'कृषक' लियें हाथ,
बैठे 'सड़क',
*************
'माटी' लेकर,
'चूल्हा' लेपती दादी,
'महकें' घर
***************
'माटी' के लिए,
'वीरों' की शहादत,
ओढे़ 'तिरंगा'
***************
माटी 'संस्कार',
'कृषक' पेटभर,
परोपकार,
*************
'माटी' है,काया,
'जीवन' नश्वरता,
'प्राणों' का त्याग,
***************
'माटी' के लाल,
हलधर के 'वीर',
जय 'किसान',
**************
मेरी ओ यादें
'माटी' की है,महिमा,
'सौंधी' खुशबू
****************
'माटी' गुलक,
'सिक्कों' का है,भण्डार,
'बच्चों' में प्यार,
*****************
सुनीता पँवार, उत्तराखण्ड ,(०३/१०/२०१८
माटी माटी न कहों।
पोषित सकल जहान।
माटी से ही उद्भव है ।
सचराचर यह महान।।
जांति धर्म न पहचाने।
न रंग रूप जाने ।
पंच तत्वों यह जीव।
माटी मे मिल जाने।
स्वरचित
राजेन्द्र कुमार#अमरा#
माटी में सोना उगे
और उगे ज्वार
बोना है तुझको
करले विचार.....
मेहनत है उसमें
मेहनत है इसमें
कीमत है बीज की
ले ले उधार.....
धतूरा भी उगता
केशर भी उगती
समझ ले परख ले
सब समझ का सार.....
बुद्धि विवेक और
मेहनत का मोल
इन्ही के समन्वय का
''शिवम्" चमत्कार......
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित03/10/2018
🍁
पंचतत्व मे मिल जाएगा,
माटी का बना शरीर।
क्यो बनता है तू अभिमानी,
नही रहेगा ये शरीर॥
🍁
धर्म- कर्म को छोड के ना तू,
मद् मे जीवन जीत।
अंत समय आएगा जब तब,
कोई ना होगा हीत॥
🍁
बडे-बडे ज्ञानी अभिमानी,
रहे ना शूर ना वीर ।
इस माटी में मिल गए
जो जन्मा लिए शरीर ॥
🍁
समझ सको तो अभी समझ लो,
रख कर थोडा धीर।
शेर कहे वही याद रहेगे,
माटी से जुडे जो वीर॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
सारे जहाँ में इसकी शान अनोखी है।
धर्म भाषा संस्कृति के भेद कितने हो,
एकता में बंधने की रीत अनोखी है।
देख लो कुदरत के सारे रंग इसमें है,
हिमगिरि रक्षा प्रहरी की साख अनोखी है।
वादियां कश्मीर की इसकी जन्नत है,
प्रकृति के रंगों की यहां शोभा अनोखी है।
गले में हार गंगा का सोहता जिसके,
जलधि करे नित वंदन ये नीति अनोखी है।
शस्य श्यामल भूमि जिसकी शोभा हो,
अनोखा है वतन मेरा इसकी शान अनोखी है।
वीरप्रसविनी भूमि इसकी वीर रत्न उगले,
बनी वीरों से विश्व में पहचान अनोखी है।
विश्वगुरू है ये वंदनीय इसकी माटी है,
यहां प्राण अर्पण करने की रीत अनोखी है।
मेरे वतन की माटी मेरे माथे का चंदन है,
वतन की माटी से प्रीत की रीत अनोखी है।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
है अनमोल माटी
प्राणी मात्र की मां है माटी
इसमें उपजे अन्न खनिज
है औषधीय भंडार माटी
किसान उपजाए अन्न धन
चिर मेहनत से माटी
भूख शांत हो जन जन
है अनमोल माटी
प्रकृति पले इस पर
है प्रभू वरदान माटी
पंचतत्व का आधार ये,
है अनमोल माटी
इस माटी में जन्मे राम कृष्ण,
दिया मर्यादा और गीता का ज्ञान,
