Sunday, April 21

" स्वतंत्र लेखन "21अप्रैल 2019

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21/4/19
भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन

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*यह कैसा इश्क*
यह कैसा इश्क है 
आसमां का ज़मीं से
लगता है दूर कहीं 
मिलता है ज़मीं से
मगर यह सच नहीं है 
यह है सिर्फ फ़साना
चाह के भी गा न पाएं 
यह प्यार का तराना
जब गुजरता है इश्क 
इनका दर्द की इंतहा से
आँसुओं की बारिश
तब ज़मीं को भिगोती
बस यही है मिलन 
धरती का अंबर से
अंबर के आंँसुओ को 
तन पर सजाकर
पहनकर प्यार की 
यह धानी चूनरिया
शरमाकर अंबर की
बन जाती दुल्हनिया 
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित 


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सादर नमन
स्वतन्त्र लेखन में मेरी रचना


उठा कलम ये सोचू मैं,
किस विषय पर लिखूँ मैं,
पढंकर समूह की रचनाएँ,
नित नई विधा सीखूँ मैं,
नित नए अंकुर खिले यहाँ,
करते अपने भाव बयाँ,
मेरी रचनाएँ भी कुछ ऐसी,
जिनमें होते यादों के निशाँ,
भावो सारे रूसवाई के,
बने साथी तन्हाई के,
करते हाल बयाँ इनमें,
दर्द-ए- गम जुदाई के।
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
21/4/19
रविवार


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 ।। वर्तमान युग में कबीर ।।

आज गर कबीर होते दुनिया करती सवाल 

खरी खरी मत कह कबीरा होते हैं बवाल ।।

पहले तो डिग्री बताओ तब कबीर रोते 
चार कवि और आकर के उनको धोते ।।

पुरस्कार भी क्या कोई तुमने कभी पाये 
फिजूल में ही अपनी यह धांक जमाये ।।

कवि को हिन्दी में पी एच डी है जरूरी 
मैं अमेरिका में रहा वहाँ की है यह पूरी ।।

कबीर की हो जाती फिर बोलती बंद 
कमजोरी उनकी भी थी एक बड़ी छंद ।।

या तो ले लेते वह कविता से सन्यास 
या कविता देवी से कहते मत आ पास ।।

वैसे भी ''शिवम" आँसुओं की लड़ी है
कवि की परिभाषा अब दूसरी गढ़ी है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 21/04/2019


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मंच को नमन
दिनांक -21/4/2019 
विषय-यादें/तन्हाई

मन कचोटने लगा चहलक़दमी के उजाले से
तनहाइयों के अंधेरे में मुझे कुछ पल जीने दो
मैं नही देखना चाहती उजाले में
मुखौटे वाले डरावने चेहरे
जिनकी सूरत सीरत में ज़मीनी आसमानी अंतर
माना अंधेरे में केवल परछाईं दिखेगी
पर ना होगा कोई बनावटीपन
मेरी तनहाइयों का है कैसा अनोखापन
तन्हाई यादों का सैलाब बन आएँगी
ख़ुद याद इसमें तेरी बही आएँगी
ये तन्हाइयाँ मुझे क़रीब लाती रहेंगी
नैनों में एक सुंदर ख़्वाब सजाती रहेंगी
ना रोक ना कोई टोक हो पाएगी
सरपट दौड़ीं चली मेरे पास आएँगी
इन पर एकल अधिकार होगा मेरा
तुम चाहकर भी इन्हें ना रोक पाओगे
गर कोशिश की तो अवश्य हार जाओगे ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित

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नमन 
भावों के मोती
२१/४/२०१९
स्वतंत्र लेखन

मुखर मौन अभिव्यक्ति कविता
मुखर मौन अभिव्यक्ति कविता,
भावों की बहती सुर- सरिता।
कविता का संसार है अनुपम,
सुर-ताल की छेड़े है सरगम।
इसमें सारा विश्व समाया,
कोई नहीं यहां अपना-पराया।
कहीं जन्मती,कहीं पनपती,
कहीं खेलती, कहीं कूदती।
इसका क्षेत्र बड़ा व्यापक है,
इसका कोई नहीं मापक है।
दिल से दिल का बंधन है ये,
भावों का अवगुंठन है ये।
मौन की ये होती परिभाषा,
संतप्त हृदय को देती दिलासा।
उड़ती है ये पंख लगाकर,
दम लेती अंधकार मिटाकर।
सूर्य तेज से ज्यादा तेजस्वी,
हृदयों में प्रकाशित इसकी छवि।
हृदय का बनकर उल्लास,
निराश हृदय में भरती आस।
प्रेम -श्रृंगार की ये जलधारा,
वीरों का उत्साह ये सारा।
पीड़ित-वंचित की आवाज़,
क्रांति का करती आग़ाज़।
कवि -कल्पना का ये रूप,
भावों का सुंदर स्वरूप।
अनंतकाल से ये प्रवाहित,
इसमें जन-मन है संचित।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित,मौलिक


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गीतिका ☀️🌴
*****************************
🏵 छंद - विधाता 🏵
मापनी - 1222 , 1222 , 1222 , 1222
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

इशारों ही इशारों में , 
कभी अपना बनाते हो ।
किसी को क्या पता कब दिल 
चुरा के यों सताते हो ।।

निगाहों में निगाहें डाल 
कर देखो कभी मीता ,
तरसती हैं किसी को रोज
प्यासी छोड़ जाते हो ।

उगा कर प्यार का अंकुर , 
खिलाई नेह की बगिया ,
बिताये जो हँसी लम्हे , 
अभी तक याद आते हो ।

नहीं दिल चैन आता है 
न नैनों में भरे निंदिया ,
न जाने क्या हुआ नित ख्वाब 
आकर खिलखिलाते हो ।

किसी ने सच कहा है 
प्यार की राहें बड़ी कातिल ,
कभी सपने दिखाते हो , 
कभी आँखें चुराते हो ।।

🌺🌴🌻🌲🌹

🏵***....रवीन्द्र वर्मा आगरा 

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विधा लघुकविता
21 अप्रैल,2019 रविवार

