,
अपने हिस्सें की एक रोटी गाय को खिलाने लगे , 

प्यास से अतृप्त पेड़, लोग पानी पिलाने लगे ,
कुछ ने बधाया ढाढ़स, कुछ अस्पताल ले जाने लगे , 

उलझ गया वो माँझे में , पँख उसके फड़फड़ाने लगे ,
न करेंगे अब पतंगबाजी,मनुष्य आजीवन यही प्रण निभाने लगा,

सींच रहें मोहब्बत के फूल, धरा भी अब मुस्कुराने लगी,
फूट रहे दिलों में प्रेम के अंकुर, मनुष्य भी अब खिलखिलाने लगा, 

पत्थर के ज़ख्म सहलाने लगें, इंसान - इंसान को गले लगाने लगा 
दिया जो जख़्म अंजाने में, इंसानियत से मोहब्बत निभाने लगे, 

आँख का पानी अब मुस्कुराने लगा,वो ख़ुशी के बहाने तलाशने लगा, 
ज़ख्म दिल के जमाना सहलाने लगा,हर कोई चिकित्सक नज़र आने लगा |

स्वरचित -
- अनीता सैनी


वृन्दावन जस धाम जहाँ पर, जमुना जी का घाट।
वहाँ पे राधा देखे आस , साँवरे कब आओगे॥
....
शाम से हो गई रात, मुरलिया की ना छेडी तान।
विकल हो राधा ढूँढे आज, श्याम तुम कब आओगे॥
....
नयना सिन्धु समान , छलकता आँखो से है प्यार।
कहे वो किससे अब मनभाव, श्याम तुम कब आओगे॥
......
दिल पे रख के हाथ, सोचे क्यो परिवर्तित है श्याम।
शेर मन डूबा है श्रीश्याम, बताओ कब आओगे ॥
......
कल-कल छल-छल जमुना जल से, तीब्र अँश्रु की धार।
बिखर गए सोलहो श्रृँगार , श्याम तुम कब आओगे॥

********************
स्वरचित एंव मौलिक
शेर सिंह सर्राफ
नई बाजार देवरिया, उ0 प्र0
पिन- 274001
ईमेल .. Sher3639@gmail.com
मो0.. 9450671293

दुर्गा सिलगीवाला सोनी #नमन मंच:::भावों के मोती::::
#दिनांक:::३०"६"२०१९::::
#विधा:::स्वतंत्र लेखन::::

#रचनाकारदुर्गा सिलगीवाला सोनी,,

""*""*""शोषण""*""*""

शोषण एक समस्या है जग की,
हम एक दूजे का करते आए,
या तो शोषक बनकर जीते आए,
या शोषित बनकर मरते आए,

स्त्री का शोषण पुरुष ही करे,
पुरुषों की शोषक भी नारी है,
भक्तों का शोषण भगवान करें,
रिश्वत का चढ़ावा जारी है,

"दुर्गा"शोषण का सरल मार्ग,
मन्दिर मस्जिद तक भी जाता है,
हीरे और मोती चढें तो चढें,
सोना नकदी भी चढ़ावा आता है,

दुनिया के रिश्ते स्वार्थ जनित,
सिर्फ लाभ और फायदे में बसते हैं,
हानि और क्षति में फूटते माथे,
सिर्फ लाभ में खुलकर हंसते हैं,

अकूत सम्पदा शोषण से उपजे,
जो धर्मार्थ उद्देश्य से चढ़ती आई,
बच्चे भूखे ही मर मर जाते हैं,
धर्मस्थलों की भूख ना कमी आईं,

अल्लाह भी जैसे भूखा ही होगा,
हम सभी भक्त जनों के आदर का,
भगवान से मिलकर कहता होगा,
मैं क्या करूंगा इनकी चादर का,


स्वतंत्र लेखन
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(आदर्श जीवन हेतु)
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काम-क्रोध-मद-लोभ की,अति से बिगड़ें काम ।
सावधान रहना सखा, मिलें बुरे परिणाम ।।

