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ब्लॉग संख्या :-355"मृत्यु"
1
जन्म व मृत्यु
नहीं हाथ किसीका
ईश महिमा
2
सतत् चलता
समय का पहिया
मृत्यु की ओर
3
मृत्यु ही सत्य
सभी को ही मिलता
रोके न रुके
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
समय अपनी रफ्तार से भागता है
पता ही नहीं चलता
जीवन की यह गाड़ी कब
ज़िंदगी का
सुहाना सफर छोड़कर
एक अनजाने अनचाहे
सफ़र पर चल पड़ती है
जहाँ एक-एक करके
दूर होते जाते अपने
हाथों से हाथ छूटने लगता
यह कैसा मोड़ ले जाती ज़िंदगी
जहाँ हार सिर्फ हार दिखाई देती
उम्मीद की किरण धूमिल हो जाती
यही शाश्वत सत्य है ज़िंदगी का
जहाँ आकर
हर इंसान हार जाता है
मृत्यु पर किसी का
बस नहीं चलता
चोट पर चोट लगती जाती है
फिर भी खड़े होकर कर्म करते जाना
यही मानव जीवन की नियति है
कहते हैं सब हिम्मत से काम लो
रुको मत आगे बढ़ो
यादों को साथ लेकर
दुनियाँ तो आनी-जानी है
जीवन मृत्यु की कहानी है
मुश्किल होता है संभलना
इस खालीपन को जीना
बहार में भी पतझड़-सी ज़िंदगी
वृक्ष से शाखाओं का गिरना
सारी रौनकें लेकर
निकल जाता वक़्त
हम कोसते रह बस उस जाते लम्हे को
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित
दिनांक-
11/4/2018
मृत्यु
------
लिया जन्म
मनुष्य योनि में
जन्म की सहचर
मृत्यु
भुला सब
पड़ गया
मोह
प्रेम में
प्रेम
एक गहरा
समंदर
लहरों
में हिलोरें
लेता मन
न जाने कैसे -कैसे
डूबता उतराता है
कहीं अन्तस् में
उसके स्पर्श से
स्पर्श से उसके
भीग सा जाता है
ईश्वरी
प्रेम एक गहरी
खाई न जाने
कब गिरकर
मृत्य हो गयी
लेकिन....
मैं क्यूँ घबराऊँ
इस मृत्यु से
तुम्हारे प्रेम में ये
मृत्यु भी कितनी
सुंदर हैं
अब सिर्फ तुम्हारा
साथ ,तुम्हारा ध्यान
और तुम्हारे रंग में
रंगी मैं ।।।।।
स्वरचित-
अंजना सक्सेना
इंदौर (म.प्र.)
छंदमुक्त रचना
मृत्यु....
जीवन का एक छोर
बीच में भाग-दौड़
मृत्यु....
सिर्फ बदनाम
लूटती तो जिंदगी
मृत्यु....
देह त्याग कर
आत्मा यात्रा पर
मृत्यु....
मोह को ठोकर
माया पे हथौड़ा
मृत्यु.....
छोड़ गई कर्म
साथ ले गई तन
मृत्यु...
वक़्त नहीं देखती
दुनियां स्वप्न बुनती
मृत्यु....
विदाई की घड़ी
ज़िंदगी हार कर पड़ी
मृत्यु...
पारिस्थिकी सँतुलन
प्रकृति का नियम
स्वरचित
ऋतुराज दवे
मृत्यु पथ पर
जब मैं कदम बढ़ता हूँ
तो पैरों की चाप नहीं हिती
अनसुनी स्वर लहरी
और उस पर होता सफर्ड अकेला
एक विचित्र अनुभूति
अन्तः सुख की ।
मृत्यु पथ पर
शून्य शून्य और मैं
सुख की दिव्य ज्योति
छिटकता भौतिक प्रकाश
शांत -शैया
मृत्यु पथ में-
मृत्यु पथ है।
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
जन्म मृत्यु और परिणय
नहीं हाथ मनुज तुंम्हारे
मायावी जीवन संचरण
रहते सदा हम हारे हारे
मृत्यु एक अमिट सत्य है
न कोई अनभिज्ञ जग में
मृत्यु सदा संग ही रहती
जीवन के हर पग तल में
दफ़न दहन होता काया का
सत्य सनातन जग कर्ता रे
छल कपट दम्भ पाप नित
क्यों जीवन में तू करता रे
भागदौड़ कौलाहल जीवन
भौतिक जीवन सभी लिप्त
मरूमरिचिका मृग तृष्णा में
जीवन होता अति संक्षिप्त
चिरनिंद्रा चिर शांति जग
मृत्यु अमर आत्मा को देती
हिमवत शीतल ये मृत्यु तू
जग विपदा प्रिय हर लेती
मकड़जाल सा यह जीवन
नर नारायण भूल गया रे
सब पापों को गले लगाकर
भूल गया तू दया हया रे
सुखमय स्वर्गमय जीवन
फिर भी मृत्यु तो होनी है।
सत्यपथ कर्तव्य नित चल
जीवन स्वयं अनहोनी है।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक ..11/4/2019
विषय .. मृत्यु
विधा .. लघु कविता
********************
......