स्वर्ग से बढ़कर पावन सुन्दर
जन्मभूमि ही कर्मभूमि है
प्रकृति नित नव रंग बदलती
स्व माँ वसुधा लूमी झूमी है
गङ्गा यमुना ताज हिमालय
कश्मीरी केसर की क्यारी
अति मनोरम शौभा इसकी
भारत भूमि जग में न्यारी
अन्न वसन माँ नित देती
पंचतत्व का मिंले सहारा
सदा बहाओ नित पसीना
नर जीवन में कभी न हारा
जन्म मृत्यु अटल सत्य हैं
सुख दुःख आते जाते रहते
जैसा कर्म करो जीवन मे
कर्मो के फल नित यँहा भरते
मातृभूमि सबकुछ देती है
बदले में वह कुछ न लेती
इसीलिये तो माँ कहलाती
निज पुत्रों को गोद सुलाती
ऋण उऋण नहीं हो सकते
जितना चाहें हम कर लेवें
अंत समय चिर शांति गोदी
हँसकर जननी हमको देवे
स्वर्गीम वसुधा सर्व सुखी हो
माँ कल्याणी तुम हो दाता
नमन मात्र करू चरणों मे
मंगल गीत खुशी मैं गाता।।
स्व0 रचित ,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा, राजस्थान।


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भावों के मोती 21/4/19
स्वतंत्रलेखन


बेटी ने समझा दर्द

" पापा , सोमेश के बिजनेस के लिए अभी दो लाख रूपये चाहिए । अगले महिने हम लौटा देंगे , जिससे पैसे लेना थे वह विदेश गया है , अगले महिने आ जाएगा । "
संगीता ने पापा से अनुरोध करते हुए कहा ।
रामलाल ने थोड़े गुस्से से कहा : 
" बेटी हमने तुम्हारी शादी में काफी पैसा खर्च किये है , अब हमारे पास पैसे नहीं है ।"
संगीता जानती थी " पापा के पास पीएफ और ग्रेज्यूटी के पैसे है , लेकिन उनका रूख देख कर वह वापिस 
आ गयी ।"

दो दिन बाद रामलाल का बेटा रमेश आया और बोला :
" पापा बिजनेस में कुछ नये आइटम जोड़ना है , इसलिए कुछ पैसे और चाहिए थे । " 
रामलाल ने कहा :
" अभी पिछले हफ्ते ही तो पाँच लाख दिए थे बेटा जरा पैसे को सही जगह लगाना , बेटा हिसाब बताना । " 
फिर बेमन से रामलाल ने हमेशा की तरह एक चेक काट कर रमेश को दे दिया कि वह जरूरत के अनुसार एक दो लाख भर लेगा ।
रमेश की पत्नी सुलेखा दरवाजे के पीछे से सब सुन रही थी । उसने इस बार पापा का थोड़ा कड़ा रूख देखा तो उसे भविष्य में पैसे नही मिलने की आशंका हुई , इसलिए रमेश को पापा के खाते से पूरे पैसे निकालने के लिए कहा और रमेश ने बैंक जा कर खाते के पूरे पैसे भर कर
निकाल लिए ।
अगले महिने जब रामलाल बैंक गये तब बैंक वालों ने उनके खाते से बेटे के द्वारा पैसे निकालने की 
बात बताई ।
जब रामलाल घर आए तब घर का माहौल ही बदले चुका था । उनका सामान बाँध कर दरवाजे पर रखा था , वह समझ गये कि उनके साथ धोखा हो गया है , लेकिन इसकी भनक संगीता को लग गयी थी इसलिए वह सोमेश के साथ आई और पापा का सामना कार में रख कर अपने घर ले आई ।
रामलाल , संगीता से आँखे नहीं मिला पा रहे थे लेकिन संगीता और सोमेश निश्चल भाव से उन्हें अपने साथ रख रहे थे । 

स्वलिखित लेखक 
संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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शेर की कविताएं....
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इस रण मे और रथी भी है तुम समय जरा तो आने दो।
दुष्टो का मर्दन कर देगे हूँकार जरा लग जाने दो।
....
यह धर्मयुद्ध है भारत का मुझे भगवा ध्वँज लहराने दो।
माथे पे तिलक केसरी है मुझे जय जयकार लगाने दो।
......
उत्कर्ष के सोपानो पे चढ मुझे बाँहो को फैलाने दो।
जो शेर के अन्तर्मन मे है उसे बाहर तो तुम आने दो।
......
अब नही हलाहल पीना है बस सोम सुधा बरसाने दो।
भारत की भूमि कण- कण मे देवालय फिर बस जाने दो।
......
कोई रोकेगा क्या तुमको कोई टोकेगा क्यो तुमको।
तुम मिटा के सारे प्रतिबन्धों को बस रामराज्य तो आने दो।
.......

स्वरचित ... शेर सिंह सर्राफ


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नमन मंच 
स्वतंत्र लेखन
21/04/19


खिवैया

जाति धर्म के तूफान मे फंसे 
संवैधानिक पदों को भवर मे लिये
नारी की मर्यादा को तार तार किये
करतूतों से इनकी, देश की नैया डगमगा रही है ।

असभ्य भाषा का प्रयोग कर 
वाणी मे जहर घोल कर ,नेता
जनता को क्या सिखा रहे हैं 
ये ख़रीदार वोट की कीमत लगा रहे हैं।

जनता बांधे आँखो पर पट्टी
बुद्धि से सोच न पाए 
नेता के बहकावे मे क्यों आ रही है 
जनता बनो खिवैया ,नैय्या तुम्हें पुकार रही है।

ड्राइंग रूम में बैठ बहस करे ,
अपने वोट का मोल न जाने
वोट डालने में क्यों पसीना छूट रहा है 
जनता कथनी करनी में क्यों फर्क दिखा रही है।

सोच विचार कर मतदान अवश्य करो
भंवर मे फंसी नैया को पार लगाओ
जनता है खिवैया ,माटी पुकार रही है 
सबके प्रयासों से नैय्या मंजिल पा रही है 
नैय्या मंजिल पा रही है ............
©anita_sudhir


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..जय माँ शारदा 
..सादर नमन भावों के मोती.... 
दि.-21.04.19
्वतंत्र सृजन अंतर्गत मेरी प्रस्तुति सादर..... 
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जिनको अपना समझा वो ही बेगाने निकले |
जान रहे थे जिनको वो ही अनजाने निकले ||

ख्वाब सुनहरे देख रहीं थी ये आँखें कब से|
अब तक पूरे हुए नहीं बस अफसाने निकले ||

हरदम साथ निभाने का दम भरते थे कल तक|
देख लिया दौलत के ही वो दीवाने निकले ||

रुसवा होकर भी हम तो खुश हो जाते यारों |
भर आया दिल जब अपनों के ही ताने निकले ||

बीत गया नादानी करते ही जिनका जीवन |
अब देखो तो वो ही हमको समझाने निकले ||

वक्त वक्त की बात वक्त से बड़ा नहीं कुछ भी |
वक्त हुआ जब साथ सिकंदर कहलाने निकले ||

