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ब्लॉग संख्या :-398
शीर्षक -- ।। जिन्दगी ।।
विधा-- ग़ज़ल
जिन्दगी जंग है जो जन्मों से छिड़ी
मुक्ति को प्राप्त होना ही हमारी धुरी ।।
हम अपने आप से ही हैं हारे हुए
विडंबना है कई जो हर जगह भरी ।।
वरना विजय पताकायें कहीं न गईं
विजय हमारे पास ही होती है धरी ।।
जब गिरायी अपनी चाह ही गिरायी
ऐसी है प्रारब्ध से भरी हुई तस्तरी ।।
जो हम लेकर आये किससे कहें
कहने में नही यह भलाई गढ़ी ।।
जिन्दगी तूँ इतनी गूढ़ थी सोचा न
क्या कहें ''शिवम" बडी़ भारी पड़ी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित26/05/2019
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सुप्रभात "भावो के मोती"
🙏गुरुजनों को नमन🙏
🌹मित्रों का अभिनंदन,🌹
26/05/2019
स्वतंत्र लेखन
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जला के यूं दीया बुझाना हुआ है।
कि सूरत को दिल से हटाना हुआ है।।
वफा ने मुझे बेवफा कर दिया है।
ये कैसा जहां का ज़माना हुआ है।।
खता क्या हुईं मुझसे आखिर बताओ
जो महफिल से उठ के यूं जाना हुआ है।।
ये तकदीर भी साथ मेरे नहीं है।
बहुत बेरुखी से सताना हुआ है।।
जो दीदार तेरा चाहा था हमने।
तो सपनों को ही अब जलाना हुआ है।।
दुखाना न मन को जियादा तू " बॉबी" ।
भरोसा ही झूठा दिलाना हुआ है।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल
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कुछ तुम्हे याद तो आया होगा।
कैसे एक दिल को दुखाया होगा।
यह दर्द सीने में दबाकर हमने।
कैसे जख्मों को छुपाया होगा।
यह शोहरत और एक तेरा नाम।
यूं मेरी ग़ज़लो में नुमाया होगा।
सोचा था किस्मत का इम्तिहां लूं।
उसी रोज तुम्हे मैने बुलाया होगा।
शाम घिर आई मगर तुम न आए।
यकीं दिल को कैसे दिलाया होगा।
तुमको शायद खबर हो के न हो।
हादसा कैसे हमने भुलाया होगा।
बिखर गयी है रोशनी महफिल में।
चेहरे से घूंघट को हटाया होगा।
आज हर साँस धुआँ धुआँ सा है।
खत मेरा तुमने जलाया होगा।
मुझे पसंद है तो बस वही नगमा।
मैने लिखा जो तुमने गाया होगा।
स्वरचित विपिन सोहल
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26/5/2019
नमन मंच।
सुप्रभात गुरुजनों, मित्रों।
स्वतंत्र विषय लेखन
💐💐💐💐💐💐💐
हास्य कविता
🌸🌸🌸🌸
मुहब्बत करना ,
उसके दिल पर बड़ा नागवार गुजरा,
वो अपने बेटे के साथ जा रही थी,
जब वो उधर से गुजरा।
जिंदगी भर जिसको समझा था हीरोइन,
वो गैरों के घर में बर्तन धो रही थी,
जब वो उधर से गुजरा।
मुहब्बत..............
जिसे फूल भेजते रहे जिन्दगी भर,
वो नुक्कड़ पे वही फूल बेच रही थी,
जब वो उधर से गुजरा।
मुहब्बत............
जिसको जेवर भेजते रहे,
उपहार में हरदम,
जेवर की दूकान में वो काम करती थी,
जब वो उधर से गुजरा।
मुहब्बत..........
💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
💐💐💐💐💐
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🙏🙏🌹जय माँ शारदे,🙏🙏🌹🌹
नमन मंच भावों के मोती"""
26/5/2019
बिधा,,, स्वतंत्र लेखन
,,,,मायका,,,
माँ शब्द से ही बना है मायका
माँ नहीं तो कुछ नहीं जायका
माँ तुम न जाने किस
जहां में खो गईं
मॉ तुम निर्मल थी
निष्ठुर कैसे हो गईं
सच कहूँ मॉ तुम्हारे बिन
सब कुछ बेगाना लगता है
बो अपनापन कहॉ किसी में
पराया जमाना लगता है
वो ममता की छांव नहीं
वो शीतल तेरा ऑचल
कोना कोना खोजती
नजरें मेरी हर पल
यदि पहुँचने में देर होती
खबरों पे खबर पहुँचाती
हम बच्चों की हर घड़ीं
चिंता तुम्हें सताती
नाती पोंतों की शैतानी
देख देख मुस्कराती
फरमाइशें सभी की
दौड़ दौड़कर पूरी करती
दिन भर चूल्हे चौके नें
धरती पर तुम पांव रखती
वक्त लौटने का जब आता
आंसुओं से दामन भर लेती
ए भी रख लो वो भी रख लो
सामान सहेज सहेज कर देती
नजरों से ओझल न हों
तब तलक देखती जाती
लाखों सीख सबक देकर
अम्मा तुम हमको समझाती
तुम्हारे बिन मॉ किसी
के दिल में चाह नहीं
सालों भी न जाओ तो
कोई देखता राह नहीं
एक बार तो आ जाओ
जी भर के देख लूं
तुम्हारा प्यार लाड़
बाहों में समेट लूं
स्वरचित,,,,, सुषमा ब्यौहार,,,,,, update
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
दि- 26-5-19
स्वतंत्र लेखन
सादर मंच को समर्पित --
🌹🍒🌻 गीत 🌻🍒🌹
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🌸 जीवन है अनमोल 🌸
🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒
जीवन यह अनमोल मिला है ,
इसको सफल बनाना सीखें ।
सुख-दुख तो प्रभु का प्रसाद है ,
हँसके गले लगाना सीखें ।।
बाह्य जगत में क्यों हम खोजें ,
वह तो प्रकटे स्वतः मन में ,
जीने का आनन्द सदा ही
जीने वाले की दृष्टि में ।
दृष्टिकोण का भेद बनाता ,
काँटे फूल , फूल को काँटे ,
चुनलें पल-पल की खुशियों को ,
बिखरी हैं जो इस सृष्टि में ।।
सबसे पहले स्वयं को जीतें ,
मन को सबल बनाना सीखें ।
त्याग और विश्वास के बल पर ,
मंजिल पर बढ़ जाना सीखें ।।
दुख को सहज मान कर बन्धु ,
खुश रहने की आदत डालें ,
संकट से घबराना कैसा ,
संघर्षों को कर्म बनालें ।
पीडा़ से बढ़ती है क्षमता ,
तप के और निखरता कुन्दन ,
नहीं छोड कर धैर्य बल को ,
लक्ष्य पे अपनी दृष्टि जमा लें ।।
बाधा आयें, प्रयत्न न रोकें ,
अनथक पुरूषार्थ से जीतें ,
ज्ञान मंत्र और कर्म तंत्र से ,
लक्ष्य बिन्दु को पाना सीखें ।।
सुख का नाता नहीं है धन से ,
निर्मल तन-मन सच्चा सुख है ,
जो भी होता , अच्छा होता ,
प्रभु की इच्छा सदा अटल है ।
प्यार बाँटते रहें हमेशा ,
सुमन सा जीवन सदा खिलेगा ,
है संतोष परम धन भाई ,
शान्ति , प्रेम ही जीवन बल है ।।
बन्धन मुक्त कहाँ है प्राणी ,
ज्ञान चच्छु से जीना सीखें ।
देख रहा ईश्वर सब मीता ,
तन-मन अर्पण करना सीखें ।।
🍇🌱🌻🌹🍍🍑
🌻🌱***... रवीन्द्र वर्मा , आगरा
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
मधुबन सा,
सारा जग लगता,
ऐसी गंध बसी है,
जब से मिले,
उमर की कुटिया,
राजभवन लगे,
जाने क्या हुआ,
जेठ लगे सावन,
मन भावन लगे,
ऐसा मौसम,
प्यारा प्यारा सा लगे,
बिन दीया के,
रहता है उजाला,
सूनी मेरी कुटिया,
मधुबन सा,
सारा जग लगता,
जनम जनम के,
जीवन साथी,
प्राण मरु जमी भी,
वृन्दावन लगता,
मधुबन सा,
सारा जग लगता।।
स्वरचित सेदोका गीत
देवेन्द्रनारायण दास बसनाछ,ग,।।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
नमन मंच
26/05/19
स्वतंत्र लेखन
***
दोहावली
***
लोकतंत्र के पर्व में ,जनता की है जीत।
झाँसे में आए नहीं ,निभा देश सँग प्रीत ।।
******
सोच समझ निर्णय लिया,किया विपक्ष को हीन।
जनता के विश्वास से, .......गठबंधन है दीन ।।
*****
कीचड़ तुम इतना किये,खिला कमल का फूल।
केसरिया सब जन हुये,.......वंशवाद निर्मूल ।।
*******
नफरत का ये विष पिला,सोचो ये क्या पाय
परहित में विष पान कर ,महादेव कहलाय।।
********
राष्ट्र के निर्माण में ,साथ बढे जो हाथ ।
उन्नत होगा देश तब ,युगपुरूष के साथ।।
********
मूल्यों पर अडिग रहे ,रखे रहे तुम धीर ।
जीवन तुम ऐसा जिये,खींची बड़ी लकीर।।
स्वरचित
अनिता सुधीर
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नमन मंच ..भावों के मोती
विषय .... स्वतंत्र लेखन
तिथि ..... 26-05-2019
वार ..... रविवार
काव्य रचना
*चलो -थोड़ा रूमानी हो जायें *
चलो थोड़ा ...
