Thursday, April 4

'''फुर्सत " 03अप्रैल 2019

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             ब्लॉग संख्या :-347
कभी चलते थे
रिक्सा,साइकिल, ताँगे से🚲
आज बाइक,स्कूटी, तवेरा के
फैन हो गये🚘
देखो हमने अपना 
कद बढ़ाया
हम इलेक्ट्रॉनिक मैन
हो गए।

अब रिस्तों की कोई
बंदिशे नहीं हैं
यूँ ही बिसर गये सब
कोई रंजिशें नहीं हैं😥
है जरूरत न किसी को
किसी की😥
रिस्ते भी अब सेल्फ डिपेंड
हो गए।

अब चाचा, मामा, बुआ,ताऊ
कोई दरवाजा 😞
नहीं खटखटाता
कोई हाथ देकर अपना
नहीं बुलाता😞
क्यों "फुरसत"नहीं हमें
चरण स्पर्श जाने क्यों 
बैन हो गए।
हमने अपना कद बढ़ाया
हम इलेक्ट्रॉनिक मैन हो गए।।

🌹🌹स्वरचित🌹🌹
सीमा आचार्य(म.प्र.)


कहाँ है फुरसत किसको फुरसत 
बच्चे भी अब रहते हैं तनाव में ।।

क्या क्या न भूल रहा है इंसान
इस अमोल वक्त के आभाव में ।।

चिड़चिड़ापन और नशे की लत 
आये अति काम के दबाव में ।।

सन्तुलित दिनचर्या भूला है
बदलाव आया है स्वभाव में ।।

रिश्ते नाते सब छोड़ दिये 
एक दौलत के लगाव में ।।

निपट अकेला रहा ''शिवम"
अब मरहम कौन दे घाव में ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 03/04/2019

🍁
फुरसत से कुछ समय निकालो,
फिर हम बात करेगे।
भूली बिसरी बातो को मिल,
फिर से याद करेगे।
🍁
बचपन के दिन याद सुनहरे,
खुश रहते थे दिन थे अपने।
रोज लडाई झगडा करते,
अब वो दिन है जैसे सपने।
🍁
फुरसत से कुछ समय निकालो,
फिर हम साथ चलेगे।
उन पतली पगदण्डी पे चल,
अपने गाँव चलेगे।
🍁
याद करेगे हम वो लम्हे ,
जो अब ना आयेगी।
पैसा बहुत कमाया पर वो,
सुख ना दे पायेगी ।
🍁
माँ के आँचल मे छुप जाना,
भाई-बहन को खूब सताना।
शेर के अन्तर्मन की बातें,
हँसना-रोना और मनाना ।
🍁
मिलो कभी फुरसत से तो,
बाते करेगे।
तुम धीरे से कहना,
हम चुपके से सुनेगे।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf


फुरसत :-
बड़ी मुश्किल से मिलै
फुरसत के कुछ पल
आओ !इन्हें मिल कर 
उत्सव में बदल दें हम।
क्या पताकल यह पल
मिलं न मिले हमको
जिंदगी यूं ही गुजर 
जायेगी प्रतीक्षा में।
जो मिली फुरसत तो
दुबारा कभी मनायेंगे
अनमोल क्षण मिले जो
गिरह गांठ में बंधायेगें ।
स्वरचित :-उषासक्सेना


गजल पेश है,
कभी फुरसत मिले तो आ जाना,

इस दिल की जलन को बुझा जाना।।1।।
आंखों में सावन की झड़ी लगी,
अश्क आंखों की सूखा जाना।।2।।
अंधेरों में मन भटकने लगे,
मन का दीया को जला जाना।।3।।
जिस पल मिलने को दिल चाहे,
आ के मीठे बोल सुना जाना।।4।।
बैचेन है दिल, मौसम है उदास,
मुरझाये दिल को हंसा जाना।।5।।
सपने जीवन के टूट ते रहे,
जीने की चाह जगा जाना।।6।।
देवेन्द्र नारायण दासबसना छ,ग,।।
स्वरचित रचना।।

