Sunday, October 7

"स्वतंत्र लेखन "07अक्टूबर 2018



विधा -स्वतंत्र लेखन 
हल्का, 
जब उर(ह्रदय ) गम से भरा हो
तब अश्रुओ से 
हल्का होता है 
जब पूरा भरा हो पैमाना 
तो छलकाकर हल्का होता है 
जब बोझ लगने लगे जीवन 
तो मुस्कुराकर हल्का होता है 
हल्के होना चाहते है सब 
जिम्मेदारी से , 
किन्तु जो वास्तव मे हल्के है 
वो चाहते है उनकी बात 
मे वजन हो 
भले ही उसका कोई अर्थ ना हो 
किन्तु हल्की बात को वजनदार बताकर 
स्वयं के हल्केपन को मिटाना चाहते है 
और जिनकी बातो मे वजन है 
उनसे वो जी चुराते है, 
जब उर (दिल ) .....
स्वरचित 
शिल्पी पचौरी


इस भीड़ में लोग 
ितने अकेले हैं
पूछा एक सज्जन से
वो बात ताड़ गये
बोले क्या आप किसी
शायर के चेले हैं
मैंने कह दिया हाँ
वो बोले मत करना
यह किसी से सवाल
बनता है इसमें बवाल
बेटा बाप पर अब
होता है लाल 
नही है किसी को
किसी बात का मलाल
सब एेसे ही चल रहा
इंसा इंसा पर उबल रहा
कब निकल जाये
किसका किस पर गुबार 
जमाना ठीक नही हुजूर
कहता हूँ बार बार
शायरी छोड़िये 
देखिये घर और द्वार

कहाँ तक देखोगे 
दुनिया के गम 
नही होते ये कम
गम एक नही हैं हजार
जिसे भी देखो वो
यहाँ गमजदा है
सब अपने गम देखें 
अब कोई न सगा है
एक तुम्ही हो जो
पूछते सब के गम
ये दोष तुम्हारा नही 
ये दोष है उसका
जो तुमने पकड़ रखी
है कलम
कलम और तलवार
दोनो एक हैं
दोनों के इरादे नेक हैं
तलवार लड़ती है
युद्ध के मैदान में 
कलम लड़ती है
जीवन के खलिहान में
दोनों ही अपना जीवन
दाव पर लगाते हैं
लोग यूँ ही न ''शिवम्"
इन्हे सर झुकाते हैं ..!!

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 07/10/2018



"खराब-ए-हालत" (एक वार्तालाप)

मैं
खड़ी द्वार पर एक गाय
दोउ आँखों में आंसू लिए |
क्या हुआ आज आपके.,
तुम्हें ये आँसू किसने दिए || 

गाय
तूने ही आज देखे है बेटा
आज के नहीं, वर्षों से है |
हालत बिगड़ रहे है हमारे
इसलिए आये सड़कों पे है ||

मैं
क्या-क्या सहना पड़ता है
तुम्हें बता दो जमाने को ।
मैं लिखूंगा आपके लिए..
तेरे हरेक वयाननामें को ||

गाय
ले सुन खराब-ए-हलात मेरे
लोग दूध पी छोड़ देते है...|
किसी काम की नहीं रहती
तो चमड़ी ही उधेड़ लेते है ||

मैं
सरकार की काफी योजनाएं
तो फिर क्यों ऐसा होता है.।
बतायो तेरा घर है गौशाला
क्या उसमें भी ऐसा होता है।।

गाय
हाँ, सरकार ने की है मदद
ठेकेदार पर ही छोड़ देते है|
मेरे घर में जितना खिलाते
उससे ज्यादा निचोड़ लेते है||

मैं
गिर चुकी है कलम मेरी दो
बार तेरी ये कहानी सुनकर |
लेकिन उभरूंगा अब मैं माता
तेरा सहायक तानी बनकर ||

गाय
ठीक है तूं भी कर कौशिश
मैं भी हिम्मत करती हूँ...|
धन्यवाद बेटा तूने समझा
अब अगले द्वार चलती हूँ ||

-:-स्वरचित-:-

-:-सुखचैन मेहरा-:-


🍁 
बात पकड के खडा रहा वो,
सच्चा तू तो झूठा कौन।
स्वंय को सच करने मे मगर,
रिश्तो को कर दिया उसने मौन॥
🍁
बात बडी कोई ना थी पर,
अहम के आगे झुकता कौन।
शून्य प्रहर से शुरू हुआ था,
अंत प्रहर तक रहा वो मौन॥
🍁
किसमे कितनी गलती थी अरू,
कौन कहा, और चुप था कौन।
दोनो मे था प्यार अगर तो,
खत्म किया इसे किसने कौन॥
🍁
जलती रही दिशाएं उनकी,
समझ रहे थे पर थे मौन।
दोनो मे था प्यार अगर तो,
खत्म किया उसे किसने कौन॥
🍁
कलमकार था मैने लिख दी,
भाव मगर थे उसके मौन।
शेर कहे जिस प्यार मे शंक हो,
बचा सका उसे किसने कौन॥
🍁
स्वरचित.. Sher Singh Sarraf




