Sunday, April 14

" स्वतंत्र लेखन "14अप्रैल 2019

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14/4/2019
स्वतं
त्र लेखन

"मन चंचलता चाहता है"
******************
न जाने क्यों वक्त बेवक्त
मन चंचलता चाहता है
तन्हाई की बदली में
मन बहलाना चाहता है।।

शांत हुई जलधारा में
हिचकोले लाना चाहता है
याद कागजी नावों की
फिर,तैरना चाहता है।।

रुदन हृदय में आहों की
लड़ी पिरोना चाहता है
देख निशा में तारो को
मन बहलाना चाहता है।।

सँगी साथी छूट न जाए
प्रेम तराना चाहता है
साथ तेरे हाथों का फिर से
मन मतवाला चाहता है।।

तपत हुई दोपहरी में
राग भैरवी चाहता है
निशा,चांदनी,तारो सँग
ये राग पुराना चाहता है।।

अहंकार की दुनिया में
निर्मल गंगा चाहता है
शांत,पावनी,शीतलता का
तिलक लगाना चाहता है।।

हरी डाल पर तोता -मैना
चहक पुरानी चाहता है
बात-बात पर चोंच लड़ा कर
गीत सुनना चाहता है।।

टूट रहा श्वासों का मेला
पवन भोर की चाहता है
महक रही फुलवाड़ी से
पुष्प चुराना चाहता है।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित





. विधा-मुक्त छंद

."मैला जल"

बीच मझधार मैं फंसा,
उठी ऊँची लहर,
दूर बहुत दृष्टि दौड़ाई,
है पानी का पहर।

मेरे परिधान फट गए,
ग्रीवा गई सूख,
जठराग्नि जाग उठी,
मिटाओ मेरी भूख ।

न ठोर न ठिकाना,
हो गया हूँ कमजोर,
हाथ पैर खूब चलाए,
न मिला मुझे छोर।

तपस इतनी बढ़ गई,
लहरें हो गई लाल,
मारे थपेड़े अब मुझे,
बदल गई है चाल।

काल मेरा अब नजदीक है,
दूर है मुझसे तीर,
शतदल भी अब टूट गए,
नेत्र बहाए नीर।

मिलाए नाले फैक्ट्री के,
मैला किया नदी का जल,
बचा खुचा डाल दिया इसमें,
मूत्र और मल।

चल पड़ी नदियाँ अपनी राह पर,
कल कल मचाए शोर,
जा मिली अब समुद्र में,
रूप बदला चहुँ ओर।

आज बीच मझधार में फंसा,
बदबू बिखरी सब ओर,
गंदा किया मैंनें इसको,
लगाया पुरजोर ।

पछतावा अब है मुझे,
नीला किया इसका जल,
पैसे कमाने की होड़ में,
पिलाया इसको हलाहल।

सज़ा मिले मुझे ओ रब्बा!
प्राण पखेरू उड़ जाए,
जो न दे सके सजा कानून,
वो प्रकृति दे जाए।

रचनाकार:-
राकेशकुमार जैनबन्धु
गाँव & पोस्ट-रिसालियाखेड़ा, 
पिन कोड-125103
सिरसा,हरियाणा।



🌹नमन भावों के मोती🌹
पल पल व्यर्थ किए)
जीवन का अर्थ समझ ना पाए
पल पल व्यर्थ किए" 
व्यर्थी हुए
अंत समय मौत
तज गई प्राणों को'
अपने ही जीवन की 
खुदअर्थी हुए।

जीवन शय हो कर "
शव हुआ
तन्द्रा में लीन सुधा हो गई 
तन पिंजरे से दूर बैठ
साँसे कहीं
और खो गई 
छोड़ काया को हम 
उड़ते पंछी हुऐ।
अंत समय मौत 
तज गई प्राणो को
तब जाकर हम अर्थी हुए। 

प्रारब्ध अंत को 
समझ ना पाए।
जीवन भर भटक कर गूम आए।
जीवन के शव होने की कथा,
देह ज्वाला ,
अब पूछ रही व्यथा ।
कि कितने मन से सत कर्म हुए।
अंत समय मौत
तज गई प्राणों को
तब जाकर हम अर्थी हुए।

विदेह होकर तन से
अवसान से 
मसान जा पहुँचे।
अंतर्मन मन की यही रही, पीड़ा
जीते जी क्यों न 
मुक्ति धाम पहुँचे?
जीवन भर रोये व्यर्थ यूँ ही
मन चेतना के "
कब कहाँ, विश्राम हुए।
अंत समय मौत
तज गई प्राणों को
तब जाकर 
अपने शव की अर्थी हुए।

जीवन के गुढ़ रहस्यों का
चिंतन ना हो पाया ।
आत्म ज्ञान से विमुख होकर
मरती रही सदैव काया ।
मन से मृत किन्तु 
देह से जिंदा होकर भी,
पर जीते जी श्मशान हुए।
अंत समय मौत
तज गई प्राणों को
खुद के लिए खुद ही अर्थी हुए।

पी राय राठी
भीलवाड़ा, राज





14 अप्रैल 2019,रविवार

उठो,जागो,सौओ अब मत
काम बहुत, जग में करना
जन्म दिया है,गर ईश्वर ने
सुख समृद्धि जीवन भरना
तरुणाई को आज जगाना
जीवन मे आलस भगाना
दानव लूट रहे मुल्क को
मिलकर उनसे है टकराना
दया प्यार ममता को बांटो
सुख सरिता अब बहने दो
परोपकारमय जीवन हो
द्वेष भाव मन ,मत रहने दो
सुखसागर नित गोते खाओ
उज्ज्वल मोती ढूढ़ के लाओ
इस काया से बहे पसीना नित
मीठे फल जीवन में खाओ
अद्भुत जीवन हमें मिला है
सदा सुख मन फूल खिला है
मेरा जीवन होता कुछ नहीं
न शिकायत और ही गिला है
माँ भारती आस लगाती
मिलकर मुल्क सृंगार करें
शांतिदूत बनो अब भारत
विकास मय नव रंग भरें
जयति जय हो माँ भारती
तुम देती हो,लेती नहीं हो
सत्य अहिंसा सुमार्ग जग
पुत्र मोह में सब सहती हो।।
स्व0 रचित ,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।