क्रोध अगन होती बुरी, कभी न पालो मीत ।
गफ़लत में जो जी रहे, बिगड़ी जीवन रीत ।।

पद के मद में चूर रह, करो नहीं तुम पाप ।
बढ़ता है इससे सदा, जीवन में अभिशाप ।।

काम-वासना जब बढ़े, संयम से लो काम ।
तन-मन-धन का नाश हो, जीना बने हराम ।।

जिसके मन में लोभ हो, रहना उससे दूर ।
क्या जानें वो कब बने, कुटिल कुकर्मी क्रूर ।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया


शीर्षक -एक शाम तुम संग... तुम्हारे बिन
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

सुनो....!!
चलो.....
फिर से एक शाम साथ
गुजारते हैं।
साथ-साथ
एक मुद्दत हुई, तुमने कुछ
कहा नहीं।
जैसे जमाने गुजरे, हमने
कुछ सुना नहीं।
वक्त की रेत धीरे धीरे सरकती
जा रही है।
जिंदगी भी रेत सी है, हाथों से
फिसलती जा रही है।
कभी था हौसला
रेत को मुट्ठी में रोकने का
वक्त के परिंदे को पकड़ने का...
मगर तब...
जब मेरे हाथ में तुम्हारा हाथ था
हर मुश्किल आसान लगती थी
जब तुम्हारा साथ था...
सुनो न...
गर मिले वक्त तो..
एक बार मिलना चाहती हूं
फिर से गुलाब की तरह खिलना चाहती हूं...
सालों से रेत के सीने पर उंगलियों से
लिखती रही हूं तुम्हारा नाम...
अब नहीं...
अब और इंतजार नहीं
इससे पहले कि आंखों का इंतज़ार थक जाए
जुबां भी मौन हो जाए...
जीना चाहती हूं तुम संग
एक अदद रेतीली शाम...

तनुजा दत्ता (स्वरचित)


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आपका दिल आपको लौटाए हुए हैं।
मन ही मन जो हम पछताए हुए हैं।।

चैन अब आए तो आए कैसे।
तेरी यादों में जो लिपटाए हुए हैं।।

मन के बाग में खिला है आपका नाम।
रात रानी सा ही महकाए हुए हैं।।

जो दिया है निमंत्रण सपनों में आने का।
चूड़ियों को भी यूँ खनकाए हुए हैं।।

छोड़कर नभ को चले न जाए कहीं।
चाँद तारों को भी उलझाए हुए हैं।।

अब खुशी भी दूर रहती है मुझसे।
दिल ने चोट बहुत ही खाए हुए हैं।।

हमने चाहा जो किसी को इतना जियादा।
बात तक न करते अब इतराए हुए है।।

बेदर्द बनके मिलता क्या है किसी को।
दूर से ही हमें जो तड़पाए हुए है।।

आजमाते ही रहे वफाएँ मेरी।
बेवफाई अपनी दोहराए हुए हैं।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।।

विषय :वृक्ष /पेड़
विधा : दोहा

वृक्ष काटते जा रहे ,पारा हुआ पचास।
वृक्षारोपण सब करें ,इस आषाढ़ी मास ।।

धरती बंजर हो रही ,बचा न खग का ठौर।
बढ़ा प्रदूषण रोग दे ,करिये इसपर गौर ।।

भोजन का निर्माण कर ,वृक्ष करे उपकार।
स्वच्छ प्राण वायु बने ,जीवन का आधार ।।

देव रुप में पूज्य ये ,धरती का सिंगार ।
गुणों का भंडार लिये ,औषध की भरमार ।।

संतति रुप में वृक्ष ये ,करिये प्यार दुलार ।
उत्तम खाद पानी से ,लें रक्षा का भार ।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

