गरीबी
हाय,गरीबी ने ये कैसा दिन दिखाया।
कल रात गरीब बच्चों को,
खाना भी नहीं मिल पाया।
वो रोते रहे।
रोते, रोते हीं सो गये।
हाय,किसीको रहम ना आया।
ईश्वर ने।
उन्हें धरती पर भेजा क्यूँ।
नसीब अच्छा क्यूँ नहीं लिख पाया।
अरे,लोगों।
जागो भी,अब अपनी आँखें खोलो।
कुछ इन्हें भी खाने को दे दो।
ताकि मिले।
इन्हें अपने हिस्से की खुशियाँ भी।
थोड़ा सा सुख मिले इन्हें बचपन का भी।
ये बच्चे।
गरीब के भले हीं हैं।
पर इन्हें भी जीने का हक़ है।
ये भी।
हँसें, मुस्कुरायें, थोड़ी झुशियां मनायें।
अपने हिस्से का बचपन बितायें।
अपने जीवन में ये भी मुस्कुरायें।।
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
पूछ बैठा मुझसे कोई
जवाब देने से पहले ही
मेरी आँखें कितना रोई |
गरीबी की परिभाषा क्या?
कैसे मैं तुझको बताऊँ?
किसने बनाई ये बला?
इल्जाम किस पर ये लगाऊँ ?
ईश्वर की रचना में तो
ऐसा कोई भेद नहीं था
गरीबी-अमीरी का भेद
इंसान ने स्वयं रचा था |
गरीबी में फटे कपड़े भी
गरीब का तन ढ़काते
दो निवाले सूखी रोटी के
उन्हें खूब सुकून दे जाते |
टूटे -फूटे घर को भी
अपना आशियाना बनाते
मेहनत से कभी नहीं घबराते
मदद में भी सबसे आगे आ जाते|
स्वरचित *संगीता कुकरेती
कोई गरीबी से हैं हारे ।।
कोई मन की गरीबी से
जानें मन के हजार द्वारे ।।
मन को करो आज सबल
गरीबी का निकलेगा हल ।।
मन अगर जो दुर्बल है तो
सफल होके भी हैं विफल ।।
गरीबी न होती स्थायी
गरीबी होती अस्थायी ।।
करें कभी आत्मावलोकन
परिस्थतिं सीख सिखायी ।।
घूरे के भी यहाँ दिन आये
गरीबी से क्यों अकुलाये ।।
जगाये जो जज्वा यहाँ
अभूतपूर्व सफलता पाये ।।
गरीबी से है व्यर्थ का डरना
मन की गरीबी से सम्हलना ।।
मन से हर तरक्की मिलती
सदा ''शिवम" मन काबू करना ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 09/10/2018
मुझको थोड़ा थोड़ा अजीब लगता है।
वो दूर है पर कितना करीब लगता है।
जिसने बख्शी दुनिया को खुशहाली।
तुमको वो जानें क्यों गरीब लगता है।
खिला रहा फूल फल रोटी जो सबको।
आज मुर्झाया उसका नसीब लगता है।
घुट, पिट, मिट, रहा आज चौराहों पर।
कुर्बानी की वो जिन्दा सलीब लगता है।
मै छोड जिसे आया मुझमे वो जिन्दा है।
क्या रिश्ता है मेरा क्या हबीब लगता है।
विपिन सोहल
सदा अच्छे दिन की उम्मीद!
उनके जीवन में भी कभी
आ जाए ईद!
रहती है सदा उनकी
जेब खाली?
नहीं मनती कभी
वहां दीवाली?
खुशियां उनकी
हो जाती होली!
चुभती हैं उन्हें
बडी बडी बोली।
दो वक्त की रोटी के
पडे जहां लाले।
वहां बडे बडे सपने
कोई कैसे पाले??
सर पर छत
न कपडे नसीब हो।
गरीबी ने फोडे
जिनके नसीब हो।
आंखों में जिनके
हर पल नमी हो,
जिनके जीवन में
खुशियां ही नहीं हो।
जो अपना भविष्य ही
अंधेरे में पाते हैं?
देश के भविष्य को
कहां समझ पाते हैं?
सूनी आँखों से कहीं
सपने देखे जाते हैं!
भूखे पेट कहीं
भजन किए जाते हैं ! !