अरमानों के बाग लगाना छोड़ दिया।


जब से इन हाथों में आया मोबाइल है।
सब लोगों ने आवाज़ लगाना छोड़ दिया।

इतनी सीलन है रिश्तों में आज कहूं।
माचिस ने भी आग जलाना छोड़ दिया।

भूख बनीं दुश्मन क्या पेट नहीं भरता।
जबसे अपने घर का खाना छोड़ दिया।

पूछा जो दिया क्यों जवाब हाथ पैरों ने।
तुमने जो सुबह घूमने जाना छोड़ दिया।

जबसे हमको दी दाद तुम्हारी आंखों ने।
हमने भी महफिल में गाना छोड़ दिया।

रुसवा ना हो जाओ तुम दुनिया में सोहल।
बस नाम तेरा होंठों पर लाना छोड़ दिया।

विपिन सोहल



गजल

काफिया- आ
रदीफ- चाहिए
बह्र- २१२ २१२ २१२ २१२ 

आज गलती की हमको सजा चाहिए
प्यार करने में अब तो वफा चाहिए।

नफरतों की हमें है जरूरत नहीं
अब मुहब्बत की कोई दवा चाहिए।

हम तो कब से तुम्हारे हुए हैं सनम
अब तुम्हारी ही बस इक रजा चाहिए।

गीत ग़ज़लों की इति यूं ही होती नहीं
नाम दिल पे किसी के लिखा चाहिए।

जिंदगी यूं तो खुद बन गयी मयकदा
जो पिलाएं नयन वो नशा चाहिए।

स्वरचित
इति शिवहरे


"बतलाना मेरा स्थान"

सारा आसमान तुम रख लेना....
मुझको दे देना बस कोना,
जिसमें जब चाहूं मैं उड लूं !
थोडी सी मैं मन की कर लूं !
छूना चाहूं मैं आकाश,
पर रह जाता है मन में काश.....।
पर मेरा है विश्वाश...
कभी तो होगी पूरी आस ।
नहीं चाहती पूरा दिल मैं...
बस चाहूं छोटा सा कोना,
जिसमें मेरा अश्क बसा हो 
तुमको मेरी याद सदा हो,
न खो जाऊं कहीं भंवर में
साथी हूं जीवन के सफर में
दे देना इतना सम्मान,
रख लेना तुम मेरा मान..... ।
बतलाना मेरा स्थान !
सारा जहां तुम रख लेना...
मुझको दे देना बस कोना,
मैं अर्द्धांगिनी पहले तुम्हारी
बाद में आई जिम्मेदारियां सारी !
मत छीनना ये पहचान,
बतलाना मेरा स्थान ।
इसमें कहीं मैं खो न जाऊं,
ढूंढूं खुद को तो भी न पाऊं !
रख लेना बस इतना ध्यान,
बतलाना मेरा स्थान !!!

अभिलाषा चौहान
स्वरचित



हे जितेंद्र!
कैसे मैं इंद्रियों को अपनी जीत जाऊँ...
मोह,माया ने ऐसा घेरा है,
इस बंधन से कैसे छूट जाऊँ....
ये जीवन कोरा दलदल है,
जितना निकलना चाहूँ,
ओर समा जाती हूँ।
जो अपना नही है,
क्यो,उसको भी अपना मान लेती हूँ।
हे वर्धमान!
अहिंसा,त्याग,तपस्या ,
अब भी मेरी पूंजी है,
पर,सत्य बतलाना आप....
इन सबसे हो नही रही ठिठोरी है??
जितना त्याग किया मैंने,
उतनी ही ठगी जाती हूँ,
दूसरों के सेवार्थ में लगी,
फिर क्यो अनदेखी की जाती हूँ??

वीणा शर्मा"वशिष्ठ"


नदी या तू
.................
तुम बहती नदिया पावन सी,

कल-कल-छल-छल मनभावन सी,

मैं पास खड़ा तेरे तीरे,
तू बहकर आती धीरे-धीरे,

मैं तुझे देख मोहित होता,
तू मुझे देख विष्मित होती,

मेरी प्रेम भरी दृष्टि के उत्तर में,
तुम कभी कभी मुस्काती हो,
पर इतने में तुम क्या जानो,
कितना जादू कर जाती हो,

एक आह लिए अपने उर में,
मैं तुमको देखा करता हूँ,
पर तुझको भान कहाँ इसका,
कि कितना प्रेम मैं करता हूँ,

जिस पर्वत पर तेरा जन्म हुआ,
है प्रेम नही तुझको उससे,
जिन झरनों के गोदी खेली,
हैं प्रेम नही तुझको उससे,

जिन छोटे-बड़े शिलाखंडों के,
संग खेली और रोज लड़ी,
भरकर बेग अपने यौवन का,
बन गले में जिनके हार पड़ी,

पर हाय न प्रेम हुआ तुझको,
उनको भी तूने तज डाला,
तू लौट पुनः फिर आयेगी,
बस पथ देखे है मतवाला,

तो हाय भला मैं क्यों सोचूँ?
तो हाय भला मैं क्या सोचूं?