दोष किसी को देने से भी होगा क्या हासिल |
टूटे "सरस" नसीब के सभी पैमाने निकले ||

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#स्वरचित 
प्रमोद गोल्हानी "सरस"
कहानी - सिवनी म.प्र

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नमन 'भावों के मोती'
दिनाँक: 21.04.2019
विषय: स्वतंत्र लेखन


।।मुक्तक कविता : तुम देना साथ मेरा सनम ।।

जीवनसंगिनी

माँ का घर मैं छोड़ कर आई हूँ
घर से माँ की तश्वीर ले आई हूँ।
अब तुम मुझे अपना लेना साथी
एक घर से पराई होकर आई हूँ।।

जीवनसाथी

मेरा घर आँगन आज से तेरा हुआ
एकलौता दिल, आज से तेरा हुआ।
बस मेरे माता पिता अपने समझना
मेरा तन मन धन आज से तेरा हुआ।।

जीवनसंगिनी

मुझे मेरी माँ की याद आ रही है 
मुझ मेरे पापा की याद आ रही है।
एक नए परिवार की जरूरत है
बिछड़े परिवार की याद आ रही है।।

जीवनसाथी

माँ से दूर हो तुम्हें याद तो आएगी 
पापा से दूर हो याद तो आएगी।
मेरे परिवार को तुम अपना समझना
परिवार से दूर हो याद तो आएगी।।

जीवनसंगिनी

तुम मेरा ख्याल रखोगे? वादा करो
अपनों सा प्यार दो गे ? वादा करो।
अब तुम ही मेरा घर संसार हो साथी
तुम मेरा संसार बनोगे? वादा करो।।

जीवनसाथी

अपना बनाकर रखूंगा, वादा है मेरा
दिल मे बसाकर रखूंगा, वादा है मेरा।
तुम भी मुझे पराया मत समझना
रानी सी सजाकर रखूंगा, वादा है मेरा।।

जीवनसंगिनी

घर की जिम्मेदारियां कैसे संभालूंगी?
जीवन की नोका को कैसे संभालूंगी?
अगर डगमगा जाए, संभाल लेना
उफ्फ़! पता नहीं ये सब कैसे संभालूंगी??

जीवनसाथी

मत घबरा, तुम नाव, मैं पतवार बनूंगा
हर मौसम, हर घड़ी तेरे साथ रहूँगा।
तुम देना साथ मेरा मेरे अज़ीज, हमदम
तेरे बिना तो मैं अकेला पड़ जाऊंगा।।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा

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मंच को नमन 🙏🙏
आदरणीय गुरुजनों को नमन 🙏🙏🙏
विषय -स्वतंत्र लेखन
(२१-४-१९)
विधा-छंदमुक्त

मायूसी के गहन अंधकार में
अपने अस्तित्व को खोजता
खोखली मानवीय संवेदनाओं 
में उतरता गहरा उतरता
चला गया वह........

अपूर्ण आकांक्षाओं को समेटता
चिलचिलाती धूप में अपने
होने का आभास कराता
अंधेरी रात में गुमनाम होता
चला गया वह......

कल दूर होकर भी था 
पास मेरे
आज कैद में अहसास 
शून्य का देता
चला गया वह....

वह और कोई नहीं
साया था मेरा
जो भागना तो चाहता था
दूर मुझसे 
पर बेबसी में सिमटता
मुझमें ही लिपटता 
चला गया वह.…..

स्वरचित
--सीमा आचार्य--(म.प्र.)


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गृहस्थी 

देखा था मैंने भी

सपना संग
तुम्हारे गृहस्थ 
जीवन अपना 
खुशहाल गृह
की मै सम्राज्ञी
और तुम सम्राट
अपने अँगना 

हाथ तुम्हारा 
थाम कर
चल पड़ी हूँ
गृहस्थी का
भार उठाने
अपनी 
आटा, दाल, चावल
कभी बर्तनो को
संवारने 
स्वाद कभी अच्छा 
कभी भोजन
का न जंचना

धूल खिड़कियों 
की कभी मुँह 
चिढा़ती 
घर के कामों 
के पीछे पीछे
भागूँ
खेलने को
भागती थी
कभी जैसे 
रोज एक नई
चुनौती होती
सामने
माँ के घर में
कभी खाने में 
देर नहीं देखी 
मुझको हो
जाती हर काम
मे देर कैसे
माँ को हर
तरीका किसने
सिखाया
क्या नानी माँ
से भी अच्छी 
माँ थी
कभी नाराज 
होकर करती
हूँ खुद से बाते
भाई बहन से
कितनी लड़ाई 
करती थी

गृहस्थी है मेरी
मुझको ही
संभालनी
कितना ही कार्य 
सिर पर क्यों न
सवार ही
साथ दूँगा स्वंय
का क्योंकि साथ
तुम्हारा है
अपनी गृहस्थी 
को हमने
बनाया है 

डॉ स्वाति श्रीवास्तव "माटी"

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नमन ---भावों के मोती
शीर्षक---स्वतंत्र लेखन


बड़े-बड़े धर्नुधरों के
चूके थे तरकस के तीर
पर ना चूके कभी लक्ष्य से
शब्द हैं वो लक्ष्यभेदी तीर
कमान से छूटे जो तुरीण
घायल कर गये शरीर
पर शब्द भेद गये दिल
जिनकी ना कोई औषधी
प्रत्यंचा जब चढ़ाओ गुस्से की
खींचों जब भी मन के तीर
सोचविचार कर लक्ष्य करो
लौटते नहीं कभी छोड़े गये तीर
-----नीता कुमार(स्वरचित)


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नमन भावों के मोती
दिनांक - 21/04/2019
आज का कार्य - स्वतंत्र लेखन

गजल

मिलेगी मंजिल कदम बढ़ा कर तो देखो,
दिल में कोई ख्वाब बसा कर तो देखो,

होगा अमन-ओ-चैन इस जहां में
नफरत की आग बुझा कर तो देखो,

लगेगा जरूर तीर निशाने पर तेरा
अर्जुन सी आँख जमा कर तो देखो,

होगा दिलों में प्रेम का उजाला 
शमां प्यार की तुम जला कर तो देखो,

अंधेरे में पहचान ली जाएगी काबलियत
बस जुगनू सा जगमगा कर तो देखो,

जिंदगी बन जाएगी एक तराना
गीत वफ़ा के गुनगुना कर तो देखो,

चूमेगी सफलता भी कदम तुम्हारे
इरादों को मकसद बना कर तो देखो,

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)


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 "नमन भावों के मोती "
आज, दिनांक 21अप्रैल 2019
रविवार का कार्य है :- " स्वतंत्र लेखन "