रूमानी हो जायें ,मौसम भी
सर्द हो गया है --और
हवाओं में भी मादकता छा गई है
चांदनी भी कुछ कुछ नर्म हो गई है
तारे भी अंबर में सिमट से गये हैं
चलो थोड़ा ...
घूम आयें , देखो तो कैसे
बेताब हो रहे हैं तारे ,और
मचल रही है चांदनी ...
दीदार करने को
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य का
चलो थोड़ा ...
घूम आयें, और
रूमानी हो जायें ,हम ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब
स्वरचित मौलिक रचना
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भावों के मोती
26/05 /19
विषय - स्वतंत्र लेखन।
श्रेणी लघु कविता...
आज नया एक गीत ही लिख दूं
वीणा का गर तार न झनके
मन का कोई साज ही लिख दूं
मीहिका से निकला है मन तो
सूरज की कुछ किरणें लिख दूं
धूप सुहानी निकल गयी तो
मेहनत का संगीत ही लिख दूं
कुछ खग के कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की चटकन लिख दूं
क्षितिज मिलन की मृगतृष्णा है
धरा मिलन का राग ही लिख दूं
चंद्रिका ने ढका विश्व को
शशि प्रभा की प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
स्वरचित
कुसुम कोठारी ।
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26/5/19
भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन
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कभी फुर्सत मिले तो देख ज़रा
कितना खूबसूरत यह ज़हान
देखो कुदरत के नज़ारे
फूल पौधे कितने प्यारे
सुन कोयल की आवाज़
अमराई मुस्कुराती
बारिश की फुहारों में
धरती धानी चूनर लहराती
नाचने लगते मोर
जब दामिनी करती शोर
प्रकृति का खूबसूरत नज़ारा
कभी फुर्सत मिले तो देख ज़रा
पहाड़ों से गिरते झरने
गीत-सा गुनगुनाते हुए बहते
हवाएं जोर से चलती
पेड़ों की शाखाओं को हिलाती
पत्तों के टकराने से
एक सुंदर सरगम बजती
क्षितिज के छोर पर डूबता सूरज
सागर के दर्पण में खुद को निहारता
कल फिर मिलेंगे कहकर विदाई लेता
टिमटिमाते तारों से सज जाता आकाश
चाँद मन को भाने लगता
प्रकृति का सुंदर नज़ारा
कभी फुर्सत मिले तो देख ज़रा
***अनुराधा चौहान***©स्वरचित✍
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नमन मंच को
दिन :- रविवार
दिनांक :- 26/05/2019
विषय :- स्वतंत्र लेखन
कुछ कहे कुछ अनकहे..
"किस्से" खुशियाँ दे जाते है..
कुछ छूए कुछ अनछुए..
"एहसास" सुकून दे जाते है..
सवालों के घेरे में अक्सर..
कभी हम अकेले रह जाते है..
जज्बात सदा दिल के...
बस दिल में ही रह जाते है..
कैसे कहें किससे कहें..
कोई शख्स नजर नहीं आता..
घिर जाते स्व अहंकार से जब..
