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ब्लॉग संख्या :-392
समस्त प्रबुद्ध रचनाकारों को सादर नमन🙏🌹💐
🌹भावों के मोती🌹
19/5/2019
"स्वतंत्र लेखन"
रविवार
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
अजनबी के तरकशों में प्यार था
तीर बन दिल के लगा वो पार था।।
जब कभी गिरने लगे थे वो सनम
अजनबी सँग दे दिया हर बार था।।
ये मुहब्बत पाक मेरी रो रही
अजनबी ज़ालिम ज़माना खार था।।
चार दिन की चाँदनी का अजनबी
बन गया मेरा वही दिलदार था।।
अजनबी वो बाखुदा नादान था
चाँद की किरणों सा मोती हार था।।😊
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक
नमन मंच
दिनांक-19.05.2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा-गीत
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दृष्टि पथ से दूर मंज़िल ज्ञान से कर खोज पाऊँ ।
तुम मुझे वरदान दो प्रिय!चाह में मंज़िल बसाऊँ ।।
(01)
अर्चना की शुभ घड़ी में साँझ घिरती जा रही है ।
रूप का गुण-गान करने व्यग्रता कलपा रही है ।।
व्यर्थ क्षण जाने न दो इतना मुझे संकेत कर दो,
चाँद तारों से भरा मैं थाल पूजा का सजाऊँ ।।
तुम मुझे वरदान दो प्रिय! चाह में मंज़िल बसाऊँ ।।
(02)
गन्तव्य तक अनुस्यूत लिप्सा भर रही उत्साह मन में।
संकीर्ण हों पगडण्डियां ,हों कष्ट कितने ही विजन में।
अनगिनत पड़ते रहें निष्णात पैरों में फफोले,
भाग्य का प्राकट्य लेकर लाभ अवसर का उठाऊँ ।।
तुम मुझे वरदान दो प्रिय! चाह में मंज़िल बसाऊँ ।।
(03)
हाथ में लेकर मनोवल गांठ बाँधूं धैर्यता की।
चल पडूँ इकला डगर में लाज रख स्थैर्यता की।
पूर्ण मन संकल्प से भवितव्यता का दर्प तोड़ूँ ,
प्राणप्रिय!अनुरक्तता से सरल जीवन पथ बनाऊँ।।
तुम मुझे वरदान दो प्रिय! चाह में मंज़िल बसाऊँ ।।
(04)
तुम कहो तो साथ जीवनभर निभाता ही रहूँ मैं ।
प्राण से प्रिय!प्राण की ज्योती जलाता ही रहूँ मैं ।
कर्म है दुर्जेय फिर भी 'अ़क्स' श्रेयस ज़िन्दगी को,
कलि-कुसुम आकाश के मैं तोड़कर तुमको दिखाऊँ ।।
तुम मुझे वरदान दो प्रिय! चाह में मंज़िल बसाऊँ ।।
=========================
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया "अ़क्स"
बाह-आगरा (उ०प्र०)
सुप्रभात "भावो के मोती"
🙏गुरुजनों को नमन🙏
🌹मित्रों का अभिनंदन🌹
19/05/2019
स्वतंत्र लेखन
बूझो तो जाने🤔🤔🤔
1
गोरी के माथे की बिंदी,
रातों को मन लुभा जाए।
पिया गये परदेश तो,
मन में बेचैनी छा जाए।
नाम बताओ उसका तुम,
जिससे है मेरी पहचान।।
उत्तर:---चाँद
2
चढ़े न हरि चरण में जो,
अपनी जाती से भिन्न है वो,
रंगत से मन को बहकाए।
दूर कहीं दिख जाए तो,
नैन मंद-मंद मुस्काए।
वसंत के आगमन की,
सूचना देने आए।।
उत्तर:-- टेसु के फूल
3
बोले कागा मुंडेर पे,
खुशियाँ दस्तक दे जाए।
घर में बन रहे पूरी-पकवान,
बच्चों का जी ललचाए ।।
उत्तर :-----मेहमान
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
नमन मंच भावों के मोती
शीर्षक स्वतंत्र लेखन
विधा लघुकविता
19 मई 2019,रविवार
माँ,रात सपने में आई
बोली कैसा तू है रे
घर लक्ष्मी वधू कैसी है
काया क्रश क्यों है रे
बूढ़ा हो गया घबराना मत
संस्कारो में पला बड़ा तू
कांटे आते जीवन पथ पर
मेने देखा सदा बढ़ा तू
पौत्र बाबू गुड़िया कैसी है
करती है क्या याद मुझको
मेरी गोद मे खेले कूदे सब
ला झपकी देदु मैं तुमको
माँ तो बस माँ ही होती
स्वर्ग से सपनों में आती
कभी मुझे गले लगाती
कभी पास मुझे सुलाती
माँ मैं हूँ नतमस्तक तेरे
ऋण उऋण नहीं हो सकता
तुम अपरिमित देवी प्रतिमा
पद सरोज माँ शीश झुकाता।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
नमन मंच 🙏
सुप्रभात मित्रों 🙏😊
स्वतंत्रत लेखन
दिनांक- 19/05/2019
विधा- लघुकथा
"संस्कार"
*********
राय परिवार बहुत ही सभ्य व सुन्दर था | बड़ी बहु स्नेहा व छोटी बहु कंचन में बहुत प्यार था, धीरे धीरे परिवार बड़ा चार बच्चे व दादा दादी मिलाकर पूरे दस लोग थे | एकदिन कंचन स्नेहा से बोली, "दीदी आज कुछ बढ़िया पकाते हैं |" ठीक है स्नेहा बोली |
