Wednesday, May 15

"पगडंडी"13मई 2029

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समस्त प्रबुद्ध रचनाकारों को सादर सुप्रभात ,नमन एवं वंदन🙏🌹💐🌹

🌹भावों के मोती🌹
13/5/2019
"पगडंडी"
हम अपरिचित है
आओ परिचय कर लें
अपने दुश्मनों को भी
बाहों में भर ले
जिन्होंने हमारी वफा से
कभी की थी जफ़ा
आओ,उनसे हम
स्नेह भरी दो बातें कर ले।
दर किनार कर दे इस दूरी को
आपस मे स्नेह की गांठे बांध लें
जीवन की इस पगडंडी पर
साथ चलते चलत्ते
आओ ,स्नेह भरी दो बातें कर ले।😊

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित



''पगडण्डी"

सीधे साधे भोले भाले
गाँवों की पहचान थी ।
पगडण्डी में धूल थी पर
सोंधी मिट्टी की शान थी ।
सड़कों में तब्दील हुईं वो
अब तक की मेहमान थी ।
बदल रहें हैं हर मायने
पगडण्डीं बहुत नादान थी ।
सड़कों में होड़ है दौड़ है
ये इठलाती खाली अरमान थी
कभी किसी के खेतों तक
कभी पड़ोस गाँव की भान थी ।
विलुप्त हो रहीं पगडण्डीं
अब कवियों की ही गान थी ।
यादों में रखना सजाये ये
टेड़ीं थी पर आसान थी ।
गाँवों का ये देश ''शिवम"
समझो ये हिन्दुस्तान थी ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित13/05/2019



नमन मंच भावों के मोती
शीर्षक      पगडंडी,
विधा        लघुकविता
13 मई 2019   सोमवार

ऊंची नीची जीवन पगडंडी
सबकी अपनी मंजिल होती
सुख दुःख हर्ष विषाद फैले
कर्महीन नित आँखे बहती

पगडंडी होती अति छोटी
सोच समझ कदम बढ़ाओ
दुनियां से हटकर के मित्रों
सुन्दर प्रगतिपथ सजाओ

पगडंडी पर कंटक बिखरे
ऊंची नीची उबड़ खाबड़
जीवन की निर्मल गङ्गा में
भरलो विमल पावन गागर

जीवन की पगडंडी ऊपर
पेड़ लगाओ फूल खिलाओ
भूले भटके राहगीरो को
उंगली थामो दिशा दिखाओ।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


नमन मंच
दिनांक .. 13/5/2019
विषय .. पगदण्डी
विधा .. लघु कविता
********************
....
शहर छोड कर चलते है हम, अपने गाँव की ओर।
टेढी-मेढी पगदण्डी से चलके गाँव की ओर।
...
पीपल महुआ है राहो मे, अमवा के बाँगीचे भी।
काली माई का चौरा है, घर का मेरे करीने भी।
....
इस पगदण्डी पर चलकर ही पोखर पे हम जाते थे।
गर्मी की दोपहरी मे सब, शेर भी खूब नहाते थे।
....
शहर गया सब छूट गया पर यादें ना छूटी है।
टेढी-मेढी वो पगदण्डी आज भी दिल से जुटी है।
....

स्वरचित एवं मौलिक
शेरसिंह सर्राफ


पगडण्डी
🎄🎄
नमन मंच।
नमन गुरुजनों, मित्रों।
छंदमुक्त कविता
🎉🎉🎉🎉🎉
याद आती है,
वो आड़ी तिरछी पगडण्डी।
गांव की मेरी।

जहां घण्टों में पहुंचना था,
पहुंचते मिनटों में।
रोड से जो जाते,
चाची के घर।
दूरी अधिक होती थी।

जो पकड़ लेते पगडण्डी,
तुरंत पहुंच जाते थे।

जो दूकान चीनी लेने जाना होता,
पकड़ते वही पगडण्डी।
तुरंत लेकर आ जाते थे।

अब पगडण्डी हुई गुम,
सड़क बन गई गांव में।

चाची के यहां जाय,
कौन दूरी तय करके।

मोबाइल से हीं हालचाल,
पूछ लेते हैं।

सारे रिश्तों में हो गई दूरियां,
जब से पगडण्डी खत्म हुई।

नये जमाने में सब जगह जो,
सड़कों द्वारा जाना होगा।

सब दूरियां मोबाइल से,
पाट लेते हैं।

इस तरह लोग,
रिश्ते निभा लेते हैं।।
🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
🎨🎨🎨🎨🎨🎨



🙏🌹नमन मंच🌹🙏
आदरणीय गुरुजन को नमन
🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏
विषय-पगडंडी
दिनांक-१३-०५-२०१९

अब तक याद
है मुझे
मेरे नाना के
गांव की
#पगडंडी

नानी के हाथों
का गक्कड़ भरता
और लहसुन की
चटनी

नानू के धान
के खेत
जहां हम
खेला करते थे

लुका छिपी और
गुल्ली डंडी!!!
🌲🌲🌲🌲🌲🌲
 **स्वरचित***
  -सीमा आचार्य-(म.प्र)