कोई रास्ता नजर नहीं आता...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
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मंच को नमन
दिनांक-26/5/2019
विषय-स्वतंत्र लेखन
चाहती हूँ आज कुछ लिखना
ख़ुद से पढ़ना और संग पढ़ाना
💔💔💔💔💔
स्याही सूख रही है
कलम कंपकंपाने लगी
फिर भी शब्द आंदोलित हैं
निज लेखन धर्म निभाने लगी
अंतरमन के द्वंद्व से जूझकर
किसी की वेदना के साये में
तेरी सहनशीलता की बंदिगी का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
जब से देखें है इन आँखों ने
तेरी आँखों के तरल आँसू
उनकी अविरल धारा का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
बताता है मुझको हर दर्द
तेरा कुम्हलाया हुआ चेहरा
उस चेहरे की हर उदासी का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
जो ज़ुल्म यातनाएँ तूने सही
ममता के नाम पर मौन ही रही
बहुत सह लिया है अब तलक
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
एक मुद्दत से तुम सोई ही नही
दिन रात का भेद कर पाई नही
तेरी कुंठित व्यथित ज़िंदगी का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
जिस मोह माया के धागों में
ख़ुद को लपेटकर जीती रही
उन एक एक धागों का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
ख़ुद को ख़ुद से मिटाती रही
उन ओछों को खिलाती रही
आज तेरे मुख के निवाले का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
जिन खेतों में तुम ने अपना
रक्त पसीना अब तलक बहाया
तपती दोपहर लू के थपेड़ों का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
माँ,दुनिया का सर्वोत्तम शब्द
करुणा मूर्त पर ममता घायल
तेरे रिसने वाले हर घाव का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
तेरा कृशकाय वृद्ध शरीर
आँखों से ओझल होता नही
रह रहकर उठती हर टीस का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
परम्परा के नाम की देकर दुहाई
पराई बनाई गई हूँ सदा मैं
तुझ से दूर रहने वाली
एक बेटी की विदाई हूँ मैं
उस परम्परा के वजूद का
अब मैं हिसाब चाहती हूँ
✍🏻संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित
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रविवार,26 /5/19
नमन"भावों के मोती"
स्वतंत्र लेखन
*
घनाक्षरीः
मोदी-मारतण्ड ले,प्रचण्ड ओज आया फिर,
विहँसा सरोज - पुंज , अंधकार खो गया।
सबके विकास ,सर्व साथ ,राष्ट्रवादिता की,
आँधी मचली , विपक्ष तार - तार हो गया।
फहरी पताका फिर, राष्ट्र के अखण्डता की,
ध्वस्त 'टूक - टूक गैंग' , का विचार हो गया।
जयी राष्ट्र - नायक , नरेन्द्र - राजहंस हुआ,
हारा काक - बक - वंश , शर्मसार हो गया।।
--डा.उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ'
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नमन
भावों के मोती
स्वतंत्र सृजन
***
कितने भले थे वो बीते हुए पल
न जाने हाथों से कैसे छूटता
जा रहा है अपना वो कल।
लम्हें वो बड़े हसीन थे
हम दादी ,मां बाबा के करीब थे
भाई बहनों की दोस्ती यारी
न गिले शिक़वे
न कोई मारामारी!
बस प्यार , मनुहार संग
बड़ी प्यारी थी ज़िन्दगी हमारी।
घर की पाठशाला के संस्कार
थे हम सबमें भरमार!
आज के बच्चों ने पढ़ ली
हमसे किताबें ज्यादा चार...
तो बदल गया है उनका व्यवहार!
अब सिर्फ दिखता
उन्हें आने वाला कल..
ऐशो आराम से भरा,
नोटों से पटा..