खाना बहुत अच्छा बना था सभी ने तारीफ़ की, फिर दोनों ने भी खाया अचानक कंचन का सिर घूमने लगा शायद थकान हो गई गई थी, स्नेहा बोली "कंचन तुम आराम करो बाकी का काम में निपटा लूँगी |" "दीदी आपको बहुत काम समेटना पड़ेगा ,कंचन बोली | " कोई नहीं बहन हम दोनों दुःख-सुख के साथी हैं एक दूसरे की तकलीफ को समझना चाहिए |" ये सब बातें उनकी सासू माँ सुन रही थी, अन्दर जाकर उन्होंने दोनों के सिर पर हाथ रखकर कहा "मैं तो धन्य हो गई मुझे इतनी संस्कारी बहुयेंं मिली |"
घर से माता पिता द्वारा मिलें संस्कार अपके व्यक्तित्व की पहचान कराते हैं|
स्वरचित *संगीता कुकरेती *
🌹नमन भावों के मोती🌹
19 मई 2019
~~~~
दिल मे बसे हो तुम जता क्यूँ नहीं देते।
जहन में रखते हो बता क्यूँ नहीँ देते।
सिला हूं मुहब्बत का तो गिला क्या करूँ
आफत ए जान हूँ तो मिटा क्यूँ नहीं देते।
कल रात ख्वाब बन कर आये सिरहाने
सताने वाले दिन का पता क्यूँ नहीं देते।
संग ए दर चूमता रहा जिनके पहलू में
गैर हूँ इतना तो ठुकरा क्यूँनहीं देते।
हूँ चश्म ए नशीन तुम्हारी नजरों में
गिरी हुई पलकों को उठा क्यूँ नहीं देते।
तुम से महकता है ये दिल खियाबां
बहारों को अपना पता बता क्यूँ नहीं देते।
मुझे क्या बना दिया मुहब्बत ने उनकी #राय
इस पागल को आ के समझा क्यूँ नहीं देते।
पी राय राठी
भीलवाड़ा, राज
नमन -भावो के मोती
स्वतंत्र लेखन
दिनांक-19/05/2019
|||रहगुज़र देख लेना||
कभी इस तरफ़ इक नज़र देख लेना
बनाकर मुझे हमसफ़र देख लेना
कि चलने से पहले पता रास्ता हो
हो कोई निशां या ख़बर देख लेना
सदाक़त की राहें न आसान इतनी
डगर है बड़ी पुरख़तर देख लेना
लगेगा पता तिश्नगी का तभी तो
के सहरा में कर के सफ़र देख लेना
अकेले में जब याद मुझको करोगे
मुहब्बत का मेरी असर देख लेना
मिलेगी यहां प्यार की पालकी इक
हमारी कभी रहगुज़र देख लेना
यहां के मकां पे मुहब्बत लिखा है
कभी मेरे दिल का नगर देख लेना
वहां छांव ठन्डी , समर भी लगे हों
कि रुकने से पहले शजर देख लेना
( समर = फल )
करे आज 'आनन्द' ये इल्तिजा है
हमें भी नज़र इक मगर देख लेना
स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
दि- 19-5-19
रविवार
स्वतंत्र लेखन
सादर मंच को समर्पित -
🌻 दोहे 🌻
**************************
🌹 जीवन है अनमोल 🌹
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
जीना तो है राष्ट्र हित , संकल्पित सत्कर्म ।
रहें समर्पित हम सदा , देश मान ही धर्म ।।
🌻🌻🌻🌻🌻
अहंकार में डूब कर , पाप करें हम रोज ।
आये जग में किसलिए,मन-मन्दिर में खोज ।।
🌺🌺🌺🌺🌺
कर्मठता, संकल्प हो , बुद्धि, विवेक प्रयास ।
साहस से बढ़ जाइये , प्रगति आपके पास ।।
🌻🌻🌻🌻🌻
बड़े भाग्य जीवन मिला , व्यर्थ न जाये बीत ।
जो बोया सो काट लें , यह जीवन का गीत ।।
🏵🌴🌻🌳🌹
प्रेम भरा हो हृदय में , मन में हो विश्वास ।
निश्छल मन से पाइये , जीवन का मधुमास ।।
🌸🌹🍃🍀🌻🌷
🍓🌱🌱 ****.....रवीन्द्र वर्मा, आगरा
मो0 - 08532852618
नमन🙏🌹💐सुप्रभात सभी गुणीजनों को नमन
19/5/2019
"स्वतंत्र लेखन"
रविवार
विधा-छंद मुक्त कविता
🍀🍂🍀🍂🍀🍂🍀
भुला दो सब गिले शिकवे
तुम से. एक बात कहते हैं
चंद साँसों पहरे हैं
मौन हर बात कहते हैं
ये रुहानी सफर थक जायेगा
एक दिन बंद आँखों में
सपने हजार रहते हैं
गिला किससे करोगे तुम
जिस्म तो खाक होते हैं
निभाना है अगर रिश्ता
तो रूह-ए -जिस्म से करलो
इरादे उसके हर दम
पाक रहते हैं
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
19/5/19😁।। साधु/असाधु ।।😁
देखो हम कहलाते हैं साधु
इन्द्रियों को किया है काबू ।।
कहायें हमारे अनोकों नाम
जैसे राम रहीम आशाराम ।।
मगर हम उनमें से नहीं
इस बात का करना यकीं ।।
हम हैं उन सबसे हटके
आप रहें मेरे संग बेखटके ।।
बस कभी मिर्गी दौरे आते
लोग मुझे जूता हैं सुँघाते ।।