भावों के मोती: विषय: "फुरसत" 03-03-2019
हक़ीकत में रिश्ता ये खून का था।
इक-दूजे पर मर-मिटने का जुनून था।

बिन-देखे चैन नहीं आता था।
हमें ये साथ दिल-ओ-जान सा भाता था।
**************************
वक़्त ने ये कैसी करवट सी ली।
गलतफहमियों का तूफ़ान उठा।
सांसों से बंधे रिश्ते तार-तार हुए।
पावन से अटूट सम्बन्ध दागदार हुए।
**************************
ना उन्हें मिली फुरसत,न हमें ही मनाने की सूझी।
तनहाइयाँ बढ़ती गईं, अहं चरम पे था।
कौन पहल करे, यही यक्ष प्रश्न था।
यही खून के सुखद रिश्ते का दुखद अंत था।।
(स्वरचित) ***"दीप"***


युग बदला बदली व्यवस्था
अब फुरसत भी स्वपनिल हुई
भूल गये स्वच्छंद विचरण
जब से शिक्षा बोझिल हुई
बचपन भूलें, भूलें जवानी
भूल गयें उन मेलों को
फुरसत नहीं अब खिलने की
उन बासंती फूलों को
टीवी,कम्प्यूटर, मोबाइल ने
कैदी हमें बनाया है
दरक रहे सस्नेही रिश्ते
जब से आधुनिकता को पाया है
संस्कृति, सभ्यता अब हमसे
कोसों दूर हुई
फुरसत को भी अब फुरसत से
मिलने की उम्मीद नहीं।
स्वरचित ----🙏🌺 राधे राधे


जिंदगी से आज
मिली फुरसत
जा बैठी कुछ पल
और फिर
नजरें मिली
चाँद से
लगा जैसे देख मुझे
वो मुस्कुराया
मैं भी ज़रा सा 
मुस्कुराई
देखा पलट कर
फिर मैंने
अब भी मुस्कुरा रहा था वो
पूँछ रहा था जैसे
वो मुझसे
कहाँ थी तुम
जिसे मामा कहती थी
वो आज भी इंतज़ार में है
तूम्हारे
डूब गई मैं 
सोच में
सच कहाँ थी ??
मैं
यहीं तो थी अपनी
जिंदगी की उलझनों में
कभी बेटी,बहन,बहू
पत्नी ,माँ और
न जाने कितने
किरदारों में
अपने आप को
पिरोकर एक
माला बनाने
में व्यस्त
देखा वो अब भी 
मुस्कुरा रहा था
बिखेर अपनी
चांदनी
बिताने दो पल
साथ मुझे
ललचा रहा 
था
और मैं फिर
खोने जा रही थी
अपने आप को
उन्हीं किरदारों
में.....।।।।
अंजना सक्सेना


फुरसत मुझे बहुत है फिर भी,
भजन प्रभु का नहीं करता हूँ।
गुमशुम प्रमाद में बैठा भगवन,
क्यों कभी तुम्हें नहीं भजता हूँ।

ऊलजुलूल बातें आऐं मानस में,
मंथन विविधताओं का चलता है।
सत्कर् धर्म में रूचि नहीं लगती ,
क्यों मनमंन्दिर प्रदूषित रहता है।

कुछ रागद्वेष उपजते रहते मन में,
फुरसत प्रेम प्रीत की नहीं मिलती।
जीवन नारकीय सा लगता प्रभुजी,
आत्मीय सुखद शांति नहीं मिलती।

अब ऐसा कुछ करदें हे परमेश्वर,
सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्मित हो।
चहुंओर चले सुखशांति की वयार,
यहाँ जन मन श्री गणेश हर्षित हो।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र
.