मृत्यु शैया पर पडा हुआ मन सोच रहा ये बात।
अब तो मिलने आ जाओ तुम छोड के सारे काम।
...
पुत्र वियोग मे तडप रहा हूँ रूकी हुई है साँस।
परदेशी संसति की राहें देख रहा यह बाप।
....
रूकी नही आँखो से पानी टूटी नही है आस।
शेर का मन भी तडप रहा है देख के ये सब बात।
.....
पुत्र मोह को त्याग ना पाया भरा है सब इतिहास ।
भाग्य बना के सब पुत्रो का देख रहा है आस।
.....
एक ने बोला समय नही है इक से ना हुई बात।
धीरे-धीरे छूट रहा है प्यासे तन का साथ।
......
स्वरचित एंव मौलिक
शेर सिंह सर्राफ
मौत एक दिन आनी है
जिन्दगी यह फानी है ।।
राजा हो या हो रंक
सबकी एक कहानी है ।।
कफ़न में न जेब है
जाने क्यों फ़रेब है ।।
इंसा की मति मारी
समझ न उसे एक है ।।
करता कुछ नेक कर्म
जानता ईमान धर्म ।।
धूल इस पर डारी है
भूला है वह सारे मर्म ।।
निर्भयता मन में आती
मौत न उसको डराती ।।
प्रभु से जो प्रीत बढ़ाता
बिगड़ी सब बन जाती ।।
मुक्ति का न पाठ पढ़ा
जिसके लिये तन गढ़ा ।।
नर तन पाकर के 'शिवम'
पशुओं से बदतर खड़ा ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 11/04/2019
विषय-मृत्यु
विधा - तुकान्त कविता
🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁🍂🍁
लोक परलोक करती विचरण आत्मा
मृत्यु से अंजान नहीं कोइ भी आत्मा
ले चलो मुझे भी उस पथ परमात्मा
फिर न विचरण कर सके मेरी आत्मा
इस जन्म मृत्यु के चरण से हो मुक्त आत्मा
जीवन पथ पर काँटे बहुत मिलते है परमात्मा
मुक्त होने को बेचैन है आज हर एक आत्मा
हो सवेरा खिलें फूल मिलने को आतुर आत्मा
देश कोइ वेष कोई भटकी यहाँ बस आत्मा
पथ अगर दिख जाये तो चलने लगे हर आत्मा
बनूँ मोती सत्कर्म का मिल जाए बस परमात्मा
फिर न मृत्यु प्राप्त हो विलय होने लगे आत्मा
🍁स्वरचित🍁
🌹नीलम शर्मा#नीलू🌹
मृत्यु
दुनियाँ में एक शाश्वत सत्य है,
वो है जीवन और मृत्यु।
जो जन्मा है, वो मरेगा हीं।
एक दिन आया जो संसार में,
उसे फिर वापस जाना है।
फिर तूँ फ़िक्र करे क्यूँ रे बन्दे,
तुझे अपना कर्म निभाना है।
जो वादा करके आया था,
तूँ उसे भुला क्यूँ।
सतकर्म करना था तुझे,
फिर कुपथ हुआ क्यूँ।
अब भी वक्त है, चेत जा,
कुछ अच्छा कर्म कर ले।
जीवन रहते दुनियाँ में,
कुछ नाम अपना कर ले।
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
मृत्यु जीवन का अटल सत्य है,
आऐ यहां तो जाना भी होगा।
जन्म लिया जब किसी जीव ने,
मृत्यु आलिंगन करना ही होगा।
जो कुछ भी सब प्रभु के हाथों।
जीवन मरण सब ईश के हाथों।
कुकर्म या सदकर्म करें सभी हम,
क्या अपने नहीं किसी के हाथों।
मानव योनि अनेक जन्म में मिलती।
उपहार स्वरूप भगवन से मिलती।
प्रेमपराग की खुशबू फैलाऐं हम तो,
सुखद झांकी हर जनमन में मिलती।
ये मृत्यु अवश्यंभावी आना हम जानें।
कब किस रूप मे आऐ नहीं पहचानें।
पुरमार्थ परोपकार जो भी कर लें हम
वही नाम मान सम्मान दिलाऐ मानें।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