आप भी यह ध्यान रखना
इसमें बिल्कुल न झिझकना ।।
ये है पिछले जन्म का पाप
यह मैं खुद कहता हूँ साफ ।।
सोचूँ कभी हर गाड़ी छोड़े पटरी
ऐसी सब के साथ कोई पाप गठरी ।।
क्यों भला इन संतों को घसीटते
संत भी तो कभी संतई से खीझते ।।
हमने वेश्याओं को खीझते देखा
साधु संतों पर उनको रीझते देखा ।।
अन्दर ही अन्दर उनकी आत्मा संत
संत की इसके विपरीत हुई असंत ।।
पता नही क्या चक्कर क्या दुख
हर एक वर्तमान से रहे नाखुश ।।
इन्द्र भी तो मृत्युलोक को तरसते
लोग दूसरों के सुख को निरखते ।।
ये ही कुछ ''शिवम" चलता है
यहाँ हरेक ही कभी मचलता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 19/05/2019
नमन मंच
विषय-स्वतंत्र लेखन
"पहचान"
छोड़ आया मैं गाँव
मेरी आदतें शहरी हो गई
बीते दिनों की यादें सब
शानो-शौकत में दफन हो गई।
खो गया गाँव का रास्ता
खो गई गाँव की कच्ची गलियाँ
भूल गया हूँ खेत की बाड़
शहर की सब गलियाँ पक्की हो गई।
भूल गया हूँ गाँव का प्रेम
भूला दिए हैं रिश्ते सारे
माँ-बाप रहते हैं गाँव में अभी
प्रेम बाती उनकी गुल हो गई।
भूल गया गाँव की दोस्ती
शहरी दोस्ती कल्ब हो गई
राह तकते रह गए गाँव के दोस्त
दोस्ती उनकी दिवंगत हो गई।
कोशिश करता हूँ बहुत मिलने की
बच्चों की जरूरतें बेहिसाब हो गई
ऑफिस में साहब की डाँट
मजबूरियाँ सब हावी हो गई।
दर्श नहीं करूँगा गाँव के कभी
मुसीबतें सारी अब हल हो गई
कटा लिए हैं गाँव से वोट मैंने
पहचान अब मेरी शहरी हो गई।
भावों के मोती
19/05/19
विषय - स्वतंत्र लेखन
दरख्त के साये से
दरख्त के स्याह सायों से
पत्तियों के झरोखे से
झांक रहा चाँद, हो बेताब
खड़ी दरीचे मृगनयनी
नयन क्यों सूने से बेजार
कच उलझे-उलझे
छायी है मुख पर
उदासी की छाया
पुछे चाँद ओ गोरी
पास नही है साजन तेरा
कहां है तेरे पीव का डेरा
बांट तकती सांझ सवेरा
तूझ को चिंताओं ने घेरा
ना हो उदास कहता मन मेरा
आन मिलेगा साजन तेरा
सुन चाँद के बैन
मुख पर रंगत आई
विरहा के बादल से
आस किरण मुस्काई।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
19/5/2019
💐💐💐💐
स्वतन्त्र विषय लेखन
💐💐💐💐💐💐💐
नमन,वन्दन मंच,
गुरुजनों,साथियों
💐💐💐💐💐💐
समन्दर का पानी अगर खारा ना होता,
तो कितनों की प्यास बुझाता।
इसके तट पर आकर भी,
सब प्यासा हीं रह जाता है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ,
प्यासों के काम ना आता है।।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
🌼🌼🌼🌼🌼🌼
आज का कार्य
दोहावली
कहे नदी की धार
****
कहे नदी की धार यह ,तुममें शक्ति अपार
बन के जीवन प्राण तुम ,कर दो सबको पार।
मुझको दूषित मत करो ,मैं जीवन आधार ।
करते हो क्यों पाप तुम,कहे नदी की धार ।
शूल बिछे हो राह में ,रुकना मत थक हार।
अविरल जैसे मैं चलूँ ,कहे नदी की धार ।।
मान मुझे मिलता यहाँ ,पूजे मातु समान ।
कहे नदी की धार !क्यों, नारी का अपमान ।।
बाढ़ और सूखा बने ,जीवन में अभिशाप ।
कहे नदी की धार अब ,जतन करो मिल आप।।
स्वरचित
अनिता सुधीर
जिंदगी
दिन की रोशनी मेरे ख्वाबों को
संवारने मे गुजर जाती हैं,
रात मेरी नींद को मनाने मे गुजरती जाती है,
जिस घर मे मेरे नाम की तखती भी नहीं,
सारी उमर मेरी उस घर को सजाने मे
खर्च हो रही है,
खींचने और मन मसोसने के दरमियाँ जिन्दगी मेरी छटपटाहट में ही गुजर रही है,
मानो तो जिंदगी मानिंद है एक रस्सी की
तरह,
जिसका एक सिरा ख्वाहिश तो दूसरा
सिरा औकात कहलाता है ,
बस बरबस इसी ख्वाहिश और औकात
की रस्साकशी में जीवन सम्पूर्ण सिमट
जाता है। कुछ अनकही सी
कामेश की कलम से
19 मई 2019
भावों केशुभ प्रातः मित्रों
भावों के मोती
मंच को नमन
दैनिक कार्य
स्वरचित लघु कविता
दिनांक 19.5.2019
दिन रविवार
विषय कान्हा
विधा भजन
रचयिता पूनम गोयल
मैं मीरा बनके नाचती ,
मैं डोलूँ , कान्हा ,
तेरे लिए ।
मुझे प्रेम का प्याला पिला देना ,
मैं प्यासी , कान्हा ,तेरे लिए ।।
मैं मीरा.............
