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ब्लॉग संख्या :-353वार-मंगलवार
खून से रंगे हैं हर हाथ यहां
हो सके तो तुम पावन करा दो।।
रफ़्ता रफ़्ता दम तोङती मुहब्बत यहां
हो सके तो नफ़रत को जला दो।।
बदले की आग से हर दिल बना है शोला
हो सके तो प्यार की गंगा बहा दो।।
ज़ाम तोङे हैं कितने पीकर लहू के
हो सके तो प्यार का अमृत पिला दो।।
लुटे हुए हैं न जाने कितने हुस्न यहां
हो सके तो इन्हें मंदिर में सजा दो।।
सजदा करती हूँ गुनहगार"मैं" तेरी मज़ार में
हो सके तो चरागों को बुझादो।।
🌹🌹स्वरचित🌹🌹
सीमा आचार्य(म.प्र.)
रात रोता रहा मै बहुत देर तक।
यह लहू सुर्ख है जर्द होता नहीं।
दाग धोता रहा मै बहुत देर तक।
इन्तजार मैंने जाने किसका किया।
वक्त खोता रहा मै बहुत देर तक।
पोर - पोर दुख रहा चूर थकन में।
बोझ ढोता रहा मै बहुत देर तक।
काटने की मुझे न कभी फुर्सत रही।
फस्ल बोता रहा मै बहुत देर तक।
विपिन सोहल
मुक्तक
विषय-मैं
मैं और मेरे अहसास अक्सर ये बातें करते हैं
रात के घने साए में जो टीस बनकर उभरे हैं
वो दे जाते हैं खामोशियों को लब्ज नित नये
जो गज़ल बन कर अक्सर एहसासों में बहते हैं
2)
रंजिशें ही सही कुछ तो निभाया तुमने मुझसे
मैं खुद को भूलकर नया आकाश सजा बैठी
दूर गगन में अब गिनते हैं तारे बैठे हम बेचारे
लगजायें पंख वादों को जो किये तुमने मुझसे
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
छंदमुक्त रचना
विषय:-"मैं"
मैं
एक यात्री
सुलगता सवाल हूँ
खुद से खुद की तलाश हूँ
मैं..
"मैं" को ढोता रहा
और बस...
यूँ ही तन्हा होता रहा
मैं
अभिनय करता रहा
जीवन के रंगमंच पर
खुद का किरदार खोता रहा
मैं
वक़्त के साथ बदलता रहा
आखिर...
वो भी तो मुझे छलता रहा
मैं
बन ईंधन
जलता रहा
और घर चलता रहा
मैं
निखरता रहा
वक़्त...
बेवक़्त जो परखता रहा
स्वरचित
ऋतुराज दवे
"स्वयं/मैं"
जो बात गीत राग के मल्हार में है
वो बात इश्क प्यार के रसधार में नहीं।
जो बात फाग के पलाश में है
वो बात कहते,पर चिनार में नहीं।
जो बात प्यार के इजहार में है
वो बात यार के इंकार में नहीं।
जो बात"पूर्णिमा"के किरदार में है
वो बात छुपा अमां के चाँद में नही।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
विधा .. लघु कविता
***********************
🍁
आओ सब भारत के वंसी,
नवभारत निर्माण कराये।
मेरे संग चाणक्य बनो तुम,
चन्द्रगुप्त को आज ले आये।
🍁
मै अरू खुद का भाव त्याग के,
पुनः राष्ट्र को मान दिलाये।
नंद वंश का नाश करे अरू,
चन्दगुप्त को राज्य दिलाये।
🍁
भारत के गौरव का दिन है,
स्वंय अहम को त्यागे।
नव भारत निर्माता है वो,
सत्ता उसे दिलाये।
🍁
सोचो हे आर्यो के वंशज,
पुनः पुराने गौरव को।
वक्त भले ही ना वो हो पर,
भाव वही भर कर देखो।
🍁
शेर के मन चाणक्य जगा है,
तुम भी उसे जगाओ।
सिंह के दंतो को जो गिन ले,
नमो पुनः ले आओ।
🍁
स्वरचित एंव मौलिक
शेर सिंह सर्राफ
ब्रह्मा विष्णु मैं महेश हूँ
मैं हूँ जग का कर्ता धर्ता
मैं दशासन हूँ लंकापति
कभी नहीं जग में डरता
मैं ज्यादा जग नहीं ठहरता
तुच्छ जीव हैं नर जगति का
जीवन होता आना जाना
श्रेष्ठ सनातन मार्ग भक्ति का
मैं क्या हूँ ,क्यों जग आया
जिसने इसको पहिचाना है
प्रगति पथ वह आगे बढ़ता
जिसने स्वयं अहम जाना है
पवनसुत ने मैं को जाना
सागर में छलांग लगादी
पलक झपकते स्वर्ण लंका
अनल ज्वाल भेंट चढ़ा दी
मैं को जाना चंद्रगुप्त ने
चक्रवर्ती जग कहलाया
मैं को जाना राष्ट्र पिता ने
स्वदेश आजाद कराया
अन्तरशक्ति करो जाग्रत
मैं तो बड़ी महा शक्ति है
सदा शहीद शहादत देते
यह क्या कम देश भक्ति है
मैं जीवन अभिमान नहीं है
मैं विनम्रता और सादगी
धर्म अर्थ काम मोक्ष बल से
नर बनता है श्रेष्ठ आदमी।।
स्व0 रचित मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम्
कोटा,राजस्थान।
यूँ मेरा विलय तुझ में
ज्यूँ हो सरिता सागर में
है घुला हर अहसास तेरा
मेरे अहसासों में
महकता हर पल
तेरे होने की
ख्वाहिश से
ज्यूँ बन्द इत्र की
शीशी
दो दिलों का इक बन्धन
न जिसमे कोई अनुबन्धन
दरमियां इश्क
की तपिश
पिघल जाऊं
मुनासिब है मै बन
वाष्प आसमां में
पहुँचजाऊं
न जाने कब बन मैं फिर घटा बरस जाऊं
सुन-ए-मन मीत
निराली अपनी
प्रीत
तुम सुनाना अपनी
बंसी
मैं बन सुर उसमें सिमट जाऊं
डूब तेरे प्रेम में अनहद नाद
मैं गाऊं ।।।
अंजना सक्सेना
इंदौर(म.प्र.)
खुद की खुद से जीत बड़ी जीत है
खुद की खुद से प्रीत बड़ी प्रीत है ।।
खुद में ही कोई समाया हुआ है
ऐसा सबको हुआ कभी प्रतीत है ।।
पर उसकी आवाज पर पर्दा डाला
माया में मन रहा सदा मतवाला ।।
इन्द्रियों के वशीभूत मन ने उससे
दूरी बनायी हुआ गड़बड़झाला ।।
मैं खुद ईश्वर का अभिन्न अंग हूँ
मैं हरदम रहता ईश्वर के संग हूँ ।।
पर क्या करूँ तंग हूँ ''शिवम"
मैं खुद से ही लड़ती हुई जंग हूँ ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/04/2019
विषय - मैं / स्वयम
मैं ईश्वर हूँ मैं परमेश्वर
मैं नियंता मैं अभियंता
मैं संहारक मैं विध्वंसक
उगता सूरज हूँ
ढलती साँझ हूँ
पर्वत की ऊंचाई और
सागर की गहराई हूँ
बिजली की चमक और
बादलों की गड़गड़ाहट हूँ
बरसती बौछार हूँ
झरने की फुहार हूँ
फूलों की सुगंध हूँ
माटी की सौंधी गन्ध हूँ
सीप का मोती हूँ
नयनों की ज्योति हूँ
जीवन की तरुणाई हूँ
अम्बुआ की अमराई हूँ
बंसी की तान हूँ
बालक की मुस्कान हूँ
खुशियों की शहनाई हूँ
शायर की एक रुबाई हूँ
मैं जीवन की हरियाली हूँ
सुख दुख को देने वाली हूँ
सूरज की अगन और
सहरा की तपन हूँ
उड़ता बादल और
लहराता आँचल हूँ
जग का रखवारा
सर्वशक्ति मान हूँ
सकल जहान हूँ
मै स्वयंभू
मैं ही कहाता भगवान हूँ
सरिता गर्ग
स्व रचित
मैं/स्वयं
🌿🌿🌿
मैं क्या हु,
मैं हूँ कौन।
ये जान सका ना,
अभी तक कोई।
मैं की तलाश में,
जिंदगी निकल गई।
पर ना जाना मैंने,
कि मैं हूँ कौन।
क्यूँ जन्म लिया,
क्या है काम करना।
ढोते रहे बोझ,
पड़े थे जो आत्मा पर।
जिंदगी की शाम हो गई,
उम्र तमाम हो गई।
सारे रिश्ते पीछे छूटे,
अकेला हीं सोचते रहे,
कि आख़िर मैं हूँ कौन।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
"मैं "तुझमें तू मुझमें में भगवन,
अब तक राज समझ नहीं पाया।
क्यों आया हूँ इस जग में प्रभुजी,
यह रहस्य "मैं"जान नहीं पाया।
आवागमन रुकता नहीं मेरा,
लगातार आता जाता रहता हूँ।
आज इस घर में तो कल कहीं,
दूजे आंगन द्वारे में बसता हूँ।
"मै"सबकुछ स्वयं मान बैठा हूँ।
अपनी ठसक में ही रहता हूँ।
क्या कुछ पहचान यहाँ है मेरी,
इसी उहापोह में ही रहता हूँ।
लक्ष्य कुछ निर्धारित नहीं मेरा,
इसी असमंजस में पडा हुआहूँ।
यहां सब जन मेरे नहीं मानता,
"मै"स्वयं तमस में खडा हुआ हूँ।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
******
जब जब हुई धर्म की हानि
पाप और अत्याचार बढ़े,
धरा पर"विष्णु"ने ले अवतार,
किया था पापियों का संहार।
त्रेता मे "राम",द्वापर में कृष्ण
"नरसिंह",बुद्धा ने ले अवतार
धरा को मुक्त करा पापियों
से ,किया था दुष्टों का संहार ।
प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचार
फल फूल रहा है भ्रष्टाचार
रिश्ते हो रहे अब तार तार
मरना मारना हो गया व्यापार ।
कलयुग है कलयुग ये,अब
कौन लेगा नया अवतार
"कल्कि"का कब तक इंतजार!
