एहसास
मेरे चेहरे पे जो भीड़ है
वो हजारों-लाखों कई चेहरों की है
जो मेरी यादों की पटल पर
ता-जिन्दगी आते रहे- जाते रहे l
कभी-कभी मैं
उन चेहरों में खो जाता हूं,
ढूंढता हूं उनमें
मेरे होने का एहसास,
मेरे जीनें की वज़ह l
कुछ चेहरे, जो अब नहीं हैं
कहांं चले गए
कहां खो गए,
कभी-कभी वो नज़र आ जाते हैं
किसी तस्वीर में,
किसी याद में,
तब मैं पढता हूं
उन चेहरों को, उनके किरदारों को
और सोचता हूँ !
ये भीड़ तब कहां जाएगी
जब उसे मेरा चेहरा
नहीं मिलेगा और
क्या मैं भी कभी किसी चेहरे की
किसी भीड़ का हिस्सा बनूंगा,
मेरे जानें के बाद
मेरे भीड़ भरे चेहरे के
मिट जानें के बाद
रह जाएगा इक ठण्डा सा "एहसास" l
श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर, बीकानेर l
MYSORE, Karnataka
मैं आदि कवि की आह हूँ,
चकवे की निष्फल चाह हूँ,
जल से रहित एक कूप हूँ
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूँ।।
बरसा हुआ इक मेघ हूँ,
प्रचंड लू का वेग हूँ,
मरुभूमि की मैं धूप हूँ,
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूँ।।
मैं राजबंधित भीष्म हूँ,
गुरुश्राप पीड़ित कर्ण हूँ,
वचनबद्ध कोशल भूप हूँ,
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूँ।।
मैं विरह का गीत हूँ,
पीड़ा भरा संगीत हूँ,
मैं चिररुदन अनूप हूँ,
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूं।।
कुंती के मन का शोक हूँ,
विजितकलिंग अशोक हूँ,
सत्ता से वंचित भूप हूँ,
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूं।।
पीपल का पीला पत्र हूँ,
मैं टूटता नक्षत्र हूँ,
ललना का कुत्सित रूप हूँ,
हां ! दुःख का प्रतिरूप हूं।।
- महेश भट्ट 'पथिक'
******************
कल्पना
पता नहीं वो कैसे होंगे?
हे मेरे मन कल्पना कर।
हँसमुख या चहुँमुखी?
ख़ास एक संकल्पना धर।।
समझदार होंगें या नादां
या होंगे प्रेम प्रिय मित्र से
हिम से शीतल होंगे या
मोनालिसा के चित्र से।।
हे मेरे मन कल्पना कर
उ..होंगे वो विचार प्रेमी।
या होंगे वो कोमल मन
अं.. होंगे शकी , बहमी ।।
शायद होगें शीत लहर से
चुलबुले या फिर नटखटी।
वो मोहि मुस्कराहट के धनी
करते होंगे बातें चटपटी।।
या होंगे कल्पना से परे
न जाने कैसे होंगे वो..?
मन की कल्पनायें हैं.
न जाने कब पूरी होंगी?
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
प्रेम ही सत्य है
प्रेम ही शिव है
प्रेम ही सुंदर है
प्रेम ही सार है ।
प्रेम ही सुगंध है
प्रेम ही तरंग है
प्रेम में रचा-बसा
मनुज का संसार है ।
प्रेम ही अतुल्य है
प्रेम ही अमूल्य है
प्रेम ही शाश्वत है
साक्षात निराकार है।
प्रेम में त्याग है
प्रेम में समर्पण है
प्रेम ही जगती का जीवन
प्रेम ही सगुण साकार है ।
प्रेम में रचे बसे
पंच महाभूत हैं
प्रेम ही से सारी
सृष्टि उद्भूत है।
प्रेम के ढाई आखरों में
त्रिदेवों की शक्तियां समाई हैं
महापुरूषों की वाणी
मानवीय महानता समाई है।
प्रेम के ढाई अक्षर
वेदों का सार हैं
गीता का ज्ञान है
कुरान की पुकार है ।
इन अक्षरों में छिपा
ईश्वरीय प्रकाश है
जीवन की आस है
आस्था और विश्वास है।
इन अक्षरों के ज्ञान से
बना मनुज महात्मा
इनसे रहित मनुज
बन गया दुरात्मा।
प्रेम के ढाई अक्षर ही
इस सृष्टि का मूल हैं
इनसे रहित मनुज जीवन
निस्सार और निर्मूल है।
***अभिलाषा चौहान***
स्वरचित\
कर्मयोगी
-------------
जो भी निरन्तर,
दुखों का ताप सहकर,
कर्म-पथ पर हो अग्रसर,
कर्मयोगी है वही,
इस धरा पर.....
.................................
जो डरा और डिग गया,
लक्ष्य फिर मिलता कहाँ,
जो शिला छेनियों का,
वार सहकर....
रहता अडिग-अचल-
निरंतर....
फिर मूर्ति होकर,
पा लेता स्थान,
मंदिर या फिर सदन में...
पर जो डरा इस घाव से..
हो वो सफल क्योंकर......
......................................
जब कुम्हार कुचलता है,
मृदा को पैरों तले,
फिर फेंक चाक पर,
देता थाप अंदर-बाहर,
फिर तपाता है अग्नि की,
ताप में प्रबल....