नमन मंच🙏
सुप्रभात मित्रों व गुरूजनों 🙏😊
दिनांक- 13/05/2019
शीर्षक- "पगडण्डी"
विधा- "लघु कथा"
*************
एक दिन सड़क गाँव आई और सब सड़क को आश्चर्य से देखने लगे, ये सब नजारा पगडण्डी देख रही थी, वो चुपचाप थी तभी, सड़क, पगडण्डी से बोली "गाँव की हो न इसलिए तुम्हारी दशा ऐसी है |"
पगडण्डी ने सड़क से कहा,"दीदी आपका स्वागत है हमारे गाँव में |"
सड़क घमण्ड से बोली, "स्वागत तो करना ही पड़ेगा,मैं मार्डन हूँ और तुम गँवार |"
पगडण्डी बोली ," नही दीदी गाँव के लोग मुझसे ही होकर दूद-दूर तक चले जाते हैं और थकते भी नहीं मुस्कुरा कर बोली |"
सड़क को गुस्सा आया और बोली, "अपनी शक्ल तो देखो पगडण्डी, मैली कुचेली पतली सी,मुझमें देखो कितनी चमक है कि और मेरी चौड़ाई का तो तुम मुकाबला भी नहीं कर सकती मेरे सामने ज्यादा नहीं टिक पाओगी तुम |"
दूसरे दिन रमेश (डॉक्टर) को पास के गाँव में एक मरीज को देखने जाना था, उस गाँव से एक आदमी डॉक्टर साहब को लेने पैदल ही आया था, मरीज की हालत बहुत खराब थी तो जल्दी जाने के लिए सड़क का रास्ता चुना, बहुत देर हो गई कोई गाड़ी नहीं आई, तब वह आदमी बोला "डॉक्टर साहब ज्यादा देर की तो मरीज की जान चली जायेगी |"
तभी डॉक्टर बोले चलो पगडण्डी वाले रास्ते से चलते हैं |"
जल्दी वो दोनों मरीज के पास पहुँचे और सही वक्त पर सही इलाज हो गया मरीज की जान बच गई |
ये सब नजारा पगडण्डी व सड़क देख रही थी, तभी सड़क को एहसास हुआ और वह पगडण्डी से बोली,"बहन मुझे माफ करना अगर आज तुम न होती तो मैं कलंकित हो जाती,
जितना महत्व मेरा है उससे कई ज्यादा तुम्हारा है |"
अंत में दोनों में सुलाह हुई और दोनों खुशी -खुशी मुसाफिरों की सेवा करने लगीं |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


,🌹नमन मंच भावों के मोती🌹
शीर्षक पगडंडी
13/2019/सोमवार
ए जीवन भी पगडंडी की
तरह है
 कहीं ऊँचा  कहीं नीचा
 कभी फिसले कभी
सम्भल गए
 कभी तो मंजिल
आएगी फिर आगे
बढ़ते चले गए
जिंदगी का नाम
ही संघर्ष है
फिर पगडंडी से
क्या डरना
फल की आशा छोड़
निरंतर कर्म है करना
/स्वरचित/




आज का विषय ---पगडण्डी
दिनांक--१३/५/२०१९
गांव गांव नगर नगर पहुंच मार्ग ।
छोटे छोटे कहलाते पगडंडियाँ ।
जीवन मे भी.है मार्ग ऐसे ।
कर्मकर्यत्व के अच्छे बुरे ।
झूठ फरेब ,ईमानदारी सत्य के ।
सफलताऐ उसे ही मिलती जो चुने सही सरल पगडंडियाँ ।
काँटो भरी राहे सही.समय पर पहुचाती नही ।
पर सरलतम पहुचाऐ सही समय ।
बस चुनना स्वंय को सही ढंग से योजनाबद्ध ।
सफलताऐ. हे कदम तले ।
स्वरचि --दमंयती मिश्रा गरोठ ।


२/बुंदेलखंडी
तन्नक तो देखो भैया
हमरे गॉव की ओर
हमरे गॉव में बैला गैयॉ
सभई तरह  के ढोर
 कई पगडंडी हमरे गॉव में
पहन पनहियें चलें पॉव में
चंचल सहज गॉवन की गोरी
बातन में लागें अति भोरी
पीपर नीम अमवा की छैयॉ
गिल्ली डंडा खेलें लरकैंयॉ
चौपाल पे बैठैं दद्दा उर कक्का
करें जमाने  भर की चर्चा
पीवें हिलमिल करकें हुकका
 गॉवन के मदरसा में
गुरूजी  रोजई पढ़ावे आबें
 टन टन टन घंटा बज गओ
मोड़ी मोड़ा दौड़े जावै
हमरे गॉव में इक
छोटो सो मंदिर
कभऊ रामायण
कभऊ भागवत होबे
बाके अंदर
हिलमिल मिलके रहें
हमरे गॉव की रीति
भावों के मोती
आपस की प़ीती
"स्वरचित"



नमन भावों के मोती💐
कार्य:-शब्दलेखन
बिषय:- पगडंडी
विधा:-मुक्त

कभी चलते थे हम
गाँवों की पगडंडियों पर
खाते थे मौसमी फल
जंगली बेर, करौंदा
तेंदू फल और आचार
आज खा रहे हैं
शहर की गलियों में
धुँआ और धूल।
चलते-चलते
अब वो पगडंडियां
बदल गईं हैं
कोलतार की सड़कों में
या पक्के खड़ंजों में।

तब पर्यावरण शुद्ध था
मानव स्वस्थ था
भले ही गांवों में अंधेरा हो
पर जल शुद्ध था।
राख से हाथ धोने पर
नहीं होते थे रोग
नींम-बबूल की दातुन
और
रतनजोत के कोयले का मंजन
नहीं गिरते थे दांत
अस्सी की आयु पार।

अब तो-
पैदा होते ही
छींक रहे हैं लोग
नहीं खाते जंगली फल
शहरी लोग
रासायनिक जहर से
लग रहे हैं रोग
और
मृत्यु शैय्या पर पड़े-पड़े
सोच रहे हैं लोग
काश, होतीं आज पगडंडी
नहीं लगते रोग।

स्वरचित: 13-5-3019
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी
गुना (म.प्र.)