विधा .. लघु कविता 
*******************
🍁
लँम्हे सुहानें हो ना हो,
कल मे आज वाली बातें हो ना हो।
प्यार हमेशा दिल मे रहेगा,
चाहे सारी उम्र मुलाकात हो ना हो।
🍁
खुशियों के दिन हो ना हो,
आँखे चाहे नम हो ना ना।
साथ हमेशा अपना रहेगा,
चाहे आपस मे बातें हो ना हो।
🍁
सारे अपने मिले ना मिले,
चाहत को मंजिल मिले ना मिले।
साथ हमारा दिल से रहेगा।
चाहे दिल आपस मे जुडे ना जुडे।
🍁
ना करना तुम ऐसी बातें,
जो आँखो को नम कर जाते।
चाहत मेरी तुम ही रहोगे,
चाहे बातें सारी कहे ना कहे।
🍁
भाव बहेगे सारे तुम पे,
आँखो से बह दिल से दिल तक।
दिल मे तुम हो तुम ही रहोगे,
चाहे दिल मे तेरे हम रहे ना रहे।
🍁
पढ लेना तुम शेर के मन को,
भाव वही है भाव जो तेरे।
भावों से मोती हम देगे,
चाहे अच्छे दिन रहे ना रहे।

🍁
स्वरचित एंव मौलिक 
शेर सिंह सर्राफ





दिनांक-14/04/2019
विषय -स्वतंत्र लेखन 
=======================
=== मानवता के दीप ======
हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं,
उदास चेहरों पर सदा मुस्कराहट लाते हैं।

हार मानकर बैठते जो कठिन राहों को देख,
हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।

कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर,
मन में साहस लेकर हम फिर भी मुस्कराते हैं।

मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा,
मिलकर आओ अब एकता की माला बनाते हैं।

लक्ष्य को पाने में सदा आती हैं कठिनाईयां,
साहस से जो डटे रहते सदा मंजिल वही पाते हैं।

राह रोकने को आती दिवारें सदा बड़ी-बड़ी,
सच्चाई पाने को अब हम दिवारों से टकराते हैं।

फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,
दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं।
....भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखण्ड)
(स्वरचित /मौलिक सृजन)





स्वतंत्र लेखन
################
दिल के अंदर मेरा रहबर रहता है।
आँखें चार वो पर डर कर करता है।।

इंसा अपने को बाजीगर करता है।
ऐसा ही कुछ वो जादूगर करता है।।

छाया जो दिलपर ये कैसा मंजर है।
मेरे रहबर का ज्यूं तेवर करता है।।

मेरा दिलबर ऐसा अक्सर करता है।
जग की बातें भी डरकर करता है।।

दिल के अंदर ये जो लहरें उठती है।
वो मन ही मन बातें अक्सर करता है।।

संतुष्ट क्या किसी को सागर करता है।
काम कुछ ऐसा ही गागर करता है।।

दिलबर दिलबर कहते कहते मर जाँऊँ।
मरने का दिल तुझपे दिलबर करता है।।

होगा मिलना अब मरकर मेरे हमदम।
अंदर अंदर दिल ऐसा डर करता है।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल





दोस्ती एक हसीन याद

दिनांक 13/4/19
संस्मरण

दोस्ती हो तो ऐसी 

बात आज से 45 साल पुरानी है । मैं भोपाल में 9 वी में पढता था । स्कूल से कुछ दूरी पर सिनेमा हाल था , उस समय
" दोस्ती " पिक्चर आई थी उसमें दो दोस्तों की कहानी है ।
" मेरी दोस्ती मेरा प्यार " बहुत हिट हुआ था ।
अब क्लास के दोस्तों में यह होड़ थी कि अपने दोस्तों के साथ वह पिक्चर देखने जाएँ ।
हमारी क्लास में एक लड़का नारदमुनी का काम करता था ।
एक बार जब क्लास के 8-10 लडके पिक्चर गये थे तब उसने क्लास टीचर को यह खबर कर
दी । क्लास टीचर ने स्कूल के तीन चार दूसरे टीचर्स लिए और स्कूल के आसपास छाडियों से डंडियाँ तोड़ी फिर दोपहर 2 बजे खत्म होने वाले शो पर टाकीज के गेट पर खड़े को कर क्लास के लड़को को पकड़ पकड कर अलग अलग किया और घेर कर स्कूल लाए और प्राचार्य के सामने पेश किया और उनके पिता को बुलवाया और सबने माफी मांगी तब उन्हें छोड़ा । इससे दोस्तों की दोस्ती और मजबूत हो गयी जो 
इतने दिनों बाद आज भी चल रही है । और जो लड़का नारदमुनी करता था उसे अर्ध्द वार्षिक परीक्षा में नकल न करवाई , न करने दी ।
उसे सप्लीमेंटरी आई फिर उसने सब लड़को से माफी मांगी ।
अब बाकी लड़को ने स्कूल से बंक नहीं मारने और उस लडके ने नारदमुनी नही करने , पढाई करने और नकल नहीं करने का संकल्प लिया ।