दिनांक :- 30/06/2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन

कवि हूँ मैं...
मन की कल्पना लिखता हूँ..
कभी सत्य कभी सपना लिखता हूँ..
मानवीय अत्याचार कभी..
कभी जनता की आवाज लिखता हूँ..
कवि हूँ मै...
सूरज को कहीं आग लिखता हूँ..
तो कहीं पिता का हाथ लिखता हूँ..
धरा की गोद में बैठकर सदा...
ममता का मिला साथ लिखता हूँ..
कवि हूँ मैं..
कभी चाँद में महबूब देखता हूँ...
कभी अपना वजूद देखता हूँ...
उड़ता मन मेरा उन्मुक्त गगन में...
हौसलों के परवाज देखता हूँ..
कवि हूँ मैं....
झरने की झर-झर को सरगम लिखता हूँ..
पंछियों के कलरव में स्वच्छंद लिखता हूँ..
प्रकृति का कण-कण करता पुलकित मन..
सरिता की कलकल को साज लिखता हूँ...
कवि हूँ मैं...
प्रेम में जीवन देखता हूँ..
जीवन में प्रेम चाहता हूँ..
चाहता हूँ जी भर जीना..
यही मैं हरदम सोचता हूँ..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

गीत

कहाँ जा रहे कारे बदरा , यों ना हम जाने देगें !
बिन बरसे ही चले गये तो , तुमको
हम ताने देगें !!

सूख रहे हैं हलक हमारे , पैरों फटी बिवाई है !
धरती प्यासी , जीवन प्यासा , प्यास बनी दुखदाई है !
नभ से उतरो , नीचे आओ , मनमाना छाने देगें !!

कागज़ की नावें तैरा दी , मेंढक की शादी कर दी !
जीवित जन को देकर कांधा , राम नाम की रट कर दी !
किये टोटके , देव मनाये , कहर न अब ढाने देगें !!

कहीं बिगड़ते , कहीं बरसते , रंगत बदली बदली है !
मनमानी भी खूब हो गई , नीयत अभी न संभली है !
अपने हिस्से का पानी है , किसे नहीं पाने देगें !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )

"स्वतंत्र-लेखन"
जब से आया गाँव छोड़कर
जीने लगा दिखावे में,
माता जी हो गई माँम
बाबूजी डैड,बुढ़ापे में

रोटी पराठा से जी न भरता
पीजा बर्गर बुढ़ापे में
नींबू पानी अब नही सुहाता
कोकोकोला दिखावे में।

जब से आया गाँव छोड़कर
जीने लगा दिखावे मे,
ज्यों ज्यों गाँव से दूर हुआ
रिश्ते छटेँ दिखावे में।

क्या से क्या हो गया मैं
दुनिया को दिखाने में
अपने अंदर जब झांक कर देखा
लूट गया मैं दिखावे में।