भीतर के राक्षस को मार
अन्याय के विरुद्ध स्वयं लड़ना होगा
स्वयं ही कल्कि बन अवतरित होना होगा
स्वयं सुधरेंगे ,जग सुधरेगा
इस नीति पर चलना होगा ।
एक अवतार का ना करो इंतजार
एक सौ पैंतीस करोड़ अवतरित हो जाओ ।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
मैं और मेरा ने,
हम सबको घेरा है।
पर मत भूल मनु तू,
तेरे कर्मों पर उसका पहरा है।
कर्म ही तेरे पतवार बनेंगे,
पार करने को वैतरणी।
गर कर ली वश में तूने,
अंतर्मन की चंचल हिरणी।
पा जाएगा सम्मान जग में,
होगी जय जयकार तेरी।
छोड़ दामन मै और मेरा का
व्यवहार संवारे किस्मत तेरी
"मैं"और"मेरा" है,
अहंकार की निशानी।
लिखती सदा ये,
डुबती नैया की कहानी।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
मैं भुला नहीं सका
बीती हुई यादों को
टूटे हुए सपनों को,
मैं मना नहीं सका
सोचे हुए ख्वाबों को
रूठे हुए अपनों को
और आ गई,
अंतिम यात्रा।
बड़ी जल्दी-जल्दी
मैंने जिंदगी को जी लिया,
बड़ी ख़ामोशी के साथ
हर दर्द को पी लिया,
रुकना चाहता था
अपने पुराने आसरे में,
कहना चाहता था
जीवन की हर दास्ताँ
अपनों के मुशायरे में,
सोचता था कुछ और ठहरूँ
कहाँ, कब, किसके संग?
ये तय कर न सका
और आ गई,
अंतिम यात्रा।
मेरे पत्र, मेरी रचनाएं,मेरी तस्वीरें
रह गई संदूकों में कहीं,
जीवन साथी के अधूरे ख्वाब
लिपट गए बातों में यहीं
और सफ़ेद बालों वाला
झुर्राता चेहरा,
कुछ कर न सका,
खाली पन्नो को भर न सका
और आ गई,
अंतिम यात्रा।
मित्र बंधु, अपने खून
खिलाये दुलारे अपने जिस्म
दिखे नहीं मुझको कहीं,
मेरी किताबें, मेरे विचार
मेरे अंधरे, मेरे उजाले, मेरे इरादे
जीवन पर मेरा अधिकार,
समेटता हूँ जल्दी-जल्दी
निपटाता हूँ जल्दी-जल्दी,
चाहता हूँ कुछ और जी लूँ,
हसरतों के लजीज रस को
सबड़ सबड़ के और पी लूँ,
पर ऐसा हो न सका,
अगला धागा पिरो न सका
और आ गई,
अंतिम यात्रा।
स्वरचित
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर
(मैसूर)
वक्त बे वक्त की मार हूँ मैं,
हादसों का शिकार हूँ मैं।
पग पग पर छला गया
गले तक उधार हूँ मैं।
सूबह से लाइन मैं खड़ा
अंत हीन कतार हूँ मैं।
मुझसे हक मेरा छीना गया
आरक्षण की मार हूँ मैं।
परिचय मेरा इतना सा बस
पहचान पत्र ओर आधार हूँ मैं।
हूँ मेधावी , शत प्रतिशत खरा
पर पुरस्कृत नहीं, तिरस्कार हू मैं।
विघटन होती मानसिकता
खुद में डूबा विचार हूँ मैं।
प्रतिभा के होते भक्षण
राजनीति का शिकार हूँ मैं।
मुझसे भविष्य देश का
पर दुर्भाग्य का विस्तार हूँ मैं।
तथाकथित लोगों के
सड़यंत्र का शिकार हूँ मैं।
गगन हूँ पर , गहरी खाई में पड़ा
उन्नति की बड़ी हार हूँ मैं।
मैं पिछडो से ,कहीं अगड़ा
पर आज गश खाई पछाड़ हूँ मैं।
मुझमे अथाह कौशल अर्जुन सा
फिर भी आज जार जार हूँ मैं।
वेदना से विचलित ,दृगआँसुओ में डूबा
भविष्य तो हूँ मगर , लाचार हूँ मैं।
मुझसे फलित होती भले ही राहनीति,
पर निश्चित राष्ट्र की हार हूँ मैं।___________✍p rai
पी राय राठी________
भीलवाड़ा, राज•
************
मैं हूँ आधुनिक नारी,
अपने फैसले स्वयं लेती हूँ,
किसी के भरोसे नहीं बैठती हूँ,
मंजिल स्वयं तय करती हूँ |
मैं हौंसले बुलंद रखती हूँ,
एवरेस्ट पर भी मैं पहुँची हूँ,
चाँद को छू के मैं आई हूँ,
दुश्मन को हरा मैं आई हूँ |
मैं माँ, बहु और पुत्री हूँ,
डॉक्टर, लेखिका, कवयित्री हूँ,
खेल जगत में मैं आगे हूँ,
रिश्तों के मजबूत धागे हूँ |
स्वयं पहचान बनाती हूँ,
मैं बड़ी स्वाभिमानी हूँ,
घर,बाहर मैं ही संभालती,
कभी नहीं घबराती हूँ |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
कविता
'मैं ' का भाव व्यक्ति को सबसे दूर हटाता जाता है ,
एक अकेला व्यक्ति स्वयं को सर्वशक्तिमय पाता है।
बुद्धि हृदय पर हावी होकर उससे छल करवाती है ,
प्रेम,अहिंसा ,त्याग,सत्य की सृदृढ़ नींव हिल जाती है।
मिथ्या,छल और छद्म उसे सद्भाव दिखाई देते हैं ,
मानवता के मधुर - मन्त्र , कटु -वचन सुनाई देते हैं।
अपनी कूटनीति से वह हर मार्ग बनाता चलता है ,
समझ नहीं पाता वह ,यह पथ मात्र विफलता देता है।
है इतिहास प्रमाण कि 'मैं' से सबने मुँह की खायी है ,
रावण , कंस और दुर्योधन सबने साख गंवायी है।
मानवता की मधुर लहर तो 'हम' के बल से चलती है ,
इसी प्रेममय-पथ पर चलकर सबको सद्गति मिलती है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
बिषय:- मैं/स्वयंविधा:-कविता
मैं सोना नहीं,
सोने सा बिकता नहीं
इसी लिये अनमोल हूँ।
मुझे शेर न समझना यारो
मैं एक इंसान हूँ।
समय आने पर
शेरों की भाषा बोलता हूँ,
शेर की तरह दहाड़ता हूँ।
औरों के शब्द नहीं चुराता
स्वयं रचता हूँ
मैं डॉक्टर हूँ
लिटरल नहीं,मेडिकल हूँ
तभी तो समय की नब्ज
पहचानता हूँ।
आप भी पहचानिये
मैं कौन हूँ?
स्वर्ण सी शक्ल वाला
और
सिंह की तरह जीने बोले बाला
बे-शक
मैं सोने का शेर हूँ
मैं स्वर्ण सिंह हूँ
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी हूँ।
(मेरे कविता संग्रह से)
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
1
मै
बूंद
पानी की
जमी कभी
बहती कभी
मेरी छोटी काया
जीवन की परिभाषा
2
मै
कौन
पहेली
अबूझ सी
सवाल कई
सुलझते जाना
आदि से अंत तक
3
मै कौन हूं
कहां से आया
क्या जीवन लक्ष्य
बस यही अटल प्रश्न
जीवन घूमता इर्द गिर्द
जवाब की तलाश मै
कुछ पाकर संतुष्ट कभी
कभी पाकर भी असंतोष
जीवन चलता नित नित
कब मिल पाए परितोष ..
कलम संबलन देती मुझको
लिख पाता भावों के मोती
और कभी आकार देता हूँ
हलचल जो हृदय में होती ..
मै होकर भी क्या हूं
केवल कठपुतली कर्ता की
वो चलाता नचाता हरदम
विनती बस सदा विघ्नहर्ता की ...
"मैं " मुझमे मरता अक्सर
जब भी वो हावी मुझ पर
मै नतमस्तक रहता हूं
सम्मुख सांवरियां गिरधर ...
मै की लंबी यात्रा
जन्म से मृत्युपर्यंत तक
कितने मिलते बिछडते
इस जीवन की यात्रा तक ...
क्या अभिमान काया का
मांसमलमूत्ररुधिर का बोझा
जल राख सब कल तक ...
बस मानवहित को जीवन
मानवहित सब समर्पण
मै बूंद सागर हूं नश्वर
सृष्टि को ही सब समर्पण ....