सच में उस समय बहुत मजा आया था ।

स्वलिखित 
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल



स्वतंत्र लेखन ,

हम तुम बदले या बदला परिवेश ,
है चर्चा का विषय यह देश विदेश |
बीता जो समय बहुत अच्छा था ,
होता है यही जन जन का संदेश |

आज्ञाकारी थी घर घर में संतान ,
माँ बाप होते थे पहले भाग्यवान |
तब नहीं मन में मलाल रहता था ,
दिल के दर्द से नहीं रहते परेशान |

एहसास था सबके दुख दर्दों का ,
अस्तित्व बड़ा था तब समाज का | 
पहले कमी न रहती थी वक्त की ,
दरवाजा दिल का खुला ही रहता था |

चाहत धन की न अधिक रहती थी ,
मिल बाँट के खाने की आदत थी |
तब परदेश नहीं हर कोई जाता था ,
हमारी गुजर बसर घर में होती थी |

है जितने मुँह होतीं उतनी ही बातें ,
हमको नजर आयीं सबकी ही घातें |
जमाना नहीं हमारा दृष्टिकोण बदला ,
हमनें क्या खोया क्या पाया ये सोचें |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश





नमन गुरुजनों तथा मित्रों।
स्वतन्त्र विषय लेखन
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
मोहन प्यारे
मोहन प्यारे,मोहन प्यारे,
काहे मोसे करो ना बतियाँ।
काहे को रूठे मोस हो ऐसे,
माने ना मोरी बतियाँ।
मोहन प्यारे.........

कल तो कहा था तूने,यमुना किनारे आओ,
मैं तो खड़ी हीं रही,पर तू नहीं आयो।
क्या अब मोहन करोगे बहाना,
सब कहे तोरी अँखियाँ।
मोहन प्यारे.........

किस सौतन से नेह लगाई,
क्या तुम्हें मेरी याद ना आई।
वन्शी बजाके किसको रिझाया,
तूने ये कैसा बहाना बनाया।
तुम हो हरजाई, 
मानो ना मानो, 
बोले हैं सारी सखियाँ।
मोहन प्यारे.........

वन्शी तुम्हारी चुराउंगी मैं ऐसे,
पास मैं अपने रखूँगी सदा उसे।
फिर देखती हूँ, कैसे ना आओगे,
छोड़के सारी सखियाँ।
मोहन प्यारे.........
🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी




दिनाँक:- 14-4-2019
कार्य:- स्वतंत्र लेखन

मोहब्ब्त ने इस कदर तोड़ा मुझे।
बो आते भी तो क्या,न आते तो क्या।।

वे बफाई ने इस कदर सताया मुझे।
कुछ कहता भी तो कहता क्या ।।

गमों ने इस कदर रुलाया मुझे।
न होता मैं, तो होता क्या ।।

सूने दिल में बसाया था मुझे।
छोड़ दिया अब,करता भी क्या।।

खिजाओं ने इस कदर लड़खड़ाया मुझे।
सम्हल जाता भी तो जाता कहाँ।।

यादों ने इस कदर तड़पाया मुझे।
टूटा दिल लिखता भी तो लिखता क्या।।

स्वरचित:
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)


Ravindra Varma 🏵🌷 

☀️ आधार- घनाक्षरी वर्णिक छंद ☀️
16 , 15 वर्ण यति, अन्त -लघुदीर्घ
समान्त-अरने , पदांत-लगे 
🌻🌻🌻🌴🌻🌴🌻🌻🌻

वाणी माँ वीणा के तार स्वर ऐसे प्रकटाए ,
सोये प्राणी चेतना से गान करने लगे ।
ज्ञानदायिनी उजेला ज्ञान का बिखेरा ऐसा ,
मूढ़ता के काले अँधियारे झरने लगे ।।

हंस पे सवार सद्बुद्धि तेज भरें माता ,
मन नीर क्षीर का विवेक जग जात है ,
कमल बिराज महकावें संजीवनी सुधा ,
प्रकृति छटा मन कमल हरने लगे ।

आपकी कृपा से मात जननी करायें बोध ,
शिक्षक गुरु नवीन शास्त्र करें रचना ,
बोली भाषा व्याकरण ज्ञान-विज्ञान गुनें ,
साहित्य मनीषी काव्य रस भरने लगे ।

हाथ रख देती माई जिसके भी शीष पर ,
स्वर सध जाये नये गीत बहें मुख सों ,
साज झनकार नव छंद ताल लय गूँजें ,
राग हो सरस संगीत निखरने लगे ।

वन्दना करूँ मैं कैसे मात शब्द नहीं पास ,
मन तम हटा नव भाव शब्द पगाओ ,
हे माँ ज्ञान ज्योति अन्तःकरण जगाओ ऐसी ,
लेखनी की धार पैनी हो सँवरने लगे ।।





दिनांक -14/04/2019
चूड़ियों के टूटने से जख्मी होती है कलाइयां ।
बेदर्द बयां करती तन मन की रूसवाईयां।।

एक दर्द निष्प्राण करता मुझे.........

करुण क्रंदन हृदय करता

बेदर्द जख्म तेरा

मेरे प्राणों को हरता

एक कील न जाने क्यों

मेरे तन मन को चुभता

हृदय तार झंकृत हो उठता

सिद्ध चित विकृत हो जाता

कदाचित ऐ काले सूरज........

एक सृष्टि ,दो दृष्टि ना रखता

कानन उपवन से कहता

देख प्रकृति की अनुकंपा

हम दोनों को दिए उसने

एक को दर्द, एक को चंपा

कितना तूने भेद किया

क्यों कहता तु ...........

