Friday, October 12

"कशिश "11अक्टूबर 2018





"कशिश"
बुने थे सपने बचपन में 
खुशियों संग झूमता 
बचपन बीता
एक कशिश सी रह गई

कुछ करने की थी आशा
नादानीयाॅ थी मन के पास
एक कशिश सी रह गई 

मिली जिन्दगी में ढेरों सौगाते
कुछ सुहाने कुछ मतवाले
एक कशिश सी रह गई 

उम्र के संग बुझती गयी ख्वाबें
कुछ हासिल हुई और 
कुछ रही अधूरी 
एक कशिश सी रह गई

चल पड़ी हूँ राह है अंधेरी
पथ दिखाते टिम टिम तारे
कहीं कशिश ना रह जाये
सोच सोच मन ये मुस्काए 

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल




कशिश
वीरवार
**********
मंद-मंद मुस्कान अरु
उज्ज्वल से दो नैन
मातु शारदे तार मुझे
चरणों में तेरे चैन।
भक्ति भाव लिए बैठी हूँ
कर दो अब उद्धार
कशिश तेरी मूरत में है
भटकूँ न दूजे द्वार।
सत्कर्मों की राह पकड़
शरण मे तेरे आ जाऊँ
वीणा के तारों सी मइया
हाथों से तेरे बज जाऊँ।
रूप-सौंदर्य तेरा मइया
अद्भुत अरु निराला है
धरती -अंबर यही मिले
चरणों मे तेरे शाला है।
ज्ञान मंत्र की शक्ति तू
हाथों में वीणा धरती है
यही कशिश तो मइया मुझे
बांधे तुझसे रखती है।
कमलासन पर तू सजी-धजी
पुस्तक में तेरा मॉन है
आकर्षित करती छवि तेरी
वेदों में तेरा ज्ञान है।।

वीणा शर्मा
स्वरचित




🍁
कुछ कशिश तो है माँ के दर मे,
बार-बार आ जाता हूँ ।
माँ ज्योतावाली के चरणो मे,
मस्तक अपना रख जाता हूँ ॥
🍁
डगमग मेरा विश्वास नही,
वो और प्रबल हो जाता है।
माता है मेरे साथ तो तब,
सब कष्ट दूर हो जाता है॥
🍁
माँ शेरावाली शूलधारिणी,
सब देवो की माता है।
शम्भू के बायें अंग बसी,
माँ सर्वजन कल्याणी है॥
🍁
इस शेर हृदय के मन मस्तक मे,
माँ का रूप समाना है।
भावों के मोती झलक रहा,
माता का रूप निराला है॥
🍁

स्वरचित.. Sher Singh Sarraf





क्या कशिश थी आँखों में

क्या कशिश थी बातों में ।।
घोल गई जो रंग अपना
इस दिल के जज्बातों में ।।

मासूम सी एक कली थी 
नादानी में वह ढली थी ।।
पहली ही नजर में उसकी
रंगत इस दिल में पली थी ।।

हर अदा उसकी अनोखी थी 
आँखों में अजब सी सोखी थी ।।
भूल जाये राहगीर राहों को 
बिन बोले दिल को टोकी थी ।।

जाता कहाँ है रूक जा राही 
भरले अपनी कलम में स्याही ।।
इन आँखों में मदिरा ''शिवम"
ये कलम आज दे रही गवाही ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्'
स्वरचित 11/10/2018


शीर्षक -"कशिश"
*************
ये तेरा मुस्कराता चेहरा
आँखों से छलकता नूर
वो अजीब सी कशिश है 
तेरी मीठी -मीठी बातों में |

कभी ऐसा लगता है कि 
गुम न हों जायें हुस्न की
इन बेगानी राहों में कहीं
भरना चाहूँ तुम्हें बाहों में |

उफ! ये कैसी कशिश है 
जो बैचेनी को बढ़ा रही
एक अंजान को हमारे 
इतना करीब ला रही |

हमारी ये कशिश अब
हाले दिल बयां कर रही
ये शायद इश्क़ की तो है 
तभी बेकारी बढ़ रही है |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