आंगन भी दिखता
परिवारों में बटां।
काश!वापिस लौटा दे
कोई बीते हुए पल
जो देते थे हमें
खुशियों की सौगातों संग
जीवन सरल।
***
स्मृति श्रीवास्तव स्वरचित
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
शुभ साँझ
🌷ग़ज़ल🌷
चश्मा वाली चश्मा क्यों उठाया है
चश्मा उठाके तीर क्यों चलाया है ।।
वैसे भी यह घायल दिल है कब से
घायल दिल का इलाज न कहाया है ।।
क्या इरादा है आखिर मार डालोगे
चाँद से इस चेहरे ने गजब ढाया है ।।
मर मिटा था पहली नजर में दिल
आज फिर जुल्म यह कहाया है ।।
रटते थे दीदार को कब से ''शिवम"
आज धड़कनों को और बढ़ाया है ।।
दिल का रोग अजब रोग है जाना
निजात न इससे कभी कोई पाया है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 26/05/2019
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
26-5-2019
विधा :-गोपी छंद
वर्ष नूतन है सखि आया , पिया का संदेशा पाया ।
भाग्य मेरा है अब जागा , विरह का दुख है अब भागा ।।
नया खुशियाँ है ले आया , प्रेम उपहार पिया पाया ।
हृदय पर मस्ती है छाई । शीत ने ले ली अँगडाई ।।
ताप बिछुड़न का दे जारी ।। पिया बिन जीना है गारी ।।
पिया बिन रातें है कारी , लगें उसके बिन अति भारी ।।
बोल रहा कागा मुँडेरे , शीघ्र लौटें गें पी तेरे ।
खबर लो आन पिया मेरे , तड़प रहती हूँ बिन तेरे ।।
रात दिन ढूँढे दिल मेरा , कहाँ छिप गया चाँद मेरा ।।
टूट कर गिरती हूँ ऐसे , सितारा नभ का हो जैसे ।।
सर्प से दिखते कच मेरे , कंठ को रहते हैं घेरे ।
पिया विपदा ने है घेरा , रहें डँसते ये दिल मेरा ।।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा
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नमन मंच
26/5/2819 रविवार
मन की बतिया सब रीत गई
मेघों का मन भी डोला था
बरस गए,कुछ अनबोला था
मन भी कुछ डोला डोला था
सुंदर वो घड़िया बीत गई
मन की बतियां सब रीत गई
मन नदियां कूल किनारा
ढलती शामों का वो तारा
जो मन भावन था प्यारा
नज़रों से कब .नींद गई
मन की बतिया सब रीत गई
बिखर गई जब पाव महावर
मन जिस पर हुआ निछावर
गीतों के सुर सब गए बिखर
संग मीत के रुत बीत गई
मन की बतिया सब रीत गई
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
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नमन मंच २६/०५/२०१९
स्वतंत्र विषय लघु कविता
" आ जाना तुम पास प्रिये"
इस कदर न तोड़ो दिल को,
यह सहन नहीं कर पाएगा।
यों रुखसत न होओ दिल से,
यह तुम बिन धड़क न पाएगा।
न जाओ इसको छोडकर तुम,
यह जुदाई न दिल सह पाएगा।
न खेलो समझ खिलौना तुम,
बड़ा नाजुक है सम्हल न पाएगा।
यदि हर पल इससे खेलोगी,
बगिया को न महका पाएगा।
इसलिए विनय यह है तुमसे
इसको रख लो तुम अपने पास।
जब मिल जाए दिल से यह दिल,
तब आ जाना तुम मेरे पास प्रिये।
(अशोक राय वत्स)©स्वरचित
जयपुर
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नमन भावों के मोती
विषय - स्वतंत्र
26/05/19
रविवार
जिद्दी
जिद्दी ही जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त कर पाते हैं ,
केवल बातें करने वाले कहकर ही रह जाते हैं |
जिद न होती तो भारत को आज़ादी न मिल पाती ,
अत्याचारी अंग्रेजों की जड़ें कभी न हिल पाती|
जिद के बल पर गाँधी जी ने सत्याग्रह आरम्भ किया ,
सत्य-अहिंसा से आज़ादी पाने का संकल्प किया |
मातृभूमि की सेवा की जिद ने ऐसा परिणाम दिया ,
अगणित देशभक्त वीरों ने प्राणों का बलिदान किया |
जब भी कोई विकट समस्या जग को आहत करती है ,
तब जिद्दी लोगों की करनी से ही राहत मिलती है |
काश आज की युवा पीढ़ी अपनी जिद पर अड़ जाए ,
तो समाज में कोई समस्या या फ़साद न रह पाए |
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
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नमन मंच
विषय - स्वतंत्र सृजन
दिनांक 26/05/2019
रचना - ग़लीचा अपने पन का
क्यों न हम बिछा दें
एक ग़लीचा अपनेपन का
प्रखर धूप में
जलते अशांत चित पर
स्नेह, करूणा और बंधुत्व का
अपनेपन के रंगों में रंगा
मख़मली एहसासों से सजा
मनभावन ग़लीचा
सजाये मन के द्वार पर
किसी प्रिय के लिए ही क्यों
सभी को प्रिय बनाने के लिए
कुछ पल के लिये ही क्यों
हर पल के लिये
न भावों को दौड़ाएँ
न उम्मीद की गठरी रखें
ग़लीचा पैरों पर या
पैर ग़लीचे पर ....