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद
विषय - मैं / स्वयं
➖➖➖➖➖➖
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ज़ख्मी होकर आज पड़ा
अपनों के बीच अपने लिए
लड़ रहा ज़िंदा रहने के लिए
भूल गए इंसानियत का धर्म
बने आज एक दूसरे के दुश्मन
हाँ मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ना कोई माना ना कोई मानेगा
एकता थी वजूद मेरा
बटा हुआ हूँ आज टुकड़ों में
जातियों के नाम पर
नफ़रत के पैग़ाम पर
अंतिम साँंस गिन रहा
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
मानता है जो मुझे
संवारता जो मुझे
प्रेम बांटता फिरे
उपेक्षित वो इस जहाँ में
अभिशप्त हो जी रहा
मैं स्वयं के हाल पर
मानव की मानसिकता पर
द्रवित हो उठा आज
अश्रू बहाकर देखता
धरा से मिटते खुद को आज
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित
विषय - मैं /स्वयं
विधा - पिरामिड (लिखने की कोशिश की है)
1) मैं
अहं
अस्तित्व
विघटन
मानसिकता
भूले मानवता
समझे शक्तिशाली
2) जो
स्वयं
प्रतिभा
परिचय
न मोहताज
मिलता सम्मान
जीवन खुशहाल
🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀
तनुजा दत्ता (स्वरचित)
छंदमुक्त पंक्तिया
चंद पंक्तियां भी तो
ना लिख पाई में !
जो सोचा आज कुछ
खुद पर लिख दूं ।
देखा ना कभी खुद को ,
खुद की नजर से ।
जाने किस किस को
आइना बनाया मैंने ,
कभी कदमों के निशां
देखे ना मैंने.....
रोज दूजों के निशां पर,
पैर जमाए मैंने ।।
आज निकली हूं कि शायद
कहीं मिलूं "मैं" से में ...
कहीं मिल जाऊं किसी ,
भीड़ भरे बाजार के
सुनसान कोने में...
या इन ऊंचे दरख़्तों में
किसी एक की छांव तले
शाम ढलने को है ...
जो कहीं मिल जाऊं तुम्हें
जिक्र मेरा भी करना ..
शायद रहती हूं ,
आपके भी ख्यालों में मैं...
नीलम तोलानी
स्वरचित
मैं
मैं टूटा तारा आसमान का
मेरा कहीं कोई ठौर नहीं
मैं मंजर विहीन एक ठूँठ पेड़
मुझपे आते कभी बौर नहीं
ऊसर बंजर कंटक थल में
मैं शून्य, कोई सिरमौर नहीं
वो आये,आकर चले गए
किस नेह बंध से छले गए
मैं,जर्जर, मरघट सा मरा रहा
दर-दर चौखट सा पड़ा रहा
जाने कितने पद-दलन हुये
इसका मुझे कोई गौर नहीं
घट, घट, पनघट पे भरा नहीं
वीरान हिय-पट हरा नहीं
अखियाँ बदरा सी सरस रहे
उर अतृप्त, पर तरस रहे
हो विपन्न या सम्पन्न,मन
जीवन गति कोई और नहीं
भय, कातर भरे भाव दीन
मैं एक पखेरू कोई पंखहीन
है नील नभ में दुर्लभ उड़ान
मुझसे ही पृथक मेरी पहचान
मैं क्षार चिता का भस्म-भूत
मेरा अब कोई दौर नहीं
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
शीर्षक मैं, स्वयं
सफर और साधन
मैं निकली सफर पर अकेली
मंजिल क्या होनी ये पता लेकर
पर चल पडी राह बदल
न जाने किधर
भूल गयी कहाँ से आई
और कहाँ है जाना
किस भूल भुलैया में भटकी
कभी चली फिर अटकी
साथ में थी फलों की गठरी
कुछ मीठे कुछ खट्टे,
कुछ नमकीन कसैले
खाना होगा एक एक फल
मीठे खाये खुश हो हो कर
कुछ रोकर
कुछ निगले दवा समान
कुछ बांटने चाहे
पर किसी को ना दे पाये
अपने हिस्से के थे सब
किसको हिस्से देते
सभी के पास थे साथ थे
स्वयं के प्रारब्ध।
अब कुछ अच्छे मीठे
फलों के पेड लगा दूं
तो आगे झोली में
मधुर मधुर ही ले के जाऊं
अनित्य में से शाश्वत समेटूं
फिर एक यात्रा पर चल दूं
पाना है परम गति
तो निर्मल, निश्छल,
विमल, वीतरागी बन
मोक्ष मार्ग की राह थाम लूं
मैं आत्मा हूं
काम, क्रोध मोह-माया,
राग, द्वेष में लिपटी
भव बंधन में जकडी
तोड के सब जंजीरे
स्वयं स्वरूप पाना है
बार बार की संसार
परिक्रमा से
मुक्त हो जाना है।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी।
फल=पूर्व कृत कर्म।
"मैं/स्वयं"
मैं की मय में
डूब सब स्वयं गये
अहम अहम रहा अंदर
मोहब्बतों के परिंदे उड़ गये
मैं के सुरूर में नजर
कुछ यूँ धुंधली हो गई
दुनियाँ थी सामने
पर स्वयं के आगे ना दिखी
बहुत मिले जो अपने थे
साथ चले जो थामें थे
पर शक हर उंगली पर हुआ
यह मैं ही था जो वजह
स्वयं अकेलेपन का हुआ
-----नीता कुमार
आज का विषय - मैं/स्वयं
विधा - पिरामिड
मैं
कौन
रहस्य
नहीं जाना
कहाँ से आया
कहाँ जाना होगा
हमेशा मौन पाया
मैं
अहं
घमंड
अहंकार
जड़ विनाश
पात्र परिहास
गवाह इतिहास
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा
शब्द..मै, स्वयं
गजल.. बे बहर
काफिया..ती (ई.. की बंदिश )
रदीफ़.. रही हूँ मैं
ख़ुशी सबको देने को जलती रही हूँ मै,
तभी दुखो के सागर में डूबती रही हूँ मैं,
जमाने ने कहाँ सोचा मेरे लिए,
इनके बारे सोच कर मरती रही हूँ मैं ll
नहीं चाहिए थी खुशियाँ ज़माने की,
हर रोज बिखर के सिमटती रही हूँ मै l
इस बेरहम दुनिया को बनाकर अपना,
खुद से खुद को दूर करती रही हूँ मै ll
अमृत ख़ुशी का उलट दिया है उन पर,
खुद जहर के घूंट भरती रही हूँ मै ll
क्यों घबराती है काँटों से "उत्साही "
यही सोच सोच के महकती रही मैं ll
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित
देहरादून
मंगलवार/9-4-19
विधा--दोहे
1.
कर्म बिना मिलता नहीं, मन वांछित परिणाम।
कर्म स्वयं ही भाग्य है, कर्म करे हो नाम।।
2.
मैं 'हम' को ही खा गया, जब से हुआ अमीर।
धन के आगे तुच्छ सब, अपने लगें फकीर ।।
3.
मैं का बोझ शरीर पर,इतना भी मत डाल।
हम तिरस्कार से सना,खुद हो जाय निढाल।।
4.
तू तू मैं मैं में फँसे, हो जीवन बर्बाद।
अगर सहज जीवन चहें,रखें समन्वय याद ।।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451551
मैं" और "हम" में अंतर विशाल।
"मैं" से होता सम्पूर्ण जीवन विषाक्त।
इससे 'अहं' का उपजता है बीज।
जो बन जाता विष-वृक्ष विशाल।।
************************
ईर्ष्या व वैमनस्य का फैलता जाल।
मानवता का होता कलुषित हाल।
प्रेम,दया,भाईचारा बन जाता काल।
"विश्व-बंधुत्व" भाव का होता अकाल।
***************************
इसी निमित्त "कृष्ण" ने दिया संदेश।
"मैं" छोड़ "हम" को करो स्वीकार।
इससे ही होगा जग का कल्याण।
आओ सब मिल स्वीकारें "गीता-ज्ञान।।
(स्वरचित) ***"दीप"***
विधा-मुक्त छंद/कविता
👍👍👍👍👍👍👍
(1)मैं
वह
खुली
किताब हूँ,
जिसे तुमने
सुरक्षित
सहेज रखा है
बन्द
आलमीरा में👌
(2) मैं
एक"रंगीन"
कैलेंडर हूँ,
जिसमें-
नहीं हैं तारीखें
एक भी
तवारीखों वाला👌👌
(3)मैं
कागज का
कोरा पन्ना हूँ
कदाचित
नहीं है तुम्हें
इजाजत
जो चाहो
लिखो इसमें👌👌👌
(4) मैं
अखबार के
कोन्टे में छपा
एक छोटा सा
बड़े काम का
समाचार हूँ,
जिसमें,तुम्हारे
मिलने की खबर है👌👌👌👌
👍👍👍👍👍👍👍
श्रीराम साहू"अकेला"
बसना,36गढ़
बादलों की तरह बढ़ते चल,
सूरज की तरह चढ़ते चल।।1।।
गम के फसाने पढ़ते चल,
मंजिल पे नजर रखते चल।।2।।
जीवन मेंपैगाम बहुत है,
जिदंगी से निबाह करते चल।।3।।
सुनते रहोलोग जो कहते है,
किस्मत अपना खुद लिखतेचल।।4।।
बैठें बैठे सोच रहा हूँ,
स्वंय में स्वंय को ढूंढते चल।।
इस संसार मेंप्यार ही फले,
रब से देव दुआ मांगते चल।।6।।
दिल से देव उसे पुकारतेचल,
हर सांस मेउसे हंसाते चल।।7।।
देवेन्द्र नारायण दासबसना छ,ग,।।
दीया
मैं दीया हूं
चिराग हूं
आत्मा की
अवाज हूं
अंधेरे जीवन को
रोशन जो कर दे
वो प्रकाश हूं
दया ओर प्रेम
के बीच
पल-पल पलता हूं
सत्य के आंगन
में मैं
दिन रात जलता हूं
धर्म हे तेल मेरा