बस तेरे प्रेम लालसा में,
तेरे तट तक आ जाता हूँ,
तू मुझे देख लहराती है,
मैं तुझे देख हर्षाता हूँ,

एक रोज जो मैंने पूंछा था,
क्यों प्रेम नही कर सकती तू?
मेरे जैसा अपने अंतर में,
क्यों प्रेम नही भर सकती तू?

क्या मेरे प्रेम की गर्मी से,
तेरा हृदय नही पिघलता है,
क्यो विरह प्रेम की अग्नि में?
नही धूँ-धूँ करके जलता है,

तेरा यूँ ही चुप रहना,
मेरे हृदय को छलता है....

वो हँसी जोर से कहकर ये....
कल-कल-छल-छल का शोर सुनों,
मैं यहां रहूँ या वहां रहूँ,
फैली जिस दिश उस ओर सुनो,

कितने ही मेरे तट पर आते हैं,
मुझसे हँसते बतियाते हैं,
कुछ हँसते हैं -कुछ रोते हैं,
कुछ गीत प्रेम का गाते हैं,

पर नही किसी ने पूंछा अबतक,
कि तेरे मन में क्या चलता है?
लोगों की यही उदासीनता,
मैं सच कहती हूँ खलता है,

जब पर्वत पर थी तब शीत सही,
फिर पाहन-पाहन टकराई,
ऊँचें-ऊँचें झरनों से गिर,
कैसे पीड़ा मैं सह पायी?

समतल पर कितनी ताप सही?
फिरभी संग सबके मुस्काई....

है प्रेम मुझे हर प्राणी से,
पर रिश्तों में नही बंध सकती हूँ,
हर पल चलना स्वभाव मेरा,
एक छोर नही रुक सकती हूँ....

एक छोर नही रुक सकती हूँ.......😢😢

स्वरचित...राकेश पांडेय


गद्य लेखनः ःएक सत्य ,सिर्फ़ पांच फुट जमीन के लिए ः(एक सत्य व्यंग्य)
किसने कहा मै संवेदनशील धैर्यवान और दयावान हूँ। मैने अपने जीवन में आपके हमक्ष 
अपनी संवेदनाओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किऐ हैं जिनमें मेरी मानव
ीयता दिखाई दी है।
जब भी मैने किसी असहाय बेसहारा व्यक्ति को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा है उसकी ओर से तुरंत अपनी अपनी संवेदनशील निगाहें हटा लीं जैसे कुछ देखा ही नहीं।
उसके शरीर से रिसते रक्त ने मुझे तनिक भी बिचलित और न हीं मानसिक रुप से प्रताड़ित किया।
.एक व्यक्ति मेरे सामने अपने पिता का शव दाह संस्कार के लिए रखे गिडगिडाता रहा मगर मैने भरी बरसात में भी उसे अंतिम संस्कार हेतु पांच फुट जमीन का टुकडा भी नहीं दिया। उसने मुझसे बहुत मिन्नतें की मगर मेरा हृदय बिल्कुल नहीं पसीजा।
आखिर क्यों मै उसे उसके बाप का अंतिम संस्कार अपनी जमीन पर या फिर सरकारी जमीन पर ही करने दूँ। अपने अहम्
एवं झूठे दंभ और स्वार्थ को मरने दूँ।
अपने दरबाजे से मैने उसे भगा दिया इस तरह मैने अपनी इंसानियत और विशुद्ध संवेदनशील होने का सच्चा परिचय दिया। 
जैसे भी सही उसे सडक किनारे अपने पिता का अंतिम संस्कार करना पडा और मेरे अभिमान को पोषित करना पडा।
एक बालक मेरे समक्ष भूख से तडपता रोता रहा और मै आराम से अपना हुक्का गुडगुडाता मंद मंद मुस्कुराहट बिखेरता रहा।
सही मायने में मै अपनी और उसकी औकात दिखाता रहा।
मैने अनेक शव बगैर कफन के पडे देखे हैं।बचपन को कुत्तों के साथ कचरों के ढेर में भूखे प्यासे नंगे बदन कुछ ढूँढते देखा है।
बहुत से नर नारियों को अधनंगे शरीर कांपते देखा है परंतु मैने अपनी वास्तविक संवेदनशील भावनाओं के वशीभूत होकर कुछ ज्यादा ही ध्यान रखा है।
मेरी सोई तंन्द्रा ने मुझे जगाया हंसाया और मैने विधाता के कार्यों में हस्तक्षेप न करने का मन बनाया।क्या मैने सेवा का सही बहाना बनाया।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


सुबह, दोपहर, शाम
रात फिर सूनीं सी,
कब-कब सूरज निकले और ढले
कब-कब चली साथ जिन्दगी ?