विधा -"दोहे"
विषय -"जीवन /जगत /विविधा"
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नहीं दर्द बतलाइये ,काँधा मिले न कोय।
हँसी उड़ायेंगे सभी ,. साथ न कोई रोय।।
-------------------------
रैट रेस में हो गये, हम इतने मशग़ूल। 
जीवन जीने की कला, सारी बैठे भूल।।
----------------------
ये कलि का परताप है,समय गया वो आय। 
काँच मुकुट में सोहता,..हीरा ठोकर खाय।।
-------------------
धैर्य विवेक न हो जहां,निश्चित बिगरें काज।
मिल सकते हैं आपको,.... दोनों जूते प्याज।।
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"दिनेश प्रताप सिंह चौहान"
(स्वरचित)
एटा --यूपी

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नमन भावों के मोती"
"आज दिनांक 21 अप्रैल 2019"

ए जिंदगी नाराज नहीं तुझ् से 
बस थोड़ी शिकायत जरूर है 

ग़मो के बादल हटते नहीं 
जिंदगी तेरे पहलू बहुत है 

कितनों को वीरान किया तूने 
कितनों के दिल तू तोड़ी है 

हर समय हर पहर 
ग़मो की बारिश करती है 

जी तो करता है तुझे छोड़ जाऊ 
पर अपनों की जुदाई ये भी ना करने देती है 

"शुभम सिंह "शुभ" 
(स्वरचित मौलिक रचना) 
उत्तर-प्रदेश 
गोरखपुर


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नमन मंच को
दिन :- रविवार
दिनांक :- 21/04/2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन

आ तेरा दामन महका दूँ..
चाँद तारों से आँगन चमका दूँ..
लिख दूँ गजल कोई तेरे नाम..
खुशियों से तेरी माँग सजा दूँ..
कर दूँ जीवन नाम तेरे..
हर लम्हा तुझ पर वार दूँ..
बनाकर संगिनी तुझे..
प्रीत का बंधन बांध लूँ..
आने से तेरे..
खिल जाए आँगन मेरा...
खुशियों से भर जाए..
ये खाली दामन मेरा..
इंतजार हुआ अब बहुत..
विरह अग्नि धधक रही..
रोम-रोम पुलकित हो..
प्रेम ज्योति दहक रही...
उड़ने को बेताब मन..
स्वछंद गगन की ललक लिए..
आंसू भी अब आँख से..
स्वतः ही छलक लिए..
आस तेरी जाती नहीं..
पास तू आती नहीं..
आँखों से दूर नींद हुई..
याद तेरी जाती नहीं..
याद तेरी जाती नहीं..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

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दूर बहुत है घर आंगन गलियाँ मेरा गांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 

तरुणाई में घर छोड़ा जाए संवर जवानी।
खूब कमाया छूटा घर का पर दाना-पानी।
थकने लग जाते हैं अब हर बेरा मेरे पांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 
दूर बहुत है घर आंगन गलियाँ मेरा गांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 

भाई - बहन मां - बाबुल सारे छूट गए।
यार - दोस्त संगी -साथी प्यारे छूट गए।
भूल गए दुश्मन भी अब तो चलना दांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 
दूर बहुत है घर आंगन गलियाँ मेरा गांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 

मै घर का मालिक अबके बना हूँ नौकर। 
दुनिया के सर्कस में कैसे बना हूँ जोकर। 
भूल गया निज बोली रह गई कांव-कांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 
दूर बहुत है घर आंगन गलियाँ मेरा गांव। 
तपती लू सा जीवन और कहीं ना छांव। 

विपिन सोहल

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#नमन मंच:::भावों के मोती:::
#विधा::::स्वतंत्र लेखन::::
#दिनांक:::२१,४२०१९::::
#वार रविवार::::::
#रचनाकार:::दुर्गा सिलगीवाला सोनी

"*"*" तुच्छ और महान"*"*"

तुच्छ ना पौधों को समझिए,
पेढों को ना समझिए महान,
गहराई भले ही है सागर में,
सरिता का ही कीजे गुणगान,

पौधों से मिलते हैं फल बड़े,
बेलों की महिमा भी न्यारी है,
पेढ़ बड़े भी हैं तो क्या हुआ,
छोटे फल देना लाचारी है,

जीवन दायनी सरिता ही होती,
जो प्यास बुझाती है जग की,
एक बूंद ना मिले समन्दर से,
प्यासा जन्मों का खुद अंदर से,

कण कण रेत से सहारा बनता,
एक एक वोट से राजा जन्मता,
कुछ एक पौधे ही पेढ़ हैं बनते,
सेनापति भी क्या सैनिक जनते,

तूफ़ान जब कभी क्रोध में आते,
पेढ़ सभी हो जाते हैं धरासाई,
पौधे झूमते और मंद मंद मुस्काते,
उनपर कभी ना कोई आंच आई,

दुर्गा कभी तू बड़ा ना बनाना,
छोटों ने ही यहां बाज़ी मारी है,
एक एक बूंद से घड़ा भरता है,
हर एक बूंद का घड़ा आभारी है,


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नमन"भावो के मोती"
21/04/2019
"स्वतंत्र लेखन"
गज़ल
################
दिल में चाहत मेरी छिपा कर के
चौखट पे खड़ी खुदा कर के।

अश्क़़ों से गिला गिला करके
थक गई अब दर्द छिपा कर के।

इस मतलबी दुनिया में क्यूं
हंसते गैर को रुला कर के।

हौसले जो मुस्कान है लाते
नैनों से अश्क़़ों को हटा कर के।

रात काली ये रोती है अब क्यूं
चाँद की चाँदनी को छुपा कर के।

मुस्कुरा के तु जा रहा कहां
अब खुदा का पता बता कर के।

बेवफा भी अब रो रहा होगा
दिल से अपने वफा मिटा करके

अब दिखा चहरा सभी को
दिल के आइने में बसा कर के

पूजती हूँ तुझे मैं जानेमन
सूरत को खुदा बना कर के

बेवफा भी अब रो रहा होगा
दिल से अपने वफा मिटा कर के।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल


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नमन मंच को 
21/4/2019
विषय ग्रीष्म ऋतू 
विधा.. हाइकु 
1
भीषण ताप 
झुलसे भू गगन
रोये किसान 
2
गरमी काल 
बनता विकराल 
सभी बेहाल 
3
ग्रीष्म की ऋतू 
झुलसी हरियाली 
रो रहा माली 
4
सूखते कुँए 
रोती हुई नदिया 
प्यासे है खेत 
5
गर्मी सौतन 
रोती पनिहारिन 
झांकती कुआँ 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून


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 II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती....

ग़ज़ल - सभी हैं तुम्हारे सभी हैं हमारे..... 