फिर निकलती है मृदा,
खरा बासन बनकर.......
.....................................
जब भूमि सीने पर,
सहती है आघात हल का,
फिर पीटता पाटे से अन्नदाता,
और डालता जल बेग भरकर,
पर इन दुखों के पार जाकर,
होती है मृदा उर्वर,
फिर जन्म देती,
नवांकुर-नवपौध,
करती पोषण धरा का...
पुकारता जग मां कहकर.....
........................................
है सार जीवन का,
रहो कर्मशील निरंतर,
सौ दुष्वारियों को सह,
रहो निरंतर कर्म पथ पर....
.......स्वरचित...राकेश पांडेय
सुन मेरी प्यारी भोली बहना,
करवा कंघी हो जा तैयार,
तुझे आज माँ से मिलना है।
लगाया माँ ने धरा पर आज,
अपना अदभुत दरबार,
देखने हमें चलना है।
न देखी तूने माँ की ममता,
प्रश्न ये जगमाता से करना है।
क्यों जन्मते ही माँ का उठा साया,
हम मासूमों पर कहर है ढाया?..
क्यों माँ को हमारी है छीना?.…
क्यों बिन माँ के हमको है जीना?...
क्यों माँ होके बालकों के दर्द से है वो अंजान?..
हाँ!...शायद मूरत है इसलिए वो है बेजान।
बहना!..माँ जगदंबा से ऐसे अनगिनत,
सवालों के जवाब हमें लेना है।
जल्दी से तैयारी कर ले बहना,
दरबार में आज से उसके
डेरा हमें अब है डालना।
द्रवित जरूर होगा माँ का मन,
पुकार सुन जरूर आयेगी अम्बे।
हम मासूमों को भेजा है धरा पर तो,
ममता भी लुटायेगी जगदम्बे।
हाँ!...ममता भी लुटायेगी जगदम्बे।
स्वरचित-सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
करवा कंघी हो जा तैयार,
तुझे आज माँ से मिलना है।
लगाया माँ ने धरा पर आज,
अपना अदभुत दरबार,
देखने हमें चलना है।
न देखी तूने माँ की ममता,
प्रश्न ये जगमाता से करना है।
क्यों जन्मते ही माँ का उठा साया,
हम मासूमों पर कहर है ढाया?..
क्यों माँ को हमारी है छीना?.…
क्यों बिन माँ के हमको है जीना?...
क्यों माँ होके बालकों के दर्द से है वो अंजान?..
हाँ!...शायद मूरत है इसलिए वो है बेजान।
बहना!..माँ जगदंबा से ऐसे अनगिनत,
सवालों के जवाब हमें लेना है।
जल्दी से तैयारी कर ले बहना,
दरबार में आज से उसके
डेरा हमें अब है डालना।
द्रवित जरूर होगा माँ का मन,
पुकार सुन जरूर आयेगी अम्बे।
हम मासूमों को भेजा है धरा पर तो,
ममता भी लुटायेगी जगदम्बे।
हाँ!...ममता भी लुटायेगी जगदम्बे।
स्वरचित-सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
''इश्क/प्रीति"
उम्र की यह खता थी
न किसी की खता थी ।।
कल कल के चक्कर में
लब्जों ने दी सजा थी ।।
लब्ज अगर दो बोले होते
यूँ न भड़के ये शोले होते ।।
बैचेनी नही इतनी होती
जज्बात न यूँ डोले होते।।।
नैनों से छलकी जो नज्म
आज वही सजती है बज्म ।।
रात रात भर वही जगाती
सिखा गई वो प्यार की रस्म ।।
पूरी ही वह किताब बनी
उसने कही और हमने सुनी ।।
बनना था ''शिवम" डा०
शायरी की यह राह चुनी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/10/2018
उम्र की यह खता थी
न किसी की खता थी ।।
कल कल के चक्कर में
लब्जों ने दी सजा थी ।।
लब्ज अगर दो बोले होते
यूँ न भड़के ये शोले होते ।।
बैचेनी नही इतनी होती
जज्बात न यूँ डोले होते।।।
नैनों से छलकी जो नज्म
आज वही सजती है बज्म ।।
रात रात भर वही जगाती
सिखा गई वो प्यार की रस्म ।।
पूरी ही वह किताब बनी
उसने कही और हमने सुनी ।।
बनना था ''शिवम" डा०
शायरी की यह राह चुनी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/10/2018
------------उदास कोई हो----------
किसी के अंधेरे घर में हो सके तो दीपक जलाना,
उदास कोई हो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाना।
मिल जायेंगे बहुत भूखे सोते हुए,
गम में अपने पलकें भिगोते हुए,
आगे बढ़ प्रेम से उस मजबूर को गले से लगाना,