शीर्षक कशिश 
1अक्टूबर 2018

दिन वीरवार 
विधा वर्ण पिरामिड 
मैने पर्याय लिया है 
आकर्षण 
है 
कष्ट 
हरणी 
आकर्षणी 
ब्रह्मचारिणी 
शंकर वामिनी 
असुर संहारिणी 
2
है 
विंध्य 
वासिनी 
मैंना पुत्री 
भोले वामिनी 
माँ ब्रह्मचारिणी 
ह्रदय आकर्षणी 
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित 
देहरादून उत्तराखंड



जिदंगी के गीत को,
मधुर ना हमबना सके,

जिनके साथ जिदंगी का,
हर सफर नसीब था,
उनके संग दो कदम भी ,
साथ ना मिला सके।
मान में करता रहा,
प्यार से डरता रहा,
बिखरे बिखरे सुर रहे,
ताल से ताल न मिला सका,
हुस्न था शबाब था,
जमी में आफताब था,
जाम हाथ में था,
होठ ना लगा सका।
कैसा जुनन था,
रंग और नूर था।
उनको देखते रहे।
तसवीर ना बना सके।
जीवन भर प्यासे रहे।
दिल की कशिश दिल में रह गई।
जीवन में यादों के रंग भरते है।
देवेन्द्र नारायण दास।।




कशिश तेरी आँखों की
जान ले के जायेगी
कहाँ जाओगी दूर मुझसे
याद बहुत आओगी

करता मोहब्बत तुमसे
बनके प्रेम दिवाना मै,
आज कागज पर लिख डालूं
ये प्रेम का अफसाना मैं

देख कर कशिश तेरी
हो गया पागल मन
राह चलते करता रहूँ
अजीब सा पागलपन

पत्थरों पर नाम तेरा
लिख लिख करूँ इजहार
उद्यानों में फूलों संग
पल पल करूँ इंतज़ार

जहाँ मिलते थे कभी
आज विरान हुआ वो चमन
याद करके तुझे पल पल
अश्क भर भर रोते है नयन

स्वरचित :-मुकेश राठौड़



विषय - कशिश 
मैया तुम्हारी ममता की नेह भरी #कशिश #
खिंच लाती मुझको तेरे दरबार माँ बारम्बार ।
मेरे जीवन कलश मे मैया 
भर दो भक्ति का भंडार ।
जीवन राग मधुर बनाती मैया 
तुम्हारी वीणा की झंकार ।
सृजन ,सौदर्य, शक्ति से परिपूर्ण 
मैया तेरी महिमा अपार 
हे ब्रम्हरूपा मैया अरज बस इतनी 
आत्मा से मेरी अपनी कशिश 
ना कभी कम होने देना 
माँ मेरी झोली अनमोल 
भावो के मोतियों से भर देना ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह



-------------------
आंखें बंद करती हूं 
तेरा ख्याल आता है
मुझको अब हर घड़ी
तेरा इंतजार रहता है
बेकरार करती है मुझे
आंखों की कशिश तेरी
बिखर के न रह जाए
मेरे ख्बावों की यह लड़ी
पूछना चाहता है दिल
क्या तेरे दिल में है
यह वहम है मेरे दिल का
या तू भी मुश्किल में है
कशिश मेरे प्यार की
तुम महसूस करते हो
हो अनजान तुम सच में
या अनजान बनते हो
विचारों की गहराई में
डूबती-उतरती रहती हूं
क्या है तेरे मेरे दरम्यान
यह समझ नहीं पाती हूं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता





कुछ तो कशिश है मां तेरी आंखों में,

बांध लिया मन को मेरे प्रेम के धागों में। 

नयन नहीं हटते मां तेरे स्वरूप से,

भीगते ही जा रहे भगवती के रूप से।

कुछ तो कशिश थी मां तेरी शक्ति में,

भावविभोर हो गई मां मैं तेरी भक्ति में।

डूबती गई मां के ओजमयी रूप में ,

पाती गई छाया जिंदगी की धूप में।

कुछ तो कशिश थी मां तेरी ममता में,

पाने को हूं व्याकुल सदा तेरी ममता मैं ।

कर दिया समर्पित जीवन अब तेरे चरणों में,

बरसती रहे कृपा जीवन के इन क्षणों में। 

कुछ तो कशिश थी मां के बुलावे में,

तभी तो न फंसी मैं माया के छलावे में।

अब मां मुझे बस तेरा ही सहारा है,

तेरी भक्ति मेरे जीवन का किनारा है। 

अभिलाषा चौहान 

स्वरचित

देख उसके चेहरे की कशिश
मैं रह गई दंग
मैंने पूछा"भाई बताओ एक बात
"इतनी मंहगाई मे क्या खाते हो आज
क्या खाते हो दूध मलाई?
या फिर कौन सी मिठाई"?

उसने मुस्कुरा कर सिर्फ एक ही बात बताई
"मैं नही खाता दूसरे की हिस्से की मिठाई या मलाई,
मैं खाता हूँ सिर्फ अपने हिस्से की कमाई, यह जो कशिश है 

वह है ईमानदारी से आई
यही है मेरे कशिश का राज
इसे तुम नही समझ सके आज
नही है मुझे किसी से ईष्या

नही है मुझे किसी से कोई शिकवा
मैंने तो ली है बस एक शपथ
ईमानदारी की रोटी खायेंगे
और चैन की बंशी बजायेंगे

जितना भी चढ़ा लो क्रीम तुम आज
नही आ पायेगी उतनी चमक
ईमानदारी की रोटी खाते ही 
चेहरे पर कशिश आ जाती है आप।"
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।




तुम में आकर्षण बहुत है!
और विकर्षण भी कम नहीं...
हाँ!हृदय को झकझोरती हैं 
अब भी तुम्हारी यादें...
मेरी इन धड़कनों में तुम्हारी स्मृतियों का संगीत बजता है...
ठहरी मीठी झील में
हमारे सानिध्य का अक्स उभरता है...
और अगले हीं पल 
एक तीव्र भँवर में समाहित हो जाता है...
इंद्रधनुष के पुल से गुजरती हैं जब सतरंगी यादें...
एक बवंडर उन्हें रेगिस्तान की 
प्यासी रेत में पटक आता है...
तुम्हारी यादों से महकती फूलों की घाटी से गुजरती हूँ...
और घाटी नागफनी के जंगल में तब्दील हो जाती है...
प्रीत बनकर बरसीं थीं कभी 
जो अमृत की बूंदें...
वह आँखों का खारा समुंदर है अब...
तुम्हारी कशिश...!
मेरा खुद पर अनियंत्रण तो है...
पर नियंत्रण भी कम नहीं...

स्वरचित'पथिक रचना'



 कुछ अनकही कुछ अनसुनी सी हैं 
ये दर्द भरी दास्तां मेरी 
दिल में चाहत थी आरजू थी 

बस मन में मिलने की कशिश थी .

आँखों में बंद हैं कुछ दिल के ख्वाब 
कुछ अपने तो कुछ बेगाने से हैं 
कुछ अफ़साने से कुछ अनजाने से हैं
ना जाने दिल में क्या कशिश हैं समाई .

भीगती हैं आँखें मेरी तुझे याद कर
आँखों में बसी हैं तस्वीर तेरी 
जबां पर हर वक्त हैं नाम तेरा 
इस भीगती पलकों में भी तेरी इश्क की कशिश हैं .