सभी हैं तुम्हारे सभी हैं हमारे मगर फिर भी दुनिया अलग जात होगी... 
जुबां खोलना मत कुफर तोलना मत निगाहों में अपनी हरिक बात होगी...

महब्बत का जब ज़िक्र आया जुबां पर सभी के दिलों ने सुनाये तराने....
लकीरें ख़ुशी गम की चहरा बताये कहाँ पर मिली कैसी सौगात होगी....

न जाने कहाँ गुम हुए हैं फ़साने फ़िज़ा में न खुशबू न चहरे नुराने... 
सभी की निगाहें बदन ढूंढती हैं कहाँ दिल से दिल की मुलाक़ात होगी... 

कभी जान पाओगे जब भी मुझे तुम मिलूँगा तुझे मैं हरिक मोड़ पर ही....
न आँखें मिलेंगी न बातें ही होंगी मगर खूब उल्फत की बरसात होगी....

चलो इश्क़ को आज 'चन्दर' सँवारे खुदा की तरह ही इसे भी सजाएं...
ज़िकर-ए-महब्बत हमारा भी होगा जहां में महब्बत की जब बात होगी...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
२१.०४.२०१९


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 नमन भावों के मोती------स्वतंत्र सृजन पर एक कविता-------------------------------------------------बृक्ष की व्यथा----

क्या मिलेगा काट मुझको 

रे मनु पछताएगा 
ज़िन्दगी देता जो तुझको 
ग़र उसे रुलाएगा। 
प्राण मुझमें भी है बंधु 
मैं भी जीवित हूँ यहां 
तुम सभी के ही तरह 
सांस लेता हूँ यहां 
जैसे तुम भी छोटे से 
बढ़ के बड़े हो जाते हो 
मैं भी वैसे ही अपना 
हर पल आकार बढ़ाता हूँ 
करते विसर्जित जो तुम यहां 
सब हानिकारक वायु तो 
मैं उसे निज़ कर समाहित 
प्राण वायु देता हूँ यहाँ 
आज तुमसे एक अनुनय 
करता विनय कर जोड़ कर 
मुर्ख नहीं बन ये मानव 
तूँ चोट न पहुंचा मुझे 
चोट लगने पर मुझे 
अथाह होता दर्द है 
काटता उसी शज़र को 
कैसा मूरख मर्द है?
दर्द होता है मुझे भी 
आँखों से बहता नीर है। 
मारता तूँ जब कुल्हाड़ी 
अथाह होती पीर है। 
रे मनुज अब चेत तूँ 
ना कर दोहन प्रकृति का। 
सूरज का तपन मैं हरता हूँ 
श्रृंगार धरा का करता हूँ। 
मैं ही हूँ जीवन का आधार 
रे मनुज न कर मुझ पे प्रहार!!

@ मणि बेन द्विवेदी

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मौसम ने ली अँगड़ाई रे 
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मैं सुन रहा हूँ बदलते मौसम की आहट
शीत ऋतु ने किया धरा से प्रस्थान तो गरम हवा के झोंकों ने मचाया शोर 
मेघ को चीर झाँकने लगा बाँका दिन,निशा ने भींच लिया बाँहों मे उजली भोर।

सुन रहा हूँ मैं शाख़ से पत्तों के टूटने की आहट
पीत परिधान में लिपटी रुखी बिखरी,धूल से भरी राहें मिल जाती है मुझे हर मोड़ पर
आम से लदी डाल पर मधुर स्वर में गाती कोयल उड़ जाती है मुझसे नया रिश्ता जोड़कर ।

सुन रहा हूँ मैं गलियों में गूँजती बच्चों की खिलखिलाहट
ग्रीष्म ऋतु का आगमन,नीलाभ तले देर रात तक ठहाके लगाता बुढ़ापा संग बचपन
नींबूपानी,ठंडाई, क़ुल्फ़ी मलाई, ख़रबूज़ा-तरबूज़ा,खटी मीठी चाट दे नित निमंत्रण ।

सुन रहा हूँ मैं बंजारन हवा की झललाहट
रक्तिम आभा से दहकते गुलमोहर की छाँव में श्रमबिंदू पोंछता थकाहारा पथिक
गरम लू के चक्रवात के घेरे से भागने को आतुर मन - बेचैन,भयभीत और आतंकित।

सुन रहा हूँ मैं ढलते शाम की बौखलाहट
सर्दी की रातों मे ठिठुरती शाम कोने में दुबकी धूप को सहलाए और पुचकारे
मौसम ने जो ली अँगड़ाई ,यौवन की मस्ती में इठलाती हवा ठहर गई मेरे द्वारे ।

सुन रहा हूँ वादी मे गूँजते भोरों की गुनगुनाहट 
इधर रवि रश्मि से आलोकित धरा,उधर पतंग गगन पर मनोहारी चित्र उकेरता
रंगब्रंगी तितलियाँ डार डार फूलों का रस चूसती , कही व्यथित मन गीत गाता।

सुन रहा हूँ मैं वसंत के आगमन की सरसराहट
प्रकृति ने किया मनुहार ,धूप से कुम्हलाया मौसम अनायास ही लगा सजने सँवरने 
नव वसन धारे , शोख़ियाँ लुटाते , उन्मादित सा दिन लगा वादी में रंग भरने ।

सुन रहा हूँ मैं अपने अंतर्मन की छटपटाहट
रे ! व्याकुल मन, ज़रा ठहर ,धीरज धर ,मौसम ने ली अँगड़ाई रे 
तू भी मुस्कुरा, साज़ उठा ,कोई नया गीत गुनगुना,फैल गई तरुणाई रे ।

मौसम ने ली अँगड़ाई रे !!
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ......बेंगलूर 
दिनांक : १५/०४/२०१९


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नमन मंच ....... भावों के मोती 
स्वतंत्र लेखन 
प्रहरी 
राह ताकते ये थके नयन
कब लौटोगे प्रहरी अपने चमन
कब सजाओगे अपने घर आँगन
सुनी गली कैसै खेलें बाल नंदन
चारों दिशाओं में है मौन क्रंदन
जीवन में नहीं कोई स्पंदन
राह ताकते ये थके नयन
कहते सखा लौटा लाओ बचपन
धाँगों की सौगन्ध तुम्हें कहती बहन
सहमें -सहमे हैं खनकते कँगन
धीरे -धीरे बजती पैंजन
धीमी - धीमी चलती धड़कन
छिन गयी जीने की उमंग
बस अब लौट आओ प्रहरी 
चले जो तुम गए हो 
बिन तुम्हारे ज़िन्दगी भी नहीं ठहरी 
शहला जावेद