१)-मुझे हीरे-मोती नहीं चाहिए ।
कोठी-बंगले भी
नहीं चाहिए ।।
मुझे भक्ति-रस में डुबो देना ,
मैं भटकूँ , कान्हा ,तेरे लिए ।
मैं मीरा........
२)-मुझे भाई-बंधु नहीं चाहिए ।
दुनिया का प्यार भी , नहीं चाहिए ।।
बस तू ही प्रेम
जता देना ,
मैं तरसूँ , कान्हा ,
तेरे लिए ।
मैं मीरा.........
३)-तूने लाखों पापी तारें हैं ।
उनके जीवन भी
सँवारे हैं ।।
तू मुझ पर भी
किरपा करना ,
मैं ताकूँ , कान्हा ,
तेरे लिए ।
मैं मीरा........
जय श्रीश्याम🙏💐 मोती
🙏🏻नमन मंच को 🙏🏼
दिनांक - 19/05/2019
आज का शीर्षक , स्वतंत्र लेखन
मेरे प्यारे जीजा जी जन्मदिन
🌹की हार्दिक शुभकामनाये🌹
💕मेरे जीजा ,हास्य कविता 💕
जीजा की मै करू क्या बात,
दिन भर करते वो उत्पात
हँसी ठिठोली करते जायें
साली के संग पेंच लड़ाये
घरवाली है रस मलाई
फिर भी उसके मन ना भायी
साली ही आँखों में छायी
चारो और देती वो दिखाई
नॉनवेज की खुशबू आयी
जीजा मन में ले अंगड़ाई
एक बार साली जो आये
साली के संग मौज उड़ाये
दीदी को हैं रहे मनाए
साली को घर लेउँ बुलाय
करे खुशामद दीदी की वो
चरण शरण में पड़ पड़ जाये
काले काले जीजा मेरे
तवे से गोरे जीजा मेरे
दुबले पतले जब मुस्काते
पीले पीले दांत दिखाते
जब जब मेरे पास वो आते
दुर्गंधो की वर्षा कर जाते
महीने में एक बार नहाते
चटक चपोल वो तेल लगाते
जितना करू उनका गुणगान
उनसे बढ़कर जीजा महान
दीदी की आँखों के तारे
सूख सूख वो हुए छुवारे
सास ससुर के बड़े हैं प्यारे
साली की हैं राह निहारे
मेरे प्यारे प्यारे जीजा
जग से न्यारे न्यारे जीजा
नईया की पतवार है जीजा
कोयलिया से कारे जीजा
सबके बड़े दुलारे जीजा
मुझे बहुत ही भाए जीजा
🙏🏻स्वरचित हेमा जोशी 🙏🏻
नमन मंच
भावों के मोती
विषय:-स्वतंत्र लेखन
दिनांक:-१९/०५/२०१९
#ओ_झूठ_की_चादर_तानता_है
*************************************
ओ अनेक परतो के अंदर,
झूठ की चादर तानता है ,
वह तो झूठ को सच मे ,
लपेटने की कला जनता है!
मुख से राम कहता है,
और बगल में छुरी रखता है,
अंदर दिल से काला है ,
ऊपर से उजला दिखता है!
वादे यहां जनता से करता,
सुहाने सपने दिखाता है,
भोले भाले लोगो को केवल,
झूठ परोसकर देता है!
कोई उनसे सवाल करे ,
यहां कहाँ किसी की हिम्मत,
वाह सरेआम बोलते हैं झूठ,
क्या खूब पाई है किस्मत!
राजनीति को देखो तो उसने,
षड्यंत्र का अड्डा बना डाला,
फरेब,झूठ,काले कारनामों का ,
गहरा गड्ढा बना डाला!
प्रचार सभाओं में बातों का,
उसने अखाड़ा कर डाला,
एक दूजे पे आरोप लगाकर ,
देश कबाड़ा कर डाला!
स्वच्छ शुचि आवरण ओढ़कर ,
कुनीति घटनाकार बना,
एक बार नही दो बार नही,
वह तो नेता बार-बार बना!
है वतन से प्यार अगर तो,
झूठ के पत्तों को झड़ने दो,
हम चुन लें अब सच्चा नेता ,
फरेबियों को लड़ने दो!
गिरा कर रखा जिन्होंने क्या ,
फिर उन्हें जिताओगे?
झूठ अगर विजयी हुआ तो,
फिर कभी उठ ना पाओगे!