स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

स्वतंत्र लेखन
विधा-लघुकथा
**********
रेगिस्तान में बसा एक बहुत बड़ा शहर अपनी ईमानदारी, रहन सहन ,भाईचारे के तौर तरीकों से आस पास के लोगों में मिसाल बना था।न कोई आपस में लड़ाई झगड़ा करता था औऱ न ही कोई नशे की लत का शिकार था।
लेकिन दुर्भाग्य की बात ,एक लाख की आबादी वाला शहर होते हुए भी मूलभूत सुख सुविधाओं से वंचित था।शहर में न कोई पार्क था न पानी की समुचित व्यवस्था थी।
एक बार चुनाव के दौरान वोट लेने को वहाँ एक नेता आया और उसने शहर के लोगों से वादा किया कि "आप लोग मेरे हाथ मजबूत करो मैं पूरे शहर के लिए पानी का प्रबंध व बहुत सारी सुविधाएं मोहिया करवाऊँगा।"शहर के लोगों ने नेता जी की बात पर विश्वास करते हुए एकजुटता का परिचय देते हुए सारे वोट उसके पक्ष में डाले।
सुयोग कि वह नेता चुनाव जीत गया। चुनाव जीतते ही वह शहर में धन्यवादी दौरा करने लोगों से रूबरू हुआ और उसी दिन से शहर की मूलभूत सुविधाओं पर अमल करना शुरू कर दिया।पाँच साल में शहर की तस्वीर बदल गई।शहर में पीने के पानी के साथ साथ खेतों में नहरी पानी भी मिल गया। उस नेता की बदौलत रेगिस्तान नैसर्गिक सौंदर्य में बदल गया। वहाँ कोयल कूकने लगीं।
शहर के लोगों ने अगले चुनाव में भी उसी नेता को एकतरफा वोट डालकर पुनः जीता दिया।नेता शहर की एकता, ईमानदारी की मिसाल पर खुश था।
शनै शनै राजयोग का नशा ,एक दिन उस नेता के दिमाग में आया कि शहर के लोगों की इतनी बड़ी एकजुटता कभी न कभी मेरे लिए खतरनाक सिद्द हो सकती है।यदि किसी कारणवश ये लोग मुझ से नाराज हो गए तो मेरी जमानत ज़ब्त कर सकते हैं। तो क्यों न इन्हें जातिवाद ,धर्म, सम्प्रदाय में विभाजित कर दिया जाए।
इस सोच के साथ नेता ने वहाँ एक बाग़ लगवा दिया और उसमें एक धार्मिक स्थल बनवा दिया और इसमें कुछ जातियों के प्रवेश
पर कुछ शर्त बना दी और कहा कि दूसरी जाति के लोगों के लिए भी जल्दी ही अलग से सुविधाएं प्रदान की जाएंगी।
नेता की इस सोच के परिणाम स्वरूप शहर के लोग जातिवाद और धर्म के शिकार हो गए। लोग एक दूसरे से लड़ने लगे।उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों पर अत्याचार करने लगे।भाईचारे की मिसाल धूमिल होने लगी।अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण नेता ने श्याम , दाम, दंड, भेद की नीति से भाईचारे की मिसाल बने समाज को तबाह कर दिया। प्यार प्रेम भरे नैसर्गिक सौंदर्य के बाग़ में नफ़रत का पौधा रोप दिया।

स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा


II स्वतंत्रता - एक विचार..... II 

आज स्वतंत्र लेखन है तो मैंने सोचा पूरी स्वतंत्रता ली जाए लिखने में.... बोलने में तो है ही हमें स्वतंत्रता.... कभी भी कहीं भी और कुछ भी जो मन आये बोल देते हैं किसी को भी उसकी जाति को गली दें या धर्म पर लानतें दें... स्वतंत्र देश के नागरिक जो ठहरे...जब बोलने में स्वतंत्रता है तो लिखने में भी है.... मैं जो मर्जी लिखूं... गाली लिखूं अपनी रचना में किसी को अपशब्द कहूँ या लफ़्ज़ों के माईने अपनी मर्ज़ी से निकालूँ और अगर कोई बता दे सही माईने तो उसके गले पड़ जाऊं कि तुम कौन होते हो सिखाने वाले... मुझे १० वर्ष का तज्रिबा है लिखने का... मैं जो लिखता हूँ अपने मतलब से उसका मतलब वही होता जो मुझे पता है... कभी कभी सोचता हूँ क्या यही स्वतंत्रता है ?

मुझे बुजुर्गों की बहुत बढ़िया बात याद आती है वो कहते थे कि तुम वो ही बोलो और वो ही कार्य करो जो तुमको पसंद हो... जो तुम्हारी आत्मा को सतुष्टि दे... और जो तुम्हें नहीं पसंद और न तुम्हारी आत्मा को सतुष्टि दे वो न तुम करों न औरों को बोलो करने को.... सीधा तरीका वो बताते थे... पर समझने में वक़्त लगा... 