🌹नमन भावों के मोती🌹पगडंडी
~~~13 मई
नेह के दीप जला कर
तलाशेंगे कब  तक
उजालों को
घूट घूट गरल के  पीकर
बदलेंगे कैसे हम
बद हालों  को

हालातों की जीर्ण
अवस्थाओं में
व्यवस्थाओं के
गले  घूटे हुए
हरितमाए बागों की ख़ो गई
वायदे चुनाव के
लाख  झुठे हुए।

अर्थ युग मे कैसा
अनर्थ का प्रादुर्भाव
पगडंडियां आज भी,
विकास की सड़कों को रोती
दूर बहुत मंज़िले और गाँव।

✍पी राय राठी
भीलवाड़ा, राज



"अनुभव"

अनुभव तेरे हजार जिंदगी
पतझड़ कभी बहार जिंदगी।

सुनी अकेली पगडंडियों सी
शहर की तंग गलियों सी,
कभी झील का शांत पानी
तेज नदी की धार जिंदगी
अनुभव तेरे हजार जिंदगी।

आकाश को छू लेने का इरादा
हवा को पकड़ने का वादा
चंचल बेशुमार जिंदगी,
पृकुर्ती का उपहार जिंदगी
अनुभव तेरे हजार जिंदगी।

मन रहता घबराया सा
जब बनता काम न हो पाया था
हो जाती बेजार जिंदगी
लगता है बेकार जिंदगी,
अनुभव तेरे हजार जिंदगी।

कभी सच और ईमान जिंदगी
झूठ कभी बेईमान जिंदगी
रहे तेरी मुस्कान जिंदगी
होए न परेशान जिंदगी,
मिले तुझसे प्यार जिंदगी
कभी न हो हार जिंदगी
अनुभव तेरे हजार जिंदगी
पतझड़ कभी बहार जिंदगी।

श्री लाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)9482888215



भावों के मोती दिनांक 13/5/19

पगडंडी

कभी बेईमान
नहीं  होतीं
ये पगडंडियाँ

राह पर
बेबाक पड़ी
रहती है
ये पगडंडियाँ

बड़ी  बेशर्म होतीं हैं
ये पगडंडियां
अपनी राह
खुद बनातीं हैं
ये पगडंडियाँ

कुछ भी कहो
कभी धोखा
नहीं  देतीं
ये पगडंडियाँ
बस मेरे गाँव की
शान हैं
ये पगडंडियाँ

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव  भोपाल


नमन मंच को
दिन :- सोमवार
दिनांक :- 13/05/2019
विषय :- पगडंडी

कभी उन पगडंडियों पर
होती थी शाम हमारी..
टहलने को निकलती थी..
वो बचपन की यारी हमारी..
मस्ती में रहते थे चूर हम..
अब होने लगे हैं दूर हम..
आज भी वो पगडंडियाँ..
कहती है वो किस्से कहानी..
गुजरे कभी वहाँ से..
तो आ जाती हर याद पुरानी..
वो बचपन की यारी..
अब खो गई इस भीड़ में..
रहने लगे हम अब...
झंझावतों से भरे नीड़ में..
स्वच्छंद थे तब पंछी हम..
नापते थे आकाश तक..
उड़ाते थे पतंग सपनों की..
रहते थे जब साथ हम..
हँसते गाते मन मस्त होकर..
जीते थे मद मस्त होकर..
विरान है अब वो पगडंडियाँ..
बहाती जैसे नयनों से नदियाँ..
जिम्मेदारियों ने लूट लिया बचपन..
जवानी ले गई वो बचपन की खुशियाँ..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़



===पगडंडी ===
🚴‍♂️🚴‍♂️🚴‍♂️🚴‍♂️🚴‍♂️🚴‍♂️
~~~~~~~~~~
जय जय मात शारदे
ये अज्ञानी को राह दे
बना सकूं पगडंडियाँ
जीस पर चले दुनियां

पगडंडी पर चलकर
बैठे न कोई थक कर
मिलें उसको मंजिल
यही है कहें हंसकर

पगडंडियों के हैं प्रकार
कोई तो जाये घर-द्वार
कोई रोज़ी रोटी तलाश
कोई चल बनाएं सरकार

पगडंडियाँ करे कमाल
बन सड़क करे हलाल
बड़ाकर अपनी रफ्तार
जान कर बैठे हैं उलाल

===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
13/05/2019



नमन मंच
13/05/19
पगडण्डी
***
पगडण्डी के गीतों ने
सफर सुहाना बना दिया।
हाथों में हाथ थामे
लड़खड़ाते कदमों से जब
चले  खेतों के
इन टेढ़े मेढ़े रस्तों पर
ऊंची  नीची पगडंडियों पर
तो
मेरे डगमगाने के पहले
ही तुमने मुझे थाम लिया
तुम्हारे चितवन निगाहों
ने मुझे बाँध लिया
अब
तुम जब हो साथ मेरे,
तो लगता है,
रात की चादँनी
कुछ गीत गुनगुना गई
पत्तों की सरसराहट
कुछ सँगीत सुना गई
फूलों की खुशबू ने
कुछ रस घोल दिया
हवाओं की सरगोशियों ने
मदहोश कर दिया
चल पड़े, हम, जब इन
रस्तों पे,
पगडण्डी के गीतों ने
सफर सुहाना बना दिया।

स्वरचित
अनिता सुधीर



"नमन भावों के मोती"
    विषय__पगडंडी

 गाँव से चलते-चलते
शहर आ गई थी पगडंडियाँ
कच्ची मिट्टी की अपनी थी पगडंडियाँ
शहर आकर पत्थर बन गई पगडंडियाँ
सुगंध थी मिट्टी की महकती थी पगडंडियाँ
काले डामर से चमकती निर्जीव हो गई
शहर मे आकर हमारी पगडंडियाँ
छोटी थी पर प्यार समेटे थी
राहों में साथ चलते हमसफर समेटे थी
लंबी चौड़ी सड़क बनकर
कितनी अकेली हो गई पगडंडियाँ
कुछ गुनगुनाता दौड़ता था बेफ्रिक
मासूम बचपन इस पर हमारा
दोनों का ही ऐसा बीता बचपन कि बस
भागती दौड़ती जिंदगी सी हो गई दौड़ती पगडंडियाँ
तरक्की ने हमकों और इनको दोनों को बदल दिया
पैरों को दे दिये पहिये और इन्हें 4लेन,6लेन बना दिया
रफ्तार बन गई जरूरत और पहचान हमारी
दौड़-भाग की उधेड़बुन ने पगडंडियों को भुला दिया
गाँव से चलकर शहर तक आती थी
चौड़ी सड़कों के साथ चलती फुटपाथ कहलाती थी
थी कितनों का यह रैनबसेरा और जीवन का गुजारा
तरक्की ने रूप क्या बदला सब बदल गया
नन्हीं-नन्हीं शर्माती इठलाती पगडंडियाँ
पत्थरों की हो गई और फिसलने लगे पैर
हमारे "पग" को संभालती "डंडी" "पगडंडी"
सिर्फ रफ्तार को संभालती भागती सड़क हो गई
----नीता कुमार
       (स्वरचित)