ओर
सत्य है बाती
छल कपट ओर
पाप की
भाषा नहीं आती
कभी जलता
था
मैं
निशचिंत होकर
सत्य ओर
प्रेम की मीठी
हवाओं मे खोकर
लेकिन आज
समय का यह
कैसा पहर है
हर तरफ
हवाओं में
नफरत का
जहर है
घृणा ओर
नफरत
भरी इन
हवाओं में
दम घुटने
लगा है मेरा
जहरीली
फिजाओं में
बुझ गया तो
फिर ना मिलेगा
जलाने वाला साथी
यूं भी खत्म
हो रहा है
तेल मेरा ओर
जल रही है बाती
किस से कहूं
मैं दर्द अपना
मैं तो बे-आवाज हूं
दूसरों को राह
दिखाने वाला
आज अपनी ही
जिन्दगी का
मोहताज हूं
मैं दीया हूं
चिराग हूं
आत्मा की
अवाज हूं
जय हिन्द
स्वरचित : राम किशोर, पंजाब
मैं दीया हूं
चिराग हूं
आत्मा की
अवाज हूं
अंधेरे जीवन को
रोशन जो कर दे
वो प्रकाश हूं
दया ओर प्रेम
के बीच
पल-पल पलता हूं
सत्य के आंगन
में मैं
दिन रात जलता हूं
धर्म हे तेल मेरा
ओर
सत्य है बाती
छल कपट ओर
पाप की
भाषा नहीं आती
कभी जलता
था
मैं
निशचिंत होकर
सत्य ओर
प्रेम की मीठी
हवाओं मे खोकर
लेकिन आज
समय का यह
कैसा पहर है
हर तरफ
हवाओं में
नफरत का
जहर है
घृणा ओर
नफरत
भरी इन
हवाओं में
दम घुटने
लगा है मेरा
जहरीली
फिजाओं में
बुझ गया तो
फिर ना मिलेगा
जलाने वाला साथी
यूं भी खत्म
हो रहा है
तेल मेरा ओर
जल रही है बाती
किस से कहूं
मैं दर्द अपना
मैं तो बे-आवाज हूं
दूसरों को राह
दिखाने वाला
आज अपनी ही
जिन्दगी का
मोहताज हूं
मैं दीया हूं
चिराग हूं
आत्मा की
अवाज हूं
जय हिन्द
स्वरचित : राम किशोर, पंजाब
जब गति समय की न रूकी ,
फिर तू ही बता क्यों थम गया |
इस वक्त की रफ्तार के संग ,
शायद चलते चलते थक गया |
आज अजनबी खुद से ही हुआ ,
अब रिश्तों का भ्रम भी टूट गया |
व्यर्थ ही तो यूँ संसार के बाजार में ,
बेमोल दिल का नगीना बिक गया |
चाहतों के बवंड़र में घिर कर ,
अस्तित्व स्वयं का ही मिट गया |
सदा झूला झूलना अपना पराया ,
फिर मैं में ही अटक कर रह गया |
सब कुछ पाया यहाँ और लुटाया,
असंतुष्ट मैं फिर भी तो रह गया |
मैं ज्ञान के सागर में डूब कर भी ,
नन्हे शिशु सा बिलखता रह गया |
कर दें तिरोहित हम इस मैं को यहीं ,
हर एक सुख प्रेम ही में मिल गया |
रह जायेगा एक दिन सब कुछ यहीं ,
अपना ही स्वयं क्यों दुश्मन बन गया |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
फिर तू ही बता क्यों थम गया |
इस वक्त की रफ्तार के संग ,
शायद चलते चलते थक गया |
आज अजनबी खुद से ही हुआ ,
अब रिश्तों का भ्रम भी टूट गया |
व्यर्थ ही तो यूँ संसार के बाजार में ,
बेमोल दिल का नगीना बिक गया |
चाहतों के बवंड़र में घिर कर ,
अस्तित्व स्वयं का ही मिट गया |
सदा झूला झूलना अपना पराया ,
फिर मैं में ही अटक कर रह गया |
सब कुछ पाया यहाँ और लुटाया,
असंतुष्ट मैं फिर भी तो रह गया |
मैं ज्ञान के सागर में डूब कर भी ,
नन्हे शिशु सा बिलखता रह गया |
कर दें तिरोहित हम इस मैं को यहीं ,
हर एक सुख प्रेम ही में मिल गया |
रह जायेगा एक दिन सब कुछ यहीं ,
अपना ही स्वयं क्यों दुश्मन बन गया |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
गीत जिन्दगी का
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
ग्रीष्म है या शीत लिख रही हूँ मैं
चल पड़े थे साथ तेरे हम सनम
भूल दुनियाँ के सारे रंजो-गम
इक अनोखी प्रीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
बेवफ़ाई उनकी देखिये ज़रा
सूखे न हैं ज़ख्म, कर देते हरा
आँसुओं की रीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
शब्द देते चीर दिल को इसकदर
मानो टूटता हो हरिक पल कहर
फिरभी' उसको मीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
ग्रीष्म है या शीत लिख रही हूँ मैं
चल पड़े थे साथ तेरे हम सनम
भूल दुनियाँ के सारे रंजो-गम
इक अनोखी प्रीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
बेवफ़ाई उनकी देखिये ज़रा
सूखे न हैं ज़ख्म, कर देते हरा
आँसुओं की रीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
शब्द देते चीर दिल को इसकदर
मानो टूटता हो हरिक पल कहर
फिरभी' उसको मीत लिख रही हूँ मैं
जिंदगी का गीत लिख रही हूँ मैं
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
मैं मुखर हूँ ,पर वाचाल नही
मैं कौन हूँ, कोई समझता नही,
मैं मौन हूँ, पर गूंगा नही,
मैं रक्षक हूँ, भक्षक नही।
मैं उद्यमी हूँ, आलसी नही
मैं खरा हूँ खोटा नही
मैं चेतन हूँ, जड़ नही
मैं बुद्धिमान हूँ, मुर्ख नही।
मैं उदार हूँ, रूढ़िवादी नही
"मैं" मै हूँ ,कोई और नही
मुझमें इतने सारे गुण है
कोई जानता नही
मैं"मैं"को समझता कोई और नही
अपने अंदर के"मैं"को निकाल दे
तो कुछ बचता नही
मैं कौन हूँ ,कोई समझता नही
मैं "मैं"को समझता कोई और नही।
स्वरचित -आरती-श्रीवास्तव।
मैं कौन हूँ, कोई समझता नही,
मैं मौन हूँ, पर गूंगा नही,
मैं रक्षक हूँ, भक्षक नही।
मैं उद्यमी हूँ, आलसी नही
मैं खरा हूँ खोटा नही
मैं चेतन हूँ, जड़ नही
मैं बुद्धिमान हूँ, मुर्ख नही।
मैं उदार हूँ, रूढ़िवादी नही
"मैं" मै हूँ ,कोई और नही
मुझमें इतने सारे गुण है
कोई जानता नही
मैं"मैं"को समझता कोई और नही
अपने अंदर के"मैं"को निकाल दे
तो कुछ बचता नही
मैं कौन हूँ ,कोई समझता नही
मैं "मैं"को समझता कोई और नही।
स्वरचित -आरती-श्रीवास्तव।
छंदमुक्त
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मैं प्रेम.., अर्पिता... समर्पिता
मैं जड़.....चेतन.....अचेतन
मैं गीत....संगीत.....राग...
सुर....ताल...लय...छंद।।
मैं मुक्त....उन्मुक्त...सुप्त.
मैं विलय...विलीन..तरल
मैं ठोस...सख्त... प्रमाण
मैं शक्ति.... मैं विरक्ति..।।
मैं अनूभूति... .रस....स्पर्श.
मैं दृश्य..श्रव्य...गंध..जागृति
मैं तृप्ति... तृष्णा... .आशा
मैं भावुक..... . .मैं धैर्य
मैं ग्राह्य.........मैं ग्रहिता।।
मैं आकांक्षा..चहक...ललक
मैं भोर... ..किरण.....तरंग
मैं दिवा....ज्वलंत.... दहक
मैं निशा...शीतल...शांत।।
मैं चंचल....चपल....तेज
मैं निस्तेज...विश्राम..शाम
मैं सहिष्णु......मैं त्याग..
मैं शून्य.. सीमित..परिमित।
मै ज्ञान...ज्योति...विभूति
मैं अनुराग..वैराग्य...मिलन
मैं सहचरी.....अनुगामिनी
मैं तरंगिणी.....सुशोभीनी।।
मैं परा....अपरा.....शक्ति
मैं चाण्डालिनी... मैं मृणमयी
मैं स्वामिनी....मैं अभिमानी
मैं कल्याणी... मैं कात्यायिनी
तू स्रष्टा....... मैं सृष्टि.
तू आकाश.... मैं पृथ्वी
तू स्थिर........मैं गति
तू रहस्य......मैं नियति।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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मैं प्रेम.., अर्पिता... समर्पिता
मैं जड़.....चेतन.....अचेतन
मैं गीत....संगीत.....राग...
सुर....ताल...लय...छंद।।
मैं मुक्त....उन्मुक्त...सुप्त.
मैं विलय...विलीन..तरल
मैं ठोस...सख्त... प्रमाण
मैं शक्ति.... मैं विरक्ति..।।
मैं अनूभूति... .रस....स्पर्श.
मैं दृश्य..श्रव्य...गंध..जागृति
मैं तृप्ति... तृष्णा... .आशा
मैं भावुक..... . .मैं धैर्य
मैं ग्राह्य.........मैं ग्रहिता।।
मैं आकांक्षा..चहक...ललक
मैं भोर... ..किरण.....तरंग
मैं दिवा....ज्वलंत.... दहक
मैं निशा...शीतल...शांत।।
मैं चंचल....चपल....तेज
मैं निस्तेज...विश्राम..शाम
मैं सहिष्णु......मैं त्याग..