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
🍁
वक्त बदलता रहता है,
अरू उसी के साथ जिन्दगी भी।
आज अगर है धन-दौलत,
तो कल आ सकती गरीबी भी॥
🍁
व्यक्ति नही ये बात राष्ट्र के,
भाग्य को भी दर्शाता है।
विजय नगर साम्राज्य आज,
हैम्पी का खण्डहर बन जाता है॥
🍁
सुख के दिन हो या हो गरीबी,
बात याद ये रखना तुम।
मन को गरीब ना होने देना,
चाहे लाख दुखी हो जाओ तुम॥
🍁
दो कपडो मे भी हँसते है,
जो जन मन के राजा है।
महल दो महलो वालो के भी,
दिल मे बहुत गरीबी है॥
🍁
शेर कहे सुख और दुख दोनो,
जीवन मे आनी जानी है।
पैसे से अमीरी नही है आती,
मन का दुख गरीबी झलकाती है॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
" गरीबी "
ये महलों में रहने वाले
गरीबी है मन में छाये हुये
दौलत की भूख से
गरीब हैं बने हुये
गरीबी का आलम देखो
जी रहे हैं जीवन अपना
टुकड़ों में बँटे हुये
रातों को नींद भी
हराम हुये
चीथड़ों से तन ढक रहे
दो जून की रोटी भी
नहीं नसीब हुये
ये महलों में रहने वाले
गरीबी है मन में छाये हुये
दौलत की भूख से
गरीब हैं बने हुये
गरीबी का आलम देखो
जी रहे हैं जीवन अपना
टुकड़ों में बँटे हुये
रातों को नींद भी
हराम हुये
चीथड़ों से तन ढक रहे
दो जून की रोटी भी
नहीं नसीब हुये
मेहनत मजदूरी करके
रातों को चैन की
नींद लेते हुये
सुबह की किरणें
लाती उनके हौसले
उमंगों से भरे हुये
फिर भी नहीं दिखेंगे
ईमान अपनी बेचते हुये
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
रातों को चैन की
नींद लेते हुये
सुबह की किरणें
लाती उनके हौसले
उमंगों से भरे हुये
फिर भी नहीं दिखेंगे
ईमान अपनी बेचते हुये
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
बिषय- गरीबी******************
माना दो और दो चार होते हैं
मैंने जोड़ा तो वह तीन रहा
प्रश्न उठता है ?
" एक "कहाँ खो गया।
मैं भागा उसे ढूंढने
शहर की गलियों में
दफ्तरों, बन्द मिल-कारखानों में
शराबखानों,जुआघरों,तस्करी अड्डों में
चुनावों,हड़तालों,जुलूसों में
पर वह नहीं मिला।
और देखे-
लावारिस फुटपाथ
चौराहों की भीड़ भी
शायद कहीं वह
भागता-भटकता मिल जाये।
'एक' दिखा-
इंटरव्यू की लम्बी कतार में
उपाधियों का बोझा लादे
बिना बड़ी पहुंच के खड़ा
उदास-बदहवाश
ठीक उसके पीछे
जिसके खाली हाथ बड़े लम्बे थे।
मैंने जोड़ना चाहा व्यवहार से
पर,नहीं जुड़ सका
क्योंकि ,वह 'एक ' गरीब बेरोजगार था।
******💐********
स्वरचित: डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना (म.प्र.)
( मेरे कविता संग्रह की कविता "अधूरा जोड़ ")
माना दो और दो चार होते हैं
मैंने जोड़ा तो वह तीन रहा
प्रश्न उठता है ?
" एक "कहाँ खो गया।
मैं भागा उसे ढूंढने
शहर की गलियों में
दफ्तरों, बन्द मिल-कारखानों में
शराबखानों,जुआघरों,तस्करी अड्डों में
चुनावों,हड़तालों,जुलूसों में
पर वह नहीं मिला।
और देखे-
लावारिस फुटपाथ
चौराहों की भीड़ भी
शायद कहीं वह
भागता-भटकता मिल जाये।
'एक' दिखा-
इंटरव्यू की लम्बी कतार में
उपाधियों का बोझा लादे
बिना बड़ी पहुंच के खड़ा
उदास-बदहवाश
ठीक उसके पीछे
जिसके खाली हाथ बड़े लम्बे थे।
मैंने जोड़ना चाहा व्यवहार से
पर,नहीं जुड़ सका
क्योंकि ,वह 'एक ' गरीब बेरोजगार था।
******💐********
स्वरचित: डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी,गुना (म.प्र.)