नमन "भावो के मोती"
13/05/2019
     "पगडंडी"
लघु कविता
################
गाँव की पगडंडी....
चाहे हो कच्ची जमीन..
चाहे हो कंकरीली  ...
या हो पथरीली.....
राह सीधे घर तक ...
पहूँचाती है...।

शहर के घुमावदार रास्ते..
भूल भूलैय्या में घुमाता है..
पगडंडियों से गुजरकर..
पाँव में लग जाती मिट्टी..
मिट्टी की खुशबू को....
महकाती है....
पक्की सड़को जैसा..
पाँवों में छाले तो...
नहीं देती है....।

ये कंकरीली और ...
पथरीली पगडंडियां..
कठिनाइयों से .....
सामना करने की..
सीख ही दे जाती है.
पक्की सड़के तो...
धूप में तपकर..राही को
मरीचिका के भँवर में..
भटकाता है....।

पगडंडियों के दोनों किनारे.
हरियाली छाई रहती है...
इस राह से जब गुजरती है.
पुरवाईया....
मन ही मन इतराती है..
काम से घर लौट रहा
थका पथिक को....
पगडंडियां गाँव की..
बड़ी भाती है....।।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल



शुभ दुपहरी
नमन "भावों के मोती"🙏
12/05/2019
हाइकु (5/7/5) 
विषय:-"पगडंडी"

(1)
ढूँढ़ते निशां
लील गई सड़कें
पगडंडियां
(2)
खूनी सड़क
पगडंडी की याद
नीम की छाँव
(3)
गाँव  बेघर
सूनी पगडंडियां
पहुंचे शह्र
(4)
राह निकालो
पगडंडियां कहे
एकला चलो
(5)
राही अपना
दिलों को जोड़ देती
पगडंडियां

स्वरचित
ऋतुराज दवे



"विकास"

मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?

झौंपड़ी से निकला आदमी
खुले खेतों की पगडंडियों से होता हुआ,
रेल के तीसरी श्रेणी में
बोरे सा ठूंसा हुआ,
शहर की चकाचौध में,
भीड़ में रम गया,
अपना वजूद खोकर
नये वजूद की तलाश में
पूरी उम्र भटकता रहा,
मिटती गई
पीढीयों की पहचान
कई जीवन
पीढीयों के निशान,
खो गया आधार
पर पा सका न
अपना मुकाम,
जीवन की तलाश में
जीवन ही खो गया
अपनों से मिलना
सपना सा हो गया,
फिर भी मै अब तक
नहीं समझ सका
मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?

इस भीड़ से उकता कर
लौटता हूं भरे हाथ,
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में
अकेला सिमटा हुआ
यादों में खोया,
अपनों को मिलनें मनाने के
सपनों में सोया,
वो गांव के खुले खेत
पगडंडियों की राहें
झरोखों से आती
झोंपड़ी में हवाएं l

पर कुछ भी नहीं था वहां
मेरा वजूद भी नहीं था वहां
हां इक आस थी बंधी हुई
इक आस थी सजी हुई,
मै समझ गया
मै कौन हूं क्या हूं और कहां हूं,
एक चकाचौंध हूं
जो फैल गई है
झोंपड़ी में, पगडंडी में,
खेत में खलिहान में
गांव की चौपाल में,
रेल के डिब्बों में
शहर की सड़कों पर,
तालाब की पट्टी पर,
झील की जमीन पर,
नदियों में , नालों में
यहां तक कि अंतरिक्छ पर
पहाड़ों पर और आसमानों में
जिसे लोग आजकल
विकास कहते हैं,
हां, सम्पूर्ण विकास कहते है l

श्री लाल जोशी "श्री"
(तेजरासर) मैसूरू
९४८२८८८२१५



नमन मंच को
शीर्षकांतर्गत द्वितीय प्रस्तुति...

धूल के गुबार में,
गायब हो रही पगडंडियाँ।
शहरी चकाचौंध में,
दम तोड़ती पगडंडियाँ।
कभी होती थी,
खुशियों की गली ये पगडंडियाँ।
अब लगती है,
मुरझाई सी कली ये पगडंडियाँ।
कभी लहराते थे,
किनारे हरियाली से।
अब अलसाए पतझड़ सी,
 लगती ये पगडंडियाँ।
विरानगी सी पसरी ऐसे,
हो गई क्षुब्ध जैसे।
शांति देता था साया इनका,
लहराता आँचल माँ का जैसे।
अस्तित्व मिट सा रहा,
पर कायाकल्प भी हो रहा।
बनकर ये अब पक्की सड़कें,
प्रगति की इबारत लिख रही।
पल-पल होते परिवर्तन से,
अब ये बहुत कुछ सीख रही।
ढाल रही अपने को नवस्वरूप में।
इंसानी आकांक्षाओं के अनुरूप में।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़



🌹भावों के मोती🌹
13/5/2019
"पगडंडी"(दूसरी प्रस्तुति)
हाइकु
1)
तपती भूमि
उदास पगडंडी
शाम निहारे।।

2)
झड़ते पत्ते
सूनी पगडंडी का
साथ निभाते।।

3)
पिता का साथ
सुखद पगडंडी
बेख़ौफ़ चल।।।

4)
हौसलें भरे
नभ की पगडंडी
पंछी ने नापी।

5)
नील गगन
मेघों की पगडंडी
वर्षा का सँगी।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित



नमन "भावो के मोती"
13/05/2019
  "पगडंडी"
1
शहर जाती
गाँव की पगडंडी
रोटी के लिए
2
पगडंडियां
जीवन अनुभूति
ज्ञान कराती
3
गाँव,शहर
पगडंडी जोड़ती
प्यार जताती
4
थका न पाँव
पगडंडी की राह
खुश है गाँव
5
धूप व छाँव
पगडंडी किनारे
प्यारा सा गाँव
6
पगडंडियां
जीवन की सच्चाई
कठिन राह

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल



नमन सम्मानित मंच
     (पगडण्डी)
      ********
वक्र,संकुचित  धूल धूसरित,
  मार्ग   प्रकृतिगत  पगडण्डी,
    परहित भाव संदेशित करती,
      मानव  को   शुचि  पगडण्डी।

आवागमन   पदाति  निमित्त,
  काल  पुरातन  से  पगडण्डी,
   साधन चारु  धरा  के तल पर,
     कृषकाया सी शुचि पगडण्डी।

स्वर्णिम अतीत में चारु पालकी,
  झूमा करतीं  थीं  पगडण्डी पर,
     कभी  कहारों  के  गीतों  संग,
       तनिक दमकतीं पगडण्डी पर।

वर्तमान    परिदृश्य    निरंकुश,
  मानव मनस संकुचित अतिशय,
    पाप  अधर्म  की  पगडण्डी पर,
      नित्य   अग्रसर   विना   हिचक।
                            --स्वरचित--
                               (अरुण)



भावों के मोती
13/05/19
विषय-पगडंडी

गांव को छोड़कर जाते लोगों

छोड़ जाना हल्की पदचाप
इन सूनी  पगडंडियों पर
लौट आना, निगाहें बिछाये
है कोई, इन सूनी राहों पर।

ये राहें रहती तो आबाद है
जाने कितने गुजरते हैं इन से
पर लगती सदा मौन है ,रहता
इंतजार पहचानी आहट का।

पथरीले रास्ते और सांझ का
अस्त होता सुरमई सूरज
झांकता है पत्तियों के दरिचों से
किसी को देखने की चाह लिये।

चांद घूमता उन सभी जगहों में
जहां जहां रोज चांदनी में
दोस्तों के साथ सजाते चौपाल
मचता था खुशियों का धमाल।

भोर के भाल पर चमकता सिंदूर
कुछ पिलझंईयां उदास हो जाता
नही आया  भूला पथिक देखने
फिर गांव के चौबारे औ गलियां।

अमराई, पीपल, लौकी की बैल
सभी फलते तो हैं पर उन्हें भी
एक स्पर्श सदा याद आता है
कहां चले गये यूं सब छोड़ ।

स्वरचित

       कुसुम कोठारी।



"नमन-मंच"
"दिंनाक-१३/५/२०१९"
"शीर्षक-पगडंडी"
पगडंडी पर पैदल चलकर
पहुचँते अपने घर तक
एक गाँव से दूसरे गाँव भी
हम पहुँचते पगडंडी पर चलकर।

जब से बदले पगडंडी वहाँ पर
सडक़ ने लिया उनका स्थान
एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले
पहुचँना  हुआ फिर बेहाल।

घर बदल गये कोठी में जब
दूरियाँ बढ़ गई मन मे अब
जहाँ चलते बैलगाड़ी
वहाँ दौड़ते मोटरगाड़ी अब।

अंधेरा, मुड़ेर पगडंडी के पहचान
अब रंग बिरंगे रोशनी ,गजब एहसास।

उऋण नही हो सकते हम अपने गाँवों से
भले प्रवासी हो जाये हम
कृत्रिम जिंदगी से थक जाये तो
लौट चले गाँव की प्राचीन पगडंडी की ओर।
  स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।