ख़यालों में नहीं इत्मिनान से चले
गलत-फ़हमी की जमीं धूल
वक़्त -बे - वक़्त झाड़ ले
न जमे द्वेष
द्वेष के एहसास को मिटा दें
वक़्त की तेज़ धूप में उड़ जाता
रंग ग़लीचे का
समेट देती हैं जरूरतें
ग़लीचे के मख़मली एहसास को
रखें ख़याल
हृदय में बिछे बंधुत्व के ग़लीचे का
क्यों पनाह दें चापलूस चूहों को
क्यों उड़ने दें रंग अपनेपन का .......
स्वरचित -
- अनीता सैनी (जयपुर )
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भावों के मोतीमंच को नमन।दिन रविवार:-25/5/2019
स्वतंत्र लेखन :-विधा कविता
शीर्षक:/सूरज और राही:-
दिन भर का जलता सूरज
जब अस्तांचल मेंआता
दिनभर की तपन मिटाकर
जैसे असीम सुख पाता ।
दिन भर का भूला राही
जब सांझ पड़े घर आता
घर में आकर ही वह भी
अनुपम अनंत सुख पाता ।
सूरज राही इक जैसेही
दोनों में अंतर इतना है
इक अपना प्रकाश दे आता
दूजा अटक भटक घर आता ।
घर वह सुख का आंगन है
जिसको वह स्वयं बनाता
विस्तृत व्योम पर अपना
कब सूरज का हो पाता.।
स्वरचित :-उषासक्सेना
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🙏🌹जय माँ शारदा
..सादर नमन भावों के मोती...
...स्वतंत्र सृजन अंतर्गत मेरी प्रस्तुति सादर निवेदित...
(सूरत में घटित घटना पर)
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ये कैसा दर्द का मंज़र नज़र सूरत में आया है.
इसे जिसने भी देखा दिल उसी का कँपकँपाया है.
सुखद मंज़िल की चाहत में कदम वो बढ़ रहे थे पर,
नहीं मालूम था जो मौत ने बिस्तर लगाया है.
बुझे वो दीप जिनसे रौशनी की चाह थी सबको,
मिरे मालिक ये कैसा दिन हमें तूने दिखाया है.
ये कैसी रहनुमाई है नजर कुछ क्यों नहीं आया,
ये कैसी चूक है जिसने कहर इतना मचाया है.
मचेगा शोर कुछ दिन तक दलीलें भी सभी देंगे,
कहर तो हो चुका उन पर जिन्होंने सब गँवाया है.
दबेंगी वक्त के पन्नों में सारी राज की बातें,
वही होगा अभी तक जो यहाँ पे होते आया है.
रहम फरमा मिरे मालिक यही तुझसे गुज़ारिश है,
न दिखलाना कभी मंजर ये जो ऐसा दिखाया है.
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#स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
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सादर नमन
स्वतन्त्र लेखन में मेरी रचना
आँसूओं की बना के स्याही,
जज्बातों को अपने लिख रही हूँ,
करके विदा कलेजे के टुकड़े को,
रहे खुश वो दुआएँ माँग रही हूँ,
बेटी की विदाई का इंतजार,
था कब से मुझको,
देकर संस्कार लाड़ो को,
वेदी पर बैठाया उसको,
आँखों से झरना ,
दुआवों में हाथ उठते हैं,
दो घरों की लाज तू,
तुझ में प्राण मेरे बसते हैं।
**
स्वरचित-रेखा रविदत्त
26/5/19
रविवार
नमन भावों के मोती
दिनाँक-26/05/2019
विधा-हाइकु
स्वतंत्र लेखन
1.
चोर बाजारी
मुस्कान पर भारी
रिश्वतखोरी
2.
देखी प्रेमिका
मुस्कराता चेहरा
हँसती आँखें
3.