****************************************
रचनाकार-राजेन्द्र मेश्राम"नील"
"नमन-मंच"
"दिंनाक-१९/५/२०१९"
"स्वतंत्र -लेखन"
संस्मरण
बात दो साल पहले की है,जब मैं अपनी बेटी के पास कुछ दिनों के लिए बंगलौर गई थी,मेरी बेटी एक फ्लैट में दो अन्य लड़कियों के साथ शेयर मे रहती थी,जब से मैं अपनी बेटी को इन्जीनियरिंग पढ़ने के लिए बंगलौर भेजी थी,साल मे एक बार उससे मिलने जरूर जाती थी,अब तो मेरे दोनो बच्चे जाँब मे भी आ गये थे।
बेटा तो लड़को के पिजी मे रहता था, हर हफ्ता मुझसे मिलने जरूर आता।
जिस दिन मैं आई मेरी बेटी मुझे बता गई थी,"मम्मी गीला और सुखा कचरा अलग डालना,"फिर वह आँफिस चली गई।
शाम को मेरी बेटी की एक सहेली थोड़ा जल्दी घर आ गई और मुझे समझाने लगी "अंटी बड़े शहर मे रहने के कुछ नियम कानून होते है,जिसका पालन करना होता है"और भी जाने कितनी बाते समझाने लगी,मैने उसे समझाया मै हर साल यहाँ आती हूँ,और मुझे बड़े शहर के नियम कानून पता है,देश के हर बड़े शहर मे मैं घूम चुकी हूँ, चंडीगढ जैसे प्लांड शहर मे मै रहकर भीआई हूँ।अभी पिछले माह मै आज ही के डेट मे मैं देश की राजधानी दिल्ली मे थीःऔर मै स्वयं कोई गाँव से नही आई हूँ, टाटानगर जैसे क्लीन सिटी और ग्रीन सिटी से आई हूँ, यह कहकर मै अपने कमरे मे आ गई।
दूसरे दिन उसकी छोटी बहन जो उस समय बी०डी०एस की छात्रा थी,दो दिन के लिए वहाँ रहने आई।
मै अपनी बेटी की तरह उसे फूलगोभी की शब्जी और रोटी खाने को दी,और अपने कमरे मे आ गई।
शाम को उसकी दीदी आँफिस से आने पर सिंक मे शब्जियों का ढ़ेर देखा, मैंने उसे बताया यह तुम्हारी बहन की करतूत है ,जिसे शायद बड़े शहर का नियम नही पता है,जो पाठ तुम मुझे पढा़ना चहती थी,वही पाठ यदि अपनी बहन को पढ़ाती तो तुम्हें मेरे सामने शर्मिंदा नही होना पड़ता।
उसी दिन शाम को एक बिजली मिस्त्री से उसका बहुत ही झिकझिक हो रहा था,क्योंकि काम कराने से पहले उसने मजूरी तय नही की थी, और अब काम हो जाने के बाद किसी भी तरह से उतने पैसे वह देने को तैयार नही थी,जो वह मिस्त्री माँग रहा था।,विवाद झगड़ा का रूप लेते देख, मैने किसी तरह बीच बचाव कर दोनों को एक ही राशि पर किसी तरह सहमत किया, और बिजली मिस्त्री के जाने के बाद मैंने उस लड़की को समझाया"तुम बड़े शहर के नियम कानून मुझे समझाने के बजाय, एक मूल नियम स्वयं सीख लेती कि तुम चाहे दुनिया के किसी कोने में चली जाओ,काम कराने के बाद मोल भाव नही होता, यह काम कराने से पहले होता है।
रात आठ बजे जब मेरी बेटी घर आई मैने उसे सारी बाते बताई,तब उसने मुझे बताया मम्मी"वह अपने देश की नही है वह तो दूसरे देश से जाँब के लिए आई है वर्ना उसको इतना तो पता होता कि बड़ों से बात कैसे करनी है।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
नमन भावों के मोती
तिथि : 19-05-2019
स्वतंत्र लेखन
*महकती सुबह*
वो ,महकती सुबह -कल भी थी
और --- आज भी है
फर्क , बस इतना सा है -कि ,
कल की सुबह में एक तराना था
तो ,फिजाओं में तैरती थी
फूलों की खुश्बु ,और
ईश -वंदन की ,मधुर वाणी ,
आज भी होती है ,वही सुबह
महकती है ,क्या ...?
फूलों की जगह,बारूद की गंध
ईश -वंदन की जगह,गोलियों की आवाज
और ,बेगुनाहों और मासूमों की चीत्कार
सुनाई देती है ,कानों को ...,
आओ ,चलें -करें हम वंदन ईश्वर से
कि , फिर से हो जाये वो सुबह
जो ,हरदम महकती रहे -ईश वंदन से ..||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब
स्वरचित रचना
भावों के मोती
विषय--स्वतंत्र लेखन
दिनांक--19/05/2019
#बचपन
दिन वो बचपन के थे सुहाने से,
रिश्ते जवां थे मुस्कुराने से.......।
रौनकें थीं मेहमानों के आने से,
वक्त कटता था कारनिसे सजाने से।
सामान साझे थे, बर्तन साझे थे,
रजाईयां और बिस्तरबंद साझे थे।
छतें जवां थी पापड़ सुखाने से,
काम नहीं बनता था हिचकिचाने से।
बोगेनवेलिया खिलती थी,मुंडेरे मिलती थी,
सरकंडे की कलमें थी,रोशनाई........ थी।
तख्तियां सूख जाती थी, हिलाने से
दहलीज महफूज थी, हंसते सायबानो से।
चेहरे खिलते थे भर्ती की चिट्ठी आने से,
कभी उतरते थे गमी का तार आने से।
दादी के घरेलू नुस्खों से मर्ज काबू थे,
शामें रोशन थी दिया जलाने से....।
याद होते थे पहाड़े रट्टा लगाने से,
जुबानी याद थी बारहखड़ी रटाने से।
डिबियों की रोशनी,दवातो में स्याही थी
पानी वर्जित था, जिस गांव में बेटी ब्याही थी।
दिन वो बचपन के थे,सुहाने से,
गाल सुर्ख होते थे, रेडियो के तराने से।
कितनी चाहतें फना हुई डराने से,
कितनी चाहतें परवां चढ़ी बताने से।
नींव मजबूत थी, दीवारें लखौरी थीं,
बैठकें गुलजार थी आने-जाने से।
मनों में रंजिशे और रारे न थीं,
ना जलता था, कोई जमाने से।
दिन वो बचपन के थे सुहाने से........।
शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
नमन मंच १९/०५ /२०१९
स्वतंत्र रेखन
"दिल मेरा है ढूँढ रहा"
दिल मेरा उनको है ढूँढ रहा,
जिनके बल पर हम जीवित हैं।
दिल आज उसे है ढूँढ रहा,
जिसने अकबर को ललकारा।
मैं ढूँढ रहा हूँ उसको आज,
है जिसने हल्दी घाटी का समर लड़ा।
वह महाराणा प्रताप कहाँ ?