मुझे अपना घर स्वच्छ रखना पसंद है... घर का कूड़ा बाहर गली में फेंक दूँ या पडोसी के घर के आगे या डस्टबिन में डालूं मेरी स्वतंत्रता है.... पर अगर यही मेरा पडोसी करे तो क्या मुझे अच्छा लगेगा ? मैं किसी को जाति के नाम पर धर्म के नाम पर गाली दूँ या जबरदस्ती करून उसके लिए मैं स्वतंत्र हूँ पर भूल जाता हूँ मैं कि दूसरा भी स्वंतंत्र है मेरे साथ ऐसा ही सलूक करने के लिए.... गाली... बेहूदा या अपशब्द मैं अपनी रचना में लिखता हूँ एक तो स्वतंत्र हूँ दूसरा मैं दिखाना चाहता हूँ कि मैं समय के साथ हूँ अलग नहीं हूँ....और साहित्य समाज का दर्पण है इस लिए वही लिखता हूँ जो सत्य है जो प्रचलन में है और जो कॉमन हैं ... अजीब से तर्क है परिभाषा है... अब ऐसी परिभाषा का क्या करें... जो दर्पण है ?

मुझे स्वर्गीय गोपाल दास नीरज जी के जीवन का एक वृत्तांत याद आता है...कहीं पढ़ा था कि एक कवि सम्मेलन में एक तथाकथित कवि अपनी रचना पढ़ रहा था फूहड़ लफ़्ज़ों से मनोरंजन कर रहा था...जनता का... नीरज जी से बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने उसको मंच से नीचे उतार दिया.... यही सच्चे साहित्यकार की और लेखन के प्रति प्रेम की पहचान है... हर कोई साहित्यकार हो ज़रूरी नहीं....हर किसी को लिखना आता हो अलंकृत करते शब्दों से ज़रूरी नहीं है.... हाँ इतना ज़रूर होना चाहिए कि उसमें फूहड़ता न हो... और ऐसे शब्दों का समावेश न हो जो साहित्य के नाम पर कलंक का काम करें.... साहित्य समाज का दर्पण है तो दर्पण साफ़ रखने कि ज़िम्मेदारी लेखकों...साहित्यकारों की ही है.... अगर कोई गली गलौच लिखता है या स्तर से नीचे गिर जाता है तो उसको याद दिलाना हमारा कर्तव्य बनता है... मर्यादा हर किसी क्षेत्र में ज़रूरी है... लेखन में भी.... जब हम मर्यादित होते हैं तो एक मर्यादित लेखक का निर्माण होता है जो समाज को मर्यादा सिखाता है... जब समाज मर्यादित होता है तो आनंद का वातावरण होता है... हमें अपने लेखन की संतुष्टि कि अनभूति होती है... यही बुजुर्गों की कही बात में स्वतंत्रता का अभिप्राय है... है कि नहीं.....

II स्वविचार...स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
३०.०६.२०१९



विधाःः छंदमुक्त

मेरा साया
मेरा हमसफर अनवरत
अनाधिकृत अधिकृत
चलता रहे।
जीवन में संयोग वियोग
निरत होता रहे।
हमसफर आगमन अपरिहार्य नहीं
एक भाग है प्रकृति का
मानवीय जीवनशैली का।
मिलते बिछुडते साथी
कुछ अच्छी भली
पुण्य, पापात्माओं का मिलन
इस सांसारिक सफर का सम्मोहन।
भूत भविष्य का आंकलन
बर्तमान खोते हमसफर
निरंतर बढ रहे सफर में
हमसफर कोई नहीं
छूटते जाते मंझधार में
गंतव्य तक कोई साथ नहीं देता
मानव स्वयं अपने कांधे
मानो अनावश्यक बोझ ढोता
सफर चलता चला और चलेगा
मगर आदमी फिर भी
यहीं कहीं रहेगा।
हमसफर नहीं जबतक साथ चला,
आप सबकी दुआ।
जो हुआ सब ईशकृपा।
मौत का साया
सच्चा हमसफर।

स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


II स्वतंत्र लेखन II 

ग़ज़ल - ग़मों की ज़िन्दगी में तो कभी मकसद नहीं होते…

ग़मों की ज़िन्दगी में तो कभी मकसद नहीं होते…
अगर जो ठान ले तो ग़म ख़ुशी सरहद नहीं होते…

दफ़न नफ़रत हमेशा ही हुई है वक़्त-ए-दरिया में….
मगर इस इश्क़ के हरगिज़ कभी कम कद नहीं होते….

