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ब्लॉग संख्या :-381
नमन मंच भावों के मोती
शीर्षक अस्तित्व,वज़ूद
विधा लघुकविता
09 मई 2019,गुरुवार
अस्तित्व मानव चरित्र है
श्रम बल से इसको पाते
कड़ी मेहनत नित करते
गीत खुशी फिर हम गाते
खून पसीना सदा बहाता
परोपकार लिये जग जीता
खुद का जीना भी क्या जीना
परार्थ हेतु ही जीवन बीता
बनता है अस्तित्व है उनका
जो कांटो पर नित चलते हैं
रोते नहीं कभी जीवन मे वे
हँसी खुशी नित आगे बढ़ते हैं
अनल अनिल जल वायु धरा
पंचतत्व का निज वजूद है
प्रकृति का नियमित संचालन
सनातन काल यह प्रसिद्ध है
अस्तित्व कँही मिलता नहीं
नित अस्तित्व बनाना पड़ता
कड़ी मेहनत करता जीवन मे
फिर वह नर तब आगे बढ़ता
जीवन जीना भव्य कला है
सब अपने अपने रंग भरते
कोई कलात्मक चिन्ह बनाता
स्वर्णिम शब्द इतिहास रचते
अस्तित्व गुणों की पहचान
आन मान सम्मान ज्ञान है
सत्य अहिंसा धारित वह नर
इसीलिये तो जग महान है।।
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
शीर्षक अस्तित्व,वज़ूद
विधा लघुकविता
09 मई 2019,गुरुवार
अस्तित्व मानव चरित्र है
श्रम बल से इसको पाते
कड़ी मेहनत नित करते
गीत खुशी फिर हम गाते
खून पसीना सदा बहाता
परोपकार लिये जग जीता
खुद का जीना भी क्या जीना
परार्थ हेतु ही जीवन बीता
बनता है अस्तित्व है उनका
जो कांटो पर नित चलते हैं
रोते नहीं कभी जीवन मे वे
हँसी खुशी नित आगे बढ़ते हैं
अनल अनिल जल वायु धरा
पंचतत्व का निज वजूद है
प्रकृति का नियमित संचालन
सनातन काल यह प्रसिद्ध है
अस्तित्व कँही मिलता नहीं
नित अस्तित्व बनाना पड़ता
कड़ी मेहनत करता जीवन मे
फिर वह नर तब आगे बढ़ता
जीवन जीना भव्य कला है
सब अपने अपने रंग भरते
कोई कलात्मक चिन्ह बनाता
स्वर्णिम शब्द इतिहास रचते
अस्तित्व गुणों की पहचान
आन मान सम्मान ज्ञान है
सत्य अहिंसा धारित वह नर
इसीलिये तो जग महान है।।
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
।। अस्तित्व/वज़ूद ।।
वजूद बरकरारी है अब भारी
छोटा बड़ा सभी संग लाचारी ।।
गाँव से भाग रहे शहर दंपति
दलाल आधी दें उन्हे दिहाड़ी ।।
कैसे गुजर बसर हो उनका
खाए रोटी बिना तरकारी ।।
बड़े प्रतिष्ठान खोले हैं जो
है उनके संग भी दुश्वारी ।।
क्या क्या नही व्याप्त बुराई
चोरी डकैती और रंगदारी ।।
हम से अच्छे पशु पक्षी हैं
नही उनमें है यह गद्दारी ।।
मगर आज वो भी सताये
यह मानव है या बीमारी ।।
मानव बना ईश भी रोया
है संकट में सृष्टि सारी ।।
अपने वजूद पर ही 'शिवम'
मानव मारे आज कुल्हाड़ी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/05/2019
वजूद बरकरारी है अब भारी
छोटा बड़ा सभी संग लाचारी ।।
गाँव से भाग रहे शहर दंपति
दलाल आधी दें उन्हे दिहाड़ी ।।
कैसे गुजर बसर हो उनका
खाए रोटी बिना तरकारी ।।
बड़े प्रतिष्ठान खोले हैं जो
है उनके संग भी दुश्वारी ।।
क्या क्या नही व्याप्त बुराई
चोरी डकैती और रंगदारी ।।
हम से अच्छे पशु पक्षी हैं
नही उनमें है यह गद्दारी ।।
मगर आज वो भी सताये
यह मानव है या बीमारी ।।
मानव बना ईश भी रोया
है संकट में सृष्टि सारी ।।
अपने वजूद पर ही 'शिवम'
मानव मारे आज कुल्हाड़ी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/05/2019
🙏नमन मंच🙏
आदरणीय गुरुजन
🙏को नमन🙏
🙏🌹🙏
विषय-अस्तित्व/वजूद
दिनांक-०९-०५-२०१९
कागज के फूल बनाती
और मिटाती रही वह
पर फूल #अस्तित्व में
न आया
समुद्र की लहरों में
प्रतिबिंब निहारते बीते
चार दिन
पर रूप मिल न पाया
आइने में बैठ करती रही
श्रृंगार रात भर
कोई देख न पाया
विरह की आग में तड़फी
वह सारी रात
मिलन हो न पाया
समा गई वह आतंक की
आगोश में
कोई बचा न पाया
रात थी जो लुट गई
सुबह की आस में
किसी ने चाहा ही नहीं
कोई चाहकर भी न उसे
बेदाग़ कर पाया !
***स्वरचित***
-सीमा आचार्य-(म.प्र)
आदरणीय गुरुजन
🙏को नमन🙏
🙏🌹🙏
विषय-अस्तित्व/वजूद
दिनांक-०९-०५-२०१९
कागज के फूल बनाती
और मिटाती रही वह
पर फूल #अस्तित्व में
न आया
समुद्र की लहरों में
प्रतिबिंब निहारते बीते
चार दिन
पर रूप मिल न पाया
आइने में बैठ करती रही
श्रृंगार रात भर
कोई देख न पाया
विरह की आग में तड़फी
वह सारी रात
मिलन हो न पाया
समा गई वह आतंक की
आगोश में
कोई बचा न पाया
रात थी जो लुट गई
सुबह की आस में
किसी ने चाहा ही नहीं
कोई चाहकर भी न उसे
बेदाग़ कर पाया !
***स्वरचित***
-सीमा आचार्य-(म.प्र)
_नमन9 मई 2019
********************
बहुत दिनों तक मेरे अपने खास रहे
कुछ दर्द लिपटकर मेरे पास रहे।
वफ़ा दर्द ने , मुझ पर ऐसी की
खुशियों में भी ज्यादातर उदास रहे।
बता जिंदगी बसर में तेरा ठीकाना कहाँ
जहां भी रहूँ बस तू मेरे आस पास रहे।
जद्दोजहद मे खुद को ही मैं खो आया
अब खुदमें खुद के वजूद को तलाश रहे ।
दर्द हद है तो , वह भी गुजर जायेगा
ए वक्त मरते दम तू मेरी सॉस रहे।
इत्तला में रहकर रहूं या मैं नहीं रहूं
ठिकानों पे आरजुओं की आस रहे।
फकत बुझती कहाँ दिलों की प्यास
अश्क ए समुंदर पानी के जो हम पास रहे।
पी राय राठी
राजस्थान
********************
बहुत दिनों तक मेरे अपने खास रहे
कुछ दर्द लिपटकर मेरे पास रहे।
वफ़ा दर्द ने , मुझ पर ऐसी की
खुशियों में भी ज्यादातर उदास रहे।
बता जिंदगी बसर में तेरा ठीकाना कहाँ
जहां भी रहूँ बस तू मेरे आस पास रहे।
जद्दोजहद मे खुद को ही मैं खो आया
अब खुदमें खुद के वजूद को तलाश रहे ।
दर्द हद है तो , वह भी गुजर जायेगा
ए वक्त मरते दम तू मेरी सॉस रहे।
इत्तला में रहकर रहूं या मैं नहीं रहूं
ठिकानों पे आरजुओं की आस रहे।
फकत बुझती कहाँ दिलों की प्यास
अश्क ए समुंदर पानी के जो हम पास रहे।
पी राय राठी
राजस्थान
उम़ के पड़ाव में वजूद
भी ढल गया
ढलती हुई शाम का
तारा भी हमें छल गया
इस फरेबी जहॉ में
सदा ही ठगाते रहे
ज्यों ही सम्भलते
लोग गिराते रहे
दुनियॉ के अथाह
सागर में गोते लगा लगाकर
स्वयं का अस्तित्व बचाते रहे
दर्द अनेकों सहे और
मुस्कराते रहे
भावों के मोतियों को
सहेजा है सीप सा
मन के मंदिर में
जलाया है दीप सा
समझे न कोई बस
हैं हम नाम के
कुछ तो दे जायंगे
हम भी हैं कुछ काम के
नमन , स्वरचित ,९मई ,२०१९ /
भी ढल गया
ढलती हुई शाम का
तारा भी हमें छल गया
इस फरेबी जहॉ में
सदा ही ठगाते रहे
ज्यों ही सम्भलते
लोग गिराते रहे
दुनियॉ के अथाह
सागर में गोते लगा लगाकर
स्वयं का अस्तित्व बचाते रहे
दर्द अनेकों सहे और
मुस्कराते रहे
भावों के मोतियों को
सहेजा है सीप सा
मन के मंदिर में
जलाया है दीप सा
समझे न कोई बस
हैं हम नाम के
कुछ तो दे जायंगे
हम भी हैं कुछ काम के
नमन , स्वरचित ,९मई ,२०१९ /
1*भा.9/5/2019गुरुवार
बिषयःःः #अस्तित्व/वजूद#
विधाःःःकाव्यःःः
जो भी है सब प्रभु के हाथों में,
क्यों अस्तित्व तलाशते रहते हैं।
अस्तित्व विहीन होकर भी यहां
क्या हम भगवान ढूंढते रहते हैं।
अपना क्या अस्तित्व यहां पर
मिला शरीर तो मर मिट जाता।
मोह माया में लिपट लिपटकर,
फिर इसी मिट्टी में मिल जाता।
बचाना चाहते थोड़ा वजूद तो,
कुछ अपनी गरिमा भी पहचानें।
रहें चरित्रवान तो ठीक है वरना,
अस्तित्व हीन हम स्वयं को मानें।
पुरूषार्थ परोपकार कुछ करलें।
अस्तित्व हेतु शुभ झोली भर लें।
क्या लगती नहीं दुनिया मायावी
मिटते वजूद में गंगाजल भर लें।
स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम
#अस्तित्व /वजूद #काव्य ः
1भा.*9/5/2019/
बिषयःःः #अस्तित्व/वजूद#
विधाःःःकाव्यःःः
जो भी है सब प्रभु के हाथों में,
क्यों अस्तित्व तलाशते रहते हैं।
अस्तित्व विहीन होकर भी यहां
क्या हम भगवान ढूंढते रहते हैं।
अपना क्या अस्तित्व यहां पर
मिला शरीर तो मर मिट जाता।
मोह माया में लिपट लिपटकर,
फिर इसी मिट्टी में मिल जाता।
बचाना चाहते थोड़ा वजूद तो,
कुछ अपनी गरिमा भी पहचानें।
रहें चरित्रवान तो ठीक है वरना,
अस्तित्व हीन हम स्वयं को मानें।
पुरूषार्थ परोपकार कुछ करलें।
अस्तित्व हेतु शुभ झोली भर लें।
क्या लगती नहीं दुनिया मायावी
मिटते वजूद में गंगाजल भर लें।
स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम
#अस्तित्व /वजूद #काव्य ः
1भा.*9/5/2019/
नमन भावों के मोती,
आज का विषय, अस्तित्व, वजूद,
दिन, गुरूवार,
दिनांक, 9,5,2019,
नारी अस्तित्व
आखिर कब तक
संघर्ष रत ।
जीवन यात्रा
कोशिश निरंतर
रहे अस्तित्व ।
मिटा वजूद
पालक भूतपूर्व
कभी अपूर्व।
ढूंढते आज
सच्चाई का वजूद
निराशा हाथ।
सफल युवा
परवाह वजूद
श्रम अटूट ।
रूप सौन्दर्य
पहचान वजूद
बहुत खूब ।
भारतवर्ष
सम्मानित वजूद
देश विदेश ।
नष्ट वजूद
प्राकृतिक सम्पदा
कितने जीव।
छीना झपटी
मारकाट आतंक
चाह वजूद।
अस्तित्व स्थायी
भावना सेवकाई
सबके लिए।
जल सम्पदा
खतरे में अस्तित्व
ये प्रदूषित।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
आज का विषय, अस्तित्व, वजूद,
दिन, गुरूवार,
दिनांक, 9,5,2019,
नारी अस्तित्व
आखिर कब तक
संघर्ष रत ।
जीवन यात्रा
कोशिश निरंतर
रहे अस्तित्व ।
मिटा वजूद
पालक भूतपूर्व
कभी अपूर्व।
ढूंढते आज
सच्चाई का वजूद
निराशा हाथ।
सफल युवा
परवाह वजूद
श्रम अटूट ।
रूप सौन्दर्य
पहचान वजूद
बहुत खूब ।
भारतवर्ष
सम्मानित वजूद
देश विदेश ।
नष्ट वजूद
प्राकृतिक सम्पदा
कितने जीव।
छीना झपटी
मारकाट आतंक
चाह वजूद।
अस्तित्व स्थायी
भावना सेवकाई
सबके लिए।
जल सम्पदा
खतरे में अस्तित्व
ये प्रदूषित।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
भावों के मोती
9/05/19
विषय - अस्तित्व /वजूद
अस्तित्व और अस्मिता बचाने की लडाई
खूब लडो जुझारू हो कर लड़ो
पर रुको सोचो ये सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई है या चूकते जा रहे संस्कारों की प्रतिछाया...