( मेरे कविता संग्रह की कविता "अधूरा जोड़ ")
मुफ्लिशी की मार से रोती रही है ज़िन्दगी ,
लाश जिन्दा जिस्म की ढोती रही है ज़िन्दगी ।
हसरतों को हर घड़ी अश्कों से अपने सींचकर ,
चीथड़ों में चैन से सोती रही है जिंदगी ।
जिसके साये से सलामत है मेरे लब की हंसी,
उसका दामन अश्क़ से धोती रही है ज़िन्दगी ।
पूछना उस आदमी से मन्ज़िलों का तजुर्बा ,
कांटे जिसकी राह में बोती रही है ज़िन्दगी ।
वो ग़ुलाबों में छिपे काँटों का रुख़ पहचानता है ,
हर कदम जिसके लिए खोटी रही है ज़िन्दगी ।
ग़ुलाब सिंह ( शिवम् )
लाश जिन्दा जिस्म की ढोती रही है ज़िन्दगी ।
हसरतों को हर घड़ी अश्कों से अपने सींचकर ,
चीथड़ों में चैन से सोती रही है जिंदगी ।
जिसके साये से सलामत है मेरे लब की हंसी,
उसका दामन अश्क़ से धोती रही है ज़िन्दगी ।
पूछना उस आदमी से मन्ज़िलों का तजुर्बा ,
कांटे जिसकी राह में बोती रही है ज़िन्दगी ।
वो ग़ुलाबों में छिपे काँटों का रुख़ पहचानता है ,
हर कदम जिसके लिए खोटी रही है ज़िन्दगी ।
ग़ुलाब सिंह ( शिवम् )
ग़रीबी लानत है हमने माना पर ये ला इलाज़ नहीं है
ऐसा नहीं कि इससे उबरने का कोई इलाज़ नहीं है
दुनियाँ के तमाम बड़े लोग बचपन में गरीबी झेल के बढ़े
अपनी बड़ी बड़ी विपन्नताओं मुश्किलों से वो लड़े
तब संघर्ष मेहनत और दृढ़ इरादों ने अपना रँग दिखलाया
उनके सतत प्रयास और जीवट ने ही उन्हें सफलता तक पहुँचाया
ग़र ग़रीबी का ही रोना रोते वो सब घर पर बैठे रहते
आप ही कहिये वोह अपने जीवन जो सफल हो बड़े लोग कैसे बनते
(स्वरचित)
अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
विषय-गरीबी
फकीरी है,फकत फाकाकशी है।
निबाले के लाले,ऐसी बेबसी है।
सेहत है,दिल अमीर,जिंदादिल है।
चक्कलस दोस्तों की महफिल है।
सम्बन्ध में है बन्ध,बड़े करीब है।
तंगहाल है,पर मालामाल हदीब है।
लाल कोठी है,रहन आलीशान है।
अपने में सिमटे ,लगता वीरान है।
नातों के बुनियाद में दौलत दर्ज है।
तन रोगी,मन भोगी,बड़े खुदगर्ज है।
खुदा का नेमत,कौन खुशनसीब है?
सोचिये कि कौन, ज्यादा गरीब है?
-नवल किशोर सिंह
स्वरचित
फकीरी है,फकत फाकाकशी है।
निबाले के लाले,ऐसी बेबसी है।
सेहत है,दिल अमीर,जिंदादिल है।
चक्कलस दोस्तों की महफिल है।
सम्बन्ध में है बन्ध,बड़े करीब है।
तंगहाल है,पर मालामाल हदीब है।
लाल कोठी है,रहन आलीशान है।
अपने में सिमटे ,लगता वीरान है।
नातों के बुनियाद में दौलत दर्ज है।
तन रोगी,मन भोगी,बड़े खुदगर्ज है।
खुदा का नेमत,कौन खुशनसीब है?
सोचिये कि कौन, ज्यादा गरीब है?
-नवल किशोर सिंह
स्वरचित
देखों आज कैसा दिवस है आया
दूजे को कह "गरीब" मन बहलाया
झांक कर देखे अपनी मन बगिया में
मुझसे गरीब नहीं कोई मैनें भी पाया
तुम कैसे धनवान हो सकते हो श्रीमान
जब दिल में नहीं तुम्हारे ममता का साया
गरीब कहकर उसे गाली ना बकिये साहब
उसका करके शोषण गरीब आपने बनाया
आओं गरीबी से उनको निकाले सब मिल
पाकर रोजगार गरीब-गरीब ना रह पाया
बधाई मिलेगी गरीबी हटाने का बीड़ा उठाया
शिक्षा व रोजगार दे देश को नम्बर वन बनाया
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
9/10/2018
दूजे को कह "गरीब" मन बहलाया
झांक कर देखे अपनी मन बगिया में
मुझसे गरीब नहीं कोई मैनें भी पाया
तुम कैसे धनवान हो सकते हो श्रीमान
जब दिल में नहीं तुम्हारे ममता का साया
गरीब कहकर उसे गाली ना बकिये साहब
उसका करके शोषण गरीब आपने बनाया
आओं गरीबी से उनको निकाले सब मिल
पाकर रोजगार गरीब-गरीब ना रह पाया
बधाई मिलेगी गरीबी हटाने का बीड़ा उठाया
शिक्षा व रोजगार दे देश को नम्बर वन बनाया
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
9/10/2018
सरकारी योजनायें,
कागजों पर कुछ और
हकीकत में कुछ और
नजर आएं।
बी पी एल कार्ड बनवाने
के लिए गरीबों की
लगी थी लंबी कतार
सर्वेक्षण कार्य चल रहा था ।