वह पन्ना का बलिदान कहाँ?
वह भामाशाह का त्याग कहाँ?
खाई थी जिसने घास की रोटी
वह मेवाड़ी सरदार कहाँ?
दिल मेरा जिसको है ढूँढ रहा,
वह चूंडावत सा रण प्रेम कहाँ?
वह भीलों का सरदार कहाँ?
वह चेतक का असवार कहाँ?
मैं ढूँढ रहा हूँ जिसको आज
वह मेवाड़ी प्रताप कहाँ?
हम ढूँढ रहे हैं जिनको आज,
वह जयमल फत्ता से वीर कहाँ?
राणा का प्रिय रामप्रसाद कहाँ?
याराना था जिसने खूब निभाया,
वह हाकिम खां सा अब वफादार कहाँ?
वह झाला जैसा बलिदान प्रेम ,
वह महाराणा का स्वाभिमान।
जिसकी हुंकार डराती थी,
वह महाराणा प्रताप कहाँ?
वह हल्दी घाटी का बलिदान कहाँ?
वह समर प्रेम वह देशभक्ति
वह रण कौशल स्वाभिमान कहाँ?
वह महाराणा प्रताप कहाँ?
जब से देख रहा हूँ यह गद्दारी ,
जब से देखी पुलवामा घटना
दिल मेरा फिर से है ढूँढ रहा।
वह एकलिंग का दीवान कहाँ?
वह वीर प्रताप का स्वाभिमान
वह देशभक्ति वह देश प्रेम।
बलिदान धरा पर होने हेतु
वह जजबा वह रण प्रेम कहाँ?
जिसे ढूँढ रहा है दिल बार बार,
वह महाराणा प्रताप कहाँ?
वह महाराणा प्रताप कहाँ ?
(अशोक राय वत्स ) ©स्वरचित
जयपुर
कोई खोई हुई ख्वाहिश अभी बाकी है।
सब्र कर दिल आजमाइश अभी बाकी है।
इश्क में पर्दानशीं होकर तुम छुपोगे कैसे।
होनी सरे बाजार नुमाइश अभी बाकी है।
हाय कसमों से न वादों से परखना ऐसे।
अपने इरादों की पैमाइश अभी बाकी है।
कुछ सितम और भी हों तो किये जाना।
दिल में जख्म की गुंजाइश अभी बाकी है।
मिटा सको तो मिटा लो निशान यादों के।
तेरे दिल मैं मेरी रिहाइश अभी बाकी है।
विपिन सोहल
,🌷🌷🙏🙏,जय माँ शारदा देवी,,🙏🙏🌷🌷
नमन मंच भावों के मोती
18/5/2019
बिषय स्वतंत्र लेखन
शायद हर किसी को मेरी
रचना पसंद नहीं आएगी
कड़वी भाषा मन को
न सुहाएगी
मेरे कटु अनुभव ही
कलम में उतरते हैं
जमाने की सच्चाई
से शब्द संवरते हैं
ए रंगीली दुनियॉ से
अब तक जो मैंने पाया है
ह्रदय पटल पर अपने
हमने भी सजाया है
जख्म छिपाकर
मुस्कराना सीख लिया
हमने भी जमाने को
निभाना सीख लिया
स्वरचित
नमन "भावो के मोती"
19/05/2019
स्वतंत्र लेखन
😊😊
जमाना घायल है आशिकी से
लिया है चैन मेरा सादगी ने।।
शिकवा क्यों करुँ दुश्मनी से,
मुझे तो मार डाला दोस्ती ने।।
मेरा दिल है रोता खामोशी से,
जो मारा है उसकी मौजूदगी ने।।
कसूर न आग का इसमें कहीं,
जलाया है अश्क़़ों की नमी ने।
गले लगा ले ऐ मौत मुझे,
दिया जो तोड़ मुझे जिंदगी ने।
अमां के अँधेरों में खो गया,
छुपाया जो चाँद को रौशनी ने।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
नमन भावों के मोती
स्वतंत्र सृजन
तिथि 19/5/19
वार. रविवार
ये मानुष है, करे क्रंदन
दंभ मे कहता पल पल
चला जाऊंगा जब
पता लगेगा तब
अंत. होगा जब
आदि होगा तब
ये मानुष है , करे क्रंदन
कटु सत्य से हो अवगत
ये जीवन है , अविरल
ना रुका है , ना रुकेगा कल
!!!!!!
ये सूरज है ,चमके नभ
कभी ना कहता
छिप जाऊंगा जब
पता लगेगा तब
दिवस होगा जब
चमकूंगा धरा पर तब
कटु सत्य से हो अवगत
ये सूरज है ,चमके नभ थल
निकलता है ,निकलेगा भी कल
!!!!!!
ये नदियाँ है , बहे निरंतर
कभी ना कहती
सूख जाऊँगी जब
पता लगेगा तब
बदरी बरसे झमाझम जब
भर जाऊँगी लबालब तब
कटु सत्य से हो अवगत
ये नदियाँ है ,बहे निरंतर
बह रही है,बहती रहेगी कल
!!!!!!