दोनों का समभाव किया

मेरा तो श्रृंगार किया

हृदयाघात तिरस्कार किया

रो रहा है आंगन

दीवारें चीखती है रात -दिन

खो गए रंगीन सपने

गुम हुई मेरी नादानियां

कील -कील चुभ रही

उड़न परियों की कहानियां

वो हँसी खिलखिलाहट

न जाने कहां गुम हो गई जवानियां

शो केस में दर्द पैदा करती

नादान चूड़ियों की बेचैनियां

हे यौवन पुरुष तुम जान लो ..... मुझे
पहचान लो

तुम मधुर -मधुर, हम क्षार क्षार

तुम सुर्ख मिलन ,हम इंतजार

तुम लौ अखंड, हम अंधकार

तुम आनंदवन, हम उजड़े थार

तुम अभयदान, हम तड़ीपार

तुम चैन -ए- अमन, हम बेकरार...

स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयाग राज





।। काबिल बंदर ।।

मैं तो हूँ रानी तुम नही हो राजा 

कैसे प्रीत निभे ये बताओ राजा ।।

माना कि तुम रानी मैं भी न कम
कभी तुम्हे बताऊंगा मै ये दमखम ।।

न रोया न धोया रह गया गुमसुम
आज बंदर सब बोले ढूढ़े वो सनम ।।

किस्मत से उसको मिला मदारी
चमकी उसकी हस्ती अब न्यारी ।।

सबके दिल पर वह राज करे ।।
मदारी भी उस पर नाज़ करे ।।

बंदर था वह ठोकर का मारा 
मदारी भी था परेशान बेचारा ।।

रोटी का उसको सवाल था 
वो बंदर भी बहुत बेहाल था ।।

दोनो की बन गई अब यारी 
छायी उनकी शोहरत प्यारी ।।

बंदर बेचारा भुक्त भोगी था 
दिल का वह बड़ा रोगी था ।।

हरने लगा वह सबका दिल 
बन गया वो अब काबिल ।।

भूखे को ही यहाँ ज्ञान लगे 
सेहत उसकी अलग दिखे ।।

पहले भूख बढ़ाता दाता 
फिर देता रोटी या परांठा ।।

छलांग ऊंची जो भरता 
पहले पीछे कदम धरता ।।

खूब अगर जो है खिलना 
मुसीबतें निश्चित है मिलना ।।

यही एक 'शिवम' दस्तूर 
मंजिल यह होती है दूर ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/04/2019





14/04/19
स्वतंत्र लेखन

****
कर्ण नायक या...
**
विधि का विधान कौन बदल सका है।श्री कृष्ण की लीलाओं से कौन अपरिचित है।
सभी घटनाएं पूर्व निर्धारित होती हैं ,सभी पात्र अपना किरदार निभाते हैं। ऐसी बहुत सी घटनाओं का उल्लेख महाभारत और पौराणिक कथाओं में है।
अगर कर्ण को श्राप न मिला होता ,तो दो ब्रहास्त्र चल जाते ,और पृथ्वी का विनाश हो जाता ।
ऐसी ही कितनी घटनाएं हैं।
अधर्म का साथ देना सदैव गलत ही होगा,चाहे कोई भी और कैसी भी विवशता हो ।इसके अनुसार कर्ण को खलनायक ही कहना उचित है ,अन्यथा सत पर असत और धर्म पर अधर्म विजयी होगा ।
महाभारत युद्ध के पहले कुंती पांडवों की रक्षा का वचन लेने जब कर्ण के पास जाती हैं तो वह सभी सच्चाई कर्ण को बता देती हैं । सब कुछ जानने के पश्चात कर्ण की स्थिति को कुंती से पूछे जाने वाले प्रश्नों के माध्यम से व्यक्त किया है...
इस रचना के माध्यम से एक संदेश देने का प्रयास किया है,कि आज भी ऐसे कितने कर्ण और बच्चे इसी मानसिक स्थिति से गुजर रहे हैं ,ये हमें निश्चित करना है कि उन्हें नायक बनायें या खलनायक बनने दें...
***
सेवा से तुम्हारी प्रसन्न हो 
ऋषि ने तुम्हें वरदान दिया
करती जिस देव की आराधना 
उसकी संतान का उपहार दिया।
अज्ञानता थी तुम्हारी
तुमने परीक्षण कर डाला 
सूर्य पुत्र मैं, गोद में तेरी,
तुमने गंगा में बहा डाला ।
इतनी विवश हो गयी तुम
क्षण भर भी सोचा नहीं,
अपने मान का ध्यान रहा ,
पर मेरा नाम मिटा डाला ।
कवच कुंडल पहना कर 
रक्षा का कर्तव्य निभाया 
सारथी दंपति ने पाला पोसा 
मात पिता का फर्ज निभाया ।
सूर्य पुत्र बन जन्मा मै
सूत पुत्र पहचान बनी 
ये गलती रही तुम्हारी , मैंने
जीवन भर विषपान किया। 
कौन्तेय से राधेय बना मैं
क्या तुम्हें न ये बैचैन किया!
धमनियों में रक्त क्षत्रिय का
तो भाता कैसे रथ चलाना।
आचार्य द्रोण का तिरस्कार सहा
तो धनुष सीखना था ठाना।
पग पग पर अपमान सहा 
क्या तुमको इसका भान रहा !
दीक्षा तो मुझे लेनी थी 
झूठ पर मैंने नींव रखी ,
स्वयं को ब्राह्मण बता ,मैं
परशुराम का शिष्य बना ।
बालमन ने कितने आघात सहे 
क्या तुमने भी ये वार सहा !
था मैं पांडवों मे जयेष्ठ
हर कला में उनसे श्रेष्ठ,
होता मैं हस्तिनापुर नरेश
क्या मुझे उचित अधिकार मिला 
क्या तुम्हें अपराध बोध हुआ!
जब भी चाहा भला किसी का 
शापित वचनों का दंश सहा
गुरु और धरती के शाप ने
शस्त्र विहीन ,रथ विहीन किया।
भरी सभा द्रौपदी ने 
सूत पुत्र कह अपमान किया 
मत्स्य आँख का भेदन कर 
अर्जुन ने स्वयंवर जीत लिया ।
मैंने जो अपमान का घूंट पिया
क्या तुमने कभी विचार किया !
कठिन समय ,जब कोई न था 
दुर्योधन ने मुझे मित्र कहा 
अंग देश का राजा बन
अर्जुन से द्वंद युद्ध किया ।
मित्रता का धर्म निभाया 
दुर्योधन जब भी गलत करे 
कुटिलता छोड़ कर , उसको
कौशल से लड़ना बतलाया ।
दानवीर नाम सार्थक किया 
इंद्र को कवच कुंडल दान दिया
तुमने भी तो पाँच पुत्रों 
का जीवन मुझसे माँग लिया 
क्या इसने तुम्हें व्यथित किया !
आज ,जब अपनी पहचान जान गया 
माँ ,मित्र का धर्म निभाना होगा
मैंने अधर्म का साथ दिया ,
कलंक सदियों तक सहना होगा 
अब तक जो मैंने पीड़ा सही 
उसका क्या भान हुआ तुमको !
मेरी मृत्यु तक तुम अब
पहचान छुपा मेरी रखना 
अपने भाइयों से लड़ने का 
अपराध, मुझे क्षमा करना ।
जीवन भर जलता रहा आग में
चरित्र अवश्य मेरा बता देना 
खलनायक क्यों बना मैं
माँ तुम जग को बतला देना ।