कुर्सी पर बैठे थे सरकारी बाबू
टेबल पर लगा था कागजों का ढेर
टेबिल के नीचे से कुछ लोग
कुछ कुछ सरका रहे थे।
ऊपर रखे रजिस्टर में उनके
नाम लिखे जा रहे थे।
जिन गरीबों के जेब में
देने को न थी दो पाई
सरकारी योजना उन्हें
राहत न दे पाई।।
हाय गरीबी
इस गरीबी ने ही
गरीबों को डस लिया
गरीब के हिस्से का राशन पानी,
रिश्वत देने वालों ने पचा लिया।।
रचनाकार
जयंती सिंह
कागजों पर कुछ और
हकीकत में कुछ और
नजर आएं।
बी पी एल कार्ड बनवाने
के लिए गरीबों की
लगी थी लंबी कतार
सर्वेक्षण कार्य चल रहा था ।
कुर्सी पर बैठे थे सरकारी बाबू
टेबल पर लगा था कागजों का ढेर
टेबिल के नीचे से कुछ लोग
कुछ कुछ सरका रहे थे।
ऊपर रखे रजिस्टर में उनके
नाम लिखे जा रहे थे।
जिन गरीबों के जेब में
देने को न थी दो पाई
सरकारी योजना उन्हें
राहत न दे पाई।।
हाय गरीबी
इस गरीबी ने ही
गरीबों को डस लिया
गरीब के हिस्से का राशन पानी,
रिश्वत देने वालों ने पचा लिया।।
रचनाकार
जयंती सिंह
वो हैं गरीब जरूर
पर स्वाभिमान से जीते
करते अथक परिश्रम
भरने को पेट अपना
न चाह व्यंजनों की
सूखी रोटी से पेट भरना
न बिस्तर का कोई रोना
पत्थर ही है बिछोना
तकलीफें सदा घेरे
फिर भी नहीं रुकते
धूप हो या हो बारिश
निरंतर कर्म करते
हमारे सपनों के संग
वो खुद के सपने बुनते
वो ढोते गिट्टी गारा
तब बिल्डिंगें संवरती
हमारी सुविधाओं के
यही महल खड़े करते
फिर भी गरीबी इनकी
कभी मिटती ही नहीं है
बारिश में छत टपकती
आंखों को नम करती
देखा आंखों ने सपना
इक मकान हो अपना
पर मंहगाई कमर तोड़े
और जीना कैसे छोड़े
बच्चों का पेट भरने में
पूरी जिंदगी गुजरती
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
पर स्वाभिमान से जीते
करते अथक परिश्रम
भरने को पेट अपना
न चाह व्यंजनों की
सूखी रोटी से पेट भरना
न बिस्तर का कोई रोना
पत्थर ही है बिछोना
तकलीफें सदा घेरे
फिर भी नहीं रुकते
धूप हो या हो बारिश
निरंतर कर्म करते
हमारे सपनों के संग
वो खुद के सपने बुनते
वो ढोते गिट्टी गारा
तब बिल्डिंगें संवरती
हमारी सुविधाओं के
यही महल खड़े करते
फिर भी गरीबी इनकी
कभी मिटती ही नहीं है
बारिश में छत टपकती
आंखों को नम करती
देखा आंखों ने सपना
इक मकान हो अपना
पर मंहगाई कमर तोड़े
और जीना कैसे छोड़े
बच्चों का पेट भरने में
पूरी जिंदगी गुजरती
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित कविता
अमीरों के घर
पलते हुए गरीबी देखी है,
बेशुमार दौलत के बीच
हमनें मायुसी देखी है।
झोपड़ी में जमीन पल लेटे
सुकून की नींद देखी है,
महलों में हजारों के
मखमली गद्दे के बीच
सिमटी चादरें और करवटें
बदलती रात बिताते देखी है।
दौड़ते हुए शहर में
प्यार की गरीबी देखी है,
अपने ही घर में खोएं हुए
अपनत्व की गरीबी देखी है।
ना सुकून, ना खुशी
बस दिखाबे की हँसी देखी है,
मतलब के हैं सब यार यहाँ
इनसानियत की गरीबी देखी है।
स्वरचित:- मुन्नी कामत ।
पलते हुए गरीबी देखी है,
बेशुमार दौलत के बीच
हमनें मायुसी देखी है।
झोपड़ी में जमीन पल लेटे
सुकून की नींद देखी है,
महलों में हजारों के
मखमली गद्दे के बीच
सिमटी चादरें और करवटें
बदलती रात बिताते देखी है।
दौड़ते हुए शहर में
प्यार की गरीबी देखी है,
अपने ही घर में खोएं हुए
अपनत्व की गरीबी देखी है।
ना सुकून, ना खुशी
बस दिखाबे की हँसी देखी है,
मतलब के हैं सब यार यहाँ
इनसानियत की गरीबी देखी है।
स्वरचित:- मुन्नी कामत ।
विषय -गरीबी
जिसके सहारे इतराते अमीरी
वही तो है गरीबी
गरीब धन से गरीब है
किन्तु मन से है धनी
तभी तो गरीब की
किसी से न ठनी
और अमीर केवल धन
से अमीर है
दौलत के आगे कही गुम
उसका जमीर है
मन से है वो निर्धन
तभी तो न भाय अमीर
को गरीब जन
किन्तु सब अमीर ऐसे नहीं
कुछेक हिय के भले है
तभी तो गरीबी को
मिटाने चले है
उन्हें लगती है गरीबी
अपनी आपबीती
वो गरीबो से नहीं कतराते
जिसके सहारे......