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 1भा.21/4/2019/रविवार
बिषयः#अध्यात्म#ः
विधाःःःकाव्यःःःमुक्तकःःः


एक साथ जीता हूँ तीनों काल।
भूत भविष्य एवं बर्तमान काल।
ये जीवन जीकर देखा मैने प्रभु,
शायद इसीलिए हुआ बदहाल।

क्या अतीत से सीखा आजतक
भविष्य को साथ लिए जीता हूँ।
बहुत बडे असमंजस में फंसकर,
पाने सुख बर्तमान लिए ढोता हूँ।

न परोपकार पुरूषार्थ कर पाया।
कहां बर्तमान सुख से भर पाया।
सिर्फ अतीत पृष्ठ पलटता रहा हूँ,
सदैव भविष्य बनाने में भरमाया।

न माया मिली न श्री राम मिले हैं।
नहीं राधा कहीं घनश्याम मिले हैं।
इन कालों के चक्रव्यूह में फंसकर,
नहीं आजतलक सुखराम मिले हैं।

मैं मृगमरीचिकाओं में जी रहा हूँ।
कोरी कल्पनाओं में ही जी रहा हूँ।
भूत बर्तमान भविष्य की उलझन में,
सत्य सुधारस नहीं बिष पी रहा हूँ।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

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"उम्मीद की बूँद"
सन्नाटे के बीच एक चिंगारी उठी।हवा के साथ उड़ती रही।फिर थकते ही गाँव से सटे एक झोपड़े में आग लगाने में क़ामयाब हो गई।बेकसूर मारे गए।आग थमी तो देखा।कुछ लोगों का समूह झोपड़े को आंख गड़ाए देख रहा था।एक बोला- भाई, बहुत बुरा हुआ।बेचारे पशु ख़ामख़ा मारे गए।अब इनका क्या कसूर,हमारे बाड़े को आग ले डूबेगी?
दूसरा चिंतित स्वर में बोला- हाँ,भाई जितनी चिंता करे उतनी ही कम है।पर इन पशुओ का मालिक कौन था?
तीसरा अपनी बड़ी मूंछों को ताव देते हुए बोला- अरे वही जो गाँव में सबपर धौंस चढ़ाता है।क्या नाम है उसका।भीमचरण।
चौथा बोला- उसे ख़बर नहीं पड़ी क्या।अपना माल बेमौत मार गया है।
पहला फिर बोला- ख़बर होती तो कबका आ पड़ता।किसीने ख़बर नही पहुंचाई होगी।शायद इसलिए वह अबतक नहीं आया है।
दूसरा,तीसरा,चौथा सभी साथ में बोल पड़े- हाँ।अब हम भी ऐसे ही खड़े है।चलो घर की तरफ चलते है।ईश्वर ने जो किया वह तो हो चुका।अब हम क्यों समय बर्बाद करे।चारों ने घर के रास्ते देखे।उनकी साथ कुछ और भी चल पड़े।कुछ लोग अभी भी वही खड़े थे।उस हादसे को देख सर से लेकर जमीन तक काँप गए थे।

शाम हो चली।जले हुए झोपड़े से अब भी धुँआ भभक रहा था।तभी भीमचरण आ पड़ा।उसने अपने सामने जो दृश्य देखा उससे पूरा भयभीत हो गया।नयनों से यकायक ही आँसू ढुलक पड़े।तन लकवा खा गया।मन में तरह तरह की चिंताओ से वेदनाएं उमड़ने लगी। वही एकटक लगाए खड़ा रहा।और धड़ाम से जमीन पर गिर गया ।जमीन चाटने लगा, आसमान को सजल नेत्रों से निहारने को आतुर हो गया।
आसमान से एक बूँद मस्तक पर टपकी,उम्मीद व हमदर्दी की।बिल्कुल उसके सजल नेत्रों की कोर में।बूँद के गिरते ही उसने आँख भींच दी।लोगो ने देखा अरे!,क्या हुआ भीमचरण को,बेहोशी में चला गया क्या।सबलोग दौड़े हुए उसके पास आये।और देखा तो भीमचरण बेहोशी की मुद्रा में सोये हुये था।एक दौड़ा,झट से चुल्लू में पानी ले आया, और भीमचरण पर छिड़क दिया।भीमचरण जागा।चारो तरफ देखने लगा।यह क्या है,वह कैसे बेहोश हो गया था।जब निगाहें फिर से धुंए उठते झोपड़े पर पड़ी।तो जीव स्तब्ध रह गया।मौन के टूटते ही बोले- हाय!,ये क्या हो गया।मेरी जीविका बर्बाद हो चली।अब में किसके सहारे रहूँगा।
लोगो ने ढांढस बंधाया।जो होना था वह हो गया।अब उसको काहे रोये।हमें पता है तुम्हारी जीविका इन्ही मूक पशुओ के आसरे चलती।पर क्योंकर करे? मालिक का यही फरमान था।
दूसरे रोज भीमचरण मजूरी करने को चला।
उसको उम्मीद थी कि वह पहले जैसा संपन्न नही रह सकता।पर जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकता है,फल पाने में सफ़ल हो सकता है।इसलिए उसके मस्तक पर अभी भी उसी आसमान से टपकी बूंद का तिलिस्म था।जो उसकी उम्मीद को बरकरार रख रहा था।वह मजूरी करने एक सेठ के यहाँ रह लिया।दिनभर मजूरी करता था और शाम को घर लौट आता था।इसी तरह वह अपने जीवन के सफ़र को आगे बढ़ाने लगा।
समय गुजरता गया।आसमान से टपकी वह बूँद और भी फलित होने लगी।यहाँ तक कि अब कम ही समय भीमचरण को गरीबी में बिताने पड़ेंगे।उसके पास मजूरी के कई पैसे इकठ्ठे होने को आये थे।एक रोज सेठ से पूरा हिसाब ले आया।और घर के बाहर नीम के झाड़ के नीचे बैठे हुए गिनने लगा।करीब 5000 रुपये थे।उसने जब अपने हाथों में लिए।तो उसकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं रही।दूसरे दिन एक गाय ले आया।गाय आने के बाद उसका जीवन और भी प्रसन्न हो गया।ये सब उसी उम्मीद की बूँद के जरिये हुआ था।सोचिये एक उम्मीद की बूँद क्या नहीं कर सकती है।पहाड़ को भी हिला सकती है,कठोर से कठोर हालात को भी सरलता में ढ़ाल लेती है।

परमार प्रकाश


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 नमन मंच को
श्रद्धांजलि
स्वतंत्र लेखन