बिषय- मृत्यु
मृत्यु अटल सत्य है
इसे स्वीकार कर लो।
बैर भाव भूलाकर,
सबसे प्यार कर लो।
हुई हो भूल कोई तो,
उसे स्वीकार कर लो।
कुछ ऐसा काम करो,
मरकर भी अमर रहो।
मेरी सीख गांठ बांध लो,
सबके लिए मिसाल बनो।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
प्रत्येक,
जीव की व्यषिट आत्मा होती है,
वह,
वह अपना शरीर,
प्रतिक्षण,
बदलता रहता है,
कभी बालक,
कभी युवा,
कभी वृध्दके रुप,
लेकिन,
आत्मा वही रहती,
उसमे,
परिवर्तन नही,
यह व्यष्टि आत्मा,
मृत्यु पर,
शरीर बदलकर,
दूसरे शरीर में,
देहान्तर कर जाता,
मृत्यु के बाद,
जीव ,
अपने कर्मानुसार,
पुनः ,
योनिप्राप्त कर,
वसुधा पर आता,
अपने प्रारब्ध कर्म को पूरा,
भोगने आताहै
इसलिए
हमारे सद्ग्रन्थों मे
पुर्नजन्म को मानता है,
अचछे कर्म,
परोपकार को,
धर्मा का मार्ग बतता है।
इसलिये,
सदा सबके प्रति
सत्य जीवन मृत्यु अटल।
संघर्ष अग्नि सत्य अनल।
मन देह है जीव और वन।
फलित विचार और स्वप्न।
पुष्प ह्रदय की प्रसन्नता।
कंटक अहित सी व्यग्रता।
निर्धन, तप्त, संतप्त, मन।
संतोष, उच्च , स्वर्ण, धन।
सुसुप्त जीवन, भंग तंद्रा।
मृत्यु , मुक्ति, गहन निंद्रा।
जगत जीवन आहूति सम।
आत्मिक है शाश्वत हवन।
विपिन सोहल
"मौत"
बहुत थपेड़े सहे हैं
जिन्दगी के सफर में
कई बार बिजलियाँ
गिरी है मेरे आशियाने में
उड़ा ले गए तूफान
सब कुछ अपने साथ
फिर भी दो हाथ
किए हैं मैंने
खुले आसमान में
आँधियों में भी
बुझे दिए जलाए हैं मैंने
फिकर नहीं मुझे अब भी
मेरी बदनीसीबी ने
सड़क पर ला छोड़ा तो क्या
प्यार मिला मुझे
परायों से
अपनों से नहीं कोई गिला
सहन करने सीख लिए हैं
जिन्दगी के हर उतार-चढाव
समय प्रतिपल बदलता है
आज सुख तो कल दुःख
सपने बुनने छोड़ दिए हैं मैंने
सुनहरे भविष्य के
देखा सबने आजमाकर मुझे
टटोला मेरे
मजबूत ईरादों को
हौसला पस्त न कर सका मेरा कोई
लौट गए खाली हाथ सब
खड़ा हूँ अब भी गिरी-सा मैं
हटूँगा नहीं पीछे कभी
आखिरी साँसों तक
खुली चुनौती है मेरी
गर मौत
तूने भी अजमाना
तू आए तो
बेखोफ आना
मुझे सब कुछ सच बताना
तन जाएगी एक बार तो
भीमबली-सी मेरी बाजुएँ
सर होगा मेरा हिमालय-सा ऊँचा
खून खोल उठेगा मेरा
दो हाथ तुझसे भी करूँगा
फिर समा जाऊँगा
इस पावन धरा में।
रचनाकार:-
राकेशकुमार जैनबन्धु
रिसालियाखेड़ा, सिरसा
हरियाणा,
मृत्यु
मृत्यु-एक सर्वज्ञात रहस्य
मृत्यु-एक शाश्वत सत्य
मनु यद्यपि विज्ञ अबोध
नित निरत निरंतर शोध
मृत्यु को कैसे छलना है
निष्प्राण पग से चलना है
अपितु असफल विज्ञान
अविजित, अज्ञेय अवसान
राग, द्वेष, वैराग्य हरण
चराचर सृष्टि-चक्र संचरण
कपट, कोलाहल, कलह, क्लेश
निमिष में किंचित न शेष
परित्याग वसन पुरातन
प्रक्रिया परिशुद्ध सनातन
मृत्यु—जीवन का गंतव्य
मृत्यु—जीवनगति का लक्ष्य
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
यह वादा है मेरा,
मैं मिलूंगी तुझसे ..