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव

विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा- ग़ज़ल
======================
(01)
वफ़ा की रस्म निभाएँ तो कुछ सिकूँ आए ।
सहबा नज़रों से पिलाएँ तो कुछ सिकूँ आए।।
(02)
घटाएँ झूम के आईं हैं मेरे आँगन में ,
झड़ी बारां की लगाएँ तो कुछ सिकूँ आए ।।
(03)
उन्हें मैं ढूँढ़ता फिरता हूँ एक अरसे से,
वो ख़ुद ही सामने आएँ तो कुछ सिकूँ आए ।।
(04)
अलग बैठा हूँ मैं मिलने को तमन्ना लेकर,
क़र्ब में अपने बुलाएँ तो कुछ सिकूँ आए।।
(05)
ये उनके माथे पै लबरेज़ पसीना कैसा?
"अ़क्स" अहबाल सुनाएँ तो कुछ सिकूँ आए ।।
=======================
स्वरचित





 न धूप न हवा है इन शहर के मकानों में
जिन्दगी फना है इन शहर के मकानों में


सलीके सलीब जैसे ना चैन है घडी को
घुट के रहना है इन शहर के मकानों में

मुतमईन न कोई ठंडक नही है दिल में 
सबको गिला है इन शहर के मकानों में

दिलो - दिमाग से सब बीमार हो रहे हैं 
रोग ही पला है इन शहर के मकानों में

आने जाने मिलने को सोचता है इन्सां 
खुला दर मना है इन शहर के मकानों में

बेफिक्र गीत गाए कोई गजल गुनगुनाए
मैने नहीं सुना है इन शहर के मकानों में

विपिन सोहल




कशमकश
इसी कशमकश में सारा दिन गुज़र जाता है की 
तुमसे बात करूं या तुम्हारी बात करूं.!!
तुम्हे भूलने की कोशिश करते करते 
तुम्हे ही हर पल याद करूं,
इश्क है या इबादत अब कुछ समझ नहीं आता, 
एक खुबसूरत ख्याल हो तुम जो दिल से नहीं जाते 
ऐसा चढ़ा हैं क़ी उतरता नहीं कमबख्त ये इश्क़ भी साहूकार के क़र्ज़ जैसा है ।
इश्क की रोशनी से जहां चमकता है मेरा ,
इश्क के निखरने से निखर जाता हूँ मैं,
इश्क के उभरने से उभर जाता हूँ मैं,
इश्क के महकने से महक जाता हूँ मैं,
इश्क के चहकने से चहक जाता हूँ मैं,
ये इश्क गर न हो तो फिर अंधेरों में खो जाता हूँ मैं,
इश्क़ को भी इश्क़ हो तो फिर देखे कामेश इश्क़ को भी,
की कैसे तड़पे, कैसे रोये इश्क़ भी अब अपने ही इश्क़ में.......
कामेश की कलम से 
14 अप्रैल 2019




"नमन भावों के मोती"
14अप्रैल,2019-- रविवार
आज का कार्य-- स्वतंत्र लेखन
====================
"क्षणिकाएं --पथ /रास्ते"
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
बैलगाड़ियाँ,कायर,कपूत
चुनते हैं सदा
बने बनाये पथ ही
नए रास्ते खोजकर
नए पथ बनाकर
नयी दिशा बताकर
जग में चलते है सदा
शायर ,सिंह और सपूत
----------------------------
मन और उत्कृष्ट चरित्र
चले हों
जिन रास्तों पर
वही रास्ते
सामान्य जन के लिए
बनते हैं सदा
प्रगति पथ
================
"दिनेश प्रताप सिंह चौहान"
(स्वरचित)
एटा --यूपी



मेरा जीवन भी क्या जीवन है,
प्रभु का नाम कभी नहीं लेता।
नहीं कभी स्वयं सुखी रहता हूँ,
मै जानबूझ दूजे को दुख देता।