जब दीमक लगी हो नीव में
फिर हवेली कैसे बच पायेगी
नीव को खाते खाते
दिवारें हिल जायेगी
एक छोटी आंधी भी
वो इमारत गिरायगी
रंग रौगन खूब करलो
कहां वो बच पायेगी।
नीड़ तिनकों के तो सुना
ढहाती है आंधियां
घरौंदे माटी के भी
तोडती है बारिशें
संस्कारों की जब
टूटती है डोरिया
उन कच्चे धागों पर कैसे
शामियाने टिक पायेंगे।
समय ही क्या बदला है
या हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र में सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
पर अब तो दारुण दावानल है
जल रहा समाज जलता सदाचरण है
क्या होगा अंत गर ये शुरूआत है
केशव तो नही आयेंगे ये निश्चित है
कुछ ढूंढना होगा इसी परिदृश्य में
अस्मिता का युद्ध स्वयं लड़ना होगा
संयम और संस्कारों को गढ़ना होगा।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
9/05/19
विषय - अस्तित्व /वजूद
अस्तित्व और अस्मिता बचाने की लडाई
खूब लडो जुझारू हो कर लड़ो
पर रुको सोचो ये सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई है या चूकते जा रहे संस्कारों की प्रतिछाया...
जब दीमक लगी हो नीव में
फिर हवेली कैसे बच पायेगी
नीव को खाते खाते
दिवारें हिल जायेगी
एक छोटी आंधी भी
वो इमारत गिरायगी
रंग रौगन खूब करलो
कहां वो बच पायेगी।
नीड़ तिनकों के तो सुना
ढहाती है आंधियां
घरौंदे माटी के भी
तोडती है बारिशें
संस्कारों की जब
टूटती है डोरिया
उन कच्चे धागों पर कैसे
शामियाने टिक पायेंगे।
समय ही क्या बदला है
या हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र में सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
पर अब तो दारुण दावानल है
जल रहा समाज जलता सदाचरण है
क्या होगा अंत गर ये शुरूआत है
केशव तो नही आयेंगे ये निश्चित है
कुछ ढूंढना होगा इसी परिदृश्य में
अस्मिता का युद्ध स्वयं लड़ना होगा
संयम और संस्कारों को गढ़ना होगा।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
तुम्हें तो पता था
तुम्हारे बिना जीवन अस्तित्व हीन है
मैं अकेली रह जाऊँगी
भर न सकूँगी उस खालीपन को
जो तुम्हारे जाने से होगा
किसी से कह न सकूगी
बस घुटती रहूँगी
और करती रहूँगी
आने की प्रतीक्षा
जाने से पहले सोचते जरा
मेरा वजूद जो तुमसे था
अब कहाँ होगा
सोचते जरा
तुम्हारे बिना जीवन
इस जीवित लाश में
कैसे ढो सकूँगी
मेरे प्राण तुम्हीं निकल गये तो
इस संसार में मेरा अस्तित्व कहाँ
स्वरचित संध्या गर्ग त्रिपाठी
तुम्हारे बिना जीवन अस्तित्व हीन है
मैं अकेली रह जाऊँगी
भर न सकूँगी उस खालीपन को
जो तुम्हारे जाने से होगा
किसी से कह न सकूगी
बस घुटती रहूँगी
और करती रहूँगी
आने की प्रतीक्षा
जाने से पहले सोचते जरा
मेरा वजूद जो तुमसे था
अब कहाँ होगा
सोचते जरा
तुम्हारे बिना जीवन
इस जीवित लाश में
कैसे ढो सकूँगी
मेरे प्राण तुम्हीं निकल गये तो
इस संसार में मेरा अस्तित्व कहाँ
स्वरचित संध्या गर्ग त्रिपाठी
नमन🙏🙏 मंच-भावों के मोती
दिनांक-09.05.2019
आज का विषय -वजूद
🌹🍁🌹🍁🌹 🌹
विधा-मुक्तक
1))))
वजूद का है खेल सारा इन्सान के अभिमान पर
जो लुटा दे जांन -ओ-तन देश के अभिमान पर
सफल हो जायेगा तब अस्तित्व उस का प्रथ्वी पर
कुछ करो सत्कर्म तुम उंगली न उठे अभिमान पर
2))))
मेरे वजूद को न टटोलना तुम दुनिया वालों
खुशियाँ अपनों के लिये लुटा दी दुनियाँ वालों
माँ, बेटी, पत्नी, मित्र और सवसे पहले नारी हूँ
क्यों अपने वजूद के लिये लड़ रही दुनिया वालों
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
दिनांक-09.05.2019
आज का विषय -वजूद
🌹🍁🌹🍁🌹 🌹
विधा-मुक्तक
1))))
वजूद का है खेल सारा इन्सान के अभिमान पर
जो लुटा दे जांन -ओ-तन देश के अभिमान पर
सफल हो जायेगा तब अस्तित्व उस का प्रथ्वी पर
कुछ करो सत्कर्म तुम उंगली न उठे अभिमान पर
2))))
मेरे वजूद को न टटोलना तुम दुनिया वालों
खुशियाँ अपनों के लिये लुटा दी दुनियाँ वालों
माँ, बेटी, पत्नी, मित्र और सवसे पहले नारी हूँ
क्यों अपने वजूद के लिये लड़ रही दुनिया वालों
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
भावों के मोती
बिषय- अस्तित्व
अपना अस्तित्व तक भूलाकर
जो रह जाती है केवल,
माँ,बहन, बेटी,बीबी बनकर।
बदले में क्या पाती है,
तिरस्कार और मार के सिवा।
पुरुष ना कभी समझा है
और ना ही कभी समझेगा
नारी के नाज़ुक अहसासों को।
अगर नारी को चाहिए
प्रेम,सम्मान और पहचान
तो अपने सोये आत्मविश्वास को
फिर स उसेे जगाना होगा।
अन्याय अत्याचार का विरोध
डटकर करना होगा।
वरना तो वो हमेशा की तरह
अबला, बेचारी ही बनी रहेगी।
पुरुष के हर ज़ुल्म को बस
सर झुकाए सहती रहेगी।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
बिषय- अस्तित्व
अपना अस्तित्व तक भूलाकर
जो रह जाती है केवल,
माँ,बहन, बेटी,बीबी बनकर।
बदले में क्या पाती है,
तिरस्कार और मार के सिवा।
पुरुष ना कभी समझा है
और ना ही कभी समझेगा
नारी के नाज़ुक अहसासों को।
अगर नारी को चाहिए
प्रेम,सम्मान और पहचान
तो अपने सोये आत्मविश्वास को
फिर स उसेे जगाना होगा।
अन्याय अत्याचार का विरोध
डटकर करना होगा।
वरना तो वो हमेशा की तरह
अबला, बेचारी ही बनी रहेगी।
पुरुष के हर ज़ुल्म को बस
सर झुकाए सहती रहेगी।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
नमन् भावों केमोती
दिनांक 09/05/19
विषय अस्तित्व/वजूद
विधा कविता
मनुष्य अपना
अस्तित्व ढूंढ़ता है
कभी संसार के झमेलों में
कभी बाजार मेलों में
भूख से तड़पता
सब भूल जाता
क्षुधा तृप्ति में खो जाता
अस्तित्व का विचार खो जाता नेपथ्य में
खुशियों के झोली में स्वयं को भूल जाता
जन्म से लेकर मृत्यु तक
बस झंझटों में फंस जाता
इस मायावी दुनिया में
अपना अस्तित्व खोजता है
मनुष्य अपना
अस्तित्व ढूंढ़ता है
स्वरचित
मनीष श्री
रायबरेली
दिनांक 09/05/19
विषय अस्तित्व/वजूद
विधा कविता
मनुष्य अपना
अस्तित्व ढूंढ़ता है
कभी संसार के झमेलों में
कभी बाजार मेलों में
भूख से तड़पता
सब भूल जाता
क्षुधा तृप्ति में खो जाता
अस्तित्व का विचार खो जाता नेपथ्य में
खुशियों के झोली में स्वयं को भूल जाता
जन्म से लेकर मृत्यु तक
बस झंझटों में फंस जाता
इस मायावी दुनिया में
अपना अस्तित्व खोजता है
मनुष्य अपना
अस्तित्व ढूंढ़ता है
स्वरचित
मनीष श्री
रायबरेली
सुप्रभात।
वज़ूद
💐💐💐
आज आदमी वजूद खोता जा रहा..
पैसा हावी हो जा रहा!
रिश्ते नाते छूटे जा रहे...
अपने मे सिमटता जा रहा आदमी।
एक आंगन ने रहते थे मिलकर
आंगन में कई घर बनाता आदमी!!
मां बाबा ने सवारें कई अनमोल रतन
मां बाबा को किनारे करता आदमी।
अब न दिखतीअपनी संस्कृति कहीं
संस्कारों को दर किनार करता आदमी।
अपनी हिंदी पे न अभिमान रहा है अब
अपनी भाषा का वज़ूद मिटाता आदमी।
💐💐💐💐
स्मृति श्रीवास्तव
वज़ूद
💐💐💐
आज आदमी वजूद खोता जा रहा..
पैसा हावी हो जा रहा!
रिश्ते नाते छूटे जा रहे...
अपने मे सिमटता जा रहा आदमी।
एक आंगन ने रहते थे मिलकर
आंगन में कई घर बनाता आदमी!!
मां बाबा ने सवारें कई अनमोल रतन
मां बाबा को किनारे करता आदमी।
अब न दिखतीअपनी संस्कृति कहीं
संस्कारों को दर किनार करता आदमी।
अपनी हिंदी पे न अभिमान रहा है अब
अपनी भाषा का वज़ूद मिटाता आदमी।
💐💐💐💐
स्मृति श्रीवास्तव
नमन मंच
❤️💞⛳
तप रही है ये धरा सब वृक्ष कटते जा रहे है,
नीम पीपल बेर महुआ, दूर होते जा रहे है।
....
एक तुलसी ही बची है लड रही अस्तित्व से जो,
घर मे आँगन ही नही है मूढ होते जा रहे है।
.....
एक पीपल को लगाया शेर ने गमले मे अपने,
झूमता हर एक पत्ता शेर के आँगन व घर मे।
....
तुम भी कोशिश करके देखो,तब रहे आनन्द मे जग,
एक छोटा सा बागीचा तुम बनाओ अपने घर मे।
....
स्वरचित एवं मौलिक
शेरसिंह राजन सर्राफ
❤️💞⛳
तप रही है ये धरा सब वृक्ष कटते जा रहे है,
नीम पीपल बेर महुआ, दूर होते जा रहे है।
....
एक तुलसी ही बची है लड रही अस्तित्व से जो,
घर मे आँगन ही नही है मूढ होते जा रहे है।
.....
एक पीपल को लगाया शेर ने गमले मे अपने,
झूमता हर एक पत्ता शेर के आँगन व घर मे।
....
तुम भी कोशिश करके देखो,तब रहे आनन्द मे जग,
एक छोटा सा बागीचा तुम बनाओ अपने घर मे।
....
स्वरचित एवं मौलिक
शेरसिंह राजन सर्राफ
मंच नमन : भावों के मोती
तिथि : 9 मई 2019
वार : गुरुवार
शब्द है :अस्तित्व/ वजूद
मेरा
अस्तित्व
क्या है !
तेरा
यहां
क्या है
वजूद !!
जो आया है
उसे जाना है
फिर किस बात का
गुमां
किस बात का
ज़िद !!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
तिथि : 9 मई 2019
वार : गुरुवार
शब्द है :अस्तित्व/ वजूद
मेरा
अस्तित्व
क्या है !
तेरा
यहां
क्या है
वजूद !!