मैं शून्य.. सीमित..परिमित।
मै ज्ञान...ज्योति...विभूति
मैं अनुराग..वैराग्य...मिलन
मैं सहचरी.....अनुगामिनी
मैं तरंगिणी.....सुशोभीनी।।
मैं परा....अपरा.....शक्ति
मैं चाण्डालिनी... मैं मृणमयी
मैं स्वामिनी....मैं अभिमानी
मैं कल्याणी... मैं कात्यायिनी
तू स्रष्टा....... मैं सृष्टि.
तू आकाश.... मैं पृथ्वी
तू स्थिर........मैं गति
तू रहस्य......मैं नियति।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
कितने ही लुट गये
कितने ही घुट गये
कितने ही रुठ गये
कितने ही छूट गये
कितने ही रो गये
कितने ही खो गये
कितने ही पिट गये
कितने ही मिट गये
कितने ही झुलस गये
कितने ही उलझ गये।
"मैं "को कौन लूट सका
"मैं" किसका छूट सका
इस "मैं" ने कई मंच गिराये हैं
इस "मैं" ने सूरमा कई अ़जमाये हैं
आज तक यह "मैं"जि़न्दा है
यह बहुत हठी परिन्दा है
भगवान ने भी नहीं सराहा है इसे
वह नहीं रहा कभी प्यार इससे हुआ है जिसे।
कितने ही घुट गये
कितने ही रुठ गये
कितने ही छूट गये
कितने ही रो गये
कितने ही खो गये
कितने ही पिट गये
कितने ही मिट गये
कितने ही झुलस गये
कितने ही उलझ गये।
"मैं "को कौन लूट सका
"मैं" किसका छूट सका
इस "मैं" ने कई मंच गिराये हैं
इस "मैं" ने सूरमा कई अ़जमाये हैं
आज तक यह "मैं"जि़न्दा है
यह बहुत हठी परिन्दा है
भगवान ने भी नहीं सराहा है इसे
वह नहीं रहा कभी प्यार इससे हुआ है जिसे।
मैं मैं हूँ
-------------
मैं आदि हूँ
जरा पीछे तो देखो
मैं अन्त हूँ
जरा काल को तो देखो
मैं दिन हूँ
जरा सूरज को तो देखो
मैं रात हूँ
जरा चांद को तो देखो
मैं भाव हूँ
जरा दिल से तो देखो
मैं विभाव हूँ
जरा मस्तिष्क से तो देखो
मैं राग हूँ
जरा मधुबन को तो देखो
मैं विराग हूँ
जरा पतझड़ को तो देखो
मैं प्यार हूँ
जरा दिल की गहराईयों में उतर कर तो देखो
मैं क्रोध हूँ
जरा खुद का गुस्सा तो देखो
मैं आज हूँ
जरा खुद में तो देख़ो
मैं कल हूँ
जरा वर्तमान में तो देखो
मैं सत्य हूँ
जरा कसौटी पर कसकर तो देखो
मैं असत्य हूँ
जरा दुनिया की बेईमानी तो देखो
मैं पुण्य हूँ
जरा ईमानदारी में उतर कर तो देखो
मैं पाप हूँ
जरा अनैतिक व अनाचार तो देखो
मैं संयोग हूँ
जरा मिलन की बेला तो देखो
मैं वियोग हूँ
जरा विरह की आग तो देखो
मैं क्या हूँ
जरा अन्तर्मन में झांक कर तो देखो
मैं क्या नही हूँ
जरा मन को टटोल कर तो देखो
मैं आत्म ज्ञान हूँ
जरा हृदय को सींच कर तो देखो
मैं अज्ञान हूँ
जरा हृदय से सोच कर तो देख़ो
मैं आत्मा हूँ
मैं (आत्मा),परमात्मा का एक अंस हूँ
स्वयं को ईश्वर को समर्पित कर के तो देखो
मैं मैं हूँ----------
मनीष श्री
रायबरेली
स्वरचित
-------------
मैं आदि हूँ
जरा पीछे तो देखो
मैं अन्त हूँ
जरा काल को तो देखो
मैं दिन हूँ
जरा सूरज को तो देखो
मैं रात हूँ
जरा चांद को तो देखो
मैं भाव हूँ
जरा दिल से तो देखो
मैं विभाव हूँ
जरा मस्तिष्क से तो देखो
मैं राग हूँ
जरा मधुबन को तो देखो
मैं विराग हूँ
जरा पतझड़ को तो देखो
मैं प्यार हूँ
जरा दिल की गहराईयों में उतर कर तो देखो
मैं क्रोध हूँ
जरा खुद का गुस्सा तो देखो
मैं आज हूँ
जरा खुद में तो देख़ो
मैं कल हूँ
जरा वर्तमान में तो देखो
मैं सत्य हूँ
जरा कसौटी पर कसकर तो देखो
मैं असत्य हूँ
जरा दुनिया की बेईमानी तो देखो
मैं पुण्य हूँ
जरा ईमानदारी में उतर कर तो देखो
मैं पाप हूँ
जरा अनैतिक व अनाचार तो देखो
मैं संयोग हूँ
जरा मिलन की बेला तो देखो
मैं वियोग हूँ
जरा विरह की आग तो देखो
मैं क्या हूँ
जरा अन्तर्मन में झांक कर तो देखो
मैं क्या नही हूँ
जरा मन को टटोल कर तो देखो
मैं आत्म ज्ञान हूँ
जरा हृदय को सींच कर तो देखो
मैं अज्ञान हूँ
जरा हृदय से सोच कर तो देख़ो
मैं आत्मा हूँ
मैं (आत्मा),परमात्मा का एक अंस हूँ
स्वयं को ईश्वर को समर्पित कर के तो देखो
मैं मैं हूँ----------
मनीष श्री
रायबरेली
स्वरचित
...............................................
बाद मुद्दत के कुछ इस तरह तुम्हारा मिलना हुआ
दश्त-ओ-सहरा में जैसे गुल का खिलना हुआ है ।
जहेनसीब,जिसकी थी जुस्तज़ू वो आज मुख़ातिब हैं
शाम के आग़ोश में जैसे शम्स का पिघलना हुआ है ।
न पूछ कितना फासला तय करना है जानिबे मंज़िल
अभी इबतिदा ए सफर है,बस अभी चलना हुआ है।
ऐ!बादे-ए-सबा ज़रा आहिस्ता गुजर सहने चमन से,कहीं
कलियाँ ख़ौफ़ज़दा न हो,अभी तो उनका सँभलना हुआ है।
इल्म नहीं था रिश्ते ज़िंदगी के,काँच से भी नाज़ुक होते हैं
बग़ैर ठोकर के भी अकसर बेआवाज इनका टूटना हुआ है ।
न राहें ख़त्म होती हैं न मंज़िल नज़र आती है दूर दूर तलक
‘मैं’से ‘मेरे’तक का सफ़र तय करना कितना मुश्किल हुआ है ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र .....बेंगलूर ८/४/२०१९
दशत - जंगल, सहरा - मरुस्थल ,ज़हे-नसीब - ख़ुश क़िस्मत
ज़ुस्तज़ू -तलाश , मुख़ातिब -सामने ,आग़ोश -बाँहें ,शम्स-सूरज
ज़ानिब ए मंज़िल -मंज़िल की ओर
बाद मुद्दत के कुछ इस तरह तुम्हारा मिलना हुआ
दश्त-ओ-सहरा में जैसे गुल का खिलना हुआ है ।
जहेनसीब,जिसकी थी जुस्तज़ू वो आज मुख़ातिब हैं
शाम के आग़ोश में जैसे शम्स का पिघलना हुआ है ।
न पूछ कितना फासला तय करना है जानिबे मंज़िल
अभी इबतिदा ए सफर है,बस अभी चलना हुआ है।
ऐ!बादे-ए-सबा ज़रा आहिस्ता गुजर सहने चमन से,कहीं
कलियाँ ख़ौफ़ज़दा न हो,अभी तो उनका सँभलना हुआ है।
इल्म नहीं था रिश्ते ज़िंदगी के,काँच से भी नाज़ुक होते हैं
बग़ैर ठोकर के भी अकसर बेआवाज इनका टूटना हुआ है ।
न राहें ख़त्म होती हैं न मंज़िल नज़र आती है दूर दूर तलक
‘मैं’से ‘मेरे’तक का सफ़र तय करना कितना मुश्किल हुआ है ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र .....बेंगलूर ८/४/२०१९
दशत - जंगल, सहरा - मरुस्थल ,ज़हे-नसीब - ख़ुश क़िस्मत
ज़ुस्तज़ू -तलाश , मुख़ातिब -सामने ,आग़ोश -बाँहें ,शम्स-सूरज
ज़ानिब ए मंज़िल -मंज़िल की ओर
शीर्षक-मैं /स्वयं
मेरा कोई वजूद हैं दुनियाँ में ?
मकसद क्या शौहरत माया में ?
दीप असंख्य हो मनाओ दिवाली खेलो अबीर भरी, रंगीन होली ।
हमारा दंभ पुकारता मानव मन में
हर इंसान के अंदर रोष भरा तन में अहं ब्रह्मास्मि भगवान् बताता है
कोई कुबेर -सा धनवान बताता हैं।
सफलता में हाथ मान ऐंठता हैं।
ज्ञान मिलने पर स्वयंम्भू देखता हैं।
मैं -मैं बुरी बला सको निकलो भाग
रेशम का घर इसमें लग जाती आग ।
लाख बचोगे मगर लग जाएगा दाग मैं पर आये तो सब बिगडेगा फाग।
राजा बलि दानी मैं से गया पाताल
रावण अजेय दुनियाँ काल के गाल।
निर्बल सुग्रीव विभिषण गले माल कंस मरा कृष्ण हाथों बजा रहा गाल।
मैं , मैं , बकरी करती हैं हाथ वधिक मरती हैं
मैना जो मैं ना कहती हैं सबको प्यारी लगती हैं।
रिक्शा चालक दबे धन से करोड़ पति नहीं हैं
आत्मा को जान ले कोई चाहे जगपति नहीं हैं।
यह अहं शत्रू मानव मन में सर उठाता हैं
चोटी पर पहुँचे मानव को धरती पर गिराता हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल'
मेरा कोई वजूद हैं दुनियाँ में ?