हाथ खाली, पांव नंगे
आदमी आए और बिछाए
झूठे सपनों की चादर
किन्तु कभी उड़ा ले जाए जिन्दगी l

वक्त के साथ बदले जिन्दगी
वक्त के साथ जले जिन्दगी
वक्त नहीं पूछता किसी को
कि कब ढली तेरी उम्र जिन्दगी l

"किसी को नहीं पता 
ये क्या बला है जिन्दगी,
जिसके साथ जैसी बीती
उसी बात का राज है जिन्दगी l"

मासूमियत का बहाना है जिन्दगी
उम्र का बिताना है जिन्दगी,
कब- कब सूरज निकले और ढले
कब-कब चली साथ जिन्दगी ?

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर
(मैसूरू)
9482888215


🌸🌸🌸🌸🌸🌸
मैं बाबुल की नन्ही गुड़िया
मैं हूं चिरैया मईया की
खेल कूद जिस संग बड़ी हुई
मैं छोटी बहना भईया की
आज विदाई इस आंगन से
जिसमें खेली बड़ी हुई
मत रोना भईया मेरे
मैं अपने ससुराल चली
छोड़ चली माँ-पापा को
छोड़ चली घर का हर कोना
याद अगर मेरी आए
दुःखी होकर कोई मत रोना
रोकर मुझे विदा करोगे
मैं कैसे सह पाऊंगी
दूर होकर तुम लोगों से
मैं कैसे रह पाऊंगी
बेटी तो होती है पराई
प्रभू ने यह रीत बनाई 
जिस घर खेली बड़ी हुई
वहां से होती उसकी विदाई 
तुम सब तो संग रहोगे
मैं तो अकेली हो जाऊंगी
नए रिश्तों में शायद मैं
खुद को ही भूल जाऊंगी
हस कर आशीर्वाद मुझे दो
मेरा जहां आबाद रहे
उस घर में जाकर रम जाऊं
इतना मुझे प्यार मिले
***अनुराधा चौहान***स्वरचित





अकेला आपने रहने दिया कब,
ह्दय में और को बसने दिया कब।।
उजालों की डगर देखीनही है,
अंधेरों ने मुझे चलने दिया कब।। 2।।
बिठाये सर्वथा अध रों पे पहरे,
मुझे कुछ आपने कहने दिया कब।। 3।।
घृणा औरदैष की इन आंधियों ने,
दीया सद्भाव का जलने दिया कब।। 4।।
लिखा है भाग्य में रोना रुलाना,
नियति ने आज तक हंसने दिया कब।।
देवेन्द्र नारा यणदास बसना स्वरचित।


आज का युग 
छोड़ा यदि स्वतंत्र
बिगड़े बच्चे 

नभ के पक्षी
उड़ने दो स्वतंत्र
करो ना कैद

रखे पटल
विचारो को अपने
है स्वतंत्रता 

आजादी पर्व
स्वतंत्रता दिवस 
है कहलाता 

आज भी कई 
परतंत्रता दंश
झेलते जन

भरें उड़ान
स्वछन्द आसमान
भावों का यान

स्वरचित 
मुकेश भद्रावले 
हरदा मध्यप्रदेश
Hemant Dubey  



मेरी सत्य और कटाक्ष रचना......
(रचना 28)
राजनीति के देखो,
नियम निराले हो गये....
पद पाकर के हर नेता जी,
देखो मतवाले हो गये........
(1.)
आतंकवाद,बेरोजगारी ,अपराध और भृष्टाचार........
नेता बनते ही आ जाते ,इनके मन मेे ये विचार.......
अरे ऐसे नेताजी देखो,
जनता के रखवाले हो गये........
पद पाकर के हर नेता जी,
देखो मतवाले हो गये.........
(2)
नेता बनकर हर नेताजी,
चारो ओर विकास की बात करे.....
जब घोटाले करने हो तो,
मिलकर सब एक साथ करे.......
इतने घोटाले कर कर देखो,
कितने ये हिम्मतवाले हो गये.....
पद पाकर के हर नेताजी,
देखो मतवाले हो गये......

राजनीति के देखो,
नियम निराले हो गये....
पद पाकर हर नेताजी,
देखो मतवाले हो गये.........