****
चलो कुछ देर दुख दर्द भूल जाते है
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं।
भागते दौड़ते शाम हो गयी
उलझनों में उलझ रह गये
जिंदगी अब थकाने लगी है
चलो कुछ देर दुख दर्द भूल जाते है।
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं
उगते सूरज की आभा से
भोर की मन्द बयार से,
मन शीतल कर लेते है,
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं
कुछ देर को दुख दर्द भूल जाते है।
चले उन हसीन वादियों मे
ऊंची पर्वत मालाओं मे,
कुछ गीत गुनगुनाते है,
कुछ देर को अपने दुख दर्द भूल जाते है
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं
आओ एक शाम बैठे जरा
नीले गगन के तले
सागर का किनारा हो,
आती जाती लहरें मन को,
भिगो जाती हो,
कुछ देर को अपने,दुख दर्द भूल जाते है
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं ।
कैसे भी हालात हो,
मन को दृढ कर ले,
विश्वास का सम्बल लिये
हमेशा के लिये अपने दुख दर्द भूल जाते है
आओ कुछ फुरसत के लम्हे बिताते हैं।

स्वरचित 
अनिता सुधीर



दौडती भागती जिन्दगी रह गई।
फुर्सते वक्त बस ढूंढती रह गई।


भागता - दौडता मै रहा उम्र भर।
छूट पीछे कहीं हर खुशी रह गई।

मुस्कुराती जहां उम्मीद थीं कभी।
चेहरे पर फकत मायूसी रह गई।

थम गए पांव जब मेरे जज्बात के।
पलकों पर मेरी कुछ नमी रह गई।

चल दिए तोड कर वो दिल मेरा। 
मेरे साथ बस यह शायरी रह गई।

विपिन सोहल



विधा- कविता
***********
कहाँ खो गये फुरसत के वो पल, 
जीवन में बड़ी मची है हलचल,
सुबह उठते ही होते काम शुरू,
ये करूँ कि वो करूँ ????

सबकी पंसद का खाना पकाऊँ, 
घर के सारे काम निबटाऊँ,
फुरसत को मैं कैसे बुलाऊँ?
व्यस्तता अपनी किसे समझाऊँ?

जिम्मेदारी बहुत पड़ी है, 
समय की सुई आगे बढ रही है, 
काम समय पर जब सारे होंगें,
तभी फुरसत के पल हमारे होंगें |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


फुरसत

पग पग लगे सितम सी
उलझी हुई यह जिंदगी,
कर्तव्यों के बोझ तले,
कैसे खुद को पहचान सकूं,
इतनी तो फुरसत दे दाता,
मैं दर्द किसी का जान सकूं।
प्रगति पथ पर बढ़ता मैं,
इतनी आगे निकल आया,
अंधी सी इस दौड़ ने मुझसे,
छीन लिया हर अपना पराया।
कर दया बिछुडों के प्रेम का,
कर थोड़ा रसपान सकूं 
इतनी तो फुरसत दे दाता,
मैं दर्द किसी का जान ससकूं।
इंसानी भावों का अभाव क्यों,
क्यों अपनों से दूर हैं हम।
यह भी कैसी प्रगति है,
माया के नशे में चूर हैं हम।
क्यों फुरसत न मिलती,
कि कर तेरा ही गुनगाण सकूं
इतनी तो फुरसत दे दाता,
मैं दर्द किसी का जान सकूं।

जय हिंद

स्वरचित : राम किशोर, पंजाब


चलो मशगूल जिंदगी से 
चुरा लायें फुरसत के कुछ पल ।
भौतिकता के बाजार में ,
क्या रखा है स्वार्थ के व्यापार में ।
खो गये अपनत्व भरे स्नेहिल रिश्ते 
पवित्र प्रेम का कर्ज ,चढ़ गया सर 
दिखावटी नेह की ,कम पड़ रही किस्तें ।
सब स्वार्थ के रिश्ते साधने में लगे 
यूँ ही बेवजह अब कोई 
नहीं मिलता किसी से गले ।
चलो मसरूफ जिंदगी की भूल भूलैया से
ढूंढ कर कुछ पल फुर्सत के 
बैठे कहीं अकेले में ।
खुद से भी हो मुखातिब कभी 
खुद कभी खुद का ही दीदार कर लें ।
औरों से ना सही , खुद से ही 
थोड़ा प्यार कर लें ।

(स्वरचित )सुलोचना सिहं 
(भिलाई )दुर्ग


फुरसत किसने कब पाया है
मिला क्या और खोया क्या
जिंदगी की इस भागदौड़ में
हासिल किसे क्या हो पाया है