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
जिसके सहारे इतराते अमीरी
वही तो है गरीबी
गरीब धन से गरीब है
किन्तु मन से है धनी
तभी तो गरीब की
किसी से न ठनी
और अमीर केवल धन
से अमीर है
दौलत के आगे कही गुम
उसका जमीर है
मन से है वो निर्धन
तभी तो न भाय अमीर
को गरीब जन
किन्तु सब अमीर ऐसे नहीं
कुछेक हिय के भले है
तभी तो गरीबी को
मिटाने चले है
उन्हें लगती है गरीबी
अपनी आपबीती
वो गरीबो से नहीं कतराते
जिसके सहारे......
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
मैं श्रमबदध
मैं कर्मबद्ध
मैं श्रम साधना करता।
ना सिर पर छत का हमसाया
ना तन वसन पूर्णता पाया
सड़क किनारे बिछा मेरा बिछौना
वाह! खुले आसमान के नीचे सोना!
तुम आलीशान बंगलें में सोते
स्वप्न नींद में क्या पाते ??
कंकरीट का जंगल सजाता
मैं एक मज़दूर कहलाता
फिर भी कोई क्षोभ नही
गिला शिकवा कोई शोर नहीं
अपनी ग़रीबी से मैं बेहाल नहीं
उस रब की मर्ज़ी पर मलाल नहीं ।
ख़ुदगर्ज़ नही ख़ुद्दारी है यह
मेरे साहस के आगे
तेरी अमीरी मुझ से हारी है !
मैं श्रमनिष्ठ
मैं कर्मनिष्ठ
मैं स्वपोषित स्वाभिमानी हूँ
मेरी ग़रीबी हाँ मेरी ग़रीबी
मेरा ख़ुद का कोई अभिशाप नहीं
यह परपोषिता की अजब निशानी
शोषण की बेज़ुबान कहानी है ।
स्वरचित
संतोष कुमारी
९-१०-२०१८
मैं कर्मबद्ध
मैं श्रम साधना करता।
ना सिर पर छत का हमसाया
ना तन वसन पूर्णता पाया
सड़क किनारे बिछा मेरा बिछौना
वाह! खुले आसमान के नीचे सोना!
तुम आलीशान बंगलें में सोते
स्वप्न नींद में क्या पाते ??
कंकरीट का जंगल सजाता
मैं एक मज़दूर कहलाता
फिर भी कोई क्षोभ नही
गिला शिकवा कोई शोर नहीं
अपनी ग़रीबी से मैं बेहाल नहीं
उस रब की मर्ज़ी पर मलाल नहीं ।
ख़ुदगर्ज़ नही ख़ुद्दारी है यह
मेरे साहस के आगे
तेरी अमीरी मुझ से हारी है !
मैं श्रमनिष्ठ
मैं कर्मनिष्ठ
मैं स्वपोषित स्वाभिमानी हूँ
मेरी ग़रीबी हाँ मेरी ग़रीबी
मेरा ख़ुद का कोई अभिशाप नहीं
यह परपोषिता की अजब निशानी
शोषण की बेज़ुबान कहानी है ।
स्वरचित
संतोष कुमारी
९-१०-२०१८
दो जून की रोटी मिल न पाये जिनको
उस गरीबी को दूर करनी होगी हम सभी को
रूखे, बिखरे बाल,नयनों मे भरे आँसू
उन नयन भरे आँखों में, उम्मीद की रोशनी जगानी होगी हम सबको
तन पर नही है ढ़ंग के कपड़ें
उस गरीबी को भगाने मे हमें तो साझेदारी देनी होगी
गरीबी की समस्या तो दूर हो कर रहेगा
बस थोड़ी सी उपाय हमे करनी होगी
शिक्षा का अलख हमें घर घर जगाना होगा
ताकि हर हाथ में रोजगार हो अपना
जुआ, शराब को पूर्णतः बंद करना होगा
असली गरीब को हमें पहचानना होगा
जनसंख्या विस्फोट गरीबी के मूल कारण है उसे,शिक्षा से दूर भगाना होगा
गरीब जान हम न करें किसी का तिरस्कार
कभी उनका भी दिन फिर जायेगें
हमें समझना होगा
परपीड़ा को समझनी होगी
जो सक्षम है, उन्हें गरीब की आँसू पोछनीं होगी।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
उस गरीबी को दूर करनी होगी हम सभी को
रूखे, बिखरे बाल,नयनों मे भरे आँसू
उन नयन भरे आँखों में, उम्मीद की रोशनी जगानी होगी हम सबको
तन पर नही है ढ़ंग के कपड़ें
उस गरीबी को भगाने मे हमें तो साझेदारी देनी होगी
गरीबी की समस्या तो दूर हो कर रहेगा