इक रोज बाहें फैलाए ,
स्निग्ध मुस्कान लिए,
होठों पर....
असीम शांति चक्षुओं में ,
वरूँगी तुम्हें..।
तुम अंतिम प्रियतम मेरे ।
ना मोह तुम्हें मेरी ,
इस काया का ,
ना रूप रंग ही ,
तुम्हें लुभाते ।
तुम सच्चे प्रेमी मेरे।।
छोड़ चलूंगी सभी कुछ,
विशुद्ध आत्मा के साथ।।
करना ना कोई इशारा ,
आओगे जब ....
दबे पांव ,
चुपचाप से आ जाना ।।
नहीं पसंद मुझे ,
रोग शय्या,
11/04/19
शीर्षक - मृत्यु
मृत्यु एक परिदृश्य
एक यवनिका गिरने को है
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है ।
एक यवनिका .....।
जो समझा था सरूप अपना
वो सरूप अब खोने को है
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।
एक यवनिका ....।
डाल डाल जो फुदक रहा
वो पंछी कितना भोला है
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....।
जो था खोया रंगरलियों में
राग मोह में फसा हुवा
मेरा-मेरा कर मोहपास में बंधा हुवा
अपनो के हाथों भस्म अग्नि में होने को है ।
एक यवनिका गिरने को है।
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
किसी से लूँ सेवा ...
वह नथुनों में भरती,
अस्पतालों की ईथर...
भरी गंध...
बस यूं ही ,
किसी क्षण ,जब तुम हो ,
और मैं हूं.....
सो रहा हो जग सारा ।।
जब निवृत हो लूँ ,
सब उत्तरदायित्वो से ,
आ जाना ले जाना ....
मैं करूंगी इंतजार तेरा।
नीलम तोलानी
स्वरचित
जीवन समाप्त होता जिस ओर
आरम्भ वहीं से होता मृत्यु छोर
जीवन से मृत्यु है एक तरफा पथ
जिसके आगे नहीं जाता कोई रथ।
आदिकाल से ही यह रहा अज्ञात
लोग बनाते अपनी अपनी बात
किन्तु यह तो है प्रमाणिक सत्य
मनुष्य जाता जीवन से खाली हाथ।
हमारे भारतीय दर्शन में तो छिपा है ज्ञान
वह बतलाता मृत्यु का अनुपम विज्ञान
यह एक चोला है जो उतर जाता
आत्मा चले जाती शरीर मर जाता।
आत्मा नये आवरण धारण करती
वह अमरबेल नहीं कभी मरती
चौरासी लाख योनियों से गुज़र कर ही
सामान्य आत्मा शरीर धारण करती।
भगवान तो आत्मा की झलक दिखा गये
अर्जुन को शरीर और आत्मा का अन्तर बता गये
इसलिये हम लोग आत्मोन्मुखी हैं
विदेशियों की तुलना में अधिक सुखी हैं।
साधारण व्यक्ति भी कहता आत्मा नश्वर है
क्योंकि इसमें रहता परमेश्वर है
जीवन के साथ ही मृत्यु पीछे लगती
और तब तक माया हमें तबीयत से ठगती।
दिनांक - ११-४-१९
वार-गुरूवार
विधा- छंदमुक्त काव्य सृजन
विषय-"मृत्यु"
'मृत्यु'अनागत की प्रतीक्षा
कुछ और जीने का उल्लास
भय का तिलस्मी अहसास
रहती है कहीं आसपास
'मृत्यु'क्यों?कबऔर कैसे?