तेरा इंतजार हैं 
दीदार करने की चाहत हैं दिल में 
ये बात कलम से कैसे बयां करूं 
इस कलम में भी तेरी इश्क की कशिश हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट







बँधा है मन
आज भी तेरे
मीठे बोल की कशिश में
कण-कण में फैले
मधुर सी
झनकार से गूँजित
रचती जैसे
रोम-रोम में
सुमधुर ध्वनि
मंदिर की घंटियों जैसी
चकित सी दिशाओं का
मंत्र मुग्ध होना
फिर कैसे कहूँ कि
मैं नहीं सुनती हूँ
उस अन्तर नाद को
कि जो उठता है
सागर के गहरे तल से
मैं तलाशती सी
उकेरती हूँ
कितने चित्र और
पाती हूँ तुम्हें
हर एक लकीर में
हँसती सी उन
लकीरों की कशिश से
बँधी हूँ मैं
आज तक..... ।

स्व रचित
उषा किरण




आजकल
अपनेपन के दावों को
टटोलने लगी हूँ
खोकलेपन की परतों को
अब उधेड़ने लगी हूँ
अब मैं 
सचेत होने लगी हूँ
दाँवपेंच की पेचीदगी
अब परखने लगी हूँ।

जो दिखता है
वो बिकता है
जो बिकता है 
वो टिकता है
कलयुग की माया
दिखावा बस छलावा
कौन गिरा दे
कौन मिटा दे
हृदय को ना जाने
कौन ठेस पहुँचा दे !

किसको कहूँ ?
कैसे कहूँ ?
शब्दों का चयन
बड़ा भारी है ,
ऊहापोह की स्थिति
अभी जारी है
मेरी संज्ञा की व्यापकता
क्या तेरी विशेषता से हारी है ???
मैं हूँ उसकी 
वो मेरी कौन?
ख़ामोशी! निशब्द ! केवल मौन!!!
कचोटती आंतरिक पीड़ा
बरबस हो गई अधीरा
लेखनी की धार
अभिव्यक्ति पर वार
ये कैसी कशिश है !
कैसा मेरा रचना संसार ।

स्वरचित
संतोष कुमारी




कशिश

कशिश तेरे रूप की,
चैन मेरा चुराए,
दिल में है जो बात,
जुबाँ तक वो ना आए,
कशिश तेरे नैनों की,
हृदय पर कटार चलाए,
लाख चुराएँ तुमसे नैन,
जाकर तुम्ही से टकराए,
कशिश तेरे लबों की,
मन में प्यास जगाए,
आकर मेरे ख्यालों में,
तू सारी रात जगाए।

स्वरचित-रेखा रविदत्त



उफ ये कशिश,हाये ये कशिश,क्या कहे कैसी ह्रै,ये कशिश 
तेरी आवाज मै कशिश थी 
तेरी नजरो मे नशा था 
तेरी कद काठी को देखकर मेरा
मन यूँ खिला था तेरी तरफ यूँ खीची चली आयी थी मै फिर जो असर होने लगा होश खोने लगी थी मै
मै तो बस तेरी सिर्फ तेरी होने लगी थी ,क्या कशिश थी तेरी
झ्न आँरवो मे ,मत पूछो ,मुझसे हाये,पता ह्रै,
मुझसे मेरा दिल लड़ पड़ा बोला
कही और ना जा 
मुझे तो यही चाहिये बस यही बस यही,मेरा दिल जिद कर बैठा और
उसे अपना बना बैठा अब तो वो सपनो मे आता है मुझे जगाकर
जाता ह्रै, अपने तीखे नैनो से मुझे
बार बार घायल कर जाता ह्रै
कभी बाँसुरी बजाकर मेरा चित चैन चुराता ह्रै , कभी मेरे मन मै एक चाहत जगाता है
वो तो बार बार मुझे वृदांवन बुलाता है,मेरा कृष्णा बड़ा ही प्यारा ह्रै, ये कशिश किसी की वाणी मे आती नही चुपचाप,
यूँ ह्री कोई किसी का बनता नही 
तलबगार , वो तो कृष्णा है मेरा 
जो खीच लाता है सबको बार बार 
🙏स्वरचित हेमा जोशी 🙏

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