Arati Shrivastava 



"गंधारी का पाश्चाताप"

मैं गंधारी पति मोह की मारी
समझ न सकी बुरे परिणाम सारी
पति हैं चक्षुविहीन तो मैं क्यों देखूँ दुनिया सारी

और बाँध लिया पट्टी आँखों पर
और देख न पाई बाल सुलभ क्रीड़ाए सारी
बालपन की एक एक क्रीड़ाओं पर
होती हैं माँ की निगरानी
और हो जाते है संतान की उज्जवल भविष्य की। तैयारी।

कहते है मामा मे होता है ,दो माँ का प्यार
पर मेरे संतान के शकुनि मामा
दिखा सके न सही मार्ग

दुयोर्धन को सही संस्कार न दे सकने की है मुझे मलाल
दुःशासन ने भी तोड़ी मार्यादाओ की तार।

हाँ, मैं अपराधिन हूँ मैं गंधारी हूँ
माँ होने के फर्ज मे हारी हूँ
सुन लो दुनिया सारी
संतान के मामले में करो न दूसरो पर विश्वास
माँ के फर्ज से मत करो इंकार

मारी गई थी मति मेरी
जो बाँधी आँखों पर पट्टी भारी
यदि मैं गलत निर्णय नही लेती
तो आज मैं सौ पुत्रों की माँ होती।
आज मैं सौ पुत्रों की माँ होती।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।



हो जायगा उनका तो फिर बोलो ही राम

आये जब इस संसार में,लाये थे तुम क्या साथ। 
नंगे बदन आये तुम,नहीं कुछ था तुम्हारे पास।।

हाथ पसार कर जाओगे, होगा नहीं कुछ साथ।
जैसै आये वैसे जाओगे,होगा हीनहीं कुछ पास।।

करने में शोषण दूसरों का, रखते हैंजो यकीन । 
चाहिये उन्हें अपने लिये सिर्फ तीन गज़ जमीन।।

वह जमीन भी साथ अपने,नहीं कोई ले जायगा । 
हो ठन ठन गोपाल उसे भी यहीं छोड़ जायगा।।

करके बेईमानी दुनिया को चाहे जितना ले लूट। 
ले नहीं जाओगे साथ,सब जायेगा यहीं पर छूट।।

पाप करने से पाओगे नहीं तुम कोई भी सुपल ।
भोगना पड़ेगा हर हालमें कर्मों का अपने फल ।।

इस दुनिया मे कुछ भी तो यों ही नहीं है घटता ।
पिछले जन्मों के कर्मों का फल भुगतना पड़ता ।।

छीनोगे दूसरों से श्रीमन, अगर तुम उनका धन।
आयेगा नहीं वह काम तुम्हारे बिगड़ेगी सन्तान।।

कहते स्वयं को जो भगवान छलते ले प्रभु का नाम।
हो जायगा फिर उनका तो, समझो बोलो ही राम।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी
स्वरचित




💐स्वतंत्र💐
❤️मेरे पिताजी से!❤️ 

पिता ! तुम्हीं हो रक्षक...
तुम हीँ मार्गप्रदर्शक

पिता ! तुम वट वृक्ष...
तुम्हीं ने दी मजबूती 

पिता ! तुम हुए पीपल...
तुमसे छाँव तुम्हीं से जीवन

पिता ! हमारे नीम...
शुद्ध साँसों का सरगम

तुम हीं हो वह माली...
पल्लवित किया

सींचकर जिसने...
बगिया की हर डाली

हम मिट्टी के लोंदे...
तुम हो वह मेहनती कुम्हार

दिया हुआ तुमने हीं हमको...
सुगढ़ और मजबूत आकार

बचपन के अल्हड़ सपनों को भी...
दिया तुम्हीं ने ठोस आधार

शूलों पर खुद चले...
हमारे पथ पर पुष्प बिछाया

खुद लपटों में जलकर तुमने...
हमें दिया है शीतल छाया

तुम्हीं हो वह नाविक जिससे... 
तरती है जीवन की नईया

हम सब के भगवान तुम्हीं हो...
तुम्हीं हमारे हो खेवईया...

स्वरचित 'पथिक रचना'


शीर्षक-दैत्य
दृग दैत्य
कलुष कृत्य
वासना वीभत्स 
दुष्ट दुश्शासन
विकृत मनसा
लम्पट लालसा
भूखे भेड़िये
राह में बहेलिये
भीत बेटियाँ
खतरे की घंटियाँ
हरपल भाँपती
मन ही मन कांपती
बचती बचाती
दामन को छुपाती
खंडित मान
मन लहूलुहान
रूह की बोटियाँ
सियासत की रोटियाँ
जलती मोमबत्तियाँ
अनगिन आपत्तियाँ
फिर एक यक्ष-प्रश्न
कहाँ है कृष्ण?
द्रौपदी की लाज?
सोचें आज समाज।
संकल्प एक उठाओ।
इस दैत्य को जलाओ।