जान ना पाए सदियों से
मेला लगता है उदास
चुप्पी हो जब खास
'मृत्यु' अनदेखी मंजिल को गमन
आमरण चिर नमन
राम के सच होने का सबूत
अर्थी हो या ताबूत
'मृत्यु' जीवन में छाया अंधेरा-
पंचतत्व का लुटेरा,
यादों के टूटें टुकड़े
जीवन भर के दु:खड़े
'मृत्यु' गम का महाभोज
खालीपन का बोझ
रात-दिन की धुधली यादें
सोपानों पर सरकें रोज
___
डा. अंजु लता सिंह
नई दिल्ली
🍃🍃🍃🍃🍃🍃-🍃🍃-🍃
🍅🌲 (1)
ये
उच्च
भवन
छूट जात
क्षण भंगुर
शरीर न साथ
है मृत्य खाली हाथ
🍎🌱🍋
🍋🌲 ( 2 )
है
यह
शरीर
बुलबुला
भाडे़ की शाला
एक दिन जाना
मृत्यु का न ठिकाना
"मौत के फ़रिश्ते"
मौत के फ़रिश्ते
जब आते थे
चुपचाप आते थे,
उठा के ले जाते थे
कुछ बताते नहीं थे
पर अब बताने लगे हैं।
घर से एम्बुलेंस,
एम्बुलेंस से अस्पताल,
फिर स्ट्रेचर, टेस्टिंग, एक्सरे,
डायलिसिस और क्या-क्या ?
सब अनुभव कराने लगें हैं।
तुम्हारी जिंदगी के
हर अच्छे बुरे कर्मों
का लेखा जोखा
तुमको यहीं पर
समझाने, बतानें लगें हैं।
मौत के फ़रिश्ते
जब आते थे
तो चुपचाप आते थे
और जाने के बाद
कोहराम मच जाता था,
पर घर नहीं बिकता था,
जमीन नहीं बिकती थी,
गहनें नहीं बिकते थे,
मर्यादाएं बनी रहती थी
और फ़रिश्ते संतुष्ट हो जाते थे
दबे पांव चले जाते थे।
आज जब तक
घर, गहनें, जमीन
बिक नहीं जाते,
डॉक्टर शरीर को
आई सी यू से बाहर
आने नहीं देते,
वसीयत खुलती नहीं
तब तक मर्यादा बनी रहती है,
उसके बाद टूट जाती है,
फिर संस्कारों को कौन निभाता है?
वक्त नहीं है किसी के पास
संस्कार तो आगे पीछे
होते ही रहते हैं और
फरिश्तों को रुकना पड़ता है,
असंतुष्ट से, परेशान से वो
हमें आपको घूरते रहते हैं,
गणना करते रहते हैं
हमारे बीच के जातक के
कर्मो, कुकर्मों की
और जाते जाते नए जातक की
पहचान कर जाते हैं
मौत के फ़रिश्ते ।।
शीर्षक-"मृत्यु"
विधा- कविता
************
झूठ, फरेब से बच गये अगर,
मृत्यु से नहीं बच पाओगे,
जन्म धरती पर हो गया तो,
हे मनु! मृत्युलोक भी जाओगे |
यहाँ काम कोई भी टाल लोगे,
मृत्यु को तुम न टाल पाओगे,
अटल सत्य है ये जीवन का,
कैसे इसे तुम झुठलाओगे?
कर्म जो अच्छे करोगे तो ,
स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ जाओगे,
बुरे कर्म गर होंगें तुम्हारे,
नरक में सताये जाओगे |
जीते जी सब अच्छा कर लो,
मृत्यु का नहीं कोई भरोसा,
कब सहसा आ जायेगी?
और तमन्ना यूँ ही रह जायेगी |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
11/4/2019
#मृत्यु #
छंद मुक्त
मै मृत्यु..
अटल सत्य
जीवन झूठ
मै ही हूँ... सच्ची मित्र
जीवन भर डरते..
हर पल मरते... मेरे डर से
क्यों इतराते.. अपनी शक्ति
कालजयी नहीं तुम..
मै आऊंगी एक दिन..