नमन भावों के मोती,
आज का विषय, पगडंडी,
दिन, सोमवार,
दिनांक, 13,5,2019,

आसान नहीं  मुश्किल होता है बड़ा,
 जीवन पथ को  संचालित करना।

हम चले कहाँ से जायेंगे कहाँ,
राह  सहज नहीं  मालुम करना।

पगडंडियाँ इसीलिऐ बनी यहाँ ,
 पता हो रास्ता राही को अपना ।

नयी राह बनाना मुश्किल है बड़ा,
आसान है पद चिन्हों पर चलना ।

दिशा हीन को दिशा मिलती कहाँ,
संभव है दिशा निर्देशों पर चलना।

फूलों के संग काँटे भी मिलते यहाँ,
 मुश्किल है बहुत फूलों को चुनना।

मिटता नहीं अस्तित्व पगडंडियों का,
सड़कों से इनको मिलकर ही रहना।

पगडंडी तो  है बस एक विचार धारा ,
 सड़क होती है कई विचारों की धारा।

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,



नमन भाव के मोती
 दिनांक 13 मई 2019
दिन सोमवार
विधा लघु कविता
विषय पगडंडी

आज समय की पगडंडी पर
   चलते हुए कहां पहुंचा

अभी-अभी कल की थी बात
बचपन ने की थी  मुलाकात

कब बढ़कर हो गए युवा
नहीं हुआ इसका भी भान

प्यार और शहनाई की धुन
कल ही तो थी गई बजाई

जीवन की मधुर मिलन की
अभी अनुपम छटा थी छाई

सुख-दुःख स्वाद चख रहा जब
तभी जरा की झुर्रियां आ छाई

जीवन की अंतिम बेला में
कुछ खट्टी-मीठी यादें आई

धीरे-धीरे धीरे पैर बढ़ाकर
कब समय बीत गया भाई

आज समय की पगडंडी पर
   चलते हुए कहां पहुंचा

स्वरचित
मनीष श्री
रायबरेली



नमन  मंच को
विषय : पगडंडी
दिनांक : 13/04/2019

पगडंडी

सड़के चमचमाती हैं
सांप जैसे बल खाती हैं
पगडंडीयोँ में आक्रोश है
चहल-पहल तो सड़कों की है
अब पगडंडीयाँ खामोश हैं ।
कभी पगडंडीओँ का यौवन था
हर तरफ उनका सममोहन था ।
पर समय एक सा रहता नहीं ,
संदेश यह गहरा मौन था।
धीरे-धीरे घटता जाता यहां ,
बुलंदियों का जोश है,
चहल-पहल तो सड़कों की है
अब पगडंडीयाँ खामोश हैं ।
नई ऊंचाईया हैं नए पड़ाव
नित्य नए यहां बनते राह ।
अब तो नहीं बचा कोई भी,
सड़कों से ही  वंचित गांव ।
भूली विसरी हुई पगडंडी,
कहती सड़कों का दोष है
चहल-पहल तो सड़कों की है
अब पगडंडीयाँ खामोश हैं ।
संकरी लहराती सी वो,
जाती थी हर गांव गांव ।
मन को ठंडक मिले पथिक को
जब मिलती कहीं गहरी छांव ।
साथी भी मिल जाते पर अब
खुद ही खानाबदोश है
शोर शराबा सड़कों पर,
पगडंडीयाँ खामोश हैं ।

जय हिंद

स्वरचित :राम किशोर, पंजाब ।



सादर अभिवादन
13-05-2019
पगडंडी
पगडंडी-
एक सँकरा पथ
सर्पिल मन्मथ
गुजरे कई बखेरों से
खेतों से, मेड़ों से
लिये लचक लहर
जैसे गोरी की कमर
निश्छल नादान
गाँव का गुमान
दुर्गम का योजक
सरल संयोजक
कहीं-कहीं फिसलन
विवेक-बोध का स्मरण
सरपट गति पर लगाम
सजग पग अविराम
चलते-चलते मिले बड़ी सड़क से
पक्के काले से तड़क भड़क से
और फिर अस्तित्वहीन
क्या इसीलिए पगडंडी के पथिक
शहर में आकर होते विलीन ?
-©नवल किशोर सिंह
     स्वरचित



नमन मंच

मंज़िल दूर,
पथिक पगडण्डी,
मिले जरूर !!

बटोही मन,
पगडण्डी निहारे
छूटता तन !!

वृक्षों को नोचे
अकेली पगडण्डी
और क्या सोचे !!

स्वरचित : डी के निवातिया



शुभ संध्या
शीर्षक-- ''पगडण्डी"
द्वितीय प्रस्तुति

कहाँ गईं वो पगडण्डी
कहाँ गये वह गाँव ।
कहाँ गये वो मोर पपीहा
कहाँ अँगुआ की छाँव ।
वो पानी लिये पनिहारन
वो ठुमक ठुमक धरे पाँव ।
श्रंगार भरी सुन्दर कविता
बनती थी पेड़ की ठाँव ।
तालाब जाती पगडण्डी
वह तैराकी वह नाँव ।
कभी तपन जेठमास की
कभी ठिठुरता माँव ।
पहचान खोऐ गाँव 'शिवम'
अब शहरों सी चाँव चाँव ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 13/05/2019




नमन भवन के मोती
दिनांक 13 मई 2019
विषय - पगडंडी
विधा -हाइकु

1
धूल उड़ती
'पगडंडियों 'पर -
ग्राम्य जीवन
2
 खेतों के बीच
 फैली पगडंडियां'-
 कृषक आशा
3
 नहीं दिखती
अब 'पगडंडियां'-
 परिवर्तन
4
जन्म मरण
समय 'पगडंडी'-
सृष्टि नियम
5
गोरी के पांव
गांव 'पगडंडियां'-
सिर गट्ठर
6
संघर्ष गाथा
विकास 'पगडंडी' -
जीवन प्यार

स्वरचित
शिवेंद्र कुमार श्रीवास्तव
 रायबरेली



🌹भावों के मोती🌹
🌹सादर प्रणाम 🌹
   विषय =पगडंडी
   विधा =हाइकु
     🌹🌹🌹🌹
(1)बनी पे चले
     बनाए पगडंडी
     वहीं महान
     🌹🌹🌹🌹
(2)सही दे दिशा
     पगडंडी ले बना
     आज के युवा
     🌹🌹🌹🌹
(3)चले ले कर
     हरियाली को साथ
     पगडंडियाँ
     🌹🌹🌹🌹
(4)करे न गुमां
     इठलाती सी चलें
     पगडंडियाँ
     🌹🌹🌹🌹
(5)नीव पत्थर
     बनी पगडंडियाँ
     है उपकार
    🌹🌹🌹🌹
(6)आ के शहर
     करती है श्रृंगार
     पगडंडियाँ
      🌹🌹🌹🌹
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
13/05/2019



नमन "भावों के मोती"
विषय- पगडंडी
13/05/19
सोमवार
कविता

वे  प्यारी  बचपन की यादें मन को आंदोलित करती हैं ,
खेतों  की  टेढ़ी- मेढ़ी  पगडण्डी  आमन्त्रित  करती  हैं।

गाँव   के  लहराते  सुंदर  हरे  -भरे   खेतों  की   शोभा ,
अपने मन -मोहक दृश्यों से मुझको आनन्दित करती है।

दोपहरी  में  मित्रों  के   संग  पगडंडी  पर  दौड़ लगाना,
और  दौड़ आगे बढ़ने की धुन अब आह्लादित करती है।

पूरे  दिन  वह  धमा चौकड़ी और खेल-गीतों  की मस्ती ,
दादी की मीठी- मीठी  लोरी मुझको पुलकित करती  है|

परमहंस के सम  जो  बचपन  गाँव में अलमस्त बिताया,
उन प्यारे लम्हों की सुन्दर छवि मुझको प्रमुदित करती है|

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर



नमन मंच
13/5/2019
शीर्षक   पगडंडियां

पगडंडियां
मन को मन से
गांव को गांव से जोड़ती
यह पगडंडियां
जब से जुड़ गई सड़क से
उन्नति के नवल सोपान चढ़ती
जल्दी मेरा गांव खाली कर गई ये पगडंडियां