फुरसत नहीं है मुझको
ये तो बस एक बहाना है
कहके ऐसा नजरें चुराना है
अपनो को बना रहे बेगाना है

अपनों संग बैठो फुरसत से 
पल दो पल साथ बिताके
थोड़ी खुशियों को जी लेना है
कुछ और हमें मिले न मिले
एक मीठी मुस्कान तो आना है।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल


इतनी फुरसत कहाँ कि फुरसत से फुरसत पर लिखूँ।मसलन चंद पंक्तियाँ सादर समर्पित
फुरसत
दुनिया के बाजार में
जीवन के व्यापार में
माया का कारोबार है
हम सब खरीदार है
तृषा,तड़प तकरार लिए
जिम्मेवारियों का भार लिए
शिथिल पड़ा अब पाँव
तलाश रहे सुकून ठाँव
फुर-फुर्र पर सत न मिला
बहु-यत्न फुरसत न मिला
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


प्रस्तुति 1
समीक्षा हेतु 
फुरसत 
हाइकु 
कहाँ फुर्सत 
बीत जाएं यूँ पल 
है हसरत 
2
कहाँ है पल 
फुर्सत की फसल 
था बचपन 
3
नहीं फुर्सत 
जीवन बीत रहा 
गवांता पल 
4
वो फुरसत 
ग्रामीण हरियाली 
थी प्राण वायु 
5
वो है पूर्वज 
युवा की अनदेखी 
रोती फुर्सत 
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित 
देहरादून


आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

भागती जिन्दगी में खुद का वजूद खोजता हूँ
नीम के छाँव में बैठने का वक्त ढूंढ़ता हूँ
अपनी मुसीबतों को बस देखता हूँ
आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

कोयल की मीठी आवाज सुनने को बाग ढूंढ़ता हूँ
व्यवसायिकता के युग में नैतिकता खोजता हूँ
असहाय होकर आधुनिकता की अंधी दौड़ देखता हूँ
आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

टीवी,मोबाइल, लैपटाप की काट ढूंढ़ता हूँ
सेहत के राज इंटरनेट पर खोजता हूँ
प्रकृति के विनाश की बस लीला देखता हूँ
आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

जवानी में अपना बचपन ढूंढ़ता हूँ
वर्तमान की बिसात पर भविष्य खोजता हूँ
सुनहले भविष्य के सपने देखता हूँ
आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

पक्के घर में कच्चे घर की दहलीज़ ढूंढ़ता हूँ
होटल के खाने में दादी नानी के खानों का स्वाद खोजता हूँ
आंगन में लगे तुलसी विरवे को देखता हूँ
आज फुरसत के पल ढूंढ़ता हूँ

स्वरचित
मनीष श्री
रायबरेली


स्वरचित लघु कविता
दिनांक 3.4.2019
दिन बुधवार
विषय फ़ुरसत
रचयिता पूनम गोयल

इस भागदौड़ भरे
जीवन में
अपने-अपनों से
सम्पर्क हेतु ,
निकालो कुछेक पल फ़ुरसत के ।
क्योंकि लौटके
न आएँगे फिर ,
बीते पल जीवन के ।।
बहुत तीव्र है गति ,
इस जीवन की ।
पर तुझे थोड़ा
ठहरना होगा ।
पीछे न छूट जाए
कोई अपना ,
तुझे स्वयं पर
नियंत्रण करना होगा ।।
है बेहतर कि
समय के साथ-साथ बढ़ाए हम कदम ।
पर फ़ुरसत न हो
किसी अपने के लिए ,
उस जज़्बे में भी
है नहीं दम ।।
कुछ पल ठहर , बन्दे ,
और फ़ुरसत की साँस ले ।
जीवन की सच्चाई को ,
थोड़ा तो समझ ले ।।