-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित कविता



रात शमा सी जलती रही 
***********************
तन्हाई के आलम में, 
रात शमा सी जलती रही।
कसक थी जो आँखों से,
शबनम सी ढलती रही।

कुछ फासले थे दरमियाँ,
नासूर सा चुभता रहा।
वर्फ सी जमी रही,
काँच सा टूटता रहा।

क्या गिला करूँ कि वक्त,
परवाना सा हुआ।
खबर नहीं उन्हें मगर,
ये दिल दीवाना सा हुआ।

स्व रचित 
उषा किरण



विधा :- लघु कविता

क्या हो रहा लोगों की मानसिकता को 
क्यों जंग लग रहा है मानवीय सोच को
क्यों हो रहे रोज बलात्कार यहाँ
कैसी दीमक लील रही है संस्कारों को

ये देश संस्कृतियों का पैमाना था कभी 
क्यों आज अपने कर्मक्षेत्र से जूझ रहा
क्यों जा रही सोच दलदल में
क्यों हर कोई अपना आपा खो रहा

क्यों नहीं कोई ये सोचता
वसुधैव कुटुंबकम की धारा
क्यों लड़ रहा जात धर्म पर
कहाँ गया अनेकता में एकता का नारा

क्यों हो रही दहेज हत्याएं
कहाँ गया वो नारी का सम्मान
पूजी जाती थी कभी इस देश में
हर एक नारी देवी समान

दहल उठता है दिल आज भी
छपती अखबारों में मासूम चित्कारों से
कब होगा मेरा देश आजाद
ऐसे रोज होते अत्याचारों से

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




आसमां में विचरते-विचरते
धरती को मत भूलना
जल जाएं पंख तेरे
ऐसी उड़ान मत भरना ।
छुट न जाएं अपने तेरे
दुनिया के इस भीड़ मे
खो न देना कहीं सबकुछ
अपनी मतलबी जिद्द में ।
जब कहोगे अलविदा
तो संग कुछ न जाएगा
तेरे अच्छे-बूरे याद और 
जीवन भर की कमाई
यही छूट जाएगा।
तब पछताओगे,रोओगे
पर हाथ खाली होगा
कुछ न कर पाने का सोचो
दर्द कितना गहरा होगा.......।

स्वरचित- मुन्नी कामत ।



यू तो भीड़ बहुत है मगर 
हमने हर वक़्त ख़ुद को अकेला पाया है 
उससे कहा तक माँगे ख़ुशी के लम्हे 
जब ग़म ही हमारे नसीब में आया है 
तेरे ही दम से जिया करते थे हम तो जाना 
ना जाने क्यों तूने ही ये ना जाना 
ज़िंदगी में मेरी बस एक ही आरज़ू 
तेरे लिए ये जाँ दे दूँ 
पर तुमने मुझे जाने क्यों ठुकराया है 
क्या इतनी बड़ी ख़ता की 
जिससे सारा प्यार धुँधलाया है 
अब ना जाने आगे क्या होगा 
या मिलोगे तुम या मौत का साया होगा 

डॉक्टर प्रियंका अजित कुमार 
स्वरचित



लघु कविता

भारत को भारत रहने दो,
क्यों बांटते हो प्राचीरों में।
यह विश्व गुरू कहलाता था,
मत बांधो इसे जंजीरों में।
यह संतो की तपो भूमि है ,
क्यों धकेल रहे हो दल दल मे
यह धरती सोना दायी है,
क्यों बना रहे हो बंजर तुम
यह धरती है बलिदानों की,
कयों कायरता फैलाते हो।
यह स्वाभिमान की भूमि है,
जिसपर प्रताप ने जन्म लिया।
निज प्राणों की परवाह न कर,
जिसने सर्वस्व लुटाया था
उस भारत को भारत रहने दो,
जो विश्व गुरु कहलाता था।
उस भारत को भारत रहने दो।।
(अशोक राय वत्स) जयपुर ,स्वरचित
7665994959/8619668341



********डगर********
दो डगर चलना आसान नहीं होता 
जिंदगी की दो राहों में 
चलूँ एक डगर तो एक 
थम जाती है

दो डगर चलना आसान नहीं होता 
जिन्दगी के भागमभाग में 
चलते अपनों के संग 
कुछ सपने टूट जाते हैं 

दो डगर चलना आसान नहीं होता 
कर्तव्यों के मेले में 
खो जाऊँ तो
कुछ यादें छूट जाती है

दो डगर चलना आसान नहीं होता 
खुशियों को लुटाते
अक्सर गमों के प्याले ही
मिल जाते हैं

दो डगर चलना आसान नहीं होता 
इस अनजानी राहों में 
चलते चलते
कुछ मनमीत बन जाते हैं 

दो डगर चलना आसान नहीं होता 
जी लूँ खुद को तो
जिन्दगी रुठ जाती है 
दो डगर चलना आसान नहीं होता 