वो भी बिन बुलाये..
रोक नहीं पायेगा एक साँस भी..
एक पथ है चल उस पर
सत्कर्म का पथ... भाग जायेगा
भय मेरा... न सता विप्रो को
लालच त्याग... ईमानदारी अपना.. घूस खोरी छोड़..
फिर देख नहीं रहेगा मेरा डर,
नहीं रहेगा मेरा डर...
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
"मृत्यु""
मृत्यु तो है शाश्वत सत्य
इसी से जीवन मरण का चक्र
इससे भला क्या घबराना
इससे पड़ता सबको पाला।
धन दौलत, सब संगी साथी
साथ ना जाये कोई हमारे
कर ले कुछ ऐसा कर्म
भय न रहे मृत्यु का हमें।
,जब है यह निश्चित उपहार
मिले सबको कर्मानुसार
प्रभु ,तुम करना इतना उपकार
थाम लेना प्रभु हाथ तुम अंतिम बार,
भयभित न हो हम मृत्यु से
सुन्दर सलोने, श्याम मोरे
मुरली बजाना तुम फिर एकबार
अंत समय जब आये हमारे द्वार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
सच को सदा चाहने वाला , कभी सत्य मृत्यु का याद नहीं रखता है |
गीता की कसमें खाने वाला , गीता का वचन स्मरण नहीं रखता है |
जग में क्यों आया आने वाला , मानव ये बात भुलाकर रखता है |
है सदा यहीं पर रहने वाला , इस तरह साम्राज बनाकर रखता है |
काया को तो एक दिन है बदलना , इससे मोह भला क्यों करता है |
नाम नहीं कभी जग में मिटता , जग में रहता कर्मों का लेखा है |
मृत्यु परम सत्य सच है मानव का ,अवसान सभी को करना होता है |
होता बोध यहीं तो प्रभु की सत्ता का , हर तिलिस्म फीका पड़ता है |
द्वार खटखटाये जब मृत्यु मानव का , आत्म समर्पण उसे करना पड़ता है |
मृत्यु नाम है परम शांति का , हरि चरणों में मन सुख को पाता है |
सफर यह मोह माया से मुक्ति का , परिचय अंतिम सत्य का करवाता है |
अनदेखे अनजाने बंधनों का , मानव मृत्यु से साक्षात्कार कर पाता है |
जो निर्विकार जिसमें है सजगता , वरण मृत्यु का उसको ही भाता है |
लाख चौरासी हर जीव भटकता , कामना मोक्ष की हर कोई करता है |
होता भाग्यवान वो किस्मतवाला , हरि पद अनुराग जिसे मिलता है |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,
मृत आत्मा के सवाल
हमेशा के लिए
गहरी नींद में सोने के बाद
अब क्यों जगाया जा रहा है मुझे?
बड़े प्यार से
गहरे दुलार से गंगाजल से
अब क्यों नहलाया जा रहा है मुझे ?
जीते जी कभी
बोले नहीं प्यार के दो बोल
अब क्यों कंधों पर उठाया जा रहा है मुझे ?
मनपसंद खाना कभी
बनाकर खिला न सके
अब क्यों देसी घी लगाया जा रहा है मुझे?
जब जरूरत थी
किसी के पास वक्त न था बैठने का
अब क्यों वक्त दिया जा रहा है मुझे ?
फटे कंबल में
बिता दिया सारा बूढ़ापा
अब क्यों कफन दिया जा रहा है मुझे??????
एम के कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा
मौत
बहुत प्यार करती हूँ,
तुमसे सनम।
मै तो तेरे ही संग थी,
समूचा जन्म ।
बस तुम ही न मुझको,
पहचान पाए ।
यूं ही फिरते रहे मुझसे,
नजरें चुराए।
तुम भूले, मै बैठी रही
अखिआं बिछाए।
दर्द दिल का कभी तुम
जान न पाए।
तुम तो रंग ही गये,
दुनिया के रंग में ।
ईर्ष्या भी हुई कोई ओर
थी जब तेरे संग में।
इतने निष्ठुर तो पहले,
नहीं थे तुम।
मैंने हंसकर सहे तेरे
सारे सितम।
तुम कर न पाए कभी
हमसे वफा।
आखिर बता तो देते
मुझे मेरी खता।
तू मेरा है मैं तेरी हूँ
सब जानते हैं ।
पर जाने क्यों फिर भी,
नहीं मानते हैं ।
तुम कहते थे होगा, नहीं
फिर मेल।
आखिर कब चलता
लुका छुपी का खेल।
मैं तो तरसी हूं तेरी
वफा के लिए ।
ले जाउंगी एक दिन
सदा के लिए ।
है वादा तुझे अपना
बनाउंगी मैं ।
याद रख,
मृत्यु हूं एक दिन
आउंगी मैं ।
मृत्यु हूं एक दिन
आउंगी मैं ।
जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर, पंजाब।
शीर्षक :- मृत्यु
है मृत्यु इक रूत मस्तानी..