दिनांक :21/04/2019

इंसान

यह नर संहार,
मानवता पे वार,
अब इंसान ही इंसान को
मिटा रहा है,
यह कैसी पढ़ाई,
इंसानीयत से लड़ाई,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
यह लाशों के ढेर,
यह कैसा अंधेर,
कोई बम से ही इंसान,
उड़ा रहा है,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
यह चीखें चिल्लाहटें,
दर्द भरी कराहटें,
मासूम अपनों को न,
पा रहा है।
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
कोई अपनों को रोए,
कई मौत की नींद सोए,
खून की नदियाँ ही क्यों,
बहा रहा है।
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
हर धर्म कहता,
इंसान में रब्ब रहता,
फिर भी वो पाप क्यों,
कमा रहा है,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
मर रहा इंसान,
मारने वाला इंसान
असुरों का युग जैसे,
फिर आ रहा है,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
किस की है भूख,
भगवान रहा पूछ,
कौन सा धर्म अब तू,
बना रहा है,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
सुन मेरे भगवान,
देना शांति का दान,
तेरा ही यह इंसान आज
जुल्म ढा रहा है,
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।
यह इंसान आखिर कहां 
जा रहा है।

जय हिंद
श्रीलंका में आज हुए मानव संहार में शहीदों एवं पीड़ितों को ह्रदय से श्रद्धांजलि ।

राम किशोर, पंजाब ।


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 नमन --भावों के मोती
21/4/2019::रविवार
विधा--दोहे

विषय--विरह

विरह अग्नि में मैं जलूँ, सुन सजना दिन रैन
तुम बिन हिय पाये नहीं, इक पल को भी चैन

विरह उर्मिला का रहा, सदा सदा ही मूक
विकल रही चौदह बरस,हिय में राखे हूक

क्यूँ करते ऊधौ सुनो,आकर ज्ञान बखान
तुम कान्हा के प्रेम से, आज तलक अनजान

विरह वेदना मन लिये, मीरा वन-वन गात
गिरधर गिरधर रट रहीं, नैन करें बरसात

विरहन सा बैठा रहे , चातक करे पुकार
एक स्वाति की बून्द ही, उसका जीवन सार
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली




नमन मंच
२१/०४/२०१९
स्वतंत्र लेखन

"चोट लगी जब भी दिल पर"
चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ, दुनिया के सुनकर के ताने।
अपने भी तो बस देते हैं, अकसर दु:ख की ही सौगातें।।
आंसू पीना और खुश रहना, मेरी आदत में समा गया।
चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

जब-जब मेरे कदम बढे आगे, दुनिया ने आकर के रोका।
जो बन न सका मेरा अपना, उसने ही खुशियों को रोका।।
लोगों के ताने सहने में ही,मेरा तो यौवन ढल ही गया।
चोट लगी जब भी दिल पर,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन, मेरे जीवन का संताप बना।।

काश कोई अपना होता, मैं उसको गले लगा लेता।
अपनी इस सूनी बगिया को,पल दो पल को महका देता।।
पर भाग्य रुठ गया मुझसे, मेरी खुशियों को लील गया।
चोट लगी जब भी दिल पर, मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन ,मेरे जीवन का संताप बना।।

यदि मिलता अपनापन अपनों से, भर लेता मन के घावों को।
मन ही मन मैं हर्षा लेता, कर देता जन्नत जीवन को।।
देखो यह बगिया उजड़ी है,इससे मन मेरा बहक गया।
चोट लगी जब भी दिल पर ,मन मेरा हँस कर भूल गया।।
मेरा इतना सा अल्हड़पन , मेरे जीवन का संताप बना।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर

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आज की मेरी उपस्थिति...
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दिवानावार दिवानगी से दिवाना गुजर गया
वो शख्स जो खामोशियों में कैद था कभी

हवा कुछ ऐसी बाग-ए-बहारा से गुजरी
गुल ओ'गुलजार नशीला नशीला हो गया

उनका आना था महफिल में के सन्नाटा पसर गया
गजलकार गजल का मतला ही भूल गया

गुफ्तगू सितारों में भी चाँद को लेकर होने लगी
आसमां के चाँद से बढ़कर ये जमीं पे कौन आ गया

एक सितारा टूट कर क्या गिरा
हजारों मन्नते आसमां को निकल पड़ी।

(यूं ही बैठे बैठे )
डा.नीलम.अजमेर


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नमन
भावों के मोती
21/04/19
विषय स्वतंत्र लेखन

भूली बिसरी बातें 

जब पेड़ों पर कोयल काली 
कुहुक कुहुक कर गाती थी
डाली-डाली डोल पपीहा 
पी कहां की राग सुनाता था
घनघोर घटा घिर आती थी
और मोर नाचने आते थे 
जब गीता श्यामा की शादी में
पूरा गांव नाचता गाता था 
कहीं नन्हे के जन्म पर 
ढोल बधाई बजती थी 
खुशियां सांझे की होती थी
गम में हर आंख भी रोती थी
कहां गया वो सादा जीवन 
कहां गये वो सरल स्वभाव 
सब शहरों की और भागते 
नीद औ चैन गंवाते हैं 
या वापस आते वक्त साथ
थोडा शहर गांव ले आते हैं
सब भूली बिसरी बातें हैं 
और यादों के उलझे धागे हैं।

स्वरचित

कुसुम कोठारी ।

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 सामर्थ्यवान संपूज्य जगत मे
पूज्य कहा निर्बल है
वह कहलाता उतना महान 

जिसमे जितना बल है
निर्बल की करूण वेदना सुन 
किसका अब खून खौलता है
हर तरफ दुशासन दुर्योधन 
नारी का जिस्म तौलता है
अब कहाँ बचा है धर्म और 
इमान कहाँ अब जिंदा है
पावनतम् भारत भूमि पर जब
जिस्म बेचना धंधा है
कोई भूखा तड़प रहा है 
घर मे दो दो रोटी को
तरस रहा है कोई बच्चा
तन पर एक लंगोटी को
कागज और कलम मे 
दिखता हो भारत कुछ और भले
असली भारत आज अभी भी 
दबा हुआ है भूख तले 
कोरे कागज मे विकास के 
कालम बेशक पूरे है
लेकिन बस ये कालम भर है
आगे सभी अधूरे है
मात्र कल्पना नही सत्य यह 
भारत की असली सूरत है
महलों से यह नही दिखेगी
यह जमीन की वह मूरत है
चीख रही है द्रुपद सुता और भूख खा रही जान 
उठा लेखनी कैसे लिख दूँ भारत देश महान 
अखिलेन्द्र राज

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 भावों के मोती समूह 
दिन -रविवार 
दिनांक -21/04/2019