भैरव माधव काका
सब चल दिए शहर
पगडांडिया जुड़ती सड़कों से
काकी ,मुनुवा और मुझे
 बहुत अकेला कर गई पगडांडिया

काकी राह तकती
डीजल से गंधाती सड़कें
खो गया पगडंडियों का कच्चापन
सड़क से जुड़
सड़क को पुकारती
खुद ही अपने में खो गई पगडंडियां

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित



नमन भावों के मोती
13-मई-19 सोमवार
विषय-पगडंडी
विधा-क्षणिका,लघु व्यंग्य
💐🎂💐🎂💐🎂
पगडंडी से
राजमार्ग तक
उनके पहुँचने में
"राज"गहरा है...👌
लोग गोते
लगाते रहे गए
"मोती"
मिला नहीं
मामला"शक"पे
आ ठहरा है...👍
कारण...
सच पे झूठ का
जबर्दस्त पहरा है...💐
🎂🎂🎂🎂🎂🎂
श्रीराम साहू "अकेला"
   बसना,36गढ़
💐🎂💐🎂💐🎂




तिथि - तेरह/ पांच/ उन्नीस
विषय - पगडंडी

पगडंडी पर हम मिले , तुमसे पहली बार
ठिठके से थे हम खड़े ,दुनिया दई बिसार

पगडंडी पर चल रहे ,  हाथों  में  हैं  हाथ
छूट न पाये अब कभी,बरसों का है साथ

पगडंडी पर रच दिये ,  हमने कई दिवान
मोह न छूटेगा कभी, किये कई अहसान

पैरों - पैरों हम चले ,सखियां हैं सबसाथ
पगडंडी संकरी गली सदा निभाती साथ

पगडंडी चल आ गया ,घर मेरे महमान
आवभगत को देखकर ,वो भी है हैरान

पगडंडी  के  रास्ते  , घनी  घनेरी  छाँव
सुस्ता लें कुछ देर हम ,थके हमारे पाँव

सरिता गर्ग
स्व रचित



पगडंडियां
मुख्यमार्ग दिखाएं
भूलभुलैया।।

वो पगडंडी
दिखाये मुक्ति मार्ग
पर है सूनी।।

ये पगडंडी
फैले कील व कांटे
वीर ही जाते।।

भावुक


2भा.*13/5/2019/सोमवार
बिषयःःः#पगडंण्डी#
विधाःःःकाव्यःःः

कंटक सब पगडंण्डी के चुन लें
    पुष्प बिखेंरे इनमें खुशियों के।
        प्रगति पथ पर संचलन करलें,
          कुछ काम आऐं हम दुखियों के।

मेहनतकश इनसान बनें हम।
   नहीं किसी से कभी डरें हम।
       इस जीवन की आपाधापी में
          सदा प्रेम पगडंण्डी चुनें हम।

प्रभु दरियादिल सब बन जाऐं।
   दीन दुखी मनमंदिर में बिठाऐं।
      मार्ग प्रशस्त करें इकदूजे के गर
         निश्चित प्रगति पथ बढते जाऐं।

हर गांव हमारा देश हमारा।
   है मंदिर मस्जिद गुरूद्वारा।
     प्रेमोत्सव हो हर पगडंण्डी ,
      भारत दिखे दुनिया में न्यारा।

स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र
जय जय श्री राम राम जी

2भा#.पगडंण्डी #काव्य ः
13/5/2019/सोमवार



नमन भावों के मोती 🌹🙏🌹
13-5-2019
विषय:-पगडण्डी
विधा :- कुण्डलिया

( १ )

पगडण्डी है भूलती , दिल में हो तूफ़ान ।
टुकड़े दिल के टूट कर , करते पथ अवसान ।।
करते पथ अवसान , दिग्भ्रमित हम  हो जाते।
पिघले मन अवसाद , तभी आगे बढ पाते ।
आशा की इक रश्मि ,  दिखा देती है झण्डी ।
दिख जाती है दूर  , चली आती पगडण्डी ।।
( २ )

नागिन सी पगडण्डियाँ , कुदरत का उपहार ।
पड़ी धरा के वक्ष पर , ज्यों कुंदन के हार ।
ज्यों कुंदन के हार , बहुत सुंदर हैं लगती ।
होय चाँदनी रात , मोहिनी  बन कर ठगती ।
मंज़िल दिखती पास , पाँव पकड़े यह भागिन ।
लेती मन को मोह , नहीं डँसती यह नागिन ।।
( ३ )
रखती जब पनिहारिने , पगडण्डी पर पाँव ।
पायल उनकी रुनकती , देख पिया का ठाँव ।।
देख पिया का ठाँव , चाव उनको चढ़ जाता ।
बने बहाना नीर , हाथ घट को लगवाता ।
नैनों से कर बात , प्रेम का फल हैं चखती ।
देती है  संकेत , कुम्भ को सिर पर रखती ।।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )



आप सभी को हार्दिक नमस्कार
आज की प्रस्तुति में
*पगडंडियाँ*

पगडंडियाँ जीवन की
हमें कहाँ से कहाँ
ले जाती हैं ।

सुख दुख हर्ष उल्लास
जीवन के चौराहे पर
पगडंडियाँ ही मिलाती हैं।

जीवन पथ की ककहरा का
प्रथम अक्षर होती हैं ये
उबड़ खाबड़ पथ से
मंजिल तक पँहुचाती है।

आदिकाल से मानव का साथी
बीहड़ों में जंगलो में
पग चूमती सहलाती है।

पगडंडियाँ ही प्रथम पथ
बूँद से विराट तक
तल से ऊँचाई तक ले जाती है।

भूले भटके मनुज
तलाशता है पगडंडी
मंजिल की आस
ले चलती है साथ।

मील का पत्थर होती
मार्गदर्शक
मिट्टी की सोंधी महक लिए

आँचल धरा के जोड़ जाती है।

वर्तमान चकाचौंध में ,
बनते ,
काँक्रीट की सड़कें
रोज गिरते- मरते इंसान,
गाजर- मूली सा बिखरते।
जाने कहाँ ले जा
रही है ?