आदत इसकी आनी जानी..
कर्मों की लिखी कहानी ये..
बहती बनकर रवानी ये..
जिंदगी के संग-संग चलकर..
बनी आज बेगानी ये..
है मृत्यु इक रूत मस्तानी..
सांसों की है दीवानी ये..
है अनबूझ पहेली सी..
चिंता की है सहेली सी..
निर्भिकता है स्वभाव इसका..
पल का न अभाव इसका..
जब पल का ही पता नहीं..
तब कल का क्या भरोसा..
भाग्य का है थाल सजा..
जिसमें कर्मों को परोसा..
मृत्यु शाश्वत सत्य अटल क्षण है...
सांसों के तारतम्य का अप्रत्याशित पल है..
लिखा नसीबों का खेल ये..
निश्चित आज नहीं तो कल है..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
मृत्यु
माया भ्रम से मनुज मृत्यु को कहाँ याद रखता है,
प्रति पल प्रति छण वह धन पाने की चेष्टा करता है,
जीवन के अन्त्य छणो तक वह जीने की इच्छा रखता है,
निज संतति सुख हेतु सदा वह मन में चिंतित रहता है
लोभ, मोह, माया भ्रम, आत्मा शुद्ध न होने देते,
प्रति पल उसके विचार उसको कष्ट अधिक हैं देते,
इन्हीं कारणों से मानव की मृत्यु दुखद होती है,
इन्हीं विचारों के कारण उसको पीड़ा होती है,
अन्त्य समय में उसे पूर्ण जीवन स्मृति होती है,
अन्त्य छणो में सम्मुख उसके सभी कर्म होते हैं,
भले बुरे सब कर्मों के फल भी सम्मुख होते हैं
स्वयं मृत्यु जब सम्मुख आकर उसे निमंत्रण देती,
तक्षण धन को भूल स्वयं उसकी ये चेष्टा होती,
” काश मुझे कुछ छण का जीवन और अगर मिल जाता,
तो मेरे जीवन का अंतिम लक्षय पूर्ण हो जाता “
इन्हीं विचारों में जब मानव लीन स्वयं होता है,
तक्षण उसके जीवन का वह काल पूर्ण होता है,
प्राण पखेरू निकल के तन से उसके उड़ जाते हैं,
अपने कहने वाले सब ही लोग बिछुड़ जाते हैं
इसी क्रिया को दुनियां के सब लोग मृत्यु कहते हैं
और इसे मानव जीवन के समाप्ति की संज्ञा देते हैं !!!
अनुराग दीक्षित
विधा-हाइकु
1.
मृत्यु अटल
क्यों बैठे हो सोच में
शान से जीओ
2.
मृत्यु भोज क्यों
दावत है सबको
जीते जी भूखा
3.
कैसा ये फर्ज़
देकर मृत्यु भोज
चुकाता कर्ज़
4.
जीना कठिन
मृत्यु बनी आसान
फिर जीते क्यों
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स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
मृत्यु के भय से ना कभी ड़रना,
मुस्कुरा कर जीवन पथ पर बढ़ना,
रूखसार पर अश्क जो बहेंगें,
मुस्कुरा कर उनको है पोंछना।
छिन लिया मृत्यु ने तुमको सजना,
तेरी यादों के सहारे अब है रहना,
हँसते हैं रोते हैं तन्हाई में,
दर्द को अपने अब है सहना,
याद आता है रूठना और मनाना,
माथे पर लट और मेरी नजरें झुकाना,
तेरे वो नग्में मोहब्बत के,
याद है मुझे वो तेरा गुनगुनाना।
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स्वरचित-रेखा रविदत्त
11/4/19
वीरवार
मृत्यु
***
जीवन के चक्र में
मृत्यु है अटल सत्य
आया जो इस जग में
जाना है उसका निश्चित
मनवा तू कर ऐसे कृत्य
जब हो सामने मृत्यु
तू निडर हो कर वरण।
जानता हूँ ये परम सत्य ...