इस माटी में जन्मे अशफाक,भगत
दिया आजादी को मान,
नमन करूँ इस माटी को,
जिस पर मैंने जनम लिया,
आज समय अंतिम आया,
तब भी इसने शरण लिया,
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
शब्दों के बीज,
जीवन भर बोता,
माटी पत्र में,
हर पल सींचता,
जीवन गीत बने।।1।।
कौन चितेरा,
हर पल संवारे,
जादुई रंग,
वसुंधरा सुदंरी,
माटी के रंग लगा।।
2।।
वसुधा पर,
हल की कलम से,
जीवन गीत,
जीवन भर लिखे,
भावी पीढियां पढे।।3।।
गाँव की माटी,
माटी में जन्में खेले,
माटी चंदन,
जीवन का संगीत,
जीवन में बजाते।
********------ ********
सौंधी-सौंधी खुशबू से
हमें महका जाती है,
बारिश की बूँदें जब
उसे भींगाती है ।
आनंद विभोर हो जाती हूँ
जब भी मैं गाँव जाती हूँ
माटी को छूकर
लीपटकर उसमें
सच, तृप्त हो जाती हूँ।
माँ है ये मेरी जो,
चीरकर सीना अपनी
हमारी भूख मिटाती है
सवाँरती है हमारे कल
जग को हरियाली देती है ।
बार-बार मैं
इस माटी पर जन्मूँ
ऐसा मेरा सौभाग्य हो
लीपट कर माटी में पलूँ-बढ़ूँ
भगवन ऐसा मुझे वरदान दो
स्वरचित:- मुन्नी कामत ।
भारत की माटी में जन्मी हूँ,
दुलार इसका मैं चाहती हूँ,
मटमैली सी इस धरती का,
मटमैला-सा प्यार चाहती हूँ |
सौंधी-सौंधी खुशबू माटी की,
मन मेरा महकाती है,
हवा के उस झौंकें संग मेरे,
गाँव की खुशबू ले अाती है |
माटी के चूल्हे की रोटी,
मुझको खूब याद आती है,
दिल बेचैन हो जाता है,
गाँव की याद सताती है |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
तुम-
मुझे याद न दिलाओ
कुम्हार के चके की
और न उस मांटी की
जो दहकते अंगारों के बीच
रंग बदल देती है
पक्का सुर्ख-क्रांतिकारी सा 'ओ सामन्तो '।
जब मैं उठूंगा
तो पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण तक
सारे विश्व की
काली मांटी को
हाथों में भरकर
एक साथ गूंथ डालूंगा
और बना दूंगा
मुझसा पुतला!
*****
जीवन की अनुपम घाटी में,
विचरण माटी के पुतलों का,
ऊर्जा- प्रवाह चैतन्य जनित,
प्रकार्य प्रकृति परिपाटी का।
पंचतत्व में माटी भी चारु,
महत्त्वपूर्ण अति तत्व एक,
चर अचर जीव को भूमण्डल में,
आकार प्रदायक अदभुत अनेक।
माटी निर्मित चर अचर जीव को,
मनभावन बसुधा के तल पर,
नानाविधि नृत्य कराती नित्य,
क्रीड़ाऐं नियति-नटी की प्रतिपल।
शुचितम प्रकृति सदा माटी की,
प्रवृत्ति सृजन की किन्तु प्रदूषित,
दृष्टिकोण माटी का रचनात्मक,
विध्वंस सृजन के मन अंतस में।
मातृभूमि की सौंधी माटी से,
मानव को मिलीं सुगन्धित स्वाँसें,
माटी का कर्ज चुकाने निमित्त,
कम पड़ जातीं जीवन में स्वाँसें।
--स्वरचित--
(अरुण)
मेरे देश की हर बात निराली
बड़ी ही पावन इसकी माटी
कण कण में इसके लहू मिला
आजादी के मतवालों का
इस माटी की शान की खातिर
वीरों ने अपनी कुर्बानी दी
श्रीराम,कृष्ण और गौतम,नानक
सब इसकी गोद में पले बढ़े
निच्छल निर्मल पावन गंगा