जो आया है
उसे जाना है
फिर किस बात का
गुमां
किस बात का
ज़िद !!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
नमन मंच
दिनांक - 09/05/2019
विषय - आस्तित्व /वजूद
🍇🍇आस्तित्व 🍇🍇
लहरों को छूती
करती नृत्य उन पर
स्वर्णिम किरणें
लगता जैसे तरंगित असंख्य मृदंग के तारों पर
गूँज उठी हों
सामवेद की ऋचाएं
और होता चैतन्य
सृष्टि का कण - कण
हर पल रहते गुलजार
अपने जहान को चहचआहटों से
मुग्ध होता वह दरख्त
अपनी शाखों पर
उमंगों के हिल्लोरों में
समेटे स्वयं को
उछलती, तो कभी दौड़ती
वह अल्हड़ नदी
मंडराते हुए वे नटखट बादल
बुझाते अपने जल कणों से
धरती की प्यास
दूर उस कोने में
खींचा सतरंगा इन्द्रधनुष
जिसके रंगों पर
नृत्य करती
उल्लास से भरपूर
नव जीवन की आस
इन्हीं से सिंचित
इनके ही वजूद में छिपा
धरती का आस्तित्व।
डॉ उषा किरण
दिनांक - 09/05/2019
विषय - आस्तित्व /वजूद
🍇🍇आस्तित्व 🍇🍇
लहरों को छूती
करती नृत्य उन पर
स्वर्णिम किरणें
लगता जैसे तरंगित असंख्य मृदंग के तारों पर
गूँज उठी हों
सामवेद की ऋचाएं
और होता चैतन्य
सृष्टि का कण - कण
हर पल रहते गुलजार
अपने जहान को चहचआहटों से
मुग्ध होता वह दरख्त
अपनी शाखों पर
उमंगों के हिल्लोरों में
समेटे स्वयं को
उछलती, तो कभी दौड़ती
वह अल्हड़ नदी
मंडराते हुए वे नटखट बादल
बुझाते अपने जल कणों से
धरती की प्यास
दूर उस कोने में
खींचा सतरंगा इन्द्रधनुष
जिसके रंगों पर
नृत्य करती
उल्लास से भरपूर
नव जीवन की आस
इन्हीं से सिंचित
इनके ही वजूद में छिपा
धरती का आस्तित्व।
डॉ उषा किरण
नमन भावों के मोती
विषय - सत्य का डोलता अस्तित्व
09/05/2019
वक्त के थपेड़ों से
मन कुछ डोल सा गया
बुनियाद पर किया विचार
फ़िर आज को तोल सा गया
खतरे में अस्तित्व
छूट रही पहचान
गर्दिश चहरे पर
खोखला हुआ इनाम
झूठ, हिंसा, भारी तन पर
रहा, सत्ता शक्ति का हाथ
राह चुनी प्रीत की
हुई द्वेष के साथ
समय के सागर में
निष्ठा और आत्मविश्वास
क़दमों को गढ़ाए रखा
साथ अटूट विश्वास |
स्वरचित -
- अनीता सैनी
विषय - सत्य का डोलता अस्तित्व
09/05/2019
वक्त के थपेड़ों से
मन कुछ डोल सा गया
बुनियाद पर किया विचार
फ़िर आज को तोल सा गया
खतरे में अस्तित्व
छूट रही पहचान
गर्दिश चहरे पर
खोखला हुआ इनाम
झूठ, हिंसा, भारी तन पर
रहा, सत्ता शक्ति का हाथ
राह चुनी प्रीत की
हुई द्वेष के साथ
समय के सागर में
निष्ठा और आत्मविश्वास
क़दमों को गढ़ाए रखा
साथ अटूट विश्वास |
स्वरचित -
- अनीता सैनी
दि- 9-5-19
विषय- अस्तित्व / बजूद
सादर मंच को समर्पित -
🌺 अस्तित्व 🌺
🐚🐵 कला शिल्पी कुम्भकार 🍜🍃
*******************************
🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
चुन चुन खोद कर ,
ठोक पीट मृदु कर ,
चाक पर खराद कर,
यंत्रवत देता आकार ,
सुन्दर दीप हजार,
वाह रे कुम्भकार..!
दीन बाल सुखा रहा,
अवली बिछा रहा,
विकृति तराश रहा,
धूप कडी़ सुखा रहा,
पावन दीप पसार ,
वाह रे कुम्भकार ..!
पका कर सजा दिये ,
श्रम बिन्दु मूल्य लिए ,
तम मिटाने के लिए ,
मातृभूमि माटी दिये ,
दीपावली त्यौहार ,
वाह रे कुम्भकार..!
भूख पापी पेट की ,
कुशल हस्तशिल्प की ,
रोटी रोजगार की ,
परिणिति अथाह श्रम की ,
स्वदेशी दीप हमार ,
वाह रे कुम्भकार..!
पाश्चात्य संस्कृति से,
जहरीली प्लासटिक प्रयोग से
सुगम मशीनीकरण से
अस्तित्व है खतरे में ,
नयी पीड़ी न करने को तैयार..,
वाह रे कुम्भकार..!
उचित मूल्य तो मिले,
नयी तकनीक मिले ,
पूर्ण प्रोत्साहन मिले ,
हिल- मिल परिवार खिले ,
विदेशी का करें बहिष्कार ,
हँसे , शिल्पी कुम्भकार....!!
🍑🌱🌸🌳🍑
🍲🍥 **** .... रवीन्द्र वर्मा आगरा
विषय- अस्तित्व / बजूद
सादर मंच को समर्पित -
🌺 अस्तित्व 🌺
🐚🐵 कला शिल्पी कुम्भकार 🍜🍃
*******************************
🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
चुन चुन खोद कर ,
ठोक पीट मृदु कर ,
चाक पर खराद कर,
यंत्रवत देता आकार ,
सुन्दर दीप हजार,
वाह रे कुम्भकार..!
दीन बाल सुखा रहा,
अवली बिछा रहा,
विकृति तराश रहा,
धूप कडी़ सुखा रहा,
पावन दीप पसार ,
वाह रे कुम्भकार ..!
पका कर सजा दिये ,
श्रम बिन्दु मूल्य लिए ,
तम मिटाने के लिए ,
मातृभूमि माटी दिये ,
दीपावली त्यौहार ,
वाह रे कुम्भकार..!
भूख पापी पेट की ,
कुशल हस्तशिल्प की ,
रोटी रोजगार की ,
परिणिति अथाह श्रम की ,
स्वदेशी दीप हमार ,
वाह रे कुम्भकार..!
पाश्चात्य संस्कृति से,
जहरीली प्लासटिक प्रयोग से
सुगम मशीनीकरण से
अस्तित्व है खतरे में ,
नयी पीड़ी न करने को तैयार..,
वाह रे कुम्भकार..!
उचित मूल्य तो मिले,
नयी तकनीक मिले ,
पूर्ण प्रोत्साहन मिले ,
हिल- मिल परिवार खिले ,
विदेशी का करें बहिष्कार ,
हँसे , शिल्पी कुम्भकार....!!
🍑🌱🌸🌳🍑
🍲🍥 **** .... रवीन्द्र वर्मा आगरा
जय माँ शारदा..
...सादर नमन भावों के मोती...
दि. - 09.05.19
विषय - अस्तित्व
विधा - गीतिका
मापनी - 1222 1222 1222 1222
==========================
चलो अस्तित्व को अपने सुखद पहचान देते हैं |
सतत चलते हुए निज कर्म पथ पर ध्यान देते हैं ||
बड़ा अनमोल है जीवन इसे यूँ ही गँवाना क्या,
समझ कर मोल इसका नित नवल उत्थान देते हैं |
मिला जो भी मुकद्दर से उसी में खुश रहें आओ,
अधूरी हसरतों को हम चलो अवसान देते हैं |
करें हम काम ऐसे ये ज़माना नाम ले अपना,
अमर अस्तित्व हो जाए यही अह्वान देते हैं |
हमारे बाद भी ज़िंदा रहे अस्तित्व दुनिया में,
चलो इस ज़िंदगानी को अमर अभिमान देते हैं |
==========================
#स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
...सादर नमन भावों के मोती...
दि. - 09.05.19
विषय - अस्तित्व
विधा - गीतिका
मापनी - 1222 1222 1222 1222
==========================
चलो अस्तित्व को अपने सुखद पहचान देते हैं |
सतत चलते हुए निज कर्म पथ पर ध्यान देते हैं ||
बड़ा अनमोल है जीवन इसे यूँ ही गँवाना क्या,
समझ कर मोल इसका नित नवल उत्थान देते हैं |
मिला जो भी मुकद्दर से उसी में खुश रहें आओ,
अधूरी हसरतों को हम चलो अवसान देते हैं |
करें हम काम ऐसे ये ज़माना नाम ले अपना,
अमर अस्तित्व हो जाए यही अह्वान देते हैं |
हमारे बाद भी ज़िंदा रहे अस्तित्व दुनिया में,
चलो इस ज़िंदगानी को अमर अभिमान देते हैं |
==========================
#स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
नमन मंच को
विषय : वजूद/अस्तित्व
दिनांक : 09/04/2019
वजूद/अस्तित्व
जब दौड़ ही हो बस कुर्सी की तो,
वजूद भी अपना छुपाया जा सकता है।
जब मतदाता भी सामने हो तो,
जहर भी खाया जा सकता है।
इस कुर्सी की यारो ताकत तो देखो,
कुछ भी खा कर पचाया जा सकता है।
भले ही दिल में नफ़रत भरी हो पर,
सामने तो झूठा मुस्कुराया जा सकता है।
कर न पाओ काम, कोई बात नहीं पर,
जनता को मूर्ख तो बनाया जा सकता है।
बहुत खवाहिशें हैं लोगों की आंखों में देखो,
कम से कम हवाई ख्वाब तो सजाया जा सकता है।
हद से ज्यादा न बिगाड़िए रिश्ते यहां,
गठबंधन में किसी से भी हाथ मिलाया जा सकता है।
न पहले कुछ हुआ न आगे कुछ होगा,
लोकतंत्र में लोगों को बरगलाया जा सकता है।
क्या लेना है किसी के दुख दूर कर,
पर चुनाव में गले तो लगाया जा सकता है।
यहां धर्म तो मात्र रास्ता है कुर्सी का,
कभी अल्ला तो कभी राम गाया जा सकता है।
यहां मतदाताओं की संख्या तय करती है,
कभी परदे पे अंबेदकर तो कभी हटाया जा सकता है।
यहां असल चेहरा तो किसी का भी नहीं,
अस्तित्व तो कोई भी बनाया जा सकता है।
असल वजूद न ढूँढों यहां किसी का यारो,
राजनीति में रंग कोई भी चढ़ाया जा सकता है।
जय हिन्द
स्वरचित : राम किशोर, पंजाब ।
विषय : वजूद/अस्तित्व
दिनांक : 09/04/2019
वजूद/अस्तित्व
जब दौड़ ही हो बस कुर्सी की तो,
वजूद भी अपना छुपाया जा सकता है।
जब मतदाता भी सामने हो तो,
जहर भी खाया जा सकता है।
इस कुर्सी की यारो ताकत तो देखो,
कुछ भी खा कर पचाया जा सकता है।
भले ही दिल में नफ़रत भरी हो पर,
सामने तो झूठा मुस्कुराया जा सकता है।
कर न पाओ काम, कोई बात नहीं पर,
जनता को मूर्ख तो बनाया जा सकता है।
बहुत खवाहिशें हैं लोगों की आंखों में देखो,
कम से कम हवाई ख्वाब तो सजाया जा सकता है।
हद से ज्यादा न बिगाड़िए रिश्ते यहां,
गठबंधन में किसी से भी हाथ मिलाया जा सकता है।
न पहले कुछ हुआ न आगे कुछ होगा,
लोकतंत्र में लोगों को बरगलाया जा सकता है।
क्या लेना है किसी के दुख दूर कर,
पर चुनाव में गले तो लगाया जा सकता है।
यहां धर्म तो मात्र रास्ता है कुर्सी का,
कभी अल्ला तो कभी राम गाया जा सकता है।
यहां मतदाताओं की संख्या तय करती है,
कभी परदे पे अंबेदकर तो कभी हटाया जा सकता है।
यहां असल चेहरा तो किसी का भी नहीं,
अस्तित्व तो कोई भी बनाया जा सकता है।
असल वजूद न ढूँढों यहां किसी का यारो,
राजनीति में रंग कोई भी चढ़ाया जा सकता है।
जय हिन्द
स्वरचित : राम किशोर, पंजाब ।
नमन मंच।
नमन गुरुजनों, मित्रों।
आज का आदमी कहां जा रहा है।
अस्तित्व की खोज में भटकता जा रहा है।
एक दूसरे पर प्रहार करते हैं,
एक दूसरे में कमियां ढूंढते हैं।
गाली, गलौज पर उतरता जा रहा है आदमी,
अस्तित्व की.................
अस्तित्व की लड़ाई ना जाने कहां लेके जायगी,
भाई को भाई से लड़ाती जायगी।
खुद को साबित नहीं कर पा रहा है आदमी,
अस्तित्व की..........
खुद में ढूंढते नहीं है अस्तित्व अपना,
देखने में लगे हैं बेकार का सपना।
खुद को ही नहीं संभाल पा रहा है आदमी,
अस्तित्व की ..............
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
नमन गुरुजनों, मित्रों।
आज का आदमी कहां जा रहा है।
अस्तित्व की खोज में भटकता जा रहा है।
एक दूसरे पर प्रहार करते हैं,
एक दूसरे में कमियां ढूंढते हैं।
गाली, गलौज पर उतरता जा रहा है आदमी,
अस्तित्व की.................
अस्तित्व की लड़ाई ना जाने कहां लेके जायगी,
भाई को भाई से लड़ाती जायगी।
खुद को साबित नहीं कर पा रहा है आदमी,
अस्तित्व की..........
खुद में ढूंढते नहीं है अस्तित्व अपना,
देखने में लगे हैं बेकार का सपना।
खुद को ही नहीं संभाल पा रहा है आदमी,
अस्तित्व की ..............