छुपा कर रख लिया खंजर बड़े इत्मिनान से मैंने….
जुबां के वार तीखे भी कभी बेहद नहीं होते... 

कभी मैं भी चला आता कदे तेरे को सुन साकी…
खुदा के नूर मेरी रूह की गर हद नहीं होते…

ज़माना लाख चाहे भी बुरा ‘चन्दर’ नहीं बनता….
महब्बत करने वाले तो कभी भी बद नहीं होते….

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
३०.०६.२०१९

विषय-स्वतंत्र लेखन
रचना -जीवन एक संघर्ष
==============================
जीवन एक संघर्ष
जीवन एक संघर्ष की नौका,
डगमग डगमग करती।
कठिन संघर्ष से मिले सफलता,
कश्ती पार निकलती।।
सुख दुःख तो हैं धूप छाँव,
फिर क्यों रोना क्यों हंसना।
क्यों सफलता से इतराना,
क्यों विफलता से घबराना।
उठो करो संघर्ष जीवन में,
यह समय चक्र बतलाती।
जीवन एक संघर्ष की नौका,
डगमग डगमग करती। ....
छोटे पंखो वाली चिंड़िया,
दूर गगन में उड़ती देखो।
साहस की वह आश जगाती,
निर्भय रहकर जीना सिखो।
हर पग हर पथ है कठिन,
कठिन डगर भी है भारी।
लक्ष्य अडिग हो हर मन में,
मिले सफलता साहस भारी।
आशाओं की किरणें खिलती,
सदा परिश्रम यह कहलाती।
जीवन एक संघर्ष की नौका,
डगमग डगमग करती। ...
जीवन हो आदर्श हमारा,
जग में ऐसा काम करें।
व्यर्थ न बिते समय की धारा,
कीमत की पहचान करें।
कठिन डगर भी हो आसान,
मेहनत का गुणगान करें।
कभी परिश्रम व्यर्थ न जाता,
समय का हम सम्मान करें।
लक्ष्य सदा ही जिसने पाया,
है सफलता वह कहलाती।
कठिन संघर्ष से मिले सफलता,
किश्ती पार निकलती।
जीवन एक संघर्ष की नौका,
डगमग डगमग करती।.....
(स्वरचित /मौलिक रचना )
...........भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखंड )


स्वतंत्र लेखन

. इंतजार की बेताबी 

अंधेरे से कर प्रीति
उजाले सब दे दिए
अब न ढूंढना
उजालों में हमें कभी।

हम मिलेंगे सुरमई
शाम के घेरों में 
विरह का आलाप ना छेड़ना
इंतजार की बेताबी में कभी।

नयन बदरी भरे
छलक न जाऐ मायूसी में 
राहों पर निशां ना होंगे
मुड के न देखना कभी।

आहट पर न चौंकना
ना मौजूद होंगे हवाओं में 
अलविदा भी न कहना
शायद लौट आयें कभी।

स्वरचित 

कुसुम कोठारी ।


एक व्यक्ति है,
अनेक व्यक्ति हैं,
व्यक्तियों से
बना ये समाज है।
यहां अंधेर राज है,
वहां बटेर राज है।
इधर चोर राज है,
उधर खखोर राज है।
सब धान है
बाइस पसेरी,
सत्ता अपराधियों
की चेरी,
बढ़ती भ्रष्टाचारी घरी,
भरी है सिर्फ चोरी चमारी।
इक तरफ फूट है,
दूसरी तरफ लूट है।
यहां जातियों की
खायीं है,
धर्म की ऊँची दीवारे हैं,
भाषा विभेद की लंबी
मीनारें है।
किसी को अज़ान से
है परहेज़,
किसी को मंदिरों की
आरती से गुरेज़।
यहां दाढ़ी चोटी का झगड़ा
है तगड़ा,
ये समाज हर तरफ
से है लँगड़ा।
यहां अल्लाहु अकबर
व वन्देमातरम
में वैर है,
अब नही किसी की
खैर है।
रहनुमाओं में लूट
की होड़ है,
सच को गिराने,हराने के
लिये गठजोड़ है।
न ख़ुदा न ईश्वर से
किसी का वास्ता,
ईमान हो गया है सबसे
सस्ता।
उठो जवानों
प्रतिरोध करो,
बुराइयों का विरोध करो,
वरना मिट जाओगे,
गुलामी के गर्त में पुनः
समाजाओगे,
पीढ़ी का कलंक
बन जाओगे,
आजादी गंवाओगे,
क्या आजादी गंवाओगे????
भावुक