बस थोड़ी सी उपाय हमे करनी होगी
शिक्षा का अलख हमें घर घर जगाना होगा
ताकि हर हाथ में रोजगार हो अपना
जुआ, शराब को पूर्णतः बंद करना होगा
असली गरीब को हमें पहचानना होगा
जनसंख्या विस्फोट गरीबी के मूल कारण है उसे,शिक्षा से दूर भगाना होगा
गरीब जान हम न करें किसी का तिरस्कार
कभी उनका भी दिन फिर जायेगें
हमें समझना होगा
परपीड़ा को समझनी होगी
जो सक्षम है, उन्हें गरीब की आँसू पोछनीं होगी।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
गरीबीः( व्यंग्य)ः
मै ,गरीबी की मार झेल रहा हूँ।
देखिए ना फिर भी दंण्ड पेल रहा हूँ।
मैने अपना गरीबी कार्ड बनवा लिया है
इसीलिए तो लगातार खेल रहा हूँ।
मेरे पास गाडी बंगला सबकुछ है,
भोगविलास के सामान उपलब्ध हैं।
सरकार से गरीबी के नाम मांगता हूँ,
काम नहीं मै सिर्फ़ दाम मांगता हूँ।
मै कितना गरीब हूँ कितना बताऊँ,
मेरी गरीबी बहुत फाइलों में कैद हैं।
मुझे खाने पीने सबकुछ मिलता है,
मेरी वास्तविक गरीबी का यही भेद है।
सरकारी धन से तिजोरियां भर रहा हूँ।
गरीबी के नाम सिर्फ गरीब बन रहा हूँ।
मेरे बच्चे बडे प्रायवेट स्कूलों में पढ रहे,
फिर भी लगातार गरीबी से डर रहा हूँ।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
कभी खुशियाँ बेची
कभी आँखों के बहते अश्क बेचे
एक गरीब ने चंद ख़ुशी पाने की चाहत में
अपनी जरा जरा सी जिंदगी हर दिन बेची.
गरीब से उसकी गरीबी का आलम ना पूछो
तेरा जमीर मिट जायेगा ऐ महल के सौदागर
वो सिर्फ लिबास से गरीब हैं
दिल से तो वो बादशाह और तू गरीब हैं .
अमीरी और गरीबी की कैसी अजब दास्तां हैं
जो दिखाई देता हैं अमीर वही सच में गरीब हैं
गरीब को तो हमने सूखी रोटी बांटकर खाते देखा
अपने तंगहाली में खुश रहते देखा है .
जब देखती हूँ किसी गरीब को हँसते मुस्कराते हुये
सोचती हूँ मन की ख़ुशी ही सच्ची दौलत हैं
जो ख़ुशी बांस की टूटी झोंपड़ी में हैं
वो ख़ुशी महल में नहीं हैं .
वो गरीब ही हैं
जिनके पसीने से तर बदन से दुनियाँ के महल बनते
किसी के ख़्वाबों के आशियां सजते
आँखों में महलों के ख्वाब पलते और वो वहाँ की विरासत के नवाब बनते .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
भूखे क्यों सोयें नौनीहाल हमारे,
माहौल यहाँ बहुत अजीब है,
सताया जाता यहाँ क्यों गरीब है,
सिखाई जाती हमें यहाँ तहजीब है,
गरीब का डूबा क्यों यहाँ नसीब है,
गरीबी को हटाने के लगते यहाँ नारे हैं,
मरते लोग यहाँ भूख के मारे हैं,
संकल्प हमनें ये करना है,
कसौटी पर हमें उतरना है,
करके खर्चे अपने हम,
दूर करने हैं इनके गम,
देश हमारा सँवर जाएगा,
गरीब भी यहाँ मुस्कुराएगा।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
9/10/18
गरीबी
कौन यहाँ कितना गरीब होता है।
लिखा सबका अपना नसीब होता है।
मिल जाये हर ख़ुशी अगर सबको,
पर कौन इतना खुशनसीब होता है।
झाँक लेना कभी मेरे दिल में ऐ दोस्त।
हम अपनों से भी ज्यादा करीब होते है।
खुशियों में शामिल होंगे लोग हजार।
गम में शामिल सच्चा हबीब होता है।।
रखते है दिल की जैल में कैद करके।
बस देखने मे जरा बेतरतीब होते हैं।।
रानी सोनी 'परी'
9अक्टूबर 2018
मै गरीब हूँ,
क्युकि मै किसान हूँ,