पर असमय ,बिन आहट
मृत्यु सामने आ जाये
देश की सुरक्षा हेतु
हँसते हँसते वरण कर जाते
अपने लिए न मन डरे
परिजन के लिए डरता हूँ
माँ बाप के बुढापे की लाठी
बहन की राखी हूँ
बच्चों का भविष्य हूँ
पत्नी का श्रृंगार हूँ
मैं एक बार मृत्यु का वरण करूंगा
ये तो जीते जी रोज मरेंगे
जीवन की कठिनाई में
ये कैसे सर उठा जी पाएंगें!
कुछ समय में ही ,लोगों का
देशभक्ति का जोश उतर जाएगा
नेता फिर से गन्दी राजनीति
में उलझ जाएगा
गैर तो गैर ,अपने भी
धोखा देने आ जाएँगे
जीवन के लम्बे सफ़र मे
माँ बाप बन वो
अकेली कैसे बड़ा करेगी
बहन की डोली को
कैसे वो विदा करेगी ।
देश के हित के लिए
मुझे मृत्यु से डर नहीं
ये सब सोच सहम जाता हूँ
आप से समाधान चाहता हूँ
आप से समाधान चाहता हूँ ...
स्वरचित
अनिता सुधीर
जनम मरण के बीच सदा ही
जीवन धारा बहती है ।
सुख -दुख सारे इस जीवन में
जीवन ही तो सहता है ।
श्रम कर तन थकजाता है जब
निद्रा में सो जाता है ।
बालक ,युवा प्रौढ़ होकर तब
जर्जर तन हो जाता है ।
बूढ़ी काया बोझ सहे न तन
चिर निद्रा सो जाता है ।
प्राण बसे थे जिस काया में
मृत्यु के गात समाता है ।
स्वरचित :-,उषासक्सेना
विधा - छंद मुक्त
शायद मैं मर रहा हूँ
पलकें झुक रही हैं
सब मुझे देख रहे हैं
पर मैं कितना अकेला
चेतना नहीं पर
तुम याद आ रहे हो
मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ
कहाँ हो तुम
क्या यूँ ही चला जाऊँगा
अतृप्त मन और तन लिए
ये कैसी भीड़ है
ये कैसा कोलाहल है
तरह तरह की आवाजें
शायद कुछ अंग टूट गए हैं मेरे
अनजान लोग , एम्बुलेंस
स्ट्रेचर , डॉक्टर
गहमागहमी
बहता गरम लहू
चेहरा भिगोता
संज्ञाहीन बन्द पलकें
ठहर जा मौत
दे दे मुझे
कुछ पल की मोहलत
देख सकूँ उसे
एक महकती खुशबू
शायद वो मुझ पर झुकी है
आ चुकी हैं शायद
जिंदगी और मौत
एक साथ
सरिता गर्ग
स्व रचित
जीवन का वास्तविक सत्य
कब तक दूर रहोगे मृत्यु से
कुरुर समय आयेगा
तब प्रभु की शरण में जाओगे.
क्यों दुराचारी अत्यचारी बनते हो
मन की आवाज की सुनो
सबके सुख दुःख की सोचो
मृत्यु के बाद भी सबकी धड़कन में रहो .
एक ही जीवन कई बार मृत्यु होती हैं
मृत्यु के बाद दिलों में जो बसता हैं
वही सच्चा जीवन हैं
कितना बड़ा हैं ये जीवन .
मृत्यु के दरवाजे पर खड़ी हूँ
हर बार जिंदगी को बदलते देख रही हूँ
जिंदगी का हैं ये सत्य
जो कल तक बात नहीं करते थे आज आंसू बहा रहे हैं .
स्वतचित:- रीता बिष्ट
वो
कब
आएगी
कहां कैसे
पता ही नहीं
रहस्य है एक
मृत्यु बंद लिफाफा
2
है
मृत्यु
सहेली
उम्र साथ
जी भर खेली
बिल्कुल अकेली
अनबूझ पहेली
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
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