इसके सीने पर सदा बहे
खड़ा हिमालय सीना ताने
इस माटी के आंगन में
खेतों से यह सोना उगले
भरे सुखों से सबका जीवन
हरे-भरे पेड़ों से शोभित
मेरे देश की माटी का आंचल
अनगिनत भरी सीने में इसके
शोर्य वीरों की शोर्य गाथा
सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलयुग
सब युगों की यह जीवनदाता
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
हम सब ही मिट्टी के पुतले हैं भगवन,
तुम कुम्हार हो इस पुतले के।
तुमने बनाया है हम सबको प्रभु जी,
तुम जीवनदाता हो इस पुतले के।
जैसा चाहें बैसा गढ लें
जबतक गीली है मिट्टी।
रंगरूप रोगन सब करलें,
जबतक हाथ में गीली मिट्टी।
तुम ही मातपिता गुरू तुम हो
तुम चाहो जो हमें बना दो।
तुम्हारे हाथ में गीली मिट्टी।
बिगड रहे पुतलों से प्रभु जी,
गुल होती है सिट्टी पिट्टी।
अब कुछ राम कृष्ण से पुतले गढ दें
जिससे हमको चैन मिले।
कहीं कोई ऐसा नहीं दिखता,
जिससे कुछ आराम मिले।
जल्दी भेजे कुछ अच्छे पुतले,
जिससे राहत हमको मिल जाऐ।
जो हुऐ लहुलुहान दिल सबके,
उन सबकी आफत टल जाऐ।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
विधा हाइकू
विषय माटी
3अक्टूबर 2018
1
माटी का घट
साँसे बनी अमृत
ईश कुम्हार
2
देह है घड़ा
ईश्वर है कुम्हार
माटी से गढ़ा
3
खूबसूरत
स्त्री है माटी मूरत
छले पुरुष
4
माटी मूरत
बनाए है कुम्हार
देवी सूरत
5
माता है माटी
पिताजी आसमान
बीज संतान
6
माटी की देह
करमो से सफल
साँसो का जल
कुसुम पंत उत्साही
देहरादून
उत्तराखंड
माटी तेरी महिमा अद्भुत
खुशबू से महकाती हो
जगत् की सारी सृष्टि
अपने आँचल में पालती हो
लाल काली मटमैली माटी
जीवन के रंगों को दर्शाती हो
"वीरभूम" की लाल माटी
कहानी रविन्द्र की बताती हो
विश्व कवि के गीतों को
कण कण से सुनाती हो
लाल रंगों में रंगकर
महिमा "बाउल"की बताती हो
विश्व के कोने कोने में
"रविन्द्र संगीत "महकाती हो
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
जिस माटी मे हमने जन्म लिया
यह सुर वीरों की जननी है
यह मिट्टी हमारे भारत की है
महावीर और बुद्ध
इस मिट्टी मे है जन्म लिये
भर दिये सबमें प्यार का संदेश
भारत की मिट्टी को अमर कर गये
गंगा की मिट्टी तो अद्भुत है
पूजा की बेदी बनाते हम
यही हमारी रीति है
जिसे आज भी अपनाते हम
बाल कृष्ण ने जब खाई मिट्टी
मात यशोदा पूछे एक बात
दूध,दही तो भरा है घर मे
फिर तूने मिट्टी क्यों खाई आज
कृष्ण ने दिये बस एक संदेश
मिट्टी से जुड़े रहे हम सदैव
माटी मे जन्मे, माटी मे पले
माटी के देह को माटी मे मिल जाना है
माटी से क्योंपरहेज़ करें हम
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
माटी का पुतला है तु ,माटी मे मिल जायेगा
जपले प्रभु का नाम ,
नहीं तो तू बाद में पछतायेगा
काहे अभिमान करे तू ,
ये तन तेरा एक दिन जल जायेगा
मोह ममता और धन दौलत
सब यही धरा रह जायेगा