हल्की मुस्कान
प्रेमिका बनी जान
प्यारा जहान
4.
सावन मास
मुस्कराते हैं पेड़
हँसती धरा
5.
इंद्रधनुष
मुस्कान गगन की
देखती धरा
********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
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II स्वतंत्र लेखन II नमन भावों के मोती....
विधा - ग़ज़ल - ज़िन्दगी साज़ है ये साज़ बजा कर देखो...
ज़िन्दगी साज़ है ये साज़ बजा कर देखो...
रूह में डूब खुदी अपनी भुला कर देखो...
फिर वही यार तेरा प्यार नज़र आएगा...
दुश्मनी भूल नज़र मुझसे मिला कर देखो....
हर तरफ एक ही बस एक खुदा है काबिज...
अपने दिल की दर-ओ-दीवार गिरा कर देखो...
रात के बाद सहर होती नज़र आएगी...
गर नज़र अपनी से गम-ए-राख हटा कर देखो...
डर वहम सब ही निकल जाएगा पल में 'चन्दर' ..
मौत जीवन है उसे पास बिठा कर देखो....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२६.०५.२०१९
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भावों के मोती दिनांक
स्वतंत्र लेखन
दिनांक 26/5/19
विधा - लघुकथा
बुढापा एक अभिशाप
रामलाल अपनी जिंदगी भर की कमाई लगा कर शानदार मकान बनवा रहे थे । उनके दो लडके थे बड़े गर्व के साथ वह लोगों से कहते :
" अरे दोनों के लिए रहने लायक सभी सुविधाओ वाला घर तो चाहिए ना , सभी " टू बी एच के "
के बनवाए है । "
रामलाल के दोस्त शंकरलाल ने एक दिन पूछ ही लिया :
" और तू कहाँ रहेगा रामलाल "
रामलाल ने कहा :
" अरे दोनों अपने लडके ही तो है , किसी के यहाँ भी रह लेंगे और ऊपर नीचे की तो बात है ।"
बात आई गयी हो गयी ।
मकान पूरा होने पर था , तभी रामलाल के दिमाग न जाने क्या आया उन्होंने ऊपर छत पर एक टीन के शेड का कमरा बनवा लिया। शंकरलाल ने फिर पूछा :
"इतना शानदार मकान बनवाया है फिर यह टीन का कमरा कुछ समझ नहीं आ रहा ? "
रामलाल ने कहा:
" अरे कुछ नहीं बस यूँ थोडा बहुत पुराना कबाड़ का सामान रखने के काम आयेगा ।"
उस समय रामलाल के दोनों बेटे भी थे और वह मुस्कुरा दिये ।
रामलाल अव सेवानिवृत हो गय थे और दोनों बेटों की शादी हो गयी थी । घटनाक्रम तेजी से चल रहे थे , रामलाल की पत्नी का देहान्त हो गया , वह पोते पोती वाले हो गये शरीर थकने लगा ।
बहुओं की अपेक्षाऐ बढने लगी , रामलाल जी बोझ हो गये । चाहे वह नीचे रहे या ऊपर एक कमरा तो अटक ही जाता है । लडके अपनी बीबियों के कहने में आ गये थे ।
खैर शंकरलाल पर्दे के पीछे से हर गतिविधि पर निगाह जमाये हुए थे
विडम्वनाओ के साथ अरन्तु परन्तु के दौर घर में चलने लगे थे ।
मकान पर दोनों बेटों का बराबरी का हक हो गया था , आजकल वसीयत पूछता कौन है , ताकत है तो वसीयत है वरना लाचारी और बेटे बहुओं की दयादृष्टि।
रामलाल पर केन्द्रित चर्चाओं का दौर रोज होता था :
" बाबूजी रात रात खांसते हैं, अरे अब तो खटिया पर ही करने लगे है पूरे घर में बदबू फैलती है ।
कुल मिलाकर भूमिका यह बन रही थी रामलाल को घर से बाहर कैसे और कहाँ किया जाए ?
जब बात वॄध्दाश्रम तक पहुँची,
तब रामलाल को टीन के शेड का कमरा याद आया ।
वह बिना किसी से कुछ कहे अपना सामान समेट कर उसमें चले गये।
यह सब उन्हें ऐसा लग रहा था :
" जैसे सगा बेटा धोखा दे जाए और कोई गैर बेटा साथ दे ।"
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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