उदास कोई हो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाना।
दिलजले बहुत से दुनिया में मिलेंगे,
तेरे दिलासे से खुशी के फूल खिलेंगे,
देकर अपना प्रेम तुम मजबूरों का मन बहलाना,
उदास कोई हो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाना।
करुणा-जल से मानवता के फूल खिले,
तुम सबसे मिलो सब सदा तुमसे मिले,
अहं के रावण को नहीं कभी निज दिल में बसाना,
उदास कोई हो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाना।
--------सुरेश--------
मैं लड़की हूँ पर लाचार
दुनिया की नजरों में
अपना अस्तित्व बचाती
अपनो की नजरों में
बेजार हूँ मैं अपनी किस्मत पे
दुनिया ने मुझे खिलौना समझा
जो आया खेल गया जज्बातों से
खिलौनौं का बाजार समझा
अपने स्वाभिमान के लिए
लड़ जाऊँ दुनियां रिवाजों से
लाज बचाती सकुचाती मन में
लड़ती हवस के भेड़ियों से
पग पग सहे अपमान मैंने
अब चाहूँ सम्मान मैं भी
अपनी आत्मरक्षा के लिए
चाहूँ माँ से वरदान मैं भी
हारूं नहीं झुकूं नहीं
कर्तव्य पथ पर रूकूं नहीं
अडिग रहे मेरा आत्मबल
स्वरक्षा के पथ पर झुकूं नहीं
स्वरचित:-मुकेश राठौड़
🌸🌸🌸🌸🌸
किस्मत पर किसी का बस न चले
किस्मत के आगे बेबस खड़े
क्यों रोते किस्मत का रोना
किस्मत का लिखा प्रभू को भी पड़ा सहना
राम ने खोया राजतिलक
वन-वन भटके चौदह वर्ष
जनकदुलारी सीता सुकुमारी
किस्मत में लिखी जुदाई अतिभारी
राधा कृष्ण का प्रेम अमर
किस्मत में होना था उनको अलग
सती से जुदाई की पीड़ा
महादेव को भी पड़ी सहना
किस्मत किसे कहां ले जाए
यह कोई कभी समझ न पाए
कौन रंक से राजा बने
कौन राजा से रंक बन जाए
किस्मत पर किसी का बस न चले
किस्मत के आगे बेबस खड़े
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
किस्मत पर किसी का बस न चले
किस्मत के आगे बेबस खड़े
क्यों रोते किस्मत का रोना
किस्मत का लिखा प्रभू को भी पड़ा सहना
राम ने खोया राजतिलक
वन-वन भटके चौदह वर्ष
जनकदुलारी सीता सुकुमारी
किस्मत में लिखी जुदाई अतिभारी
राधा कृष्ण का प्रेम अमर
किस्मत में होना था उनको अलग
सती से जुदाई की पीड़ा
महादेव को भी पड़ी सहना
किस्मत किसे कहां ले जाए
यह कोई कभी समझ न पाए
कौन रंक से राजा बने
कौन राजा से रंक बन जाए
किस्मत पर किसी का बस न चले
किस्मत के आगे बेबस खड़े
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
212 2122 212 2122
चाँद तारा भी देखके तुमको हैरान सा है।।
रुख़ क्यों आसमाँ का ही ये बेज़ान सा है।।
मेरी भी ज़िन्दगी गुज़री परेशानी में ही।।
बादलों के मध्य सूरज भी हैरान सा है।।
ये सुई और धागे में ही तो मोहब्बत है।।
दिल दुखाके भी वो मेरा नादान सा है।।
इस हवा में तो साँसे लेना ही अब दूभर है
ये इंसां भी शज़र काटके परेशान सा है।।
ज़िन्दगी में ख़ुदा सबकी कमी को सुनेगा।।
वो फरिश्तों में भी सबका निगहबान सा है।।
-आकिब जावेद
बिसंडा,बाँदा(उ.प्र.)
वर दे!
पद्मासना माँ स्कन्दमाता!
ओज तेज मानस में भर दे।
माँ दुर्गा की पंचमरूपा शुचि,
रवि मण्डल अधिष्ठात्री देवि!
मानवतन स्थित पुष्कल चक्र,
जाग्रत कर मन जगमग कर दे।
सिंहवाहिनी मोक्षप्रदायिनी माँ!
मुक्त सकल बन्धन से कर दे।
अन्तर्मुखी चित्त को कर माँ!
दुख संताप सकल अब हर ले।
ममता करूणा की प्रतिरूपा!
मानव प्रजाति उर शुचिता भरदे।
रसधार प्रेम की अन्तस्तल में,
नित्य बहा, जग अभिनव कर दे।
--स्वरचित--
(अरुण)
पद्मासना माँ स्कन्दमाता!
ओज तेज मानस में भर दे।
माँ दुर्गा की पंचमरूपा शुचि,
रवि मण्डल अधिष्ठात्री देवि!
मानवतन स्थित पुष्कल चक्र,
जाग्रत कर मन जगमग कर दे।
सिंहवाहिनी मोक्षप्रदायिनी माँ!
मुक्त सकल बन्धन से कर दे।
अन्तर्मुखी चित्त को कर माँ!
दुख संताप सकल अब हर ले।
ममता करूणा की प्रतिरूपा!