यहां गिरगिरकर ही मैं उठता हूँ।
पीट पीटकर ही कभी पिटता हूँ।
प्रतिदिन ऐसा होता है क्यों कुछ,
कभी खुशी तो गम में हंसता हूँ।

मुझे जीवन जीना नहीं आता है।
दंगा फसाद ही मुझको भाता है।
विचारशीलता में नहीं आकर्षण,
क्यों गंदला मन प्रदूषण लाता है।

क्यों हंसता गाता कभी रोता हूँ।
कभी प्रेम परिपोषित हो सोता हूँ।
यहां जीवनभर कैसे चल पाऊंगा,
सच अगणित कषायों को ढोता हूँ।

मुझ में नहीं सचमुच ही आकर्षण।
है केवल प्रतिकर्षण ही प्रतिकर्षण।
परिवर्तन प्रकृति का शास्वत नियम,
जो घुले जहर क्या उनका उत्सर्जन।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.




मौन 
मुझको तो अब सहना है, 
बस मौन मौन रहनाहै 
नारी की विवशता है, 
बस विवश ही रहना हैl

आत्मा से कह दो तुम
न मौन अब रहना hai,
छोड़ दे विवशता को, 
दर्द नहीं सहना है l 

युगो से होता आया, 
पुरुष दोष धरता आया, 
न सोच तू समाज की, 
अपने लिए जीना है ll

आत्मा.... 
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित 
देहरादून




स्वतंत्र लेखन के तहत मेरा भी प्रयास --

**क्योंकि लड़की हूँ न**
-----------------------------------------
है मेरे अंदर 
कुछ ज्वलंत - सी
दहलती हुई 
दहकती हुई
पर ऊपर आने से डरती है, 
क्योंकि लड़की हूँ न।
है मेरे अंदर 
कुछ इच्छाएँ जब्त
डरती हुई
मरती हुई 
बाहर व्यक्त होने से डरती है, 
क्योंकि लड़की हूँ न।
है मेरे अंदर 
सपनों की दुनिया 
कुढ़ती हुई 
सड़ती हुई
बसने से पहले डरती है, 
क्योंकि लड़की हूँ न।
है मेरे अंदर 
उज्ज्वल भावनाएँ 
व्यक्तता से घबराती 
अंदर ही अंदर घुटती
बाहर निकल आने से डरती है,
क्योंकि लड़की हूँ न।
है मेरे अंदर 
उमंगें भरपूर 
मचलती हुई
उछलती हुई
पर शामिल होने से डरती है, 
क्योंकि लड़की हूँ न।
है मेरे अंदर 
कुछ आशाएँ
नभ में उड़ान भरने की
फलक तक पहुँचने की
पर, पर कटे पंछी ही रहती है 
क्योंकि लड़की हूँ न।

-- रेणु रंजन
( स्वरचित )
14/04/2019



दिनांक 14/4/19
'स्वतन्त्र लेखन' 

विधा-अतुकांत कविता..

वो जो एक क़िताब 
मैंने तुम्हें दिया है न,
उसका एक सफ़ा पलटो और पढ़ो,
जिसमें किसी बेवा के बदन के गर्म
और पेट के ठंडा होने की कहानी है.........!

इसी क़िताब के अगले सफ़े पर तुम्हें,
सभी निर्दयी मौसमों में
किसी अचेत व सपाट सड़क की शक्ल का,
कोई पिटता-पिसता मज़दूर दिखाई देगा,
जिसकी उपयोगिता व गुणवत्ता ही,
पहिये व पावों की ठोकरें हैं..........!!

एक अन्य सफ़े पर तुम्हें,
एक बच्चा भागता दिखाई देगा
जिसके ठीक आगे-आगे एक एल्यूमिनिम की तिरछी थाली, मैली सी नीली कमीज़, टपरे का स्कूल और 
नीला फटा सा बस्ता भी भाग रहे होंगे ,
और हाँ, यह भी अवश्य देखना कि,
उस बच्चे के भागने की स्थिति में 
उसके पेट की बजाय पीठ फूल रही होती है.......!!!

क़िताब के बाक़ी के सफ़े 
फिर कभी दिखाएँगे,
अभी बस इतना बता दें कि,
यह वही क़िताब है , जिसकी वजह से 
सियासत की घोषणाएं 'शूर्पणखा'' हो जाती हैं,
जिस पर झूठी-खोखली समीक्षाएं गढ़ीं जाती हैं
और पढ़ने वाले हवा की कुर्सियों पर बैठकर
परिचर्चा उगलते हैं.........!!!!

#स्वरचित. ..✍️शैलेन्द्र श्रीवास्तव..




दिनांक - 14/04/2019
आज का कार्य - स्वतंत्र लेखन


---कोई तो कारण होगा---

क्यों आपस में लड़ रहा इंसान
क्यों बड़ों का घट रहा सम्मान
क्यों नारी का हो रहा अपमान
क्यों नहीं बेटा बेटी एक समान
कोई तो कारण होगा

क्यों फैल रहा हैं भ्रष्टाचार
क्यों घाटी में जवान लाचार
क्यों बढ़ रहा हैं पापाचार
क्यों खो गया आदर सत्कार
कोई तो कारण होगा

क्यों शिष्य पथ से भटके
क्यों गुरू जी पैसे में अटके
क्यों युवा आज नशे में लटके
क्यों रिश्तों की दीवार चटके
कोई तो कारण होगा

क्यों बढ़ रही हैं बेरोजगारी
क्यों गरीबी बनी महामारी
क्यों स्वार्थी हुई दुनियादारी
क्यों सच्चाई झूठ से हारी
कोई तो कारण होगा

स्वरचित 
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)