हमको तो कभी लम्हे फुरसत के नहीं मिलते ,

जब से जहाँ में विकिसित हो गये हैं हम |

अब तो कभी हमारे दिलों के पट नहीं खुलते ,

जब से कि बहुत अधिक ज्ञानी हो गये हैं हम |

हमको फुरसत ही नहीं मिला करती है अब तो ,

घड़ी दो घड़ी को भी अपनों ही से मिलने की |

दुनियाँ में हो गये हैं कितने सम्बंध बौने अब तो ,

अब तो संसार में अहमियत हो गई धन कमाने की | 

ये नया युग, नया जमाना कह है रहा आजकल हमसे ,

हो और भी लम्बा दिन दुआ यही कर रहा रब से |

तमन्ना है मिलें खुद से कभी हम भी तो फुरसत में ,

जमाना आया वो कि मरते दम तक चाहत नहीं मिटती |

लेकर आये थे चार दिन दुनियाँ में हम जो रब से ,

क्या किया उन दिनों का हमने कभी सोचेंगे फुरसत में |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,


विषय-फुरसत

यह अधूरे ख्व़ाब‌ मेरे
तेरी यादों में दिन-रात भींगे
तुझको इतनी फुरसत न थी
कभी जो मुड़कर भी देखे
गलतफहमियाँ थी यह मेरी 
जिन्हें मैं पाल बैठी थी
जो ख्व़ाब सजाए थे आँखो में
उन्हे सच मान बैठी थी
बैरन निंदिया आँखो से ओझल
तन्हाई से बातें करती थी
पल-पल बिखरते ख्व़ाबो के
टुकड़ों को समेटा करती थी
चाँदनी रातों में झांँकती झरोखे से
जाने कितनी रातें निकलीं
आँखो ही आँखो में
टूटते तारे सी आज मेरी ज़िंदगी
ज़िंदा होकर भी आज मैं ज़िंदा नहीं
जाने कितनी बार गुजरी मैं तेरी गलियों से
पूछती थी मैं पता फूलों और कलियों से
फुरसत मिले कभी तो आकर तू देख जरा
आज भी मैं वहीं इंतजार करती तेरा
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित


इतराया न करो जिंदगी
इतने तुम्हारे काम नहीं ! 
कि रात दिन मशगूल हो
बहाने बनाती फिजूल हो ! 
हमेशा का यही बहाना , 
यूं तुम्हारा कनि काटना , 
अपने रूप पर इतराना , 
हर खुशी पर देर से आना, 
क्या हैं अनमोल मुस्कराना ? 
मैं नहीं बेगाना -दीवाना 
दुनियाँ में पल का आशियाना ।
गुजारिश एक बतियाती रहो
जिंदगी ऐ सामने मुस्कराती रहो ।
फुरसत हो तो हम तुम मिले , 
आँखें चार होतो कमल खिले ।
दिन बहुत लम्बे ये काम के , 
गर ये शाम जल्दी होतो मिले ।
एक-एक दिन जीवन का लम्बा
इस काम से अवकाश कब ढले ! 
फुरसत में बच्चों को कुछ प्यार दे, 
अपनों से मिले , आये को सत्कार दें।
किसी को काम से निजात नहीं हैं, 
काम पर काम हमेशा विश्राम नहीं हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल'


दौड़ते ही रहे यूँ ख्वाहिशों के तले,
बहते हुए वक्त में बस हाथ ही मले,
सुला के बेचैनियाँ सुन सकूँ दिल की 
कभी खुद से भी मिलूं गर फुर्सत मिलेl

अब अवकाश होके भी,अवकाश कहाँ रहता है 
अब वो सुकून वाला, इतवार कहाँ रहता है l
कामों की फ़ेहरिस्तें मुँह चिढ़ाती है मुझको 
ढूँढ़ता हूँ यादों में, वो पुराना यार कहाँ रहता है l

खुद से मिलने का भी बहाना लगा रहता है, 
खो ना जाऊं दुनिया के मेले ये 
डर बना रहता है,
समय का हर पल,होता ही गया महँगा, 
फुरसत के कीमती लम्हों का इंतजार बना रहता हैl

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


"
शीर्षक-फुरसत"
आरामकुर्सी लुभा रही मुझे
रह रह कर बुला रही,
आओ देखो,एक बार मुझे
फुरसत के पल बितायो साथ मेरे ।