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
नमन
भावों के मोती
९/५/२०१९
विषय-वजूद/अस्तित्व
एक खालीपन,
एक अबूझी प्यास।
अपने अस्तित्व की तलाश,
कर देती है व्याकुल।
सब कुछ हो जब पास,
पर मन रहता हो उदास।
चाहे कुछ जब खास
करे वजूद की तलाश।
खो गई जिसकी पहचान,
जिससे जग अनजान।
भटके उसका चातक मन,
करता स्वाति बूंद की चाह।
जिसका न कोई वजूद,
वो सागर की है बूंद।
सागर उसकी पहचान,
जग बूंद से रहे अनजान।
करना है कुछ भी विशेष,
जो रहे बाद में शेष।
यह है कुछ ऐसी प्यास,
जो जीवन की है आस।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
भावों के मोती
९/५/२०१९
विषय-वजूद/अस्तित्व
एक खालीपन,
एक अबूझी प्यास।
अपने अस्तित्व की तलाश,
कर देती है व्याकुल।
सब कुछ हो जब पास,
पर मन रहता हो उदास।
चाहे कुछ जब खास
करे वजूद की तलाश।
खो गई जिसकी पहचान,
जिससे जग अनजान।
भटके उसका चातक मन,
करता स्वाति बूंद की चाह।
जिसका न कोई वजूद,
वो सागर की है बूंद।
सागर उसकी पहचान,
जग बूंद से रहे अनजान।
करना है कुछ भी विशेष,
जो रहे बाद में शेष।
यह है कुछ ऐसी प्यास,
जो जीवन की है आस।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
सादर नमन
09-05-2019
वजूद
बाबुल की लाड़ली कैसे कूद रही
जहाँ में वो हर लम्हा मौजूद रही
घर की मल्लिका भी है वो मगर
कोई मुकम्मल उसका वजूद नहीं
मिट गई जिसे आसियाँ बनाने में
उसी घर में वो सदा मरदूद रही
खींच दी एक लकीर जमाने ने
उम्रभर वो उसमें ही महदूद रही
रस्मों के पढ़कर कसीदे-रवायतें
उसके हिस्से में कथा-मौलूद रही
उसके हिस्से का भी हक अता हो
मेरे कहने का नवल मकसूद यही
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
09-05-2019
वजूद
बाबुल की लाड़ली कैसे कूद रही
जहाँ में वो हर लम्हा मौजूद रही
घर की मल्लिका भी है वो मगर
कोई मुकम्मल उसका वजूद नहीं
मिट गई जिसे आसियाँ बनाने में
उसी घर में वो सदा मरदूद रही
खींच दी एक लकीर जमाने ने
उम्रभर वो उसमें ही महदूद रही
रस्मों के पढ़कर कसीदे-रवायतें
उसके हिस्से में कथा-मौलूद रही
उसके हिस्से का भी हक अता हो
मेरे कहने का नवल मकसूद यही
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
विधाःःःकाव्यःःःछंदमुक्त
लड रहे स्वयं
अपने अस्तित्व के लिए।
संस्कृति और संस्कारों के
मिटते वजूद के लिए।
कभी भिडते नहीं
सहयोग के लिए
सिर फुटोवल कर रहे
वेशर्म अधर्म के लिए।
अब कहां रहा अस्तित्व
अपने जंगलों का
लगातार ये देखते देखते
हमारे कारण सिमट रहा।
जीव जंन्तु रोजना
विलुप्त होते जा रहे।
प्रकृति का अस्तित्व
हम घिसते जा रहे।
भारतीयता पंगु हो गई
वेशभूषा वजूद खो रही
पाश्चात्य संस्कृति पल रही
अपनी अस्मिता रो रही।
सौहार्द भाव कहां गये
द्वेष भाव बढ रहे।
शेष बचे वजूद के हम यहां
प्रतिदिन पिंडदान कर रहे।
स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
2*भा.#अस्तित्व/वजूद#
9/5/2019/गुरुवार
लड रहे स्वयं
अपने अस्तित्व के लिए।
संस्कृति और संस्कारों के
मिटते वजूद के लिए।
कभी भिडते नहीं
सहयोग के लिए
सिर फुटोवल कर रहे
वेशर्म अधर्म के लिए।
अब कहां रहा अस्तित्व
अपने जंगलों का
लगातार ये देखते देखते
हमारे कारण सिमट रहा।
जीव जंन्तु रोजना
विलुप्त होते जा रहे।
प्रकृति का अस्तित्व
हम घिसते जा रहे।
भारतीयता पंगु हो गई
वेशभूषा वजूद खो रही
पाश्चात्य संस्कृति पल रही
अपनी अस्मिता रो रही।
सौहार्द भाव कहां गये
द्वेष भाव बढ रहे।
शेष बचे वजूद के हम यहां
प्रतिदिन पिंडदान कर रहे।
स्वरचितःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
2*भा.#अस्तित्व/वजूद#
9/5/2019/गुरुवार
नमन "भावों के मोती"
विषय- अस्तित्व/वजूद
09/05/19
गुरुवार
कविता
मेरे अस्तित्व पर अंगुली उठाता क्यों जमाना है ,
मेरे व्यक्तित्व पर हर वक्त बनता क्यों फ़साना है ।
मैं भी इंसान बनकर ही यहाँ धरती पर आयी हूँ,
इसी हक से जमीं पर रहने का अधिकार पाना है।
न जाने कौन सी पशुता हुई इंसान पर हावी,
कि मुझको ख़तम करने का वही ढूँढे बहाना हैं।
कहीं पर जन्म से पहले ही मुझपर वार करते हैं,
कहीं शोषण व अत्याचार का बनतीं निशाना हैं।
मेरे ही दम पर यह सृष्टि तथा जीवन की लीला है,
मगर नर ने कभी इस सत्य को न दिल से माना है।
कोई तो लड़कियों के हक में इन असुरों से आ जूझे,
नहीं तो मानवी अस्तित्व जग में खो ही जाना है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
विषय- अस्तित्व/वजूद
09/05/19
गुरुवार
कविता
मेरे अस्तित्व पर अंगुली उठाता क्यों जमाना है ,
मेरे व्यक्तित्व पर हर वक्त बनता क्यों फ़साना है ।
मैं भी इंसान बनकर ही यहाँ धरती पर आयी हूँ,
इसी हक से जमीं पर रहने का अधिकार पाना है।
न जाने कौन सी पशुता हुई इंसान पर हावी,
कि मुझको ख़तम करने का वही ढूँढे बहाना हैं।
कहीं पर जन्म से पहले ही मुझपर वार करते हैं,
कहीं शोषण व अत्याचार का बनतीं निशाना हैं।
मेरे ही दम पर यह सृष्टि तथा जीवन की लीला है,
मगर नर ने कभी इस सत्य को न दिल से माना है।
कोई तो लड़कियों के हक में इन असुरों से आ जूझे,
नहीं तो मानवी अस्तित्व जग में खो ही जाना है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
नमन भावों के मोती
9/5/2019
गुरुवार
विषय -अस्तित्व /वजूद
विधा -कविता
अस्तित्व,
सुनो ,
अस्तित्व
तुम बहुत
बहुमूल्य
हो तुम्हारे
छीन
जाने पर
कुछ नहीं शेष
रह जाता
ऐसे , जैसे किसी
मंदिर से जवाहरात
चोरी होना
किसी सेठ की
पगड़ी का न होना
राजपूत बिना तलवार
का होना
और मनुष्य का
अवसाद मे खोना
हाँ , अस्तित्व तुम
सच मे कीमती हो
तुमसे ही है मनुष्य
की पहचान
अस्तित्व बिन सब वीरान
किन्तु धन की चाह मे
यश की चाह मे
कई बार नीलाम
हो जाता है अस्तित्व
और नीलाम होकर
वो बहुमूल्य नहीं रहता
जो हर हाल मे अपना अस्तित्व
बनाये रखते है
उनका ही अस्तित्व बेशकीमती
कहलाता है...
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
9/5/2019
गुरुवार
विषय -अस्तित्व /वजूद
विधा -कविता
अस्तित्व,
सुनो ,
अस्तित्व
तुम बहुत
बहुमूल्य
हो तुम्हारे
छीन
जाने पर
कुछ नहीं शेष
रह जाता
ऐसे , जैसे किसी
मंदिर से जवाहरात
चोरी होना
किसी सेठ की
पगड़ी का न होना
राजपूत बिना तलवार
का होना
और मनुष्य का
अवसाद मे खोना
हाँ , अस्तित्व तुम
सच मे कीमती हो
तुमसे ही है मनुष्य
की पहचान
अस्तित्व बिन सब वीरान
किन्तु धन की चाह मे
यश की चाह मे
कई बार नीलाम
हो जाता है अस्तित्व
और नीलाम होकर
वो बहुमूल्य नहीं रहता
जो हर हाल मे अपना अस्तित्व
बनाये रखते है
उनका ही अस्तित्व बेशकीमती
कहलाता है...
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
नमन
भावों के मोती
९/५/२०१९
विषय-वजूद/अस्तित्व
द्वितीय प्रस्तुति
अस्तित्व की जंग ,
लड़ती हैं बेटियां।
घर-बाहर उपेक्षित,
होती हैं बेटियां।
दुनिया की नजर में,
भार होती हैं बेटियां।
कोख में पनपते ही,
मारी जाती हैं बेटियां।
दुनिया में बुरी निगाहों का,
करती हैं सामना।
पग-पग पर खतरों का,
करती हैं सामना।
अस्तित्व की लड़ाई में,
अकेली पड़ती हैं बेटियां।
टूटे सपनों की लाशों को,
ढोती हैं बेटियां।
बेटा और बेटी में,
करते हैं फर्क जो।
एक दिन उनके ही,
काम आती हैं बेटियां।
बेटियों का अस्तित्व,
कभी खतरे में न पड़े।
सृष्टि के लिए महत्त्वपूर्ण,
होती हैं बेटियां।
बन के कली खिलें,
फूलों सी मुस्कराएं।
बेटियों के अस्तित्व को,
सब मिलकर बचाएं।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
भावों के मोती
९/५/२०१९
विषय-वजूद/अस्तित्व
द्वितीय प्रस्तुति
अस्तित्व की जंग ,
लड़ती हैं बेटियां।
घर-बाहर उपेक्षित,
होती हैं बेटियां।
दुनिया की नजर में,
भार होती हैं बेटियां।
कोख में पनपते ही,
मारी जाती हैं बेटियां।
दुनिया में बुरी निगाहों का,
करती हैं सामना।
पग-पग पर खतरों का,
करती हैं सामना।
अस्तित्व की लड़ाई में,
अकेली पड़ती हैं बेटियां।
टूटे सपनों की लाशों को,
ढोती हैं बेटियां।
बेटा और बेटी में,
करते हैं फर्क जो।
एक दिन उनके ही,
काम आती हैं बेटियां।
बेटियों का अस्तित्व,
कभी खतरे में न पड़े।
सृष्टि के लिए महत्त्वपूर्ण,
होती हैं बेटियां।
बन के कली खिलें,
फूलों सी मुस्कराएं।
बेटियों के अस्तित्व को,
सब मिलकर बचाएं।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
"नमन-मंच"
"दिंनाक-९/५/२०१९
"शीर्षक-अस्तित्व/वजूद"
अस्तित्वविहीन नही है मेरी बातें
करनी है कुछ काम की बातें
अपनी संस्कृति बचाने को
करने है हम सबको प्रयास।
अपनी भाषा, अपनी संस्कृति
खो रही अपना अस्तित्व
आधुनिकता के इस अंध दौड़ में
भूल ना जाये हम अपनी संस्कृति।
दूसरों की नकल करने मे
परिहार न करें हम अपनी संस्कृति
अपना अस्तित्व बचाने को
रखना होगा हमें इसका मान।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
"दिंनाक-९/५/२०१९
"शीर्षक-अस्तित्व/वजूद"
अस्तित्वविहीन नही है मेरी बातें
करनी है कुछ काम की बातें
अपनी संस्कृति बचाने को
करने है हम सबको प्रयास।
अपनी भाषा, अपनी संस्कृति
खो रही अपना अस्तित्व
आधुनिकता के इस अंध दौड़ में
भूल ना जाये हम अपनी संस्कृति।
दूसरों की नकल करने मे
परिहार न करें हम अपनी संस्कृति
अपना अस्तित्व बचाने को
रखना होगा हमें इसका मान।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
नमन भावों के मोती
विषय-अस्तित्व/वजूद
दिनांक-9-5-19
विधा -कविता
अब कुबेर या खजाना
पान मसाले में जिंदा है
आप घर में खोजेंगे तो
संभव है आपको मिले हताशा
कुबेर का वजूद इस धरती पर कहाँ
पर खोजो गरीबी रेखा से नीचे का अस्तित्व होगा
यानी जिनको इस देश को
ऊंचाइयों पर ले जाना है
वो मुफलिसी में जी रहे हैं
न चाहकर भी फाकाकसी कर रहे हैं।
*******स्वरचित******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451551
विषय-अस्तित्व/वजूद
दिनांक-9-5-19
विधा -कविता
अब कुबेर या खजाना
पान मसाले में जिंदा है
आप घर में खोजेंगे तो
संभव है आपको मिले हताशा
कुबेर का वजूद इस धरती पर कहाँ
पर खोजो गरीबी रेखा से नीचे का अस्तित्व होगा
यानी जिनको इस देश को
ऊंचाइयों पर ले जाना है
वो मुफलिसी में जी रहे हैं
न चाहकर भी फाकाकसी कर रहे हैं।
*******स्वरचित******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451551
भावों के मोती
नमन मंच
9/5/2019
अस्तित्व/
युगों से अस्तित्व का
गीत सुनाता समाज
स्त्री यह तुम्हारे लिए
महज एक दिखावा है
त्रेता युग में भी तुमने
संपूर्ण प्रेम का प्रतिदान नहीं पाया था
अपने अस्तित्व की गरिमा ले
वह भी साथ तुम्हारे
धरा में समाया था
तुम्हारा अस्तित्व कब स्वीकारा गया
द्वापर युग में भी
पांच पतियों के रहते
अनाचार का चक्र
अपमान का विष
अस्तित्व तुम्हारा तोड़ गया था
पुरुष के छलका शिकार हो
फिर नारी अहिल्या ही
शिला बनी थी
किस दोष के लिए
खड़ा था तुम्हारा अस्तित्व
कटघरे में
आखिर क्यों !