अन्न उगाना मेरा काम है,
जीवन देना मेरा मान है l
सारी दुनिया को पालता मै,
हर किसी को संभालता मै,
पर तुम मुझे क्या देते हो,
ये कभी समझ न पाता में l
हर वक्त गरीबी से घिरा रहुँ,
रात दिन परिश्रम करू,
खेतो को पसीना दूँ,
फिर भी गरीबी में घिरा रहूँ l
क्या कोई मेरा सपना नहीं,
क्या कोई मेरा अपना नहीं,
हर वख्त जूझता रहूँ,
क्यों मेरा कोई अपना नहीं l
कुसुम पंत उत्साही
स्वरचित
देहरादून
उत्तराखंड
माता पिता का जो ना रखे मान
दूसरों की जो ना करे भला
दुख में जो न दे साथ
कर्म में जो आलस करें
भीख मांग पेट भरे
पराई संपत्ति पर नजर रखें
स्वार्थ- भावना जो रखें
वादों पर जो प्रतिबद्ध ना हो
महल में रहकर भी जो
तृप्त ना हो
जिम्मेदारी से विमुख हो
आत्मसम्मान की जो परवाना करें
सगे संबंधियों का जो मान ना करे
सद् विचारों का जो ना हो धनी ,,,,,,साहब,,,,
धन से कोई अमीर नहीं होता,,,,,
यदि एक मनुष्य सद्गुणी है ,
तो वह अमीर है ,,,,
अन्यथा वह गरीब है,,,,
गरीब है,,,,,,
स्वरचित आशा पालीवाल पुरोहित राजसमंद
हाँ गरीबी तो हैं,
किसी को दौलत की
तो किसी को है मन की गरीबी,
दौलत की गरीबी से तो
फिर भी इंसान उबर सकता है,
लेकिन मन की गरीबी को
दूर नहीं कर सकता हैं,
आज गरीब वो नहीं जो
मेहनत के बल पर पेट भरता हैं,
गरीब वो है जो किसी का
हक छीन लेता हैं,
तकलीफ तो यही हैं
वो दौलत के बल पर
गरीबी को और गरीब
और फिर लाचार बना देता हैं,
इन तथाकथित गरीबों से ही
आज ये हाल हैं,
देश के कई हिस्सों में लोग
लाचरी से बेहाल हैं,
अब तो लगता है
यह लाइलाज बिमारी हो गई
पैसों की भूख
इस संसार की महामारी हो गई,
जब तक ना मिटेगा यह भरम
ईमान की जगह पैसा है धरम,
कोई पीसता रहेगा
कोई पिसता रहेगा ,
और गरीबी का ग्राफ
यूँ ही चढता रहेगा .
स्वरचित -
मनोज नन्दवाना
गरीबी क्या होती है चलो दिखाये
चलो बताये गरीबी क्या होती है
तन पर फटे पुराने कपड़े
पेट की भूख ही गरीबी होती है
चलो तुम्हें एक हकीकत से मिलाये
गरीबी से पहचान कराये
हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में
बक्शो नाम की एक गरीब बच्ची
ना खाने को रोटी ना शिक्षा को पैसा
ना सिर पर पिता का साया
वो तो है बड़ी समझदार बच्ची
घर की चिंता उसे सताती
माँ की तकलीफ उसे रुलाती
उसने उठाया संकल्प दस वर्षीय
भाई को शिक्षा दिलायेगी
और उसकी भूख मिटायेगी
अपनी माँ की तकलीफ को वो दूर भगायेगी
वो चल पड़ी इंदिरा स्टेडियम की ओर
वहाँ थी चार ह्रजार मीटर की दौड़
बक्शों की आँखों मे थे पुरस्कार
के छः ह्रजार रूपये
बस वो तो शून्य से भी नीचे के
तापमान मे नंगे पग दौड़ पड़ी
सबको पीछे छोड़ती वो तो आगे दौड़ पड़ी
वो देखो बक्शो की गरीबी
पेट मे दर्द कहराती हुई
पेट मे पथरी का दर्द छेलती हुई
स्वर्ण पदक जीत गयी
स्वर्ण पदक से ज्यादा ख़ुशी थी
उसे उन पैसो की जो उसकी गरीबी को मिटा सके
ये दृश्य देख पब्लिक के आँरवो में
अश्रु धारा बह चली
बक्शो की पीड़ा को भी
गरीबी देखो कैसे ले चली
नमन करती हूँ मै इस बच्ची को
जो हर दर्द को छेलती ,उस गरीबी को हरा चली।
आशीष देती हूँ मैं इसको एक दिन
ऐसा नाम कमायेगी हिंदुस्तान में
अपना नाम कर जायेगी
🙏 स्वरचित हेमा जोशी
गरीबी श्राप
तन मन संताप
जीना ज्यूं पाप
२.