विधा - गीत 
्रतिभागी : आशुतोष तिवारी 'कुमार आशू'

★★★★★★★★★★★★★★★★★

आज तुम्हारी बात मानकर, पथ से स्वयं हटा हूँ लेकिन,
कभी तुम्हारी याद आयी तो, कहो प्रिये! किस ओर बढूंगा..??

प्रणय मात्र को शुचि रखने में, होंठ सदा ही मौन रहे हैं..
नयनों ने विद्रोह किया पर, मात्र रक्त के अश्रु बहे हैं..
करवट ने बिस्तर की सिलवट में रहकर रातें काटी है..
और सिसकियों ने ख्वाबों की काली परछाई बाँटी है..!
उसी उदासी के मंजर में, खुश रहने की कोशिश करके,
झूठी हँसी दिखाने में गर आँख भरी तो क्या करूँगा..!!
कभी तुम्हारी याद आयी तो...........................!!१!!

आज तुम्हारे बिन ये दुनिया हँसती हमपर, पागल कहकर,
कहती है 'वो कहा गयी' जो गयी लौटने को कल कहकर,
सुनता हूँ मैं ताने उनके, आँखों मे आँसू भर भर कर..
बेबस, बेचारे राही सा जीता हूँ हर पल मर मर कर..!
छोड़ो दुनिया क्या कहती है, मगर मुझे अब तुम्हीं बताओ, 
अगर जिंदगी हार गया तो किसके सिर यह दोष मढूंगा..!!
कभी तुम्हारी याद आयी तो...........................!!२!!

दुनिया की आपाधापी में, तुम्हें चुना था जीवनराही..
किन्तु पराए के तुम निकले, गए छोड़ कर घोर तबाही..
जिसे ख़ुदा सा पूजा मैंने महज कांच की गुड़िया निकली..
मेरी नजरों में हीरा थी, मगर जहर का पुड़िया निकली..!
माना बहुत गुनाह तेरे हैं, मगर प्यार करता हूँ मैं भी,
तुम्हें बेवफ़ा कह भी दूँ तो कैसे तेरे गीत पढूंगा..!!
कभी तुम्हारी याद आयी तो.......................!!३!!

✍️ 'कुमार आशू'

30/06/2019
शीर्षक:-"क्या बला है जिंदगी"

कामना के जाल में, जंजाल सी यह जिंदगी...
आंँख में सागर छुपाए, मुस्कुराती जिंदगी... 
फैलता जब मन! समेटे, बन्दिनी सी जिंदगी... हर घड़ी लेती परीक्षा, प्रश्न है यह जिंदगी... 
घाव गहरे हैं मिले, तलवार सी यह ज़िंदगी... तैरने आता नहीं, मझधार सी यह जिंदगी...
फूल पाने की फिकर में, शूल सी यह जिंदगी...
स्वप्न होंगे सच सभी, इस झूठ में यह जिंदगी... 
अतृप्त हीं प्यासी, फिसलती रेत सी यह जिंदगी... 
जी सकूँ!यह जंग जारी, हार जाती जिंदगी... 
ढ़ो रही है लाश अपनी, क्या बला है जिंदगी...

स्वरचित 'पथिक रचना'

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