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल



नन्ही चिड़िया 
7अक्टूबर 2018
रोज मैं देखूँ एक नन्ही चिड़िया, 
अपने कक्ष की खिड़की से, 
रोज आकर मुझे पुकारे जैसे, 
करती टुकटुक अपनी चोंच से l

लगे कोई रिश्ता है मुझसे, 
कुछ कहना चाहती है मुझसे 
लगती बिलकुल ही परी जैसी, 
पूर्व जन्म का रिश्ता जैसै l

रोज सुबह सुबह आ जाती, 
मेरा ह्रदय खुश कर जाती, 
कहाँ शहरों में पक्षी मिलते, 
वो रोज मुझे खुशियाँ दे जाती l

काश... उत्साही चिड़िया होती, 
डाल डाल पर उड़ती फिरती, 
समाज के कलह से दूर रह कर, 
बादलों से फिर बातें करती l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित 
देहरादून 
उत्तराखंड




परिवर्तन

अंहकारी मन में हमारे,
परिवर्तन नामुमकिन है,
बिठाए हालात से सामंज्स्य,
हर विधा में वो प्रवीण है,
रहकर वर्तमान में जो,
भूतकाल में जो जिएगा,
पाकर परिवर्तन वो खुद में,
जीवन अपना सुखी बनाएगा,
युवा पीढ़ी तुम ये जानो,
खुद रोकर तुम्हे हँसाया,
ना छोड़ना साथ उनका,
रखेंगे वे तुम पर स्नेह की छाया।

स्वरचित-रेखा रविदत्त


न उजाला है, न अँधेरा है।
अभी तो हुआ बस,
साँझ का ही बसेरा है।

दादाजी थामे कोमल हाथ,
प्यारे से पोते - पोतियों का।
ले रहे आनंद मासूमों की,
मदमस्त,अठखेलियों का।
कहते है सूद से ज्यादा,
होता है ब्याज़ प्यारा।
उम्र के इस पड़ाव में लगता है, 
बच्चों का साथ बड़ा ही न्यारा।
पा साथ उन प्यारे बच्चों का, 
बुढ़ापे का सफर हो जाता सुहाना।
पकड़े हाथ बच्चों का,
ले चले घुमाने को दादा।
मस्त हो चला दादा-पोते का
ये प्यारा अनमोल नाता।
दादा के पास है जो,
ज्ञान का बहुमूल्य भंडार।
हँसते - गाते दे रहे वो आज,
बच्चों पास है मेरे बस,
ज्ञान की ही सिर्फ कुंजी।
दे रहा हूँ मैं तुमको,
संस्कारों की पोटली।
रखना इस पोटली को तुम,सदा संभाल
विरासत है ये मेरी जिसे, 
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाने की
जिम्मेदारी है तुम राजदुलारों की....
जिम्मेदारी है तुम राजदुलारों की....
©सारिका विजयवर्गीय "वीणा"
नागपुर (महाराष्ट्र)



जीवन का सफर 
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लम्हा-लम्हा यह जिंदगी बीतती रही।
कभी रोती तो कभी यह हंसती रही।

नभ में आजाद पंछी बन उड़ती रही
कभी स्वछंद हो हवा संग बहती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

भयाक्रांत कभी भयमुक्त होती रही
नदियों-सी निरंतर आगे बढ़ती रही। 
लम्हा-लम्हा.........।

कई साथी छुट गए कई जुड़ते रहे
जीवन की यात्रा यूं ही चलती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

जिंदगी हमेशा एक सी होती नही 
कभी गम तो कभी खुश होती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

एहसास कभी खट्टे कभी मीठे मिले 
फिर भी जिंदगी चक्की पीसती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

सुकून हर पल सभी को मिलता नही 
सुकून पाने के लिए कर्म करती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

सफर सुहाना मगर दिल वैरी होता है
कभी सुख कभी दुःख झेलती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

साथ होते बाजार, तो कभी तन्हाई 
खींचा-तानी में जिंदगी घिसती रही।
लम्हा-लम्हा.........।

--रेणु रंजन
(स्वरचित )
07/10/2018



कुंडलियां छंद
,,1,,
घोषित हुई चुनाव की,देखों अब तारीख।
नेता जी देने लगें, सब चेलों को सीख।
सब चेलों को सीख, सभी की जेबें भर दो।
सुने न जो गर बात,पिटाई भी फिर कर दो।
कहें अमन कविराय ,करों गुंडो को पोषित।
मिलें हमे ही जीत,हुई तारीखें घोषित।

,,2,,

मौसम अरे चुनाव का देखों आया मीत।
गूंजे अब हर मंच पर,नेता जी के गीत।
नेता जी के गीत,लोग सब खुलकर गाते।
कुछ देते सम्मान,गालियां कई सुनाते।
कहें अमन! घबराय,अरे नेता जी हरदम।
दिल की धड़कन तेज,चुनावी देखा मौषम।।