ये रूह है ,ये प्राण है
उड़ जाने है ,एक दिन
तन से कुंदन उतरेंगे सब
तेरे अपने ही आग देंगे तब
अस्थियाँ होंगी राख़ जब
पुत्र बाँट लेंगें सारे धन तब
पाप पुण्य का लेखा होगा जब
कोई भी काम ना आएगा तब
कटु सत्य से हो अवगत
हे ! मानुष ,ना कर क्रंदन
कर ले नाम प्रभु का वंदन
तू है बस आज ,नहीं रहेगा कल
स्वरचित मौलिक
#पूनमसेठी
#बरेली उत्तरप्रदेश
सा. साथियों नमन
तिथि ःः19/5/2019/रविवार
बिषयःःः# मोदी हटाओ#हास्य व्यंग्यः
विधाःः ःकाव्यः ःं
नहीं चाहिए हमको कुछ भी
केवल मोदी हमें हटाना है।
मिलकर सारे जोर लगाऐं,
लेकिन मोदी हमें भगाना है।
गधे घोडे खच्चर सब जोडे।
खूब रूपैया यहां सब जोडे।
एक साथ सब रेंकें मिलकर,
हाथ सभी ने मिलकर जोडे।
व्यंग्य वाण नित छोडे मिलकर।
हम झूठ सांच भी बोलें मिलकर।
हास्य कविसम्मेलन नित्य कराते,
हम खूब मनोरंजन करते मिलकर।
कोई कितना भी बडा गधा हो।
मोदी विपक्ष में अडा खडा हो।
उसको भी हम कुर्सी पर बिठाऐं,
चाहे कितना भी चिकना घडा हो।
जो जितनी गाली मोदी को देगा,
वह बडा नेता गठबंधन का होगा।
सत्ता हाथ में अपने चाहे जैसे आऐ,
भविष्य दुखद असमंजस में होगा।
स्वरचितःः मौलिक
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम
सा. #मोदी हटाओ# काव्यः
19/5/2019/रविवार
हास्य व्यंग्यः ः
नमन मंच
भावो के मोती
स्वतंत्र लेखन
19 /05/ 10
1222 122
मेरा इकरार भी तुम
मेरा इनकार भी तुम।
मेरी पलकें जो करती
झुका इजहार भी तुम।
सुकूँ बनकर जो आया
मेरा इतवार भी तुम।
जमीं का बाशिंदा हो
गगन के पार भी तुम।
खुदा तुम हो सनम हो
मेरी दरकार भी तुम।
ख़ुशी की ख्वाहिशें बन
मिले हर बार भी तुम।
लबों पर नाम है 'मन'
कहो ना प्यार भी तुम।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
नमन मंच
स्वतन्त्र लेखन
19/5/2019
घर
तब मकान नहीं घर हुआ करते थे
रिश्ते भी ख़ुश्क नहीं तर हुआ करते थे
आँगन में नहीं हुआ करती थीं दीवारें
फासले का कारण भी नहीं होती थीं, तकरारें
क्योंकि मकान नहीं घर हुआ करते थे
बुजुर्गों की बैठक के लिए होते थे दालान
जहाँ कोई अनजान भी होता था मेहमान
क्योंकि मकान नहीं घर हुआ करते थे
सामना हो जाये अगर गाँव की बहू बेटी से
तो बड़े रास्ता बदल दिया करते थे
तब घरों में पर्दे नहीं,सम्मान हुआ करते थे
क्योंकि मकान नहीं घर हुआ करते थे
कंघी से लेकर किताबें सब साझा होता था
कहीं कुछ भी नहीअपना अपना,
कम या ज्यादा होता था
तब "सामान" नहीं सब "समान"हुआ करते थे
क्योंकि मकान नहीं घर हुआ करते थे
माँ बाप की सेवा फ़र्ज़ होती होती थी
बुढ़ापे में बंटकर कर्ज़ नहीं होती थी
बच्चों के घर में वो मेहमान नहीं हुआ करते थे
माँ बाप बच्चों पर अहसान नहीं हुआ करते थे
क्योंकि मकान नहीं घर हुआ करते थे
रिश्ते ख़ुश्क नही तर हुआ करते थे
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
नमन भावों के मोती
दिनांक - 19/5/2019
आज का कार्य - स्वतंत्र लेखन
------हादसा------
मेरे जीवन में एक
ऐसा हादसा हो गया
मैं क्या था तब
अब क्या हो गया
कोई नहीं पूछता था मुझे
अब सबका नज़रिया चेंज हो गया
पास बैठे भी नहीं बतलाते थे जो
अब सबका फैन हो गया
करते जी-हजुरी सलाम-नमस्ते
सबका चाहता हो गया
लेते राय-मशविरा सभी
सबका खासमखास हो गया
सुनी अनसुनी कर देते थे
लगता कहीं अस्तित्व खो गया
अब सुनते बड़े ध्यान से
और मेरा महत्व हो गया
हो भी क्यों ना ये सब
जिन्दगी में बड़ा हादसा हो गया
तब मैं गरीब था
अब मैं अमीर हो गया
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)
शुभ साँझ
🌷ग़ज़ल🌷
दिल में बसने वाली वो पहली पसंद थी
सचमुच वो सोलवें बसंत की सुगंध थी ।।
कैसे भूल सकता हूँ भला उसको मैं
वह बिल्कुल पूर्णचंद के मानिंद थी ।।
दिल में उतरी वह पहली ही नजर में
जरूर जन्मों की उससे आबंध थी ।।
खूबसूरत शायरी यह उस से ही है
उसी से ये खूबसूरत पंक्तियाँ चंद थी
पहली नजर में पहचाना वह रानी है
पर मेरी किस्मत वैसी कहाँ बुलंद थी ।।
किस्मत में और भी कइयों जख्म थे
ये तो बाग से आती मनमोहक गंध थी ।।