मकसद क्या शौहरत माया में ?
दीप असंख्य हो मनाओ दिवाली खेलो अबीर भरी, रंगीन होली ।
हमारा दंभ पुकारता मानव मन में
हर इंसान के अंदर रोष भरा तन में अहं ब्रह्मास्मि भगवान् बताता है
कोई कुबेर -सा धनवान बताता हैं।
सफलता में हाथ मान ऐंठता हैं।
ज्ञान मिलने पर स्वयंम्भू देखता हैं।
मैं -मैं बुरी बला सको निकलो भाग
रेशम का घर इसमें लग जाती आग ।
लाख बचोगे मगर लग जाएगा दाग मैं पर आये तो सब बिगडेगा फाग।
राजा बलि दानी मैं से गया पाताल
रावण अजेय दुनियाँ काल के गाल।
निर्बल सुग्रीव विभिषण गले माल कंस मरा कृष्ण हाथों बजा रहा गाल।
मैं , मैं , बकरी करती हैं हाथ वधिक मरती हैं
मैना जो मैं ना कहती हैं सबको प्यारी लगती हैं।
रिक्शा चालक दबे धन से करोड़ पति नहीं हैं
आत्मा को जान ले कोई चाहे जगपति नहीं हैं।
यह अहं शत्रू मानव मन में सर उठाता हैं
चोटी पर पहुँचे मानव को धरती पर गिराता हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल'
तलाश स्व की
अंतहीन
स्वयं में मैं को खोजते
कब सरक जाती है
जिंदगी हाथ से..।
अहम और मैं
अंतर हैं सूक्ष्म
अहम में सर्वोपरि
सत्ता स्वयं की।
मैं ,से साक्षात्
उस अनंत से तादात्म्य
जिसमें समाहित
अखिल ब्रह्माण्ड
मैं,तुम और सब।
मैं और बस मैं
जनक है अहम का
जबकि
जैसा मैं वैसे सब
जनक है समत्व का।
मैं ,आखिर है
अनादि ,अनंत ,अखंड
सर्वेश,सर्वव्यापी।
मैं की पहचान है
स्वयं से पहचान
जीवन-उद्देश्य से साक्षात्
तुच्छ मनोवृत्ति का त्याग।
दरअसल
मैं को पकड़ना है
भ्रमजाल
सिर्फ मैं
अहंकार का जनक
यह मैं
वह जो कभी नहीं
बन सकता किसी का
स्वयं का भी।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
अंतहीन
स्वयं में मैं को खोजते
कब सरक जाती है
जिंदगी हाथ से..।
अहम और मैं
अंतर हैं सूक्ष्म
अहम में सर्वोपरि
सत्ता स्वयं की।
मैं ,से साक्षात्
उस अनंत से तादात्म्य
जिसमें समाहित
अखिल ब्रह्माण्ड
मैं,तुम और सब।
मैं और बस मैं
जनक है अहम का
जबकि
जैसा मैं वैसे सब
जनक है समत्व का।
मैं ,आखिर है
अनादि ,अनंत ,अखंड
सर्वेश,सर्वव्यापी।
मैं की पहचान है
स्वयं से पहचान
जीवन-उद्देश्य से साक्षात्
तुच्छ मनोवृत्ति का त्याग।
दरअसल
मैं को पकड़ना है
भ्रमजाल
सिर्फ मैं
अहंकार का जनक
यह मैं
वह जो कभी नहीं
बन सकता किसी का
स्वयं का भी।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
"मैं " शीर्षकांतर्गत वर्ण पिरामिड विधा में रचना-
(1)
"मैं"
दंभ
साकार
व्यवहार
पतन द्वार
लूटे घर - बार
मचता हाहाकार।
(2)
"मैं"
भूला
विरला
फूला-फला
सुखद कला
दुख पल टला
प्रिय है सिलसिला।
-- रेणु रंजन
( स्वरचित )
09/04/2019
(1)
"मैं"
दंभ
साकार
व्यवहार
पतन द्वार
लूटे घर - बार
मचता हाहाकार।
(2)
"मैं"
भूला
विरला
फूला-फला
सुखद कला
दुख पल टला
प्रिय है सिलसिला।
-- रेणु रंजन
( स्वरचित )
09/04/2019
विषय - मैं
मैं ढूंढ रही खुद में
खुद को
पर ढूंढ नहीं
अब तक पाई
अंदर तक झांका अपने को
तस्वीर न कोई दिख पाई
साक्षात्कार किया
अपना जब जब
सवाल कोई न
हल कर पाई
मेरा वजूद
है भी या नहीं
यह बात समझ
अब तक न आई
माटी का एक खिलौना हूँ
जब चाहा जिसने खेला है
मन मेरा शीशे सा नाजुक
जब चाहा जिसने तोड़ा है
अरमान नहीं मन में मेरे
क्या मैं कोई इंसान नहीं
इस रंग बदलती
दुनिया में
खुद की खोज
आसान नहीं
सरिता गर्ग
स्व रचित
मैं ढूंढ रही खुद में
खुद को
पर ढूंढ नहीं
अब तक पाई
अंदर तक झांका अपने को
तस्वीर न कोई दिख पाई
साक्षात्कार किया
अपना जब जब
सवाल कोई न
हल कर पाई
मेरा वजूद
है भी या नहीं
यह बात समझ
अब तक न आई
माटी का एक खिलौना हूँ
जब चाहा जिसने खेला है
मन मेरा शीशे सा नाजुक
जब चाहा जिसने तोड़ा है
अरमान नहीं मन में मेरे
क्या मैं कोई इंसान नहीं
इस रंग बदलती
दुनिया में
खुद की खोज
आसान नहीं
सरिता गर्ग
स्व रचित
मैे अज हुं
मै ही अजन्मा
मैं ही सत् असत् हुं
मैं ही सत, रज ओर तम मैं
मैं ही आदि मैं ही अंत हुं
मैं जड , चेतन मैं हुं
मैं निर्गुण, मैं ही गुणातीत हुं
मैं ही सृष्टि, प्रलय भी मैं हुं
मैं प्रेम क्रोध भी मैं हुं
मैं साकार, निराकार मैं हुं
मैं ही कर्म , कर्ता भी मैं हुं
उन सब का फल भी मैं हुं
मैं ही सुख दुःख सब भावो की छाया
अन्नत ब्रह्मांड में , मैं ही समाया
मैं ही ब्रह्म हुं , मैं ही ब्रह्म हुं
स्वरचित---/------🙏🍁
मै ही अजन्मा
मैं ही सत् असत् हुं
मैं ही सत, रज ओर तम मैं
मैं ही आदि मैं ही अंत हुं
मैं जड , चेतन मैं हुं
मैं निर्गुण, मैं ही गुणातीत हुं
मैं ही सृष्टि, प्रलय भी मैं हुं
मैं प्रेम क्रोध भी मैं हुं
मैं साकार, निराकार मैं हुं
मैं ही कर्म , कर्ता भी मैं हुं
उन सब का फल भी मैं हुं
मैं ही सुख दुःख सब भावो की छाया
अन्नत ब्रह्मांड में , मैं ही समाया
मैं ही ब्रह्म हुं , मैं ही ब्रह्म हुं
स्वरचित---/------🙏🍁
विषय--मैं/स्वयं
मैं तुम्हें बताऊं कैसे यह
मेरे दिल में तुम ही बसती हो।
तुम ही तो हो मेरी प्राण प्रिया,
कैसे समझाऊं आज तुम्हें।
तुमसे रौनक इस दिल में है,
तुम ही बसती प्राणों में हो।
कैसे तुम्हें बतलाऊं यह,
किस कदर तुम्हारी चाहत है।
यदि समझ सको मेरे भाव प्रिये,
कर लो मुझको स्वीकार प्रिये।
तुम राज करोगी इस दिल पर,
हर पल तुम खुशी मनाओगी।
अब समझ भी जाओ भावों को,
क्यों तड़पाती हो इस दिल को।
आओ हम मिल कर चलें यहाँ,
दिखलाएं अपना प्यार यहाँ।
दिखलाएं अपना प्यार यहाँ।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
मैं तुम्हें बताऊं कैसे यह
मेरे दिल में तुम ही बसती हो।
तुम ही तो हो मेरी प्राण प्रिया,
कैसे समझाऊं आज तुम्हें।
तुमसे रौनक इस दिल में है,
तुम ही बसती प्राणों में हो।
कैसे तुम्हें बतलाऊं यह,
किस कदर तुम्हारी चाहत है।
यदि समझ सको मेरे भाव प्रिये,
कर लो मुझको स्वीकार प्रिये।
तुम राज करोगी इस दिल पर,
हर पल तुम खुशी मनाओगी।
अब समझ भी जाओ भावों को,
क्यों तड़पाती हो इस दिल को।
आओ हम मिल कर चलें यहाँ,
दिखलाएं अपना प्यार यहाँ।
दिखलाएं अपना प्यार यहाँ।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
मैं ...
जीवन मृत्यु से परे हूँ...
निरंतर गतिमान....
अपने आप में समाया...
स्वयं स्थापित सत्य हूँ....