सारा जीवन माता पिता भाई बहन
. पत्नी और बच्चों में तू उलझा रहा
तू करता रहा मेरा मेरा
ये सब तो यही धरा रह जायेगा
जब तुझको तेरे ही अपने श्मशान घाट पहुंचायेगे
दो पल का रोना धोना
फिर वो नित्य क्रम में जुट जायेंगे
नहीं होगा कोई संगी साथी
प्रभु का नाम ही साथ जायेगा
नहीं जपा तूने प्रभु का नाम
जिससे तू तर जायेगा
माटी का तन है ये तो माटी मिल जायेगा
साथ ना तेरे कुछ जायेगा
तन का कपड़ा भी यही धरा रह जायेगा
प्रभु का नाम ही बस तेरे साथ में जायेगा
मुट्ठी बीच के आया था
. हाथ पसारे जायेगा
माटी का पुतला तू माटी में मिल जायेगा
जप ले हरि का नाम नहीं तो
तू बाद में पछतायेगा
लाख चौरासी योनी के बाद
तूने ये जन्म पाया है
फिर तो काहे भरमाया ह्रै
अब तो प्रभु का भजन कर ले
थोड़ा सा प्रभु का सुमिरन कर ले
अंतिम समय में प्रभु का अब तू तो चिंतन कर ले
थोड़ा सा भजन कर ले
🥀 स्वरचित हेमा जोशी
---------------------------------------------------
धरातल पर जीवन की उत्पत्ति माटी की ही देन है,
जल संयोग कर यह हर जीवों की जिंदगी सींचती।
सब जीवों का रहन-सहन, हर कार्य-कर्म माटी पर,
जीव-जीवन की हर लीला इसी पर तो है सरसती।
जगह-जगह माटी उगलती अन्न के दाने सोना सरीखे,
जिससे जन-जीवन में भरपूर नव ऊर्जा की पूर्ति होती।
घन-घनघोर बारिश की बूंदें जब-जब पड़ती माटी पर,
चारों ओर अपने यौवन पर हरियाली रहती इठलाती।
हर्षातिरेक होते कृषक, हल बैलों संग जाते हैं खेत में,
माटी कोड़-कोड़ बीज डालते, फिर अन्न ढेर ऊपजती।
बसुंधरा पर फैली हरियालियां, माटी की ही ऊपज,
तभी तो सुगंध सोंधी-सोंधी हवा में बिखरती रहती।
--रेणु रंजन
( स्वरचित ) 03/10/2018
वार-बुधवार
विधा-हाइकु
1
माटी से प्रेम
पनपते संस्कार
देश महान
2
माटी का कर्ज
जीवन बलिदान
वीर महान
3
भारत भूमि
पावनतम माटी
माथे तिलक
4
माटी के लाल
अंकुरित है आस
बने रक्षकस्वरचित-रेखा रविदत्त
विषय:- माटी
विधा:-गीत
आधार छंद:-दोहा
मुखड़ा :-तुकांत-आन
अंतरा:- दोहा मुक्तक, तुकांत (पहला-आन, दूसरा-आर, तीसरा-ओल, चौथा-आन)
__________________________________________
छंद विधान:- दो पंक्ति, चार चरण। प्रति पंक्ति 24 मात्रा। 13,11पर यति। दो - दो चरण तुकांत। विषम चरण गुरु वर्ण से अंत व 11 वीं मात्रा लघु अनिवार्य (अपवाद-भक्ति दोहा)।
सम चरण गुरु - लघु से अंत।
दोहा मुक्तक :- चार पंक्ति। पहला, दूसरा, चौथा पंक्ति तुकांत। तीसरा अतुकांत।
__________________________________________
माटी के जब मूर्ति की, देखा मैं परिधान।
यादों में फिर आ गये, कपड़े फटे सुजान।।
भगवन ने जिसको गढ़ा, कहलाया इंसान।
वो ही अब गढ़ता दिखे, निराकार भगवान।
केवल है दिखता यहाँ, माटी का ही फर्क,
इक माटी देता सखे!, दूजे को पहचान।
धीरे-धीरे समझ गया, जिससे था अनजान।
यादों में फिर आ गये, कपड़े फटे सुजान।। 1।।