और पगडंडियाँ, खेतों- खलिहानों में सिमट
अपने अस्तित्व पर, आँसू बहा रही है।

स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़

13-5-2019



नमन "भावो के मोती"
13/05/19
विधा -कविता मुक्तक आधारित
विषय-पगडण्डी
🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿

भरोसा था कि एक दिन तुझे लौट आना है
तेरी यादों के झुरमुट से महकता कोना है
वो मीठा नीम ,महुआ,और वो पगडण्डी
जहाँ से प्यार की खुशबू को लौट आना है

वो खींचा प्यार से आँचल , जो लहराया
लहराती वालियों में अटका दुपट्टा था
जिसे तुमने हाथों से छू कर निकाला था
अब याद है पगडण्डी और झूमता साया

नजारे और भी है दिल को बहलाने के क़ाबिज
तेरी नजरों ने जो घायल कर दिया एक साया
लुटा कर हम चले अब आये हैं दिल का घरोंदा
दिखा नहीं ख्वाबों में भी वो पगडण्डी का हमसाया

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू


पगडण्डी
🎻🎻🎻🎻

गन्तव्य तक पहुचने का छोटा रस्ता
जब और न मिले कोई साधन सस्ता
पगडण्डी ढूँढनी पड़ती है
जब जेब की हो हालत ख़स्ता।

कुर्सी के लिये भी पगडण्डी ज़रूरी है
इसमेँ भी लगती मेहनत पूरी है
किस किस को पकडे़ं थामें हाथ
किसको छोडे़ं किसके लिये मज़बूरी है।

जीवन में पगडण्डी चुपके से काम कराती
पगडण्डी हर किसी के समझ न आती
पगडण्डी में बिरले ही मिलते हैं
पता नहीं चलता कब बडे़ बडे़ भी हिलते हैं।


नमन मंच, १३/०५/२०१९
विषय--पगडण्डी
लघु कविता

मैं ढूंढ रहा उन राहों को ,
जो पास तुम्हें ले आती थी।
मैं ढूंढ रहा वह पगडण्डी,
जो प्रीत निभाया करती थी।

मैं ढूंढ रहा वह प्यार प्रीत,
जो पगडण्डी में बसता था।
मैं ढूंढ रहा उन भावों को,
जो मन को लुभाया करते थे।
कहां गई वह पगडण्डी जिसमें सब यादें बसती थी?

न दिखती है वह पगडण्डी ,
न प्रीत दिखाई देती है।
इन काली सड़कों में तो बस,
दिल की पीर दिखाई देती है।

प्यार भरा था पगडण्डी में,
आमन्त्रण हर पल देती थी।
ये सड़कें हैं दानव सी दिखती,
नीरसता हर पल देती हैं।

मैं ढूंढ रहा हूं वह पगडण्डी ,
जो प्रीत निभाया करती थी।
(अशोक राय वत्स)© स्वरचित
जयपुर



नमन भावों के मोती
दिनाँक-13/05/2019
शीर्षक -पगडंडी
विधा-हाइकु

1.
राह दिखाती
हर मुसाफिर को
ये पगडंडी
2.
भीषण गर्मी
तपी है पगडंडी
दुपहरी में
3.
पार लगाती
ज्ञान की पगडंडी
मंजिल पाती
4.
सघन वन
विरान पगडंडी
शेर घूमते
*******
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा



पगडण्डी
--------------------------
जीवन की डगर
कठिन है बडी़
कठोर सड़कें
भीड़  भरी
वक्त कम है
सांसो का
करना काम
अभी बडा़ है
भीड़ भरी सड़कों से
हटकर
राह अपनी तू बना ले
शहरी भागम -भाग
से निकल
गाँवों को अपना ले
पगडण्डी पगडण्डी
चल कर
नया इतिहास बना ले।

      डा.नीलम .अजमेर



नमन माँ शारदे
13/5/2019
पगडंडी
हाइकु
1
पहाड़ी गांव
रोती पगडंडिया
लुप्त है छावं

2
पगडंडिया
रोते है खंडहर
ताके झरने
3
ज्ञान भंडार
शब्द है पगडंडी
मिले मंजिल

4
सूने पर्वत
रोये पगडंडिया
वृद्ध उदास

कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित देहरा दून



नमन  " भावों के मोती "
विषय - पगडंडी
13/05/ 2019

कृशकाय  पगडंडी पर
 कभी दौड़ते थे  रिश्ते
न  परखते अपनों को
न गैरों में मुरझाते
मंडराते उम्मीद के बादल
झड़ी  खुशियों की लगाते
 कृशकाय   पगडंडी  पर  दौड़ते  रिश्ते

तल्ख धूप  में
लुप्त हुई पगडंडी
रिश्ते   राह भटक गये
 रूखा पन दिखा धरा को
दिलों में खिंच  गई
 थामें अँगुली चलते  साथ
वो डगर बदल गई
सुख दुःख का उपजा घास
रिश्तों की चाल बदल गई
 अपनों को राह दिखाती
वो डगर बदल गई
धरा से सिमट अब दिलों में खिंच  गई
स्वरचित -
       - अनीता सैनी
(राजस्थान )



भावों के मोती
************
प्रदत्त शब्द : पगडंडी
******************
जीवन के रास्ते कभी आसान नहीं होते
तंग पंगडंडियों से होकर
ज़िदगी का सफर तय करना पड़ता है
इन ऊँची नीची ,टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियाँ पे चलकर
राहों से काँटे चुनते
यादों के झिलमिलाते जुगनू
की रौशनी में गिरते पड़ते
मंज़िल पा लेने की खुशी
लाजवाब होती है !
इन राहों पर
खो जाने का डर नहीं होता है !
स्वरचित (C)भार्गवी रविन्द्र ....बेंगलूर








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