इस युद्ध के लिए नहीं कोई आएगा
सबल , सक्षम आत्मनिर्भरता की नींव पर
अपने अस्तित्व का युद्ध स्वयं लड़ना होगा;
और खड़ा करना होगा
अपने अस्तित्व का
सक्षम साम्राज्य !!!
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
नमन मंच
9/5/2019
अस्तित्व/
युगों से अस्तित्व का
गीत सुनाता समाज
स्त्री यह तुम्हारे लिए
महज एक दिखावा है
त्रेता युग में भी तुमने
संपूर्ण प्रेम का प्रतिदान नहीं पाया था
अपने अस्तित्व की गरिमा ले
वह भी साथ तुम्हारे
धरा में समाया था
तुम्हारा अस्तित्व कब स्वीकारा गया
द्वापर युग में भी
पांच पतियों के रहते
अनाचार का चक्र
अपमान का विष
अस्तित्व तुम्हारा तोड़ गया था
पुरुष के छलका शिकार हो
फिर नारी अहिल्या ही
शिला बनी थी
किस दोष के लिए
खड़ा था तुम्हारा अस्तित्व
कटघरे में
आखिर क्यों !
इस युद्ध के लिए नहीं कोई आएगा
सबल , सक्षम आत्मनिर्भरता की नींव पर
अपने अस्तित्व का युद्ध स्वयं लड़ना होगा;
और खड़ा करना होगा
अपने अस्तित्व का
सक्षम साम्राज्य !!!
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
नमन भावों के मोती
९/५/२०१९
विषय:अस्तित्व
बड़ी हसरत से देखता हूँ
वो नीला आसमान
जो कभी मेरी मुट्ठी में था,
उस आसमान पर उगे
नन्हें सितारों की छुअन से
किलकता था मन
कोमल बादलों में उड़कर
चाँद के समीप
रह पाने का स्वप्न देखता रहा
वक़्त ने साज़िश की
या तक़दीर ने फ़ैसला लिया
जलती हवाओं ने
झुलसाये पंख सारे
फेंक दिया तपती मरूभूमि में
कहकर,भूल जा
नीले आसमान के ख़्वाबगाह में
नहीं उगते खनकदार पत्ते
टिमटिमाते सितारों से
नहीं मिटायी जा सकती है भूख,
और मैं
अपने दायरे के पिंजरें
क़ैद कर दिया गया
बांधे गये पंखों को फड़फड़ाकर
मैं बे-बस देख रहा हूँ
ज़माने के पाँव तले कुचलते
मेरे नीले आसमान का कोना
जो अब भी मुझे पुकारता है
मुस्कुराकर अपनी बाहें पसारे हुये
और मैं सोचता हूँ अक्सर
एक दिन
मैं छूटकर बंधनों से
भरूँगा अपनी उड़ान
अपने नीले आसमान में
और पा लूँगा
अपने अस्तित्व का मायना
#श्वेता सिन्हा
स्वरचित
९/५/२०१९
विषय:अस्तित्व
बड़ी हसरत से देखता हूँ
वो नीला आसमान
जो कभी मेरी मुट्ठी में था,
उस आसमान पर उगे
नन्हें सितारों की छुअन से
किलकता था मन
कोमल बादलों में उड़कर
चाँद के समीप
रह पाने का स्वप्न देखता रहा
वक़्त ने साज़िश की
या तक़दीर ने फ़ैसला लिया
जलती हवाओं ने
झुलसाये पंख सारे
फेंक दिया तपती मरूभूमि में
कहकर,भूल जा
नीले आसमान के ख़्वाबगाह में
नहीं उगते खनकदार पत्ते
टिमटिमाते सितारों से
नहीं मिटायी जा सकती है भूख,
और मैं
अपने दायरे के पिंजरें
क़ैद कर दिया गया
बांधे गये पंखों को फड़फड़ाकर
मैं बे-बस देख रहा हूँ
ज़माने के पाँव तले कुचलते
मेरे नीले आसमान का कोना
जो अब भी मुझे पुकारता है
मुस्कुराकर अपनी बाहें पसारे हुये
और मैं सोचता हूँ अक्सर
एक दिन
मैं छूटकर बंधनों से
भरूँगा अपनी उड़ान
अपने नीले आसमान में
और पा लूँगा
अपने अस्तित्व का मायना
#श्वेता सिन्हा
स्वरचित
नमन मंच को
9/5/2019
वज़ूद
ऐ स्त्री क्या वजूद तेरा,
बस सामाजिक बंधन है घनेरा,
ख़ुशी जो दूसरे में ढूंढती,
बस इनके इर्द गिर्द तेरा बसेरा ll
जी सकती क्या तू अपने लिये,
गवां देगी तुम सब कुछ इनके लिए,
अंत में कोई न साथ देगा तेरा,
रह जायेगा सिर्फ तेरे लिए घोर अँधेरा ll
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
9/5/2019
वज़ूद
ऐ स्त्री क्या वजूद तेरा,
बस सामाजिक बंधन है घनेरा,
ख़ुशी जो दूसरे में ढूंढती,
बस इनके इर्द गिर्द तेरा बसेरा ll
जी सकती क्या तू अपने लिये,
गवां देगी तुम सब कुछ इनके लिए,
अंत में कोई न साथ देगा तेरा,
रह जायेगा सिर्फ तेरे लिए घोर अँधेरा ll
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
नमन् मंच
विषय - अस्तित्व/ वजूद
दिनाँक- 9 - 5 - 2010
212 212 212 212
स्वयं का बोझ ढ़ोता रहा आदमी,
नींद में मस्त सोता रहा आदमी ।
स्वप्न दर स्वप्न बोता रहा आदमी,
साथ अस्तित्व खोता रहा आदमी ।
जिन्दगी चोट दे जख्म करती रही,
देख कर जख्म रोता रहा आदमी ।
है फरेबी बहुत आज की जिन्दगी,
व्यर्थ इसको संजोता रहा आदमी ।
गैर का सुख सदा देखकर ही जला,
आँख खुद की भिगोता रहा आदमी ।।
✒ आलोक मिश्र 'मुकुन्द'
विषय - अस्तित्व/ वजूद
दिनाँक- 9 - 5 - 2010
212 212 212 212
स्वयं का बोझ ढ़ोता रहा आदमी,
नींद में मस्त सोता रहा आदमी ।
स्वप्न दर स्वप्न बोता रहा आदमी,
साथ अस्तित्व खोता रहा आदमी ।
जिन्दगी चोट दे जख्म करती रही,
देख कर जख्म रोता रहा आदमी ।
है फरेबी बहुत आज की जिन्दगी,
व्यर्थ इसको संजोता रहा आदमी ।
गैर का सुख सदा देखकर ही जला,
आँख खुद की भिगोता रहा आदमी ।।
✒ आलोक मिश्र 'मुकुन्द'
नमन "भावो के मोती"
09/05/2019
"वजूद"
################
दामन वफा का न छोड़ूगी कभी,
देती रहूँगी इम्तिहान सारे
चाहे मिट जाए वजूद मेरा ।
बसा है मन में जो भी लम्हा
चाहे सितम कर ले जमाना
मिटा न पायेगा मन से वजूद तेरा ।
किया ऐतबार जिसपर एकबार,
बेरुखी से खोता सुकून बार-बार,
पर हिला न सका विश्वास मेरा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
09/05/2019
"वजूद"
################
दामन वफा का न छोड़ूगी कभी,
देती रहूँगी इम्तिहान सारे
चाहे मिट जाए वजूद मेरा ।
बसा है मन में जो भी लम्हा
चाहे सितम कर ले जमाना
मिटा न पायेगा मन से वजूद तेरा ।
किया ऐतबार जिसपर एकबार,
बेरुखी से खोता सुकून बार-बार,
पर हिला न सका विश्वास मेरा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
नमन मंच भावों के मोती
तिथि। 09/05/19
विषय। अस्तित्व
दर्पण को आईना दिखाने का प्रयास किया है कि प्रकाश के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है ....
दर्पण
*********
दर्पण, तू लोगों को
आईना दिखाता है
बड़ा अभिमान है तुम्हें
अपने पर ,कि
तू सच दिखाता है।
आज तुम्हे दर्पण,
दर्पण दिखाते हैं!
क्या अस्तित्व तुम्हारा टूट
बिखर नहीं जाएगा
जब तू उजाले का संग
नहीं पाएगा
माना तू माध्यम आत्मदर्शन का
पर आत्मबोध तू कैसे करा पाएगा
बिंब जो दिखाता है
वह आभासी और पीछे बनाता है
दायें को बायें
करना तेरी फितरत है
और फिर तू इतराता है
कि तू सच बताता है ।
माना तुम हमारे बड़े काम के ,
समतल हो या वक्र लिए
पर प्रकाश पुंज के बिना
तेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
दर्पण को दर्पण दिखलाना
मन्तव्य नहीं,
लक्ष्य है
अपना अस्तित्व बताना
आत्मशक्ति के प्रकाशपुंज
के बिना मेरा भी अस्तित्व नहीँ
स्वरचित
अनिता सुधीर
तिथि। 09/05/19
विषय। अस्तित्व
दर्पण को आईना दिखाने का प्रयास किया है कि प्रकाश के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है ....
दर्पण
*********
दर्पण, तू लोगों को
आईना दिखाता है
बड़ा अभिमान है तुम्हें
अपने पर ,कि
तू सच दिखाता है।
आज तुम्हे दर्पण,
दर्पण दिखाते हैं!
क्या अस्तित्व तुम्हारा टूट
बिखर नहीं जाएगा
जब तू उजाले का संग
नहीं पाएगा
माना तू माध्यम आत्मदर्शन का
पर आत्मबोध तू कैसे करा पाएगा
बिंब जो दिखाता है
वह आभासी और पीछे बनाता है
दायें को बायें
करना तेरी फितरत है
और फिर तू इतराता है
कि तू सच बताता है ।
माना तुम हमारे बड़े काम के ,
समतल हो या वक्र लिए
पर प्रकाश पुंज के बिना
तेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
दर्पण को दर्पण दिखलाना
मन्तव्य नहीं,
लक्ष्य है
अपना अस्तित्व बताना
आत्मशक्ति के प्रकाशपुंज
के बिना मेरा भी अस्तित्व नहीँ
स्वरचित
अनिता सुधीर
II आस्तित्व / वजूद II
मेरी तन्हाई आज यूं मुझसे मिल कर रोई….
सखी बचपन की बिछड़ी मिली हो जैसे कोई…
पल भर में ही हो गयी फिर से वो मेरी….
गिला शिकवा लब पे रहा न उसके कोई…
मंज़र मेरी तबाही का बह गया सारा…
आंसुओं में उसके सुकूँ मिला जैसे कोई….
आठों पहर हर पल का साथ था अपना…
यह तो मैं था जो मुझको मिल गया कोई…
बेवफा वो हरगिज़ न थी, था मैं ही बेवफा..
सजा मेरी खता की मिली उसे जैसे कोई…
हर पल साथ निभाने का वादा किया था मैंने…
यूं भूला मैं जैसे अदावत थी उससे कोई….
तुम बिन नहीं जीना अब सोच लिया मैंने…
सांस चले या रुके और न होगा अब कोई…
तू मेरी है मैं तेरा अब न बिछड़ेंगे कभी….
भूल जाऊं तुझे ऐसी खता न होगी अब कोई…
तुमको छोडूंगा नहीं तुम भी न छोड़ोगी मुझे….
वादा है तुझपे सितम न करूंगा अब कोई…
साथ जन्मों का रहेगा यह भी वादा अपना…
नहीं तोड़ेगा प्यार का यह बंधन अब कोई…
तू ही तो अब दर्द, नज़्म ओ ग़ज़ल कल्म मेरे की….
बिन तेरे हर्फों की न इसकी ही है कीमत कोई….
तू मेरा इश्क़ मेरा वजूद तू ही है मेरी तन्हाई….
सिवा तेरे न होगी किसी और से मुर्रवत अब कोई…
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा
मेरी तन्हाई आज यूं मुझसे मिल कर रोई….
सखी बचपन की बिछड़ी मिली हो जैसे कोई…
पल भर में ही हो गयी फिर से वो मेरी….
गिला शिकवा लब पे रहा न उसके कोई…
मंज़र मेरी तबाही का बह गया सारा…
आंसुओं में उसके सुकूँ मिला जैसे कोई….
आठों पहर हर पल का साथ था अपना…
यह तो मैं था जो मुझको मिल गया कोई…
बेवफा वो हरगिज़ न थी, था मैं ही बेवफा..
सजा मेरी खता की मिली उसे जैसे कोई…
हर पल साथ निभाने का वादा किया था मैंने…
यूं भूला मैं जैसे अदावत थी उससे कोई….
तुम बिन नहीं जीना अब सोच लिया मैंने…
सांस चले या रुके और न होगा अब कोई…
तू मेरी है मैं तेरा अब न बिछड़ेंगे कभी….
भूल जाऊं तुझे ऐसी खता न होगी अब कोई…
तुमको छोडूंगा नहीं तुम भी न छोड़ोगी मुझे….