मानव प्रजाति उर शुचिता भरदे।
रसधार प्रेम की अन्तस्तल में,
नित्य बहा, जग अभिनव कर दे।
--स्वरचित--
(अरुण)
जय जय शीतला महारानी।
जयति जय आदि शक्ति भवानी।।
हे जगजननी मंगल करनी।
जग तारिणी संताप हरणी।।
आशिष दे सबको महतारी ।
चरण शरण सर्वदा सुखारी।।
अवनि अंबर हैं पद तुम्हारे।
चाँद सूरज हैं नयन सुखारे।।
माता सृष्टि की धूप छैया।
जगमग जीव की ज्योति मैया।।
मात हर रूप समष्टि साक्षी।
हो नित मुदित अभय वर दात्री।।
अभिन्न रूप भिन्न नाम धरे।
असुर निकंदनी भव भय हरे।।
मात जगजननी जगदम्बिका।
जग कर्म तारण संहारिका।।
जो चरणों में ध्यान लगावै।
मिटे संताप शुभ फल पावै ।।
ममता घट अखंड वरदानी।
शिव प्रिया माँ गौरी शिवानी।।
क्रोध रूप विकरारी माता।
तुम ही चंडी काली माता।।
शान्ति रूप शीतला माता।
वर मुद्रा सुख शान्ति प्रदाता।।
नमन नमन हे माता रानी।
रखूं चरणों में जिन्दगानी।।
बस इतनी है आस हमारी।
विनती सुन लो माता प्यारी ।।
सहज सरल जीवन पथ देना।
डोलूं कहीं तो थाम लेना
स्वरचित
सुधा शर्मा राजिम छत्तीसगढ़
जयति जय आदि शक्ति भवानी।।
हे जगजननी मंगल करनी।
जग तारिणी संताप हरणी।।
आशिष दे सबको महतारी ।
चरण शरण सर्वदा सुखारी।।
अवनि अंबर हैं पद तुम्हारे।
चाँद सूरज हैं नयन सुखारे।।
माता सृष्टि की धूप छैया।
जगमग जीव की ज्योति मैया।।
मात हर रूप समष्टि साक्षी।
हो नित मुदित अभय वर दात्री।।
अभिन्न रूप भिन्न नाम धरे।
असुर निकंदनी भव भय हरे।।
मात जगजननी जगदम्बिका।
जग कर्म तारण संहारिका।।
जो चरणों में ध्यान लगावै।
मिटे संताप शुभ फल पावै ।।
ममता घट अखंड वरदानी।
शिव प्रिया माँ गौरी शिवानी।।
क्रोध रूप विकरारी माता।
तुम ही चंडी काली माता।।
शान्ति रूप शीतला माता।
वर मुद्रा सुख शान्ति प्रदाता।।
नमन नमन हे माता रानी।
रखूं चरणों में जिन्दगानी।।
बस इतनी है आस हमारी।
विनती सुन लो माता प्यारी ।।
सहज सरल जीवन पथ देना।
डोलूं कहीं तो थाम लेना
स्वरचित
सुधा शर्मा राजिम छत्तीसगढ़
वक्त का ज्ञान
-------------------------------------------
धन के अमीर तो बहुतेरे दिखें
पर दिल के अमीर विरले दिखे।
जहाँ-तहाँ भूख तड़पती फिरती
दौलतमंद ही ज्यादा गरीब दिखे।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है
लाचारी किसी की मजबूर दिखे।
असंवेदना मूक दर्शक बनी है
संवेदना की अर्थी उठती दिखे।
गरीब नही कोई धन से होता है
मेहनतकश गरीबों में चैन दिखे।
सुख-दुःख से रूबरू हर कोई
अमीरी की नशा अधिक दिखे।
कथनी-करनी आज है अलग
समरसता में ही कठोरता दिखे।
पैसों की चक्की में पीसती गरीबी
वक्त का न्याय कभी-कभी दिखे।
---रेणु रंजन
(स्वरचित )
-------------------------------------------
धन के अमीर तो बहुतेरे दिखें
पर दिल के अमीर विरले दिखे।
जहाँ-तहाँ भूख तड़पती फिरती
दौलतमंद ही ज्यादा गरीब दिखे।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है
लाचारी किसी की मजबूर दिखे।
असंवेदना मूक दर्शक बनी है
संवेदना की अर्थी उठती दिखे।
गरीब नही कोई धन से होता है
मेहनतकश गरीबों में चैन दिखे।
सुख-दुःख से रूबरू हर कोई
अमीरी की नशा अधिक दिखे।
कथनी-करनी आज है अलग
समरसता में ही कठोरता दिखे।
पैसों की चक्की में पीसती गरीबी
वक्त का न्याय कभी-कभी दिखे।
---रेणु रंजन
(स्वरचित )
हे जगदम्बे हे जग माता
हम शीश नवाते हैं तुमको।
हे आदि शक्ति हे जग माता
हम आए शरण में हैं तेरी।
हे रण चन्डी हे नव दुर्गा
अब कष्ट हरो माँ तुम सबके।
हे तम हरणी हे अम्बे मात
करलो विनती स्विकार मेरी।
हे काल रात्रि हे हे जगदम्बे
रख दो यह हाथ मेरे सर पर।
यह विनती करता है वत्स माँ
देओ वरदान मुझे भक्ति का।
मैं चरण पखारूं नित मैया
बस इतनी भक्ति देदो तुम।
हे आदि शक्ति हे जगदम्बे
रख दो यह हाथ मेरे सर पर।
जय जगदम्बे जय माँ दुर्गा।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
विषय स्वतंत्र सृजन
विधा दोहे
सफल साधना के लिए ,नित्य करे हम ध्यान ।
जय माँ जय माँ बोलकर ,भर दे सब में जान ।।