क्यों आपस में लड़ रहा इंसान
क्यों बड़ों का घट रहा सम्मान
क्यों नारी का हो रहा अपमान
क्यों नहीं बेटा बेटी एक समान
कोई तो कारण होगा

क्यों फैल रहा हैं भ्रष्टाचार
क्यों घाटी में जवान लाचार
क्यों बढ़ रहा हैं पापाचार
क्यों खो गया आदर सत्कार
कोई तो कारण होगा

क्यों शिष्य पथ से भटके
क्यों गुरू जी पैसे में अटके
क्यों युवा आज नशे में लटके
क्यों रिश्तों की दीवार चटके
कोई तो कारण होगा

क्यों बढ़ रही हैं बेरोजगारी
क्यों गरीबी बनी महामारी
क्यों स्वार्थी हुई दुनियादारी
क्यों सच्चाई झूठ से हारी
कोई तो कारण होगा

स्वरचित 
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)




दिनांक -१४ .०४.२०१९
अपनी तो ये आदत है
सबकी राहो में 
फूल बोते है।
क्या हुआ गर 
काँटे अपने ही
दामन मे ढोते है।
बदी का बदला
नेकी से चुका लेना
विष के बदले ''रश्मि''
अमृत पिला देना
यही तो जिन्दा रहने के 
दिलो में ढूंढे हमने मौके है।
अपनी तो ये आदत है
सबकी राहो में 
फूल बोते है।।
✍️ रश्मि अग्निहोत्री,
केशकाल जिला कोंडागांव




आज मुक्त दिवस पर मेरी प्रस्तुति 

जनम लिए रघुनाथ हैं,हर्षित जन मन आज।
आए जग भरतार हैं,रघुकुल के सरताज।।

चैत्र शुक्ल तिथी नवम,शुभ दिन शुभ कर नाम।
राजा दशरथ प्राण प्रिय,जनमे रघुवर राम।।

राम लखन भरत शत्रुघ्न,ये सब भाई चार।
रघुकुल भूषण हें बनें,वीर धीर आचार।।

राम नाम ही सार है,सबके प्राणा धार।
राम रटन जो कर लिया,उसका बेड़ा पार।।

जीवन पानी मोल है,राम नाम रस घोल।
भरते बूँद विराट सम,राम राम बस बोल।।

राम रमा संसार है,रामा पालन हार।
रूप यही त्रिदेव के, रचते हैं संसार।। 

आओ अब हे जगत पति,लेकर नव अवतार। 
बढ़ता जग में पाप है,करो दुष्ट संहार।।

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़
14-4-2019




दिनांक 14 अप्रैल 2019 
दिन रविवार 

आयोजन स्वतंत्र लेखन

ग़ज़ल

ज़िंदगी दरबदर आजमाती रही ।
पोंछ कर अश्क मैं मुस्कुराती रही ॥

राह के ख़ार से हौसला बीनकर ।
रोज़ उम्मीद के गुल खिलाती रही ॥

रात के बाद है रोशनी का सफ़र ।
फ़लसफ़ा ये सहर रोज़ लाती रही ॥

देख आंगन में चिड़िया फुदकती हुई ।
मेरी नंही परी चहचहाती रही ॥

छाँव दे शाख़ से जब ये पत्ती गिरी ।
खाद बन पेड़ के काम आती रही ॥

रोज़ शामो सहर आरती ओ अज़ां ।
सर ज़मी हिंद की गुनगुनाती रही ॥

तीरग़ी जब बढ़ी ना डरी 'आरज़ू' ।
राग दीपक मगन हो के गाती रही ॥

-अंजुमन 'आरज़ू' ©




दिनांक 14/04/19
स्वतंत्र लेखन

रूप घनाक्षरी पर मेरा प्रयास 

चंदन शजर जैसे लिपटे काला भुजंग 
नथुनों में गंध भर शीतलता पाए संग 

खुद को चंदन जान मोह माया है भुजंग
लिपटी है तुझे ऐसे, चढ़ा उसका ही रंग 

विवेक कटार मान ,सर्प टुकड़े हजार
प्रभु रंग रंगने को, उठे हिय में तरंग 

अनहद धुन बजे चित्त में विराग जगे 
जीव एकाकार होवे,बजने लगे सारंग

नीलम तोलानी
स्वरचित।




स्वतंत्र लेखन

"आओ मतदान करें"

आओ मिलकर मतदान करें,
भारत का नव निर्माण करें।
जाति धर्म की तोड़ दीवारें,
मिल जुल कर हम मतदान करें।

आओ चाची आओ बाबा,
हम आगे बढ कर कुछ काम करें।
जल पान करने से पहले ही,
मिल जुल कर हम मतदान करें।

लोक तंत्र के इस पावन पर्व में,
जन जन में हम जोश भरें।
संसद की खोई गरिमा को,
लौटाने में हम मदद करें।

जो संसद की गरिमा खोते हैं,
उनका हम आज निदान करें।
जो हर पल नंगापन करते हैं,
हम उनका काम तमाम करें।

पहचाने अपनी ताकत को,
नव हिन्द नव राष्ट्र निर्माण करें।
चाहे जितने लालच आएं,
हम सत्य निष्ट हो मतदान करें।

जो लालच देना चाहें हमको,
उनका भी हम निदान करें।
पहचाने अपनी कीमत को हम,
मिलकर के हम मतदान करें।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर




स्वतन्त्र लेखन में मेरी रचना

पंछी के कलरव से ,
फूलों की महक से,
मुस्कुरा जाते है लब मेरे,
बचपन की तेरी यादों से,
तभी मन में एक टीस उठती है,
आँखें फिर झरझर बहती हैं,
दूर है तू आज मुझसे,
देखने को निगाहें तरसती हैं,
मेरे प्रेम का साया है तुझपर,
कटे जीवन तेरा हँसकर,
कटाक्ष दिल पर सहती हूँ,
ना रो पाती हूँ जी भरकर,
तेरी यादों का ये सहारा,
सब से है मुझको प्यारा,
दुखों की इस दरिया में,
मिलेगा सुखों का भी किनारा।
*****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
14/4/19
रविवार



.....................................
इस संसार में 

दिलों को छू लेने वाली इक आवाज़ 
और 
जोड़ने वाले इक तार की कमी है 
वरना यहाँ शोर शराबा ,चीख़ पुकार बहुत है!