शिव कुमार लिल्हारे,,अमन
बालाघाट



(हिंदी जयगान)

संस्कृत भाषा जननी मेरी
उसने मुझको जन्म दिया
देवनागरी बनी लिपि
मैंने ख़ुद को हिंदी नाम दिया ।

मेरे वर्णों की वैज्ञानिकता 
क्या ख़ूब सराही जाती
इतर भाषा का शब्द मेल
मेरी उदारता कहलाती।

महज़ इक भाषायी
मैं नाम नहीं हूँ हिंदी
हिंदुस्तान के जन जन की
ज़ुबान हूँ मैं हिंदी।

तुम मेरी सीमाओं का ना पूछो यूँ विस्तार
उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम 
चहुँ ओर मेरा धाम ।

अपने तीज त्योहारों का भाल बन गई हूँ
मीरा तुलसी कबीर वाला
फिर काल बन गई हूँ

मेरे साहित्य सरोकार ने मुझे ख़ूब निखार दिया
भूमंडलीकरण के दौर ने मेरा माँ बढा दिया ।

सात समंदर पार देश की शान बन गई हूँ
समाचार वाचन की अब नई रीत बन गई हूँ

देश के कोने कोने में इसकी बिंदी का सम्मान हो 
नित नयी पहचान मिले जग में ,मेरी हिंदी का जयगान हो ।
स्वरचित 
संतोष कुमारी



"स्वतन्त्र लेखन"
विधा- दोहे
विषय- दहेज प्रथा व भ्रूण हत्या

प्रस्तुृत हैं मेरे चंद दोहे -

दानव प्रथा दहेज की, लील गई सब शील ।
शेष न मानवता रही, कारण नैतिक ढील ।। ।१।

खत्म तमाशा कीजिए, नारी-अत्याचार ।
प्रथा-बहाने लूट का, बंद करें व्यापार ।। ।२।

हत्या-भ्रूण न कीजिए, सुता सृजन-आधार ।
बेटी जीवन-सार बिन, सूना सब संसार ।। ।३।

लोलुप लिप्त दहेज के, मत लो ललना-प्राण ।
कन्या का हर रूप है, हेतु बना कल्याण ।। ।४।

जीवन जीना है किया, नारी का दुश्वार ।
व्यर्थ चलाई है प्रथा, यह दहेज-व्यवहार ।। ।५।

जीवन हो जाए सुगम, रीत-उद्भव-निर्माण ।
हो जाती अभिशप्त यह, जब हो घातक-प्राण ।। ।६।

जीवन सरल-सुलभ बने, कारण होतीं रीति ।
चलन हेतु मानव नहीं, मनुज-लिए है रीति ।। ।७।
#
"स्वरचित"
- मेधा नारायण,
७/१०/१८,
(रविवार),
लखनऊ.



( हास्य कविता) 😁😀🤣😥😪
शीर्षक , बीवी
हमसा कह्राँ पाओगे राजा
हम तो बजा जायेंगे तुम्हारा बाजा
बच्चे होंगे ढोल मंजीरे
मेरी ही तान पे तान मिलाओगे राजा
हमसे कह्राँ पाओगे राजा
रोज मुझे ठगा जाते हो
आज तो ऐसा अवसर आया
जेब करो तुम अब खाली
नहीं तो ले आती हूँ मैं बच्चों की टोली
हमसे कहाँ पाओगे राजा
हम तो बजा जायेंगे तुम्हारा बाजा
मैं तो अपने मायके की हो ली
नौ नौ बच्चों की करो तुम अब रखवाली
हफ्ता बीता महीना बीता
गयी नहीं मैं पार्लर वाली 
हद हो गयी राजा जी अब तो 
कर दो जेबे खाली
देखो जी देखो मैं तो तुम्हारी 
प्यारी सी घरवाली 
ब्यूटी पार्लर के बिना भी जीवन है बेकार
भीख नहीं मैंने तुमसे माँगी
ये तो बीवी का है अधिकार
उसको तुम्हें निभाना होगा
हर महीने मुझको साड़ी लानी होगी
नहीं तो अपने नौ नौ ठयो की तुम 
ले लो जिम्मेदारी
नोक झोंक ना हो मियां बीवी में
तो गृहस्थ जीवन है बेकार
पाना है अगर तुम्हें उद्धार
देवी समझ बीवी को पूजो होगा 
तुम्हारा बेड़ा पार 
बीवी की हर माँगे मानो वही है तुम्हारी करतार
हर पति अपनी पत्नी की करता रहे जय जय कार
तभी तुम्हारा होगा यह जीवन उद्धार
प्रेम से बोलो पत्नी देवी की जय जय जयकार कार
🙏स्वरचित हेमा जोशी 🙏

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