कैसे समझाऊँ?आज तुम्हें
अधिर न हो तुम आज ऐसे
जब सब होगें मेरे साथ
साथ बितायेंगे फुरसत के पल ।

बीते दिन हम याद करेंगें
जी,भर कर हम साथ जियेंगे
कर लेने दो इंतजार मुझे
फुरसत के पल फिर आवेगे।

सुनकर मेरी ऐसी बात
कुर्सी ने बोली, सिर्फ एक ही बात
सभी करते है मुझसे प्यार
पर मुझको है सिर्फ आपका इंतजार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


फुरसत नहीं है

अक्सर बेवजह,
मैंने जिस को कहा,
फुरसत नहीं है।
टूटे सपने थे,
सब मेरे अपने थे।
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
वो आज भी, 
हंसकर मिलते हैं।
बस मेरे कदम,
न आगे बढते हैं ।
बदला हूँ मैं ,
वो आज भी वहीं हैं,
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
वो तो अक्सर बुलाते,
मुझे राह में ।
बस मैं ही न रहता,
उनकी चाह में ।
मैं ध्यान भी न देता,
नमस्कार कही है,
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
मेरे अंदर का इंसान,
कहां मर गया।
फूल मानवता का,
आखिर क्यों झर गया ।
फुरसत नहीं,
बात लव पे सजी है,
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
क्यों कटता गया मैं,
मेरे अपनों से।
या प्यार था मुझको,
मेरे सपनों से।
न दया न अब,
आंखों में नमी है,
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
क्यों शहर गाँव से,
प्यारा लगे।
बचपन का वो यार,
न हमारा लगे।
क्यों भूलूं वो गाँव,
बचपन की जमीं है,
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?
हर अपने को कहना,
फुरसत नहीं है।
क्या यह सही है ?
क्या यह सही है ?

स्वरचित : राम किशोर, पंजाब ।


विधा -हाइकु

1.
करके काम
फुरसत के पल
मिलेंगे कल
2.
काव्य करते
बैठ फुरसत में
साहित्य प्रेमी
3.
भागदौड़ में
फुरसत किसको
व्यस्त जीवन
4.
मूर्ति गणेश
फुर्सत से बनाई
मूर्तिकार ने
5.
मिली फुर्सत
बच्चे लगे कमाने
खिला जीवन
***********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा


ख्वाहिशों को गले लगाकर
ताउम्र दौड़ते-भागते रहे।
दौलत,शोहरत सब पा लिए
मगर रूहे-सुकूं खो दिए।
सपनें मुकम्मल कर लिए,
मगर अपने सारे छूट गए।
क्या किए, क्यों?किसके लिए?
जब जाना ही है खाली हाथ
वैगेर कुछ लिए।
काश! कि कुछ फुरसत होती,
अपनों के लिए।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर


फुरसत मिली 
सुस्ताने लगा कुछ
लेटा नीम की छांव 
धरती नरम बिछौना 
किसान का लगाव 

फुरसत मिली 
बैठा कर लंबे पांव 
ऑफिस ऑफिस बस 
दिन भर काम काज 
बस अब थोडा आराम 

फुरसत मिली 
परीक्षा खत्म हुई 
दिल तो बहुत आराम 
न होमवर्क न काम 
बस खेलना सुबह शाम 

फुरसत मिली 
निपटे घर के काम 
बच्चे,रसोई, सफाई 
जल्दी जल्दी निपटाई
अब तनिक तन्हाई 

फुरसत मिली 
घर लौटा परदेसी
बैठा अपनो के संग 
जीवन के सुंदर रंग 
मन प्रसन्न ज्यों पतंग 

फुरसत मिली 
ले अपनी कलम 
बैठा भावों के संग 
करता नवीन सृजन 
आकार लेते नव रंग 

फुरसत मिली 
बैठे दोस्तो के संग 
हंसी ठहाके मन की बाते
यादों के उभरते पल 
कट जाते दुख के पल 

फुरसत सबकी 
अपनी अपनी सी 
काम अपना अपना सा 
चाहिए भागता जिंदगी को 
कुछ फुरसत के हसीन पल 