वादा है तुझपे सितम न करूंगा अब कोई…
साथ जन्मों का रहेगा यह भी वादा अपना…
नहीं तोड़ेगा प्यार का यह बंधन अब कोई…
तू ही तो अब दर्द, नज़्म ओ ग़ज़ल कल्म मेरे की….
बिन तेरे हर्फों की न इसकी ही है कीमत कोई….
तू मेरा इश्क़ मेरा वजूद तू ही है मेरी तन्हाई….
सिवा तेरे न होगी किसी और से मुर्रवत अब कोई…
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा
नमन मंच को 🙏🙏
दिनांक _9/5/2019
विषय _वजूद /अस्तित्व।
विधा _ कविता
अपना ही वजूद तलाशता आदमी।
दिन रात कोल्हू की तरह पिसता आदमी।
क्षुधा तृप्ति के लिए मेहनत करता दिन रात
फिर भी मन रहे बेचैन, ना हो शांत
हर वो काम करता जीने के लिए
अपनी पहचान खोता आदमी।
अपना वजूद तलाशता आदमी।।
मशीनी दुनिया की जद्दोजहद
समाज में अपना तालमेल बिठाने की हद
इन्हीं चक्करों में खोकर रह गया
मायावी दुनिया में खोता आदमी।
अपना वजूद तलाशता आदमी।।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
तनुजा दत्ता (स्वरचित)
दिनांक _9/5/2019
विषय _वजूद /अस्तित्व।
विधा _ कविता
अपना ही वजूद तलाशता आदमी।
दिन रात कोल्हू की तरह पिसता आदमी।
क्षुधा तृप्ति के लिए मेहनत करता दिन रात
फिर भी मन रहे बेचैन, ना हो शांत
हर वो काम करता जीने के लिए
अपनी पहचान खोता आदमी।
अपना वजूद तलाशता आदमी।।
मशीनी दुनिया की जद्दोजहद
समाज में अपना तालमेल बिठाने की हद
इन्हीं चक्करों में खोकर रह गया
मायावी दुनिया में खोता आदमी।
अपना वजूद तलाशता आदमी।।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
तनुजा दत्ता (स्वरचित)
शुभ साँझ 🌇
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
छंदमुक्त रचना
विषय:-"अस्तित्व"
कौन रहा अकेला?
कुछ तो ...
भीड बन गये हैं,
भागकर कोसों दूर,
स्वयं के अजनबी बन गयें हैं,
है.. कृत्य शरीर ,
पर नियंत्रण् में,
आैर सत्य अति कटु है,
शायद अस्तित्व की तलाश में,
मुखौटे ही मुखौटे चढें हैं।
क्या बूंद का कोई मूल्य नहीं,
क्यों खोते हैं हम सागर में,
सागर...
बंध नहीं सकते,
बेकाबू रूक नहीं सकते,
होने पर दिशाहीन,भ्रमित,
विनाश टल नहीं सकते,
एक बूंद एक नियंत्रण् हैं,
परिधि के अस्तित्व में,
लिए खोज जीवन भर की,
सुप्त है.....
व्यक्तित्व में।
स्वरचित
ऋतुराज दवे
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
छंदमुक्त रचना
विषय:-"अस्तित्व"
कौन रहा अकेला?
कुछ तो ...
भीड बन गये हैं,
भागकर कोसों दूर,
स्वयं के अजनबी बन गयें हैं,
है.. कृत्य शरीर ,
पर नियंत्रण् में,
आैर सत्य अति कटु है,
शायद अस्तित्व की तलाश में,
मुखौटे ही मुखौटे चढें हैं।
क्या बूंद का कोई मूल्य नहीं,
क्यों खोते हैं हम सागर में,
सागर...
बंध नहीं सकते,
बेकाबू रूक नहीं सकते,
होने पर दिशाहीन,भ्रमित,
विनाश टल नहीं सकते,
एक बूंद एक नियंत्रण् हैं,
परिधि के अस्तित्व में,
लिए खोज जीवन भर की,
सुप्त है.....
व्यक्तित्व में।
स्वरचित
ऋतुराज दवे
नमन भावो के मोती
9-5-2019
विषय -अस्तित्व/ वजूद
महिलाओं के अधिकारों के प्रति,,,,,,,,,,
, स्वयंसिद्धा "
, **********
आज नारी- उत्था
न के परिवेश में,
स्त्री को अपना #अस्तित्व व गरिमामयी
विशिष्ट पहचान चाहिए
बदल गया है जमाना
बदल गया सम्मान का पयमाना
अब परदे के पीछे रहने की आन ,बान शान ,
उसको भाती नहीं ।
सिर्फ घर की गृह देवी बनना,
उसको सुहाता नहीं ।
बाहर की विकसित दुनिया में,
उसे लक्ष्य का अनुपम द्वार चाहिए
जो अपनी अन्तर्व्यथा में,
चुप चुप सहती थी रोती थी,
उसे अब अपने हृदय पट खोलकर,
सिर्फ अपने #वजूद मे खुलकर जीने की,
अनंत में उड़ने की,
खुली बयार चाहिए,सपने साकार चाहिए
माँ ,बहन ,पत्नी का गौरव पद पाकर,
जो करती रहीं सदा न्योछावर ,
आज इसी तिरस्कृत,पीड़ित नारी को,
स्वयंसिद्धा बनने का सम्पूर्ण अधिकार चाहिए
रचनाकार ब्रह्माणी वीणा
#स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
9-5-2019
विषय -अस्तित्व/ वजूद
महिलाओं के अधिकारों के प्रति,,,,,,,,,,
, स्वयंसिद्धा "
, **********
आज नारी- उत्था
न के परिवेश में,
स्त्री को अपना #अस्तित्व व गरिमामयी
विशिष्ट पहचान चाहिए
बदल गया है जमाना
बदल गया सम्मान का पयमाना
अब परदे के पीछे रहने की आन ,बान शान ,
उसको भाती नहीं ।
सिर्फ घर की गृह देवी बनना,
उसको सुहाता नहीं ।
बाहर की विकसित दुनिया में,
उसे लक्ष्य का अनुपम द्वार चाहिए
जो अपनी अन्तर्व्यथा में,
चुप चुप सहती थी रोती थी,
उसे अब अपने हृदय पट खोलकर,
सिर्फ अपने #वजूद मे खुलकर जीने की,
अनंत में उड़ने की,
खुली बयार चाहिए,सपने साकार चाहिए
माँ ,बहन ,पत्नी का गौरव पद पाकर,
जो करती रहीं सदा न्योछावर ,
आज इसी तिरस्कृत,पीड़ित नारी को,
स्वयंसिद्धा बनने का सम्पूर्ण अधिकार चाहिए
रचनाकार ब्रह्माणी वीणा
#स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
शुभ साँझ
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
छंदमुक्त रचना
आज का विषय--वज़ूद/ अस्तित्व
*************************************
‘’नारी का वज़ूद / अस्तित्व
******************
मैं नारी हूँ !
मेरा भी अपना ''वज़ूद ''है!
अपना ''अस्तित्व है !
आज मैं क़ायम रखना चाहती हूँ !
अपने अस्तित्व को !
जानते हो !!
तुम पुरुषों का अस्तित्व भी
मुझ नारी से ही है ...
अगर नारी नहीं तो तुम कहाँ से होते ?
मैं अबला नहीं हूँ ....
मैं भी जीवित रखना चाहती हूँ ...
अपने ''वज़ूद ''को
आज़ मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ ...
कंधे से कन्धा मिला कर !
मैने भी ''बछेन्द्री ''बन कर लहराया है ..
तिरंगा एवरेस्ट पर !
मैने भी चाँद का सफ़र तय किया है ...
कल्पना बन कर !
तुम्हारे साथ मैने भी जान की बाज़ी लगा दी थी !
मैनें भी उड़ाई है जहाजों को आस्मां में ...
सरहद पर दुश्मनों के हौंसले पस्त किये है!
मैनें भी जीते है करोड़ों देशवासिओं का दिल
''साक्षी ''और ''सिंधु ''बन कर !
फ़िर !!!!
क्यों मिटाना चाहते हो मेरे ''वज़ूद ''को !
क्यों मिटाना चाहते मेरे अस्तित्व को?
मैं नारी हूँ !!
मैं अबला नहीं।
मैं सबला हूँ!
मैं नहीं मरना चाहती ''निर्भया की तरह !!
मैं ''दरिंदों ''की हवश का शिकार नहीं होना चाहती !!
अँधा क़ानून का न्याय सुन कर ..
आज भी मेरी आत्मा तड़प उठती हूँ ''स्वर्ग ''से
तुम्हारे क़ानून के दायरे में आ कर मेरा ''वज़ूद ''
बहुत हल्का हो जाता है ...
जिसने मुझे तार तार कर दिया ...
तुम्हारा क़ानून उसे स्वच्छंद कर दिया !!
मुझे मरना है एक इज्ज़त की मौत !
देश की सरहद पर!
मार कर उन देश द्रोहियों को !
एक वीरांगना के भाँति !!
मैं अबला नहीं, मैं एक नारी हूँ !
मेरा भी ''वज़ूद है !
मैं भी लहराना चाहती हूँ ...
अपने ''वज़ूद का परचम '!!
--मणि बेन द्विवेदी
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
छंदमुक्त रचना
आज का विषय--वज़ूद/ अस्तित्व
*************************************
‘’नारी का वज़ूद / अस्तित्व
******************
मैं नारी हूँ !
मेरा भी अपना ''वज़ूद ''है!
अपना ''अस्तित्व है !
आज मैं क़ायम रखना चाहती हूँ !
अपने अस्तित्व को !
जानते हो !!
तुम पुरुषों का अस्तित्व भी
मुझ नारी से ही है ...
अगर नारी नहीं तो तुम कहाँ से होते ?
मैं अबला नहीं हूँ ....
मैं भी जीवित रखना चाहती हूँ ...
अपने ''वज़ूद ''को
आज़ मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ ...
कंधे से कन्धा मिला कर !
मैने भी ''बछेन्द्री ''बन कर लहराया है ..
तिरंगा एवरेस्ट पर !
मैने भी चाँद का सफ़र तय किया है ...
कल्पना बन कर !
तुम्हारे साथ मैने भी जान की बाज़ी लगा दी थी !
मैनें भी उड़ाई है जहाजों को आस्मां में ...
सरहद पर दुश्मनों के हौंसले पस्त किये है!
मैनें भी जीते है करोड़ों देशवासिओं का दिल
''साक्षी ''और ''सिंधु ''बन कर !
फ़िर !!!!
क्यों मिटाना चाहते हो मेरे ''वज़ूद ''को !
क्यों मिटाना चाहते मेरे अस्तित्व को?
मैं नारी हूँ !!
मैं अबला नहीं।
मैं सबला हूँ!
मैं नहीं मरना चाहती ''निर्भया की तरह !!
मैं ''दरिंदों ''की हवश का शिकार नहीं होना चाहती !!
अँधा क़ानून का न्याय सुन कर ..
आज भी मेरी आत्मा तड़प उठती हूँ ''स्वर्ग ''से
तुम्हारे क़ानून के दायरे में आ कर मेरा ''वज़ूद ''
बहुत हल्का हो जाता है ...
जिसने मुझे तार तार कर दिया ...
तुम्हारा क़ानून उसे स्वच्छंद कर दिया !!
मुझे मरना है एक इज्ज़त की मौत !
देश की सरहद पर!
मार कर उन देश द्रोहियों को !
एक वीरांगना के भाँति !!
मैं अबला नहीं, मैं एक नारी हूँ !
मेरा भी ''वज़ूद है !
मैं भी लहराना चाहती हूँ ...
अपने ''वज़ूद का परचम '!!
--मणि बेन द्विवेदी
भावों के मोती
विषय-वज़ूद/अस्तित्व
___#अस्तित्व नारी का______
बेटी बन पैदा होती
ममता दुलार भी पाती
शिक्षा का हक़ भी पाती
पर जीती है बंधन में बंधी
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
उन्नति के शिखर पर
सदा रहती अग्रसर
पर कहीं अंदर ही अंदर
अपने वज़ूद को ढूंँढती
पत्नी बनकर आती
पति की ज़रूरतें पूरी कर
नौकरी के साथ घर को सँभाले
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
माँ बनकर ममता लुटाए
खुद को भूलकर बच्चों को सँभाले
जागे रातभर उनकी तकलीफ़ पर
सुबह होते ही जुट जाए फ़िर से काम पर
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुजरते वक़्त के साथ-साथ
बुढ़ी हो जाती है नज़र
सहती अवहेलना बिस्तर पर पड़ी
ज़िंदगी गुज़ारी जिन रिश्तों को संवारते
वही अब उसके वज़ूद को नकारते
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुज़र जाती ज़िंदगी
दूसरों को खुश करते-करते
फ़िर पराएपन का एहसास लिए
अपने वज़ूद को ढूंँढती
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित
विषय-वज़ूद/अस्तित्व
___#अस्तित्व नारी का______
बेटी बन पैदा होती
ममता दुलार भी पाती
शिक्षा का हक़ भी पाती
पर जीती है बंधन में बंधी
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
उन्नति के शिखर पर
सदा रहती अग्रसर
पर कहीं अंदर ही अंदर
अपने वज़ूद को ढूंँढती
पत्नी बनकर आती
पति की ज़रूरतें पूरी कर
नौकरी के साथ घर को सँभाले
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
माँ बनकर ममता लुटाए
खुद को भूलकर बच्चों को सँभाले
जागे रातभर उनकी तकलीफ़ पर
सुबह होते ही जुट जाए फ़िर से काम पर
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुजरते वक़्त के साथ-साथ
बुढ़ी हो जाती है नज़र
सहती अवहेलना बिस्तर पर पड़ी
ज़िंदगी गुज़ारी जिन रिश्तों को संवारते
वही अब उसके वज़ूद को नकारते
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुज़र जाती ज़िंदगी
दूसरों को खुश करते-करते
फ़िर पराएपन का एहसास लिए
अपने वज़ूद को ढूंँढती
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित
शुभ साँझ 🌇
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
हाइकु (5/7/5)
विषय:-"वज़ूद/अस्तित्व "
(1)
स्वार्थ कटाई
अस्तित्व की लड़ाई
जूझते वृक्ष
(2)
बदला वक़्त
अस्तित्व पे मुहर
नारी मुखर
(3)
रंग बदले
अस्तित्व की तलाश
मुखौटे चढ़े
(4)
अस्तित्वहीन
गरीब की जिंदगी
दीन व हीन
(5)
खरीदे खड़ा
रुपयों की दुनियां
वज़ूद बड़ा
(6)
बेटे की चाह
अस्तित्व का संघर्ष
बेटी गुनाह?