माँ तेरी आराधना ,करे सुबह औ शाम।
बनती बिगड़ी बात सब ,मिलता है चहुँधाम।।
साधक की जब साधना ,चढ़े ऊँचाई ओर ।
तब मानव दानव सभी ,करने लगते शोर।।
जीवन है संघर्ष का एक दूसरा नाम।
चलते रहना ही सदा ,तब मिलता है काम।।
जंग कभी देती नहीं ,अच्छा -सा परिणाम।
तो फिर मानो साथियों, नहीं करे यह काम।।
प्रीत अलौकिक बस रही ,सुखद चाँदनी रात।
नाचे माधव साथ जब,होती है बरसात।।
ज्ञानी जन कहते यही ,कर सबकी परवाह।
रहते बेपरवाह जो ,उनको लगती आह।।
इच्छाएं जब मर रही ,रहे न कोई आस ।
जो इच्छा को जीत ले ,वही लोग है खास।।
पावन कितनी बेटियाँ फिर भी है लाचार ।
इस दहेज़ के रोग ने ,छीन लिया संसार ।।
पुत्र रत्न के मोह में ,फसा हुआ इंसान ।
करे भ्रूण को नष्ट वो , ले लेता है जान।।
यह दहेज़ अभिशाप है , इसकी दूषित सोच ।
कहते तो यह है सभी , पर इसका है लोच।
सत्य अहिंसा,प्रेम की , बापू को दरकार ।
यहाँ कभी पनपे नहीं , हिंसा की बौछार ।।
कविता मिश्रा
सीतापुर
पैरदान ,
न जाने समेटे हुए है
खुद मे कितने पैरो की रंज
चाहे राजा के हो या रंक
इसमे समाहित है सबकी रंज
ये भेद - भाव से परे है
हर कोई इस पर पग धरे है
झोपडी हो या अट्टालिका
पैरदान से ही चमकती
है धरा,
दिखती धूलरहित व साफ
पैरदान का योगदान है बेहिसाब
जब फटकारा जाता है इसे
तब यह हल्का होकर पुनः
तैयार हो जाता है
अपने मे समाहित करने को
अनगिनत पल व रंज
वो पल जो आगन्तुक
को छोडने जाते समय
सबसे ज्यादा इस पर
व्यतीत किए जाते है
पैरदान ,,......
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
न जाने समेटे हुए है
खुद मे कितने पैरो की रंज
चाहे राजा के हो या रंक
इसमे समाहित है सबकी रंज
ये भेद - भाव से परे है
हर कोई इस पर पग धरे है
झोपडी हो या अट्टालिका
पैरदान से ही चमकती
है धरा,
दिखती धूलरहित व साफ
पैरदान का योगदान है बेहिसाब
जब फटकारा जाता है इसे
तब यह हल्का होकर पुनः
तैयार हो जाता है
अपने मे समाहित करने को
अनगिनत पल व रंज
वो पल जो आगन्तुक
को छोडने जाते समय
सबसे ज्यादा इस पर
व्यतीत किए जाते है
पैरदान ,,......
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
************
नई नवेली दुल्हन
झांक रही थी दरवाजे की ओट से
सांवली सलोने चेहरे पर
अजीब सी बैचेनी लिए
हर आहट पर बैचेन होती
काली अंधेरी रात में
चंदा बादलों संग अठखेली करता
कभी घुप्प अंधेरा
कभी चांदनी करती राह उजियारा
सन्नाटे में लिपटी रात
गुमसुम सी राह निहारे
बार बार चांद को ताकती
जैसे कह रही हो
मत सता न छुप बादलों में
इंतजार में डूबी
लम्हा लम्हा बिखरती सी
चांद भी बेबसी समझ
निकल आया बादलों से
चांदनी रोशन करती गलियारों को
कुछ चमक उतर आई
उसकी काली आंखों में
देख किसी साए को
पल प्रतिपल समीप आते
निकल आई वो भी
दरवाजे की ओट से
जैसे दो-दो चांद निकल आए
एक बादलों से एक दरवाजे की ओट से
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
नई नवेली दुल्हन
झांक रही थी दरवाजे की ओट से
सांवली सलोने चेहरे पर
अजीब सी बैचेनी लिए
हर आहट पर बैचेन होती
काली अंधेरी रात में
चंदा बादलों संग अठखेली करता
कभी घुप्प अंधेरा
कभी चांदनी करती राह उजियारा
सन्नाटे में लिपटी रात
गुमसुम सी राह निहारे
बार बार चांद को ताकती
जैसे कह रही हो
मत सता न छुप बादलों में
इंतजार में डूबी
लम्हा लम्हा बिखरती सी
चांद भी बेबसी समझ
निकल आया बादलों से
चांदनी रोशन करती गलियारों को
कुछ चमक उतर आई
उसकी काली आंखों में
देख किसी साए को
पल प्रतिपल समीप आते
निकल आई वो भी
दरवाजे की ओट से
जैसे दो-दो चांद निकल आए
एक बादलों से एक दरवाजे की ओट से
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
भाई बहनों का सम्बन्ध सदा अटूट और पूर्ण स्नेहमय बना रहे, और भाई बहन सदा ही एक दूसरे के पूरक बने रहें. इसी मनोकामना एवं शुभभावना के साथ -
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भाल तिलक लगाये किसी विश्वास का...