जो दिल को लुभाकर गई ''शिवम"
अब तो उसकी यादों की ही धुंध थी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 19/05/2019
नमन भावों के मोती,
विषय, स्वतंत्र लेखन,
दिन, रविवार,
दिनांक, 19, 5,2019,
अनबूझ पहेली जीवन होता,
ज्ञानी भी इसे समझ न पाता।
कब और कहाँ पर रिश्ता किसका,
अनजानी राहों से जुड़ जाता।
बेगाना कब अपना हो जाता,
दिल उसके बिना रह नहीं पाता ।
मझधार में छोड़ जब वह जाता ,
मन का पंछी निराश हो जाता ।
अंधकार मय जीवन सब लगता ,
उत्साह का विसर्जन हो जाता ।
मातु पिता भगिनी और भ्राता,
लगे पराया सबसे ही नाता ।
उसने कैसा एहसास जगाया,
प्राण प्रिय हुआ कोई पराया ।
ये संसार ईश्वर की माया,
कौन इसे यहाँ समझने पाया ।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
विषय - स्वतंत्र लेखन
____________________
कंटीली झाड़ियों सी ज़िंदगी
तभी अपनों को चुभती रहती
किसी की कही बातों से
कभी किसी के विचारों के विरुद्ध
अपनों से ही द्वंद करती रहती
बातों से बार-बार
अपनों पर चोट करती
नहीं होती है हर किसी की एक सोच
कोई कम तो कोई ज्यादा
अलग होता हर किसी का इरादा
बस धारणाएं ग़लत बनती जाती
अनजाने में ही सही
दिल पर चोट करती जाती
दरकने लगते हैं रिश्ते अंदर ही अंदर
फिर पहले जैसी बात कहाँ रह जाती
बदल रहा है वक़्त बदल रही है सोच
हर कोई बदल रहा यह समय का है जोर
जाने-अंजाने में कही बातों को भूल
मत चुभाओ कभी भी
किसी को भी बातों के शूल
रिश्तों की अहमियत को समझकर
मत पालो किसी के लिए भी नफ़रत
नहीं तो रह जाएगी रिश्तों की लाश धरी
समय में न संभले तो हो जाएगी देरी
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित✍
भावों के मोती दिनांक
दिनांक 19/5/19
स्वतंत्र लेखन
विधा - लघुकथा
मजबूरी
रामलाल अपनी जिंदगी भर की कमाई लगा कर शानदार मकान बनवा रहे थे । उनके दो लडके थे बड़े गर्व के साथ वह लोगों से कहते :
" अरे दोनों के लिए रहने लायक सभी सुविधाओ वाला घर तो चाहिए ना , सभी " टू बी एच के "
के बनवाए है । "
रामलाल के दोस्त शंकरलाल ने एक दिन पूछ ही लिया :
" और तू कहाँ रहेगा रामलाल "
रामलाल ने कहा :
" अरे दोनों अपने लडके ही तो है , किसी के यहाँ भी रह लेंगे और ऊपर नीचे की तो बात है ।"
बात आई गयी हो गयी ।
मकान पूरा होने पर था , तभी रामलाल के दिमाग न जाने क्या आया उन्होंने ऊपर छत पर एक टीन के शेड का कमरा बनवा लिया। शंकरलाल ने फिर पूछा :
"इतना शानदार मकान बनवाया है फिर यह टीन का कमरा कुछ समझ नहीं आ रहा ? "
रामलाल ने कहा:
" अरे कुछ नहीं बस यूँ थोडा बहुत पुराना कबाड़ का सामान रखने के काम आयेगा ।"
उस समय रामलाल के दोनों बेटे भी थे और वह मुस्कुरा दिये ।
रामलाल अव सेवानिवृत हो गय थे और दोनों बेटों की शादी हो गयी थी । घटनाक्रम तेजी से चल रहे थे , रामलाल की पत्नी का देहान्त हो गया , वह पोते पोती वाले हो गये शरीर थकने लगा ।
बहुओं की अपेक्षाऐ बढने लगी , रामलाल जी बोझ हो गये । चाहे वह नीचे रहे या ऊपर एक कमरा तो अटक ही जाता है । लडके अपनी बीबियों के कहने में आ गये थे ।
खैर शंकरलाल पर्दे के पीछे से हर गतिविधि पर निगाह जमाये हुए थे
विडम्वनाओ के साथ अरन्तु परन्तु के दौर घर में चलने लगे थे ।
मकान पर दोनों बेटों का बराबरी का हक हो गया था , आजकल वसीयत पूछता कौन है , ताकत है तो वसीयत है वरना लाचारी और बेटे बहुओं की दयादृष्टि।
रामलाल पर केन्द्रित चर्चाओं का दौर रोज होता था :
" बाबूजी रात रात खांसते हैं, अरे अब तो खटिया पर ही करने लगे है पूरे घर में बदबू फैलती है ।
कुल मिलाकर भूमिका यह बन रही थी रामलाल को घर से बाहर कैसे और कहाँ किया जाए ?
जब बात वॄध्दाश्रम तक पहुँची,
तब रामलाल को टीन के शेड का कमरा याद आया ।
वह बिना किसी से कुछ कहे अपना सामान समेट कर उसमें चले गये।
यह सब उन्हें ऐसा लग रहा था :
" जैसे सगा बेटा धोखा दे जाए और कोई गैर बेटा साथ दे रहा हो ।"
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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