स्वरचित
ऋतुराज दवे
नमन "भावों के मोती"🙏
09/05/2019
हाइकु (5/7/5)
विषय:-"वज़ूद/अस्तित्व "
(1)
स्वार्थ कटाई
अस्तित्व की लड़ाई
जूझते वृक्ष
(2)
बदला वक़्त
अस्तित्व पे मुहर
नारी मुखर
(3)
रंग बदले
अस्तित्व की तलाश
मुखौटे चढ़े
(4)
अस्तित्वहीन
गरीब की जिंदगी
दीन व हीन
(5)
खरीदे खड़ा
रुपयों की दुनियां
वज़ूद बड़ा
(6)
बेटे की चाह
अस्तित्व का संघर्ष
बेटी गुनाह?
स्वरचित
ऋतुराज दवे
सादर नमन
" अस्तित्व"
आओ तुम्हें बताऊँ,
बात एक पुरानी,
नारी का अस्तित्व,
बनके रहा कहानी,
घर बाबुल के रहती जब,
कहते सब बनजा सयानी,
अपने घर जाकर तू,
करना तू मन मानी,
आई जब पिया के घर,
रस्मों से थी वो अंजानी,
सुननी पड़ती सबकी,
भर आँखों में पानी,
मत भूलों तूम अरे नादानों,
नारी अस्तित्व का जग है शानी,
महके इसकी खुशबू से संसार,
इस जैसा नही कोई दानी।
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
9/5/19
वीरवार
" अस्तित्व"
आओ तुम्हें बताऊँ,
बात एक पुरानी,
नारी का अस्तित्व,
बनके रहा कहानी,
घर बाबुल के रहती जब,
कहते सब बनजा सयानी,
अपने घर जाकर तू,
करना तू मन मानी,
आई जब पिया के घर,
रस्मों से थी वो अंजानी,
सुननी पड़ती सबकी,
भर आँखों में पानी,
मत भूलों तूम अरे नादानों,
नारी अस्तित्व का जग है शानी,
महके इसकी खुशबू से संसार,
इस जैसा नही कोई दानी।
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
9/5/19
वीरवार
शुभ संध्या
शीर्षक-- ''अस्तित्व/वज़ूद"
द्वितीय प्रस्तुति
निज संस्कृति का क्या हाल है
आज अस्तित्व का सवाल है ।।
अपनों को ही अपनी धरोहर
का न अब कोई ख्याल है ।।
कितने कुटीर उद्योग खत्म हैं
ललित कला का बिगड़ा ताल है ।।
अपना छोड़ पराये में भागें
होता यह दूर का जमाल है ।।
देश की हर धरोहर 'शिवम'
आज अब हो रही पामाल है ।।
गंगा जमुनी संस्कृति हमारी
ये जो देश हमारा विशाल है ।।
इसकी अनोखी छटा निराली
अब अपने घर में ही बेहाल है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/05/2019
शीर्षक-- ''अस्तित्व/वज़ूद"
द्वितीय प्रस्तुति
निज संस्कृति का क्या हाल है
आज अस्तित्व का सवाल है ।।
अपनों को ही अपनी धरोहर
का न अब कोई ख्याल है ।।
कितने कुटीर उद्योग खत्म हैं
ललित कला का बिगड़ा ताल है ।।
अपना छोड़ पराये में भागें
होता यह दूर का जमाल है ।।
देश की हर धरोहर 'शिवम'
आज अब हो रही पामाल है ।।
गंगा जमुनी संस्कृति हमारी
ये जो देश हमारा विशाल है ।।
इसकी अनोखी छटा निराली
अब अपने घर में ही बेहाल है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/05/2019
आप सभी को हार्दिक नमस्कार
आज की प्रस्तुति
विषय-वजूद
मानव तेरे वजूद की,इतनी ही कहानी है
चलती है जब तक साँसे,तब तक जिन्दगानी है।
कोई आया क्यों जग में,
ये कब किसको खबर है।
राह चलता हर मुसाफिर,
अनजानी सी डगर है।
सपनों की सेज सजाती,
मदिर मस्त जवानी है ।
गर्म हवा के झोकों से,
हृदय घबरा जाता है।
सुख -दुख की चेरी बनकर,
रोता मुस्कराता है।
पाती लिख रही उमरिया,
बढ़ती इक रवानी है।
जाने किस मोड़ पर कहाँ,
थककर पाँव थम जाए।
उर मचलती ज्वार भाठा,
अंतर कहीं थम जाए।
आन, बान, शान सभी कुछ ,
होता महज फानी है।
स्वरचित
सुधा शर्मा
9-5-2019
राजिम छत्तीसगढ़
आज की प्रस्तुति
विषय-वजूद
मानव तेरे वजूद की,इतनी ही कहानी है
चलती है जब तक साँसे,तब तक जिन्दगानी है।
कोई आया क्यों जग में,
ये कब किसको खबर है।
राह चलता हर मुसाफिर,
अनजानी सी डगर है।
सपनों की सेज सजाती,
मदिर मस्त जवानी है ।
गर्म हवा के झोकों से,
हृदय घबरा जाता है।
सुख -दुख की चेरी बनकर,
रोता मुस्कराता है।
पाती लिख रही उमरिया,
बढ़ती इक रवानी है।
जाने किस मोड़ पर कहाँ,
थककर पाँव थम जाए।
उर मचलती ज्वार भाठा,
अंतर कहीं थम जाए।
आन, बान, शान सभी कुछ ,
होता महज फानी है।
स्वरचित
सुधा शर्मा
9-5-2019
राजिम छत्तीसगढ़
मंच को नमन
दिनांक -9/5/2019
विषय - अस्तित्व
माँ ने समझा था जिसको स्पंदन
एक नन्हें भ्रूण का था वह क्रंदन
मासूमियत से उसे पुकारा
जीवन मरण का था दर्शन गहरा
तुम कैसे घरवालों को कहोगी ?
बेटे की मन्नत का धागा झूठा
इस अजन्मी बेटी के हाथ लागा
क्या अल्ट्रा स्कैनिंग किरणो से
तुम मुझे दूर रख पाओगी ?
मेरे अस्तित्व को बचाकर
जन्म मुझे दे पाओगी ?
एक अनचाही बेटी की लड़ाई
परिवार समाज से कर पाओगी ?
क्या पितृ सत्ता की अनवरत परम्परा से
मेरी लड़ाई लड़कर जिता पाओगी ?
जब खेलेगा मेरा मासूम बचपन
क्या सुरक्षा कवच बन पाओगी ?
सयानी मैं जब हो जाऊँगी
गंदी नज़रों से मुझे बचा पाओगी ?
पढ़ने लिखने की मेरी बंदिशों के धागे
कहो ,कैसे तुम सुलझा पाओगी ?
आते जाते चलती फिरती सड़कों पर
ऐसिड अटैक को रोक पाओगी ?
डोली में बिठाकर जब विदा करोगी
दहेज दानव को क्या मार गिराओगी ?
घरेलू हिंसा जब करे उत्पीड़न मेरा
क्या सुरक्षित मुझे रख पाओगी ?
माँ ! मैं तेरा साया भविष्य तेरा
तुझ सा ही अस्तित्व मेरा
क्या इस बेटी के अस्तित्व को
अपनी जागीर बना पाओगी ?
मेरे लड़खड़ाते स्वर को माँ !
अपनी बुलंद आवाज़ बना पाओगी ?
एक बेटी की माँ बनकर तुम
सुरक्षित समाज मुझे दे पाओगी ?
मेरा अस्तित्व अभी तलक ख़तरे में
क्या उन स्थलों को पहचान पाओगी ?
जन्म से पहले मार दी जाती हूँ
जन्म देकर कूडा बना दी जाती हूँ
ममता का गला रेतकर
अनाथालय छोड़ दी जाती हूँ
अगर अस्तित्व मेरा यूँ महफ़ूज़ होता
लक्ष्मी,निर्भया बहनों का नाम
अख़बारों में ना रंगा होता !
अस्तित्व का प्रश्न आज ना मेरा होता !
✍🏻संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित
दिनांक -9/5/2019
विषय - अस्तित्व
माँ ने समझा था जिसको स्पंदन
एक नन्हें भ्रूण का था वह क्रंदन
मासूमियत से उसे पुकारा
जीवन मरण का था दर्शन गहरा
तुम कैसे घरवालों को कहोगी ?
बेटे की मन्नत का धागा झूठा
इस अजन्मी बेटी के हाथ लागा
क्या अल्ट्रा स्कैनिंग किरणो से
तुम मुझे दूर रख पाओगी ?
मेरे अस्तित्व को बचाकर
जन्म मुझे दे पाओगी ?
एक अनचाही बेटी की लड़ाई
परिवार समाज से कर पाओगी ?
क्या पितृ सत्ता की अनवरत परम्परा से
मेरी लड़ाई लड़कर जिता पाओगी ?
जब खेलेगा मेरा मासूम बचपन
क्या सुरक्षा कवच बन पाओगी ?
सयानी मैं जब हो जाऊँगी
गंदी नज़रों से मुझे बचा पाओगी ?
पढ़ने लिखने की मेरी बंदिशों के धागे
कहो ,कैसे तुम सुलझा पाओगी ?
आते जाते चलती फिरती सड़कों पर
ऐसिड अटैक को रोक पाओगी ?
डोली में बिठाकर जब विदा करोगी
दहेज दानव को क्या मार गिराओगी ?
घरेलू हिंसा जब करे उत्पीड़न मेरा
क्या सुरक्षित मुझे रख पाओगी ?
माँ ! मैं तेरा साया भविष्य तेरा
तुझ सा ही अस्तित्व मेरा
क्या इस बेटी के अस्तित्व को
अपनी जागीर बना पाओगी ?
मेरे लड़खड़ाते स्वर को माँ !
अपनी बुलंद आवाज़ बना पाओगी ?
एक बेटी की माँ बनकर तुम
सुरक्षित समाज मुझे दे पाओगी ?
मेरा अस्तित्व अभी तलक ख़तरे में
क्या उन स्थलों को पहचान पाओगी ?
जन्म से पहले मार दी जाती हूँ
जन्म देकर कूडा बना दी जाती हूँ
ममता का गला रेतकर
अनाथालय छोड़ दी जाती हूँ
अगर अस्तित्व मेरा यूँ महफ़ूज़ होता
लक्ष्मी,निर्भया बहनों का नाम
अख़बारों में ना रंगा होता !
अस्तित्व का प्रश्न आज ना मेरा होता !
✍🏻संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित
नमन मंच
विषय-वजूद / अस्तित्व
विधा --मुक्त
दिनांक - 09 / 05 / 19
----------------------------------
हर रुप तराशा अपना मैने
हर रुप में अपनी जान लगाई
बेटी,बहन,पत्नी ,माँ बनकर
सृष्टि की हर रीत निभाई
लक्ष्मी,सरस्वती ,अन्नपूर्णा
दुर्गा , काली , महामाया
प्रिया ,भक्तिन, समर्पिता
हर रुप में मैं हूँ ना
शासिका ,प्रशक्षिका ,निर्देशिका
ग्रहिणी , कर्मिणी , सेविका
हर रुप में दृष्टिगोचर होती
हर सूं मैं ही मैं हूँ ना
भक्ति, शक्ति ,रति, सती
पूजा ,अर्चना, आराधना
सृष्टि ,प्रकृति ,महि भी
मैं ही मैं लक्षित हूँ ना
पर सदियों से अहंकार की
भेंट चढी़ हूँ मैं ही ना
हर बार लडी़ अपने हक की खातिर
मर मर कर जी रही हूँ ना
मुझसे सबका है वजूद
पर अपने अस्तित्व की
तलाश में
सदियों से भटकी हूँ मैं
सीता , तारा , अहिल्या
द्रोपदी , गार्गी , मैत्रेयी
यशोधरा, लक्ष्मी ,जीजा , बिल्किस ,दामिनी अनगिनत
नामों में मैं ही हूँ ना ।
डा.नीलम. अजमेर
विषय-वजूद / अस्तित्व
विधा --मुक्त
दिनांक - 09 / 05 / 19
----------------------------------
हर रुप तराशा अपना मैने
हर रुप में अपनी जान लगाई
बेटी,बहन,पत्नी ,माँ बनकर
सृष्टि की हर रीत निभाई
लक्ष्मी,सरस्वती ,अन्नपूर्णा
दुर्गा , काली , महामाया
प्रिया ,भक्तिन, समर्पिता
हर रुप में मैं हूँ ना
शासिका ,प्रशक्षिका ,निर्देशिका
ग्रहिणी , कर्मिणी , सेविका
हर रुप में दृष्टिगोचर होती
हर सूं मैं ही मैं हूँ ना
भक्ति, शक्ति ,रति, सती
पूजा ,अर्चना, आराधना
सृष्टि ,प्रकृति ,महि भी
मैं ही मैं लक्षित हूँ ना
पर सदियों से अहंकार की
भेंट चढी़ हूँ मैं ही ना
हर बार लडी़ अपने हक की खातिर
मर मर कर जी रही हूँ ना
मुझसे सबका है वजूद
पर अपने अस्तित्व की
तलाश में
सदियों से भटकी हूँ मैं
सीता , तारा , अहिल्या
द्रोपदी , गार्गी , मैत्रेयी
यशोधरा, लक्ष्मी ,जीजा , बिल्किस ,दामिनी अनगिनत
नामों में मैं ही हूँ ना ।
डा.नीलम. अजमेर
नमन भावों के मोती
दिनाँक-09/05/2019
शीर्षक-वज़ूद , अस्तित्व
विधा-हाइकु
1.