बाहय रूप बदल बदल कर आता हूँ....
भ्रूण से जीवन...जीवन से मृत्यु रूप....
सब में आ जा रहा हूँ...
निर्विघ्न....निर्लेप...
किसी से न बंधा न कटा न जला...
दुःख और सुख भोगने में....
हर प्रकार के चरित्र को चरितार्थ करने में...
मैं समय के संग चल रहा हूँ...
पर समय...न मुझे रोक पाया...न बाँध पाया...
मनु..विशिष्ट..गौतम...वराहमिहिर ...विवेकानंद...
कबीर...नानक...बुद्ध...
न जाने कितने आवरण हैं मेरे....
मैं समय की परिधि से परे वो सत्य हूँ...
जिसे कोई झुठला नहीं सका है....
मुझे समझने की उत्कंठा में....
कोई कंदराओं में चला गया...
किसी ने अन्न त्यागा...किसी ने जल...
किसी ने देह को बंधन समझ...
कष्ट दिया...मृत्यु का आलिंगन किया...
पर मैं अविचल...सनातन...कालजयी हूँ...
पंचभूतों में रह कर भी मैं....
पंचभूत में नहीं....
मैं न कंदराओं में मिला...
न दरिया और समंदर...
जिसको भी मिला मैं...
भीतर ही मिला....
जब भीतर मिला तो बाहर भी दिखा...
फल...फूल...जीव...निर्जीव...
सब में फिर मैं ही दिखा...
क्यूंकि मैं भीतर रह कर भी...
चहुँ और आलोकित हो रहा हूँ....
स्वयं ही प्रमाणित सत्य हूँ....शाश्वत...
मैं ‘स्वयं’ न हो कर भी...
स्वयं में स्वयं को स्थापित करता हूँ....
तुझमें...उसमें...सबमें...
मैं स्वयं स्थापित सत्य हूँ....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
जीवन मृत्यु से परे हूँ...
निरंतर गतिमान....
अपने आप में समाया...
स्वयं स्थापित सत्य हूँ....
बाहय रूप बदल बदल कर आता हूँ....
भ्रूण से जीवन...जीवन से मृत्यु रूप....
सब में आ जा रहा हूँ...
निर्विघ्न....निर्लेप...
किसी से न बंधा न कटा न जला...
दुःख और सुख भोगने में....
हर प्रकार के चरित्र को चरितार्थ करने में...
मैं समय के संग चल रहा हूँ...
पर समय...न मुझे रोक पाया...न बाँध पाया...
मनु..विशिष्ट..गौतम...वराहमिहिर ...विवेकानंद...
कबीर...नानक...बुद्ध...
न जाने कितने आवरण हैं मेरे....
मैं समय की परिधि से परे वो सत्य हूँ...
जिसे कोई झुठला नहीं सका है....
मुझे समझने की उत्कंठा में....
कोई कंदराओं में चला गया...
किसी ने अन्न त्यागा...किसी ने जल...
किसी ने देह को बंधन समझ...
कष्ट दिया...मृत्यु का आलिंगन किया...
पर मैं अविचल...सनातन...कालजयी हूँ...
पंचभूतों में रह कर भी मैं....
पंचभूत में नहीं....
मैं न कंदराओं में मिला...
न दरिया और समंदर...
जिसको भी मिला मैं...
भीतर ही मिला....
जब भीतर मिला तो बाहर भी दिखा...
फल...फूल...जीव...निर्जीव...
सब में फिर मैं ही दिखा...
क्यूंकि मैं भीतर रह कर भी...
चहुँ और आलोकित हो रहा हूँ....
स्वयं ही प्रमाणित सत्य हूँ....शाश्वत...
मैं ‘स्वयं’ न हो कर भी...
स्वयं में स्वयं को स्थापित करता हूँ....
तुझमें...उसमें...सबमें...
मैं स्वयं स्थापित सत्य हूँ....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
1)
मैं, मेरा शब्द
अभिमान घोतक
होता पतन।
2)
"मैं" नही हम
मिले अपनापन
जन समूह।
3)
"मैं" और मेरा,
दुश्मन बढ़ोतरी,
करता क्लेश।
4)
"मैं" उदगार,
कर्म जायेंगे स्वर्ग,
रहे धरा पे।
स्वरचित
©सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
नागपुर ( महारष्ट्र)
मैं, मेरा शब्द
अभिमान घोतक
होता पतन।
2)
"मैं" नही हम
मिले अपनापन
जन समूह।
3)
"मैं" और मेरा,
दुश्मन बढ़ोतरी,
करता क्लेश।
4)
"मैं" उदगार,
कर्म जायेंगे स्वर्ग,
रहे धरा पे।
स्वरचित
©सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
नागपुर ( महारष्ट्र)
मैं क्या हूँ?
आदमी, देवता, आत्मा
अनबोल पशु या केवल एक शरीर।
मैं आदमी तो नहीं हूं
क्योकि
आदमी में आग होती है
उफान होता है
जिन्दगी की तस्वीर होती है
समन्दर सा दिल होता है
जिन्दगी का एहसास होता है,
मैं देवता भी नहीं
क्योंकि
देवता विराट है
अजर है - अमर है
वो दुनियां को देखता है
उसे चलाता है
अच्छे बुरे की तस्वीर बनाता है
तस्वीरों पर पहचान लगाता है,
तो क्या जानवर हूँ?
नहीं, क्योंकि
जानवर तो गूंगे होतें है
मुझसे काफी ठीक है
सीधे आैर सच्चे होते हैं,
तो आखिर मैं क्या हूँ?
हां मै कुछ भी नहीं हूं
एक खामोश मूरति हूं
जो कुछ नहीं कर सकती,
सबको देखती है
किन्तु चुप है,
कोई भला कहता है
कोई बुरा कहता है,
मैं अनबोल हूं
शरीर का खोल हूं,
आत्मा हूं किन्तु परमात्मा से दूर,
मैं सुखी हूं - दुखी हूं,
अपने आपसे, संसार से
आैर सिरफ सोचता हूं,
"कि क्या दुनियां है?
कितने रिश्ते हैं?
जो घुट-घुट कर
आपस में ही पिसतें हैं,"
बनतें हैं और खत्म हो जातें है
आशाआें का महल बनातें है,
दीवारें बनातें हैं संसार के आगे
आैर जिज्ञासाआें का बांध बनातें है
" किन्तु फिर एक दिन !
सब कुछ खाली मिलता है,
बस एक शरीर ही जलता है,
बस एक शरीर ही जलता है। "
आदमी, देवता, आत्मा
अनबोल पशु या केवल एक शरीर।
मैं आदमी तो नहीं हूं
क्योकि
आदमी में आग होती है
उफान होता है
जिन्दगी की तस्वीर होती है
समन्दर सा दिल होता है
जिन्दगी का एहसास होता है,
मैं देवता भी नहीं
क्योंकि
देवता विराट है
अजर है - अमर है
वो दुनियां को देखता है
उसे चलाता है
अच्छे बुरे की तस्वीर बनाता है
तस्वीरों पर पहचान लगाता है,
तो क्या जानवर हूँ?
नहीं, क्योंकि
जानवर तो गूंगे होतें है
मुझसे काफी ठीक है
सीधे आैर सच्चे होते हैं,
तो आखिर मैं क्या हूँ?
हां मै कुछ भी नहीं हूं
एक खामोश मूरति हूं
जो कुछ नहीं कर सकती,
सबको देखती है
किन्तु चुप है,
कोई भला कहता है
कोई बुरा कहता है,
मैं अनबोल हूं
शरीर का खोल हूं,
आत्मा हूं किन्तु परमात्मा से दूर,
मैं सुखी हूं - दुखी हूं,
अपने आपसे, संसार से
आैर सिरफ सोचता हूं,
"कि क्या दुनियां है?
कितने रिश्ते हैं?
जो घुट-घुट कर
आपस में ही पिसतें हैं,"
बनतें हैं और खत्म हो जातें है
आशाआें का महल बनातें है,
दीवारें बनातें हैं संसार के आगे
आैर जिज्ञासाआें का बांध बनातें है
" किन्तु फिर एक दिन !