स्वरचित 'पथिक रचना'
" जिंदगी "
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
कुछ पल ठहर जरा
पीछे मुड़ देख लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
रुठ गये जो मीत मेरे
याद तो कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
राहों में मिले प्रीत मुझे
नजरों से बातें कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
मिले गम जहाँ से मुझे
शिकवे शिकायत कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
खुशियाँ मिली राहों में
उन लम्हों को जी लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
अश्कों को छुपा मुस्का लूँ
बिते लम्हों को जी लूँ जरा
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
कुछ पल ठहर जरा
पीछे मुड़ देख लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
रुठ गये जो मीत मेरे
याद तो कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
राहों में मिले प्रीत मुझे
नजरों से बातें कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
मिले गम जहाँ से मुझे
शिकवे शिकायत कर लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
खुशियाँ मिली राहों में
उन लम्हों को जी लूँ जरा
ऐ जिंदगी मुझे बता
जा रही है तू कहाँ
अश्कों को छुपा मुस्का लूँ
बिते लम्हों को जी लूँ जरा
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
प्यार सच्चा हो तो लौट के जरूर आता है
नीयत अच्छी हो तो व्यक्ति इंसान नज़र जाता है
दिल के सौदागर तो बहुत होते है इस दुनिया में
अच्छे वही होते है जिन्हे मां बाप मे भगवान नज़र आता है
जो श्री राधा के चरण कमलों का हृदय से ध्यान करते है
उस पर तो प्रभु कृष्ण का आशिर्वाद जमकर बरस जाता है।
ऊंची ऊंची दिवारे तो हर कोई बना लेता है
लेकिन वही परिवार कहताला है जहाँ भाई-बहनों का प्यार नज़र आता है।
है तो ऐसा बहुत कुछ देखने को दुनिया में
लेकिन सबको दुसरे घर मे सुखी संसार नज़र आता है।
स्वरचित
लक्की राठौड़, बमनाला जिला खरगोन (म.प्र.)
"एक दुघर्टना"
एक दिन मैंने देखी एक दुघर्टना
भारी भीड़ जमा थी जहाँ
दुघर्टना स्थल पर ही एक इन्सान को मरते देखा
मैंने इंसान के साथ साथ इन्सानियत को मरते देखा
किसी को थी सड़क जाम की चिंता
तो किसी को थी मंजिल देर से पहूँचने की चिंता
किसी को भी नही थी परवाह
एक घायल इंसान का इलाज करवाना है तत्काल।
कम से कम इंसानियत के नाते
उसे अस्पताल पहुँचाते
वीडियो बनाते हुए मैंने बहुतों को देखा
मैंने इंसान को नही इंसानियत को मरते देखा
किसी को थी इस बात की चिंता
मिलेगा कितना मुआवजा आज
काश,इंसान से आज इंसानियत
अलग नही होता,
तो वहाँ सिर्फ इंसानो की भीड़ नही
मददगार के सैकड़ों हाथ होता।
रब ने बनाया जब हमें इंसान
हमें रखनी होगी इंसानियत की मान
अगर हम नही करेंगे दूसरो की मदद
तो कौन करेगा हमारी मदद?
इंसान ही इंसान के काम आते है
हम मानव इसे क्यों भूल जाते है?।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
एक दिन मैंने देखी एक दुघर्टना
भारी भीड़ जमा थी जहाँ
दुघर्टना स्थल पर ही एक इन्सान को मरते देखा
मैंने इंसान के साथ साथ इन्सानियत को मरते देखा
किसी को थी सड़क जाम की चिंता
तो किसी को थी मंजिल देर से पहूँचने की चिंता
किसी को भी नही थी परवाह
एक घायल इंसान का इलाज करवाना है तत्काल।
कम से कम इंसानियत के नाते
उसे अस्पताल पहुँचाते
वीडियो बनाते हुए मैंने बहुतों को देखा
मैंने इंसान को नही इंसानियत को मरते देखा
किसी को थी इस बात की चिंता
मिलेगा कितना मुआवजा आज
काश,इंसान से आज इंसानियत
अलग नही होता,
तो वहाँ सिर्फ इंसानो की भीड़ नही
मददगार के सैकड़ों हाथ होता।
रब ने बनाया जब हमें इंसान
हमें रखनी होगी इंसानियत की मान
अगर हम नही करेंगे दूसरो की मदद
तो कौन करेगा हमारी मदद?