परब्रह्म जब हैं मनुज, निर्गुण व निराकार।
फिर क्यों अपने सोच से, गढ़े आकार, प्रकार।
भगवन को है ढूंढ़ना, मूरत में अब व्यर्थ,
तेरे अंदर जब रचे, वो अपना किरदार।
हो जाए अब सृष्टि को, इसका भी संज्ञान।
यादों में फिर आ गये, कपड़े फटे सुजान।। 2।।
माटी तेरी देह की, है कितना अनमोल।
इसका तो निर्णय करे, सदा चरित अरु बोल।
अनवरत करते रहना, तुम जीवन में कर्म,
अरु सभी के जीवन में, देना खुशियाँ घोल।
दुःख नहीं देना कभी, रखना इसका ध्यान।
यादों में फिर आ गये, कपड़े फटे सुजान।। 3।।
मानवता जिंदा रहे, सब हों एक समान।
मानव, पशु, पंछी बने, इक दूजे की जान।
और स्वयं मानव बने, नरोत्तम का प्रयाय,
अंतर्मन में जब बसे, यह गीता का ज्ञान।
बन जाए संपूर्ण जग, ऐसा एक विधान।
यादों में फिर आ गये, कपड़े फटे सुजान।। 4।।
___________________________________________
#स्वरचित
✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार
माटी का ऋण चुकाना ज़रुरी है
वरना हमारी हर उन्नति अधूरी है
माटी का ऋण चुकता है कर्मठता से
राष्ट्र के लिए ही कुछ करने की द्रड़ता से।
माटी से ही जीवन चलता
माटी से ही जीवन ढलता
हमारा हर सपना ही पलता
अन्त में भी इसी में मिलता
माटी की सौंधी सौंधी महक
घटाती मन में छायी दहक
उपवनों का सौन्दर्य बढ़ता
पक्षियों की जीवन्त होती चहक।
माटी नीचे की जब भी ढहती
मौन शैली में बहुत कुछ कहती
न जाने कितना असह्य भार
यह अपनी ही मिट्टी सहती।
माटी का न होने पाये कटाव
पेड़ पौधों की ओर हो अब झुकाव
अति प्लावन में जब मिट्टी ढहती
तो छोड़ देती है फिर गहरे घाव।
स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
चार दिन की जिन्दगानी
है नहीं टिकती जवानी
खत्म हो जाती कहानी
अंत करती आग पानी!
काम न आता कोई धन
माटी का यह नश्वर तन...
चार दिनों का मान सम्मान
महल दुमहला आलीशान
झूठी है तेरी हर शान
जिस पर तुझको बड़ा गुमान!
कैसी यह तेरी भटकन
माटी का यह नश्वर तन...
जिस दिन निकले तेरी जान
और यह जिस्म हुआ बेजान
मिले राख में सब अरमान
इन बातों से तू अनजान !
प्रतिक्षण मेहमां है धड़कन
माटी का यह नश्वर तन...
यह तन मिट्टी हो जाएगा
कफ़न ओढ़कर सो जाएगा
भूल बैठा मौत को नादान
मोह माया में फंसी है जान!
कैसे प्रभु का हो दर्शन
माटी का यह नश्वर तन...
स्वरचित 'पथिक रचना'
माटी जीवन
मृदा मानव-तन
श्रान्ति - विश्रान्ति.
२- (वर्ण पिरामिड)
है
जन्म
जीवन
माटी-तन
असह्य क्लांत
तन-मन श्रांति
यहीं पर विश्रांति.
३ (तांका) -
माटी का तन
यहीं रमता मन
यही जीवन
प्रकृति-बाग-वन
श्रांति-विश्रांति क्षण .
४ (सेदोका) -
जीवन माटी
मिट्टी है जीव-काया
ये वन-घाटी
जिंदगी खिल जाती
यहीं विश्राम पाती.
५ (माहिया) -
माटी जीवन थाती
जन्म आयु कटती
इसमें विश्रान्ति पाती.
#
"स्वरचित"
- मेधा नारायन,
४/१०/१८,
गुरुवार,
लखनऊ.
No comments:
Post a Comment