कमलेश जोशी 
कांकरोली राजसमंद



फुरसत के दिन निकाल कभी आके मिल,

है अदृश्य जो हिज़ाब वो हटाके मिल।

नफरत मिली सदा तुझे ऐ मौत सुन ,

बेपनाह दूंगा प्यार गर बता के मिल।
-------
खुशी दे नहीं सकता ग़म का तारीफ करो,

मुहब्बत रंग बदलती है सबको वाकीफ करो।

इश्क़ दा खौफ़ है कि छुप के मौत आती है ,

तूँ मारना भूल जायेगा नजर लड़ाके मिल ।

सन्तोष परदेशी


फुरसत ही फुरसत है मुझको,
काम नहीं मै कुछ भी करता।
हुआ बूढा अब फुरसत में पूरा,
पर काम धेले का नहीं करता।

चुगलखोर मै चुगली करता।
ये ऊटपटांग सी बातें करता।
हुआ फालतू घर से सचमुच,
इधरउधर मै दिल्लगी करता।

ये बच्चे बहुत चिढाते मुझको,
सभी विनोद मुझसे ही करते।
साहित्य सृजन करूँ मै दिनभर,
ऐसा क्यों रोजाना ही कहते।

सेवा निवृत्त हुऐ क्या सर जी
अपने शर्मा जी भी पूछ रहे थे।
कारण पूछा कुछ नहीं हम तो,
सब दिन लिखते तब पूछ रहे थे।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय



कभी मिले फुरसत तो..
जाकर आना फिर उस दहलीज पर..
जहाँ सूखा कुछ आँखों का पानी..
तुम आओगे इस उम्मीद पर..
कितने स्वप्न संजोए थे उन आँखों ने..
कभी सहारा बनोगे इस उम्मीद पर..
अपनी भागदौड़ भरी जिंदगी से..
निकाले थे अनमोल पल फुरसत के..
लूटा दी हर खुशी तुम पर..
ख्वाब किए पूरे तेरी हर जरूरत के..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़



 ना कोई शिकवा हैं ना कोई शिकायत हैं
कौन अपना हैं कौन पराया हैं 
सोचने की ये फुरसत नहीं 

दिल से तो सारा जहाँ अपना हैं .

आज वो आये बड़े वक्त बाद 
बैठे हम भी बड़ी फुरसत से 
बातें होगी दिल से दिल की 
एक दशक के बाद इश्क मोहब्बत की .

इतना आसान नहीं हैं 
हर दिल कागज पर लफ्जों को उतारना 
फुरसत के पल ढूँढने पड़ते हैं 
कभी खुद को अपनों से दूर करना पड़ता हैं कभी अपनों से फुरसत के लम्हें चुराने होते हैं.

कभी फुरसत मिले तो 
फिर से आ जाना बचपन की गलियों में 
मिल जाये फुरसत तो बचपन को फिर जीना हैं 


देखिए जी फुर्सत को,
फुर्सत हो गई है ।।
सारा दिन बैठे यूं ही,
आजकल रो रही है ।।
रिश्ते हुए हैं लोप,
मित्र कहीं खो गए हैं ।।
मोबाइल से हुआ नेह,
रिश्तेदारी सो गई है ।।
अकेलेपन से हुई यारी,
घेरे रही सब बीमारी।।
सुख-दुख साझा नहीं,
आदमीयत मर रही है।।
नीलम तोलानी
स्वरचित।।
फिर नटखट मासूम बच्चा बनकर शरारतें करनी हैं. 


जिंदगी की खेती में
फुरसत के बीज नहीं
बस कर्म की फसल
बोई जाती है

दिन-रात अपने को
अंकुरित करने को
खुद के श्रमसीकर से
सींचना होता है

कभी खिलखिलाती नदिया
कभी गंगा-जमुनी जलधारा
कभी सूखे सावन सा
बन जाना पड़ता है

जरुरी नहीं तब भी
जीवन की खेती लहलहाए
कभी रुक्ष बनती है ,कभी
सोनामी लहरों में डूब जाती है
फुर्सत का बीज फिर भी
अंकुरित नहीं होता।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित

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