विषय -स्वतंत्र लेखन 
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वतन की सेवा में सदा जीवन कुर्बान है,
भारत माता सदा ही देश एक महान है।

आओ इसके सपनों को संजोये सदा हम,
एकता पर अपनी हमें रहता अभिमान है।

बनकर रहते हम एक ही माला के मोती,
यही तो दुनियां में अब अपनी पहचान है।

तोड़ न पायेगा कोई इसकी एकता को,
रक्षा भारत- भू की करना अपनी शान है।

अनेकता में एकता की झलक हम दिखाते,
यहां हर भारत वासी को मिलता सम्मान है।

मिलकर साहस हम दिखाते देश सेवा में,
वीरों का होता यहां नित नित गुणगान है।
(स्वरचित /मौलिक रचना )
. ...भुवन बिष्ट
रानीखेत(उत्तराखण्ड)

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आप सभी को हार्दिक नमस्कार 
आज मुक्त दिवस पर मेरी प्रस्तुति 

तन मन आकुल होए देखो
इस भीषण गर्मी में 

तपता सूरज उठा भोर से
करता बारिश अंगारों का
हरर हरर हवा हरहराती
है बदला रूप बहारों का

ताल तलैया सूख रहे सब
इस भीषण गर्मी में 

तन में काँटों से हैं चुभते
बहे स्वेद की नमकीन धार
पंखा कूलर एसी चलते
फिर भी मचा है
हाहाकार 

निर्धनता महज वस्त्र झेले
इस भीषण गर्मी में 

चींव चींव करती गौरैया 
झाँक रही है अब छप्पर से
दाना कैसे कहाँ मिले अब
ताक रही है आज उपर से

सोचती कैसे बाहर निकले
इस भीषण गर्मी में 

मुंह ढाप सब बाहर जाते
लगे चले ज्यों समरांगण को 
हाय हाय उफ कहते रहते
सहना मुश्किल इस तपन को
कैसे मिलेगी राहत बोलो 
इस भीषण गर्मी में

दाना पानी रखना आंगन 
पंछी अपनी भूख मिटाये 
ध्यान सदा रखना ये साथी
प्यासा कोई रह ना जाए 
पानी देकर जान बचाओ
इस भीषण गर्मी में 

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
21-4-2019


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नमन भावों के मोती
स्वतंत्र लेखन
21.4.2019

शहर

क्यों तुम हादसों के शहर हो गए हो 
दम घुटता नहीं तुम्हारा इस हवा में 
हदें पार हो चुकी हैं यहां पर 
रिश्ते यहाँ सर्द होने लगे हैं 
खून भी बर्फ होने लगा है 
जिक्र की बात है ,फिकर की बात है 
कुछ हादसे सरेआम होने लगे हैं 
क्यों तुम हादसों के शहर हो गए हो 

शोर भी घुटने टेकने लगा है
शहर भी हवाओं में गुम होने लगा है 
कुछ चिराग आग लगाने लगे है
लहु सस्ता जिंदगी बेनूर हो गई 
लोग सपनों पर अपने कफन चढ़ाने लगे हैं 
ज़िक्र की बात है , फिक्र की बात है
कुछ हादसे ऐसे सरेआम होने लगे हैं 
क्यों तुम हादसों के शहर हो गए हो

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचितय


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 वार रविवार 
विधा स्वतंत्र 
21/4/2019


विषय ऑफिस ऑफिस 

खुदा बचाए जाना न पडे कभी किसी ऑफिस 
चक्कर लगवाए कितने सारे ऑफिस ऑफिस 

नाम वाम से काम न चलता, औहदे सब बेकार 
पहचान गर हो तो काम कर दे ऑफिस ऑफिस 

बाबू बडा हो या छोटा इसमे क्या रखा है प्यारे 
बिना व्यवहार फाईल कैसे सरके ऑफिस ऑफिस 

मीठी मनुहार निवेदन गरज वरज सब कर हारी
कितने दिनो तक बुढिया घूमे ऑफिस ऑफिस

स्वाभिमान को अपने तुम किसी खूंटी पे टांको 
पग पग उसके टुकडे होते रहते ऑफिस ऑफिस 

साहब आते चेले मुसकाते अभिवादन कितने सारे 
टेबल दर टेबल फाईल सरकती ऑफिस ऑफिस 

कुर्सी पर बैठे घूर कर, देखे सिर पे सलवटे लाए 
शातिर हो वो सब काम निकाले ऑफिस ऑफिस 

छोटे ऑफिस छोटे नखरे, बडे ऑफिस बडे नखरे 
सजा मिले सा अहसास कराए ऑफिस ऑफिस 

फिर भी सच कहता हूं दिल से दिल पे लेना यारों
घर बैठे काम न होते, जाना पड़ता ऑफिस ऑफिस 

कमलेश जोशी 
कांकरोली राजसमंद



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*जिंदगानी*
न किसी भी शाला से न महाविद्यालय से
न विश्विद्यालय से 
सबक सीखे है मैंने सिर्फ जमाने से

कुछ अपनो ने सिखाया परायेपन का 
हिसाब 
टूट चले मेरे कुछ पूरे होते ख्वाब

लकीर मेरी खुद जानने वाले ही 
छोटी करने में लगे है।
महसूस करवाते है मुझे ये की 
मेरे ही सबसे सगे है

आज खोल रहा हूँ परत दर परत मेरे हिसाब की
कुछ झूठी नमस्ते और कहीं से मिले मौकापरस्त 
आदाब की

जबान खुलते ही सामने आ जाता है 
विपरीत विचार और गलत सोच का चोर
दुनिया मान लेती है मुझे लाचार और कमजोर

मंद मंद मुस्काता जब कोई आता है 
स्वयं का काम लाते हुए मुझे ही समझाता है
न चाहते हुए भी न जानने का आवरण मुझे
अपने आपको ओढ़ाना पड़ जाता है

कभी सोचता हूँ करदु इन मोकापरस्त
अपनो का भी पर्दाफाश पर 
फिर मेरी संकारो की निधि मुझे समझाती है
ये जीवन ऐसे ही मौकापरस्त अपनो की कहानी है

जिन्हें सिर्फ अपनी कहानी ही तुम्हे रोज तुम्हारी 
दासतान कहते कहते सुनानी है। 
कामेश हर रोज अपनी लकीर स्वयं ही बढ़ानी है
लिखनी अपनी अलग अलहदा कहानी है
तुम्हारी भी जुदा सबसे अलग जिंदगानी है। 
कोई साथ ना दे तो भी चलना मुझे आता है 
हर कांटे से वाकिफ हूँ ,
निकालना मुझे आता है। 
कामेश की कलम से 
( स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित)

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