इंसान ही इंसान के काम आते है
हम मानव इसे क्यों भूल जाते है?।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
___________________________
संशय, आलस्य, अविरति, व्याधि, भ्रांति, संकोच।
साधक को लेते यही, मध्य साधना नोच।। 1।।
जब साधक की साधना, हो निर्मल, निःस्वार्थ।
साध्य रूप में कृष्ण को, पा जाए हर पार्थ।। 2।।
मात-पिता की साधना, सदा करो मिथिलेश।
तुम में ही बाकी श्रवण, तुम में स्वयं गणेश।। 3।।
कृषक देव की साधना, करना हर दिन मीत।
दे अपना आहार जो, निभा रहे हैं रीत।। 4।।
दुर्गा माँ की साधना, तब होगी परिपूर्ण।
हवन कुंड में भस्म जब, काम भाव का चूर्ण।। 5।।
___________________________
✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार
संशय, आलस्य, अविरति, व्याधि, भ्रांति, संकोच।
साधक को लेते यही, मध्य साधना नोच।। 1।।
जब साधक की साधना, हो निर्मल, निःस्वार्थ।
साध्य रूप में कृष्ण को, पा जाए हर पार्थ।। 2।।
मात-पिता की साधना, सदा करो मिथिलेश।
तुम में ही बाकी श्रवण, तुम में स्वयं गणेश।। 3।।
कृषक देव की साधना, करना हर दिन मीत।
दे अपना आहार जो, निभा रहे हैं रीत।। 4।।
दुर्गा माँ की साधना, तब होगी परिपूर्ण।
हवन कुंड में भस्म जब, काम भाव का चूर्ण।। 5।।
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✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार
गुज़ार देंगे ज़िंदगी जहर का असर होने तक,
तलाक का चलेगा सिलसिला महर होने तक l
मोहब्बतें इश्क में कोई बदला नहीं होता,
बस चाहते रहेंगे तुझे सनम बेखबर होने तक ll
रूह इश्क की रहेगी ज़िंदा कहर होने तक,
इश्क का रहेगा बुखार सहर होने तक l
आरज़ू नहीं मुझे कि पा जाऊं तुझको,
ज़र्रा हूँ मैं जहाँ में जिंदा रहूंगी ज़हर होने तक l
पा जायेंगे मंजिल सनम ठहर होने तक,
कारवां बढ़ता रहेगा यूँ हीशहर होने तकl
कभी रुसवा नहीं होने देंगे आशिकी को सनम,,
चाहते रहेंगे हम तुम्हे बेखबर होने तक l
कुसुम पंत 'उत्साही '
देहरादून उत्तराखंड
कुर्सी
पद और कुर्सी बड़ी महान होती हैं
चमचों की गीता और पुराण होती है
पूजी जाती हैं नौकरशाही में
कलियुग में ये भी भगवान होतीं हैं।
कुछ कुर्सियों पे मोह का गोंद लगा होता है
एक बार बैठे तो उठना कठिन होता है
कहीं कुर्सी रेस का समाँ होता है
मौका ताड़ते ही कब्जा लेता है
कुछ कुर्सियों पर पहिए होते हैं
जिन पर बैठकर नीयत फिसलती है
कुछ कुर्सियों का वजन इतना होता है
कि आदर्शों को ढ़ोना बड़ा मुश्किल होता है
कुछ कुर्सियां बड़ी गरीब होती है
रिश्वत के पैसों से अमीर होती है
तो कुछ कुर्सियां इतनी खुद्दार होती है
कि बेईमानी की आँधी में टिकी रहती है
कुर्सियों की महिमा बड़ी न्यारी है
कुछ को इस पर बैठते ही आती खुमारी है
पद और शक्ति का प्रतीक है कुर्सी
किसी के लिए दौड़ या मौज है कुर्सी
तो कहीं सेवा और समर्पण के पायों पे टिकी है कुर्सी
**********************
चंद हाइकु
विषय -"कुर्सी"
(1)
पद की होड़
राजनीति का खेल
"कुर्सी"की रेस
(2)
दृढ़ गरिमा
रिश्वत खिसियाई
बिकी न "कुर्सी"
(3)
"कुर्सी" का नशा
लड़खड़ाई जीभ
ज़मीर गिरा
(4)
पसरे भ्रष्ट
लोकतंत्र की "कुर्सी"
लगी दीमक
(5)
कुर्सी" का धर्म
सेवा व समर्पण
ईश है जन
ऋतुराज दवे
पद और कुर्सी बड़ी महान होती हैं
चमचों की गीता और पुराण होती है
पूजी जाती हैं नौकरशाही में
कलियुग में ये भी भगवान होतीं हैं।
कुछ कुर्सियों पे मोह का गोंद लगा होता है
एक बार बैठे तो उठना कठिन होता है
कहीं कुर्सी रेस का समाँ होता है
मौका ताड़ते ही कब्जा लेता है
कुछ कुर्सियों पर पहिए होते हैं
जिन पर बैठकर नीयत फिसलती है
कुछ कुर्सियों का वजन इतना होता है
कि आदर्शों को ढ़ोना बड़ा मुश्किल होता है
कुछ कुर्सियां बड़ी गरीब होती है
रिश्वत के पैसों से अमीर होती है
तो कुछ कुर्सियां इतनी खुद्दार होती है
कि बेईमानी की आँधी में टिकी रहती है
कुर्सियों की महिमा बड़ी न्यारी है
कुछ को इस पर बैठते ही आती खुमारी है
पद और शक्ति का प्रतीक है कुर्सी
किसी के लिए दौड़ या मौज है कुर्सी