कहीं बिखरी पड़ी है
आँखों को चुँधियाती रौशनी
कहीं हाथ को हाथ सुझाई न दे
रात के रेशमी आँचल तले 
दूर दूर तक फैला अँधकार बहुत है !

कहीं ख़ुशियों की महफ़िल सजी 
जश्न ए ज़िंदगी का पुरकैफ़ मंज़र
कहीं उखड़ती साँसे हैं
अपने ही जाल में उलझे से रिश्ते है
इंसान आज बेबस और लाचार बहुत है ।

माँगे से मौत मेहरबाँ नहीं होती
कहीं किसी को जीने का मौक़ा नहीं मिलता
आसमा उदास है उसके पास ज़मीं नही
सूरज ,चाँद ,तारों को दूर से निहारते
ज़मीं भी बेज़ार बहुत है ।

जाने कब मिटेंगे फ़ासले लोगों के दरमियाँ 
कब दूर होगी दिलों की मजबूरियाँ 
जाने कब टूटकर बिखरेगी ये मज़हब की दीवारें 
कब तक होंगे गर्दिश में सितारे
हर एक को इसका इंतज़ार बहुत है ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ....बेंगलूर 
दिनांक :१३/०४/२०१९



विषय:स्वतंत्र लेखन
दिनांक:14/04/2019

पेड़-मानव संवाद

कुदरत की हम भेंट महान
तुम्हारे लिए हैं वरदान
पंछियों को देते सुंदर मकान
ऑक्सीजन भी करते हैं प्रदान
गोंद, ईंधन,फूल,औषधि 
हम हैं अनेक गुणों की खान
मत काट मत काट हमें
ओ मानव मत बन नादान
मान हमारा कहना मान
पंथी को देते छाया
सुंदर बनाते हैं जहान
पेड़ तुम खूब लगाओ
पर्यावरण को सुंदर बनाओ

--हरीश सेठी 'झिलमिल'
सिरसा
(स्वरचित)



अभिव्यक्ति की आजादी , 
बन गया बुखार मियादी ।
व्यवसायिक विज्ञापनों से लाचार 
बेचारा पत्रकार , 
बन गया मसालेदार अचार ।
मिडिया के अजब हैं तेवर 
भ्रष्टाचारियों को पहनाते, 
ईमानदारी का जेवर ।
राजनैतिक भेड़चाल 
जनता हुई बेहाल ।
आजादी के नाम पर 
हो रही वैचारिक अभिव्यक्ति की बर्बादी ।
हाय ये कैसी आजादी ? 
अच्छे बुरे जैसे भी हो विचार 
अभिव्यक्ति के साथ ना करो व्याभिचार ।
गालियों की बौछार 
मना रहे लोकतंत्र का त्यौहार ।
कुछ तो करो विचार 
शब्दों की अपनी मर्यादा हो ।
देश का मान , स्वार्थ की राजनीति से 
कुछ ज्यादा हो ।
स्वतंत्रता की सीमाएँ ना लांघो 
विचारों को मर्यादा के आंचल से बांधों ।
स्वतंत्रता की सीमाएँ ना लांघो ।
स्वतंत्रता की सीमाएँ ना लांघो।

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )



14/4/2019::रविवार
स्वतन्त्र लेखन


सुनो!!!
मैं चाहती थी जीना
तुम सँग अमिय घट पीना
पर तुम चले गए खामोशी से
दे कर गरल का प्याला.....

हाँ, मैं पाना चाहती थी
अपना सर्वस्य अर्पण कर
तुम्हारा समर्पण
पर तुम चले गए खामोशी से
ओढ़ा कर दगा की कथरी.....

हाँ, मैं सीना चाहती थी
दरकते रिश्तों की कथरी
तुम्हारे प्यार से
पर तुम चले गए लाद कर
सीले लम्हों की गठरी.....

आज भी हूँ प्रतीक्षारत
मन का टूटा दर्पण है विकल
शायद हो तुम्हारी वापसी
बन्द खिड़कियों की दरारों में झाँकती
धूप की सुनहरी किरण की तरह.....

काश, ऐसा हो पाता
कुछ तुम बदल जाते
और कुछ मैं
रँगीन फ़िज़ाएँ भी साथ होती
ये स्वप्न नहीं हक़ीक़त होता....
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
स्वरचित



समझो पूर्ण गठबंधन एक चाबी एक ताले से
तेरे मन की बातें कहता मेरे दिल के हवाले से

कहीं क्षितिज में दोनो धरती अंबर मिलते हैं 
लगते रहें हमेशा एक दूजे के रखवाले से

चलते रहते हैं दोनों काल जिंदगी साथ साथ
छवि यह कायम रखते मनमीत मतवाले से

साथ सदा निखारते दोनो समतल पर्वत
एक समान पोषित सदा होते ऊपर वाले से

मंदिर और मस्जिद भी साथ कहाँ नहीं मणि
हर ज़ख्म में मिले सुकूँ दिव्य मरहम वाले से

मनीष मिश्रा मणि
जयपुर राजस्थान

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