सब कुछ खाली मिलता है,
बस एक शरीर ही जलता है,
बस एक शरीर ही जलता है। "
बिषय- मैं
मैं नहीं महज एक औरत
एक मुझमें हैं रूप कई।
मैं ही जन्मदात्री मां हूं
और स्नेह बरसाती बहन।
मैं ही समर्पिता बीबी हूं
और जिम्मेदारी उठाती बहू।
मैं प्रेम पूजारिन मीरा हूं
और हर कष्ट उठाती सीता।
प्रेम का पाठ पढकर कान्हा
नीत जपते रहे राधा-राधा।
मुझे कभी कम न समझना,
सारी सृष्टि, सारी शक्ति का
संचालन कर सकती हूं मैं।
स्वरचित-निलम अग्रवाल, खड़कपुर
मैं नहीं महज एक औरत
एक मुझमें हैं रूप कई।
मैं ही जन्मदात्री मां हूं
और स्नेह बरसाती बहन।
मैं ही समर्पिता बीबी हूं
और जिम्मेदारी उठाती बहू।
मैं प्रेम पूजारिन मीरा हूं
और हर कष्ट उठाती सीता।
प्रेम का पाठ पढकर कान्हा
नीत जपते रहे राधा-राधा।
मुझे कभी कम न समझना,
सारी सृष्टि, सारी शक्ति का
संचालन कर सकती हूं मैं।
स्वरचित-निलम अग्रवाल, खड़कपुर
विषय -मैं /स्व मैं विध्वंस ,
मैं निर्माण
नित्य नव जीवन मैं ।
मैं सुगम आगम,
सहज निगम
प्रयाण मैं , निर्वाण मैं ।
मैं स्व सिंचित मोह बेल
सृष्टि का आरंभ मैं
अंत का नवल खेल मैं ।
मैं सांझ सुरीली
निशा अलबेली
स्व विहान, स्व विधान मै ।
मैं सुदृढ संस्कार
मैं प्रतिकार ।
आवाह्न मैं
विसर्जन मैं
नित नित नव सृजन मैं
मैं अर्जन , अर्पण
मैं समर्पण ।
सर्व विनाश भी मैं
सबकी एकल आस भी मैं ।
श्वास निश्वास भी मैं
आरोह प्ररोह मैं
माया ,मुक्ति ,मोह मैं ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
मैं निर्माण
नित्य नव जीवन मैं ।
मैं सुगम आगम,
सहज निगम
प्रयाण मैं , निर्वाण मैं ।
मैं स्व सिंचित मोह बेल
सृष्टि का आरंभ मैं
अंत का नवल खेल मैं ।
मैं सांझ सुरीली
निशा अलबेली
स्व विहान, स्व विधान मै ।
मैं सुदृढ संस्कार
मैं प्रतिकार ।
आवाह्न मैं
विसर्जन मैं
नित नित नव सृजन मैं
मैं अर्जन , अर्पण
मैं समर्पण ।
सर्व विनाश भी मैं
सबकी एकल आस भी मैं ।
श्वास निश्वास भी मैं
आरोह प्ररोह मैं
माया ,मुक्ति ,मोह मैं ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
मेरे मैं का
सार्वनामिक सात्विक सरोकार
अहम् संज्ञा भाव का
करती हूँ तिरस्कार ।
चाँद तारों को
बनाया साक्षी मैंने
माँ शारदे को करके नमन
फिर निज व्यक्तित्व आँका मैंने ।
नमन उन माता -पिता, गुरुजनों को
चरणों के उनका ध्यान किया
जिन्होंने मेरे ‘मैं’ की रूपरेखा
और व्यक्तित्व का आधार रखा ।
ज़िंदगी को तराशती हूँ
निज भुज, बल -बुद्धि पर
संघर्षों, चुनौतियों से
खेला आँख मिचौली उम्र भर
जिजीविषा की अद्भुत शक्ति
समाहित रहती जो मुझ में ।
मानवीय मूल्यों से
कभी ना मुख मोड़ा
नैतिकता का आँचल
आज तलक है ओढ़ा ।
कठिन परिश्रम संग
पल -पल सँवारती हूँ
स्वाभिमान से अपनी
ज़िंदगी गुज़ारती हूँ ।
फ़ूल राहों में कम
काँटे ज़्यादा मिले है
नैराश्य को त्यागकर
ज़िंदादिली से पुष्प खिले हैं ।
अपेक्षाओं की कसौटी पर
सदा खरी उतरी हूँ
उपेक्षाओं से टूटकर
ना कभी मैं बिखरी हूँ ।
सुख-दुःख में भाव
सम तोष रहा मेरा
लाग लपेट करना मुझको
तनिक भी ना आता
मुँह पर सीधी बात कहना
मुझे बेहद है भाता ।
ज्ञान सुरों का नही मुझे
गायन शौक़ फिर भी रखती
शादी-ब्याह के अवसर पर
पायलिया संग में थिरकती ।
ख़ुद से ख़ुद की
मेरी होड़ा होड़ी रहती
निर्मल प्रतिस्पर्धा ही
मुझ में साहस भरती ।
अध्यापन मेरा व्यवसाय
माँ शारदे की करूँ उपासना
अवसर मिले तो लिख लेती हूँ
भावपूर्ण चिंतन-मनन
शब्दों में पिरो देती हूँ
प्रतिक्रिया आपकी आज
ना जाने कैसी रहेगी
मेरे ‘ मै ‘ की पहचान
समक्ष आपके कैसी बनेगी ?
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
(स्वरचित)
सार्वनामिक सात्विक सरोकार
अहम् संज्ञा भाव का
करती हूँ तिरस्कार ।
चाँद तारों को
बनाया साक्षी मैंने
माँ शारदे को करके नमन
फिर निज व्यक्तित्व आँका मैंने ।
नमन उन माता -पिता, गुरुजनों को
चरणों के उनका ध्यान किया
जिन्होंने मेरे ‘मैं’ की रूपरेखा
और व्यक्तित्व का आधार रखा ।
ज़िंदगी को तराशती हूँ
निज भुज, बल -बुद्धि पर
संघर्षों, चुनौतियों से
खेला आँख मिचौली उम्र भर
जिजीविषा की अद्भुत शक्ति
समाहित रहती जो मुझ में ।
मानवीय मूल्यों से
कभी ना मुख मोड़ा
नैतिकता का आँचल
आज तलक है ओढ़ा ।
कठिन परिश्रम संग
पल -पल सँवारती हूँ
स्वाभिमान से अपनी
ज़िंदगी गुज़ारती हूँ ।
फ़ूल राहों में कम
काँटे ज़्यादा मिले है
नैराश्य को त्यागकर
ज़िंदादिली से पुष्प खिले हैं ।
अपेक्षाओं की कसौटी पर
सदा खरी उतरी हूँ
उपेक्षाओं से टूटकर
ना कभी मैं बिखरी हूँ ।
सुख-दुःख में भाव
सम तोष रहा मेरा
लाग लपेट करना मुझको
तनिक भी ना आता
मुँह पर सीधी बात कहना
मुझे बेहद है भाता ।
ज्ञान सुरों का नही मुझे
गायन शौक़ फिर भी रखती
शादी-ब्याह के अवसर पर
पायलिया संग में थिरकती ।
ख़ुद से ख़ुद की
मेरी होड़ा होड़ी रहती
निर्मल प्रतिस्पर्धा ही
मुझ में साहस भरती ।
अध्यापन मेरा व्यवसाय
माँ शारदे की करूँ उपासना
अवसर मिले तो लिख लेती हूँ
भावपूर्ण चिंतन-मनन
शब्दों में पिरो देती हूँ
प्रतिक्रिया आपकी आज
ना जाने कैसी रहेगी
मेरे ‘ मै ‘ की पहचान
समक्ष आपके कैसी बनेगी ?
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
(स्वरचित)
विधा--मुक्त
*************************
आह-वाह का संगम दे गया
जालिम मुझसे मेरा *मैं* ही ले गया
आज तलक आजाद खयाल था
ख्वाब में मेरे वो अपनाआप दे गया
फिरता था मारा मारा मन के गलियारे में
दिल को मेरे सोचने का काम दे गया
चाँदनी रात में छत पर गहरी नींद लेते थे
कमबख्त मुंडेर पर बैठ तारे गिनने का काम दे गया
आजाद खयाल जिंदादिल था ये *नील* का दिल
अपना समझकर अपने साथ ले गया
मुझसे मेरा *मैं* लेकर ...........
डा.नीलम.अजमेर
*************************
आह-वाह का संगम दे गया
जालिम मुझसे मेरा *मैं* ही ले गया
आज तलक आजाद खयाल था
ख्वाब में मेरे वो अपनाआप दे गया
फिरता था मारा मारा मन के गलियारे में
दिल को मेरे सोचने का काम दे गया
चाँदनी रात में छत पर गहरी नींद लेते थे
कमबख्त मुंडेर पर बैठ तारे गिनने का काम दे गया
आजाद खयाल जिंदादिल था ये *नील* का दिल
अपना समझकर अपने साथ ले गया
मुझसे मेरा *मैं* लेकर ...........
डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित शीर्षक मैं
मैं आदि मध्य और अन्त में हूँ
आदित्य तेज ताराधिप हूँ।।
मैं सामवेद हूँ वेदों में देवों में इन्द्र भी मैं ही हूँ।
इन्द्रियों में मन भूतों में चित् और रुद्रों में मैं शंकर हूँ।
मैं ही कुबेर औ अग्नि मैं ही, मैं ही सुमेरु पर्वतों मध्य।
ऋषियों में भृगु मैं एकाक्षर यज्ञों में जप मैं हिमालय हूँ।
अश्वत्थ हूँ मैं सब वृक्षों में और नारद हूँ मैं मुनियों में।
उच्चैःश्रवा मुझको जानो ऐरावत और नराधिप हूँ।
शस्त्रों में वज्र गो कामधेनु मैं कामदेव और वासुकि हूँ।
नदियों में मैं ही गंगा हूँ मैं आदि मध्य और अन्त भी हूँ।
श्रुतियों में हूँ मैं वृहत्साम छन्दों में मैं गायत्री हूँ।
मासों में मैं हूँ मार्गशीर्ष और ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।।
मैं आदि मध्य और अन्त में हूँ
आदित्य तेज ताराधिप हूँ।।
मैं सामवेद हूँ वेदों में देवों में इन्द्र भी मैं ही हूँ।
इन्द्रियों में मन भूतों में चित् और रुद्रों में मैं शंकर हूँ।
मैं ही कुबेर औ अग्नि मैं ही, मैं ही सुमेरु पर्वतों मध्य।
ऋषियों में भृगु मैं एकाक्षर यज्ञों में जप मैं हिमालय हूँ।
अश्वत्थ हूँ मैं सब वृक्षों में और नारद हूँ मैं मुनियों में।
उच्चैःश्रवा मुझको जानो ऐरावत और नराधिप हूँ।
शस्त्रों में वज्र गो कामधेनु मैं कामदेव और वासुकि हूँ।
नदियों में मैं ही गंगा हूँ मैं आदि मध्य और अन्त भी हूँ।
श्रुतियों में हूँ मैं वृहत्साम छन्दों में मैं गायत्री हूँ।
मासों में मैं हूँ मार्गशीर्ष और ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।।
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