सिसके घर
गरीबी का कहर
शाम सहर
३.
गरीबी झांके
दीवारों पर टाँके
सांसें हैं ताके
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
🙏
किसे चाहिये मन का मोती
**********************
सरपट सारे भाग रहे हैं
खोज रहे कोना-कोना,
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
**********************
सरपट सारे भाग रहे हैं
खोज रहे कोना-कोना,
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
कब साम हुई कुछ पता नही,
कब रात हुई कुछ पता नही,
कई बरस अब बीत गये हैं,
सूरज संग आँख मिलाये,
कई बरस अब बीत गये हैं,
चन्दा के संग गाये,
आदत है अब भोर में उठना,
देर रात में सोना....
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
कब रात हुई कुछ पता नही,
कई बरस अब बीत गये हैं,
सूरज संग आँख मिलाये,
कई बरस अब बीत गये हैं,
चन्दा के संग गाये,
आदत है अब भोर में उठना,
देर रात में सोना....
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
हम क्या हैं कुछ पता नही,
हम क्यों हैं कुछ पता नही,
बस दौड़ रहे हैं,
बस भाग रहे हैं,
अंधों सा रस्ता नाप रहे हैं,
न ही कोई शिकवा,
न ही कोई शिकायत,
न ही रोना-धोना....
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
हम क्यों हैं कुछ पता नही,
बस दौड़ रहे हैं,
बस भाग रहे हैं,
अंधों सा रस्ता नाप रहे हैं,
न ही कोई शिकवा,
न ही कोई शिकायत,
न ही रोना-धोना....
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
एक था दुश्मन मेरा बचपन,
झूठे सपने बुनता था,
दुनिया के दस्तूर छोड़कर,
किस्सागोई चुनता था,
खुली सड़क में,
बड़ी अकड़ से,
एक पैर से चलता था,
दाँतों में एक डोर दबाकर,
साथ पतंग के उड़ता था,
पारियां ले आता था जमी पर,
संग उनके खेला करता था,
सब टूट गया,
सब छूट गया,
था कच्चा कोई खिलौना...
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
झूठे सपने बुनता था,
दुनिया के दस्तूर छोड़कर,
किस्सागोई चुनता था,
खुली सड़क में,
बड़ी अकड़ से,
एक पैर से चलता था,
दाँतों में एक डोर दबाकर,
साथ पतंग के उड़ता था,
पारियां ले आता था जमी पर,
संग उनके खेला करता था,
सब टूट गया,
सब छूट गया,
था कच्चा कोई खिलौना...
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
क्या हीर मिलेगी रांझा को,
लैला मजनूँ का पता नही,
रोमियों जूलिएट, शीरी फरहाद,
सोनी महिवाल का पता नही,
क्यों कांटों के पथ आयी सीता,,
किया प्रेम था कोई खता नही,
कितने ही प्रश्न उठे मन में,
जिनका उत्तर है मिला नही,
अब वक़्त कहाँ की जाने हम,
क्यों प्रश्नो का हल मिला नही,
था कौन जिसे न रास आया,
मेरा हँसना रोना,
कर गया कौन जमी पर आके,
मुझपर जादू-टोना,
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
लैला मजनूँ का पता नही,
रोमियों जूलिएट, शीरी फरहाद,
सोनी महिवाल का पता नही,
क्यों कांटों के पथ आयी सीता,,
किया प्रेम था कोई खता नही,
कितने ही प्रश्न उठे मन में,
जिनका उत्तर है मिला नही,
अब वक़्त कहाँ की जाने हम,
क्यों प्रश्नो का हल मिला नही,
था कौन जिसे न रास आया,
मेरा हँसना रोना,
कर गया कौन जमी पर आके,
मुझपर जादू-टोना,
किसे चाहिये मन का मोती,
किसे चाहिये मन का सोना,
......राकेश पांडेय
चंद हाइकु, विषय -"गरीब"
(1)
आँसू प्रसाद
"गरीब" की पूजा में
भावों का भोग
(2)
अम्बर ओढ़ा
"गरीब" की रात का
धरा बिछौना
(3)
"गरीब" घर
सपनों को सुला के
जागे संतोष
(4)
धनी दुनियां
"गरीब" को चिढ़ाती
झूठी खुशियाँ
(5)
फूटा नसीब
असमानता चक्की
पिसा "गरीब"
(1)
आँसू प्रसाद
"गरीब" की पूजा में
भावों का भोग
(2)
अम्बर ओढ़ा
"गरीब" की रात का
धरा बिछौना
(3)
"गरीब" घर
सपनों को सुला के
जागे संतोष
(4)
धनी दुनियां
"गरीब" को चिढ़ाती
झूठी खुशियाँ
(5)
फूटा नसीब
असमानता चक्की
पिसा "गरीब"
स्वरचित
ऋतुराज दवे
ऋतुराज दवे
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