कुर्सी के लिए
अस्तित्व की लड़ाई
लड़ते नेता
2.
भाग दौड़ में
अस्तित्व भूल गए
आज के युवा
3.
अस्तित्व मिटा
दुर्लभ वन्य जीव
वन विरान
4.
ओच्छी सोच से
अस्तित्व खतरे में
धरा वीरान
*********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
दिनाँक-09/05/2019
शीर्षक-वज़ूद , अस्तित्व
विधा-हाइकु
1.
कुर्सी के लिए
अस्तित्व की लड़ाई
लड़ते नेता
2.
भाग दौड़ में
अस्तित्व भूल गए
आज के युवा
3.
अस्तित्व मिटा
दुर्लभ वन्य जीव
वन विरान
4.
ओच्छी सोच से
अस्तित्व खतरे में
धरा वीरान
*********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
"विकास"
मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?
झौंपड़ी से निकला आदमी
खुले खेतों की पगडंडियों से होता हुआ,
रेल के तीसरी श्रेणी में
बोरे सा ठूंसा हुआ,
शहर की चकाचौध में,
भीड़ में रम गया,
अपना वजूद खोकर
नये वजूद की तलाश में
पूरी उम्र भटकता रहा,
मिटती गई
पीढीयों की पहचान
कई जीवन
पीढीयों के निशान,
खो गया आधार
पर पा सका न
अपना मुकाम,
जीवन की तलाश में
जीवन ही खो गया
अपनों से मिलना
सपना सा हो गया,
फिर भी मै अब तक
नहीं समझ सका
मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?
इस भीड़ से उकता कर
लौटता हूं भरे हाथ,
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में
अकेला सिमटा हुआ
यादों में खोया,
अपनों को मिलनें मनाने के
सपनों में सोया,
वो गांव के खुले खेत
पगडंडियों की राहें
झरोखों से आती
झोंपड़ी में हवाएं l
पर कुछ भी नहीं था वहां
मेरा वजूद भी नहीं था वहां
हां इक आस थी बंधी हुई
इक आस थी सजी हुई,
मै समझ गया
मै कौन हूं क्या हूं और कहां हूं,
एक चकाचौंध हूं
जो फैल गई है
झोंपड़ी में, पगडंडी में,
खेत में खलिहान में
गांव की चौपाल में,
रेल के डिब्बों में
शहर की सड़कों पर,
तालाब की पट्टी पर,
झील की जमीन पर,
नदियों में , नालों में
यहां तक कि अंतरिक्छ पर
पहाड़ों पर और आसमानों में
जिसे लोग आजकल
विकास कहते हैं,
हां, सम्पूर्ण विकास कहते है l
श्री लाल जोशी "श्री"
(तेजरासर) मैसूरू
९४८२८८८२१५
मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?
झौंपड़ी से निकला आदमी
खुले खेतों की पगडंडियों से होता हुआ,
रेल के तीसरी श्रेणी में
बोरे सा ठूंसा हुआ,
शहर की चकाचौध में,
भीड़ में रम गया,
अपना वजूद खोकर
नये वजूद की तलाश में
पूरी उम्र भटकता रहा,
मिटती गई
पीढीयों की पहचान
कई जीवन
पीढीयों के निशान,
खो गया आधार
पर पा सका न
अपना मुकाम,
जीवन की तलाश में
जीवन ही खो गया
अपनों से मिलना
सपना सा हो गया,
फिर भी मै अब तक
नहीं समझ सका
मैं कौन हूं, क्या हूं और कहां हूं ?
इस भीड़ से उकता कर
लौटता हूं भरे हाथ,
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में
अकेला सिमटा हुआ
यादों में खोया,
अपनों को मिलनें मनाने के
सपनों में सोया,
वो गांव के खुले खेत
पगडंडियों की राहें
झरोखों से आती
झोंपड़ी में हवाएं l
पर कुछ भी नहीं था वहां
मेरा वजूद भी नहीं था वहां
हां इक आस थी बंधी हुई
इक आस थी सजी हुई,
मै समझ गया
मै कौन हूं क्या हूं और कहां हूं,
एक चकाचौंध हूं
जो फैल गई है
झोंपड़ी में, पगडंडी में,
खेत में खलिहान में
गांव की चौपाल में,
रेल के डिब्बों में
शहर की सड़कों पर,
तालाब की पट्टी पर,
झील की जमीन पर,
नदियों में , नालों में
यहां तक कि अंतरिक्छ पर
पहाड़ों पर और आसमानों में
जिसे लोग आजकल
विकास कहते हैं,
हां, सम्पूर्ण विकास कहते है l
श्री लाल जोशी "श्री"
(तेजरासर) मैसूरू
९४८२८८८२१५
नमन भावों के मोती,
आज का विषय, अस्तित्व, वजूद,
दिन, गुरूवार,
दिनांक, 9,5,2019,
अस्तित्व हमारा कायम है,
क्यों हम लापरवाह हो गए।
टटोला नहीं कभी मन को,
कालचक्र पर विफर पडे़।
हमें रास नहीं आती मेहनत,
हम सरल मार्ग को खोज रहे।
सच्चाई हमको लगती है भारी,
अब इससे भी हम सब ऊव गये।
काम अपने जो जचते हैं हमको,
उनके लिए औरों पर पत्थर फेंक रहे।
प्रेम त्याग को भूल सभी अब,
खूब नफरत के बीज बो रहे।
जड़ें दूसरों की काटकर हम,
अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मार रहे।
अपने संस्कार जीवन मूल्यों को,
आधुनिकता की भेंट चढ़ा रहे।
वजूद हमारा इक दूजे पर निर्भर,
ध्यानाकर्षक हम सबको करा रहे।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
आज का विषय, अस्तित्व, वजूद,
दिन, गुरूवार,
दिनांक, 9,5,2019,
अस्तित्व हमारा कायम है,
क्यों हम लापरवाह हो गए।
टटोला नहीं कभी मन को,
कालचक्र पर विफर पडे़।
हमें रास नहीं आती मेहनत,
हम सरल मार्ग को खोज रहे।
सच्चाई हमको लगती है भारी,
अब इससे भी हम सब ऊव गये।
काम अपने जो जचते हैं हमको,
उनके लिए औरों पर पत्थर फेंक रहे।
प्रेम त्याग को भूल सभी अब,
खूब नफरत के बीज बो रहे।
जड़ें दूसरों की काटकर हम,
अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मार रहे।
अपने संस्कार जीवन मूल्यों को,
आधुनिकता की भेंट चढ़ा रहे।
वजूद हमारा इक दूजे पर निर्भर,
ध्यानाकर्षक हम सबको करा रहे।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
II आस्तित्व / वजूद II शुभ रात्रि...
ढूंढने निकला था वजूद अपना खुद को खो दिया....
बाहर से भीतर जाने में ज़माना छूटा तू मिल गया...
लोग सही थे जो पागल दीवाना कहने लगे मुझे...
तुझ से मिल कर के खुद से मिलना ही भूल गया...
बातें करता है बस तेरी तुझसे ही हरदम 'तू'.....
आँखों में दीखता है चहरे पे नज़र आता तू....
रूह कहूँ आईना कहूँ तुझे क्या कहूँ कान्हा...
सब कहें नाचता 'चन्दर' जबकि ठुमकता है तू...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०९.०५.२०१९
ढूंढने निकला था वजूद अपना खुद को खो दिया....
बाहर से भीतर जाने में ज़माना छूटा तू मिल गया...
लोग सही थे जो पागल दीवाना कहने लगे मुझे...
तुझ से मिल कर के खुद से मिलना ही भूल गया...
बातें करता है बस तेरी तुझसे ही हरदम 'तू'.....
आँखों में दीखता है चहरे पे नज़र आता तू....
रूह कहूँ आईना कहूँ तुझे क्या कहूँ कान्हा...
सब कहें नाचता 'चन्दर' जबकि ठुमकता है तू...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
०९.०५.२०१९
नमन भावो के मोती
दिनांक-09/05/19
विषय-अस्तित्व/वजूद
मां से ही हमारा और इस संसार का अस्तित्व होता है तो कलम ने कहा
मां=गीत
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार|
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
हम रूठे तो मां मनाएं,खूब लुटाएं प्यार|
मां रूठे तो कौन मनाएं,कौन करे नुहार||
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
रखा कोख में नो माह तक,अपना वजन उठाया|
खूद सोयी गीले में हमको,सूखे में सुलाया||
रोज दूआएं देती अम्मा,है ईश्वर अवतार|
मां से जग संसार बन्दे मां से जग संसार||
हमे सुलाने खूद जागी,लोरीया सुनायी|
जब जब रोये पालने में,अम्मा पहले आयी||
हमे झूला कर पालना,बन गयी पालनहार|
मां से जग संसार बन्दे मां से जग संसार||
चोट लगे जब भी हमको,आंसू मां के बहते|
सदा रहो खुशहाल मां के, बहते आंसू कहते||
सुख का सागर है अम्मा,दूख की तारणहार|
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
सुरेश जजावरा"सरल"
दिनांक-09/05/19
विषय-अस्तित्व/वजूद
मां से ही हमारा और इस संसार का अस्तित्व होता है तो कलम ने कहा
मां=गीत
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार|
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
हम रूठे तो मां मनाएं,खूब लुटाएं प्यार|
मां रूठे तो कौन मनाएं,कौन करे नुहार||
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
रखा कोख में नो माह तक,अपना वजन उठाया|
खूद सोयी गीले में हमको,सूखे में सुलाया||
रोज दूआएं देती अम्मा,है ईश्वर अवतार|
मां से जग संसार बन्दे मां से जग संसार||
हमे सुलाने खूद जागी,लोरीया सुनायी|
जब जब रोये पालने में,अम्मा पहले आयी||
हमे झूला कर पालना,बन गयी पालनहार|
मां से जग संसार बन्दे मां से जग संसार||
चोट लगे जब भी हमको,आंसू मां के बहते|
सदा रहो खुशहाल मां के, बहते आंसू कहते||
सुख का सागर है अम्मा,दूख की तारणहार|
मां से जग संसार बन्दे, मां से जग संसार||
सुरेश जजावरा"सरल"
विषय : वुजूद (वज़ूद नहीं )
दिनांक : 9 मई 2019
कविता वुजूद
हम अपना ही वुजूद ढूंढते-ढूंढते
हो जाते हैं
खुद एक वुजूद
जिंदगी जब निकलती है
अपनी मंजिलों पर
ढूंढने के लिए अपना वुजूद
तो दिल मांगता है एक साथी
और उस साथी की तलाश में
हमारा वुजूद
इस तरह भटकता है
जैसे सहराओं में
मृग मृचिका के पीछे - पीछे
भटकती हैं
मृगों की टोलियां
जिंदगी का यह चेहरा
जितना खूबसूरत दिखता है
वास्तव में यह उतना ही
हिंसक और खुदगर्ज है
वुजूद न मिटाया जा सकता है
न मिट सकता है
हम तो केवल अपने वुजूद के
एक खिलौने मात्र हैं
जो जिंदगी भर
अपने वुजूद की तलाश में
भटकते रहते हैं
मौलिक अप्रकाशित रचना
दिनांक : 9 मई 2019
कविता वुजूद
हम अपना ही वुजूद ढूंढते-ढूंढते
हो जाते हैं
खुद एक वुजूद
जिंदगी जब निकलती है
अपनी मंजिलों पर
ढूंढने के लिए अपना वुजूद
तो दिल मांगता है एक साथी
और उस साथी की तलाश में
हमारा वुजूद
इस तरह भटकता है
जैसे सहराओं में
मृग मृचिका के पीछे - पीछे
भटकती हैं
मृगों की टोलियां
जिंदगी का यह चेहरा
जितना खूबसूरत दिखता है
वास्तव में यह उतना ही
हिंसक और खुदगर्ज है
वुजूद न मिटाया जा सकता है
न मिट सकता है
हम तो केवल अपने वुजूद के
एक खिलौने मात्र हैं
जो जिंदगी भर
अपने वुजूद की तलाश में
भटकते रहते हैं
मौलिक अप्रकाशित रचना
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