तो कहीं सेवा और समर्पण के पायों पे टिकी है कुर्सी
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चंद हाइकु
विषय -"कुर्सी"
(1)
पद की होड़
राजनीति का खेल
"कुर्सी"की रेस
(2)
दृढ़ गरिमा
रिश्वत खिसियाई
बिकी न "कुर्सी"
(3)
"कुर्सी" का नशा
लड़खड़ाई जीभ
ज़मीर गिरा
(4)
पसरे भ्रष्ट
लोकतंत्र की "कुर्सी"
लगी दीमक
(5)
कुर्सी" का धर्म
सेवा व समर्पण
ईश है जन
ऋतुराज दवे
अंदाज-ए-खामोशी -
इसे क्या हमझूँ
सबसे पास या
सबसे दूर हो
तुम आज
ना कोई साज
ना आवाज़
शायद खामोशी का
है आगाज़
कोई दिल थड़कता हैं
तुम्हारे होने से ही
मुद्तों बाद धड़का है आज
शायदआ गया है
तुम्हें भी
खामोशी से
बोलने का अंदाज़
स्वरचित :-
मनोज नन्दवाना
इसे क्या हमझूँ
सबसे पास या
सबसे दूर हो
तुम आज
ना कोई साज
ना आवाज़
शायद खामोशी का
है आगाज़
कोई दिल थड़कता हैं
तुम्हारे होने से ही
मुद्तों बाद धड़का है आज
शायदआ गया है
तुम्हें भी
खामोशी से
बोलने का अंदाज़
स्वरचित :-
मनोज नन्दवाना
कि जब मै दर्द लिखता हूँ,
तो पढते है सभी दिल से।
कोई ढाँढस नही देता ,
सभी वाह-वाह करते है॥
🍁
नही माहौल देखा है,
ना ही देखा मेरे आँसू।
बडे ही शान से पूछा की,
क्या किस सोच मे हो तुम॥
🍁
जँफाओ का वफाओ का,
नही दस्तूर है बाकी।
नही कोई मोहब्बत है,
तबाही है अभी बाकी॥
🍁
बजाओ तुम नही ताली,
ना ही वाह-वाह तुम करना।
ये रिसता जख्म है मेरा,
गजल मे दर्द है दिखता॥
🍁
कि हर इक नाम पढ ली है,
जिन्होने लाइक कर दी है।
मगर उसने नही की है,
कि जिसपे शेर लिख दी है॥
🍁
खामोश जुँबा बेबस सी नजर,
चुपचाप हमे तुम रहने दो।
इस भीड मे ही हम तँन्हा है,
तँन्हा ही मुझे तुम रहने दो॥
🍁
स्वरचित .. Sher singh sarraf
तो पढते है सभी दिल से।
कोई ढाँढस नही देता ,
सभी वाह-वाह करते है॥
🍁
नही माहौल देखा है,
ना ही देखा मेरे आँसू।
बडे ही शान से पूछा की,
क्या किस सोच मे हो तुम॥
🍁
जँफाओ का वफाओ का,
नही दस्तूर है बाकी।
नही कोई मोहब्बत है,
तबाही है अभी बाकी॥
🍁
बजाओ तुम नही ताली,
ना ही वाह-वाह तुम करना।
ये रिसता जख्म है मेरा,
गजल मे दर्द है दिखता॥
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कि हर इक नाम पढ ली है,
जिन्होने लाइक कर दी है।
मगर उसने नही की है,
कि जिसपे शेर लिख दी है॥
🍁
खामोश जुँबा बेबस सी नजर,
चुपचाप हमे तुम रहने दो।
इस भीड मे ही हम तँन्हा है,
तँन्हा ही मुझे तुम रहने दो॥
🍁
स्वरचित .. Sher singh sarraf
जली बत्ती
हमें जली बत्ती मे सोने की आदत हो गई।
सुनते सुनते खबरों को न सुनने की आदत हो गई।
दस सौ और हजार के मरने की खबर आम हो गई।
आदमी को अब मुर्दे के बगल में सोने की आदत हो गई।
टूटते घर और डूबती चीखे क्या दहलावेगी इसको
बुझते चिराग की रोशनी मे देखने की आदतहो गई।
रफतार मय जिन्दगी है हर चीज तेज हो गई।
सालों से सिमट कर जिन्दगी दिनों और मिनटों की बात हो गई।
सभालेगा कौन संभलेगा कौन चला चली की बात हो गई।
सहनशीलता प्यार मुहब्बत सजावट की चीज़ हो गई।
सुषमा गुप्ता
मौलिक
वो कीमती शाम
------------------------
हो गयी है छुट्टी, अब बहाने न मार,
तबियत है ठीक,तुझे नही है बुख़ार!
तेरा यूँ मशगूल होना ना चलेगा इस बार,
चल फिर वो कीमती शाम ढूँढ़ मेरे यार!
इक बार मे न सुनने की आदत ले तू सुधार,
तेरी वजह से वक्त ज़ाया फिर हो रहा इस बार!
अगर जल्दी ना पहुँचा तो खायेगा तू मार,
चल फिर वो कीमती शाम ढूँढ़ मेरे यार!
निकल फिर घर से, कुछ वक्त ले उधार,
पहुंच दोस्त के घर, दे ज़ोर से पुकार!
छोड़ दे परवाह,ना तुझे फिक्र से है प्यार,
चल फिर वो कीमती शाम ढूँढ़ मेरे यार!
मिल बैठें साथ फिर चाय की दुकान पे,
बेपरवाह ठहाकों में तू थकान ले उतार !
हुई बहुत ये जिद्दी ज़िन्दगी,पर नही मिलेगी बार-बार,
चल फिर वो कीमती शाम ढूँढ़ मेरे यार!
आ रखें पकने फिर धीमी सी आंच पर,
बातों की खिचड़ी जो ली थी उतार!
तेरे ना-ना करते-करते,आ जाएगा सोमवार,
चल फिर वो कीमती शाम ढूँढ़ मेरे यार!
स्वरचित -- राकेश ललित --
🙏
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